पयर्टन की दृष्टि से हिमाचल प्रदेश देशभर के मुख्य स्थलों में सबसे ऊपर है। इसी के अन्तर्गत जिला बिलासपुर भी किसी से कम नहीं, जहाँ पर्यटन स्थलों की लम्बी सूची देखी जा सकती है। इस दृष्टि से बिलासपुर जिला में राजाओं के समय बनाये गए किले अपना विशेष महत्व रखते हैं जिनका पहाड़ी के शीर्ष पर पर्यावरणीय और प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण वातावरण में स्थापन किया गया है। जिला बिलासपुर की तहसील घुमारवीं के त्यून खास का किला उनमें से एक है। त्यून किले के अवशेष त्यून श्रेणी के नाम से जानी जाने वाली पहाड़ी जो सतरह किलोमीटर लम्बी है के शिखर पर स्थित है। घुमारवीं से इसकी दूरी लगभग दस किलोमीटर है और बिलासपुर मुख्यालय से लगभग पैंतालीस किलोमीटर है। खण्डहरनुमा यह किला अपने भीतर डरा देने वाली अनेक कहानियों/स्मृतियों को समेटे हुए हैं। यह आज भी उस प्राचीन युद्ध मय अशान्त समय की याद दिलाता है,जहाँ विशाल मालखाना था और वहाँ पर राजाओं के समय में बड़ी संख्या में हथियार जमा किये जाते थे।इस क्षेत्र में युद्ध एक नियमित विशेषता थी। राजा काहन चंद ने इस का निर्माण 1142 विक्रमी संवत में करवाया था। किले का क्षेत्रफल लगभग 14 हेक्टेयर है और आकार में यह आयताकार है। इसकी लम्बाई 400 मीटर और चौडा़ई 200 मीटर है । इस किले की दीवारों की ऊँचाई 2 से लेकर 10 मीटर तक लगभग है। किले के मुख्य द्वार की ऊँचाई 3 मीटर व चौड़ाई 5 या 5 1/2मीटर है। पानी की व्यवस्था हेतु दो टैंक और दो बड़े-बड़े अन्न भण्डार थे जिनमें लगभग 3000 कि0 ग्रा0 से भी अधिक अन्न रखा जा सकता था। आज इन ऐतिहासिक किलों को पयर्टन की दृष्टि से विकसित करने के लिए कार्य किया जा सकता है। फोरलेन से लगते गाँव पनोह से त्यून किले तक करीब 10किलोमीटर पैदल टरैक बनाया जा सकता है। ताकि पयर्टक इस पर ट्रैकिंग कर सकें। पनोह से किरतपुर -नेरचौक- कुल्लू मनाली फोरलेन गुजर रहा है। इसे जब ट्रैक से जोड़ा जायेगा तो देश विदेश से लोग इस किले के सौंदर्य को निहारने के लिए त्यून खास अवश्य पहुंचेंगे। इस प्रकार इन किलों को पयर्टन के लिए विकसित किया जियेगा तो जनता को सुविधाएं और सरकार को आय का साधन बनेगा।
अभियंता दिवस (इंजीनयर्स डे) 15 सितंबर को देश भर के इंजीनियर्स को सम्मान देने के लिए मनाया जाता है। भारत रत्न मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया भारत वंश के महान इंजीनियर थे, जिन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए उनके जन्म दिवस के दिन यह दिवस मनाया जाता है। एक इंजीनियर के रूप में उन्होंने बहुत से अद्भुत काम किए। विश्वेश्वरैया ने 1917 में बैंग्लोर में सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना की, यह देश का पहला सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज था। मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को बतौर इंजीनियर सफलतापूर्वक अपना काम करने के लिए 1955 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। यह दिन आधुनिक भारत की रचना में अपना बड़ा सहयोग देने वाले मोक्षगुंडम व भारत के सभी प्रतिभाशील इंजीनियर्स के नाम समर्पित है। मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया प्रेरणा है हर हिंदुस्तानी के लिए : विश्वेश्वरैया का जन्म 15 सितम्बर को 1860 में मैसूर रियासत में हुआ। विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा जन्मस्थान से ही पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने बंगलूर के सेंट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। इंजीनियरिंग पास करने के बाद विश्वेश्वरैया को बॉम्बे सरकार की तरफ से जॉब का ऑफर आया, और उन्हें नासिक में असिस्टेंट इंजिनियर के तौर पर काम मिला। मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया एमवी के नाम से भी विख्यात हैं। जब वह केवल 32 वर्ष के थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया। एमवी ने इस बाँध के लिए नए ब्लॉक सिस्टम का भी इजाद किया जो बाढ़ के पानी को भी रोकने में सक्रिय था। उनके इस निर्माण की सराहना उस दौरान ब्रिटिश सरकार ने भी की। कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए मोर्टार भी तैयार किया गया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था। एमवी शिक्षा की महत्तवता को अच्छी तरह समझते थे और वे समझते थे कि एक व्यक्ति की गरीबी का मुख्य कारण अशिक्षित होना ही है। उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। उन्होंने कई इंजीनियरिंग कॉलेजों का निर्माण करवाया ताकि देश में विकास कि गति को बढ़ाया जा सके। पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से और भी अधिक विकसित किया गया ।1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। मैसूर का दिल थे विश्वेश्वरैया, आज भी किया जाता है याद : विश्वरैय्या ने मैसूर को एक अलग पहचान दिलवाने व रियासत के विकास में एक हैं भूमिका निभाई। कृष्णराज सागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील वर्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फ़ैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ़ मैसूर समेत कई संस्थान उनकी कोशिशों का नतीजा हैं। विश्वेश्वरैया लोगों की समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे। फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया एवं आर्थिक स्तिथि सुधारने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ मैसूर खुलवाया। उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। उन्होंने कई इंजीनियरिंग कॉलेजों का निर्माण करवाया ताकि देश में विकास कि गति को बढ़ाया जा सके। पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से और भी अधिक विकसित किया गया । 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। वह रेल की पटरी और एक अनोखा मुसाफिर : विश्वरैय्या के बारे में एक और कहानी प्रचलित है। कहा जाता है कि अंग्रेज़ों के शासन काल के दौरान एक ब्रिटिश भारतीय रेल गाड़ी सफर के मध्य में थी। जहाँ ज़्यादातर मुसाफिर ब्रिटिश थे वहीं एक हिन्दुस्तानी मुसाफिर भी वहां मौजूद था। साधारण वेशभूषा , साँवलका रंग, छोटा कद और गंभीर अभिव्यक्ति। उस व्यक्ति को अनपढ़ समझ कर सभी उसका मज़ाक उड़ा रहे थे परन्तु उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था तभी अचानक उस व्यक्ति ने उठ कर ट्रेन की इमरजेंसी चेन खींच दी। चेन खींचने पर सभी अन्य यात्रियों ने उन्हें भला बुरा कहना शुरू कर दिया। गार्ड ने व्यक्ति से चेन खींचने के कारण पर सवाल किया। व्यक्ति ने कहा "मेरा अनुमान है यहाँ से कुछ दूर पटरी टूटी हुई है" और जब इसके बाद पटरी का निरीक्षण किया गया तो वाकई पटरी कुछ हिस्सों से टूटी हुई थी व उसके पेंच खुले हुए थे। उस व्यक्ति ने यह अनुमान रेलगाड़ी के चलने से आ रही आवाज़ की ध्वनि से लगाया। इस तरह उस व्यक्ति ने कई लोगों की जान बचाई और ट्रेन हादसे को होने से रोका। यह अद्धभुत व्यक्ति कोई और नहीं बल्क़ि एमवी ही थे। कैसा होता देश अगर इंजीनयर्स न होते : इंजीनियर्स के बिना आज के भारत की कल्पना भी कर पाना मुश्किल होता। कैसा होता वह देश जहाँ एक भी बाँध न होता,देश की सुरक्षा के लिए सैनिक हथियार न होते, बिजली न होती, रेल मार्ग न होते, गाँवों को शहरों से जोड़ती सड़क न होती, यातायात के आधुनिक साधन न होते। कितना मुश्किल होता देश का विकास इंजीनियर्स के इस महान योगदान के बिना। जहाँ एक और देश को डिजिटल किया जा रहा है वहीँ यह सोचना भी ज़रूरी है कि क्या यह काम भी कभी इंजीनियर्स के बिना हो पाता। कोरोना काल में मिल रही वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग कि सुविधा भी इंजीनयर्स कि ही देन है जिसके कारण रोज़-मर्रा की ज़िन्दगी बे-हद आसान हो गई है।
राइफलमैन संजय कुमार और कैप्टेन विक्रम बत्रा को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया कारगिल युद्ध में हिमाचल के 52 जवानों ने अपने जीवन का बलिदान दिया था। इसमें कांगड़ा जिले के सबसे अधिक 15 जवान शहीद हुए थे। मंडी जिले से 11, हमीरपुर के सात, बिलासपुर के सात, शिमला से चार, ऊना से दो, सोलन और सिरमौर से दो-दो जबकि चंबा और कुल्लू जिले से एक-एक जवान शहीद हुआ था। कारगिल युद्ध में पहले शहीद कैप्टेन सौरभ कालिया भी हिमाचल के पालमपुर से ही ताल्लुख रखते थे। हिमाचल प्रदेश के राइफलमैन संजय कुमार और कैप्टेन विक्रम बत्रा को परमवीर चक्र से भी सम्मानित किया गया। दुश्मन की मशीनगन से ही दुश्मन को भून डाला संजय कुमार ने हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले के रहने वाले संजय कुमार को इसी अदम्य साहस के लिए परमवीर चक्र का सम्मान मिला।प्वाइंट 4875 पर राइफलमैन संजय कुमार की बहादुरी ने भारतीय सेना को आगे बढ़ने का आधार दिया था। एक दिन पूर्व ही इस प्वाइंट पर संजय कुमार की चीते सी फुर्ती से दुश्मन पर कहर बनकर टूटी थी। संजय कुमार प्वाइंट 4875 पर पहुंचे ही थे कि उनका सामना दुश्मन के आटोमैटिक फायर से हो गया। संजय कुमार तीन दुश्मनों के साथ गुत्थमगुत्था हो गए। हैंड टू हैंड फाइट में संजय कुमार ने तीनों को मौत के घाट उतार दिया। दुश्मन टुकड़ी के शेष जवान घबराहट में अपनी यूनिवर्सल मशीन गन छोड़कर भागने लगे। बुरी तरह से घायल संजय कुमार ने उसी यूएमजी से भागते दुश्मनों को भी ढेर कर दिया। कैप्टेन विक्रम बत्रा की शाहदत की कसमें खाते है सैनिक पहली जून 1999 को कैप्टेन विक्रम बत्रा की टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प और राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया।विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया।विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो पुरे हिन्दुस्तान में उनका नाम छा गया। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया, जिसकी बागडोर भी विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा। कारगिल के युद्ध के दौरान उनका कोड नाम 'शेर शाह' था। पॉइट 5140 चोटी पर हिम्मत की वजह से ये नाम मिला।कारगिल युद्ध में कैप्टन विक्रम बत्रा 7 जुलाई को शहीद हो गए।शहीद होने के बाद उन्हें परमवीर चक्र से नवाजा गया।
हिमाचल देवभूमि ही नहीं वीर भूमि भी है। हिमाचल के वीर सपूतों ने जब-जब भी जरूरत पड़ी देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति दी। बात चाहे सीमाओं की सुरक्षा की हो या फिर आतंकवादियों को ढेर करने की, देवभूमि के रणबांकुरे अग्रिम पंक्ति में रहे। सेना के पहले परमवीर चक्र विजेता हिमाचल से ही सम्बन्ध रखते है। कांगड़ा जिला के मेजर सोमनाथ शर्मा ने पहला परमवीर चक्र मेडल हासिल कर हिमाचली साहस से दुनिया का परिचय करवाया था। मेजर सोमनाथ ही नहीं, पालमपुर के कैप्टन विक्रम बत्रा, धर्मशाला के लेफ्टिनेंट कर्नल डीएस थापा और बिलासपुर के राइफलमैन संजय कुमार समेत प्रदेश के चार वीरों ने परमवीर चक्र हासिल कर हिमाचलियों के अदम्य साहस का परिचय दिया है। देश में अब तक दिए गए कुल 21 परमवीर चक्रों में से सबसे अधिक, चार परमवीर चक्र हिमाचल प्रदेश के नाम हैं। 1. मेजर सोमनाथ शर्मा भारतीय सेना की कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर मेजर सोमनाथ शर्मा ने 1947 में पाकिस्तान के छक्के छुड़ा दिए थे। मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत उनकी वीरता के लिए परमवीर चक्र से नवाजा गया। परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी 1923 को कांगड़ा जिले में हुआ था। मेजर शर्मा मात्र 24 साल की उम्र में तीन नवंबर 1947 को पाकिस्तानी घुसपैठियों को बेदखल करते समय शहीद हो गए थे। युद्ध के दौरान जब वह एक साथी जवान की बंदूक में गोली भरने में मदद कर रहे थे तभी एक मोर्टार का गोला आकर गिरा। विस्फोट में उनका शरीर क्षत-विक्षत हो गया। मेजर शर्मा सदैव अपनी पैंट की जेब में गीता रखते थे। जेब में रखी गीता और उनकी बंदूक के खोल से उनके पार्थिव शरीर की पहचान की गई थी। 2. कैप्टेन विक्रम बत्रा विक्रम बत्रा भारतीय सेना के वो ऑफिसर थे, जिन्होंने कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व वीरता का परिचय देते हुए वीरगति प्राप्त की। इसके बाद उन्हें भारत के वीरता सम्मान परमवीर चक्र से भी सम्मानित किया गया। ये वो जाबाज़ जवान है जिसने शहीद होने से पहले अपने बहुत से साथियों को बचाया और जिसके बारे में खुद इंडियन आर्मी चीफ ने कहा था कि अगर वो जिंदा वापस आता, तो इंडियन आर्मी का हेड बन गया होता। परमवीर चक्र पाने वाले विक्रम बत्रा आखिरी हैं। 7 जुलाई 1999 को उनकी मौत एक जख्मी ऑफिसर को बचाते हुए हुई थी। इस ऑफिसर को बचाते हुए कैप्टन ने कहा था, ‘तुम हट जाओ. तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं’। 3. मेजर धनसिंह थापा मेजर धनसिंह थापा परमवीर चक्र से सम्मानित नेपाली मूल के भारतीय सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान वर्ष 1962 मे मिला। वे अगस्त 1949में भारतीय सेना की आठवीं गोरखा राइफल्स में अधिकारी के रूप में शामिल हुए थे। भारत द्वारा अधिकृत विवादित क्षेत्र में बढ़ते चीनी घुसपैठ के जवाब में भारत सरकार ने "फॉरवर्ड पॉलिसी" को लागू किया। योजना यह थी कि चीन के सामने कई छोटी-छोटी पोस्टों की स्थापना की जाए। पांगॉन्ग झील के उत्तरी किनारे पर 8 गोरखा राइफल्स की प्रथम बटालियन द्वारा स्थापित एक पोस्ट थी जो मेजर धन सिंह थापा की कमान में थी। जल्द ही यह पोस्ट चीनी सेनाओं द्वारा घेर ली गई। मेजर थापा और उनके सैनिकों ने इस पोस्ट पर होने वाले तीन आक्रमणों को असफल कर दिया। थापा सहित बचे लोगों को युद्ध के कैदियों के रूप में कैद कर लिया गया था। अपने महान कृत्यों और अपने सैनिकों को युद्ध के दौरान प्रेरित करने के उनके प्रयासों के कारण उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। 4. राइफल मैन संजय कुमार परमवीर राइफलमैन संजय कुमार, वो जांबाज सिपाही है जिन्होंने कारगिल वॉर के दौरान अदम्य शौर्य का प्रदर्शन करते हुए दुश्मन को उसी के हथियार से धूल चटाई थी। लहूलुहान होने के बावजूद संजय कुमार तब तक दुश्मन से जूझते रहे थे, जब तक प्वाइंट फ्लैट टॉप दुश्मन से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले से भारतीय सेना में भर्ती हुए सूबेदार संजय कुमार की शौर्यगाथा प्रेरणादायक है। 4 जुलाई 1999 को राइफल मैन संजय कुमार जब चौकी नंबर 4875 पर हमले के लिए आगे बढ़े तो एक जगह से दुश्मन ऑटोमेटिक गन ने जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी और टुकड़ी का आगे बढ़ना कठिन हो गया। ऐसी स्थिति में गंभीरता को देखते हुए राइफल मैन संजय कुमार ने तय किया कि उस ठिकाने को अचानक हमले से खामोश करा दिया जाए। इस इरादे से संजय ने यकायक उस जगह हमला करके आमने-सामने की मुठभेड़ में तीन पाकिस्तानियों को मार गिराया। अचानक हुए हमले से दुश्मन बौखला कर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनिवर्सल मशीनगन भी छोड़ गए। संजय कुमार ने वो गन भी हथियाई और उससे दुश्मन का ही सफाया शुरू कर दिया।
"या तो मैं लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा। पर मैं आऊंगा जरूर।" भले ही कारगिल युद्ध को 25 वर्ष का वक्त बीत चूका हो लेकिन शहीद कप्तान विक्रम बत्रा की ये पंक्तियाँ आज भी हर हिंदुस्तानी के ज़हन में जीवित है। 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस है और 7 जुलाई वो तारीख है जब कारगिल के हीरो शहीद कप्तान विक्रम बत्रा ने शाहदत का जाम पिया। वहीँ कैप्टेन विक्रम बत्रा जिनके बारे में खुद इंडियन आर्मी चीफ ने कहा था कि अगर वो जिंदा वापस आता, तो इंडियन आर्मी का हेड बन गया होता। पालमपुर में हुई प्रारंभिक शिक्षा कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर 1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर जिले के घुग्गर में हुआ। शहीद बत्रा की मां जय कमल बत्रा एक प्राइमरी स्कूल में टीचर थीं और ऐसे में कैप्टन बत्रा की प्राइमरी शिक्षा घर पर ही हुई थी। शुरुआती शिक्षा पालमपुर में हासिल करने के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए वह चंडीगढ़ चले गए। शहीद कैप्टेन विक्रम बत्रा के स्कूल के पास आर्मी का बेस कैम्प था। स्कूल आते-जाते समय वहां चलने वाली गतिविधियों को देखते रहते थे। सेना की कदमताल और ड्रमबीट की आवाज से उनके रोंगटे खड़े हो जाते थे। शायद यही वो वक्त था जब वे सेना में शामिल होने का मन बन चुके थे। "मां मुझे मर्चेंट नेवी में नहीं जाना, मैं आर्मी ज्वाइन करना चाहता हूं" चंडीगढ़ में पढ़ते वक्त शहीद कैप्टेन विक्रम बत्रा ने मर्चेंट नेवी में जाने के लिए परीक्षा दी। परिणाम आया तो वह परीक्षा पास के चुके थे। कुछ ही दिनों में उनका नियुक्ति पत्र भी आ गया। जाने की सारी तैयारियां हो चुकी थीं। पर उनके मन में कुछ और ही चल रह था। इस बीच एक दिन वह मां की गोद में सिर रखकर बोले, मां मुझे मर्चेंट नेवी में नहीं जाना। मैं आर्मी ज्वाइन करना चाहता हूँ। इसके बाद वही हुआ जो वह चाहते थे। 18 महीने की नौकरी के बाद ही जंग विक्रम बत्रा की 13 JAK रायफल्स में 6 दिसम्बर 1997 को लेफ्टिनेंट के पोस्ट पर जॉइनिंग हुई थी। महज 18 महीने की नौकरी के बाद 1999 में उन्हें कारगिल की लड़ाई में जाना पड़ा। वह बहादुरी से लड़े और सबसे पहले उन्होंने हम्प व राकी नाब पर भारत का झंड़ा फहराया। युद्ध के बीच में ही उन्हें कैप्टन बना दिया गया। जब कहा, 'ये दिल मांगे मोर' 20 जून 1999 को कैप्टन बत्रा को कारगिल की प्वाइंट 5140 को दुश्मनों से मुक्त करवाने का ज़िम्मा दिया गया। युद्ध रणनीति के लिहाज से ये चोटी भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण थी। कैप्टेन बत्रा ने इस चोटी को मुक्त करवाने के लिए अभियान छेड़ा और कई घंटों की गोलीबारी के बाद आखिरकार वह अपने मिशन में कामयाब हो गए। इस जीत के बाद जब उनकी प्रतिक्रिया ली गई तो उन्होंने जवाब दिया, 'ये दिल मांगे मोर,' बस इसी पल से ये पंक्तियाँ अमर हो गई। पाक ने दिया कोडनेम शेरशाह कारगिल वॉर में कैप्टन विक्रम बत्रा दुश्मनों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुके थे। ऐसे में पाकिस्तान की ओर से उनके लिए एक कोडनेम रखा गया और यह कोडनेम कुछ और नहीं बल्कि उनका निकनेम शेरशाह था। इस बात का खुलासा खुद कैप्टन बत्रा ने युद्ध के दौरान ही दिए गए एक इंटरव्यू में दी थी। साथी को बचाते हुए शहीद हुए शेरशाह प्वाइंट 5140 पर कब्जे के बाद कैप्टेन विक्रम बत्रा अगले प्वांइट 4875 को जीतने के लिए चल दिए। ये चोटी समुद्री तट से 17 हजार फीट की ऊंचाई पर है और इस पर कब्जे के लिए 80 डिग्री की चढ़ाई पर चढ़ना था। पहला ऑपरेशन द्रास में हुआ था। कैप्टेन विक्रम बत्रा अपने साथियों के साथ पत्थरों का कवर ले कर दुश्मन पर फ़ायर कर रहे थे, तभी उनके एक साथी को गोली लगी और वो उनके सामने ही गिर गया। वो सिपाही खुले में पड़ा हुआ था। कैप्टेन विक्रम बत्रा और उनके एक साथी चट्टानों के पीछे बैठे थे। हालाँकि उस घायल सिपाही के बचने के आसार बेहद कम थे लेकिन कैप्टेन विक्रम बत्रा ने फैसला लिया की वे उस घायल सिपाही को रेस्क्यू करेंगे। जैसे ही उनके साथी चट्टान के बाहर कदम रखने वाले थे, विक्रम ने उन्हें कॉलर से पकड़ कर कहा, "आपके तो परिवार और बच्चे हैं। मेरी अभी शादी नहीं हुई है। सिर की तरफ़ से मैं उठाउंगा। आप पैर की तरफ़ से पकड़िएगा।' ये कह कर विक्रम आगे चले गए और जैसे ही वो उनको उठा रहे थे, उनको गोली लगी और वो वहीं गिर गए और शहीद हो गए। मरणोपरांत मिला परमवीर चक्र कैप्टेन विक्रम बत्रा को मरणोपरांत भारत का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र दिया गया। 26 जनवरी, 2000 को उनके पिता गिरधारीलाल बत्रा ने हज़ारों लोगों के सामने उस समय के राष्ट्रपति के आर नाराणयन से वो सम्मान हासिल किया।
विजय दिवस… वह गौरवशाली दिन जब भारतीय सेना के जाबाज़ सिपाहियों ने करगिल, द्रास समेत कई भारतीय इलाकों पर कब्जा जमा चुके पाकिस्तानी सेना को धूल चटाकर फिर से यहां तिरंगा लहरा दिया था। भारत के इतिहास में यह ऐतिहासिक दिन हमेशा के लिए दर्ज हो गया… जी हां, आज पूरा देश विजय दिवस मना रहा है। आज के ही दिन भारत के वीरों ने करगिल युद्ध में पाकिस्तानी फौज को करारी मात देकर दुर्गम पहाड़ियों पर तिरंगा फहराया था। इस युद्ध में कई भारतीय वीर सैनिकों ने अपनी प्राणों की आहूति देकर शहीद हो गये। आज का दिन सिर्फ जीत को याद करने का नहीं है, बल्कि सेना के उन जवानों की वीरता, शौर्य, और अदम्य साहस को याद करने का दिन है… जिनके सजदे में देशवासियों का सिर हमेशा से झुकता आया है। आज पूरी देश करगिल युद्ध में शहीद हुए वीर सपूतो को याद कर रहा है। कारगिल युद्ध, जिसे ऑपरेशन विजय के नाम से भी जाना जाता है, मई और जुलाई 1999 के बीच कश्मीर के करगिल जिले में भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ा गया था। पाकिस्तान की सेना और कश्मीरी उग्रवादियों ने भारत की जमीन पर कब्जा करने की कोशिश की, लेकिन भारतीय सेना और वायुसेना ने उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। लगभग 30,000 भारतीय सैनिक और करीब 5000 घुसपैठिए इस युद्ध में शामिल थे। आपरेशन विजय में सेना के 527 जवान शहीद हुए, जिनमें से 52 हिमाचली वीर सैनिक भी शामिल थे . इन वीरों में कैप्टन विक्रम बत्रा , कैप्टन मनोज पांडे, सूबेदार मेजर यादव और संजय कुमार को परम वीर चक्र से नवाजा गया।
In Himachal Pradesh, the Chief Minister has instructed to suspend the implementation of the period-based guest teacher recruitment policy until further orders. CM Sukhwinder Singh Sukkhu announced the decision, emphasizing that a detailed discussion on the matter will take place only after the return of the Education Minister to Shimla. Singh mentioned that the policy would be implemented after thorough consideration. The Chief Minister shared this information with journalists during a conversation at the state secretariat on Saturday. He clarified that guest teachers would be paid on an hourly basis according to the period, and there would be no permanent recruitment on a monthly or annual basis; guest teacher recruitment is temporary.
भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अपनी सादगी के लिए पहचाने जाते हैं। उनकी सादगी की कहानियां जगहाजिर हैं। प्रधानमंत्री बनने तक उनके पास न ही घर था और न कार। अपने ही बेटे का प्रमोशन तक रुकवा दिया था शास्त्री जी ने। लाल बहादुर शास्त्री इतने साधारण थे कि एक बार गृहमंत्री रहते हुए कार से उतरकर गन्ने का जूस पीने लग गये। पत्रकार कुलदीप नैयर की किताब ‘एक जिंदगी काफी नहीं‘ में जिक्र किया है कि "शास्त्री जी उन दिनों नेहरू मंत्रिमंडल से बाहर हो गए थे। मैं हमेशा की तरह शाम को उनके बंगले में गया, जहां अंधेरा छाया हुआ था। बस ड्राइंग रूम की लाइट जल रही थी। लाल बहादुर शास्त्री ड्राइंग रूम में अकेले बैठे अखबार पढ़ रहे थे। ऐसे में जब मैंने पूछा कि बाहर रोशनी क्यों नहीं थी तो उन्होंने जवाब दिया कि अब बिजली का बिल उन्हें खुद देना पड़ेगा और वे ज्यादा खर्च नहीं उठा सकते। लाल बहादुर शास्त्री जब सरकार से बाहर थे तो आलू महंगा होने के कारण उन्होंने उसे खाना छोड़ दिया था। साल 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने निजी इस्तेमाल के लिए एक फिएट कार खरीदी थी। यह कार उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से 5000 रुपये लोन लेकर खरीदी थी, लेकिन अफसोस, कार खरीदने के अगले साल ही 11 जनवरी 1966 को उनकी मृत्यु ताशकंद में हो गई थी। आज भी यह कार उनके दिल्ली स्थित निवास पर खड़ी है। पीएम लाल बहादुर शास्त्री ने कार का लोन जल्दी अप्रूव होने पर पंजाब नेशनल बैंक से कहा था कि यही सुविधा इसी तरह आम लोगों को भी मिलनी चाहिए। शास्त्री जी के निधन के बाद बैंक ने उनकी पत्नी को बकाया लोन चुकाने के लिए पत्र लिखा था। इस पर उनकी पत्नी ललिता देवी ने बाद में फैमिली पेंशन की मदद से बैंक का एक-एक रुपया चुकाया था।
गांधीवादी गुलजारी लाल नंदा दो बार भारत के कार्यवाहक-अंतरिम प्रधानमंत्री रहे। एक बार विदेश मंत्री भी बने थे। आजादी की लड़ाई में गांधी के अनन्य समर्थकों में शुमार नंदा को अपना अंतिम जीवन किराये के मकान में गुजारना पड़ा। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के रूप में 500 रुपये की पेंशन स्वीकृत हुई थी। उन्होंने इसे लेने से यह कह कर इनकार कर दिया था कि पेंशन के लिए उन्होंने लड़ाई नहीं लड़ी थी। बाद में मित्रों के समझाने पर कि किराये के मकान में रहते हैं तो किराया कहां से देंगे, उन्होंने पेंशन कबूल की थी। कहते है किराया बाकी रहने के कारण एक बार तो मकान मालिक ने उन्हें घर से निकाल भी दिया था। बाद में इसकी खबर अखबारों में छपी तो सरकारी अमला पहुंचा और मकान मालिक को पता चला कि उसने कितनी बड़ी भूल कर दी है। आज तो ऐसे नेता की कल्पना भी नहीं की जा सकती जो पीएम और केंद्रीय मंत्री रहने के बावजूद अपने लिए एक अदद घर नहीं बना सका और किराये के मकान में अपनी जिंदगी गुजार दी। दो बार भारत के कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे गुलजारीलाल नंदा सक्रिय राजनीति को अलविदा करने के बाद दिल्ली में किराए के मकान में रहते थे और उनके पास किराया भी नहीं होता था। जब वे किराया नहीं दे सके तो उनकी बेटी उन्हें अपने साथ अहमदाबाद ले गईं। गुलजारीलाल नंदा मुंबई विधानसभा के दो बार सदस्य रहे थे। पहली बार वह 1937 से 1939 तक और दूसरी बार 1947 से 1950 तक विधायक चुने गये थे। उनके जिम्मे श्रम एवं आवास मंत्रालय का कार्यभार था, तब मुंबई विधानसभा होती थी। 1947 में नंदा की देखरेख में ही इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना हुई। मुंबई सरकार में गुलजारीलाल नंदा के काम से प्रभावित होकर उन्हें कांग्रेस आलाकमान ने दिल्ली बुला लिया। फिर नंदा वह 1950-1951, 1952-1953 और 1960-1963 में भारत के योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे। भारत की पंचवर्षीय योजनाओं में उनका काफी योगदान माना जाता है। पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री भी रहे। गुलजारीलाल नंदा दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री भी रहे। पहली बार पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन पर और दूसरी बार लाल बहादुर शास्त्री के निधन पर उन्हें कार्यवाहक प्रधानमंत्री का दायित्व सौंपा गया था। उनका पहला कार्यकाल 27 मई 1964 से 9 जून, 1964 तक रहा। दूसरा कार्यकाल 11 जनवरी 1966 से 24 जनवरी 1966 तक रहा। गांधीवादी विचारधारा के नंदा पहले 5 आम चुनावों में लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। सिद्धांतवादी गुलजारीलाल नंदा अपनी ही पार्टी की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के देश में इमरजेंसी लगाने के फैसले से नाराज हो गए थे। तब वो रेलमंत्री थे। उन्होंने आपातकाल के बाद चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया। इंदिरा गांधी, राजा कर्ण सिंह समेत कई हस्तियां मनाने आईं, लेकिन वे फैसले पर अटल रहे। इसके बाद कभी चुनाव नहीं लड़ा। गुलजारीलाल नंदा ने कभी प्राइवेट काम में सरकारी गाड़ी प्रयोग नहीं की। वे कुरुक्षेत्र में नाभाहाउस के साधारण कमरों में ठहरते थे। परिवार गुजरात में ही था। सन् 1967 के बाद उनका अधिकांश समय कुरुक्षेत्र में गुजरा। वे गृहमंत्री थे तब एक बार दिल्ली निवास से उनकी बेटी डाॅ. पुष्पा यूनिवर्सिटी में फार्म भरने सरकारी गाड़ी में चली गईं। पता चलने पर नंदा खफा हुए। उन्होंने आठ मील गाड़ी आने-जाने का किराया बेटी की तरफ से खुद भरा। आज के दौर में तो ऐसी कल्पना करना भी बेहद मुश्किल है।
तारीख थी 10 जनवरी 1981, जयपुर में रविन्द्र मंच पर एक कार्यक्रम में कवयित्री महादेवी वर्मा मुख्य अतिथि थी और कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्ननाथ पहाड़िया। तब पहाड़िया ने मंच पर बोलते हुए कहा था कि महादेवी वर्मा की कविताएं मेरे कभी समझ नहीं आईं कि वे क्या कहना चाहती हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कह दिया था कि साहित्य ऐसा हो कि जो सबके समझ में आना चाहिए। इसके बाद लेखकों की मंडली ने इंदिरा गांधी से जमकर शिकायत की और आलाकमान ने पहाड़िया को हटा दिया। हिंदुस्तान की सियासत में ऐसा किस्सा कोई दूसरा नहीं है। हालांकि, जानकारों का कहना है कि इसकी पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी, इसके पीछे कई और भी कारण थे। जगन्ननाथ पहाड़िया राजस्थान के पहले दलित मुख्यमंत्री थे। 15 जनवरी 1932 को जन्मे पहाड़िया 6 जून 1980 से जुलाई 1981 तक 11 महीने राजस्थान के सीएम रहे थे। पहाड़िया को 1957 में सबसे कम उम्र का सांसद बनने का मौका मिला, जब वो सांसद चुने गए तब उनकी उम्र महज 25 साल 3 माह थी। उस समय के प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू पहाड़िया से इतने प्रभावित हुए कि पहली मुलाकात में ही कांग्रेस का टिकट दे दिया था। पहाड़िया की राजनीति में एंट्री का एक रोचक किस्सा है, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनसे कहा था कि आप चुनाव क्यों नहीं लड़ते! तब जगन्नाथ पहाड़िया ने जवाब में कहा कि आप मुझे टिकट दे दीजिए मैं चुनाव लड़ लूंगा। इसके बाद 1957 में जगन्नाथ पहाड़िया को सवाई माधोपुर सीट से लोकसभा टिकट दे दिया गया और दूसरी लोकसभा में सबसे कम उम्र के सांसद बनकर सदन में पहुंचे। कहते है पहाड़िया को सीएम की कुर्सी पर लाने वाले खुद संजय गांधी थे। जगन्ननाथ पहाड़िया संजय गांधी के करीबी माने जाते थे। संजय की बदौलत ही वे राजस्थान के एकमात्र दलित सीएम भी रहे। 13 महीने के कार्यकाल में उन्होंने राजस्थान में पूरी तरीके से शराब बंदी कर दी थी। हालांकि कुर्सी छोड़ने का कारण बड़ा ही अजीब बताया जाता है। एक कार्यक्रम में कवित्री महादेवी वर्मा पर उनकी टिप्पणी उनकी सियासत पर भारी पड़ गई। इसके बाद वह राजनीति में मुख्यमंत्री के तौर पर नहीं, राज्यपाल के तौर पर वापिस आए। वे बिहार और हरियाणा राज्य के राज्यपाल रहे।
