अनूठा इतिहास और अथाह खूबसूरती समेटे हुए है 'डलहौजी'
देवभूमि हिमाचल प्रदेश पर्यटन की दृष्टि से तो खूबसूरत है ही, यहां का इतिहास भी शानदार है। ब्रिटिश राज के समय हिमाचल के कई शहरों को अंग्रेजों ने विकसित किया था जहां आज भी उनकी छाप दिखाई देती है। खुद में अनूठा इतिहास समेटे ऐसा ही एक खूबसूरत शहर है डलहौजी। हिमाचल का डलहौजी लोकप्रिय विश्व पर्यटन केंद्र है जो भारतीय और अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों को आकर्षित करता है। यहां स्कॉटिश और विक्टोरियन वास्तुकला की हवा की महक और परिवेश ब्रिटिश काल की याद दिलाते है। अंग्रेज यहां की प्राकृतिक सुंदरता को देखकर मंत्रमुग्ध हो उठे थे। डलहौजी हिल स्टेशन गर्मियों के समय अंग्रेजों के सबसे पसंदीदा स्थानों में से एक था, जिसकी वजह से इस क्षेत्र में राजसी विक्टोरियन शैली दिखाई देती है। डलहौजी देश के भीड़ वाले शहरों से दूर अपनी तरह का एक अद्भुत शहर है जो आपको प्रकृति की गोद में होने का अनुभव करवाता है और एक प्रदूषण मुक्त वातावरण प्रदान करता है। डलहौजी को हिमाचल प्रदेश की चम्बा घाटी का प्रवेश द्वार माना जाता है। अंग्रेजी हुकूमत के समय एक स्वास्थ्यव?र्द्धक क्षेत्र के रूप में उभरा डलहौजी आज विश्वभर में एक सुप्रसिद्ध पर्यटक स्थल के रूप में जाना जाता है। यहां पंजपूला, सुभाष बावड़ी, सतधारा व कलातोप खजियार अभयारण्य आदि पर्यटक स्थल विद्यमान हैं।
लार्ड डलहौजी के नाम पर हुआ शहर का नामकरण
डलहौजी 1854 में अस्तित्व में आया था जब ब्रिटिश शासन के दौरान पांच पहाड़ियों को चंबा के राजा से प्राप्त किया गया। बैलून, कथलग, पोटरियां, टिहरी और बकरोटा इन खूबसूरत पांच पहाड़ियों पर डलहौजी बसा है। सन 1854 में ब्रिटिश सेना के कर्नल नेपियर ने डलहौजी को ब्रिटिश सेना और अधिकारियों के लिए यहां की जलवायु को देखते हुए हेल्थ रिसोर्ट के रूप में चुना था। डलहौजी पहले पंजाब के गुरदासपुर के अंतर्गत आता था, लेकिन 1966 में हिमाचल प्रदेश के पुनर्गठन के समय हिमाचल के चंबा में शामिल हो गया। डलहौजी का नाम लार्ड मैकलियोड के कहने पर 1854 में भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड डलहौजी के नाम पर रखा गया, जबकि लार्ड डलहौजी कभी भी डलहौजी नहीं आए। 1863 में जीपीओ जिसे गांधी चौक के नाम से भी जाना जाता है, यहां पहले चर्च सेंट जॉन का निर्माण किया गया। 1870 में डलहौजी में बुलज हेड के नाम से पहला होटल बना जिसे अब होटल माउंट व्यू के नाम से जाना जाता है। 1873 में रविंद्र नाथ टैगोर डलहौजी आए और उन्हें गीतांजलि लिखने की प्रेरणा मिली। 1884 में रुडयार्ड किपलिंग डलहौजी आए। तभी से यह प्रसिद्ध पर्यटक स्थल के रूप में जाना जाने लगा। 1954 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू डलहौजी के सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य पर होने वाले कार्यक्रम में भाग लेने डलहौजी आए। 1959 में तिब्बती शरणार्थी डलहौजी में बसे। सन 1962 ,1988 में दलाई लामा ने भी डलहौजी का दौरा किया। 1966 में जब से डलहौजी हिमाचल प्रदेश का एक हिस्सा बना है तब से यह दुनिया के एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल के रूप में जाना- जाने लगा है।1937 में सुभाष चंद्र बोस डलहौजी स्वास्थ्य लाभ के लिए आए थे।
नेताजी का रहा है खास नाता
