ठारह करडू का देश बना कुलूत, हुई दुनिया की पहली मूर्ति पूजा
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- आज भी समृद्ध कुल्लू की देव संस्कृति, सभी देवताओं के जगती स्थल
हिमाचल प्रदेश देवभूमि है और यहाँ सनातनी संस्कृति की जड़े विधमान है। दुनिया की सबसे पहली मूर्ति हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में स्थापित हुई थी, और संसार में पहली बार यहीं पर मूर्ति पूजा भी हुई थी। कई इतिहासकारों और लेखकों ने इसका उल्लेख किया है। इसमें भी कोई संशय नहीं कि कुल्लू की देव संस्कृति बेहद समृद्ध है, और आज के दौर में भी हम यहाँ प्राचीन आर्यों के जीवन की एक झलक देख सकते हैं।
कुल्लू को ठारह करड़ू का देश कहा जाता है। ठारह करडू की कहानी दिलचस्प है। प्रचलित अनुश्रुति है कि एक बार महर्षि जमदग्नि कैलाश की परिक्रमा करके स्पीति के रास्ते कुल्लू की ओर आ रहे थे। महर्षि अपने साथ एक टोकरी में अठारह देवताओं की प्रतिमाएं उठाए हुए थे। वे कुछ समय हामटा नामक स्थान पर ठहरे और फिर मलाणा की ओर बढे। इस दौरान जब वह चन्द्रखणी पर्वत पर पहुंचे तो प्रचंड हवा चली और टोकरी में रखी सभी प्रतिमाएं उड़ कर दूर- दूर जा गिरी। अनुश्रुति है कि जहां-जहां वे प्रतिमाएं गिरीं, वहां वे देवता रूप में प्रकट हो गईं। तब हर एक प्रतिमा के लिए एक अलग टोकरी बनी, जिसे कुल्लई ज़बान में करडू, करड़ी, करण्डी या कण्डी कहते हैं।
राजनितज्ञ एवं प्रख्यात लेखक स्वर्गीय लाल चंद प्राथी अपनी पुस्तक 'कुलूत देश की कहानी में मूर्ति स्थापित होने के इस प्रसंग का उल्लेख किया है। प्राथी लिखते हैं कि इसी के साथ देवता जो इससे पूर्व निराकार था, कुल्लुत देश में मूर्ति के रूप में साकार हो गया और सम्भवत: सबसे पहले मूर्ति पूजा भी यहां शुरू हुई। लाल चंद प्रार्थी लिखते हैं कि जब प्राचीन आर्य ऋषि सप्त सिन्धु में रहते थे। जब वेदों की रचना हो रही थी, जब संसार में मूर्ति का कोई विचार तक नहीं था और वैदिक ऋषि प्रकृति की शक्तियों को ही निराकार देवता के रूप में मानते थे, तब कुलूत देश को महर्षि जमदग्नि ने अठारह प्रतिमाएं देकर इसे ठारह करडू का देश बना दिया था।
कुल्लू में सभी देवताओं के कुछ पर्व एवं दिन निश्चित होते हैं, जिस दिन गूर या माली देवता के रथ या मूर्ति के सामने बैठकर समस्याओं का निवारण करता है। कुल्लू के सभी देवी-देवताओं के अपने-अपने जगती स्थल हैं। कुल्लू में लगभग सभी देवी-देवताओं के मंदिरों के बाहर एक चबूतरा बना होता है, जिसे थौल कहते हैं। देवता इस पर बैठता है। इसके सामने पटड़ी जो लकड़ी का फट्टा होता है, जिस पर बैठकर गूर लोगों की समस्याओं का निराकरण करता है। मान्यता है कि जब देवता का जन्मदिन होता है, देवता स्वर्गलोक से या देवयात्रा से लौटकर आता है, या कोई अन्य विशेष अवसर होता है, तब गूर जगती पर बैठकर अपना इतिहास सुनाता है और प्रजा की सुख-समृद्धि के उपाय बताता है।
- राजपरिवार का मुखिया करता है जगती पूछ का आयोजन
जब कभी देश पर विकट संकट आता है मसलन प्राकृतिक आपदा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, भुखमरी आदि,
तो नग्गर गांव में कुल्लू भर के देवता इकठ्ठे होते हैं, जिसे जगती पूछ कहते हैं। जगती पूछ का आयोजन कुल्लू के राजपरिवार का प्रमुख देवी- देवताओं के आदेशानुसार करता है और कुल्लू स्थित राजमहल से ठारह करडू का धड़छ मान सम्मान सहित परंपरानुसार इस स्थल पर लाया जाता है। सभी देवी-देवताओं के प्रतिनिधि गूर और पुजारी अपने-अपने देवताओं के घंटी और धड़छ लेकर इस पवित्र स्थान पर इकठ्ठे होते हैं। देवता यहां इकठ्ठे होकर जगत के कल्याण के लिये विचार-विमर्श करते हैं।
यहां पर 5 इंच मोटा 6 फुट चैड़ा और 8 फुट लंबा पत्थर है जिसे जगती पौट कहते हैं। जनश्रुति है कि जगती पौट की इस शिला को कुल्लू के समस्त देवी-देवताओं ने मधुमखियों का रूप धारण कर भृगुतुंग पहाड़ी के एक छोटे से भाग द्राम ढोग से लाकर नग्गर में स्थापित किया था।
- कुल्लू दशहरे में होती है छोटी जगती
कुल्लू दशहरे में भी छोटी जगती होती है। दशहरे में आए हुए देइ -देवता इसमें शामिल होते हैं। ये आयोजन भगवान रघुनाथ के शिविर में करवाया जाता है और इसमें नग्गर की देवी त्रिपुरासुंदरी, कोटकंढी के पंजवीर देवता तथा जमलू देवता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार बारी-बारी से सभी देवताओं के गूरों के पास जाते हैं और उनसे अपने विचार प्रकट करने का अनुरोध करते हैं। सभी गूर एक-एक करके अपनी बात रखते हैं। आवश्यकता अनुसार कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में भी जगती पूछ का आयोजन होता है।
'कुलूत देश की कहानी' में लाल चाँद प्रार्थी ने लिखा है - " कुल्लू मान करता है अपनी प्राचीनतम संस्कृति पर, अपनी दंवी सम्पत्ति पर, अश्पनी उज्ज्वल परम्पराओं और अद्भुत लोक कलाओं पर, और उपयुक्त रूप से गर्व करता है उन अनुश्रुतियों पर जो उसने अपने हृदय में हज़ारों लाखों सालों से सुरक्षित रखी हैं......उस युग से जब अभी संसार की पहली पुस्तक ऋग्वेद भोजपत्र पर लिखी नहीं गई थी, जब मानव की कल्पना वैज्ञानिक शक्ति के प्रभाव में नहीं आई थी। हाँ ! कुल्लू कृतज्ञ है प्रकृति की उदारता का जिसने इसे यह भौगोलिक स्थिति प्रदान की, और जिस की अनुकम्पा से वह न्यूनाधिक सुरक्षित रहा उन सभी प्रभावों से जो हर दौर में बाहर के आक्रमण कारियों के कारण सप्त सिन्धु श्रौर पंजाब की सभ्यता को बार बार मिट्टी में मिलाते रहे। "