समृद्ध हिमाचल विविधताओं का राज्य है। यहाँ अलग-अलग जगहों पर परंपराएं, प्रथाएं और रीति-रिवाज सब भिन्न हैं। यहाँ एक ही धर्म और यहां तक की एक जाति में भी स्थान के आधार पर रीति रिवाज बिलकुल अलग होते हैं। इन रीति रिवाजों को अगर जानना है तो आप किसी त्यौहार, मेले और किसी शादी में पहुंच जाएं। यहाँ त्यौहार-मेले और शादियों में कुछ रिवाज़ अदा किये जाये है जिसको देख कर या जानकर आप भी चौंक जाएंगे। ऐसे ही कुछ रीति रिवाज़ो को लेकर पेश है फर्स्ट वर्डिक्ट की यह विशेष रिपोर्ट..... यहाँ बहन बनती है दूल्हा ! हिमाचल प्रदेश के जनजातीय इलाके लाहौल-स्पीति में बहन अपने भाई के लिए दूल्हा बनती है। इसके बाद बड़े धूम धूमधाम से बारात लेकर बहिन दूल्हे के रूप धारण कर भाई की ससुराल पहुंचती है। इसके बाद बहन ही भाभी के साथ 7 फेरे लेती है और नई दुल्हन को ब्याह कर घर ले आती है। जी हाँ, आप बेशक यह पढ़कर चौंक गए होंगे लेकिन ये वास्तविक है और इस रिवाज़ का वर्षों से निर्वहन किया जा रहा है। अगर किसी लड़के की बहन ही न हो तो ऐसी स्थिति में उसका छोटा या बड़ा भाई दूल्हा बनकर जाता है। फिर शादी की सभी रस्में निभाकर दुल्हन को घर ले आता है। यह परम्परा शुरू क्यों हुई यह कह पाना काफी जटिल है लेकिन कहा जाता है कि यह परंपरा लड़के के किसी कारण शादी के दिन घर पर नहीं होने की स्थिति के लिए शुरू किया गया था, लेकिन धीरे-धीरे यह एक परंपरा बन गई। अब तो बहन ही सिर सजाकर दूल्हा बनती है और दुल्हन को घर में लाती है। ब्याह में जोगी रस्म की अदायगी जनेऊ को काफी पवित्र सूत माना जाता है। पुराने समय की बात की जाए तो पहले कम उम्र में ही जनेऊ धारण करवा दिया जाता था, लेकिन अब ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है कि बचपन में जनेऊ धारण किया जाए। हालांकि हर जगह जनेऊ धारण करने का अलग तरीका होता है। हिमाचल प्रदेश में जनेऊ धारण करने का तरीका काफी अलग है। कुछ लोगों के घरों में जनेऊ संस्कार बचपन में ही संपन्न हो जाता है जबकि कुछ लोग इसे विवाह से पहले संपन्न कराते हैं। कहा जाता है कि जब तक कोई पुरुष जनेऊ धारण नहीं करता तब तक वह विवाह नहीं कर सकता है। ऐसे में इस रस्म को शादी समारोह के दौरान ही संपन्न करा दिया जाता है और अगर घर में बड़े भाई का विवाह होता है तो कुछ लोग बड़े भाई के साथ ही छोटे भाई को भी जनेऊ धारण करा दिया जाता है। इस रस्म में लड़के को पहले महंदी लगाई जाती है और फिर उस पर हल्दी का लेप लगाया जाता है. इसके बाद उसे स्नान कराकर भिक्षा दी जाती है, जिस व्यक्ति को जनेऊ पहनाया जाता है उसे जोगी बनाकर कानों में कुंडल की जगह भल्ले, हाथ में एक चिमटा, सोठी और कांधे पर एक थैली टांगकर घर से थोड़ा दूर भेजा जाता है। इस दौरान उसकी मां, बहने और परिवार की बुजुर्ग महिलाएं उसकी झोली में भिक्षा डालती हैं। इसके साथ ही घर की महिलाएं जनेऊ धारण करने वाले पुरुष गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर उसे निभाने की कसम देकर उसे घर वापस लाती हैं। हिमाचल प्रदेश की इस अनोखी जोगी रस्म को शादी ब्याह के अवसर पर हंसी-मजाक के साथ निभाया जाता है। यहाँ शादी में फेरे नहीं लिए जाते... हिमाचल में सबसे अद्भुत शादी किन्नौर की मानी जाती हैं। यहां का विवाह आम शादियों से बिल्कुल अलग होता हैं। यहाँ दूल्हा और दुल्हन न अग्नि के फेरे लेते है और न ही मांग भरना अनिवार्य होता है। यहाँ शादी में बलि दी जाती है। यहां देवी-देवता की मर्जी से ही शादी होती है। शादी से पहले यहां मंदिर में बलि दी जाती है। इसके बाद देवता को घर लाया जाता है। दुल्हन के घर जाने से पहले पुजारी नदी और नालों के पास बुरी शक्तियों को भगाने की पूजा करते हैं। शादी से ठीक पहले दूल्हा-दुल्हन मंदिर में पूजा के लिए जाते हैं। दहेज लेने और देने दोनों पर रोक है, लेकिन वर पक्ष नई नवेली दुल्हन के भविष्य के लिए कुछ सम्पति देने का कागजी वादा करते है, जिसे "पिठ" कहा जाता है। जिला किन्नौर की एक और रिवाज़ काफी प्रचलित है वो है बहु पति विवाह यानि Polyandrous marriage। जिला किन्नौर में महिलाओं को 4 शादियां करने की आजादी है। ज्यादातर मामलों में महिलाएं एक ही परिवार भाइयों से शादी करती हैं। इस विवाह के बारे में स्थानीय लोग बताते है कि महाभारत काल के दौरान पांडव जब अज्ञातवास पर थे, तब वे यहां आए थे। सर्दियों के दौरान गांव की एक गुफा में द्रौपदी और कुंती के साथ उन्होंने कुछ वक्त बिताया था। बाद में यहां के स्थानीय लोगों ने भी कई पतियों वाली परंपरा को अपना लिया। शादी के बाद अगर कोई भाई पत्नी के साथ कमरे में है, तो वह कमरे के दरवाजे के बाहर अपनी टोपी रख देता है। जिससे इस बात का अंदाज़ा लगाया जाता है कि पति-पत्नी एकांत चाहते हैं। ऐसे में उसके दूसरे पति कमरे में नहीं जा सकते। पत्थर मार कर मनाया जाता है मेला राजधानी शिमला से करीब 30 किलोमीटर दूर धामी के हलोग में दीपावली के अगले दिन पत्थर मारने का अनोखा मेला लगता है। सदियों से मनाए जा रहे इस मेले को पत्थर का मेला या खेल कहा जाता है। दीपावली से दूसरे दिन मनाए जाने वाले इस मेले में दो समुदायों के बीच पत्थर मारे जाते हैं। ये सिलसिला तब तक जारी रहता है जब तक कि एक पक्ष लहूलुहान नहीं हो जाता। वर्षों से चली आ रही इस परम्परा को आज भी निभाया जाता है। स्थानीय लोगों की मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि माना जाता है कि पहले यहां हर वर्ष भद्रकाली को नर बली दी जाती थी, लेकिन धामी रियासत की रानी ने सती होने से पहले नर बली को बंद करने का हुकम दिया था। इसके बाद पशु बली शुरू हुई। कई साल पहले इसे भी बंद कर दिया गया। इसके बाद पत्थर का मेला शुरू किया गया। मेले में पत्थर से लगी चोट के बाद जब किसी व्यक्ति का खून निकलता है तो उसका तिलक मां भद्रकाली के चबूतरे में लगाया जाता है। ऐसी दो रातें जब लोग नहीं निकलते है रात को घर से बाहर हिमाचल प्रदेश में साल में 2 दिन ऐसे भी आते हैं जब यहां काली शक्तियों का साया रहता हैं। हिमाचल की ऐसी मान्यता है जिसपर यकीन करना आम इंसान के बस में नहीं हैं, लेकिन प्रदेश के कुछ एक जिलों में इसका खासा प्रभाव देखने को मिलता है। लोगों की माने तो साल के दो दिन ऐसे होते हैं जब शिव के गणों, भूत प्रेत सभी को अपनी मन मर्जी करने की पूरी आजादी होती हैं। तांत्रिक काली शक्तियों को जागृत करने के लिए साधना करते हैं। इस रात को डगयाली (चुड़ैल) की रात का पर्व भी कहा जाता है। राजधानी शिमला में तो लोग अपने दरवाजे में टिम्बर के पत्ते लगाते हैं और अपने देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना भी करते हैं। माना जाता है कि इन 2 रातों में काली शक्तियां पूरे चरम पर होती हैं। इस माह सभी देवी-देवता सृष्टि छोड़ असुरों के साथ युद्ध करने अज्ञात प्रवास पर चले जाते हैं। इस माह की अमावस्या की रात को ही डगयाली या चुड़ैल की रात कहा जाता है। इनसे बचने के लिए ऊपरी शिमला में देवता रात भर खेलते हैं और अपने भक्तों की रक्षा करते हैं। इस दौरान देवता बुरी शक्तियों से लड़ाई करने चले जाते हैं जिस डर के कारण लोग अपने घरों के बाहर दिए या मशाल जलाकर रखते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि इस रात देवताओं और बुरी शक्तियों के बीच की लड़ाई में यदि देवता जीत जाते हैं तो पूरा साल सुख-शांति रहती है। इस दौरान लोगों को रात में बाहर निकलने से परहेज करने की भी बात करते है। बेहद अजीब परम्परा: यहाँ महिलाओं को पहनने पड़ते है कम कपड़े हिमाचल प्रदेश में कुल्लू में पीणी गांव में एक अजीबोगरीब परंपरा सदियों से निभाई जा रही है। यहां हर वर्ष अगस्त माह में पांच दिन तक काला माह मनाया जाता है और इन दिनों में पति-पत्नी एक दूसरे से हंसी-मजाक भी नहीं करते। ये परंपरा पूर्वजों के समय से ही निभायी जा रही है। ऐसी मान्यता है कि अगर कोई महिला इस परंपरा का पालन नहीं करती है तो उसके घर कुछ अशुभ हो सकता है। अजीब बात ये भी है कि पिणी गांव की महिलाएं हर साल सावन के महीने में 5 दिन कपड़े बेहद कम पहनती हैं। कहा जाता है कि इस परंपरा का पालन नहीं करने वाली महिला को कुछ ही दिन में कोई बुरी खबर सुनने को मिल जाती है। इस दौरान पति-पत्नी एक दूसरे से पूरी तरह दूर रहते हैं। पुरुषों के लिए भी इस परंपरा को निभाना बहुत जरूरी माना जाता है। हालांकि, उनके लिए नियम कुछ अलग बनाए गए हैं। पुरुषों को सावन के पांच दिनों के दौरान शराब और मांस का सेवन करना वर्जित है । कहा जाता है कि बहुत समय पहले पिणी गांव में राक्षसों का बहुत आतंक था। इसके बाद ‘लाहुआ घोंड’ नाम के एक देवता पिणी गांव आए। देवता ने राक्षस का वध किया और पिणी गांव को राक्षसों के आतंक से बचाया। बताया जाता है कि ये सभी राक्षस गांव की सजी-धजी और सुंदर कपड़े पहनने वाली शादीशुदा महिलाओं को उठा ले जाते थे। देवताओं ने राक्षसों का वध करके महिलाओं को इससे बचाया। इसके बाद से देवता और राक्षस के बीच 5 दिन तक महिलाओं के कपड़े नहीं पहनने की परंपरा चली आ रही है। माना जाता है कि अगर महिलाएं कपड़ों में सुंदर दिखेंगी तो आज भी राक्षस उन्हें उठाकर ले जा सकते हैं। निसंदेह इस परम्परा को सुन कर या जानकर कर हर कोई चकते में आ सकता है।
वो स्व. लाल चंद प्रार्थी ही थे जिन्होंने प्रदेश में भाषा विभाग और अकादमी की नींव रखी थी और आज भी प्रार्थी का नाम पूरी शिद्दत के साथ लिया जाता है। लोगों के जेहन में आज भी लाल चंद प्रार्थी द्वारा हर क्षेत्र में किए हुए काम को याद किया जाता है। कुल्लू जिला की प्राचीन राजधानी नग्गर गांव में 3 अप्रैल, 1916 को जन्मे लाल चंद प्रार्थी ने कुल्लू जिला के लिए ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश के लिए ऐसे कई कार्य किए हैं जिन्हें भूलना प्रदेश वासियों के लिए मुश्किल है। यही कारण है कि प्रार्थी का नाम आज भी कुल्लू जिला के सिर पर मुकुट की तरह चमक रहा है। स्वर्गीय लाल चंद प्रार्थी न केवल राजनीति के क्षेत्र में कुशल थे बल्कि उनके अंदर साहित्यकार, कवि और गीत-संगीत का हुनर भी खूब भरा हुआ था। स्व. लाल चंद प्रार्थी पांच भाषाओं के विद्वान थे। उन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, फारसी और उर्दू भाषा का बारीकी से ज्ञान था। प्रार्थी आमतौर पर उर्दू भाषा का इस्तेमाल अपने राजनीतिक और अन्य सभाओं के भाषणों में भी किया करते थे। जिससे वे श्रोताओं को कई घंटों तक बांधे रखते थे। उन्होंने उर्दू भाषाओं में कई गजलें और कविताओं की भी रचनाएं की, जिसमें " बजूद-ओ-आदम " रचना खास है। इसमें उर्दू भाषा में कविताएं और गजलें शामिल है जो काफी प्रसिद्ध हुई और गजल के शौकीन उन्हें आज भी शान से पढ़ते और गुनगुनाते हैं। इसके अलावा वे एक अच्छे संगीतज्ञ भी थे। परम्परागत संगीत को संजाए रखने में भी उन्होंने काफी महत्वपूर्ण भमिका निभाई है। - कभी वकील बनना चाहते थे प्रार्थी बताया जाता है कि लालचंद प्रार्थी ने आरंभिक शिक्षा कुल्लू में प्राप्त कर जम्मू में अपने भाई राम चंद्र शास्त्री के पास जाकर संस्कृत भाषा का अध्ययन किया था। तब वकील बनने की इच्छा ने उन्हें लाहौर की ओर आकर्षित किया। उस समय प्रार्थी वकील तो नहीं बन पाए, परंतु आयुर्वेदाचार्य की उपाधि 18 वर्ष की आयु में जरूर प्राप्त कर ली। लाहौर में आयुर्वेदाचार्य की पढ़ाई के दौरान उन्होने अपने विद्यालय के छात्रों का नेतृत्व किया और स्वतन्त्रता संग्राम में कूद गये। 1933 में लाहौर में ही कुल्लू के छात्रों ने मिलकर ‘पीपल्ज लीग’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य समाज सुधार के साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना था। इसी दौरान वह लाहौर में क्रांतिकारी दल के संपर्क में आए। कुल्लू आने पर नग्गर में एक ग्राम सुधार सभा का गठन किया, इसी के माध्यम से उन्होंने लोगों में राष्ट्रीय प्रेम और एकता की भावना का संचार किया। यहां तक कि सरकारी नौकरी छोड़कर कुल्लू के नौजवानों में देशप्रेम की लौ जगा दी। राष्ट्रीय चेतना के प्रसार में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। -तीन बार विधायक और एक बार रहे मंत्री हिमाचल के पुनर्गठन के बाद लाल चंद प्रार्थी तीन बार विधानसभा सदस्य रहे हैं। सबसे पहले 1952 में उन्हें विधानसभा सदस्य नियुक्त किया गया। इसके बाद 1962 और 1967 में भी उन्हें विधानसभा सदस्य चुना गया। 1967 में मंत्री बनने के बाद उन्होंने हिमाचल प्रदेश में भाषा-संस्कृति विभाग और अकादमी की स्थापना की थी। उसके बाद प्रदेश में भाषाओं के संरक्षण पर अभूतपूर्व कार्य हुआ। इतना ही नहीं उस दौरान उन्हें भाषा एवं संस्कृति मंत्रालय के साथ साथ आयुर्वेद मंत्री का कार्यभार भी सौंपा गया था। प्रार्थी को भारत सरकार की ओर से आयुर्वेदा का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। उसके बाद प्रदेश में आयुर्वेद के क्षेत्र में काफी तरक्की हुई। कुल्लू के इतिहास का अपनी कई पुस्तकों में किया है जिक्र लाल चंद प्रार्थी ने कुल्लू जिला के इतिहास को कुल्लू देश की कहानी नामक पुस्तक में लिखकर संजोए रखने का प्रयास किया है। इस पुस्तक में कुल्लू की राजनीति, राजाओं के शासन, संस्कृति और वेषभूषा के साथ साथ भौगोलिक परिस्थितियों का भी उल्लेख किया गया है। इसके अलावा उन्होंने और भी कई पुस्तकों का लेखन किया है जो कुल्लू के इतिहास को लेकर काफी महत्व रखते हैं। - पृथ्वी राज कपूर भी कायल थे प्रार्थी के हुनर के लेखन के साथ ही प्रार्थी की प्रतिभा नृत्य और संगीत में भी थी। उन्हें शास्त्रीय गीत, संगीत और नृत्य की बारीकियों का अच्छा ज्ञान था। उनका यही हुनर उनको मुंबई की ओर भी ले गया था और ‘न्यू थियेटर्स कलकत्ता और न्यू इंडिया कंपनी लाहौर’ की दो फिल्मों में उन्होंने अहम् भूमिका निभाई थी, उनमें से एक ‘कारवाँ’ फिल्म भी थी जो उस दौर में जबरदस्त हिट रही। पृथ्वी राज कपूर के समक्ष उन्होंने जब कुल्लू लोकनृत्य को दर्शाया, तो पृथ्वी राज कपूर उनकी प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं पाए। अपने फिल्मी कलाकारों को पृथ्वी राज कपूर ने कहा था, ‘देखिए इस जवान में सृजन और दिल में चलन है। नाचते वक्त इसका अंग-अंग नाचता है, मस्ती से झूमता है। यह पैदायशी कलाकार है और आप सब नकली ….. ’। लाल चंद प्रार्थी के लिए एक बड़े कलाकार द्वारा कही यह बात मायने रखती है। -1982 में अलविदा कह गए थे प्रार्थी काव्य रचनाओं और साहित्यिक रचनाओं के लिए लाल चंद्र प्रार्थी को चांद कुल्लवी की पहचान दी गई थी। कुल्लू घाटी के इस शेरदिल इंसान के हुनर और जज्बे को देखकर लोग इन्हें शेर-ए-कुल्लू कहते थे।11 दिसंबर, 1982 को कुल्लू का यह चमकता सितारा सदा के लिए खो गया। 11 दिसंबर, 1982 को कुल्लू का यह चमकता सितारा सदा के लिए खो गया। लाल चंद प्रार्थी ने कुल्लू जिला के लिए ही नहीं बल्कि पूरे हिमाचल प्रदेश के लिए ऐसे कार्य किए हैं जिन्हें भूलना प्रदेश वासियों के लिए मुश्किल है। - एक कुशल पत्रकार के रूप में भी किया था काम लाहौर में आयुर्वेदाचार्य की पढ़ाई के दौरान उन्होने ‘डोगरा सन्देश’ और ‘कांगड़ा समाचार’ के लिए नियमित रूप से लिखना शुरू किया था। 1940 के दशक में उनका गीत ‘हे भगवान, दो वरदान, काम देश के आऊँ मैं’ बहुत लोकप्रिय था। इसे गाते हुए बच्चे और बड़े गली-कूचों में घूमते थे। उस समय उन्होंने ग्राम्य सुधार पर एक पुस्तक भी लिखी। यह गीत उस पुस्तक में ही छपा था। उन्होंने कुल्लू जिला के इतिहास को ‘कुल्लूत देश की कहानी’ नामक पुस्तक में लिखकर संजोए रखने का प्रयास किया है। इस पुस्तक में कुल्लू की राजनीति, राजाओं के शासन, संस्कृति और वेषभूषा के साथ साथ भौगोलिक परिस्थितियों का भी उल्लेख किया गया है। इसके अलावा उन्होंने और भी कई पुस्तकों का लेखन किया है जो कुल्लू के इतिहास को लेकर काफी महत्व रखते हैं। -कुल्लुवी नाटी को दिलाई अंतर्राष्ट्रीय पहचान लालचन्द प्रार्थी ने हिमाचल प्रदेश की संस्कृति के उत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। एक समय ऐसा भी था, जब हिमाचल के लोगों में अपनी भाषा, बोली और संस्कृति के प्रति हीनता की भावना पैदा हो गयी थी। वे विदेशी और विधर्मी संस्कृति को श्रेष्ठ मानने लगे थे। ऐसे समय में प्रार्थी जी ने सांस्कृतिक रूप से प्रदेश का नेतृत्व किया। इससे युवाओं का पलायन रुका और लोगों में अपनी संस्कृति के प्रति गर्व की भावना जागृत हुई। बताया जाता है कि कुल्लू जब पंजाब का एक हिस्सा था और पंजाब में अपने लोकनृत्य भांगड़ा को ही महत्त्व मिलता था, उस समय प्रार्थी ने अपने लोकनृत्य के मोह में कुल्लवी नाटी को भांगड़े के समानांतर मंच दिया। उन्होंने लोकनृत्य दल गठित करके स्वयं कलाकारों को प्रशिक्षित करके 1952 के गणतंत्र दिवस के राष्ट्रीय पर्व पर प्रदर्शित किया और पुरस्कृत होने तथा पूर्ण राष्ट्र में इसे पहचान दिलाने का भागीरथी कार्य किया। कुल्लू दशहरे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर लाने का उनका प्रयास सफल हुआ। इसी दशहरे के मंच से कुल्वी नाटी में 12000 नर्तकों और नृत्यांगनाओं के एक साथ नृत्य को गिनीज बुक ऑफ वर्ड रिकार्ड का रिकार्ड स्थापित करना उन्हीं की प्रेरणाओं का परिणाम रहा है। कुल्लू के प्रसिद्ध दशहरा मेले को अन्तरराष्ट्रीय पटल पर स्थापित करना तथा कुल्लू में ओपन एअर थियेटर यानि कला केन्द्र की स्थापना उनके द्वारा ही हुई। कुल्लू-मनाली के पर्यटन को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर विकसित करने उनकी बड़ी भूमिका रही है। उनका यह योगदान अविस्मरणीय रहेगा। -चांद कुल्लवी के नाम से थे प्रसिद्ध चांद कुल्लवी’ या ‘शेर-ए-कुल्लू’ कहें या लाल चंद प्रार्थी कहे, वे हमेशा अपने नाम के साथ अपने जन्म स्थान कुल्लू के साथ ही जुड़े रहना चाहते थे। अपनी मातृ भाषा के साथ उनका अपार स्नेह था। वे स्वयं को राजनीतिज्ञ की अपेक्षा पहले साहित्यकार मानते थे। वह कहा करते थे कि मुझे लोग मंत्री के नाम से तो भूल जाएंगे, परंतु साहित्य के क्षेत्र में मुझे अवश्य याद किया जाएगा।
G20 is a group European Union and 19 countries (Argentina, Australia, Brazil, Canada, China, France, Germany, India, Indonesia, Italy, Japan, Republic of Korea, Mexico, Russia, Saudi Arabia, South Africa, Turkey, UK, and US). The G20 Summit takes place annually, under the leadership of a different or rotating Presidency. Initially focused on macroeconomic problems, the G20 Summit later extended its agenda to include trade, sustainable development, health, agriculture, energy, environment, climate change, and anti-corruption. As India won the G20 presidency in 2023 (Millets years), which resulted in many international-level events taking place in India at various locations. IIT Ropar hosted the G20's 2nd Working Education Group Meeting at Khalsa College in Amritsar from March 15 to March 17, 2023. Among all the entries from Pan India for the expo, only a few got selected to present their work in front of G20 delegates. It’s a proud moment for Himachal Pradesh and Jaypee University of Information Technology, Waknaghat, that our sustainable research work on “Pine needles’ conversion to biofuel for rural empowerment” got selected there. The Directorate of Research Innovation and Development (DRID) team at JUIT is working on many environmental issues in Himachal Pradesh including Pine Pine needles to bio briquettes. At this event, our JUIT’s Vice Chancellor Prof. (Dr.) Rajendra Kumar Sharma was invited with the team members working on the project Prof. Dr. Ashish Kumar and Anup Kumar Sinha (Project Associate). At the event, we got a chance to interact with national and international-level delegates. The team (Anup, Dr. Ashish from civil Engineering, and Dr. Sudhir from Biotechnology and Bioinformatics) is working on this project and developed a cost-effective bio-briquetting technology from Pine needles with calorific value, burning rate, ignition time near to hardwood coal.
आज के समय में लोगों के बीच किसी ना किसी वजह से भेदभाव पैदा हो रहा है। चाहे वो धर्म के आधार पर हो, जाति के आधार पर हो या फिर आर्थिकी के आधार पर। हर तरफ किसी न किसी वजह से लोगों के बीच मतभेद है और एक दूसरे से उचित दूरी भी बना रहे हैं। ये परिवर्तन समाज के हित में न है न कभी हो सकता है। परस्पर प्रेम भाव को जीवंत रखने और समाज के हर वर्ग को मजबूत करने के लिए हर साल 20 फ़रवरी के दिन विश्व सामाजिक न्याय दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को कई तरह के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए भी बनाया गया है। इस दिन नस्ल, लिंग, धर्म, जाति इत्यादि के आधार पर अप्रत्यक्ष रूप से बांटे लोगों को एकजुट किया जाता है। इसके अलावा, लोगों के बीच बढ़ रही सामाजिक दूरी को कम करने के लिए उनसे विभिन्न मुद्दों पर बातचीत भी की जाती है। साल 2007 में संयुक्त राष्ट्र के द्वारा इस दिन को मनाने की सार्वजनिक रूप से घोषणा की गई थी। साल 2009 में इस दिन को पहली बार पूरे विश्व में मनाया गया था। विश्व सामाजिक न्याय दिवस के लक्ष्य को पूरा करने के लिए दुनिया के कई देश संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। इसके अंतर्गत, गरीबी, बेरोजगारी, जाति, लिंग या धर्म के आधार पर बंटे लोगों के बीच एकजुटता लाने का काम किया जा रहा है। हर साल दुनिया के कई देशों में लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य इस दिन को अवसर के रूप में मनाया जाता है। वहीं, भारत ने भी इस ओर कई प्रभावी कदम उठाया है। भारतीय संविधान बनाने के दौरान देश में सामाजिक न्याय का प्रमुखता से ध्यान रखा गया था। वहीं, हमारे संविधान में सामाजिक दूरी को खत्म करने के लिए भी कई प्रावधान मौजूद हैं। भारत सरकार के साथ साथ हिमाचल सरकार भी कई योजनाएं चला रही हैं। इसके अंतर्गत लोगों को समान अधिकार देने की कोशिश की जा रही है। साथ ही समाज में व्याप्त असमानता को जड़ से समाप्त करना है। इससे समस्त समाज का एकसाथ विकास होगा। स्वर्ण जयंती आश्रय योजना से बना सकते है अपना आशियाना स्वर्ण जयंती आश्रय योजना का उद्देश्य जरूरतमदं व्यक्तियों के लिए मकान निर्माण, मुरम्मत के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध करवाना। स्वर्ण जयंती आश्रय योजना के तहत अनुसूचित जाति के नागरिकों को अपना आवास मुहैया कराने के लिए राज्य सरकार मदद करती है। सभी अनुसूचित जाति के परिवार जिनके पास अपना कोई घर नहीं है उन्हें सरकार द्वारा मकान आवंटित किए जाते है। सरकार द्वारा लक्ष्य रखा गया है कि इस वर्ष तक राज्य में सभी अनुसूचित जाति के नाम पर लोगों के पास अपना आवास हो। सरकार द्वारा सभी अनुसूचित जाति के नागरिकों तथा उनके परिवारों के लिए नए मकान दिए जाएंगे। इन मकानों में सभी दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली वस्तुओं तथा सेवाओं की पूरी सुविधा दी जाएगी। हिमाचल प्रदेश राज्य में इस एचपी स्वर्ण जयंती आश्रय योजना का लाभ उठाने के लिए कुछ शर्ते रखी गयी है। आवेदन करने वाला नागरिक हिमाचल प्रदेश का ही मूल निवासी होना चाहिए। समवर्गीय क्रियाकलापो में प्रशिक्षण एवं दक्षता योजना सरकार का इस योजना से उद्देश्य है कि अनुसूचित जाति/जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्प संख्यक,विशेष रूप से सक्षम,विधवा,एकल नारी से सम्बन्धित अभ्यार्थियों को मान्यता प्राप्त संस्थानों से एक वर्ष की अवधि के कम्पयूटर उपयोग व समवर्गीय क्रियाकलापो में प्रशिक्षण दिलाना है। ताकि वे सरकारी/निजी क्षेत्रा में नौकरी हेतु सक्षम बन सकें। इस योजना का लाभ उठाने के लिए अनुसूचित जाति/जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग व अल्प संख्यको से सम्बन्धित हिमाचल प्रदेश के स्थाई निवासी होना चाहिए जिसकी आयु सीमा 18 वर्ष से 35 वर्ष के मध्य हो तथा बीपीएल परिवार से सम्बन्धित हों। कम्प्यूटर प्रशिक्षण हेतु निर्धारित न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता रखते हो। इसके अलावा बीपीएल के उम्मीदवार न मिलने की स्थिति में वे उम्मीदवार जिनके परिवार की वार्षिक आय 2 लाख रूपये से कम हो वे पात्र होंगे। इसके लिए प्रशिक्षण फीस 1350 रूपये प्रति माह तक (1500 रुपए (विशेष रूप से सक्षम के लिये) प्रशिक्षण के दौरान 1,000/- रू0 प्रतिमाह छात्रावृति (विशेष रूप से सक्षम के लिए 1,200/- रू0 प्रति माह) प्रशिक्षण उपरान्त 6 माह तक दक्षता अवधि के दौरान 1500/- रू0 प्रति माह छात्रावृति (विशेष रूप से सक्षम के लिये 1800/- प्रति माह) की सहयता दी जाती है। प्यार के बीच जाति का रोड़ा हुआ खत्म समाज से जाति-पाति का भेदभाव मिटाने और आपसी सौहार्द को बनाए रखने के उद्देश्य से सरकार द्वारा मुख्यमंत्री सामाजिक समरसता अंतरजातीय विवाह योजना शुरू की गई थी। अस्पृश्यता निवारण रोकने के लिए अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन देना भी इस योजना का उद्देश्य है, ताकि समाज से जातिवाद का सफाया हो सके। सरकार की इस योजना का लाभ लेने के लिए जो भी लड़का या लड़की विवाह करेगा, उनमें से एक का अनुसूचित जाति से संबंध होना जरूरी है यानि कि विवाह करने वाले दंपत्ति में एक अनुसूचित जाति और दूसरा गैर-अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाला होना चाहिए। इस पर सरकार द्वारा प्रोत्साहन के रूप में ढाई लाख रुपये की राशि दी जा रही है। अंतरजातीय विवाह पुरस्कार प्राप्त करने के लिए अन्य जातियों के वो व्यक्ति पात्र होंगे जो हिमाचल प्रदेश के स्थाई निवासी होगा। दम्पति की आयु 50 वर्ष से अधिक न हो। विवाह उचित अधिनियम/नियम के अन्तर्गत पंजीकृत हुआ हो। प्रार्थी द्वारा इससे पहले अंतरजातीय विवाह पुरस्कार प्राप्त न किया हो। अन्य जातियों के युवक-युवती को अनुसूचित जाति के युवक-युवती के साथ विवाह करने पर पचास हजार रुपए अथवा समय - समय पर सरकार द्वारा निर्धारित पुरस्कार राशि स्वीकृृत की जाएगी। इस योजना का लाभ उठाने की प्रक्रिया भी बेहद सरल कर दी गई है। इस योजना के अन्तर्गत पुरस्कार राशि प्राप्त करने के लिए पात्र दम्पति को निर्धारित प्रार्थना पत्र पर निम्नलिखित दस्तावेजों सहित सम्बन्धित पंचायत/नगर निकायों के माध्यम से सम्बन्धित तहसील कल्याण अधिकारी/ जिला कल्याण अधिकारी को प्रस्तुत करना होगा। कार्यकारी दण्डाधिकारी से जारी हुआ दम्पति का आयु प्रमाण-पत्र दम्पति का जाति प्रमाण पत्र, हिमाचली प्रमाण पत्र और विवाह पंजीकरण अधिकारी से विवाह पंजीकरण प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य है। अत्याचार से पीड़ित अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के व्यक्तियों को राहत अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (संशोधित अधिनियम, 2018) की धारा 3 के अन्तर्गत जाति भेदभाव के कारण पुलिस मे दर्ज मामलों में अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति से सम्बन्धित पीड़ित व्यक्तियों को राहत राशि प्रदान की जा रही है। इस मामले में 85,000 रुपए से लेकर 8,25,000 रुपए तक की सहायता दी जाती है। हिमाचल प्रदेश अनुसूचित जाति/जन जाति विकास निगम की योजनाएं अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने हेतु उनके कारोबार को बढ़ाने तथा अन्य स्वयं रोजगार धन्घे स्थापित करने हेतु प्रशिक्षण तथा ऋण उपलब्ध करवा जा रहा है । इसमें से एक स्वयं रोजगार योजना भी है। इस योजना के अंतरगत 18 से 55 वर्ष की आयु वर्ष के अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के गरीबी रेखा से नीचे रह रहे चयनित परिवारों से सम्बन्धित ग्रामीण क्षेत्रो में रहने वाले ऐसे परिवार जिनकी वार्षिक आय 35,000 रुपए तथा शहरी क्षेत्रो में रहने वाले ऐसे परिवार जिनकी वार्षिक आय 35,000 रुपए से कम हो, उन्हें स्वयं रोजगार स्थापित करने के लिए निम्नलिखित दरों पर ऋृण बैकों के माध्यम से उपलब्ध करवाये जाते है। पच्चास हजार तक की परियोजनाओं जैसे डेरी फार्मिग, कृषि उपकरण , लघु सिंचाई, रेडिमेड गार्मेन्टस, शू मेकिंग इत्यादि, को बैकों के माध्यम से 4 प्रतिशत व्याज दर से ऋण उपलब्ध करवाये जाते है। इस के अतिरिक्त परियोजना की कुल लागत का 50 प्रतिशत या अधिकतम 10,000 रुपए प्रति परिवार पूंजी अनुदान भी उपलब्ध करवाया जाता है। हिम स्वावलम्बन योजना इस योजना के अन्तर्गत शहरी क्षेत्र से सम्बन्धित परिवारों जिनकी वार्षिक आय 1,20,000 से कम तथा ग्रामीण क्षेत्रों से सम्बन्धित परिवारों जिनकी वार्षिक आय 98,000 से अधिक न हो को निम्नलिखित दरों पर ऋृण उपलब्ध करवाए जाते हैं। 5.00 लाख रू तक की परियोजनाऐं स्थापित कर बड़े रोजगार चलाने हेतु राष्ट्रीय अनुसूचित जाति,जनजाति विकास निगम के माध्यम से 6 प्रतिशत ब्याज दर पर सहयता दी जाती है। 5.00 लाख से 30.00 लाख रुपए की परियोजनाओं हेतु 8 प्रतिशत ब्याज दर पर दिया जाता है। ब्याज मुक्त ऋण अनुसूचित जाति/ जनजाति के छात्रा एवं छात्राओं जिनकी परिवार की वार्षिक आय 1,00,000 रुपए से अधिक न हो, मैट्रिक के बाद व्यवसायिक एवं तकनीकी डिप्लोमा तथा डिग्री कोर्स जैसे जेबीटी, नर्सिग , होटल मैनेजमैंट , एमबीए, एमबीबीएस, इंजिनियरिंग , एलएलबी तथा बीएड हेतु अधिकतम 75,000/- रूपये ब्याज मुक्त ऋण दिये जाते है । दलित वर्ग व्यवसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम अनुसूचित जाति/ जनजाति के युवाओं जिनकी वार्षिक आय 22,000 रुपए से कम हो उन्हें शहरी, ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षण दिलवाया जाता है। प्रशिक्षणार्थी को 500 रूपये प्रति माह अपने जिले में तथा 750 रुपए प्रति माह जिले से बाहर प्रशिक्षण लेने के दौरान वजीफा दिया जाता है। हस्तशिल्प विकास योजना परम्परागत व्यवसायों जैसे शाल बुनाई, शू मैकिंग, छाज बनाना इत्यादि में लगे कारीगर को व्यक्तिगत तौर पर अथवा अपने संगठन/सस्थाएं बना कर 15000 रुपए प्रति कारीगर ब्याज मुक्त ऋण दिये जाते है। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त एवं विकास निगम की योजना सफाई कर्मचारियों को परिवहन क्षेत्र जैसे मारूति वैन, महिन्द्रा जीप इत्यादि खरीदने हेतु 5 लाख तक 6 प्रतिशत तथा 5 लाख से अधिक 8 प्रतिशत ब्याज दर से ऋण उपरोक्त निगम के माध्यम से उपलब्ध करवाये जाते है। इसका लाभ लेने के लिए पात्र व्यक्ति को अपना आवेदन निर्धारित प्रपत्र पर जाति प्रमाण पत्र, हिमाचली प्रमाण पत्र जो कार्यकारी दण्डाधिकारी सेे जारी किया हो, सहित प्रस्तुत करना अनिवार्य है। पात्र व्यक्ति निर्धारित प्रपत्र पर आवेदन कर सकता है, जिसके साथ वार्षिक आय प्रमाण-पत्र, जाति प्रमाण पत्र, हिमाचली प्रमाण पत्र कार्यकारी दण्डाधिकारी से जारी किया गया हो तथा जिस भूमि पर मकान बनाना प्रस्तावित है उस भूमि की जमाबन्दी नकल व ततीमा प्रस्तुत करना अनिवार्य है।
