आस्था अपरम्पार : रहस्य है महाप्रभु जगन्नाथ मंदिर के कई चमत्कार
जगन्नाथ धाम को चार वैष्णव धामों में से एक माना जाता है। ओडिशा के पूरी में विराजमान भगवान जगन्नाथ को भगवान विष्णु के पूर्ण कला अवतार श्रीकृष्ण का ही एक रूप माना जाता हैं। महाप्रभु जगन्नाथ को कलयुग का भगवान भी कहते है। पुरी में जगन्नाथ स्वामी अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ निवास करते है। इसे श्री क्षेत्र, श्री पुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं। यहां लक्ष्मीपति ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथ जी की सारी रीतियां करते हैं। भगवान जगन्नाथ के मंदिर में आज भी कई ऐसे चमत्कार होते है जिसका जवाब विज्ञान के पास भी नहीं है।
आंखों पर पट्टी बांध बदली जाती हैं मूर्तियां :
भगवान जगन्नाथ और अन्य प्रतिमाएं उसी साल बदली जाती हैं जब साल में आसाढ़ के दो महीने आते हैं। इस मौके को नव-कलेवर कहते हैं। नई मूर्तियों का हिन्दू विधिवत तरीके से स्थापन किया जाता है। मूर्ति बदलने की इस प्रकिया से भी कई रोचक किस्से जुड़े है। इस विधि के दौरान मंदिर परिसर के साथ लगते क्षेत्र में बिजली काट दी जाती है और पूरा परिसर अँधेरे में डूब जाता है। मुख्य पुजारी के आँखों पर पट्टी बाँधी जाती है, कपाट के बाहर जवान तैनात होते है और मंदिर के भीतर जाने की किसी भी सूरत में अनुमति नहीं मिलती। केवल मुख्य पुजारी को ही प्रवेश करने की अनुमति होती है जो मूर्ति को बदलते है। पुजारी के हाथ में दस्ताने होते है वो पुरानी मूर्ति से “ब्रह्म पदार्थ” निकालता है और नई मूर्ति में डाल देता है।
ब्रह्मा पदार्थ को लेकर कई सवाल बरकरार :
ये ब्रह्म पदार्थ क्या है आजतक किसी को पता नहीं चल पाया, इसे आजतक किसी ने नही देखा पर इससे जुड़ी कई किवदंतियां है और कई रोचक किस्से। इस ब्रह्म पदार्थ का संबंध भगवान श्री कृष्ण से है। मगर, आज तक कोई भी पुजारी ये नहीं बता पाया कि महाप्रभु जगन्नाथ की मूर्ति में आखिर ऐसा क्या है। कुछ पुजारियों का कहना है कि जब हमने उसे हाथ में लिया तो कुछ उछलने जैसा प्रतीत हुआ। मानों जैसे खरगोश उछल रहा हो या जैसे दिल धड़क रहा हो। ब्रह्मा पदार्थ को लेकर सभी के मन में कई सवाल है जिसका जवाब आजतक किसी को पूर्णता नहीं मिल पाया।
सबसे आगे बलराम का रथ, पीछे - पीछे श्रीकृष्ण :
जगन्नाथ की यात्रा दुनिया की सबसे बड़ी रथयात्रा मानी जाती है। हर साल आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान जगन्नाथजी की पुरी में रथ यात्रा निकाली जाती है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ के अलावा उनके बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा का रथ भी निकाला जाता है। इस रथ यात्रा को लेकर मान्यता है कि एक दिन भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने उनसे द्वारका के दर्शन कराने की प्रार्थना की थी। तब भगवान जगन्नाथ ने अपनी बहन की इच्छा पूर्ति के लिए उन्हें रथ में बिठाकर पूरे नगर का भ्रमण करवाया था और इसके बाद से इस रथ यात्रा की शुरुआत हुई थी। जगन्नाथ की रथ यात्रा के बारे में स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी बताया गया है, इसलिए हिंदू धर्म में इसका विशेष है। रथयात्रा के लिए भगवान बलराम, श्रीकृष्ण और देवी सुभद्रा के लिए तीन अलग-अलग रथ निर्मित किए जाते हैं। सबसे आगे बलराम जी का रथ, उसके बाद बीच में देवी सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ श्रीकृष्ण का रथ होता है। बलरामजी के रथ को 'तालध्वज' कहते हैं, जिसका रंग लाल और हरा होता है। देवी सुभद्रा के रथ को 'दर्पदलन' कहा जाता है, जो काले या नीले और लाल रंग का होता है, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ को 'गरुड़ध्वज' कहते हैं। इसका रंग लाल और पीला होता है। इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या अन्य किसी धातु का प्रयोग नहीं होता है। रथों के लिए काष्ठ यानि लकड़ी का चयन बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है। जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा शुरू होकर यह रथ गुंडीचा मंदिर पहुंचते हैं। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं। भगवान जगन्नाथ के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है।
प्रतिमा में है ब्रह्मा जी का वास :