1937 में जब अंग्रेजों की कैद में रहते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस को क्षय रोग हो गया था तब नेताजी डलहौजी आये थे। क्षय रोग होने के कारण अंग्रेजों ने उन्हें रिहा कर दिया था और रिहा होने के बाद वे डलहौजी आ गए थे। यहां रहकर उनके स्वास्थ्य में सुधार हुआ और उन्हें काफी राहत मिली। नेताजी यहां लगभग 5 महीने रुके थे और वे जिस होटल और कोठी में ठहरे थे, वह आज भी मौजूद हैं। उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए बेड, कुर्सी, टेबल और अन्य सामान भी संभालकर रखा गया है। नेताजी जिस कमरे में ठहरे थे, वहां अब लोगों का जाना वर्जित है। नेताजी डलहौजी के सबसे पुराने गांधी चौक पर स्थित होटल मेहर के कमरा नंबर 10 में रहे थे। इसी दौरान जैन धर्मवीर को नेताजी के डलहौजी का आने का पता चल गया और उन्होंने नेताजी से गांधी चौक के पास पंजपुला मार्ग पर स्थित कोठी कायनांस में रहने का आग्रह किया, जिसे नेताजी ने मान लिया। नेताजी होटल छोड़कर कोठी में रहने चले गए। जैन धर्मवीर, नेताजी के सहपाठी रहे कांग्रेस नेता डॉ. धर्मवीर की पत्?नी थीं। कोठी जाते समय नेताजी का शहरवासियों ने भव्य स्वागत किया था। 5 महीने नेताजी डलहौजी में रहे और इस दौरान वे रोजाना करेलनू मार्ग पर सैर करते थे और बावड़ी का पानी ही पीते थे। बावड़ी के पास मौजूद जंगल में बैठकर प्रकृति से संवाद करते थे। नियमित सैर और बावड़ी का पानी पीकर नेताजी को काफी स्वास्थ्य लाभ हुआ। बावड़ी को आज भी सुभाष बावड़ी के नाम से जाना जाता है। शहर के एक चौक का नाम भी नेताजी के नाम पर सुभाष चौक रखा गया है। चौक पर नेताजी की विशाल प्रतिमा लगी हुई है। स्वस्थ होने पर नेताजी डलहौजी से लौट गए थे।
सुभाष बावड़ी का जल पीकर स्वस्थ हुए थे नेताजी
सुभाष बावड़ी डलहौजी में गांधी चौक से एक किमी दूर स्थित एक ऐसी जगह है जिसका नाम प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस के नाम पर रखा गया।है। यह खूबसूरत स्थान डलहौजी में 6678 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और बर्फ से ढके पहाड़ों का खूबसूरत नजारा पेश करता है। सुभाष बावड़ी वो जगह है जहाँ पर सुभाष चंद्र बोस 1937 में स्वास्थ्य की खराबी के चलते आये थे और वो इस जगह पर 7 महीने तक रहे थे। इस जगह पर रह कर वे बिलकुल ठीक हो गए थे। माना जाता है कि सुभाष चंद्र बोस डलहौजी की यात्रा करते थे तो वह इस स्थान पर आते थे। यहाँ पर एक खूबसूरत झरना भी है जो हिमनदी धारा में बहता है।
बकरोटा हिल्स में ठहरे थे गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर
बकरोटा हिल्स डलहौजी के सबसे आकर्षक पर्यटन स्थलों में से एक है। बकरोटा हिल्स को अपर बकरोटा के नाम से भी जाना जाता है, यह डलहौज़ी का सबसे ऊंचा इलाका है और यह बकरोटा वॉक नाम की एक सड़क का सर्किल है, जो खजियार की ओर जाती है। पूरा क्षेत्र देवदार के पेड़ों से घिरा हुआ है। अंग्रेजों के समय बकरोटा में कई भव्य इमारतों का निर्माण हुआ था, जो करीब पौने दो सौ साल बाद भी भव्य शैली को कायम रखे हुए हैं। बकरोटा का संबंध रविंद्रनाथ टैगोर से भी रहा है। वह 1873 में 12 वर्ष की आयु में पिता महर्षि देवेंद्र नाथ टैगोर के साथ डलहौजी आए थे और स्नोडन नामक कोठी में ठहरे थे। बकरोटा हिल्स में लोग ट्रैकिंग करना पसंद करते हैं क्योंकि यह खूबसूरत नजारों से भरपूर है।