भारत का इतिहास गौरवमयी रहा है। यहां जो भी शासक आए उन्होंने अमिट रचनाएं कीं। अमिट इसलिए कि आज भी उनकी कलाएं सजीव हैं और अपनी इतिहास की गौरवगाथा को दोहराती हैं। भारत न केवल आस्था के क्षेत्र में ही महान रहा है अपितु कला के क्षेत्र में भारत ने बुलंदियों को छुआ है। फस्र्ट वर्डिक्ट हर सप्ताह अपने सुधी पाठकों को ऐसे ऐतिहासिक स्थलों के बारे में जानकारी दे रहा है। आज अपने पाठकों को कोलकाता में स्थित विक्टोरिया मेमोरियल के बारे में बताया जा रहा है। विक्टोरिया मेमोरियल भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल के कोलकाता नगर में स्थित एक ब्रिटिश कालीन स्मारक है। 1906 से 1921 के बीच निर्मित यह स्मारक इंग्लैंड की तत्कालीन साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया को समर्पित है। इस स्मारक में विविध शिल्पकलाओं का सुंदर मिश्रण है। इसके मुगल शैली के गुंबदों पर सारसेनिक और पुनर्जागरण काल की शैलियों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। रानी के पियानो सहित तीन हजार से अधिक वस्तुएं का है संग्राहलय इस भवन के अंदर एक शानदार संग्रहालय भी है। जहां रानी के पियानो और स्टडी-डेस्क सहित 3,000 से भी अधिक अन्य वस्तुएं प्रदर्शित की गई हैं। यह प्रतिदिन मंगलवार से रविवार तक प्रात: दस बजे से सायं साढ़े चार बजे तक खुलता है, सोमवार को यह बंद रहता है। जनवरी 1901 में रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर लॉर्ड कर्जन ने एक स्मारक के निर्माण का सुझाव दिया। वेल्स के राजकुमार ने किया था शिलान्यास वेल्स के राजकुमार जो बाद में जार्ज पंचम के रूप में सिंहासनारूढ़ हुए, ने 4 जनवरी 1906 को इसका शिलान्यास किया और इसे औपचारिक रूप से 1921 में जनता के लिए खोल दिया गया। 1912 में विक्टोरिया मेमोरियल का निर्माण पूरा होने से पहले जॉर्ज पंचम ने भारत की राजधानी को कलकत्ता से नई दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की। इस प्रकार विक्टोरिया मेमोरियल का निर्माण एक राजधानी के बजाय एक प्रांतीय शहर में हुआ।विक्टोरिया मेमोरियल को भारतीय राज्यों, ब्रिटिश राज के व्यक्तियों और लंदन में ब्रिटिश सरकार द्वारा वित्त-पोषित किया गया था। भारत के राजकुमारों और लोगों ने धन के लिए लॉर्ड कर्जन की अपील का उदारतापूर्वक जवाब दिया और स्मारक के निर्माण की कुल लागत, एक करोड़ पांच लाख रुपए पूरी तरह से उनके स्वैच्छिक दान से प्राप्त हुई थी। 1905 में कर्जन के भारत से प्रस्थान के बाद विक्टोरिया मेमोरियल के निर्माण में कुछ देरी हुई। विक्टोरिया मेमोरियल का शिलान्यास 1906 में किया गया था और भवन 1921 में खोला गया। निर्माण का काम मेसर्स मार्टिन एंड कंपनी, कोलकाता को सौंपा गया। 1910 में अधिरचना पर काम शुरू हुआ। डिजाइन और वास्तुकला विक्टोरिया मेमोरियल के वास्तुकार विलियम इमर्सन (1843-1924) थे जो रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ ब्रिटिश आर्किटेक्ट्स के अध्यक्ष थे। यह डिजाइन इंडो-सारसेनिक पुनर्जागरण शैली में है, जिसमें ब्रिटिश और मुगल तत्वों के मिश्रण का उपयोग वेनीशियाई, मिस्री, दक्कनी और इस्लामिक वास्तुशिल्प प्रभाव के साथ किया गया है। इमारत 338-228 फुट (103 मीटर 69 मीटर) और 184 फुट (56 मीटर) ऊँची है। इसका निर्माण सफेद मकराना संगमरमर से किया गया है। विक्टोरिया मेमोरियल के उद्यानों को लॉर्ड रेडडेल और डेविड पेन द्वारा डिजाइन किया गया था। इमर्सन के सहायक विन्सेन्ट जेरोम एश ने उत्तरी पहलू के पुल और बगीचे के फाटकों को डिजाइन किया। 1902 में इमर्सन ने विक्टोरिया मेमोरियल के लिए अपने मूल डिजाइन को स्केच करने के लिए एश के साथ मिलकर काम किया। 1903 के दिल्ली दरबार के लिए अस्थायी प्रदर्शनी भवन को डिजाइन करने के बाद लार्ड कजऱ्न ने एश को इमर्सन के लिए उपयुक्त सहायक पाया। विक्टोरिया मेमोरियल का केंद्रीय गुंबद के ऊपर विजय की देवी (एंजेल ऑफ विक्ट्री) की मूर्ति स्थापित है, जिसकी लम्बाई 16 फीट (4.9 मीटर) है। गुंबद के चारों ओर अन्य मूर्तियां भी हैं जो कला, वास्तुकला, न्याय, दान, मातृत्व, विवेक और शिक्षा का मूर्तिमान सादृश्य प्रदर्शित करती हैं। विक्टोरिया मेमोरियल सफेद मकराना संगमरमर से बना है। डिजाइन में यह अपने मुख्य गुंबद, चार सहायक गुंबदों, अष्टकोणीय गुंबददार छतरियों, ऊँचे पोर्टल्स, छत और गुंबददार कोने वाले मीनारों के साथ ताजमहल की रचना शैली को प्रतिध्वनित करता है। रात्रि के समय विक्टोरिया मेमोरियल का दृश्य विक्टोरिया मेमोरियल में 25 चित्र दीर्घाएं हैं। इनमें शाही गैलरी, राष्ट्रीय नेताओं की गैलरी, पोर्टेट गैलरी, सेंट्रल हॉल, मूर्तिकला गैलरी, हथियार और शस्त्रागार गैलरी और नई कलकत्ता गैलरी शामिल हैं। विक्टोरिया मेमोरियल में थॉमस डेनियल (1749-1840) और उनके भतीजे विलियम डेनियल (1769-1837) के कार्यों का सबसे बड़ा एकल संग्रह है।[14] इसमें दुर्लभ और पुरातन पुस्तकों का संग्रह भी है जैसे कि विलियम शेक्सपियर के कार्यों का सचित्र निरूपण, आलिफ लैला और उमर खय्याम की रुबाइयत के साथ-साथ नवाब वाजिद अली शाह के कथक नृत्य और ठुमरी संगीत के बारे में किताबें आदि। 64 एकड़ में बागीचे का विस्तार विक्टोरिया मेमोरियल के बगीचे का विस्तार 64 एकड़ है। इसका रखरखाव 21 बागवानों की टीम द्वारा किया जाता है। बगीचे को रेडेस्देल और डेविड पेन द्वारा डिजाइन किया गया था। इमारत के चारों ओर पक्की चौकी है और वारेन हेस्टिंग्स, लॉर्ड कॉर्नवालिस, रॉबर्ट क्लाइव, आर्थर वेलेज़्ली और लॉर्ड डलहौजी की स्मारक प्रतिमायें हैं। इनके साथ बागीचे में भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक (1833-1835), रिपन (1880-84) और राजेंद्र नाथ मुखर्जी की मूर्तियां भी हैं।
भारत का इतिहास गौरवमयी रहा है। कालांतर में यहां कई शासकों ने शासन किया और अपनी कला, संस्कृति, संस्कारों और परिपाटी की छाप छोड़ी। भारत के इतिहास के संबंध में सभी को जानकारी होनी चाहिए। क्यूंकि इतिहास ही हमें भारत के गौरव के बारे में बता सकता है। इतिहास से ही शिक्षा लेकर हम अपना भविष्य संवार सकते हैं। इसी कड़ी में फर्स्ट वर्डिक्ट निरंतर प्रयासरत है कि पाठकों को लगातार ऐसे स्थानों के बारे में अवगत करवाता रहे जो भारत में स्थापित हैं और अपनी ऐतिहासिक आभा लिए हुए हैं। जैसा कि विदित है कि भारत में मुगलवंश का आरंभ 1526 ईस्वी में हुआ जब बाबर ने पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोधी को हराया। उसके बाद भारत में मुगलकाल की नींव रखी गई। हालांकि बाबर निर्माण के क्षेत्र में इतना पुरोधा नहीं रहा। उसे एक साम्राज्यवादी की संज्ञा ही दी जाती है। वह अपने शासनकाल में साम्राज्य का ही विस्तार करता गया, मगर निर्माण के क्षेत्र में ज्यादा ध्यान नहीं दे पाया। मगर बाबर के बाद जो शासक आए वह बेहद कला प्रेमी रहे और उन्होंने भरपूर निर्माण भी करवाए। इनमें से अकबर, जहांगीर, शाहजहां का नाम विशेषकर लिया जाता है। आज फर्स्ट वर्डिक्ट अपने सुधी पाठकों को फतेहपुर सीकरी के संबंध में प्रकाश डालेगा। 1571 में अकबर ने बसाया था नगर : माना जाता है कि फतेहपुर सीकरी को मुगल सम्राट अकबर ने सन 1571 में बसाया था। वर्तमान में यह आगरा जिला का एक नगरपालिका बोर्ड है। यह भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित है। यह यहां के मुगल साम्राज्य में अकबर के राज्य में 1571 से 1585 तक मुगल साम्राज्य की राजधानी रही फिर इसे खाली कर दिया गया, शायद पानी की कमी के कारण। यह सिकरवार राजपूत राजा की रियासत थी जो बाद में इसके आसपास खेरागढ़ और मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में बस गए। फतेहपुर सीकरी मुसलिम वास्तुकला का सबसे अच्छा उदाहरण है। 54 मीटर ऊंचा बुलंद दरवाजा : फतेहपुर सीकरी मस्जिद के बारे में कहा जाता है कि यह मक्का की मस्जिद की नकल है और इसके डिजाइन हिंदू और पारसी वास्तुशिल्प से लिए गए हैं। मस्जिद का प्रवेश द्वार 54 मीटर ऊंचा बुलंद दरवाजा है, जिसका निर्माण 1573 ईस्वी में किया गया था। मस्जिद के उत्तर में शेख सलीम चिश्ती की दरगाह है जहां नि:संतान महिलाएं दुआ मांगने आती हैं। आंख मिचौली, दीवान-ए-खास, बुलंद दरवाजा, पांच महल, ख्वाबगाह, जौधा बाई का महल,शेख सलीम चिश्ती के पुत्र की दरगाह, शाही मसजिद, अनूप तालाब फतेहपुर सीकरी के प्रमुख स्मारक हैं। बाबर ने हराया था राणा सांगा को : मुगल बादशाह बाबर ने राणा सांगा को सीकरी नामक स्थान पर हराया था, जो कि वर्तमान आगरा से 41 किलोमीटर है। फिर अकबर ने इसे मुख्यालय बनाने हेतु यहां किला बनवाया, परंतु पानी की कमी के कारण राजधानी को आगरा का किला में स्थानांतरित करना पड़ा। आगरा से 37 किलोमीटर दूर फतेहपुर सीकरी का निर्माण मुगल सम्राट अकबर ने कराया था। एक सफल राजा होने के साथ-साथ वह कलाप्रेमी भी था। 1570-1585 तक फतेहपुर सीकरी मुगल साम्राज्य की राजधानी भी रहा। इस शहर का निर्माण अकबर ने स्वयं अपनी निगरानी में करवाया था। अकबर नि:संतान था। संतान प्राप्ति के सभी उपाय असफल होने पर उसने सूफी संत शेख सलीम चिश्?ती से प्रार्थना की। इसके बाद पुत्र जन्म से खुश और उत्साहित अकबर ने यहां अपनी राजधानी बनाने का निश्चय किया। लेकिन यहां पानी की बहुत कमी थी इसलिए केवल 15 साल बाद ही राजधानी को पुन: आगरा ले जाना पड़ा। फतेहपुर सीकरी में अकबर के समय के अनेक भवनों, प्रासादों तथा राजसभा के भव्य अवशेष आज भी वर्तमान हैं। यहां की सर्वोच्च इमारत बुलंद दरवाजा है, जिसकी ऊंचाई भूमि से 280 फुट है। 52 सीढिय़ों के पश्चात दर्शक दरवाजे के अंदर पहुंचता है। दरवाजे में पुराने जमाने के विशाल किवाड़ लगे हुए हैं। शेख सलीम की मान्यता के लिए अनेक यात्रियों द्वारा किवाड़ों पर लगवाई हुई घोड़े की नालें दिखाई देती हैं। बुलंद दरवाजे को, 1602 ई. में अकबर ने अपनी गुजरात-विजय के स्मारक के रूप में बनवाया था। इसी दरवाजे से होकर शेख की दरगाह में प्रवेश करना होता है। बाईं ओर जामा मस्जिद है और सामने शेख का मज़ार। मजार या समाधि के पास उनके संबंधियों की कब्रें हैं। मस्जिद और मजार के समीप एक घने वृक्ष की छाया में एक छोटा संगमरमर का सरोवर है। मस्जिद में एक स्थान पर एक विचित्र प्रकार का पत्थर लगा है जिसकों थपथपाने से नगाड़े की ध्वनि सी होती है। मस्जिद पर सुंदर नक्काशी है। शेख सलीम की समाधि संगमरमर की बनी है। इसके चतुर्दिक पत्थर के बहुत बारीक काम की सुंदर जाली लगी है जो अनेक आकार प्रकार की बड़ी ही मनमोहक दिखाई पड़ती है। यह जाली कुछ दूर से देखने पर जालीदार श्वेत रेशमी वस्त्र की भांति दिखाई देती है। समाधि के ऊपर मूल्यवान सीप, सींग तथा चंदन का अद्भुत शिल्प है जो 400 वर्ष प्राचीन होते हुए भी सर्वथा नया सा जान पड़ता है। श्वेत पत्थरों में खुदी विविध रंगोंवाली फूलपत्तियां नक्काशी की कला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरणों में से हैं। समाधि में एक चंदन का और एक सीप का कटहरा है। इन्हें ढाका के सूबेदार और शेख सलीम के पौत्र नवाब इस्लामख़ाँ ने बनवाया था। जहांगीर ने समाधि की शोभा बढ़ाने के लिए उसे श्वेत संगमरमर का बनवा दिया था यद्यपि अकबर के समय में यह लाल पत्थर की थी। जहांगीर ने समाधि की दीवार पर चित्रकारी भी करवाई। समाधि के कटहरे का लगभग डेढ़ गज खंभा विकृत हो जाने पर 1905 में लॉर्ड कर्जन ने 12 सहस्त्र रुपए की लागत से पुन : बनवाया था। समाधि के किवाड़ आबनूस के बने है।
पहाड़ी लोक संस्कृति के नायक लायक राम रफ़ीक़ वो शक्सियत है जिन्होंने अपने जीवन का अंतिम दशक खुद तो अंधेरे में बिताया, मगर वो पहाड़ी गायकी को वो पहचान दे गए जो आज भी रोशन है। हिमाचल में पहाड़ी नाटियों का दौर बदलने वाले रफ़ीक़ एक ऐसे गीतकार थे जिन्होंने अपने जीवन में करीब 2500 से अधिक पहाड़ी गीत लिखकर इतिहास रचा। हिमाचल में शायद ही ऐसा कोई गायक होगा, जिसने पारंपरिक गीतों के पीछे छिपे इतिहास के जन्मदाता लायक राम रफीक के गानों को न गाया हो। आज भी रफीक के लिखे गानों को गुनगुनाया जाता है, गाया जाता है। उनके लिखे अमर गीत अब भी महफिलें लूटते है। प्रदेश का ऐसा शायद ही कोई क्षेत्र हो जहां शादी के डी जे या स्कूलों के सांस्कृतिक या अन्य आयोजनों में रफ़ीक के गीतों ने रंग न जमाया हो। नीलिमा बड़ी बांकी भाई नीलिमा नीलिमा.., होबे लालिए हो जैसे गीत हो या मां पर लिखा मार्मिक गीत 'सुपने दी मिले बोलो आमिएं तू मेरिए बेगे बुरो लागो तेरो आज, जिऊंदिए बोले थी तू झालो आगे रोएला बातो सच्ची निकली से आज' ... रफीक कई कालजयी गीत लिख गए। रफीक आकाशवाणी शिमला से गायक और अपने गीतों की अनेक लाजवाब धुनों के रचयिता भी रहे। अपना पूरा जीवन पहाड़ी संगीत पर न्योछावर करने वाले लायक राम रफीक का अंतिम समय बेहद दुखद व कठिनाओं से भरा रहा। ग्लूकोमा ने उनकी आंखों की रोशनी चुरा ली थी। उन्हें अपना अंतिम समय अँधेरे में बिताना पड़ा, मगर ये अंधापन भी उन्हें अपने आजीवन जुनून का पीछा करने से नहीं रोक सका - अंतिम सांस तक वो पहाड़ी गीत लिखते रहे। रफ़ीक़ शिमला में ठियोग के पास एक छोटे से गाँव (नालेहा) में रहा करते थे। कृषि परिवार में जन्मे और स्थानीय स्कूल में पढ़े लिखे। एक पुराने साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि वे मीट्रिक की परीक्षा भी पास नहीं कर पाए थे, स्कूल की किताबों में उनका मन ही नहीं लगता था। पर ठियोग की लाइब्रेरी में रखी साहित्यिक किताबों से मजबूत रिश्ता था। रफ़ीक़ पूरा दिन उस लाइब्रेरी में बैठ उर्दू और हिंदी की कविताओं से भरी किताबें पढ़ते रहते। इन्हीं कविताओं को पढ़ रफ़ीक़ को पहाड़ी बोली में कविताएं लिखने की प्रेरणा मिली और बस तभी से रफ़ीक़ ने अपने ख्यालों को शब्दों के ज़रिये गीत माला में पिरोना शुरू कर दिया। हजारों लोकप्रिय गीतों के गीतकार लायक राम रफ़ीक उपेक्षा का शिकार रहे है। उनके गीतों को आवाज देकर न जाने कितने गायकों ने शोहरत कमाई और रफीक के हिस्से आई सिर्फ उपेक्षा। ये बेहद विडम्बना का विषय है कि रफीक के अनेक लोकप्रिय गीतों के विवरण में उनका नाम तक दर्ज नहीं है। न सिर्फ रफीक साहब बल्कि पहाड़ी संगीत जगत में गीतकार सबसे अधिक उपेक्षित वर्ग है। एसडी कश्यप को देते थे इंडस्ट्री में लाने का श्रेय : रफीक ने 78 साल की उम्र में अपनी आखिरी सांस लेने से पहले तक लगभग 2,500 गीत लिखे थे। रफ़ीक़ ने न सिर्फ नाटियों (लोक गीतों) की लोकप्रियता को बढ़ाने का कार्य किया बल्कि उन्हें व्यावसायिक रूप से व्यावहारिक बनाने के लिए भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। रफीक के हिमाचल म्यूजिक इंडस्ट्री में आने से पहले, संगीत निर्देशक एसडी कश्यप ने मंडी में हिमाचल प्रदेश का पहला स्टूडियो ( साउंड एंड साउंड स्टूडियो खोला था )। रफीक अक्सर इंटरव्यूज में ये कहा करते थे की उन्हें रचनाकार बनाने में एसडी कश्यप का बड़ा हाथ था। वे ही उन्हें इस इंडस्ट्री में लेकर आए थे। वे ठियोग से मंडी जा उन्हीं के स्टूडियो में अपने गाने रिकॉर्ड करवाया करते। रफ़ीक़ ने एक लम्बे अर्से तक आकाशवाणी में बतौर गायक भी कार्य किया। रफीक के लिखे गीत सबको समझ आये: हिमाचली नाटियों में वास्तविक प्रेम कहानियां, बहादुरी और अच्छे कामों की यादें संजोई जाती है। उस दौर में पहाड़ी नाटियों से जुड़ी सबसे बड़ी समस्या थी भाषा। दरअसल हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में हर 10-15 मील के बाद भाषा बदल जाती है। इसलिए, किसी विशेष क्षेत्र की भाषा में बनाए गए और गाए गए पारंपरिक गीतों को अन्य क्षेत्रों में उतना सराहा और समझा नहीं जाता था। इस दुविधा को दूर करने में रफीक का बड़ा हाथ रहा। वो ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर लिखते की हर किसी को वो समझ आ जाए। पारंपरिक नाटियों से हटकर, उन्होंने रोमांटिक गीतों को अपनी खूबी बना लिया और उन्हें एक सरल भाषा में लिखा। हर कोई उनके लिखे गाने समझने व गुनगुना लगा। ऊपरी शिमला क्षेत्र के विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी। इसने उन्हें नाटियों के लिए एक बड़ा दर्शक वर्ग बनाने में मदद की, जिससे यह शैली व्यावसायिक रूप से व्यावहारिक हो गई। उन लिखे गीतों को गाना हर नए पुराने सिंगर की डिमांड बन गई। गीत लिखने और बनाने के अपार प्रेम ने उन्हें पहाड़ी गीतों का सबसे उम्दा लेखक बना दिया।
हिमाचल का किन्नौर जिला अपनी परंपराओं, मदिरा प्रेम, संस्कृति, त्योहारों व बौद्ध मठों के लिए प्रसिद्ध है। किन्नौर के गोल्डन सेब,सूखे मेवे व हरी टोपी सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि पुरे विश्व में प्रसिद्ध है। यूँ तो किन्नौर में पर्यटकों की आमद बहुत कम है लेकिन ऐसा कहा जाता है की हिमाचल की असल संस्कृति, खूबसूरती और अविश्वसनीय नज़ारों की झलक सिर्फ किन्नौर में ही मिल सकती है। किन्नौर का ऐतिहासिक दस्तावेज कहता है कि उसका अस्तित्त्व राजाओं के ज़माने से है। एक-एक करके किन्नौर में शुंग, नंद और मौर्य वंश का शासन हुआ। हिमाचल की ही किराट, कंबुज, पानसिका और वल्हिका जातियों की मदद से मौर्य वंश ने शासन जमाया। उसके बाद अशोक ने अपनी विजय पताका के झंडे गाड़े। बाद में आने वाले कनिष्क ने इसे और आगे बढ़ाया। उत्तर में कश्मीर और एशिया के दूसरे छोरों तक पहुँच बनाई। कुल मिलाकर दुनिया के कुछ गिने चुने नामी राजाओं, जिन्होंने पूरी दुनिया पर राज करने की कोशिश की, उनके विशाल साम्राज्य के एक छोटे हिस्से के तौर पर किन्नौर की पहचान रही। 1947 को जब भारत आज़ाद हुआ, तब भी महासु तहसील का एक छोटा सा हिस्सा किन्नौर था, जिसे अपनी पहचान 1960 में एक अलग ज़िले के रूप में मिली। रिकांगपिओ इस जिले का मुख्यालय है। किन्नौर के दो भाग हैं। लोअर व अप्पर किन्नौर। पूह से आगे का क्षेत्र अप्पर किन्नौर कहलाता है। ऊपरी व निचले किन्नौर की संस्कृति अलग है। अपर किन्नौर की महिलाएं दोहडू परिधान नहीं पहनतीं, वहां पर खो नामक वस्त्र कमीज के स्थान पर पहना जाता है। सिर पर एक कपड़ा बांधा जाता है जिसे फैटक कहा जाता है। यह वस्त्र वधू को शृंगार करते वक्त बांधा जाता है। गले में एक सौ मूंगों का हार पहना जाता है। हाथ में कंगन की जगह चांदी के 40-40 तोले भार के मोटे कंगन होते हैं जिन पर ड्रैगन या शेर मुख बना होता है। कान में एक तोले सोने का झुमका होता है। लोअर किन्नौर की महिलाएं यूचूरु नाम की माला पहनती हैं। लोअर किन्नौर में विशेष टोपी महिलाएं पहनती हैं जिसे टपंग कहते हैं। किन्नौरी विवाह : विवाह के अवसर पर जब दूल्हा वधू के पक्ष घर आता है तो महिलाएं विशेष आभूषण एवं वस्त्र पहनकर उनका स्वागत करती हैं तथा दोनों पक्षों के बुजुर्गों द्वारा लोकगीत गाने की प्रतिस्पर्धा होती है। फिर वर पक्ष के लोग हार मान लेते हैं तथा बारात आगे चौखट पर बढ़ती है। जहां वधू की सहेलियां व परिवार की महिलाएं फूलमाला द्वारा उनका रास्ता रोककर वर पक्ष से पैसे व उपहार मांगती हैं। फिर बारात को एक कमरे में अंदर बंद कर दिया जाता है तथा दोबारा बारात से पैसे ऐंठे जाते हैं। इसके बाद नृत्य, गायन तथा मदिरा का दौर चलता है। बाराती मफलर, कोट तथा दूल्हा लंबा वस्त्र पहनकर आता है जिसे खो कहते हैं। जब बारात वापस लौटने को होती है तब वधू की सहेलियां वधू के पांव सफेद कपड़े से बांध कर उसे रोकती हैं। फिर से बाराती उन्हें रुपये देकर उस वस्त्र को खुलवाकर उनसे वधू को ले जाने की अनुमति मांगते हैं। तीनों रस्मों में ली गई राशि एवं उपहार राशि जो रिश्तेदार और गांव के लोग देते हैं, सब वधू को विदाई के समय दे दी जाती है। शादी के दौरान एक लिखित समझौता होता है जिसमें शादी टूटने पर या वधू को तंग करने पर वर पक्ष को इज्जत राशि देनी पड़ती है तथा विवाह में दिये गये उपहार लौटाने का समझौता होता है। इसे बंदोबस्त कहते हैं। रास्ते में वापस लौटते समय यदि कोई मंदिर हो तो बारात द्वारा वहां पूजा भी की जाती है। दलोज प्रथा में लड़की वापस मायके आती है जिसमें वर के 10 लोग होते हैं। इसके बाद जब वधू वापस ससुराल जाती है तो मायके से 10 लोग फिर उसको छोडऩे जाते हैं। विवाह की रस्में मुख्य लामा द्वारा अदा की जाती हैं। फुलाइच और लोसर : हर साल सितंबर के महीने में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर क्षेत्र में फूलों का त्योहार मनाया जाता है। इस दौरान बड़ी संख्या में पर्यटक यहां आते हैं और हिमाचल प्रदेश के लोगों, जगहों, खानपान और संस्कृति को इस मेले के ज़रिए जानने का सबसे यह सही समय है। इसके अलावा किन्नौर क्षेत्र घूमने का भी सबसे बेहतर महीना सितंबर का ही है। फुलैच के दौरान ऊंची पहाड़ी से गांव में 3-4 व्यक्ति फूल लाते हैं एवं देवता को चढ़ाते हैं। फिर मंदिर परिसर में नृत्य होता है। किन्नौर का दूसरा प्रसिद्ध त्योहार लोसर है जो दिसंबर में मनाया जाता है जिसमें रिश्तेदारों को उपहार दिये जाते हैं और मंगलमय नए वर्ष की कामना की जाती है। कुछ लड़कियां नहीं करती हैं शादी किन्नौर में कुछ लड़कियां शादी नहीं करती हैं जिन्हें जाम्मो कहते हैं और वे बौद्ध मंदिरों में अपना जीवन व्यतीत करती हैं। ये लंबा भूरा चोगा पहनती है। किन्नौर की महिलाएं गले में त्रिमणी पहनती हैं, जिसमें तीन सोने के गोलाकार मणके काले धागे में पिरोकर पहने जाते हैं। 25 फरवरी को किन्नौर के चांगो गांव में शेबो मेला मनाया जाता है जिसमें तीरअंदाजी होती है। चांगो में छ: बौद्ध मंदिर हैं जिनमें छाप्पा देवता एवं पदम संभव की मूर्तियां तथा प्राचीन पुस्तकें हैं। किन्नौर के शाल भी बहुत प्रसिद्ध हैं जिन्हें पूह तथा चांगो की महिलाएं बनाती हैं। इस प्रकार से किन्नौर की अनूठी संस्कृति है जो इसे एक नया रूप देती है। यहां के लोगों की बोली भी बहुत भिन्न है। लोअर किन्नौर के कोठी गांव में चंडिका देवी की मान्यता है। निचार में उषा देवी का मंदिर है। चितकुल में चितकुल देवी है तथा मैम्बर गांव में महेश्वर की पूजा होती है। चंडिका देवी को मदिरा का प्रसाद चढ़ता है। यह मंदिर पियो के निकट है। छोटी शादी : किन्नौर में प्रेम-विवाह को छोटी शादी कहते हैं। कुछ वर्ष बाद जब युग्लक बच्चे हो जाते है, तब पारंपरिक विवाह किया जाता है जिसे बड़ी शादी कहते हैं।
कलावती लाल, वो फिल्म अभिनेत्री जिसका जीवन भी किसी बॉलीवुड फिल्म की पटकथा से कम नहीं रहा। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" जिनके जीवन का सिद्धांत रहा और आखिरी सांस तक जिन्होंने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया। सिल्वर स्क्रीन से लेकर राजनीति तक और महिला सशक्तिकरण से लेकर गौ सेवा तक, कलावती की बहुरंगी जीवन यात्रा अद्धभुत और अकल्पनीय रही है। दिलचस्प बात ये है कि कलावती लाल का ताल्लुख हिमाचल प्रदेश के सोलन से है, यहीं जन्मी, यहीं अधिकांश जीवन बीता और यहीं जीवन की सांझ हुई। पर आज ये नाम गुमनाम है। जो सिल्वर स्क्रीन की शान थी आज की पीढ़ी उनके नाम से भी अपरिचित है। साल था 1952 का। डॉ वाईएस परमार अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे। उन्होंने अपने गृह जिला सिरमौर की पच्छाद सीट से ताल ठोकी थी। ये वो दौर था जब हिमाचल प्रदेश अपने गठन की प्रक्रिया से गुजर रहा था और बीतते वक्त के साथ-साथ प्रदेश का स्वरुप भी बदल रहा था। इसमें डॉ वाईएस परमार अहम किरदार निभा रहे थे। वे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के करीबी भी थे। लिहाजा ये लगभग तय था कि चुनाव के बाद यदि कांग्रेस सत्तासीन हुई तो डॉ परमार ही मुख्यमंत्री होंगे। कांग्रेस के अतिरिक्त किसान मजदूर प्रजा पार्टी और भारतीय जन संघ ही इस चुनाव में हिस्सा लेने वाले प्रमुख राजनीतिक दल थे। किंतु दोनों दलों ने डॉ परमार के विरुद्ध प्रत्याशी नहीं उतारा और उन्हें वॉक ओवर मिलना लगभग तय था। उसी वक्त सोलन में रहने वाली एक महिला ने निर्णय लिया कि वे डॉ परमार का मुकाबला करेंगी। ये वो दौर था जब प्रदेश की साक्षरता दर करीब 7 प्रतिशत थी, जबकि महिला साक्षरता दर तो तकरीबन 2 प्रतिशत ही थी। उस दौर के पुरुष प्रधान समाज में सियासत में एक महिला की भागीदारी किसी अचम्भे से कम नहीं थी। बावजूद इसके एक महिला ठान चुकी थी कि वह हिमाचल के निर्माण में अपना योगदान देगी। ये महिला थी अछूत कन्या और फैशनेबल इंडिया जैसी फिल्मों में अभिनय कर चुकी सिने जगत की नायिका कलावती लाल। सिनेमा की दुनिया में उनका नाम पुष्पा देवी था। भारत -पाकिस्तान विभाजन के बाद कलावती लाल 1947 में अपने पति कर्नल रामलाल के साथ सोलन आयी। शहर के फॉरेस्ट रोड स्थित ग्रीन फील्ड कोठी ही उनका आशियाना था। दरअसल 1930 के दशक में कलावती की उच्च शिक्षा लाहौर में हुई थी जहाँ वो कामरेड मुहम्मद सादिक और फ़रीदा बेदी के संपर्क में आई थी। तभी से उनकी विचारधारा भी वामपंथी हो गई थी। हालांकि उस दौर को गुजरे करीब दो दशक बीत चुके थे लेकिन वामपंथ विचारधारा की लौ अभी बुझी नहीं थी। खेर, चुनाव हुआ और वही नतीजा आया जो अपेक्षित था। कलावती लाल प्रदेश के निर्माता डॉ वाईएस परमार से चुनाव हार गई। जब पिता को कहा, ये जुर्म है आपको जेल भिजवा दूंगी... कभी - कभी एक विचार भी विचारधारा बन जाता है, यह कहावत कलावती लाल पर सही बैठती है। कलावती का जन्म जिला सोलन के चायल के समीप स्थित एक छोटे से गांव हिन्नर में लक्ष्मी देवी व ठाकुर कालू राम (मनसा राम) के घर 1909 में हुआ। आर्य समाज विचारधारा से प्रभावित पिता बच्चों को अच्छी तालीम देने में प्रयासरत रहे, लेकिन वह भी उस समय की सामाजिक व्यवस्था से अछूते न थे। उन्होंने कलावती का विवाह करने का निर्णय लिया, लेकिन नन्ही बेटी को यह मंजूर न था। उन्होंने पिता से कहा," नाबालिक की शादी करना ज़ुर्म है यदि आपने ऐसा किया तो मैं आपको जेल भिजवा दूंगी।" इस बात पर दोनों में झगड़ा हुआ बेटी को घर से निकाल दिया गया, वह गांव के मंदिर में रहने लगी, छोटी उम्र में भी वह घबराई नहीं क्योंकि सामाजिक कुरीतियों से लड़ने का विचार अब एक विचारधारा बनने की दिशा ले चुका था। मामा महाशय सहीराम उन्हें फागु ले गए। कलावती ने वहीं गुरुकुल से शिक्षा पूरी की और उन्हें आगामी पढ़ाई के लिए लाहौर भेज दिया गया। 1931 में में बीए पास की, अब वह अपने अंदर छुपी प्रतिभा व शक्ति को पहचान गई थी और निरंतर अविचलित हुए बगैर कर्म पथ पर बढ़ती गई। देविका रानी ने दिलवाया फिल्मों में काम : कलावती को नाटक कला और अंग्रेज़ी में रूची थी। यही शौक उन्हें शांति निकेतन कलकत्ता ले गया। वहां इनकी मुलाकात बॉलीवुड की जानी - मानी अदाकारा देविका रानी से हुई। उनके माध्यम से वह बॉम्बे पहुँची और उन्होंने पर्दे को ही अपने विचारों की लड़ाई का माध्यम बनाने का निर्णय लिया। इसी सोच को आगे ले जाने के लिए 1935 में फिल्म 'अछूत कन्या ' में एक रोल अदा किया। उन्होंने छ: फ़िल्मों में काम किया। शिमला के सिनेमा घर में लगी फिल्म और बवाल मच गया... कलावती लाल की भतीजी उर्मिल ठाकुर के अनुसार कलावती बताया करती थी कि, "1937 में बनी फ़िल्म फैशनबल इंडिया ने तो जैसे मेरे जीवन की दशा और दिशा ही बदल दी। यह फ़िल्म शिमला के सिनेमा घर में लगी, जिसकी सूचना पिता को मिली तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था। उन्हें बॉम्बे से वापिस बुला लिया गया। उस दौर में लड़कियों का गाना बजाना सामाजिक कुरीतियों में शामिल थी। ऐसी लड़कियों को न तो सम्मान की दृष्टि से देखा जाता और न ही कोई उनसे शादी करने को तैयार होता, क्योंकि केवल तुरी-तुरन लोग ही नाच गाने का काम कर सकते थे। " इस तरह एक विचारधारा पिता के निराशाजनक व्यवहार के कारण गाँव के माहौल में क़ैद होकर रह गई, लेकिन जिनमें तूफ़ान से लड़ने की हिम्मत और ऊँचाइयों को छूने का हौसला हो उन्हें कौन रोक सकता है। शिक्षा की तिजोरी और इरादों की मज़बूती ने एक बार फिर उनका साथ दिया। कलावती ने वेदों का अध्ययन किया था व संस्कृत उनकी प्रिय भाषाओं में से एक थी, किसी तरह से माता व पिता से आज्ञा लेकर वह लाहौर पहुंची और आर्य संस्कृत कॉलेज पट्टी अमृतसर में बतौर संस्कृत की अध्यापिका काम आरम्भ किया। किन्तु फ़िल्मिस्तान की पहचान उनके पीछे कॉलेज तक पंहुच गई, और विवश्तापूर्वक कलावती को इस्तीफ़ा देना पड़ा। इस बात का उन्हें दु:ख तो हुआ लेकिन यह मुश्किल उनके सपनों और इरादों से बड़ी नहीं थी। धन्वंतरी मोहमद सादिक़ व फ़रीदा बेदी से थी प्रभावित संस्कृत कॉलेज से इस्तीफे के बाद कलावती के गाइड प्रोफ़ेसर नन्दराम की मदद से जल्द उन्हें ऑल इंडिया रेडियो लाहौर में नाटक कलाकार की नौकरी मिल गई। इस बीच वर्ष 1940 में कलावती ने जब कर्नल रामलाल को अपना जीवन साथी बनाने का निर्णय लिया तो पिता ने सहर्ष स्वीकार किया। कर्नल रामलाल कलावती से काफी प्रभावित थे और उन्होंने कलावती से शादी का इजहार किया, जिसे कलावती और उनके परिवार ने स्वीकार कर लिया। सोलन में चलाई किसान कन्या पाठशाला .. कलावती अपने पति के साथ सोलन आ गई जहाँ उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। दरअसल कर्नल रामलाल का पुश्तैनी गहरा जम्मू में था पर उस दौर में जम्मू का हालत ठीक नहीं थे, तो लाल दम्पति ने सोलन में बसने का निर्णय लिया। कलावती शिक्षा की अहमियत को खूब समझती थी, वह अपने भाईयों को भी लड़कियों को शिक्षित करने के लिए उत्साहित करती थी। पूरे इलाक़े में शिक्षा के प्रसार हेतु उन्होंने अपने पैतृक गाँव हिन्नर में किसान कन्या पाठशाला आरम्भ की जिसके लिए उन्होंने दस हज़ार रूपए अपनी निजी आय से दिए। महाशय सहीरामजी का कलावती के जीवन में बहुत बड़ा सहयोग रहा। अंतिम सांस तक गौसेवा करती रही कलावती : कलावती ने सोलन में अपने निवास स्थान पर एक डेरी फ़ार्म चलाने का निर्णय लिया था। वह जरसी, सिंधी और हॉल्स्टन नस्ल की गायें ख़रीदकर लाई, उन गायों की सेवा आख़री सांस तक करती रही और उनकी बेहतर नस्ल को गाँव के लोगों व अन्य गऊ पालकों को देती रही। उनकी भतीजी उर्मिल बताती है " बुआ जी के पास करीब 20 गाय थी जिनकी सेवा में वो जुटी रहती थी। वे हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में आयोजित होने वाली कई प्रतियोगिताओं में भी अपनी गायों को लेकर जाती थी और उनकी गाय अक्सर विजेता बनती थी।" कलावती लाल नारी कल्याण के कार्य भी करती रही। समाज में नारी का स्थान व स्थिति उन्हें चिन्तित करते थे। वह महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ खड़ी होती, जरूरतमंदों को अपने घर पर आश्रय देती और क़ानूनी तौर पर उन्हें न्याय दिलाने में सहायता करती। कलावती को 1982 में अपने पति कर्नल साहिब के देहान्त से गहरा सदमा पंहुचा लेकिन वह टूटी नहीं, हारी नहीं, उसी जज़्बे से बेजुबानों, पार्टी व सम्पूर्ण समाज के लिए काम करती रही। वह दिन भर गऊओं की सेवा व घर के कार्य करती, शाम को पार्टी के लिए अख़बार बेचती, रात को लालटेन की रोशनी में गऊओं के लिए घास काटती। जीवन के सफ़र को विराम देते हुए 5 जून 2002 को उन्होंने इस संसार से विदा ली। कलावती लाल अपने आप में एक संस्था थी, उनके जज्बे, जीवन और जीने की कला को शत-शत प्रणाम... ( स्व. कलावती लाल की जीवन यात्रा पर आधारित ये लेख उनकी भतीजी उर्मिल ठाकुर और कलावती लाल के करीबी रहे कुल राकेश पंत के साथ हुई विशेष बातचीत के आधार पर लिखा गया है। उर्मिल ठाकुर द्वारा लिखे गए एक लेख का कुछ भाग इस कहानी में उन्हीं के शब्दों में सम्मिलित किया गया है। )