ऐसी मान्यता है कि मंदिर में मौजूद प्रतिमा के अंदर ब्रह्मा जी का वास है। जब श्रीकृष्ण ने धर्म स्थापना के लिए धरती पर अवतार लिया तब उनके पास अलौकिक शक्तियां थी लेकिन शरीर मानव का था। जब धरती पर उनका समय पूरा हो गया तो वो शरीर त्याग कर अपने धाम चले गए। इसके बाद पांडवों ने उनका अंतिम संस्कार किया लेकिन शरीर ब्रह्मलीन होने के बाद भी उनका हृदय जलता रहा। पांडवों ने इसे जल में प्रवाहित कर दिया। जल में हृदय ने लट्ठे का रूप धारण कर लिया और ओडिशा के समुद्र तट पर पहुंच गया व यही लठ्ठा राजा इंद्रद्युम्न को मिल गया।
आज तक अधूरी है मूर्तियां:
मान्यताओं के मुताबिक नरेश इंद्रद्युम्न, जो भगवान विष्णु के भक्त थे उन्हें स्वयं श्री हरि ने सपने में दर्शन दिए और कहा कि पुरी के समुद्र तट पर तुम्हें एक लकड़ी का लठ्ठा मिलेगा, उस से मूर्ति का निर्माण करवाओ। राजा जब तट पर पहुंचे तो उन्हें लकड़ी का लट्ठा मिल गया। अब उनके सामने यह प्रश्न था कि मूर्ति किससे बनवाएं। कहा जाता है कि भगवान विष्णु और स्वयं विश्वकर्मा के साथ एक वृद्ध मूर्तिकार के रूप में प्रकट हुए। वृद्ध मूर्तिकार ने कहा कि वे एक महीने के अंदर मूर्तियों का निर्माण कर देंगें लेकिन इस काम को एक बंद कमरे में अंजाम देंगें। एक महीने तक कोई भी इसमें प्रवेश नहीं करेगा और न कोई तांक-झांक करेगा, चाहे वह राजा ही क्यों न हों। महीने का आखिरी दिन था, कमरे के भीतर से कोई आवाज नहीं आ रही थी। कोई हलचल न देख राजा विचलित हुए और वे अंदर झांककर देखने लगे लेकिन तभी वृद्ध मूर्तिकार दरवाजा खोलकर बाहर आ गए और राजा को बताया कि मूर्तियां अभी अधूरी हैं, उनके हाथ और पैर नहीं बने हैं। राजा को अपने कृत्य पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने वृद्ध से माफी भी मांगी लेकिन उन्होंने कहा कि यह मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जाएगी। अधूरी बनी तीनों मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गईं। आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की मूर्तियां उसी अवस्था में हैं।
विश्व प्रसिद्ध है मंदिर की पाकशाला :
मंदिर के रसोईघर को दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर माना जाता है। मंदिर में 752 चूल्हों पर 500 रसोइए और 300 सहयोगी रसोइए साल भर भोग बनाने के कार्य में जुटे रहते हैं। मंदिर के रसोई घर में जहां महा प्रसाद बनता है वहां बर्तन केवल मिट्टी के होते हैं। यहां बनने वाले भोजन के सात पात्र एक के ऊपर एक रखकर पकाए जाते हैं। अचंभित करने वाली बात ये है की भोग सबसे पहले नीचे नहीं ऊपर के पात्र में पकता है। मंदिर में हमेशा एक ही मात्रा में भोग बनता है लेकिन भक्त की संख्या या घटने पर भी भोग कम या ज्यादा नहीं पड़ता। इतना ही नहीं मंदिर का कपाट बंद होते ही भोग भी खत्म हो जाता है।
यह रहस्य भी कोई नहीं सुलझा पाया :
जगन्नाथ मंदिर करीब चार लाख वर्ग फीट एरिया में है। इसकी ऊंचाई 214 फीट है। आमतौर पर दिन में किसी वक्त किसी भी इमारत या चीज या इंसान की परछाई जमीन दिखाई देती है लेकिन जगन्नाथ मंदिर की परछाई कभी किसी ने नहीं देखी। इसके अलावा मंदिर के शिखर पर जो झंडा लगा है, उसे लेकर भी बड़ा रहस्य है। इस झंडे को हर रोज बदलने का नियम है। मान्यता है कि अगर किसी दिन झंडे को नहीं बदला गया तो शायद मंदिर अगले 18 सालों के लिए बंद हो जाएगा। इसके अलावा ये झंडा हमेशा हवा की विपरीत दिशा में उड़ता है। मंदिर के शिखर पर एक सुदर्शन चक्र भी है। कहा जाता है कि पुरी के किसी भी कोने से अगर इस सुदर्शन चक्र को देखा जाए तो उसका मुंह आपकी तरफ ही नजर आता है। इसी तरह प्रभु जगन्नाथ मंदिर के ऊपर से परिंदे नहीं गुजरते, ये भी एक रहस्य है।
अचंभित करने वाला सिंहद्वार का रहस्य :
जगन्नाथ पुरी मंदिर समुद्र किनारे पर है। मंदिर में एक सिंहद्वार है, कहा जाता है कि जब तक सिंहद्वार में कदम अंदर नहीं जाता तब तक समंदर की लहरों की आवाज सुनाई देती है, लेकिन जैसे ही सिंहद्वार के अंदर कदम जाता है लहरों की आवाज खत्म हो जाती है। इसी तरह सिंहद्वार से निकलते वक्त वापसी में जैसे ही पहला कदम बाहर निकलता है, समंदर की लहरों की आवाज फिर आने लगती है। इसके पीछे क्या कारण है इसका जवाब आजतक किसी को नहीं मिल पाया है।
सोने के झाड़ू से किया जाता है मार्ग साफ:
सूर्योदय से पहले ही रथयात्रा की तैयारियां शुरू हो जाती है। इस यात्रा की एक और खास बात है, इसके शुरू होने से पहले इसके मार्ग को 'सोने की झाड़ू' से साफ किया जाता है। इसके बाद रथों की पूजा की जाती है, फिर रथों को खींचकर जगन्नाथ मंदिर से 3 कि.मी. दूर गुंडीचा मंदिर ले जाते हैं। इस स्थान को भगवान की मौसी का घर कहते है, जहां तीनों भाई-बहन 7 दिनों तक आराम करते हैं और इसके बाद फिर आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ वापस मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। वापसी की यह यात्रा 'बहुड़ा यात्रा' कहलाती है।