एप्पल स्टेट होने के साथ-साथ हिमाचल पावर स्टेट भी है। यहां जलविद्युत उत्पादन की क्षमता देश के अन्य राज्यों के मुकाबले अच्छी है। देवभूमि हिमाचल में 27436 मेगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता है। अपनी जरूरत से अधिक बिजली होने के कारण हिमाचल देश के अन्य राज्यों को बिजली की आपूर्ति करता है और इसी लिए हिमाचल को हिन्दुस्तान का पावर हाउस भी कहा जाता है। हिमाचल प्रदेश में बिजली के इतिहास की बात करें तो शुरुआत वर्ष 1948 से की जानी चाहिए, उस दौरान बिजली की आपूर्ति केवल तत्कालीन रियासतों की राजधानियों में ही उपलब्ध थी और उस समय कनेक्टेड लोड 500 के.वी से कम हुआ करता था। ऐसा इसलिए क्योंकि राज्य में बिजली उपयोगिता का संगठन अपेक्षाकृत हाल ही में शुरू हुआ था। लोक निर्माण विभाग के तहत अगस्त, 1953 में पहला विद्युत डिवीजन बनाया गया था। इसके बाद अप्रैल 1964 में एम.पी.पी और ऊर्जा का एक विभाग बनाया गया और फिर हिमाचल प्रदेश राज्य विद्युत बोर्ड का गठन 1 सितम्बर, 1971 को विद्युत आपूर्ति अधिनियम (1948) के प्रावधानों के अनुसार किया गया। बाद में इसे हिमाचल प्रदेश राज्य विद्युत बोर्ड लिमिटेड के रूप में पुनर्गठित किया गया। आज हिमाचल के हर घर तक बिजली पहुँच चुकी है। वर्तमान में बिजली ट्रांसमिशन, सब-ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन लाइनों के नेटवर्क के माध्यम से विद्युत आपूर्ति की जा रही है, जो राज्य की लंबाई और चौड़ाई के साथ बिछाई गई है। हिमाचल प्रदेश को देश में सबसे कम टैरिफ पर बिजली प्रदान करने का सम्मान भी प्राप्त है। हिमाचल प्रदेश ने 100 प्रतिशत पैमाइश, बिलिंग और संग्रह का अनूठा गौरव हासिल किया है। हिमाचल प्रदेश में दुनिया में सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित पावर हाउस स्थापित किया गया है (लगभग 12,000 फीट की ऊंचाई पर रॉन्गटॉन्ग पावर हाउस)। इसी के साथ हिमाचल में एक पूरी तरह से भूमिगत पावर हाउस भी स्थापित और चालू किया गया है जो एशिया में अपनी अलग पहचान बनाए हुए है (भाबा पावर हाउस - 120 मेगावाट)। हिमाचल प्रदेश अपने पनबिजली संसाधनों में बेहद समृद्ध है। भारत की कुल क्षमता का लगभग पच्चीस प्रतिशत इसी राज्य में है। पांच बारहमासी नदी घाटियों पर विभिन्न जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण से राज्य में लगभग 27,436 मेगावाट पनबिजली पैदा हो सकती है। राज्य की कुल पनबिजली क्षमता में से, 10,519 मेगावाट का दोहन अभी तक किया जा रहा है, जिसमें से केवल 7.6 प्रतिशत हिमाचल प्रदेश सरकार के नियंत्रण में है, जबकि शेष क्षमता का दोहन केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है। पनबिजली उत्पादन उद्योग, कृषि और ग्रामीण विद्युतीकरण के लिए बिजली की बढ़ती आवश्यकता को पूरा कर सकता है। यह राज्य की आय का सबसे बड़ा स्रोत भी है क्योंकि यह अन्य राज्यों को बिजली प्रदान करता है। हिमाचल का मूल सिद्धांत आपूर्ति की विश्वसनीयता और गुणवत्ता सुनिश्चित करते हुए किफायती लागत पर पर्याप्त बिजली प्रदान करना है। सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए बिजली एक महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा है। नाथपा झाकड़ी पनबिजली नाथपा झाकड़ी पनबिजली स्टेशन की क्षमता 1500 मेगावाट है और यह देश का चौथा सबसे बड़ा जल विद्युत प्लांट है। नाथपा झाकड़ी प्लांट प्रति वर्ष 6950.88 (6612) मिलियन यूनिट बिजली का उत्पादन करने के लिए डिजाइन किया गया है। इस प्लांट से विद्युत का आवंटन उत्तर भारतीय राज्यों हरियाणा, हि.प्र., पंजाब, जम्मू एवं कश्मीर, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड तथा दिल्ली व चंडीगढ़ के सभी शहरों को होता है। इस परियोजना का बांध किन्नौर जिला में है और पावर स्टेशन शिमला जिला के नाथपा-झाकड़ी में स्थित है। सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड का नाथपा-झाकड़ी पावर स्टेशन कई मायनों में अनूठा है। इस भूमिगत पावर स्टेशन में मशीनों के संचालन में आधुनिक तकनीकों का समावेश किया गया है। महाराष्ट्र का कोयना प्रोजेक्ट 1960 मेगावॉट बिजली उत्पादन पर देश की सबसे बड़ी विद्युत् परियोजना होने का दावा करता है , परन्तु ये उत्पादन चार अलग अलग इकाईओं से किया जाता है जबकि हिमाचल में स्थित नाथपा झाकड़ी परियोजना एक ही यूनिट से 1500 मेगावाट बिजली का उत्पादन करता है। गिरिनगर जलविद्युत परियोजना सिरमौर जिले की गिरि नदी पर स्थित, गिरिनगर हाइडल परियोजना की क्षमता 60 मेगावाट है, जिसमें 30 मेगावाट की दो इकाइयाँ हैं। यह परियोजना हिमाचल प्रदेश राज्य विद्युत बोर्ड के अंतर्गत आती है और 29 वर्षों से चालू है। यह परियोजना राज्य सरकार द्वारा 1966 में पूरी की गई । बिनवा जलविद्युत परियोजना इस परियोजना की स्थापित क्षमता में 6 मेगावाट की है जिसमें कांगड़ा जिले के बैजनाथ के पास 3 मेगावाट की 2 इकाइयां हैं। यह परियोजना पालमपुर से 25 किमी तथा बैजनाथ से 14 से किमी की दूरी पर स्थित है। इसकी समुद्र तल से ऊँचाई 1515 मीटर है। संजय विद्युत परियोजना किन्नौर जिले में भाभा नदी पर स्थित 120 मेगावाट की स्थापित क्षमता वाली यह परियोजना पूरी तरह से भूमि के अन्दर है। इसमें प्रत्येक 40 मेगावाट की 3 इकाइयां हैं। इस परियोजना की विशेषता इसके भूमिगत स्विचयार्ड में है, जो एशिया में अकेला है। 1989-90 में पूरी हुई इस परियोजना की अनुमानित लागत लगभग 167 करोड़ रुपये थी। बस्सी जलविद्युत परियोजना बस्सी परियोजना (66 मेगावाट) ब्यास पावर हाउस ( मंडी जिला ) का विस्तार है। इसमें 16.5 मेगावाट की 4 इकाइयां हैं। यह जोगिंदर नगर परियोजना के शानन पावर हाउस के 'टेल वॉटर' का उपयोग करता है। लारजी जल विद्युत परियोजना लारजी पनबिजली परियोजना कुल्लू जिले में ब्यास नदी पर है और इसकी स्थापित क्षमता 126 मेगावाट की है। [1] यह परियोजना सितंबर 2007 में पूरी हुई थी। आंध्र जलविद्युत परियोजना वर्ष 1987-88 के दौरान शुरू (कमीशन) की गई इस परियोजना में 5.5 मेगावाट की 3 इकाइयाँ (कुल स्थापित क्षमता =16.5 मेगावाट)। यह शिमला जिले की रोहड़ू तहसील में स्थित है। परियोजना की लागत लगभग 9.74 करोड़ रुपये थी। रोंग टोंग जल विद्युत परियोजना रोंग टोंग एक 2 मेगावाट की परियोजना है जो लोंगुल-स्पीति जिले में रोंग टोंग नाला पर स्थित है जो स्पीति नदी की एक सहायक नदी है। 3,600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह परियोजना इस क्षेत्र के आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए चलाई गई पहली पनबिजली परियोजना थी। यह दुनिया में सबसे ऊँचाई पर स्थित परियोजनाओं में से एक है। बैनर और नेगल प्रोजेक्ट 12 मेगावाट की संयुक्त स्थापित क्षमता वाली ये परियोजनाएं कांगड़ा जिले में क्रमशः बानेर और नेगल नदियों पर स्थित हैं। दोनों धाराएं धौलाधार से निकलती हैं और दक्षिण में सहायक नदियों के रूप में ब्यास से जुड़ती हैं। सैंज जलविद्युत परियोजना स्थापित क्षमता 100 मेगावाट (२ × ५० मेगावाट)। यह कुल्लू जिले में स्थित है। भाखड़ा बांध भाखड़ा बांध सतलुज नदी पर बनाया गया पहला बाँध था। इसकी स्थापित क्षमता 1325 मेगावाट की है। मानसून के दौरान यह बाँध अतिरिक्त पानी का संग्रह करके पूरे वर्ष के दौरान जल छोडकर विद्युत का उत्पादन करता है। यह मानसून की बाढ़ के कारण होने वाले नुकसान को भी रोकता है। यह बांध पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में एक करोड़ एकड़ (40,000 वर्ग किमी) खेतों को सिंचाई प्रदान करता है। भाखड़ा बांध 1954 में स्थापित किया गया था।
हिमाचल प्रदेश एक रहस्यों से भरा राज्य है। यहां ऐसी कई चीज़ें है जिसे समझ पाना वैज्ञानिकों के लिए भी बेहद मुश्किल है। ऐसे ही कई रहस्यों में से एक है हिमाचल की स्पीति घाटी में मौजूद करीब 550 साल पुराना 'ममी'। करीब 550 साल पुरानी इस 'ममी' को भगवान समझकर लोग पूजते हैं। स्थानीय लोग इसे साक्षात भगवान मानते हैं। भारत तिब्बत सीमा पर हिमाचल के लाहौल स्पीति के गयू गांव में मिली इस ममी का रहस्य आज भी बरकरार है। तभी तो हर साल हजारों लोग इसे देखने के लिए देश विदेश से यहां पहुंचते हैं। ये स्थान हिमाचल प्रदेश में स्पीति घाटी के हिमालय के ठंडे रेगिस्तान में बसा हुआ एक छोटा ग्यू नाम से विख्यात गांव है। लाहौल स्पीति की ऐतिहासिक ताबो मोनेस्ट्री से करीब 50 किमी दूर गयू नाम का यह गांव साल में 6-8 महीने बर्फ से ढके रहने की वजह से दुनिया से कटा रहता है। कहते हैं कि यहां मिली यह ममी तिब्बत से गयू गाँव में आकर तपस्या करने वाले लामा संघा तेंजिन की है। कहा जाता है कि लामा ने साधना में लीन होते हुए अपने प्राण त्याग दिए थे। तेनजिंग बैठी हुई अवस्था में थे। उस समय उनकी उम्र मात्र 45 साल थी। इस ममी की वैज्ञानिक जाँच में इसकी उम्र 550 वर्ष से अधिक पाई गई है। आम तौर पर जब भी ममी की बात होती है तो जहन में मिस्र में पाए जाने वाले पाटियों में लिपटी ममी याद आती है। किसी मृत शरीर संरक्षित करने के लिए एक खास किस्म का लेप मृत शरीर पर लगाया जाता है, लेकिन इस ममी पर किसी किस्म का लेप नहीं लगाया है, फिर भी इतने वर्षों से यह ममी सुरक्षित है। चौंकाने वाली सबसे बड़ी बात यह है कि इस ममी के बाल और नाखून आज भी बढ़ते रहते हैं। हालाँकि इस तथ्य की सत्यता का कोई प्रमाण नहीं। इस स्थान पर एक शरीर मौजूद है, जिसके सर बाल है, त्वचा है और नाखून भी। न तो ये शरीर गलता है और न समय के साथ बदलता है। इसीलिए यहां के स्थानीय लोग इसे जिंदा भगवान मानते हैं और इसकी पूजा करते हैं। बताया जाता है की आईटीबीपी के जवानों को खुदाई के दौरान इस ममी का पता चला था। सन 1975 में भूकंप के बाद एक पुराने मकबरे में ये भिक्षु का ममीकृत शरीर दब गया था। इसकी खुदाई बहुत बाद में 2004 में की गई थी, और तब से यह पुरातत्वविदों और जिज्ञासु यात्रियों के लिए रुचि का विषय रहा है। खुदाई करते वक्त ममी के सर पर कुदाल लग गया था। ममी के सर पर इस ताजा निशान को आज भी देखा जा सकता है। 2009 तक यह ममी आईटीबीपी के कैम्पस में रखी हुई थी। देखने वालों की भीड़ देखकर बाद में इस ममी को गाँव में स्थापित किया गया। खास बात है कि ये ममी प्रकृति का प्रकोप झेलने के बावजूद सही सलामत है। प्राकृतिक स्व-ममीकरण प्रक्रिया का परिणाम : भिक्षु की ममी मिस्र के ममीकरण से बिल्कुल अलग है। इसे सोकुशिनबुत्सु नामक एक प्राकृतिक स्व-ममीकरण प्रक्रिया का परिणाम कहा जाता है, जो शरीर को उसके वसा और तरल पदार्थ से दूर कर देता है। इसका श्रेय जापान के यामागाटा में बौद्ध भिक्षुओं को दिया जाता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि इस प्रक्रिया में दस साल तक लग सकते हैं। इसकी शुरुआत साधु के जौ, चावल और फलियों (शरीर में वसा जोड़ने वाले भोजन) को खाने से रोकने के साथ होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मृत्यु के बाद वसा यानी फैट सड़ जाती है और इसलिए शरीर से वसा को हटाने से इसे बेहतर तरीके से संरक्षित करने में मदद मिलती है। यह अंगों के आकार को इस हद तक कम करने में भी मदद करता है कि सूखा हुआ शरीर अपघटन का विरोध करता है। शरीर के पास एक निरोधक के साथ -मोमबत्तियां जलाई जाती है ताकि इसे धीरे-धीरे सूखने में मदद मिल सके। शरीर में नमी को खत्म करने और मांस को हड्डी पर संरक्षित करने के लिए एक विशेष आहार भी दिया जाता है। मृत्यु के बाद, भिक्षु को सावधानी से एक भूमिगत कमरे में रखा जाता है । समय के साथ, भौतिक रूप सचमुच प्रार्थना में एक मूर्ति बन जाता है। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से तीस से भी कम स्व-ममीकृत भिक्षु दुनिया भर में पाए गए हैं। उनमें से अधिकांश जापान के एक द्वीप उत्तरी होंशू में पाए गए हैं। यहां भी भिक्षु भी प्राकृतिक ममीकरण की इस प्रथा का पालन करते हैं। संघा तेनज़िन के शरीर में अवशिष्ट नाइट्रोजन (लंबे समय तक भुखमरी का संकेत) के उच्च स्तर से पता चलता है कि उन्होंने खुद को ममी बनाने के लिए इस प्रक्रिया का पालन किया था। दांत और बाल अभी भी संरक्षित : इस ममी के दांत और बाल अभी भी अच्छी तरह से संरक्षित हैं। इस मम्मी को एक छोटे से कमरे में एक कांच के बाड़े में रखा गया है, जो एक लोकप्रिय गोम्पा के करीब स्थित है। इसकी सुरक्षा के लिए इस मम्मी को एक कमरे में रखा गया है। पर्टयक खिड़की के माध्यम से उसकी एक झलक देख सकते है। इस कमरे को केवल महत्वपूर्ण त्योहारों के दौरान खोला जाता है। ग्यू आधुनिकरण से अछूता एक शांत स्थान है। संघा तेंजिन की ममी आज एक मंदिर में विराजमान है, उसका मुँह खुला है, उसके दाँत दिखाई दे रहे हैं और आँखें खोखली हैं। वसा और नमी से रहित, यह जीवित बुद्ध का प्रतीक माना जाता है। मान्यता : गाँव के अस्तित्व के लिए दिया बलिदान मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि संघा तेंजिन ने गाँव के अस्तित्व के लिए खुद को बलिदान कर दिया था। कहानी यह है कि उन्होंने अपने अनुयायियों से विनाशकारी बिच्छू के संक्रमण के बाद खुद को ममीकृत करने के लिए कहा। जब उनकी आत्मा ने उनके शरीर को छोड़ दिया, तो ऐसा माना जाता है कि क्षितिज पर एक इंद्रधनुष दिखाई दिया जिसके बाद बिच्छू गायब हो गए और प्लेग समाप्त हो गया। सिर्फ 100 लोग बस्ते है इस गांव में : गयू नाम एक बेहद शांतिपूर्ण और सुंदर गाँव है। इस गांव में लगभग 100 लोग हैं। यहाँ के निवासी अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए दूर-दूर के स्थानों तक पैदल यात्रा करते हैं। इस गांव की दुरी काज़ा र से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है। जबकि शिमला से लगभग 430 किमी और मनाली से कुंजुम दर्रे के माध्यम से इस की दुरी लगभग 250 किमी है। इस घाटी में पहुंचने के लिए सबसे अच्छा तरीका निजी परिवहन है। यहां आने का सबसे सही समय गर्मियों के दौरान का है।
देवभूमि हिमाचल के जिला सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र की करीब सवा सौ पंचायतों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। ये पर्व दिवाली के एक माह बाद अमावस्या को पारंपरिक तरीके के साथ मनाया जाता है। यहां इसे ‘मशराली’ के नाम से जाना जाता है। गिरिपार के अतिरिक्त शिमला जिला के कुछ गांव, उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र एवं कुल्लू जिला के निरमंड में भी बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। दरअसल, गिरिपार क्षेत्र में किवदंती है कि यहां भगवान श्री राम के अयोध्या पहुंचने की खबर एक महीना देरी से मिली थी। इसके चलते यहाँ के लोग एक महीना बाद दिवाली का पर्व मनाते है जिसे आम भाषा में बूढी दिवाली कहा जाता हैं। हालांकि यहाँ मुख्य दिवाली भी धूमधाम से मनाया जाती है। इन क्षेत्रों में बलिराज के दहन की प्रथा भी है। विशेषकर कौरव वंशज के लोगों द्वारा अमावस्या की आधी रात में पूरे गांव की मशाल के साथ परिक्रमा करके एक भव्य जुलूस निकाला जाता है और बाद में गांव के सामूहिक स्थल पर एकत्रित घास, फूस तथा मक्की के टांडे में अग्नि देकर बलिराज दहन की परंपरा निभाई जाती है। वहीँ पांडव वंशज के लोग ब्रह्म मुहूर्त में बलिराज का दहन करते हैं। मान्यता है कि अमावस्या की रात को मशाल जुलूस निकालने से क्षेत्र में नकारात्मक शक्तियों का प्रवेश नहीं होता और गांव में समृद्धि के द्वार खुलते है। बनते है विशेष व्यंजन, नृृत्य करके होता है जश्न: बूढ़ी दिवाली के उपलक्ष्य पर ग्रामीण पारंपरिक व्यंजन बनाने के अतिरिक्त आपस में सूखे व्यंजन मूड़ा, चिड़वा, शाकुली, अखरोट वितरित करके दिवाली की शुभकामनाएं देते हैं। दिवाली के दिन उड़द भिगोकर, पीसकर, नमक मसाले मिलाकर आटे के गोले के बीच भरकर पहले तवे पर रोटी की तरह सेंका जाता है फिर सरसों के तेल में फ्राई कर देसी घी के साथ खाया जाता है। इसके बाद 4 से 5 दिनों तक नाच गाना और दावतों का दौर चलता है। परिवारों में औरतें विशेष तरह के पारंपरिक व्यंजन तैयार करती हैं। सिर्फ बूढ़ी दिवाली के अवसर पर बनाए जाने वाले गेहूं की नमकीन यानी मूड़ा और पापड़ सभी अतिथियों को विशेष तौर पर परोसा जाता है। इसके अतिरिक्त स्थानीय ग्रामीण द्वारा हारूल गीतों की ताल पर लोक नृत्य होता है। ग्रामीण इस त्यौहार पर अपनी बेटियों और बहनों को विशेष रूप से आमंत्रित करते हैं। ग्रामीण परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ साथ हुड़क नृृत्य करके जश्न मनाते हैं। कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है जबकि कुछ गांव में अर्ध रात्रि के समय एक समुदाय के लोगों द्वारा बुड़ियात नृत्य करके देव परंपरा को निभाया जाता है। क्यों मनाते हैं एक माह बाद दिवाली ! दिवाली मनाने के बाद पहाड़ में बूढ़ी दीवाली मनाने के पीछे लोगों के अपने अपने तर्क हैं। जनजाति क्षेत्र के बड़े-बुजुर्गों की माने तो पहाड़ के सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की सूचना देर से मिलने के कारण लोग एक माह बाद पहाड़ी बूढ़ी दिवाली मनाते हैं। वहीं कुछ लोगों का मत है कि दिवाली के वक्त लोग खेतीबाड़ी के कामकाज में बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं जिस कारण वह इसके ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली का जश्न परंपरागत तरीके से मनाते हैं। वहीं, कुछ बुजुर्गों की मानें तो, जब जौनसार व जौनपुर क्षेत्र सिरमौर राजा के अधीन था, तो उस समय राजा की पुत्री दिवाली के दिन मर गई थी। इसके चलते पूरे राज्य में एक माह का शोक मनाया गया था. उसके ठीक एक माह बाद लोगों ने उसी दिन दिवाली मनाई। इस दौरान पहले दिन छोटी दिवाली, दूसरे दिन रणदयाला, तीसरे दिन बड़ी दिवाली, चौथे दिन बिरुड़ी व पांचवें दिन जंदौई मेले के साथ दीवाली पर्व का समापन होता है।
हिमाचल देवभूमि ही नहीं वीर भूमि भी है। हिमाचल के वीर सपूतों ने जब-जब भी जरूरत पड़ी देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति दी। बात चाहे सीमाओं की सुरक्षा की हो या फिर आतंकवादियों को ढेर करने की, देवभूमि के रणबांकुरे अग्रिम पंक्ति में रहे। सेना के पहले परमवीर चक्र विजेता हिमाचल से ही सम्बन्ध रखते है। कांगड़ा जिला के मेजर सोमनाथ शर्मा ने पहला परमवीर चक्र मेडल हासिल कर हिमाचली साहस से दुनिया का परिचय करवाया था। मेजर सोमनाथ ही नहीं, पालमपुर के कैप्टन विक्रम बत्रा, धर्मशाला के लेफ्टिनेंट कर्नल डीएस थापा और बिलासपुर के राइफलमैन संजय कुमार समेत प्रदेश के चार वीरों ने परमवीर चक्र हासिल कर हिमाचलियों के अदम्य साहस का परिचय दिया है। देश में अब तक दिए गए कुल 21 परमवीर चक्रों में से सबसे अधिक, चार परमवीर चक्र हिमाचल प्रदेश के नाम हैं। 1. मेजर सोमनाथ शर्मा भारतीय सेना की कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर मेजर सोमनाथ शर्मा ने 1947 में पाकिस्तान के छक्के छुड़ा दिए थे। मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत उनकी वीरता के लिए परमवीर चक्र से नवाजा गया। परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी 1923 को कांगड़ा जिले में हुआ था। मेजर शर्मा मात्र 24 साल की उम्र में तीन नवंबर 1947 को पाकिस्तानी घुसपैठियों को बेदखल करते समय शहीद हो गए थे। युद्ध के दौरान जब वह एक साथी जवान की बंदूक में गोली भरने में मदद कर रहे थे तभी एक मोर्टार का गोला आकर गिरा। विस्फोट में उनका शरीर क्षत-विक्षत हो गया। मेजर शर्मा सदैव अपनी पैंट की जेब में गीता रखते थे। जेब में रखी गीता और उनकी बंदूक के खोल से उनके पार्थिव शरीर की पहचान की गई थी। 2. कैप्टेन विक्रम बत्रा विक्रम बत्रा भारतीय सेना के वो ऑफिसर थे, जिन्होंने कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व वीरता का परिचय देते हुए वीरगति प्राप्त की। इसके बाद उन्हें भारत के वीरता सम्मान परमवीर चक्र से भी सम्मानित किया गया। ये वो जाबाज़ जवान है जिसने शहीद होने से पहले अपने बहुत से साथियों को बचाया और जिसके बारे में खुद इंडियन आर्मी चीफ ने कहा था कि अगर वो जिंदा वापस आता, तो इंडियन आर्मी का हेड बन गया होता। परमवीर चक्र पाने वाले विक्रम बत्रा आखिरी हैं। 7 जुलाई 1999 को उनकी मौत एक जख्मी ऑफिसर को बचाते हुए हुई थी। इस ऑफिसर को बचाते हुए कैप्टन ने कहा था, ‘तुम हट जाओ. तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं’। 3. मेजर धनसिंह थापा मेजर धनसिंह थापा परमवीर चक्र से सम्मानित नेपाली मूल के भारतीय सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान वर्ष 1962 मे मिला। वे अगस्त 1949में भारतीय सेना की आठवीं गोरखा राइफल्स में अधिकारी के रूप में शामिल हुए थे। भारत द्वारा अधिकृत विवादित क्षेत्र में बढ़ते चीनी घुसपैठ के जवाब में भारत सरकार ने "फॉरवर्ड पॉलिसी" को लागू किया। योजना यह थी कि चीन के सामने कई छोटी-छोटी पोस्टों की स्थापना की जाए। पांगॉन्ग झील के उत्तरी किनारे पर 8 गोरखा राइफल्स की प्रथम बटालियन द्वारा स्थापित एक पोस्ट थी जो मेजर धन सिंह थापा की कमान में थी। जल्द ही यह पोस्ट चीनी सेनाओं द्वारा घेर ली गई। मेजर थापा और उनके सैनिकों ने इस पोस्ट पर होने वाले तीन आक्रमणों को असफल कर दिया। थापा सहित बचे लोगों को युद्ध के कैदियों के रूप में कैद कर लिया गया था। अपने महान कृत्यों और अपने सैनिकों को युद्ध के दौरान प्रेरित करने के उनके प्रयासों के कारण उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। 4. राइफल मैन संजय कुमार परमवीर राइफलमैन संजय कुमार, वो जांबाज सिपाही है जिन्होंने कारगिल वॉर के दौरान अदम्य शौर्य का प्रदर्शन करते हुए दुश्मन को उसी के हथियार से धूल चटाई थी। लहूलुहान होने के बावजूद संजय कुमार तब तक दुश्मन से जूझते रहे थे, जब तक प्वाइंट फ्लैट टॉप दुश्मन से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले से भारतीय सेना में भर्ती हुए सूबेदार संजय कुमार की शौर्यगाथा प्रेरणादायक है। 4 जुलाई 1999 को राइफल मैन संजय कुमार जब चौकी नंबर 4875 पर हमले के लिए आगे बढ़े तो एक जगह से दुश्मन ऑटोमेटिक गन ने जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी और टुकड़ी का आगे बढ़ना कठिन हो गया। ऐसी स्थिति में गंभीरता को देखते हुए राइफल मैन संजय कुमार ने तय किया कि उस ठिकाने को अचानक हमले से खामोश करा दिया जाए। इस इरादे से संजय ने यकायक उस जगह हमला करके आमने-सामने की मुठभेड़ में तीन पाकिस्तानियों को मार गिराया। अचानक हुए हमले से दुश्मन बौखला कर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनिवर्सल मशीनगन भी छोड़ गए। संजय कुमार ने वो गन भी हथियाई और उससे दुश्मन का ही सफाया शुरू कर दिया।
शिक्षा के क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, देश भर में दुसरे नंबर पर है। प्रदेश की साक्षरता दर वर्ष 1971 में 31.96 प्रतिशत थी, 2021 में यह 86.60 प्रतिशत हो गई है और लगातार बेहतर होती जा रही है। हिमाचल में स्कूल, कॉलेजों की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा हुआ है। हिमाचल प्रदेश शिक्षा के क्षेत्र में देशभर में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले राज्य के रूप में उभरा है। वर्तमान में राज्य में 131 स्नातक महाविद्यालय, 1,878 वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, 931 उच्च विद्यालय विद्यार्थियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। सरकार द्वारा राज्य में शिक्षा क्षेत्र को सशक्त करने के लिए अनेक बहुआयामी कदम उठाए गए हैं। राष्ट्रीय उच्च स्तर शिक्षा अभियान को वर्ष 2013 में सबसे पहले हिमाचल ने ही लागू किया था। इसके अलावा राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने में हिमाचल देशभर में अग्रणी रहा है। पिछले वर्ष हिमाचल प्रदेश को केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओर से जारी किए जाने वाले परफॉर्मेंस ग्रेडिंग इंडेक्स में ग्रेड वन में शामिल किया गया था। वर्तमान में राज्य में 131 स्नातक महाविद्यालय, 1,878 वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, 931 उच्च विद्यालय, पांच अभियान्त्रिकी महाविद्यालय, चार फार्मेसी महाविद्यालय 16 पॉलिटेकनिक महाविद्यालय और 138 औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान विद्यार्थियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। एनआईटी हमीरपुर राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान हमीरपुर देश के 31 एनआईटी में से एक है, जो 7 अगस्त 1986 को क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज के रूप में अस्तित्व में आया। स्थापना के समय, संस्थान में केवल दो विभाग थे, सिविल और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग। 26 जून 2002 को, आरईसी हमीरपुर को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया और राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में अपग्रेड किया गया। बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध करवाने के लिहाज से विश्व बैंक द्वारा इस संस्थान को सबसे अच्छी एनआईटी का दर्जा प्रदान किया गया है। संस्थान के पास उद्योग की आवश्यकताओं और तकनीकी दुनिया में होने वाली घटनाओं के जवाब में विकसित होने और बदलने का लचीलापन है। आईजीएमसी : हिमाचल प्रदेश मेडिकल कॉलेज शिमला (HPMC) की स्थापना वर्ष 1966 में पहले बैच में 50 छात्रों के प्रवेश के साथ की गई थी। इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला से संबंधित है। इंदिरा गाँधी मेडिकल कॉलेज राज्य के लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं को स्वास्थ्य सेवाओं के मानकों के साथ पूरा कर रहा है। आईजीएमसी से अब तक 923 स्नातकोत्तर और 377 डिप्लोमा छात्र पास हो चुके हैं। आईजीएमसी में एमबीबीएस की सीटों को वर्ष 1978 बढ़ाकर 65 किया गया था। अब एमबीबीएस की सीटें 65 से बढ़ाकर 100 कर दी गई हैं। वर्ष 1981 में आईजीएमसी में 16 विषयों में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम शुरू किए गए थे। अब इन्हें 16 से 20 कर दिया गया है। इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज शिमला को भारत सरकार द्वारा क्षेत्रीय कैंसर केंद्र का दर्जा दिया गया है। आईआईटी मंडी आईआईटी मंडी के स्थाई परिसर के लिए 24 फरवरी 2009 को आधारशिला रखी गई थी। आईआईटी मंडी में बीटेक का पहला बैच वर्ष 2009 में बैठा। वर्ष 2013 में पहला बैच पास आउट हुआ उसके बाद आईआईटी मंडी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। देश भर से छात्र पढ़ाई करने के लिए यहां आ रहे हैं। अपनी स्थापना के बाद से ही यह संस्थान तेजी से प्रगति कर रहा है। आईआईटी मंडी में कई ऐसे पाठ्यक्रम पढ़ाए जा रहे हैं जो वास्तविक समस्याओं को हल करने के लिए सक्षम है। ये संस्थान मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 2008 में प्रौद्योगिकी संस्थान (संशोधन) अधिनियम, 2011 के तहत स्थापित आठ भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIT) में से एक है। हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की स्थापना 22 जुलाई 1970 को हिमाचल प्रदेश की विधान सभा के एक अधिनियम द्वारा की गई थी। यह राज्य का एकमात्र बहु-संकाय आवासीय और संबद्ध विश्वविद्यालय है जो शहरी, ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों को औपचारिक और डिस्टेंस शिक्षा प्रदान करता है। विश्वविद्यालय का मुख्यालय शिमला के सुरम्य उपनगर समर हिल में स्थित है। यह राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद द्वारा एक ग्रेड 'ए' मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय है। विश्वविद्यालय के छात्र खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों में राष्ट्रीय स्तर पर सराहनीय प्रदर्शन करते आ रहे हैं। हर साल पर्याप्त संख्या में छात्र NET, SET, JRF और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करते हैं। बागवानी यूनिवर्सिटी हिमाचल डॉ यशवंत सिंह परमार बागवानी और वानिकी विश्वविद्यालय, सोलन की स्थापना 1 दिसंबर 1985 को बागवानी, वानिकी और सम्बंधित विषयों के क्षेत्र में शिक्षा, अनुसंधान और विस्तार शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी। हिमाचल प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और वास्तुकार स्वर्गीय डॉ यशवंत सिंह परमार ने राज्य की अर्थव्यवस्था को विकसित करने और सुधारने के लिए बागवानी और वानिकी के महत्व को महसूस किया जिसके कारण इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। यह विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले के नौणी में स्थित है। विश्वविद्यालय के चार घटक कॉलेज हैं, जिनमें से दो मुख्य परिसर नौणी में स्थित हैं, एक बागवानी के लिए और दूसरा वानिकी के लिए। तीसरा कॉलेज यानी बागवानी और वानिकी कॉलेज, हमीरपुर जिले के नेरी में नादौन-हमीरपुर राज्य राजमार्ग पर स्थित है। चौथा कॉलेज यानि कॉलेज ऑफ हॉर्टिकल्चर एंड फॉरेस्ट्री, थुनाग (मंडी) थुनाग जिला मंडी में स्थित है। इसके अलावा, राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में पांच क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र, 12 सैटेलाइट स्टेशन और पांच कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) स्थित हैं। पालमपुर यूनिवर्सिटी हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना 1 नवंबर, 1978 को हुई थी। यह आईसीएआर से मान्यता प्राप्त और आईएसओ 9001:2015 प्रमाणित संस्थान है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने इस विश्वविद्यालय को देश के सभी कृषि विश्वविद्यालयों में 14वां स्थान दिया है। विश्वविद्यालय को कृषि और शिक्षा की अन्य संबद्ध शाखाओं में शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रावधान करने के लिए, विशेष रूप से हिमाचल प्रदेश के ग्रामीण लोगों के लिए, इस तरह के विज्ञान के अनुसंधान और उपक्रम के विस्तार और अनुसंधान की प्रगति को आगे बढ़ाने के लिए जनादेश दिया गया है। आज राज्य ने पहाड़ी कृषि विविधीकरण के लिए अपना नाम कमाया है और कृषक समुदाय ने विश्वविद्यालय में अपना विश्वास स्थापित किया है।
एक ऐसी राजकुमारी जो देश को आज़ाद करवाने के लिए तपस्वी बन गयी, एक प्रख्यात गांधीवादी, स्वतंत्रता सेनानी और एक सामाजिक कार्यकर्ता बनी, महात्मा गाँधी से प्रभावित हो कर आज़ादी के आंदोलन से जुडी, जेल गई। आज़ादी के बाद हिमाचल से सांसद चुनी गई और दस साल तक स्वास्थ्य मंत्री रही। देश की पहली महिला कैबिनेट मंत्री होने का सम्मान भी उन्हें प्राप्त है। वो महिला थी राजकुमारी अमृत कौर। ये बहुत कम लोग जानते है की अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान बनाने में राजकुमारी अमृत कौर का बड़ा हाथ है। शिमला के समर हिल में एक रेस्ट हाउस है, राजकुमारी अमृत कौर गेस्ट हाउस जो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के स्टाफ के लिए है। देशभर में सेवाएं दे रहे एम्स के डॉक्टर, नर्स व अन्य स्टाफ यहाँ आकर छुट्टियां बिता सकते है, वो भी निशुल्क। दरअसल, ये ईमारत 'मैनरविल' स्वतंत्र भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर का पैतृक आवास थी। इसे अमृत कौर ने एम्स को डोनेट किया था। आज निसंदेह एम्स देश का सबसे बड़ा और सबसे विश्वसनीय स्वास्थ्य संस्थान है। इस एम्स की कल्पना को मूर्त रूप देने में राजकुमारी अमृत कौर का बड़ा योगदान रहा रहा है। उनके स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए ही एम्स बना, वे एम्स की पहली अध्यक्ष भी बनाई गई। उस दौर में देश नया - नया आज़ाद हुआ था और आर्थिक तौर पर भी पिछड़ा हुआ था। तब एम्स की स्थापना के लिए राजकुमारी अमृत कौर ने न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, पश्चिम जर्मनी, स्वीडन और अमेरिका जैसे देशों से फंडिंग का इंतजाम भी किया था। एम्स की वेबसाइट पर भी इसके निर्माण का श्रेय तीन लोगों को दिया गया है, पहले जवाहरलाल नेहरू, दूसरी राजकुमारी अमृत कौर और तीसरे एक भारतीय सिविल सेवक सर जोसेफ भोरे। एम्स की ऑफिसियल वेबसाइट पर लिखा है कि भारत को स्वास्थ्य सुविधाओं और आधुनिक तकनीकों से परिपूर्ण देश बनाना पंडित जवाहरलाल नेहरू का सपना था और आजादी के तुरंत बाद उन्होंने इसे हासिल करने के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार किया। नेहरू का सपना था दक्षिण पूर्व एशिया में एक ऐसा केंद्र स्थापित किया जाए जो चिकित्सा शिक्षा और अनुसंधान को गति प्रदान करे और इस सपने को पूरा करने में उनका साथ दिया उनकी स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर ने। राजपरिवार में जन्मी, करीब 17 साल रही महात्मा गांधी की सेक्रेटरी लखनऊ, 2 फरवरी 1889, पंजाब के कपूरथला राज्य के राजसी परिवार से ताल्लुख रखने वाले राजा हरनाम सिंह के घर बेटी ने जन्म लिया, नाम रखा गया अमृत कौर। बचपन से ही बेहद प्रतिभावान, इंग्लैंड के डोरसेट में स्थिति शेरबोर्न स्कूल फॉर गर्ल्स से स्कूली पढ़ाई पूरी की। किताबों के साथ -साथ खेल के मैदान में भी अपनी प्रतिभा दिखाई। हॉकी से लेकर क्रिकेट तक खेला। स्कूली शिक्षा पूरी हुई तो परिवार ने उच्च शिक्षा के लिए ऑक्सफ़ोर्ड भेज दिया। शिक्षा पूरी कर 1918 में वतन वापस लौटी और इसके बाद हुआ 1919 का जलियांवाला बाग़ हत्याकांड। इस हत्याकांड ने राजकुमारी अमृत कौर को झकझोर कर रख दिया और उन्होंने निश्चय कर लिया कि देश की आज़ादी और उत्थान के लिए कुछ करना है, सो सियासत का रास्ते पर निकल पड़ी। राजकुमारी अमृत कौर महात्मा गाँधी से बेहद प्रभावित थी। उस समय उनके पिता हरनाम सिंह से मिलने गोपालकृष्ण गोखले सहित कई बड़े नेता आते थे। उनके ज़रिए ही राजकुमारी अमृत कौर को महात्मा गांधी के बारे में अधिक जानकारी मिली। हालांकि उनके माता-पिता नहीं चाहते थे कि वो आज़ादी की लड़ाई में भाग लें, राजकुमारी अमृत कौर तो ठान चुकी थी। वे निरंतर महात्मा गांधी को खत लिखती रही। 1927 में मार्गरेट कजिन्स के साथ मिलकर उन्होंने ऑल इंडिया विमेंस कांफ्रेंस की शुरुआत की और बाद में इसकी प्रेसिडेंट भी बनीं। इसी दौरान एक दिन अचानक राजकुमारी अमृत कौर को एक खत मिला, ये खत लिखा था महात्मा गांधी ने। उस खत में महात्मा गांधी ने लिखा, 'मैं एक ऐसी महिला की तलाश में हूं जिसे अपने ध्येय का भान हो। क्या तुम वो महिला हो, क्या तुम वो बन सकती हो? ' बस फिर क्या था राजकुमारी अमृत कौर आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गईं। इस दौरान दांडी मार्च और भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने की वजह से जेल भी गईं। वे करीब 17 सालों तक महात्मा गांधी की सेक्रेटरी रही। महात्मा गांधी के प्रभाव में आने के बाद उन्होंने भौतिक जीवन की सभी सुख-सुविधाओं को छोड़ दिया और तपस्वी का जीवन अपना लिया। ब्रिटिश हुकूमत ने लगाया था राजद्रोह का आरोप अमृत कौर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रतिनिधि के तौर पर सन् 1937 में पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत के बन्नू गईं। ब्रिटिश सरकार को यह बात नागवार गुजरी और राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। उन्होंने सभी को मताधिकार दिए जाने की भी वकालत की और भारतीय मताधिकार व संवैधानिक सुधार के लिए गठित ‘लोथियन समिति’ तथा ब्रिटिश पार्लियामेंट की संवैधानिक सुधारों के लिए बनी संयुक्त चयन समिति के सामने भी अपना पक्ष रखा। अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की सह-संस्थापक महिलाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए 1927 में ‘अखिल भारतीय महिला सम्मेलन’ की स्थापना की गई। कौर इसकी सह-संस्थापक थीं। वह 1930 में इसकी सचिव और 1933 में अध्यक्ष बनीं। उन्होंने ‘ऑल इंडिया विमेंस एजुकेशन फंड एसोसिएशन’ के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया और नई दिल्ली के ‘लेडी इर्विन कॉलेज’ की कार्यकारी समिति की सदस्य रहीं। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘शिक्षा सलाहकार बोर्ड’ का सदस्य भी बनाया, जिससे उन्होंने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान इस्तीफा दे दिया था। उन्हें 1945 में लंदन और 1946 में पेरिस के यूनेस्को सम्मेलन में भारतीय सदस्य के रूप में भेजा गया था। वह ‘अखिल भारतीय बुनकर संघ’ के न्यासी बोर्ड की सदस्य भी रहीं। कौर 14 साल तक इंडियन रेड क्रॉस सोसायटी की चेयरपर्सन भी रहीं। देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री बनी कौर जब देश आज़ाद हुआ, तब उन्होंने हिमाचल प्रदेश से कांग्रेस टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। राजकुमारी अमृत कौर सिर्फ चुनाव ही नहीं जीतीं, बल्कि आज़ाद भारत की पहली कैबिनेट में हेल्थ मिनिस्टर भी बनीं। वे लगातार दस सालों तक इस पद पर बनी रहीं। वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली की प्रेसिडेंट भी बनीं। इससे पहले कोई भी महिला इस पद तक नहीं पहुंची थी। यही नहीं इस पद पर पहुंचने वाली वो एशिया से पहली व्यक्ति थीं। स्वास्थ्य मंत्री बनने के बाद उन्होंने कई संस्थान शुरू किए, जैसे इंडियन काउंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर, ट्यूबरक्लोसिस एसोसियेशन ऑफ इंडिया, राजकुमारी अमृत कौर कॉलेज ऑफ़ नर्सिंग, और सेंट्रल लेप्रोसी एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट। इन सभी के अलावा नई दिल्ली में एम्स की स्थापना में अमृत कौर ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। टाइम मैगज़ीन ने दी वुमन ऑफ द ईयर लिस्ट में जगह दुनिया की मशहूर टाइम मैगज़ीन ने 2020 में बेटे 100 सालों के लिए वुमन ऑफ द ईयर की लिस्ट ज़ारी की थी। भारत से इस लिस्ट में दो नाम हैं, एक पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जिन्हें साल 1976 के लिए इस लिस्ट में रखा गया। लिस्ट में शामिल दूसरा नाम है राजकुमारी अमृत कौर का, जिन्हें साल 1947 के लिए इस लिस्ट में जगह दी गई है।
कला के क्षेत्र में काँगड़ा चित्रकारी का एक विशिष्ठ स्थान है। जैसा नाम से ज्ञात होता है, राजशाही के दौरे में इसका उदगम काँगड़ा से हुआ। अठारह्वीं शताब्दी में बिसोहली चित्रकारी के फीका पड़ जाने से कांगड़ा चित्रकारी फलने-फूलने लगी। कांगड़ा चित्रों के मुख्य केंद्र गुलेर, बसोली, चंबा, नूरपुर, बिलासपुर और कांगड़ा हैं, लेकिन बाद में यह शैली मंडी, सुकेत, कुल्लू, अर्की, नालागढ़ और टिहरी गढ़वाल (मोला राम द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया) में भी पहुंच गयी। अब इसे सामूहिक रूप से पहाड़ी चित्रकला के रूप में जाना जाता है, जो 17वीं और 19वीं शताब्दी के बीच राजपूत शासकों द्वारा संरक्षित शैली को दर्शाता है। कांगड़ा चित्रकला कांगड़ा की सचित्र कला है। वर्ष 1765 से 1823 के दरमियान कांगड़ा के महाराजा संसार चंद के समय में इस कला को पंख लगे। महाराजा संसार चंद के दौर को इस कला का सुनहरा दौर भी कहा जाता है। कांगड़ा चित्रकला में सबसे अधिक भगवान कृष्ण की लीलाओं के रूपों को देखा जा सकता हैं। ख़ास बात ये है कि उस दौर में इसमें इस्तेमाल होने वाले रंग भी रसायनयुक्त न होकर पेड़ पौधों से बनते थे और ब्रश भी। ये ही कारण है कि करीब तीन सौ वर्ष गुजरने के बाद भी इन चित्रों में पहले जैसी ताजगी बरकरार है। उस दौर में ये चित्र हस्त निर्मित स्यालकोटी कागज पर उकेरे जाते थे, और खनिज और वनस्पत्ति रंगो का इस्तेमाल होता था। तब तंगरम हरिताल, दानाफरग, लाजवद्द, खडिया और काजल की स्याही प्रमुख रंग थे। जबकि रेखाकण के लिए गिलहरी की पूँछ के बाल से बनी तुलिका का उपयोग किया जाता था। पर समय के साथ अब हर प्रकार के कागज़ पर पोस्टर रंगों की मदद से कांगड़ा चित्र तैयार किये जाते हैं। कलाप्रेमियों के लिये इनकी कीमत भी प्राकृतिक वस्तुओं से बने मूल चित्रों से कई गुना कम होती है। इन्हें हस्तकला की दूकानों, चित्रकला की दूकानों या पर्यटन स्थलों पर आसानी से खरीदा जा सकता है। लघुचित्र में सबसे उत्कृष्ट मानी जाती है कांगड़ा कलम : कला जगत को भारत की लघुचित्र कला एक अनुपम देन है। जम्मू से लेकर गढ़वाल तक उतर- पश्चिम हिमालय पहाड़ी रियासतों की इस महान परम्परा का वर्चस्व 17वीं से 19वीं शताब्दी तक रहा। ये कला छोटी-छोटी रियासतों में पनपी है जिनमें से अधिकांश वर्तमान हिमाचल प्रदेश में है। यह चित्रकला पहाड़ी शैली के नाम से विश्व भर में विख्यात है। इस पहाड़ी चित्रकला के गुलेर ,कांगड़ा, चम्बा, मण्डी, बिलासपुर, कुल्लू मुख्य केन्द्र थे। कांगड़ा कलम को लघुचित्र में सबसे उत्कृष्ट माना गया है। काँगड़ा कलम का स्वर्ण युग : महाराजा संसार चन्द (1775-1823) ने कांगड़ा चित्र शैली को विकास के शिखर पर पहुँचाया। उनके शासन काल काँगड़ा कलम का स्वर्ण युग कहा जाता है। उन्होंने गुलेर के कलाकारों को अपने दरबार की ओर आकर्षित किया। राजा संसार चन्द कांगड़ा घाटी के शक्तशाली व कलापोषक राजा हुए है। उनके शासन काल मे ही कवि जयदेव की संस्कृत प्रेम कविता “गीत-गोविन्द”, “बिहारी की सतसई”,”भगवत पुराण”, “नलदमवन्ती” व “केशवदास” “रसिकप्रिया” कवीप्रिया को चित्रों में डाला गया है। कृष्ण “विभिन्न“ रुपों में इस चित्र कला का प्रतिनिधित्व करतें हैं। राजा के साथ श्रीकृष्ण के श्रृँगारिक चित्र, राग-रानियों, रामायण, महाभारत, भागवत्त, चण्डी-उपाख्यान (दुर्गा पाठ), देवी महत्मये व पौराणिक कथाओं पर चित्र कला तैयार हुई। इनका रहा है विशेष योगदान : किसी राष्ट्र की पहचान उसकी समृद्ध कला-संस्कृती से होती है। कांगड़ा कलम के विकास की गति निरन्तर जारी है। पंडित सेऊ व उनके वंशज द्वारा कला रुपी पौधों को जीवित रखने के लिए कला के वरिष्ठ एवं कला पोशक व महान कला संरक्षक ओम सुजानपुरी, चम्बा के विजय शर्मा (पदमश्री) का महान योगदान रहा है। भाषा संस्कृति विभाग व हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी के प्रयासों से कुछ कला प्रतिभाएं और सामने हैं, जिनमें राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता मुकेश कुमार, धनी राम, प्रीतम चन्द, जोगिन्दर सिंह मुख्य हैं। सियालकोट कागज़ पर तैयार किये गए है चित्र : कहते है कांगड़ा की मिट्टी में कलाकार उत्पन्न करने की क्षमता है। ज़िला प्रशासन कांगड़ा के प्रयासों से यहाँ कई छिपी कला प्रतिभाओं को प्रोत्साहित किया गया है, जिनमें कांगड़ा कलम की महान परम्परा को जीवित रखने की अपार क्षमता है। ये सभी चित्र बही खातों के लिये बनाए गए विशेष प्रकार के हस्त निर्मित कागज़ों पर उकेरे गए है, जिन्हें सियालकोट कागज़ भी कहा जाता है। पहले इस कागज़ पर एक सफेद द्रव्य से लेप किया जाता है और बाद में शंख से घिस कर चिकना किया जाता है। जबकि रंगों को फूलों, पत्तियों, जड़ों, मिट्टी के विभिन्न रंगों, जड़ी बूटियों और बीजों से निकाल कर बनाया जाता है। इन रंगो को मिट्टी के प्यालों या बड़ी सीपों में रखा जाता है। वर्ष 2012 में मिला जीआई टैग : कांगड़ा चित्रकारी को वर्ष 2012 में जीआई टैग दिया गया था। वर्ल्ड इंटलैक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक जियोग्राफिकल इंडिकेशंस टैग एक प्रकार का लेबल होता है जिसमें किसी प्रोडक्ट को विशेष भौगोलिक पहचान दी जाती है। ऐसा प्रोडक्ट जिसकी विशेषता या प्रतिष्ठा मुख्य रूप से प्राकृति और मानवीय कारकों पर निर्भर करती है। ये टैग किसी खास भौगोलिक परिस्थिति में पाई जाने वाली या फिर तैयार की जाने वाली वस्तुओं के दूसरे स्थानों पर गैर-कानूनी प्रयोग को रोकने के लिए भी दिया जाता है।
‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा’ ....हाल ही में राष्ट्रपति भवन में नागरिक अलंकरण समारोह का आयोजन हुआ जिसमें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने विभिन्न पटलों पर अपनी आभा बिखेरने वाले समाज के कई नायकों को सम्मानित किया। पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री पुरस्कार पाने वालों की फेहरिस्त में खास रहे कुछ गुमनाम नायकों के नाम। ये वो नायक है जिन्होंने ताउम्र किसी एक नेक मकसद के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया, जिन्होंने जमीनी स्तर पर काम करते हुए मील का पत्थर स्थापित किया। समाज के तमस को निरंतर अपने कर्मों की ज्योति से मंद करते इन गुमनाम नायकों के चेहरे आज सबके सामने है, जिन्हें कुछ दिन पहले शायद ही कोई जानता होगा, पर अब ये शक्ति, सामर्थ्य और दृढ़ता के प्रतीक है। नए भारत की तस्वीर में सम्पन्नता, खुशहाली और मानवता के रंग भरने वाले इन गुमनाम रंगरेजों को उचित सम्मान देना निसंदेह एक सुपहल है। 'इनसाइक्लोपीडिया ऑफ फारेस्ट' : नंगे पैर राष्ट्रपति से पद्म श्री पुरस्कार ग्रहण करती पर्यावरणविद् तुलसी गौड़ा सही मायनों में 'इनसाइक्लोपीडिया ऑफ फारेस्ट' है। 72 वर्षीय आदिवासी महिला तुलसी गौड़ा कर्नाटक के होनाली गांव की रहने वाली है और 12 साल की उम्र से वे अब तक 30 हजार से भी ज्यादा पौधे रोप चुकी हैं। उन्हें पौधों और जड़ी-बूटियों की विविध प्रजातियों का ज्ञान है जिसके चलते उन्हें इन्साइक्लोपीडिया ऑफ फॉरेस्ट कहा जाता है। उन्होंने फॉरेस्ट डिपार्टमेंट में अस्थाई तौर पर सेवाएं भी दी है और वे आज की नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा है। 'सीड मदर' है पद्मश्री रहीबाई : महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की आदिवासी किसान राहीबाई सोमा पोपरे को बीज माता या सीड मदर के नाम से भी जाना जाता है। कृषि के क्षेत्र में उनका योगदान अतुलनीय है जिसके लिए उन्हें पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। राहीबाई सोमा पोपरे का सफर बेहद रोचक है। उन्होंने अपने परिवार से खेती की पारंपरिक विधियां सीखीं और जंगल के संसाधनों का ज्ञान एकत्र किया। फिर दो दशक पहले उन्होंने देशी बीज तैयार करना शुरू किया। उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूमकर देशी बीजों का संरक्षण करने का अभियान शुरू किया। उनके पास एक बीज बैंक है जिसमें करीब 200 प्रकार के देशी बीज हैं। एक फल बेचने वाले ने बदली कई जिंदगियां : कर्नाटक के मंगलुरु के संतरा बेचने वाले 68 वर्षीय 'पद्म श्री' हरेकला हजब्बा की कहानी बेमिसाल है। वे खुद कभी स्कूल नहीं गए, इसलिए चाहते थे कि गांव के बच्चों की जिंदगी उनके जैसी न बीते। हरेकाला के गांव न्यूपडपू में कई साल तक कोई स्कूल नहीं था, सो हजब्बा ने पैसे जमा कर गांव में एक स्कूल का निर्माण कर ग्रामीण शिक्षा में क्रांति लाने का काम किया। संतरे बेचकर रोजाना करीब 150 रुपए कमाने वाले हरेकाला हजब्बा ने एक प्राइमरी स्कूल खड़ा करवा दिया जिसमें कक्षा दसवीं तक 175 बच्चे पढ़ते हैं। वर्ष 2000 में अपनी जिंदगीभर की कमाई लगाकर उन्होंने एक एकड़ जमीन पर बच्चों के लिए स्कूल बनाया था । हिम्मता राम भंभू की हिम्मत और जज्बे को सलाम : ये हिम्मता राम भंभू की हिम्मत और जज्बा ही है कि उन्होंने राजस्थान के नागौर के पास एक गांव की 25 बीघा जमीन पर न सिर्फ 11,000 पेड़ों वाला जंगल खड़ा किया है, बल्कि पांच साल में पांच लाख से ज्यादा पेड़ लगाए हैं। हिम्मताराम पिछले 25 साल से पेड़ों के संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं और राजस्थान के कम पेड़ वाले जिलों जैसे नागौर, जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, सीकर में अब तक साढ़े पांच लाख पौधे रोप चुके हैं। इसी अतुल्य योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री सम्मान प्रदान किया गया। हिम्मताराम ने 6 एकड़ जमीन पर एक खास तरह का बायोडायवर्सिटी सेंटर भी बनाया है जो मोर, चिंकारा जैसे दुर्लभ पशु-पक्षियों के लिए रिहैबिलिटेशन सेंटर बन गया है। गैस त्रासदी पीड़ितों की आवाज थे अब्दुल जब्बार : भोपाल गैस त्रासदी देश के सबसे दर्दनाक हादसों में से एक थी। इसी मानवीय चूक की वजह से आज तक बच्चे विकलांग पैदा हो रहे हैं। अर्से से इस त्रासदी के पीड़ितों के लिए रह-रह कर आवाज़ उठती रहती हैं। इन्हीं उठती आवाजों में से एक आवाज ऐसी थी भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए 35 साल तक संघर्ष करने वाले अब्दुल जब्बार की। भोपाल गैस पीड़ितों को इंसाफ दिलाने से लेकर उनके पुनर्वास तक की लड़ाई लड़ते रहे ‘जब्बार भाई’ को मरणोपरांत पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 'एलिफैंट डॉक्टर' ने बचाई है हजारों हाथियों की जान : भारत के वन्य जीव समुदाय में 'एलिफैंट डॉक्टर' के नाम से मशहूर 60 साल के डॉक्टर कुशल कुंवर शर्मा अपनी जिंदगी के 35 साल हाथियों की देखभाल और इलाज करने में गुजार चुके है। डॉक्टर शर्मा ने असम और पूर्वोत्तर राज्यों के जंगलों से लेकर इंडोनेशिया के जंगल तक हजारों हाथियों की जान बचाई है। वे देश के पहले पशुचिकित्सक है जिन्हें पद्मश्री मिला है। पूर्वोत्तर राज्यों के घने जंगलों में हाथियों का इलाज करने के लिए अब तक करीब तीन लाख किलोमीटर की दूरी तय कर चुके डॉ. शर्मा 20 से अधिक बार अपनी जान जोखिम में डाल चुके है। पिछले 15 सालों से बिना कोई साप्तहिक छुट्टी लिए डॉ. शर्मा लगभग 10,000 हाथियों का इलाज करने का रिकॉर्ड कायम कर चुके है। भूमिहीन लोगों की मसीहा है कृष्णम्मल जगन्नाथन : सामाजिक कार्यकर्ता कृष्णम्मल जगन्नाथन को पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। 1926 में जन्मी कृष्णम्मल जगन्नाथन की कहानी करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा है। वे एक भूमिहीन दलित परिवार में जन्मी और परिवार की माली हालत भी ठीक नहीं थी। फिर भी उस दौर में घरवालों ने उन्हें ग्रेजुएशन तक तालीम दिलाई। तदोपरांत वे गांधीजी के सर्वोदय आन्दोलन से जुड़ गईं और उसी दौरान अपने पति शंकरलिंगम जगन्नाथन से मिली। आज़ादी के बाद1950 में इनकी शादी हुई और उसके बाद से ही पति-पत्नी ने मिलकर भूमिहीन किसानों को ज़मीन दिलाने का आन्दोलन शुरू किया। इनकी सामाजिक संस्था LAFTI ने 14,000 से ज़्यादा भूमिहीन लोगों को ज़मीन दिलाने में मदद की है। साथ ही इनकी संस्था कुटीर उद्योग चलवाने में भी जरुरतमंदो की मदद करती है। हौंसला बड़ा हो तो कोई राह मुश्किल नहीं : लद्दाख के जुनूनी सामाजिक कार्यकर्ता छुल्टिम छोंजोर ने वो कर दिखाया था जो किसी आम व्यक्ति के लिए असंभव लगता है। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित छोंजोर ने अकेले ही लद्दाख के रामजक से कारग्याक गांव तक एनपीडी रोड का निर्माण किया था। 60-वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता छुल्टिम छोंजोर ने अकेले ही कारगिल के जांस्कर क्षेत्र में रामजक को कारग्याक गांव से जोड़ने वाली 38 किलोमीटर की सड़क निर्माण कर साबित किया है कि हौंसला बड़ा हो तो कोई राह मुश्किल नहीं। 'शवों के मसीहा' को कोटि - कोटि नमन : 'शवों के मसीहा' कहे जाने वाले समाजसेवी मोहम्मद शरीफ चचा को मानवीय संवेदना पर किए गए उनके कामों के लिए साल 2019 में पद्मश्री से नवाजे जाने की घोषणा हुई थी जिसके बाद बीते दिनों राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्मश्री अवार्ड देकर उन्हें सम्मानित किया। साइकिल मैकेनिक से सामाजिक कार्यकर्ता बने शरीफ, लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करते हैं। उत्तर प्रदेश के फैजाबाद के निवासी 83 वर्षीय मोहम्मद शरीफ के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने पिछले 25 वर्षों में 25,000 से अधिक लावारिस शवों का अंतिम संस्कार का इंतजाम किया है। 1992 में मोहम्मद शरीफ के बड़े बेटे रईस की एक सड़क हादसे में मौत हो गई थी। शरीफ को इस हादसे के बारे में पता नहीं था और रईस की लाश सड़क पर ही पड़ी रही। कहते है रईस की लाश को जानवरों ने नोच खाया था और इस कारण मोहम्मद शरीफ अपने बेटे को दफ्ना भी नहीं पाए। इसके बाद मोहम्मद शरीफ ने कसम खाई कि किसी भी किसी शव की दुर्गति नहीं होने देंगे। सबसे बुजुर्ग कामकाजी पत्रकार है लालबियाकथांगा पचुआउ : मिजोरम के 94 वर्षीय पत्रकार लालबियाकथांगा पचुआउ को बीत दिनों पद्म श्री से सम्मानित किया गया है। उन्हें 2016 में मिजोरम सूचना और जनसंपर्क विभाग और मिजोरम पत्रकार संघ ने देश में सबसे बुजुर्ग कामकाजी पत्रकार बताया था। उम्र को मात देकर लालबियाकथांगा पचुआउ एक पत्रकार के तौर पर अपनी हरसंभव भागीदारी सुनिश्चित कर रहे है।
हिमाचल प्रदेश एक पहाड़ी राज्य है जहां ऐसे कई स्थान है जो अपनी खूबसूरती से आम जनमानस को आकर्षित करते हैं। हिमाचल प्रदेश का धरोहर गांव परागपुर-गरली भी ऐसा ही एक स्थान है जो किसी को भी आकर्षित करने में सक्षम है। पर अफसोस इसके समृद्ध इतिहास को सहेजने में अभी ईमानदार प्रयास नहीं हुए। यूँ तो इन दोनों गांवों को धरोहर गांव का दर्जा मिले वर्षो बीत चुके हैं पर उस लिहाज से धरातल पर प्रयास नहीं हुए। ब्रिटिश काल में विकसित हुए ये गांव समृद्ध इतिहास और संस्कृति का अक्स हैं। यहाँ के भवनों की अद्धभुत नक्काशी, यहाँ की गलियां मानो एक अलग दुनिया में ले जाती हैं। यहां पर स्थित ऐतिहासिक तालाब बाजार के मध्य स्थित है। राजस्व रिकार्ड 1868 में उर्दू में तालाब के बारे में लिखा है 'मुद्दत ना मालूम' जिसका अर्थ है पता नहीं कब बना है। जानकर आश्चर्य होगा लेकिन ये सत्य है कि 1960 के दशक में परागपुर-गरली निवासी खुला शौच मुक्त थे। यहाँ स्थित बुटेल परिवार के ऐतिहासिक भवन देखने लायक है। पर नए दौर की चकाचौंध में लोग यहाँ से पलायन करते गए और आज यहाँ बने कई ऐतिहासिक भवन खाली है। प्रदेश सरकार ने 1991 की पर्यटन नीति के आधार पर 9 दिसंबर 1997 को परागपुर और वर्ष 2002 में गरली को धरोहर गांव घोषित किया। 2002 में धरोहर के संरक्षण को विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण का दर्जा दिया गया, ताकि यहाँ बनने वाले भवन धरोहर के अनुरूप बने। जाहिर है केंद्र सरकार की ओर से भी धरोहर गांवों के संरक्षण के लिए धन मिलने लगा। पर अब भी इनके उचित संरक्षण हेतु जमीनी स्तर पर काम किये जाने की जरूरत है। इन धरोहर गांवों पर बॉलीवुड की नजर भी पड़ चुकी है। पिछले कुछ समय में यहां कई फिल्मों, विज्ञापनो और एलबम की शूटिंग हुई हैं। इसीलिए इसे मिनी मायानगरी के नाम से भी जाना जाता है। गरली परागपुर एक ऐसा स्थान जहाँ पर पौराणिक समय की हवेलियां है जो फ़िल्म निर्माताओं को खूब लुभाती है। इस पर प्रकृति भी यहाँ मेहरबान है। लिहाजा बॉलीवुड के नामी फिल्मी सितारे यहां अपनी फिल्मों की शूटिंग के लिए खीचें चले आ रहे है। गरली परागपुर में वर्ष 2008 को शूट हुई बॉलीवुड फिल्म "चिन्टू जी" में मुख्य किरदार निभाने आए बॉलीवुड अभिनेता ऋषि कपूर ने कहा था कि बालीबुड फिल्मों की शूटिंग के लिए गरली परागपुर एक ऐसा स्थल है जहाँ पूरी फिल्म एक ही क्षेत्र में शूट हो सकती है। तब उक्त चिन्टू फिल्म को लगातार 48 दिनों तक यहाँ शूट किया था। बॉलीवुड की कई अन्य फिल्मों की शूटिंग भी यहाँ हुई है जिनमें फिल्म 'बाकें की क्रेजी बारात भी शामिल है। इसके अलावा कई बॉलीवुड, पहाड़ी, पंजाबी एलबम व एड फिल्मों की यहा शूटिंग हो चुकी है। टाटा नैनो कार की एड भी धरोहर गांव गरली-परागपुर में ही शूट हुई थी। बड़े-बड़े फिल्मी सितारे कर चुके हैं शूटिंग धरोहर गाँव परागपुर गरली से बॉलीवुड के कई प्रसिद्ध फिल्मी सितारों का भी लगाव है। फिल्मों की शूटिंग के मद्देनजर आमिर खान ,ऋषि कपूर, नेहा धूपिया सहित कई नामी बॉलीवुड सितारे यहाँ आ चुके है और उन्होंने इस स्थान को फ़िल्म शूट करने के लिए बेहतरीन माना है। फिल्म सिटी बनाने की भी मांग जसवां परागपुर के अंतर्गत पड़ते गरली-परागपुर लगभग 3 विधानसभाओं से सटा हुआ है जिसमें देहरा,ज्वालामुखी, नादौन शामिल है। इस स्थान पर फिल्म सिटी बनाने की मांग भी उठती रही है। जाहिर है अगर गरली - परागपुर के नजदीक फ़िल्म सिटी बनती है तो आसपास के क्षेत्रों को लाभ पहुंचेगा। धार्मिक नगरी से सटे इस इलाके के आसपास विश्वविख्यात माता ज्वालामुखी, बगलामुखी, चानो सिद्ध मन्दिर, ठाकुरद्वारा चनोर स्थित है। पहले ही इन सभी देव स्थानों की बहुत अहमीय है और धार्मिक पर्यटन के लिहाज से यहाँ काफी संख्या में लोग आते है। ऐसे में अगर यहां फिल्म सिटी बनती है तो क्षेत्र को पर्यटन के रूप में विकसित करने के लिए और भी बल मिलेगा। अद्धभूत है गरली - परागपुर गरली-परागपुर में पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए काफी कुछ है। परागपुर में स्थित बुटेल नौण, तालाब, जजिस कोर्ट, प्राचीन राधा-कृष्ण मंदिर अपने आप में अद्भुत है। वहीं गरली में चार सौ साल पुराना तालाब, नौरंग यात्री निवास, सौ साल पुरानी भव्य हवेली, वर्ष 1918 में बना एंग्लो संस्कृत हाई स्कूल (अब रावमापा गरली), वर्ष 1928 में बनी उठाऊ पेयजल योजना आदि स्थान देखने योग्य हैं। लेकिन स्पष्ट नीति, योजनाएं और प्रचार की कमी के कारण गरली-परागपुर सिर्फ नाम का ही धरोहर गांव रह गया है। प्राचीन तालाब को किया जा सकता है विकसित गरली का प्राचीन तालाब पर्यटन के लिहाज से विशेष महत्व रखता है। स्थानीय लोग इसे 150 से 200 साल पुराना तालाब मानते हैं। तो कुछ बुजुर्गो ने इसे 400 साल पुराना बताते है। बताया जाता है कि इस तालाब में सात कुएं व सात ही बावड़ियां हैं। प्रमाण के तौर पर तालाब के कोने पर शीतल जल का कुआं आज भी सुरक्षित है। जानकार मानते है कि इसे पर्यटन की दृष्टि से एक पिकनिक स्पॉट में विकसित किया जा सकता है। इसका सौन्दर्यकरण करके इसके बीच पेडल बोट चलाए जा सकते हैं। किनारों पर पर्यटकों के लिए रिफ्रेशमेंट कॉर्नर, लाइब्रेरी, म्युजिकल फाउंटेन सहित अन्य सुविधाएं व आकर्षण विकसित किये जा सकते है। बस कमी है तो इच्छाशक्ति की। 'बांके की क्रेजी बारात' के कॉर्डिनेटर रुपिंदर सिंह डैनी क्या बोले गरली में शूट हुई बांके की क्रेजी बारात फ़िल्म में फ़िल्म कॉर्डिनेटर रहे एवं प्रागपुर के पूर्व प्रधान रुपिंदर सिंह डैनी का कहना है कि गरली-परागपुर को फ़िल्म नगरी के रूप से सरकार को निखारना चाहिए, इससे हमारी धरोहरों को और भी अहमियत मिलेगी। लगभग 200-250 साल पहले बनी यह सुंदर-सुंदर हवेलियां का अपने आप में विशिष्ट है। सरकार को इस दिशा में कदम उठाने चाहिए। गरली-परागपुर है ऐतिहासिक नगरी : नवीन धीमान सदवां निवासी एवम जसवां के पूर्व विधायक रहे नवीन धीमान ने कहा कि यहां पर कई प्रसिद्ध फिल्मी स्टार आ चुके हैं और आने की चाह भी रखते हैं क्यों कि इस स्थान में आकर एक अलग सा सुकून मिलता है। अगर सरकार गरली-परागपुर को फ़िल्म नगरी के रूप में विकसित करती है तो इसका सीधा फायदा स्थान की धरोहरों को भी जाएगा। कुछ ऐसी भी इमारतें देखी जा रही है जो कि जर्जर हालत में हैं, उनका भी जीणोद्धार हो जाएगा।
राजधानी शिमला.....विश्व भर में यहां की प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ यहां स्थित ऐतिहासिक इमारतों के लिए भी जाना जाता है। यूँ ही शिमला को पहाड़ों की रानी नहीं कहा जाता। शहर आज भी अपनी खूबसूरती के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। शहर की खूबसूरती का राज ब्रिटिश काल के दौरान बनी इमारतें भी हैं। उन्हीं इमारतों में शुमार हैं शिमला की भूकंप रोधी इमारत रेलवे बोर्ड बिल्डिंग। यह ब्रिटिश काल के दौरान बनी उन चुनिंदा इमारतों में से एक हैं जो पूरी तरह से भूकंप रोधी तकनीक से बनाई गई है। आपको सुन कर जरूर हैरानी होगी कि आखिर शिमला जैसे शहर में क्या इस तरह की इमारत बनाई जा सकती हैं, वो भी ब्रिटिश काल में। पर ब्रिटिश काल में इस अद्भुत ईमारत का न सिर्फ निर्माण हुआ बल्कि आज भी ये इमारत ज्यों की त्यों हैं। यह इमारत अपनी असामान्य संरचना और डिजाइन के कारण शिमला में एक मील का पत्थर है। आम तौर पर कोई भी इमारत लकड़ी पत्थर और मिट्टी, ईंट, सीमेंट से बनती हैं लेकिन रेलवे बोर्ड बिल्डिंग स्टील और कच्चा लोहा से बनी है। यही वजह है कि इस इमारत पर भूकंप और आग कुछ ख़ास नुकसान नहीं कर सकते। ब्रिटिश शासन के दौरान यह एक महत्वपूर्ण इमारत थी। यह कलात्मक इमारत अंग्रेजों के गुंजयमान इतिहास का प्रतीक है और अपने ऐतिहासिक महत्व और वास्तुकला के अनूठे नमूने के रूप में विख्यात है। शिमला के मॉलरोड के समीप गॉर्टन कैसल के साथ लगती इस खूबसूरत इमारत का निर्माण ब्रिटिशकाल में सन 1896-1897 में बॉम्बे बेस्ड फर्म रिचर्डसन एंड क्रुडास द्वारा किया गया था। उस समय में इमारत के निर्माण में 4,08,476 रुपए की लागत आई थी जो उस समय की बहुत बड़ी राशि थी। पहले इसे लॉ विला और हरबंस हाउस भी कहते थे। यहां अंग्रेजों के जमाने में लोक निर्माण सचिवालय होता था। यह इमारत कास्ट आयरन एवं स्टील स्ट्रक्चर से ही बनी है। वर्तमान में यहां केंद्र सरकार के दफ्तर चल रहे हैं। आयकर विभाग, सीबीआई, पासपोर्ट ऑफिस जैसे कार्यालय यहां हैं, जबकि एजी ऑफिस में आग लगने के बाद इस कार्यालय के अधिकारी भी यहां कुछ समय बैठे थे। यह ऐतिहासिक इमारत ब्रिटिश कालीन इतिहास को संजोये हुए हैं और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। इस इमारत की वास्तुकला पर्यटकों को खूब लुभाती हैं। रेलवे बोर्ड बिल्डिंग बाहर से जितनी आकर्षक व खूबसूरत है, अंदर से भी इसे उतना ही अधिक तराशा गया है। इसकी खास बात यह भी है कि प्राकृतिक रोशनी हर कमरे, कॉरिडोर व सीढ़ियों पर पड़ती है। आग लगने के बावजूद सुरक्षित रही ईमारत इस ईमारत की ख़ास बात यह है कि इस भवन में लकड़ी का प्रयोग नहीं हुआ, जिसके चलते इसे आग से भी महफूज माना जाता है। इसे आर्यन कास्ट-स्टील से बनाया गया। गौर रहें कि 10 फरवरी 2001 को इस इमारत की सबसे ऊपरी मंजिल में आग लगी थी लेकिन इस भवन को जिस कला से बनाया गया है उसकी वजह से अग्निकांड से इमारत को कोई नुकसान नहीं पहुंचा और इसके आर्यन कास्ट और स्टील के बने स्ट्रक्चर ने इस इमारत को भयंकर अग्निकांड से बचा लिया। इसके बाद इस भवन में 3 मार्च 2010 को भी आगजनी की घटना पेश आ चुकी है, इसके बावजूद भी अभी तक यह इमारत स्टील के बने स्ट्रक्चर पर ही खड़ी है। भूकंप रोधी तकनीक से बनाई गई थी इमारत अंग्रेजों ने इस इमारत को भूकंप रोधी तकनीक से बनाया है। माना जाता है कि भूकंप आने पर भी लोहे के स्ट्रक्चर से बनी ये इमारत सुरक्षित रहेगी। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान, ब्रिटिश वास्तुकारों ने विभिन्न विभागों को समायोजित करने के लिए शिमला में कई इमारतों का डिजाइन और निर्माण किया। ये इमारतें बहुत मजबूत थीं, क्योंकि अंग्रेजों की प्राथमिक चिंता प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा थी। ब्रिटिश साम्राज्य में महत्वपूर्ण इमारतों के लिए सुरक्षा एक मुख्य विचार था, ऐसे में इस इमारत को संरचनात्मक रूप से आग प्रतिरोधी होने के लिए भी डिजाइन किया गया था। आज, यह वास्तुकला और आईआईटी के छात्रों के लिए अग्नि प्रतिरोधी और सुरक्षा सुविधाओं के लिए एक उदाहरण भी है। इतिहासकारों व लेखक मानते है कि रेलवे बोर्ड बिल्डिंग बनने से पहले यहां पर लकड़ी की इमारत में लोक निर्माण विभाग के दफ्तर होते थे। रेलवे बोर्ड ऑफ इंडिया बना तो इस लकड़ी की इमारत को गिराकर यहां भूकंप व आगरोधी इमारत को बनाया गया। उस भवन में फिर रेलवे बोर्ड कार्यालय चला और पीडब्ल्यूडी के कार्यालय विंटर फील्ड शिफ्ट किए गए। रेलवे बोर्ड बिल्डिंग में लोहा, सीमेंट व ईट का ही अधिक इस्तेमाल किया गया है जिसके चलते इसे आग से कोई खतरा नहीं है। हिमाचल प्रदेश सचिवालय की पुरानी इमारत व आर्मी ट्रेनिंग कमांड के कार्यालय भी लगभग इसी शैली से बने हैं। वास्तुकला पर रिसर्च करने आते हैं स्टूडेंट्स रेलवे बोर्ड बिल्डिंग की वास्तुकला का अध्ययन करने के लिए दुनिया भर से शोधार्थी आते हैं ताकि उन्हें इसके बारे में जरूरी तथ्य मिल सकें। शहर में स्थित ये ऐतिहासिक इमारत यहां आने वाले टूरिस्टों को बीते ब्रिटिश कालीन इतिहास की भी जानकारी देती हैं। इस इमारत का न केवल ऐतिहासिक महत्व है बल्कि इसकी वास्तुकला भी अतुलनीय हैं। वैज्ञानिकों व भूगोलशास्त्री की मानें तो भूकंप की भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती, लेकिन भूकंप रोधी तकनीक अपना कर जानमाल की हानि को कम किया जा सकता है। वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि इस तकनीक को आज अपनाने के लिए लोगों को जागरूक करने की जरूरत है। पिछले कुछ दशकों में बहुमंजिला इमारतों के इजाफे के कारण शिमला भूकंप के मामले में काफ़ी संवेदनशील है। ऐसे में लोगों को चाहिए कि वह भवन निर्माण इंजीनियर की सलाह और सरकार की निर्देशों का पालन करते हुए बनाए, ताकि कभी भी प्रकृतिक आपदा आए तो उस से जान माल का कम नुकसान हो। ब्रिटिश काल में बनी रेलवे बोर्ड बिल्डिंग को इसका जीवंत उदाहरण माना जा सकता है। -डॉ राम लाल, भूगोल प्रोफेसर, हिमाचल प्रदेश विश्विद्यालय। शिमला की रेलवे बोर्ड बिल्डिंग अंग्रेजी शासनकाल के इतिहास को समेटे हुए हैं। ये इमारत भूकंप रोधी है और हमे भी बेहतर निर्माण के लिए प्रेरित करती है। आज की बात करें तो शिमला प्राकृतिक आपदा जैसे भूकंप को लेकर काफ़ी संवेदनशील है। ऐसे में यहाँ अब जो निर्माण कार्य होते हैं उनमें प्राकृतिक आपदा को ध्यान में रखते हुए व आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जाता हैं, ताकि किसी तरह का नुकसान न हो। निजी निर्माण में भी लोगों को इस बात का ख्याल रखना चाहिए। -सुरेश भारद्वाज, शहरी विकास मंत्री हिमाचल प्रदेश।
हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला ऐतिहासिक गोथिक वास्तुकला भवनों के लिए विख्यात है। अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला अथाह इतिहास समेटे हुए है। शिमला शहर में अंग्रेजी शासनकाल में जो निर्माण कार्य हुए हैं वह आज भी अपनी अद्भुत कला शैली के लिए विश्व भर में विख्यात हैं। शिमला में कई स्मारक और इमारतें हैं जिन्हें भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान सर्वश्रेष्ठ वास्तुकारों द्वारा डिजाइन और निर्मित किया गया है। इन्हीं विशाल इमारतों में से एक हैं शिमला की प्रसिद्ध ऐतिहासिक इमारत टाउन हॉल। ये इमारत शिमला के गौरवशाली अतीत का प्रमाण हैं जिसे उस युग के बेहतरीन कारीगरों द्वारा बनाया गया। टाउन हॉल शिमला का निर्माण 1910 में भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान किया गया था। तब शिमला ब्रिटिश हुकूमत की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी। शिमला टाउन हॉल शहर के केंद्र में माल रोड पर स्थित है। शिमला के किसी भी हिस्से से यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। 18 वीं शताब्दी के बाद के वर्षों में टाउन हॉल शिमला शहर का केंद्र हुआ करता था। टाउन हॉल की इमारत आधी लकड़ी की ट्यूडर शैली की इमारत हैं। सभी लकड़ी की फ्रेम और खिड़कियां रोशनीदार कांच के बने हैं। इसे स्कॉटिश वास्तुकार जेम्स रैनसम द्वारा एक पुस्तकालय के रूप में डिजाइन किया गया था। भारत के विभाजन के बाद नगर निगम के कुछ कार्यालय इसमें रखे गए थे। वैसे टाउन हॉल की मूल इमारत हेनरी इरविन द्वारा डिज़ाइन की गई थी जिन्होंने औपनिवेशिक भारत में कई अन्य इमारतों को डिजाइन किया था। मूल टाउन हॉल भवन 1860 में बनाया गया था और इसका निर्माण 1888 में पूरा हुआ था। पर बाद में अंग्रेजी हुकूमत ने इसका स्वरूप बदला। आपको बता दें कि प्रसिद्ध गेयटी थिएटर टाउन हॉल के भीतर था और इसके साथ ही टाउन हॉल में एक पुस्तकालय, एक विशाल हॉल, एक ड्राइंग रूम, कार्ड-रूम, बॉलरूम, शस्त्रागार, पुलिस स्टेशन और एक रिटायरिंग रूम भी था। इमारत में एक गिरजाघर का बाहरी रूप था, लेकिन इमारत के अंदर मनोरंजन के सभी घटक थे। उस समय इमारत के निर्माण के लिए इस्तेमाल किए गए पत्थर "बरोग स्टोन्स" के थे। पत्थरों के साथ-साथ लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता था और छतों को स्लेटी स्लेट से बनाया जाता था। छतें झुकी हुई थीं ताकि बर्फ या पानी जमा न हो सके। खिड़कियां चौड़ी थीं और शीशों से बनी थीं, जिससे इमारत में प्राकृतिक प्रकाश का पर्याप्त प्रावधान था और अत्यधिक सर्दियों के महीनों के दौरान, इमारत गर्म और आरामदायक रहती थी। पर कुछ समय बाद टाउन हॉल की ऊपरी मंजिलें इतनी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गईं कि उसे तोड़ा गया और फिर से बनाना पड़ा। यह कार्य 1910-11 में स्कॉटिश वास्तुकार जेम्स रैनसम द्वारा किया गया था। ब्रिटिश शासन में गर्मियों के दिनों में सरकारी अधिकारी शिमला में आकर रुकते थे और शिमला में बहुत सारे प्रशासनिक कार्य किए जाते थे। उन कार्यों को पूरा करने के लिए और सरकारी अधिकारियों को आवास प्रदान करने के लिए कई निर्माण किए गए थे। टाउन हॉल बिल्डिंग शुरू से ही नगरपालिका गतिविधियों का केंद्र रही और वर्तमान में इसमें शिमला नगर निगम के महापौर व उपमहापौर बैठते है। इमारत आसपास की वास्तुकला को जोड़ती है, जो स्वतंत्रता पूर्व युग की याद दिलाती है। शिमला नगर बोर्ड का गठन 1851 में हुआ था और नगर पालिका के विभिन्न कार्य जैसे सड़क, स्वच्छता, जल आपूर्ति, जल निकासी, कर संग्रह शिमला नगर निगम द्वारा नियंत्रित किया जाता था। टाउन हॉल की आधारशिला शिमला नगर बोर्ड द्वारा रखी गई थी। उल्लेखनीय हैं कि कुछ साल पहले टाउन हॉल की इमारत में शिमला नगर निगम के विभिन्न कार्यालय चल रहे थे और इसमें एक पुस्तकालय भी था। बता दें कि टाउन हॉल के भीतर पुस्तकालय ब्रिटिश राज के बाद से ही है। पर अब इसका औपनिवेशिक ढाँचे में जीर्णोद्धार हुआ है, लेकिन इस संरचना की मौलिकता व इसके ऐतिहासिक जुड़ाव को यथावत बनाए रखा गया है। इमारत को उसके मूल रूप में बहाल करने के लिए 2014 में एक परियोजना शुरू की गई थी और इस औपनिवेशिक वास्तुशिल्प चमत्कार के नवीनीकरण में 8 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए गए थे। हालांकि यह बात और हैं कि उस समय इस इमारत के जीर्णोद्धार का कार्य खूब सुर्खियों में रहा था। ट्यूडर शैली के टाउन हॉल की इमारत को एडीबी द्वारा वित्त पोषित परियोजना के तहत 2 साल 11 महीने के भीतर अपने मूल स्वरूप में राज्य पर्यटन विभाग द्वारा बहाल किया गया था। एक विरासत संरचना होने के कारण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मानदंडों के अनुसार किया गया। भवन के बेहतर जीवन के लिए सीमेंट की जगह चूना सुरखी का उपयोग किया गया है। इसके बाहरी और अंदरूनी हिस्से को पॉलिश और स्टोन वर्क की मरम्मत करके नए सिरे से तैयार किया गया है। माल रोड और रिज़ मैदान के दीवाने थे अंग्रेज अंग्रेज शिमला के माल रोड और रिज की खूबसूरती के बहुत कायल थे। उन्होंने इस बात को सुनिश्चित किया कि रिज के आसपास ऊंची-ऊंची ऐसी इमारतें न बनें, जिससे यहां से नजर आने वाली खूबसूरत पर्वतशृंखलाओं का दृश्य ही ओझल हो जाए। इसी तरह माल रोड की खूबसूरती और साफ -सफाई को बनाए रखने की तरफ भी वे विशेष ध्यान देते थे। अंग्रेजों के समय में माल रोड को दिन में दो बार पानी से धोया जाता था। इसके लिए चमड़े की मश्क लेकर विशेष सफाई कर्मचारी यहां हमेशा तैनात रहते थे। माल रोड पर थूकने या कूड़ा फेंकने के लिए लोगों पर जुर्माना किया जाता था। यह व्यवस्था आज तक कायम है। शिमला के माल रोड पर थूकने या कूड़ा फेंकने पर आज भी पांच सौ रुपए तक का जुर्माना किया जा सकता है। इस संबंध में चेतावनी देने वाले साइन बोर्डों को माल रोड पर प्रमुखतापूर्वक लगाया गया है। पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र टाउन हॉल न केवल स्थानीय लोगों के लिए बल्कि बाहरी राज्यों से आने वाले सैलानियों के लिए भी आकर्षण का केंद्र हैं। यह रिज मैदान के बीचों बीच स्थित है जिस वजह से यह हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस इमारत को बनाया ही कुछ इस तरह गया है कि हर कोई इस इमारत की खूबसूरती का कायल हो जाए। पर्यटक शहर शिमला के टाउन हॉल को रात की रोशनी में देखने पर एक अलग और शानदार नजारा मिलता है। टाउन हॉल शिमला के सबसे महत्वपूर्ण स्थल माल रोड पर स्थित है। इमारत के प्रवेश द्वार पर बड़ी सीढ़ियाँ हैं। इन चरणों का उपयोग न केवल आगंतुक बैठने और गपशप करने और विश्राम के कुछ क्षणों के लिए करते हैं, बल्कि इमारत का भव्य प्रवेश द्वार आगंतुकों के लिए तस्वीर लेने का पसंदीदा स्थान है। चूंकि टाउन हॉल का स्थान ठीक उसी स्थान पर है जहां द माल रोड रिज से मिलता है, आगंतुकों को इसके आसपास कई अन्य महत्वपूर्ण इमारतें और स्मारक देखने को मिलते हैं। टाउन हॉल के ठीक बगल में प्रसिद्ध गेयटी थियेटर है। इसके पास एक और लोकप्रिय विरासत स्थल है, क्राइस्ट चर्च, ब्रिटिश शिमला का एक भवन। इन सबको देखकर शिमला आने वाले सैलानी बार बार यहाँ आना पसन्द करते हैं। स्केटिंग शुरू होने की जानकारी देता था लाल गुब्बारा ऐतिहासिक टाउनहाल भवन की छत पर लाल गुब्बारा टांगा जाता था। जी हां आपको सुन कर हैरानी जरूर होगी लेकिन यह बिल्कुल सत्य है। अंग्रेजों के समय से सर्दियां शुरू होते ही टाउनहाल की छत पर लाल रंग का गुब्बारा दिख जाता था। सुबह और शाम के समय ये गुब्बारा टाउनहाल की छत पर टंगा दिखता था। 2014 में जब टाउनहाल की मरम्मत का काम शुरू हुआ तो ये गुब्बारा दिखना भी बंद हो गया। यह गुब्बारा 1920 से टाउनहाल की छत पर लगता आया है। गुब्बारे द्वारा बताया जाता था कि आइस स्केटिंग रिंक में स्केटिंग शुरू हो चुकी है। ये गुब्बारा उतनी देर ही टंगा रहता था, जितनी देर स्केटिंग होती थी। सुबह और शाम के सेशन के वक्त ये गुब्बारा टाउनहाल पर टंगा होता था। जिस दिन टाउनहाल पर ये गुब्बारा नहीं दिखता था तो उसका मतलब था कि मौसम की वजह से स्केटिंग नहीं हो रही है। अंग्रेजों के जमाने में टाउनहाल के दूसरी तरफ रिवॉली सिनेमा के ऊपर के हिस्से में घना जंगल था। पेड़ों की वजह से रिंक नजर नहीं आता था। तभी अंग्रेजों ने स्केटिंग रिंग के शौकीनों की सुविधा के लिए ये गुब्बारा लगाना शुरू किया ताकि माल रोड पर टहलते हुए स्केटिंग के शौकीनों को पता चल जाए कि स्केटिंग हो रही है या नहीं। गुब्बारा लटकता देख शिमला घूमने आए शौकिया पर्यटक और स्थानीय लोग भी स्केटिंग का लुत्फ उठाने के लिए स्केटिंग रिंक में पहुंच जाते थे। पर अब यह रिवाज या अंग्रेजों की बनी हुई परम्परा काफी सालों से बंद है। यादों को खोजते-खोजते शिमला पहुँचते है ब्रिटिश अंग्रेजों को उत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्र शिमला में अपने देश की तस्वीर दिखती थी। उन्हें यह जगह इतनी पसंद आई की उन्होंने इसे हू-ब-हू इंग्लैंड के शहर की शक्ल देने की कोशिश की। खास बात तो यह है कि वे साल के ज्यादातर माह शिमला में ही गुजारते थे। आज ब्रिटिश काल के ये ऐतिहासिक भवन पर्यटकों के लिए आकर्षण बने हुए हैं। साथ ही शिमला की अस्तित्व की गवाह भी हैं। शिमला में अंग्रेज अपने देश की छवि ढूंढ़ते थे। शिमला से उन्हें बेहद प्यार था। आज भी इंग्लैंड की नई पीढ़ी के लोग अपने बाप-दादाओं की यादों को खोजते-खोजते शिमला आ पहुंचते हैं। इस शहर के चप्पे-चप्पे में इतिहास छिपा है। यहां के देवदार के वृक्ष न जाने कितनी कही-अनकही बातों और घटनाओं के गवाह हैं। इन्होंने एक लम्बा वक्त देखा है। शिमला की अहमियत इसकी खूबसूरत वादियों की वजह से ही नहीं रही बल्कि यहां से चलने वाले ताकतवर अंग्रेजी शासन ने भी इसे पूरी दुनिया में एक अलग पहचान दिलाई। वर्तमान में नगर निगम महापौर और उपमहापौर का कार्यालय शिमला की खूबसूरती को चार चांद लगाने वाली ऐतिहासिक इमारत टाउन हॉल एक तरफ जहां लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं वहीं दूसरी तरफ इस इमारत में इन दिनों नगर निगम के महापौर और उपमहापौर का कार्यालय हैं। बता दे कि इस इमारत के जीर्णोद्धार के बाद हाईकोर्ट ने केवल महापौर व उपमहापौर के कार्यालय खोलने की ही अनुमति दी है। हालांकि निगम प्रशासन हर संभव प्रयास कर रहा है कि इस इमारत में पहले की तरह नगर निगम का कार्यालय हो।
हिमाचल प्रदेश की राजधानी ब्रिटिश कालीन इतिहास को आज भी संजोए हुए हैं। राजधानी में आज भी ब्रिटिश शासन के दौरान बनाई गई ऊँची विशाल और उत्कृष्ट नक्काशी करी हुई इमारतें हर किसी के लिए आकर्षण का केंद्र हैं। जी हां शिमला शहर वर्षों तक अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही हैं। या यूं कहें अंग्रेजों का मनपसंद स्थान जहाँ अंग्रेजों को लंदन व इंग्लैंड की झलक नजर आती थी। यही वजह है कि शिमला में अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में खूब विकास किया। आपको जानकर जरूर हैरानी होगी शिमला जैसे शहर में पहली पक्की इमारत जो अंग्रेजों ने बनाई वह थी कैनेडी हाउस। विधानसभा के ठीक विपरीत दिशा में स्थित 'कैनेडी हाउस' आज भी ब्रिटिशकालीन इतिहास को संजोये है। हालांकि एक बार ये आग की चपेट में भी आ चुका है। कैनेडी हाउस शिमला का ऐसा पहला पक्का मकान रहा है, जो अंग्रेजों ने बनाया था। कैनेडी हाउस तब बना था, जब गर्मियां शुरू होते ही छुट्टियां बिताने अफसर इंग्लैंड का चक्कर पर जाते थे। काम के बहाने जैसे-जैसे ब्रिटिश अफसरों के शिमला के लिए दौरे बढ़े तो यहां की प्रकृति हुबहू इंग्लैंड के माफिक होने से उनका मन यहां रमने लगा। अंग्रेजों की बनाई इस पहली इमारत से अब वो महकमा चलता है, जिसका काम ही नए भवनों को तराशना है। यानी यहाँ केंद्रीय लोक निर्माण विभाग का दफ्तर है। इसमें कोई संशय नहीं है कि इस इमारत जैसी दूसरी इमारत अब बना पाना लगभग नामुमकिन है। वर्ष 1804 में जब एंग्लो गोरखा युद्ध शुरू हुआ, तो अंग्रेजों का ध्यान पहाड़ी क्षेत्र शिमला की ओर गया। हालांकि इससे पूर्व जंगल का क्षेत्र होने के कारण इसे अनदेखा किया जाता रहा। युद्ध के कारण वर्ष 1819 में हिल स्टेट के असिस्टेंट पॉलीटिक्ल एजेंट लेफ्टिनेंट रॉस शिमला आए। उस समय कैनेडी कॉटेज के स्थान पर लकड़ी का आवास हुआ करता था। इनके बाद जब दूसरे एजेंट लेफ्टिनेंट चार्ल्स परएट कैनेडी शिमला आए तो उन्हें यहां का वातावरण इंग्लैंड की तरह लगने लगा और वर्ष 1822 में उन्होंने कैनेडी हाउस का निर्माण करवाया। साथ ही कॉटेज बनाया, जिसमें खासकर ब्रिटिश के अतिथि ठहरा करते थे। वर्ष 1828 में ब्रिटिश कमांडर इन चीफ लॉर्ड कांबरमेयर जब पहली बार शिमला आए तो उन्होंने शिमला के कैनेडी हाउस को अपना हैड क्वार्टर बनाया। कैनेडी हाउस भारत के एक अन्य कमांडर इन चीफ जनरल सर ऑथर पॉवर पालमर का भी जन्म स्थल रहा है। मेजर एसबी गॉड की संपत्ति थी केनेडी हाउस वर्ष 1870 में कैनेडी हाउस मेजर एसबी गॉड की संपत्ति थी, लेकिन बाद में कच्छ बेहर के महाराजा ने इसे अपने नियंत्रण में लिया। इसके बाद भारत सरकार ने इसे महाराजा से एक लाख 20 हजार भारतीय मुद्रा में खरीद लिया। लेखक व इतिहासकार राजा भसीन के मुताबिक लंबे समय बाद इस स्थान पर एक शानदार टैनिस कोर्ट बनाया गया। जब गोरखों से चल रहा युद्ध समाप्त हुआ तो म्यूनिशन बोर्ड ने इसका नाम बदल कर 'अंकल टॉम कैबिन' रख दिया। भारत सरकार के मौसम विभाग ने भी इस इमारत में अपना कार्यालय स्थापित किया था। कैनेडी हाउस में लेखक थॉर्बन भी रहे 1898 में पंजाब के जाने माने लेखक एसएस थॉर्बन भी कैनेडी हाउस में रहे जिन्होंने उस दौर में ब्रिटिश सरकार की नीतियों पर अपने लेखन से कड़ा प्रहार किया, जबकि इससे पूर्व 1830 में कैनेडी हाउस में रह चुके कर्नल एसएच माउंटेन ने अपनी किताब में लॉर्ड एडं लैडी डल्हौजी का जिक्र किया था। आज हिमाचल विधानसभा के ठीक विपरीत दिशा में इसके स्थान पर महज कॉटेज ही शेष है। अन्य भवन का हिस्सा आग की चपेट में आ गया था, जिसका पुनर्निर्माण हुआ है। अब केंद्रीय लोक निर्माण विभाग का कार्यालय कैनेडी हाउस की दो मंजिला इमारत में अब केंद्रीय लोक निर्माण विभाग का कार्यालय है। इसमें 23 कमरे हैं, मुख्य प्रवेश द्वार के साथ ही उच्च अधिकारी बैठते हैं। सीढि़यों के दोनों किनारे खुबसूरत लकड़ी से बनी रेलिंग है, फर्श व छत भी नक्काशी की गई है। आधी दीवारों पर टायलें लगी हैं। शीर्ष मंजिल जो मुख्य भवन का मुख्य प्रवेश द्वार है, अदंर से इसकी दीवारों, छत व फर्श पर पुरानी शैली में ही लकड़ी से कार्य किया गया है। वहीँ नीचे की मंजिल में कमरों के दरवाजे पुरानी शैली के ही है, आधी दीवार पर तो टायलें लगी है लेकिन उससे ऊपर दीवार एक किस्म से अतीत का चलचित्र हैं। शिमला शहर में बुद्धिजीवी,वरिष्ठ नागरिकों, साहित्यकारों, लेखकों का मानना है कि शहर में जो अंग्रेजों के समय की इमारतों का निर्माण हुआ है वह अद्भुत है, आज भी उस तरह के कोई भी इमारत नई नहीं बनाई गई है। इन इमारतों को संजोकर रखा जाना चाहिए, इस ओर कार्य करने की जरूरत है। शिमला की धरहोर को सँजोकर रखा जाना चाहिए: साहित्यकार एस आर हरनोट शिमला में कैनेडी हाउस मिल का पत्थर साबित हुआ। इसके निर्माण के बाद ही शिमला में अंग्रेज़ों ने स्थाई रूप से यहां रहना शुरू किया। इस भवन के बाद ही अंग्रेज़ों ने शिमला में और भवन निर्माण कार्य किए। पर आज देखा जाए तो इस भवन में कार्यालय खोल दिए गए हैं। जबकि होना यह चाहिए था कि इस इमारत को धरोहर के रूप में संजोए रखा जाना चाहिए था। यहीं वहज हैं कि आज यह इमारत नष्ट होती जा रही हैं। शिमला की ऐतिहासिक संपत्ति आग की भेंट चढ़ रही हैं। सरकार को चाहिए कि जो कुछ धरोहर बची हुई हैं, उसे बचाया जाना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ी को भी यह धरोहर सुरक्षित मिल सकें। कैनेडी हाउस आज भी अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर : सुभाष वर्मा शिमला के विधानसभा ठीक साथ लगते केनेडी हाउस की अपनी एक खास अहमियत है। बेशक इसका निर्माण अंग्रेजी हुकूमत के दौरान हुआहो लेकिन इतने साल बीत जाने के बाद आज भी इसकी खूबसूरती बरकरार है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है की इस इमारत के निर्माण उत्कृष्ट तरीके से किया गया है। हालांकि आमतौर पर अंग्रेज लकड़ी की नक्काशी अधिक इस्तेमाल करते थे पर जो कलाकृति इस इमारत में इस्तेमाल की गई हैं वह आज कही भी देखने को नहीं मिलती। यह इमारत वास्तुवास्तु कला का अद्भुत नमूना हैं। केनेडी हाउस पहाड़ों का पहला इंग्लिश हाउस: सुमित राज लेखक सुमित राज का कहना है कि सोलन ज़िला के मलौण में 1815 में अंग्रेज़ों और गोरखों की लड़ाई लड़ी गयी थी। इस लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने पहाड़ों पर आना शुरू किया। कैनेडी हाउस शिमला ही नहीं बल्कि पहाड़ों पर पहला इंग्लिश हाउस बना। पर आज इतने सालों बाद इस हाउस की जो स्थिति होनी चाहिए थी वह नहीं है। यह एक धरोहर है और इसे संजोकर रखा जाना चाहिए। कुछ समय पहले केनेडी हाउस का कुछ हिस्सा आग की भेंट चढ़ गया था। इस तरह की धरहोर को सुरक्षित रखा जाना चाहिए, इस ओर सरकार को कार्य करने का प्रयास करना चाहिए। शिमला में जितनी भी पुरानी इमारतें हैं वह अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बनाई गई है। ये इमारतें सैलानियों के लिए आज भी आकर्षण का केंद्र है। एतिहासिक धरोहर को सँजोकर रखें जाने की ओर किया जा रहा कार्य:आर्किटेक्ट प्लानिंग देविंदर मिस्ता शिमला शहर में जितनी भी पुरानी इमारतें हैं उन्हें संजो कर रखा जाने का पूरा प्रयास किया जाता हैं। शिमला शहर में दर्जनों ऐसी इमारतें हैं जिन्हें किसी न किसी कारण नुकसान हुआ है। ऐसे में प्रयास यह रहता है कि उन इमारतों को उसी लुक में फिर से तैयार किया जाए। कैनेडी हाउस का एक हिस्सा जल गया था। उस समय लगा कि शिमला का जो पुराना इतिहास इस इमारत से जुड़ा है वो भी जल कर राख हो गया। पर उस समय की सरकार ने इस इमारत का जीर्णोद्धार कर पहले जैसा लुक ही बरकरार रखा। ऐसे में इस इमारत की खूबसूरती आज भी बरकरार है, साथ ही ये सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं। शिमला शहर की भूगोलिक परिवेश पर नजर डालें तो यह शहर सात चोटियों पर बसा हुआ है। जाखू हिल : समुद्र तल से 8000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और रिज से एक से डेढ़ किमी. की दूरी पर स्थित है। यह शिमला की सबसे ऊंची चोटी है। प्रोस्पेक्ट हिल: शिमला शहर के पश्चिमी भाग में 2155 मीटर की ऊंचाई पर मां कामना देवी मंदिर को समर्पित यह चोटी शिमला-बिलासपुर मार्ग पर बालूगंज से 15 मिनट की पैदल दूरी पर है। यह पिकनिक और ट्रैकिंग के लिए प्रसिद्ध है। समरहिल: यह शिमला से सात किलोमीटर की दूरी पर समुद्र तल से 1283 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मैनोर्विल हवेली और हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय इसी पहाड़ी पर हैं। यहाँ न सिर्फ प्रदेश व देश से बल्कि बाहरी देशों के छात्र भी शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। ऑब्जर्वेटरी हिल: 7050 फीट की ऊंचाई पर स्थित इसी हिल पर 1884 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन ने अपना आवास बनवाया था, जहां अब भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान बना दिया गया है। इन्वेरार्म हिल : प्रदेश विधानसभा में चौड़ा मैदान से देवदार और बुरांस के पेड़ों के घने जंगल के बीच से सर्पीली सड़क वाली इस पहाड़ी पर शिमला दूरदर्शन केंद्र भी है। यहां स्थापित राज्य संग्रहालय संस्कृति के साथ-साथ पुरातत्व को भी समेटे हुए है। बैंटोनी हिल : बैंटोनी हिल शिमला शहर के बीचोबीच स्थित है। इस हिल का नाम लॉर्ड बैंटोनी के नाम पर रखा गया है। बैंटोनी ने यहीं पर कैसल का निर्माण कराया था। एलीसियम हिल : 7400 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह पहाड़ी लांगवुड, केलेस्टन और भराड़ी तक फैली हुई है। इस पर ऑकलैंड हाउस स्कूल स्थित है।
मैं जला हुआ राख नहीं, अमर दीप हूँ, जो मिट गया वतन पर, मैं वो शहीद हूँ। देश की रक्षा के लिए कारगिल युद्ध में अदम्य साहस और शौर्य का परिचय देते हुए वीरभूमि हिमाचल के वीर जवानों ने ऐसा इतिहास लिखा जिसका जिक्र करते ही गर्व से सीना चौड़ा हो जाता है। 6 जुलाई 1999 को दो माह तक पाकिस्तान के साथ चली जंग में भारत ने विजय तो हासिल की, लेकिन इसमें हिमाचल प्रदेश के भी 52 वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति देकर विजय गाथा लिखी। वीरभूमि हिमाचल के जिला कांगड़ा से सर्वाधिक जवान शहीद हुए। मंडी जिला के भी 12 जवानों ने शहादत पाई थी। कारगिल युद्ध में शौर्य गाथा लिखने पर हिमाचल के वीरों को दो परमवीर च्रक, पांच वीर चक्र, नौ सेना मेडल, एक युद्ध सेना मेडल, दो उत्तम युद्ध सेना मेडल व दो जवानों को मेंशन इन डिस्पेचीज से सम्मानित किया गया है। इन शहीद हुए वीर जवानों में कैप्टन विक्रम बत्तरा एवं कैप्टन कालिया पालमपुर से, ग्रेनेडियर विजेंद्र सिंह देहरा से, नायक ब्रह्म दास नगरोटा से, राइफल मैन राकेश कुमार गोपालपुर से, राइफलमैन अशोक कुमार एवं नायक वीर सिंह जवाली से, नायक लखवीर सिंह, राइफलमैन संतोष सिंह और राइफलमैन जगजीत सिंह नूरपुर से, हवलदार सुरेंद्र सिंह, ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह ज्वाली से, राइफलमैन जंग महत धर्मशाला से थे। इसके अलावा ग्रेनेडियर सुरजीत सिंह देहरा और नायक पद्म सिंह इंदौरा से संबंध रखते थे, जिन्होंने करगिल ऑप्रेशन में घुसपैठियों को खदेड़ने में अदम्य साहस का परिचय दिया। करगिल की जीत का सेहरा कई सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति देकर बांधा था। भारत के जाबांजों ने जब अपना शौर्य दिखाया होगा और हंसते हुए सीने पर गोलियां खाई होंगी तो पाकिस्तान की कब्जे में कैद निसप्राण करगिल की पहाड़ियों ने भी उन माताओं को नमन किया होगा जिन्होंने ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया था। कैप्टन सौरभ कालिया कारगिल युद्ध के पहले शहीद थे कैप्टन सौरभ कालिया। पालमपुर के कैप्टन सौरभ कालिया की शहादत की गाथा सुनने मात्र से हर इंसान की रूह तक थरथराने लग जाती है। कालिया की उम्र सिर्फ 22 वर्ष थी, माता - पिता ने उन्हें वर्दी में निहारा भी नहीं था और अभी पहली सैलरी भी नहीं पहुंची थी कि सौरभ कालिया ने अपनी सांसे भारत माता की रक्षा में त्याग दिया। उस समय कारगिल युद्ध शुरू भी नहीं हुआ था जब कप्तान सौरभ कालिया अपने 5 साथियों के साथ पेट्रोलिंग पर थे और पाकिस्तानी सैनिकों ने इनपर हमला किया। हमले से अज्ञात होने के कारण कप्तान के पास असला कम था पर वो अपनी सूझबूझ के बुते दुश्मनों से लड़ते रहे। लेकिन जब गोलियां खत्म हुई तो पाकिस्तानी दुश्मनों ने उन्हें बंधी बना दिया। दुश्मनों ने 22 दिनों तक इन्हें बंधक बनाकर रखा और क्रूरता का वो रूप दिखाया जिसे सोचना भी नामुमकिन सा है। दुश्मनों ने उन्हें कई अमानवीय यातनाएं दी गई। कानो के पर्दे पहाड़ दिए हड्डियां तोड़ दी गयी, नाख़ून उखाड़ लिए गए, उनकी आंखे फोड़ दी गयी और जब इससे भी दिल नहीं भरा तो उनके शरीर के टुकड़े कर दिए गए। जब कैप्टन सौरभ कालिया का शव पैतृक गाँव पहुंचा तो परिजनों को शरीर मिला तो सिर्फ क्षत-विक्षत हालत में। विक्रम बतरा की हुंकार से दहशत में आ जाता था दुश्मन शहीद हुए नामों में एक ऐसा नाम भी है जो आज तक सभी के दिलों में बस्ता है ये नाम है कप्तान विक्रम बत्रा। विक्रम बत्रा का जन्म हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुआ था। कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना जिस शेरशाह के नाम से डर जाती थी उन्हें आज भी सारा देश सलाम करता है। बात 1 जून 1999 की है विक्रम बत्रा की टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग की सबसे महत्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने की जिम्मेवारी कैप्टन विक्रम बत्रा को सौंपी गई। दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 की सुबह 5140 चोटी को सेना ने अपने कब्जे में ले लिया। विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष "यह दिल मांगे मोर"' कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। विक्रम का अगला ऑपरेशन कारगिल के दौरान किए गए सबसे कठिन पर्वतीय युद्ध अभियानों में से एक था - 17000 फीट ऊंचे प्वाइंट 4875 पर कब्जा। मिशन लगभग खत्म हो गया जब एक जूनियर अधिकारी ने एक विस्फोट में अपने पैरों को घायल कर दिया। बिना डरे विक्रम उसे बचाने के लिए आगे गए। भारी गोलाबारी के बावजूद उन्होंने दुश्मन की मशीन गन पोस्ट पर हैंड ग्रेनेड्स फेंके और घायल लेफ्टिनेंट की ओर बढ़ते हुए करीब पांच सैनिकों को मार गिराया। वो अपने साथी को बचा कर वापिस ले ही जाने वाले थे की उनके सीने में गोली लग गयी और वो वो अपने साथी को बचाते-बचाते शहीद हो गए। अपने निर्भीकता के लिए कप्तान विक्रम बत्रा को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। राइफलमैन संजय कुमार कारगिल युद्ध के दौरान कुल चार परमवीर चक्र विजेता रहें है, जिनमे में से दो हिमाचल प्रदेश के सुपूत है। एक कप्तान बत्रा और दूसरे है राइफलमैन संजय कुमार। यह इकलौते वो जवान है जिन्होंने अपने हाथों से ये सम्मान ग्रहण किया। एक ऐसे जवान जो बिना डरे लड़े और ज़िंदा वापिस लौटे भी। राइफल मैन संजय कुमार ने कारगिल युद्ध के दौरान अदम्य शौर्य का प्रदर्शन करते हुए दुश्मन को उसी के हथियार से मौत के घाट उतारा। लहुलुहान होने के बावजूद संजय कुमार तब तक दुश्मन से जूझते रहे थे, जब तक प्वाइंट फ्लैट टॉप दुश्मन से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। 4 जुलाई 1999 को राइफल मैन संजय कुमार जब चौकी नंबर 4875 पर हमले के लिए आगे बढ़े तो एक जगह से दुश्मन ऑटोमेटिक गन ने जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी और टुकड़ी का आगे बढ़ना कठिन हो गया। ऐसी स्थिति में राइफल मैन संजय कुमार ने तय किया कि उस ठिकाने को अचानक हमले से खामोश करा दिया जाए। इस इरादे से संजय ने यकायक उस जगह हमला करके आमने-सामने की मुठभेड़ में तीन पाकिस्तानियों को मार गिराया और उसी जोश में गोलाबारी करते हुए दूसरे ठिकाने की ओर बढ़े। संजय इस हमले में खुद भी लहू लुहान हो गए थे, लेकिन वो अपनी फिक्र किये बगैर दुश्मन पर शेर की तरह टूट पड़े। अचानक हुए हमले से दुश्मन बौखला कर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनीवर्सल मशीनगन भी छोड़ गए। संजय कुमार ने वो गन भी हथियाई और उससे दुश्मन का ही सफाया शुरू कर दिया। जख्मी होने के बावजूद संजय कुमार तब तक दुश्मन से जूझते रहे थे,जब तक कि प्वाइंट फ्लैट टॉप पाकिस्तानियों से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। राइफलमैन संजय कुमार को इस वीरता के लिए भारत सरकार की ओर से देश के सबसे बड़े सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से नवाजा गया। ब्रिगेडियर खुशाल सिंह पहली चोटी तोलोलिंग और सबसे ऊंची चोटी टाइगर हिल पर विजय पताका फहराने का सौभाग्य हिमाचल के मंडी जिले के नगवाईं के खुशाल ठाकुर और उनकी यूनिट 18 ग्रेनेडियर को प्राप्त हुआ था। ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर बताते है कि अपनी यूनिट के साथ कश्मीर घाटी में आतंकवाद से लड़ रहे थे। उनकी यूनिट को तुरंत ही कारगिल बुलाकर तोलोलिंग फतह करने के अभियान में लगा दिया गया। वे भूल नहीं पाते कि वे किस प्रकार इस लड़ाई में उनके नेतृत्व में 18 ग्रेनेडियर के बहादुरों ने कैसे अपना लोहा मनवाया था। तोलोलिंग चोटी पर कब्जा करने की कोशिश में 18 ग्रेनेडियर के 4 अधिकारियों सहित 25 जवान शहीद हुए। राजपूताना राइफल्ज के 3 अधिकारियों सहित 10 जवान शहीद हुए। सबसे पहले मेजर राजेश अधिकारी शहीद हुए। एक बड़े नुकसान के बाद कर्नल खुशाल ठाकुर ने स्वयं मोर्चा संभालने की ठानी और अभियान को सफल बनाया। 13 जून 1999 की रात को 18 ग्रेनेडियर व 2 राजपूताना राइफल्ज ने 24 दिन के रात-दिन संघर्ष के बाद तोलोलिंग पर कब्जा किया, परंतु तोलोलिंग की सफलता बहुत महंगी साबित हुई। इस संघर्ष में लेफ्टिनेंट कर्नल विश्वनाथन बुरी तरह घायल हुए और अंतत: कर्नल खुशाल ठाकुर की गोद में प्राण त्याग कर वीरगति को प्राप्त हुए। भारत के महामहिम राष्ट्रपति ने इस विजय और ऐतिहासिक अभियान के लिए 18 ग्रेनेडियर को 52 वीरता सम्मानों से नवाजा, जो भारत के सैन्य इतिहास में एक रिकॉर्ड है। कैप्टन दीपक गुलेरिया कारगिल युद्ध में हिमाचल प्रदेश से 52 सूरमाओं ने अपनी जान देने वाले जवानों में से एक थे मंडी जिले के सरकाघाट से कैप्टन दीपक गुलेरिया। उन्होंने महज 29 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहुति दे दी। उन्हें उनके इस बलिदान के लिए गैलेंट्री अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया। हवलदार डोला राम कुल्लू जिला के नित्थर क्षेत्र के गांव शकरोली में जन्मे हवलदार डोला राम को बचपन से देश के प्रति अटूट प्रेम था। दसवीं की परीक्षा के बाद विद्यार्थी जीवन से ही उनमें देश सेवा का जज्बा था। वह पांच अगस्त, 1985 को प्रथम पैराशूटर रेजिमेंट में भर्ती हुए। तीन जुलाई, 1999 को कारगिल के द्रास सेक्टर में मुठभेड़ में अंतिम सास तक बहादुरी से लड़ते हुए वह वीरगति को प्राप्त हुए। ऑपरेशन रक्षक में सम्मिलित डोला राम ने द्रास सेक्टर में जीवन बलिदान किया था। अमोल कालिया कारगिल से एक जून को अमोल कालिया का लिखा खत नौ जून को घर पहुंचा था। कारगिल अमर शहीद कैप्टन अमोल कालिया शादी की तिथि निकलनी थी. खत में लिखा था पापा जून के अंत में आऊंगा, आप तैयारियां शुरू कर दो। यहां सब ठीक है, बस दूसरी तरफ से घुसपैठ चल रही है, उसे जल्द निपटा लेंगे। परिवार बेटे के इंतजार में व्याकुल बैठे थे। लेकिन पाकिस्तानी सेना की ओर से कारगिल में घुसपैठ की गई तो उस दौरान दुश्मन सेना के साथ लोहा लेते दर्जनों पाकिस्तानी सेना के घुसपैठियों को मौत की नींद सुलाने व चौकी नंबर 5203 पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने के बाद नौ जून 1999 को दुश्मन सेना की गोली लगने से शहीद हुए। कैप्टन अमोल कालिया को मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया। ग्रेनेडियर यशवंत सिंह शिमला जिला के जांबाज यशवंत सिंह रणभूमि में भारत मां पर कुर्बान हुए थे। उनका पवित्र पार्थिव शरीर शिमला के रिज मैदान पहुंचा था। दर्शन के लिए हजारों की भीड़ नम आंखों से खामोश होकर अंतिम दर्शन करने के लिए कतार में खड़ी थी। उस दिन रिज मैदान पर तिल धरने को जगह नहीं थी। भारत की बहादुर सेना ने 26 जुलाई को कारगिल की सभी चोटियां दुश्मन से आजाद करवा ली थी। इस युद्ध में हिमाचल के दो शूरवीरों कैप्टन विक्रम बत्रा और राइफलमैन संजय कुमार को परमवीर चक्र मिला। कारगिल युद्ध में शहीद हुए हिमाचल के यह जवान -कैप्टन विक्रम बतरा, पीवीसी (पालमपुर, कांगड़ा) -सौरभ कालिया ( पालमपुर,कांगड़ा) -ग्रेनेडियर विजेंद्र सिंह (बणे दी हट्टी, कागड़ा) -रायफलमैन राकेश कुमार (पालमपुर, कांगड़ा) -लास नायक वीर सिंह (जवाली, कांगड़ा ) -रायफलमैन अशोक कुमार ( जवाली, कांगड़ा) -रायफलमैन सुनील कुमार (धर्मशाला, कांगड़ा) -सिपाही लखबीर सिंह (नूरपुर,कांगड़ा) -नायक ब्रह्मदास (नगरोटा बगवा, कांगड़ा ) -रायफलमैन जगजीत सिंह ( नूरपुर, कांगड़ा) -सिपाही संतोष सिंह (नूरपुर , कांगड़ा) -हवलदार सुरेंद्र सिंह (जवाली,कांगड़ा) -लास नायक पदम सिंह ( नूरपुर, कांगड़ा) -ग्रेनेडियर सुरजीत सिंह (देहरा, कांगड़ा) -ग्रेनेडियर योगिंद्र सिंह (ज्वालामुखी, कांगड़ा) -कैप्टन दीपक गुलेरिया (मंडी जिला निवासी) -नायब सूबेदार खेम चंद राणा (टाडु, मंडी) -हवलदार कृष्ण चंद (रामनगर, मंडी) -नायक स्वर्ण कुमार (रिवालसर,मंडी) -सिपाही टेक सिंह (धावन, मंडी) -सिपाही राजेश कुमार चौहान (सुंदरनगर, मंडी) -सिपाही नरेश कुमार (कलाहोड़, मंडी) -सिपाही हीरा सिंह (पध्यून, मंडी) -ग्रेनेडियर पूर्ण चंद (नंदी, मंडी) -नायक मेहर सिंह (बंजलग,मंडी) -लास नायक अशोक कुमार (सरला देवी पयरी, मंडी) -हवलदार कश्मीर सिंह (ऊहल, हमीरपुर) -हवलदार राजकुमार (ककड़,हमीरपुर) -हवलदार स्वामी दास चंदेल (बलवारा,हमीरपुर) -सिपाही राकेश कुमार (बंगड़ा, हमीरपुर) -रायफलमैन प्रवीण कुमार (कुलेहड़ा, हमीरपुर) -सिपाही सुनील कुमार (अमरोह,हमीरपुर) -रायफलमैन दीप चंद (बरोटी,हमीरपुर) -हवलदार उधम सिंह (घुमारवीं, बिलासपुर) -नायक मंगल सिंह (झडूत्ता, बिलासपुर) -रायफलमैन विजय पाल ( घुमारवीं, बिलासपुर) -हवलदार राजकुमार ( घुमारवीं, बिलासपुर) -नायक अश्वनी कुमार (झडूत्ता,बिलासपुर) -हवलदार प्यार सिंह (झडूत्ता,बिलासपुर) -नायक मस्त राम (घुमारवीं,बिलासपुर) -ग्रेनेडियर यशवंत सिंह (रोहड़ू,शिमला) -रायफलमैन श्याम सिंह (चौपाल,शिमला) -ग्रेनेडियर नरेश कुमार (शिमला) -ग्रेनेडियर अनंत राम (सुन्नी,शिमला) -कैप्टन अमोल कालिया (नंगल,ऊना) -रायफलमैन मनोहर लाल (हरोली,ऊना) -सिपाही धर्मेद्र सिंह (कसौली,सोलन) -रायफलमैन प्रदीप कुमार (नालागढ़,सोलन) -रायफलमैन कुलविंदर सिंह (सिरमौर) -सिपाही खेम राज (चंबा) -हवलदार डोला राम (कुल्लू) -रायफलमैन कल्याण सिंह ( सिरमौर)
15,000 फीट की ऊंचाई पर तोलोलिंग पहाड़ी पर कब्जा करने के 3 असफल प्रयासों के बाद 2 जून 1999 को आर्मी चीफ जनरल वीपी मलिक राजपूताना राइफल्स की गुमरी में मीटिंग ले रहे थे। मलिक ने राजपूताना राइफल्स के कमांडर्स से उनकी योजना पूछी पर उन्हें कोई प्लान सही नहीं लग रहा था। तभी 30 साल का एक कमांडो उठ खड़ा हुआ और साहस बटोरकर कहा, 'मैं नायक दिगेंद्र कुमार उर्फ कोबरा। सर, मेरे पास जीत का एक पक्का प्लान है।' जनरल ने कहा, 'बताओ'। कमांडो ने कहा, 'पहाड़ी बिलकुल सीधी है, हम वही रास्ता लेंगे जो दुश्मन ने लिया है।' जनरल मलिक आश्चर्य में पड़ गए और कहा, उस रास्ते पर तो मौत निश्चित है। दिगेंद्र ने जवाब दिया, 'मौत तो वैसे भी निश्चित है। यह मुझ पर छोड़ दीजिये।' जो नायक दिगेंद्र कुमार ने कहा था, करके दिखाया। सीने में 3 और कुल 5 गोलियां खाकर भी दिगेंद्र रुके नहीं। सभी साथी शहीद हो चुके थे, लेकिन अकेले दम पर दुश्मनों के 11 बंकरों पर 18 ग्रेनेड फेंक कर उन्हें तबाह कर दिया। यहां तक कि जब पास में अपनी बंदूक तक नहीं रह गई, तब भी केवल अपने साहस के दम पर उन्होंने तोलोलिंग पहाड़ी पर भारत का झंडा फहराकर दिखाया। 5 गोलियां खाने वाले दिगेंद्र कुमार ने अकेले पाकिस्तान के 48 फौजी मारे और पाक मेजर अनवर खान का सिर काटकर तिरंगा फहरा दिया। चोटी पर बैठे घुसपैठिये बरसा रहे थे गोलियां जम्मू कश्मीर के द्रास सेक्टर में कारगिल युद्ध स्मारक के ठीक सामने स्थित तोलोलिंग की पहाड़ी पर मई 1999 में पाक के हजारों सैनिकों ने घुसपैठ कर कब्जा जमा लिया था। कारगिल युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए तोलोलिंग चोटी को दुश्मन से मुक्त करवाना बेहद जरूरी था। तोलोलिंग को मुक्त करवाने में भारतीय सेना की 3 यूनिट फेल हो गई थी। एक यूनिट के 18, दूसरी के 22 और तीसरी यूनिट के 28 भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे। तोलोलिंग पर विजय पाना भारतीय सेना के लिए चुनौती बन गया था। तब भारतीय सेना की सबसे बेहतरीन बटालियन को तोलोलिंग को मुक्त करवाने की जिम्मेदारी सौंपने का फैसला लिया गया और 300 किलोमीटर दूर कुपवाड़ा से 2 राज रिफ बटालियन को द्रास बुलाया गया। एक जून 1999 को चार्ली कम्पनी ने तोलोलिंग पहाड़ी पर चढ़ाई के लिए आसान की बजाय दुर्गम रास्ता चुना, क्योंकि आसान रास्ते से जाने पर चोटी पर बैठे पाक घुसपैठिए सैनिकों पर गोलियां बरसा रहे थे। भारतीय सेना के वीर कमांडर रस्सी बांधकर 14 घंटे की मशक्कत के बाद तोलोलिंग की पहाड़ी पर चढ़े। पाक मेजर का सिर काटकर फहरा दिया तिरंगा इस मिशन पर भारतीय सेना के 10 कमांडो गए थे। इनमें मेजर विवेक गुप्ता, सूबेदार भंवरलाल भाकर, सूबेदार सुरेंद्र सिंह, लांसनायक जसवीर सिंह, नायक सुरेंद्र, नायक चमन सिंह, लांस नायक बच्चू सिंह, सी.एम.एच. जसवीर सिंह, हवलदार सुल्तान सिंह नरवरिया एवं दिगेंद्र कुमार शामिल थे। 12 जून को तोलोलिंग की पहाड़ी पर पहुंचने के बाद पाक सैनिकों से आमना-सामना हो गया, तो हमारे कमांडो पीछे नहीं हटे। जमकर मुकाबला हुआ। इस मुठभेड़ में 9 कमांडो शहीद हो गए। नायक दिगेंद्र कुमार अकेले जीवित बचे थे। उन्होंने दुश्मन का पहला टैंकर उड़ाया और फिर 11 बंकर ध्वस्त किए, जिसमें पाक के 48 फौजी मारे गए। 13 जून को पाकिस्तान के मेजर अनवर खान का सिर काटकर दिगेंद्र कुमार ने उसी की मुंडी पर तोलोलिंग की पहाड़ी पर तिरंगा फहराया था। कारगिल युद्ध में भारत की यह पहली जीत थी। इसके बाद टाइगर हिल समेत अन्य चोटियों को मुक्त करवाया गया। रूसी रस्से और रूसी किलों से बनाई विजय की रणनीति तोलोलिंग मिशन पर जाने की योजना को लेकर आर्मी चीफ जनरल वीपी मलिक ने जब दिगेंद्र कुमार से विस्तृत योजना पूछी तो उन्होंने कहा कि मिशन के लिए 100 मीटर का रूसी रस्सा चाहिये जिसका वजन 6 किलो होता है और जो 10 टन वजन झेल सकता है। इसके साथ रूसी कीलों की मांग की जो चट्टानों में आसानी से ठोकी जा सकती थीं। रास्ता विकट और दुर्गम था पर दिगेंद्र कुमार द्वारा दूरबीन से अच्छी तरह जांचा परखा गया था। दिगेंद्र उर्फ़ कोबरा 10 जून 1999 की शाम अपने साथियों और सैन्य सामान के साथ मिशन के लिए चल पड़े। कीलें ठोकते गए और रस्सी को बांधते हुए 14 घंटे की कठोर जद्दोजहद के बाद मंजिल पर पहुंचे। महावीर चक्र से किया गया अलंकृत कारगिल युद्ध के दौरान दिगेंद्र कुमार को कारगिल में तैनात किया गया था। उन्होंने अपने अदम्य साहस से जम्मू कश्मीर में तोलोलिंग पहाड़ी की बर्फीली चोटी को मुक्त करवाकर 13 जून 1999 की सुबह चार बजे तिरंगा लहराते हुए भारत को प्रथम सफलता दिलाई जिसके लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा 15 अगस्त 1999 को महावीर चक्र से अलंकृत किया गया। आतंकी मजीद खान को किया ढेर नायक दिगेंद्र कुमार को सर्वश्रेष्ठ सम्मान भले ही कारगिल युद्ध में मिला हो लेकिन वे इससे पहले ही सेना में अपनी एक अलग पहचान बना चुके थे। उन्हें भारतीय सेना के सर्वश्रेष्ठ कमांडो के रूप में ख्याति मिली थी ।1993 में दिगेंद्र की सैनिक टुकड़ी जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा में तैनात थी। पहाड़ी इलाका होने के कारण उग्रवादियों को पकड़ना कठिन था। कुख्यात उग्रवादी मजीद खान एक दिन कंपनी कमांडर वीरेंद्र तेवतिया के पास आया और धमकाया कि हमारे खिलाफ कोई कार्यवाही की तो उसके गंभीर दुष्परिणाम होंगे। कर्नल तेवतिया ने सारी बात दिगेंद्र को बताई। दिगेंद्र यह सुन तत्काल मजीद खान के पीछे दौड़े। वह सीधे पहाड़ी पर चढ़ा जबकि मजीद खान पहाड़ी के घुमावदार रास्ते से 300 मीटर आगे निकल गया था। दिगेंद्र ने चोटी पर पहुँच कर मजीद खान के हथियार पर गोली चलाई। गोली से उसका पिस्टल दूर जाकर गिरा। दिगेंद्र ने तीन गोलियां चलाकर मजीद खान को ढेर कर दिया। उसे कंधे पर उठाया और मृत शरीर को कर्नल के समक्ष रखा। कुपवाड़ा में इस बहादुरी के कार्य के लिए दिगेंद्र कुमार को सेना मेडल दिया गया। 144 आतंकियों को करवाया सरेंडर जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों की पावन स्थली मस्जिद हजरत बल दरगाह पर आतंकवादियों ने कब्जा कर लिया था तथा हथियारों का जखीरा जमा कर लिया था। भारतीय सेना ने धावा बोला। दिगेंद्र कुमार और साथियों ने बड़े समझ से ऑपरेशन को सफल बनाया। दिगेंद्र ने आतंकियों के कमांडर को मार गिराया व 144 उग्रवादियों के हाथ ऊँचे करवाकर बंधक बना लिया। इस सफलता पर 1994 में दिगेंद्र कुमार को बहादुरी का प्रशंसा पत्र मिला। खुश होकर जनरल ने रोज दाढ़ी बनाने से दी छूट अक्टूबर 1987 में श्रीलंका में उग्रवादियों को खदेड़ने का दायित्व भारतीय सेना को मिला। इस अभियान का नाम था 'ऑपरेशन पवन'। इस अभियान में दिगेंद्र कुमार सैनिक साथियों के साथ तमिल बहुल एरिया में पेट्रोलिंग कर रहे थे। पांच तमिल उग्रवादियों ने दिगेंद्र की पेट्रोलिंग पार्टी के पाँच सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और भाग कर एक विधायक के घर में घुस गए। दिगेंद्र ने बाकी साथियों के साथ पीछा किया और विधायक के घर का घेरा डलवा दिया। लिटे समर्थक विधायक ने बाहर आकर इसका विरोध किया। दिगेंद्र के फौजी कमांडो ने हवाई फायर किया तो अन्दर से गोलियाँ चलने लगी। एक फौजी ने हमले पर उतारू विधायक को गोली मार दी और पांचों उग्रवादियों को ढेर कर दिया। एक घटना में भारतीय सेना के 36 सैनिकों को तमिल उग्रवादियों ने कैद कर लिया। उन्हें छुड़ाना बड़ा मुश्किल काम था। टेन पैरा के इन 36 सैनिकों को कैद में 72 घंटे हो चुके थे लेकिन बचाव का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। अफसरों की अनेक बैठकें हुईं और जनरल ने दिगेंद्र को बुलाकर उसकी योजना सुनी। दिगेंद्र ने दुश्मनों से नजर बचाकर नदी से तैर कर पहुँचने की योजना का सुझाव दिया। नदी में 133 किलोवाट का विद्युत तरंग बह रहा था, फ़िर भी दिगेंद्र ने पीठ पर 50 किलो गोला बारूद, हथियार और कैद में भूखे साथियों के लिए बिस्कुट पैकेट लिए। हिम्मत कर उन्होंने नदी में गोता लगाया। कटर निकाला और विद्युत तारों को काट कर आगे पार हो गए। दिगेंद्र कुमार को उग्रवादियों के ठिकाने का अंदाजा था सो वह नदी के किनारे एक पेड़ के पीछे छुप गए और बिजली की चमक में उग्रवादियों के आयुध डिपो पर निशाना साधा। दोनों संतरियों को गोली से उड़ा दिया एवं ग्रेनेड का नाका दांतों से उखाड़ बारूद के ज़खीरे पर फेंक दिया। सैकड़ों धमाके हुए, और उग्रवादियों में हड़कंप मच गया। दिगेंद्र की हिम्मत देख बाकी कमांडो भी आग बरसाने लगे। थोड़े ही समय में 39 उग्रवादियों को ढेर कर दिया गया। जनरल कलकट ने दिगेंद्र को खुश होकर अपनी बाँहों में भर लिया उन्हें बहादुरी का मेडल दिया गया और रोज दाढ़ी बनाने से छूट दी गई।
कैप्टन मनोज कुमार पांडेय, यूपी का 24 साल का लड़का, जो जन्म से गोरखा नहीं था लेकिन जब भारतीय सेना की गोरखा रेजिमेंट में बतौर कैप्टन पोस्टेड हुआ तो उसमें मौत का खौफ़ मानों ग़ायब हो गया। फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ कहते थे कि "अगर कोई आदमी कहता है कि वह मरने से नहीं डरता है, तो वह झूठ बोल रहा है। या फिर वह गोरखा है"...फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के इन शब्दों को कारगिल युद्ध के दौरान शहीद कैप्टन मनोज कुमार पांडे ने चरितार्थ किया। दुश्मन की गोलियों से बुरी तरह जख्मी होने के बावजूद जंग के मैदान में उनकी उंगलियां बंदूक से नहीं हटी। उन्होंने अकेले ही दुश्मन के तीन बंकर ध्वस्त किए। 24 साल की छोटी सी उम्र में अपने देश पर न्योछावर होने वाले कैप्टन मनोज ने पहले ही कहा था कि 'अगर मेरे खून को साबित करने से पहले मेरी मौत हो जाती है, तो मैं वादा करता हूं, मैं मौत को मार दूंगा ..' (If death strikes before I prove my blood, I promise (swear), I will kill death.) कारगिल युद्ध में कैप्टन मनोज कुमार पांडेय ने अपने इस कहे को करके दिखाया। कारगिल में 'खालुबार टॉप' को जीतने के लिए उनका जोश, जज़्बा और जूनून इतना था कि माथे पर गोलियों की बौछार से घायल होने के बावज़ूद उन्होंने दुश्मन की पोज़िशन को ग्रेनेड से उड़ा दिया। परिणाम स्वरूप भारत के इस विरले सपूत को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में रुधा नाम का एक गांव है। मनोज 25 जून 1975 को यही के एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए। मनोज एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे उनके पिता लखनऊ के हसनगंज चौराहे पर पान की दुकान लगाया करते थे। मनोज ने गरीबी देखी थी इसलिए वो हमेशा अपने छोटे भाइयों को भी यही समझाते थे कि पापा के पैसों और उनकी मेहनत को व्यर्थ न जाने देना। मनोज का दिमाग बचपन से ही तेज़ था वो हमेशा से ही सेना में जाना चाहते थे। आठवीं कक्षा तक लखनऊ के रानी लक्ष्मी बाई स्कूल में पड़ने के बाद मनोज आर्मी स्कूल में भर्ती हुए। उसके बाद तो जैसे उनके जूनून को एक दिशा मिल गई। सैनिक स्कूल में उन्होंने खुद को सेना के लिए तैयार करना शुरू कर दिया। 12वीं की परीक्षा पास करते ही वह एनडीए की परीक्षा में भी सफल रहे। इंटव्र्यू में बोले, परमवीर चक्र जीतने के लिए सेना में आना है: कहते हैं की एनडीए के इंटरव्यू में जब मनोज से पूछा गया था कि वो सेना में क्यों जाना चाहते हैं, तो मनोज का जवाब था, "परमवीर चक्र जीतने के लिए।" अफसर ने उनसे पूछा की तुम जानते हो वो कैसे मिलता है तो उन्होंने कहा था जी हाँ, ज़्यादातर सैनिकों को ये मरणोपरांत मिलता है पर आप मुझे मौका दीजिए मैं इसे जीवित लेकर आऊंगा "। एनडीए में चयन के बाद मनोज प्रशिक्षण के लिए पुणे के पास खड़कवासला में मौजूद राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में पहुंचे, जहां एक कड़ी ट्रेनिंग के बाद उन्हें 11 गोरखा राइफल्स रेजीमेंट की पहली वाहनी में तैनाती मिली, जोकि उस वक्त जम्मू-कश्मीर में अपनी सेवाएं दे रही थी। अपनी तैनाती के पहले दिन से ही मनोज ने हमले की योजना बनाना, हमला करना और घात लगा कर दुश्मन को मात देने जैसी सभी कलाओं को सीखना शुरू कर दिया था। जल्द ही एक दिन उन्हें अपने सीनियर के साथ एक सर्च ऑपरेशन में जाने का मौका मिला। यह पहला मौका था, जब उनका दुश्मन से सीधा मुकाबला हुआ। वह इस परीक्षा में पास रहे। अपनी टीम के साथ उन्होंने घुसपैठ की कोशिश करने वाले आतंकियों को मार गिराया था। यह उनके लिए बड़ी उपलब्धि थी, मगर वह खुश नहीं थे। दरअसल, इस संघर्ष में उन्होंने अपने सीनियर अधिकारी को खो दिया था। 'पीस पोस्टिंग' छोड़ कारगिल में संभाला मोर्चा : देखते-देखते समय बीतता गया और मनोज अपनी यूनिट के साथ जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग इलाकों में गए। कारगिल की जंग से पहले उनकी बटालियन सियाचिन में मौजूद थी। 11 गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन ने सियाचिन में तीन महीने का अपना कार्यकाल पूरा किया था और सारे अफसर और सैनिक पुणे में 'पीस पोस्टिंग' का इंतज़ार कर रहे थे। बटालियन की एक 'एडवांस पार्टी' पहले ही पुणे पहुंच चुकी थी। सारे सैनिकों ने अपने जाड़ों के कपड़े और हथियार वापस कर दिए थे और ज्यादातर सैनिकों को छुट्टी पर भेज दिया गया था। तभी अचानक आदेश आया कि बटालियन के बाकी सैनिक पुणे न जा कर कारगिल में बटालिक की तरफ़ बढ़ेगें, जहाँ पाकिस्तान की भारी घुसपैठ की ख़बर आ रही थी। मनोज तो जैसे इस मौके के इंतजार में बैठे ही थे। उन्होंने आगे बढ़ कर नेतृत्व किया और करीब दो महीने तक चले ऑपरेशन में कुकरथाँग, जूबरटॉप जैसी कई चोटियों को विरोधियों के कब्ज़े से आज़ाद करवाया। 'हीरो ऑफ बटालिक' थे कैप्टन पांडेय : कारगिल युद्ध में खोलाबार सबसे मुश्किल लक्ष्य था। इस पर चारों तरफ से पाकिस्तान का कब्जा था। पाकिस्तानी ऊंचाई पर तैनात थे। यह चोटी इसलिए अहम थी, क्यों कि यह दुश्मन का कम्युनिकेशन हब था। इसपर कब्जा करने का मतलब था, कि पाकिस्तानी सैनिकों तक रसद और अन्य मदद में कटौती होना। इससे लड़ाई को अपने हक में किया जा सकता था। जब भारतीय सैनिकों ने इस पर चढ़ाई करना शुरू की तो पाकिस्तानियों ने गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। इससे भारतीय जवान तितर बितर हो गए। इतना ही नहीं, पाकिस्तानियों ने तोप से गोले और लॉन्चर भी बरसाए। कमांडिंग अफसर के निर्देश के मुताबिक, दो टुकड़ियों ने रात में ही चढ़ाई करने की योजना बनाई। एक बटालियन मनोज पांडे को दी गई। मनोज को चोटी पर बने चार बंकर उड़ाने का आदेश दिया गया। जब मनोज ऊपर पहुंचे तो उन्होंने बताया कि ऊपर चोटी पर 6 बंकर हैं। हर बंकर में 2-2 मशीन गन तैनात थीं। ये लगातार गोलियां बरसा रहीं थीं। मनोज पांडे जब एक बंकर में घुस रहे थे तो उनके पैर में गोली लगी, इसके बावजूद वे आगे बढ़े और हैंड-टू-हैंड कॉम्बैट में दो दुश्मनों को मार गिराया। यहां उन्होंने पहला बंकर नष्ट कर दिया। इसके बाद दुश्मनों ने धावा बोल दिया। लहूलुहान होने के बावजूद मनोज पांडे रेंगते हुए आगे बढ़े उन्होंने दो और बंकरों को तबाह कर दिया। इसके बाद एक और बंकर बचा था, जिसे नष्ट करने का उन्हें आदेश मिला था। जैसे ही मनोज पांडे उसे नष्ट करने के लिए आगे बढ़े, दुश्मन की ओर से उन्हें चार गोलियां लगीं लेकिन उन्होंने इसके बावजूद उस बंकर को भी उड़ा दिया। कुछ पाकिस्तानी सैनिक वहां से भागने लगे, तो उनके मुंह से आखिरी शब्द निकला, 'ना छोड़नूं' (किसी को छोड़ना नहीं)। इसके बाद भारतीय जवानों ने उन्हें भी ढेर कर दिया। कैप्टन पांडे की बटालियन ने खालूबार पर कब्जा कर लिया। अंतत: खालूबार पर शान से भारतीय तिरंगा लहराया। उस समय कैप्टेन मनोज पांडेय की उम्र थी 24 साल और 7 दिन। अद्वितीय वीरता के लिए कैप्टन मनोज कुमार पांडे को मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया। 26 जनवरी, 2000 को तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने हजारों लोगों के सामने देश का सबसे बड़ा वीरता सम्मान परमवीर चक्र मनोज के पिता गोपी चंद पांडे को सौंपा था। इस अभियान में कर्नल ललित राय के पैर में भी गोली लगी और उन्हें भी वीर चक्र दिया गया। इस जीत के लिए भारतीय सेना को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। .............................................. वो आखिरी खत : आदरणीय पिता जी, सादर चरण स्पर्श। मैं यहां प्रसन्न पूर्वक रहकर आप लोगों के मंगल की कामना करता हूं। कल ही सोनू का पत्र मिला, जानकर प्रसन्नता हुई कि वह ठीक है। यहां के हालात आप लोगों को पता ही हैं। आप लोग ज्यादा चिंता न करें कयोंकि हमारी पोजीशन उनसे अच्छी है। लेकिन दुश्मनों को हराने में कम से कम एक महीने का समय अवश्य लगेगा तब तक कुछ नहीं कहा जा सकता है। बस भगवान पर भरोसा रखना और प्रार्थना करना कि हम अपने मकसद में कामयाब हों। सोनू से कहना कि वह पीसीएम की कोचिंग करना चाहे तो अच्छी बात है। पर उसके साथ लखनऊ विश्वविद्यालय में बीएससी में एडमिशन की भी कोशिश करे। एनडीए में हो जाता है तो बहुत अच्छा। अपना ख्याल रखना। कोई सामान की जरूरत हो तो बाजार से खरीद लेना। यहां काफी ठंड है, पर दिन में बर्फ न पड़ने से मौसम ठीक रहता है। आप लोग चिट्ठी अवश्य डालना, क्योंकि लड़ाई के मैदान में बीच में चिट्ठी पढ़ना कैसा लगता है शायद आप लोग इसका अनुभव नहीं कर सकते। मेरी चिंता मत करना। -आपका बेटा मनोज
1. कैप्टेन विक्रम बत्रा विक्रम बत्रा भारतीय सेना के वो ऑफिसर थे, जिन्होंने कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व वीरता का परिचय देते हुए वीरगति प्राप्त की। इसके बाद उन्हें भारत के वीरता सम्मान परमवीर चक्र से भी सम्मानित किया गया। ये वो जाबाज़ जवान है जिसने शहीद होने से पहले अपने बहुत से साथियों को बचाया और जिसके बारे में खुद इंडियन आर्मी चीफ ने कहा था कि अगर वो जिंदा वापस आता, तो इंडियन आर्मी का हेड बन गया होता। परमवीर चक्र पाने वाले विक्रम बत्रा आखिरी हैं। 7 जुलाई 1999 को उनकी मौत एक जख्मी ऑफिसर को बचाते हुए हुई थी। इस ऑफिसर को बचाते हुए कैप्टन ने कहा था, ‘तुम हट जाओ. तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं’। 2. लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडेय लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश राज्य के सीतापुर जिले के रुधा गांव में हुआ था। वे बतौर कमीशंड ऑफिसर 1/11 गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में भर्ती हुए। पांडेय को निर्णायक युद्ध के लिए 2-3 जुलाई 1999 को कूच किया। अपनी कार्रवाई के दौरान लेफ्टिनेंट मनोज ने सफलतापूर्वक दुश्मन के दो बंकर ध्वस्त किये। जब वे तीसरे बंकर की तरफ बढ़ रह थे तो दुश्मन की तरफ से आई गोली ने लेफ्टिनेंट मनोज के कंधे और टांगों को जख्मी कर दिया। गंभीर रूप से जख्मी होने के बावजूद लेफ्टिनेंट मनोज दुश्मन का तीसरा बंकर भी ध्वस्त करने में सफल रहे। इसके बाद वो चौथे बंकर की तरफ बढे, बंकर को ध्वस्त करने के लिए वह ग्रेनेड फेंकने ही वाले थे, की तभी चौथे बंकर से दुश्मन ने मशीनगन से फायर शुरू कर दिया। लेफ्टिनेंट मनोज के माथे पर गोली लगी ,जिसके बावजूद लेफ्टिनेंट मनोज ने दुश्मन के चौथे बंकर में ग्रेनेड फेंका था। इस ग्रेनेड के धमाके के साथ बंकर में मौजूद सभी दुश्मन मारे गए। महज 24 साल के उम्र में युद्ध कौशल, पराक्रम और वीरता का अभूतपूर्व प्रदर्शन करने वाले लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडेय को सेना के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से मरणोपरांत सम्मानित किया गया। 3. राइफल मैन संजय कुमार परमवीर राइफल मैन संजय कुमार, वो जबाज़ सिपाही है जिन्होंने कारगिल वॉर के दौरान अदम्य शौर्य का प्रदर्शन करते हुए दुश्मन को उसी के हथियार से धूल चटाई थी। लहूलुहान होने के बावजूद संजय कुमार तब तक दुश्मन से जूझते रहे थे, जब तक प्वाइंट फ्लैट टॉप दुश्मन से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले से भारतीय सेना में भर्ती हुए सूबेदार संजय कुमार की शौर्यगाथा प्रेरणादायक है। 4 जुलाई 1999 को राइफल मैन संजय कुमार जब चौकी नंबर 4875 पर हमले के लिए आगे बढ़े तो एक जगह से दुश्मन ऑटोमेटिक गन ने जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी और टुकड़ी का आगे बढ़ना कठिन हो गया। ऐसी स्थिति में गंभीरता को देखते हुए राइफल मैन संजय कुमार ने तय किया कि उस ठिकाने को अचानक हमले से खामोश करा दिया जाए। इस इरादे से संजय ने यकायक उस जगह हमला करके आमने-सामने की मुठभेड़ में तीन पाकिस्तानियों को मार गिराया। अचानक हुए हमले से दुश्मन बौखला कर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनिवर्सल मशीनगन भी छोड़ गए। संजय कुमार ने वो गन भी हथियाई और उससे दुश्मन का ही सफाया शुरू कर दिया। 4. ग्रिनेडियर योगेंद्र सिंह यादव सबसे कम आयु में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले वीर योद्धा योगेन्द्र सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के औरंगाबाद अहीर गांव में 10 मई, 1980 को हुआ था। 27 दिसंबर, 1996 को सेना की 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हुए योगेंद्र की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सेना की ही रही है। कारगिल युद्ध में योगेंद्र का बड़ा योगदान है। उनकी कमांडो पलटन 'घटक' कहलाती थी। उसके पास टाइगर हिल पर कब्जा करने के क्रम में लक्ष्य यह था कि वह ऊपरी चोटी पर बने दुश्मन के तीन बंकर काबू करके अपने कब्जे में ले। इन बंकरों तक पहुंचने के लिए ऊंची चढ़ाई करनी थी। ये चढ़ाई आसान नहीं थी। मगर प्लाटून का नेतृत्व कर रहे योगेन्द्र यादव ने इसे संभव कर दिखाया। इस संघर्ष के दौरान उनके शरीर में 15 गोलियां लगी थी, लेकिन वह झुके नहीं और भारत को जीत दिलाई।
‘या तो मैं लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा। पर मैं आऊंगा जरूर.’ भले ही कारगिल युद्ध को 22 वर्ष का वक्त बीत चुका हो लेकिन शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा की ये पंक्तियाँ अब भी हर हिंदुस्तानी के जहन में जीवित है। 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस है और 7 जुलाई वो तारीख है जब कारगिल के हीरो शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा ने शहादत का जाम पिया। कैप्टेन विक्रम बत्रा जिनके बारे में खुद इंडियन आर्मी चीफ ने कहा था कि अगर वो जिंदा वापस आता, तो इंडियन आर्मी का हेड बन गया होता। कैप्टेन विक्रम बत्रा की कहानी अद्भुत शौर्य और साहस का पर्याय है। पालमपुर में हुई प्रारंभिक शिक्षा कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म नौ सितंबर 1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर जिले के घुग्गर में हुआ। शहीद बत्रा की मां जय कमल बत्रा एक प्राइमरी स्कूल में टीचर थी और ऐसे में कैप्टन बत्रा की प्राइमरी शिक्षा घर पर ही हुई थी। शुरुआती शिक्षा पालमपुर में हासिल करने के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए वह चंडीगढ़ चले गए। शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा के स्कूल के पास आर्मी का बेस कैम्प था। स्कूल आते-जाते समय वहां चलने वाली गतिविधियों को देखते रहते थे। सेना की कदमताल और ड्रम बीट की आवाज से उनके रोंगटे खड़े हो जाते थे। शायद यही वो वक्त था जब वे सेना में शामिल होने का मन बन चुके थे। मर्चेंट नेवी नहीं, आर्मी ज्वाइन करना था मकसद चंडीगढ़ में पढ़ते वक्त शहीद कैप्टेन विक्रम बत्रा ने मर्चेंट नेवी में जाने के लिए परीक्षा दी। परिणाम आया तो वह परीक्षा पास के चुके थे और कुछ ही दिनों में उनका नियुक्ति पत्र भी आ गया। जाने की सारी तैयारियां हो चुकी थी। पर उनके मन में कुछ और ही चल रह था। इस बीच एक दिन वह मां की गोद में सिर रखकर बोले, 'मां मुझे मर्चेंट नेवी में नहीं जाना, मैं आर्मी ज्वाइन करना चाहता हूं।' इसके बाद वही हुआ जो वह चाहते थे। 18 महीने की नौकरी के बाद ही जंग विक्रम बत्रा की 13 जम्मू कश्मीर राइफल्स में 6 दिसम्बर 1997 को लेफ्टिनेंट के पोस्ट पर जॉइनिंग हुई थी। महज 18 महीने की नौकरी के बाद 1999 में उन्हें कारगिल की लड़ाई में जाना पड़ा। वह बहादुरी से लड़े और सबसे पहले उन्होंने हम्प व राकी नाब पर भारत का झंड़ा फहराया। ख़ास बात ये है कि उनकी बहादुरी और काबिलियत के चलते युद्ध के बीच में ही उन्हें कैप्टन बना दिया गया। जब कहा, 'ये दिल मांगे मोर' 20 जून 1999 को कैप्टन बत्रा को कारगिल की प्वाइंट 5140 को दुश्मनों से मुक्त करवाने का ज़िम्मा दिया गया। युद्ध रणनीति के लिहाज से ये चोटी भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण थी। कैप्टेन विक्रम बत्रा ने इस चोटी को मुक्त करवाने के लिए अभियान छेड़ा और कई घंटों की गोलीबारी के बाद आखिरकार वह अपने मिशन में कामयाब हो गए। इस जीत के बाद जब उनकी प्रतिक्रिया ली गई तो उन्होंने जवाब दिया, 'ये दिल मांगे मोर,' बस इसी पल से ये पंक्तियाँ अमर हो गई। ये मिशन बेहद जटिल था। दरअसल, पाकिस्तानी सैनिक चोटी के टॉप पर थे और मशीन गन से ऊपर चढ़ रहे भारतीय सैनिकों पर गोलियां बरसा रहे थे। पर कैप्टन बत्रा ने हार नहीं मानी और एक के बाद एक पाकिस्तानी को ढेर करते हुए इस चोटी पर कब्जा कर लिया। पाक ने दिया कोडनेम 'शेरशाह' कारगिल वॉर में कैप्टन विक्रम बत्रा दुश्मनों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुके थे। ऐसे में पाकिस्तान की ओर से उनके लिए एक कोडनेम रखा गया और यह कोडनेम कुछ और नहीं बल्कि उनका निकनेम 'शेरशाह' था। इस बात का खुलासा खुद कैप्टन बत्रा ने युद्ध के दौरान ही दिए गए एक इंटरव्यू में किया था। घुसपैठिया बोला- हमें माधुरी दीक्षित दे दो, ऐसे दिया जवाब कैप्टन विक्रम बत्रा से जुड़ा एक वाकया हैं। एक पाकिस्तानी घुसपैठिया युद्ध के दौरान कैप्टन विक्रम बत्रा को बोला, ‘हमें माधुरी दीक्षित दे दो, हम नरम दिल हो जाएंगे। ' इस बात पर कैप्टन विक्रम बत्रा मुस्कुराए और इसका जवाब अपनी एके-47 से फायर करते हुए दिया और बोले, ‘लो माधुरी दीक्षित के प्यार के साथ’ और कई पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया। साथी को बचाते हुए शहीद हुए थे कैप्टन बत्रा पॉइंट 5140 पर कब्जे के बाद कैप्टेन विक्रम बत्रा अगले प्वाइंट 4875 को जीतने के लिए चल दिए। ये चोटी समुद्र लेवल से 17 हजार फीट की ऊंचाई पर है और इस पर कब्जे के लिए 80 डिग्री की चढ़ाई पर चढ़ना था। कैप्टेन विक्रम बत्रा अपने साथियों के साथ पत्थरों का कवर ले कर दुश्मन पर फायर कर रहे थे। तभी उनके एक साथी को गोली लगी और वो उनके सामने ही गिर गया। वो सिपाही खुले में गिरा हुआ था। कैप्टेन विक्रम बत्रा और उनके एक साथी चट्टानों के पीछे बैठे थे। हालांकि उस घायल सिपाही के बचने के आसार बेहद कम थे लेकिन कैप्टेन विक्रम बत्रा ने फैसला लिया की वे उस घायल सिपाही को रेस्क्यू करेंगे। जैसे ही उनके साथी चट्टान के बाहर कदम रखने वाले थे, विक्रम ने उन्हें कॉलर से पकड़ कर कहा, 'आपके तो परिवार और बच्चे हैं। मेरी अभी शादी नहीं हुई है। सिर की तरफ से मैं उठाउंगा। आप पैर की तरफ से पकड़िएगा...' ये कह कर विक्रम आगे चले गए और जैसे ही वो उनको उठा रहे थे, उनको गोली लगी और वो वहीं गिर गए और शहीद हो गए। मरणोपरांत मिला परमवीर चक्र कैप्टन विक्रम बत्रा को मरणोपरांत भारत का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र दिया गया। 26 जनवरी, 2000 को उनके पिता गिरधारी लाल बत्रा ने हजारों लोगों के सामने उस समय के राष्ट्रपति के आर नारायणन से सम्मान हासिल किया। कैप्टन विक्रम बत्रा की शहादत को किसी पाठ्यक्रम में नहीं जोड़ा गया। उनके परिवार ने सरकार से पत्राचार भी किया है, लेकिन अभी तक इस मामले में किसी ने कोई कदम नहीं उठाया है। एक खूबसूरत प्रेम कहानी के नायक थे विक्रम कारगिल युद्ध के दौरान अपनी शहादत से पहले, कैप्टन बत्रा ने 1999 में होली के त्यौहार के दौरान सेना से छुट्टी पर अपने घर का दौरा किया था। जब भी वह अपने घर जाते थे, वे ज्यादातर नियुगल कैफे जाते थे। इस बार भी, उन्होंने कैफे का दौरा किया और अपनी दोस्त और मंगेतर डिंपल चीमा से मिले। डिंपल ने उससे युद्ध में सावधान रहने को कहा, जिसमें उन्होंने उत्तर दिया, 'मैं या तो लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा. पर मैं आऊंगा जरूर।’ विक्रम बत्रा और डिंपल चीमा की मुलाकात साल 1995 में पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ में हुई थी। दोनों ने एमए में दाखिला लिया था लेकिन दोनों ही एमए पूरा नहीं कर पाए। 2016 में दिए एक इंटरव्यू में डिंपल चीमा ने कहा था कि यह किस्मत थी जो हम दोनों को करीब लाई और फिर हम दोनों एक दूसरे के हो गए। इस खूबसूरत लव स्टोरी की उम्र भले ही चार साल रही हो लेकिन इसका अहसास अमर हो गया।
सरहद पर लड़ते वीर जवानों की शहादत के किस्से तो अक्सर सुनाएं जाते है, ये वीर गाथाएं देश के हर युवा को देश प्रेम का पाठ पढ़ाती है। इन वीर गाथाओं को सुनने के बाद सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है और आँखों में नमी आ जाती है। देश के लिए प्राण कुर्बान करने वाले कई जवानों में से एक जवान ऐसा भी हैं, जिनकी कहानी बहुत कम सुनाई देती है। कारण है उस कहानी के पीछे छिपा दर्द, जो किसी खौफ से कम नहीं है। ये कहानी है कैप्टन सौरभ कालिया की। सौरभ कालिया की शहादत की कहानी एक ऐसी वीर गाथा जो हर किसी को अचंभित कर दे, ये सोचने पर मजबूर कर दे कि कैसे कोई इतना निर्दयी हो सकता है। सौरभ को पाकिस्तान में 22 दिनों तक बंधी बनाकर ज़बरदस्त यातनाएं दी गई। उन्हें सिगरेट से जलाया गया, उनके कानों में लोहे की सुलगती छडे घुसेड़ दी गई, नाखून उखाड़ दिए गए, मगर उनके मुँह से गद्दारी का एक लब्ज भी पाकिस्तान निकलवा नहीं पाया। कैप्टेन कलिया वो जाबाज़ जवान है जिन्हें कारगिल की जंग शुरू होने से पहले ही शहादत मिल गई, जिनकी वीर गाथा के बिना कारगिल युद्ध की कहानी अधूरी है। इनकी शहादत को कारगिल की पहली शहादत भी कहा जाता है। 29 जून 1976 को पंजाब के अमृतसर में जन्मे सौरभ कालिया के पिता डॉक्टर है। सौरभ ने पालमपुर के डीएवी पब्लिक स्कूल से 10वीं कक्षा तक की पढ़ाई की और फिर केन्द्रीय विद्यालय, पालमपुर से 12वीं की। इसके बाद साल 1997 में एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, पालमपुर से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। ग्रेजुएशन पूरी होते ही सौरभ ने सेना की परीक्षा दी। कंबाइंड डिफेंस सर्विसेज (सीडीएस) के जरिये अगस्त 1997 में भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून में सौरभ का चयन हुआ और 12 दिसंबर 1998 को उन्हें आईसी नंबर 585222 पर 4 जाट रेजिमेंट के तहत पहली पोस्टिंग मिली। सौरभ कालिया के पिता डॉक्टर एन के कालिया बताते है की "पासिंग आउट परेड के समय उसे वर्दी में देख कर मैं और उसकी माँ फुले नहीं समाए थे। 6 फुट 2 इंच का वो लम्बा जवान वर्दी में खूब जंच रहा था। सौरभ को बचपन से ही आर्मी में जाना था। उसने 12वीं के बाद एएफएमसी का एग्जाम दिया, लेकिन वे पास नहीं कर पाया। ग्रेजुएशन के बाद जब सौरभ ने CDS क्रैक किया तो हमें उसपर बहुत गर्व हुआ। " 31 जनवरी, 1998 को बरेली के जाट रेजिमेंटल सेंटर में रिपोर्टिंग के बाद जनवरी के मध्य में वो सेना में जाकर शामिल हुए। जनवरी 1999 में सौरभ कारगिल पहुंचे। मई 1999 के पहले हफ्ते में, कारगिल के कई क्षेत्रों में तीन बार पैट्रोलिंग ड्यूटी दी और उसके बाद कारगिल में पाक सेना के बड़े पैमाने पर घुसपैठ की विस्तृत जानकारी देने के लिए सबसे पहले अधिकारी के रूप में काम किया। कैप्टेन सौरभ कालिया ने अपने अदम्य साहस और वीरता की मिसाल कायम की थी। पर विडंबना तो ये है की उनके इस साहस के लिए उन्हें आज तक कोई सैन्य सम्मान नहीं मिला। शहीद कैप्टन सौरभ कालिया के परिजनों को आज भी इंसाफ न मिलने का मलाल है। शहीद कैप्टन सौरभ कालिया के लिए न्याय का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। पिछले दो साल से मामले पर सुनवाई नहीं हुई है। करीब दो दशकों से इंसाफ न मिलता देख उनके पिता डॉ. एनके कालिया और माता विजय कालिया का दर्द बेटे के शहीदी दिवस पर फिर छलका था। परिजनों का कहना है कि विंग कमांडर अभिनंदन की तर्ज पर भारत सरकार ने पाकिस्तान से मुद्दा उठाया होता तो उन्हें जरूर इंसाफ मिलता। जब तक विदेश मंत्रालय पाकिस्तान या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह मामला सख्ती से नहीं उठाता, तब तक न्याय मिलना मुश्किल है। विदेश मंत्रालय को कैप्टन सौरभ कालिया का मामला पाकिस्तान और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाना चाहिए। उन्हें मोदी सरकार से न्याय मिलने की पूरी आस है। पाकिस्तानी रेडियो ने दी बंदी बनाने की खबर तारीख 3 मई 1999, ताशी नामग्याल नाम के एक चरवाहे ने करगिल की ऊंची चोटियों पर कुछ हथियारबंद पाकिस्तानियों को देखा और इसकी जानकारी इंडियन आर्मी को आकर दी थी। 14 मई को कैप्टन कालिया पांच जवानों के साथ पेट्रोलिंग पर निकल गए। कैप्टन सौरभ कालिया ने 'बजरंग पोस्ट' पर जाने के लिए अपने से बड़े, लेकिन रैंक में जूनियर जवान को न भेजकर खुद जाने का बड़ा फैसला लिया था। जब वे बजरंग चोटी पर पहुंचे तो उन्होंने वहां हथियारों से लैस पाकिस्तानी सैनिकों को देखा। कैप्टन कालिया की टीम के पास न तो बहुत हथियार थे न अधिक गोला बारूद। वे महज़ पेट्रोलिंग के लिए निकले थे। दूसरी तरफ पाकिस्तानी सैनिकों की संख्या बहुत ज्यादा थी और गोला बारूद भी उनसे अधिक था। पाकिस्तान के जवान नहीं चाहते थे कि ये लोग वापस लौटें। उन्होंने चारों तरह से कैप्टन कालिया और उनके साथियों को घेर लिया। कालिया और उनके साथियों ने जमकर मुकाबला किया लेकिन जब उनका असला खत्म हो गया तो पाकिस्तानियों ने उन्हें बंदी बना लिया। सौरभ और उनके साथियों ( सिपाही अर्जुन राम, भीका राम, भंवर लाल बगरिया, मूला राम और नरेश सिंह ) को अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के विरुद्ध पाकिस्तान ले जाया गया। अगली रात पाकिस्तान के एक रेडियो के माध्यम से उनके बंदी बनाए जाने की खबर मिली। कैप्टन कालिया के छोटे भाई वैभव कालिया बताते हैं कि " उस समय बमुश्किल बात हो पाती थी, उनकी ज्वाइनिंग को मुश्किल से तीन महीने हुए थे। हमने तो उन्हें वर्दी में भी नहीं देखा था। फोन तो तब था नहीं, सिर्फ चिट्ठी ही सहारा थी, वो भी एक महीने में पहुंचती थी। एक अखबार से हमें सौरभ के पाकिस्तानी सेना के कब्जे में होने की जानकारी मिली। लेकिन हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था इसलिए हमने लोकल आर्मी कैंटोनमेंट से पता किया। " क्षत-विक्षत हालत में भारत पहुंची पार्थिव देह पाकिस्तानी सेना सौरभ और उनके साथियों से ख़ुफ़िया जानकारी हासिल करना चाहती थी। इसीलिए उन्हें 22 दिनों तक कैद में रखा गया, अमानवीय यातनाएं दी गई। मगर सौरभ और उनके साथियों ने पाकिस्तान को कोई भी जानकारी नहीं दी। भारत में किसी को भनक भी नहीं थी की हमारे सैनिकों के साथ पकिस्तान में क्या हो रहा है। सौरभ कालिया की उम्र उस समय 23 साल थी और उनके साथी अर्जुन राम की महज़ 18 साल। 22 दिनों तक यातनाएं देने के बाद इन जवानो को गोली मार दी गई थी। 7 जून को पाकिस्तान ने भारत को इख्तला किया की उन्हें 6 भारतीय जवानों की लाशें अपनी सीमा के भीतर मिली है। 9 जून 1999 को कैप्टन सौरभ कालिया का शव क्षत-विक्षत हालत में भारत पहुंचा। जब कैप्टन कालिया का शव उनके घर पहुंचा तो सबसे पहले भाई वैभव ने देखा। वे बताते हैं कि उस समय हम उनकी बॉडी पहचान तक नहीं कर पा रहे थे। चेहरे पर कुछ बचा ही नहीं था। न आंखें न कान। सिर्फ आईब्रो बची थीं। उनकी आईब्रो मेरी आईब्रो जैसी थीं, इसी से हम उनके शव को पहचान पाए। कारगिल युद्ध के पहले शहीद हुए कैप्टन सौरभ कालिया का पार्थिव शरीर पालमपुर के शहीद कैप्टन विक्रम बतरा मैदान में पहुंचा था तो माता विजया कालिया ने बेटे के पार्थिव शरीर को कंधा दिया था। यह देखकर सारा पालमपुर रोया था। बेटे का क्षत-विक्षत शव देखकर परिजनों में पाकिस्तान के खिलाफ भारी आक्रोश था। ऑटोप्सी रिपोर्ट में पाया गया था की उनकी आँखे फोड़ने के बाद उन्हें निकाल दिया गया था। उनके कान में लोहे की गर्म छड़ी डाली गई थी। नाखून निकाल दिए गए थे, दांत भी टूटे थे। सिगरेट से जलाने के निशान उनकी बॉडी पर थे। उनकी अधिकतर हड्डियां तोड़ दी गयी थी, उँगलियों को भी काटा गया था। शहादत के बाद अकाउंट में आई पहली सैलरी वैभव कालिया बताते है की सौरभ ने आखिरी बार अपने भाई को अप्रैल में उसके बर्थडे पर फोन किया था और 24 मई को जब सौरभ का आखिरी खत घर पहुंचा, तब वो पाकिस्तानियों के कब्जे में थे। अपनी मां को कुछ ब्लैंक चेक साइन कर के दे गए थे, ये कहकर कि मेरी सैलेरी से जितने चाहे पैसे निकाल लेना। लेकिन, सौरभ की पहली सैलरी उनकी शहादत के बाद अकाउंट में आई।
पहाड़ी लोक संस्कृति के नायक लायक राम रफ़ीक़ वो शक्सियत है, जिन्होंने अपने जीवन का अंतिम दशक खुद तो अंधेरे में बिताया मगर वो पहाड़ी गायकी को वो पहचान दे गए जो आज भी रोशन है। हिमाचल में पहाड़ी नाटियों का दौर बदलने वाले रफ़ीक़ एक ऐसे गीतकार थे जिन्होंने अपने जीवन में करीब 2500 से अधिक पहाड़ी गीत लिखकर इतिहास रचा। हिमाचल में शायद ही ऐसा कोई गायक होगा, जिसने पारंपरिक गीतों के पीछे छिपे इतिहास के जन्मदाता लायक राम रफीक के गानों को न गाया हो। आज भी रफीक के लिखे गानों को गुनगुनाया जाता है, गाया जाता है। उनके लिखे अमर गीत अब भी महफिलें लूटते है। प्रदेश का ऐसा शायद ही कोई क्षेत्र हो जहां शादी के डी जे या स्कूलों के सांस्कृतिक या अन्य आयोजनों में रफ़ीक के गीतों ने रंग न जमाया हो। नीलिमा बड़ी बांकी भाई नीलिमा नीलिमा.., होबे लालिए हो जैसे गीत हो या मां पर लिखा मार्मिक गीत 'सुपने दी मिले बोलो आमिएं तू मेरिए बेगे बुरो लागो तेरो आज, जिऊंदिए बोले थी तू झालो आगे रोएला बातो सच्ची निकली से आज' ... रफीक कई कालजयी गीत लिख गए। रफीक आकाशवाणी शिमला से गायक और अपने गीतों की अनेक लाजवाब धुनों के रचयिता भी रहे। अपना पूरा जीवन पहाड़ी संगीत पर न्योछावर करने वाले लायक राम रफीक का अंतिम समय बेहद दुखद व कठिनाओं से भरा रहा। ग्लूकोमा ने उनकी आंखों की रोशनी चुरा ली थी। उन्हें अपना अंतिम समय अँधेरे में बिताना पड़ा, मगर ये अंधापन भी उन्हें अपने आजीवन जुनून का पीछा करने से नहीं रोक सका - अंतिम सांस तक वो पहाड़ी गीत लिखते रहे। रफ़ीक़ शिमला में ठियोग के पास एक छोटे से गाँव (नालेहा) में रहा करते थे। कृषि परिवार में जन्मे और स्थानीय स्कूल में पढ़े लिखे। एक पुराने साक्षात्कार में उन्होंने बताय था कि वे मीट्रिक की परीक्षा भी पास नहीं कर पाए थे, स्कूल की किताबों में उनका मन ही नहीं लगता था। पर ठियोग की लाइब्रेरी में रखी साहित्यिक किताबों से मजबूत रिश्ता था। रफ़ीक़ पूरा दिन उस लाइब्रेरी में बैठ उर्दू और हिंदी की कविताओं से भरी किताबें पढ़ते रहते। इन्हीं कविताओं को पढ़ रफ़ीक़ को पहाड़ी बोली में कविताएं लिखने की प्रेरणा मिली और बस तभी से रफ़ीक़ ने अपने ख्यालों को शब्दों के ज़रिये गीत माला में पिरोना शुरू कर दिया। लायक राम रफ़ीक़ की बेटी कृष्णा बताती है की उनके पिता का संगीत और हिमाचली लोकसंस्कृति से प्रेम देख कर वे गर्व महसूस किया करती थी। वे हिमाचली संस्कृति के ध्वजवाहक थे। कृष्णा ने बताया की वे रचनाकार बनने से पहले आईटीबीपी में अपनी सेवाएं दे चुके थे मगर एक लेखक बनने के लिए उन्होंने वो नौकरी छोड़ दी थी। कृष्णा का कहना है की उनके पिता ने हिमाचल की लोक संस्कृति के लिए अपना अमिट योगदान दिया मगर सरकार ने उनके लिए कुछ भी नहीं किया। उनके अंतिम समय में सबने उनका साथ छोड़ दिया। एकाध लोगों को छोड़ जिनके लिए उन्होंने गीत लिखे वो भी उनसे मिलने तक नहीं आए। अंत में कांग्रेस नेता कुलदीप सिंह राठौर की मदद से उन्हें हिमाचल अकादमी की पेंशन मिल पाई, किन्तु उसके कुछ ही समय बाद उनकी मृत्यु हो गई। हजारों लोकप्रिय गीतों के गीतकार लायक राम रफ़ीक उपेक्षा का शिकार रहे है। उनके गीतों को आवाज देकर न जाने कितने गायकों ने शौहरत कमाई और रफीक के हिस्से आई सिर्फ उपेक्षा। ये बेहद विडम्बना का विषय है कि रफीक के अनेक लोकप्रिय गीतों के विवरण में उनका नाम तक दर्ज़ नहीं है। न सिर्फ रफीक साहब बल्कि पहाड़ी संगीत जगत में गीतकार सबसे अधिक उपेक्षित वर्ग है। एसडी कश्यप को देते थे इंडस्ट्री में लाने का श्रेय रफीक ने 78 साल की उम्र में अपनी आखिरी सांस लेने से पहले तक लगभग 2,500 गीत लिखे थे। रफ़ीक़ ने न सिर्फ नाटियों (लोक गीतों) की लोकप्रियता को बढ़ाने का कार्य किया बल्कि उन्हें व्यावसायिक रूप से व्यावहारिक बनाने के लिए भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। रफीक के हिमाचल म्यूजिक इंडस्ट्री में आने से पहले, संगीत निर्देशक एसडी कश्यप ने मंडी में हिमाचल प्रदेश का पहला स्टूडियो ( साउंड एंड साउंड स्टूडियो खोला था )। रफीक अक्सर इंटरव्यूज में ये कहा करते थे की उन्हें रचनाकार बनाने में एसडी कश्यप का बड़ा हाथ था। वे ही उन्हें इस इंडस्ट्री में लेकर आए थे। वे ठियोग से मंडी जा उन्हीं के स्टूडियो में अपने गाने रिकॉर्ड करवाया करते। रफ़ीक़ ने एक लम्बे अर्से तक आकाशवाणी में बतौर गायक भी कार्य किया। रफीक के लिखे गीत सबको समझ आये हिमाचली नाटियों में वास्तविक प्रेम कहानियां, बहादुरी और अच्छे कामों की यादें संजोई जाती है। उस दौर में पहाड़ी नाटियों से जुड़ी सबसे बड़ी समस्या थी भाषा। दरअसल हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में हर 10-15 मील के बाद भाषा बदल जाती है। इसलिए, किसी विशेष क्षेत्र की भाषा में बनाए गए और गाए गए पारंपरिक गीतों को अन्य क्षेत्रों में उतना सराहा और समझा नहीं जाता था। इस दुविधा को दूर करने में रफीक का बड़ा हाथ रहा। वो ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर लिखते की हर किसी को वो समझ आ जाए। पारंपरिक नाटियों से हटकर, उन्होंने रोमांटिक गीतों को अपनी खूबी बना लिया और उन्हें एक सरल भाषा में लिखा। हर कोई उनके लिखे गाने समझने व गुनगुना लगा। ऊपरी शिमला क्षेत्र के विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी। इसने उन्हें नाटियों के लिए एक बड़ा दर्शक वर्ग बनाने में मदद की, जिससे यह शैली व्यावसायिक रूप से व्यावहारिक हो गई। उन लिखे गीतों को गाना हर नए पुराने सिंगर की डिमांड बन गई। गीत लिखने और बनाने के अपार प्रेम ने उन्हें पहाड़ी गीतों का सबसे उम्दा लेखक बना दिया। पेनल्टी से ऐसे बचे रफ़ीक साहब, कुलदीप शर्मा और विक्की चौहान रफीक खुद तो एक शानदार कलाकार थे ही, साथ ही उन्होंने हिमाचल के कई अन्य कलाकारों को भी बुलानियों तक पहुँचाने में मदद की। वे कहते थे की पारंपरिक गीतों के पीछे हमेशा कोई इतिहास छिपा होता है। युवा कलाकारों को इस इतिहास की पूरी जानकारी बुजुर्गों से लेकर गीतों को प्रस्तुत करना चाहिए। इसके साथ ही गीतों में सार, तत्व और शिक्षाप्रद होने से ही उसकी सार्थकता होती है। हिमाचल के जाने माने कलाकार विक्की चौहान बताते है की रफीक साहब का उनके जीवन में खासा प्रभाव रहा है। विक्की चौहान कहते है की " ये मेरा दुर्भाग्य है की में उनके लिखे गानों को अब तक नहीं गा पाया, हालाँकि मेरे द्वारा लिखे गए गानों का संशोधन वे ही किया करते थे। उनके साथ बिताये हुए पलों के कई बेहतरीन किस्से मुझे आज भी याद है। शुरूआती दौर में जब मैंने अपना करियर शुरू किया था तो उन्होंने मुझे ये सीख दी थी की तुम आने वाले दौर के कलाकार हो और तुम मोर्डर्न सोच के गाने बहुत बेहतरीन लिख सकते हो। तुम समय के साथ हिमाचली संस्कृति को आगे बढ़ाने का काम करोगे। जैसे समय बदलेगा तुम्हारे गाने भी बदलेंगे, जो नए दौर के लोगों को हिमाचली संस्कृति से जोड़े रखेंगे। उनकी कही ये बातें मुझे उस समय तो समझ नहीं आई पर हाँ अब मैं उन बातों को समझ पाया हूँ। जिस तरह के गाने मेने पिछले कुछ समय में दिए है वो निसंदेह उनकी इस बात की सटीकता का प्रमाण देते है। " विक्की चौहान बताते है की रफीक एक बेहद दिलचस्प इंसान थे। उनका सरल और खुशमिजाज़ स्वभाव उन्हें बेहद ख़ास बनाता था। उनका और रफ़ीक साहब का एक शानदार किस्सा भी उन्होंने साझा किया। वे कहते है , "एक बार मैं, कुलदीप शर्मा और रफ़ीक साहब काम के किसी सिलसिले से चंडीगढ़ गए हुए थे। सेक्टर 22 स्थित गेस्ट हाउस के एक कमरे में मैं और कुलदीप शर्मा ठहरे थे और दूसरे में रफ़ीक साहब और उनकी पत्नी। रफ़ीक़ साहब कमरे में बैठे गाना लिख रहे थे और लिखते -लिखते वो इतना उत्तेजित हो गए की अचानक बिस्तर पर खड़े हो गए और ऊपर रखा टीवी से जा टकराये। आवाज़ सुनकर हम उनके कमरे में गए तो देखा की टीवी ज़मीन पर पड़ा है, और रफ़ीक़ साहब चिंतित बैठे है की अब क्या करें। उस समय ज्यादा पैसे भी हम लोगों के पास नहीं थे तो पेनल्टी से बचने के लिए हमने गेस्टहाउस के एक अन्य कमरे का टीवी उनके कमरे में लगा दिया और उस टूटे हुए टीवी को दूसरे कमरे में छोड़ आए।" कुलदीप ने रफीक साहब का हाथ पकड़ की थी करियर की शुरुआत हिमाचल के जाने माने कलाकार कुलदीप शर्मा बताते है कि आज वो जिस मुकाम पर है उसमें रफीक साहब का बहुत बड़ा हाथ है। कुलदीप शर्मा कहते है " मैंने अपने करियर की शुरुआत उन्हीं का हाथ पकड़ कर की थी, वे ही मुझे एसडी कश्यप से मिलवाने लेकर गए जिसके बाद मेरी पहली एल्बम रिलीज़ हुई थी। मैंने उस एल्बम में उन्हीं के लिखे गानों को गाया और उसके बाद से आज तक मैं उनके लिखे सैकड़ों गानों को अपनी आवाज़ दे चूका हूँ। "
एक ऐसी राजकुमारी जो देश को आज़ाद करवाने के लिए तपस्वी बन गयी, एक प्रख्यात गांधीवादी, स्वतंत्रता सेनानी और एक सामाजिक कार्यकर्ता बनी, महात्मा गाँधी से प्रभावित हो कर आज़ादी के आंदोलन से जुडी, जेल गई। आज़ादी के बाद हिमाचल से सांसद चुनी गई और दस साल तक स्वास्थ्य मंत्री रही। देश की पहली महिला कैबिनेट मंत्री होने का सम्मान भी उन्हें प्राप्त है। वो महिला थी राजकुमारी अमृत कौर। ये बहुत कम लोग जानते है की अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान बनाने में राजकुमारी अमृत कौर का बड़ा हाथ है। शिमला के समर हिल में एक रेस्ट हाउस है, राजकुमारी अमृत कौर गेस्ट हाउस जो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के स्टाफ के लिए है। देशभर में सेवाएं दे रहे एम्स के डॉक्टर, नर्स व अन्य स्टाफ यहाँ आकर छुट्टियां बिता सकते है, वो भी निशुल्क। दरअसल, ये ईमारत 'मैनरविल' स्वतंत्र भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर का पैतृक आवास थी। इसे अमृत कौर ने एम्स को डोनेट किया था। आज निसंदेह एम्स देश का सबसे बड़ा और सबसे विश्वसनीय स्वास्थ्य संस्थान है। इस एम्स की कल्पना को मूर्त रूप देने में राजकुमारी अमृत कौर का बड़ा योगदान रहा रहा है। उनके स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए ही एम्स बना, वे एम्स की पहली अध्यक्ष भी बनाई गई। उस दौर में देश नया - नया आज़ाद हुआ था और आर्थिक तौर पर भी पिछड़ा हुआ था। तब एम्स की स्थापना के लिए राजकुमारी अमृत कौर ने न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, पश्चिम जर्मनी, स्वीडन और अमेरिका जैसे देशों से फंडिंग का इंतजाम भी किया था। एम्स की वेबसाइट पर भी इसके निर्माण का श्रेय तीन लोगों को दिया गया है, पहले जवाहरलाल नेहरू, दूसरी राजकुमारी अमृत कौर और तीसरे एक भारतीय सिविल सेवक सर जोसेफ भोरे। एम्स की ऑफिसियल वेबसाइट पर लिखा है कि भारत को स्वास्थ्य सुविधाओं और आधुनिक तकनीकों से परिपूर्ण देश बनाना पंडित जवाहरलाल नेहरू का सपना था और आजादी के तुरंत बाद उन्होंने इसे हासिल करने के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार किया। नेहरू का सपना था दक्षिण पूर्व एशिया में एक ऐसा केंद्र स्थापित किया जाए जो चिकित्सा शिक्षा और अनुसंधान को गति प्रदान करे और इस सपने को पूरा करने में उनका साथ दिया उनकी स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर ने। राजपरिवार में जन्मी, करीब 17 साल रही महात्मा गांधी की सेक्रेटरी लखनऊ, 2 फरवरी 1889, पंजाब के कपूरथला राज्य के राजसी परिवार से ताल्लुख रखने वाले राजा हरनाम सिंह के घर बेटी ने जन्म लिया, नाम रखा गया अमृत कौर। बचपन से ही बेहद प्रतिभावान, इंग्लैंड के डोरसेट में स्थिति शेरबोर्न स्कूल फॉर गर्ल्स से स्कूली पढ़ाई पूरी की। किताबों के साथ -साथ खेल के मैदान में भी अपनी प्रतिभा दिखाई। हॉकी से लेकर क्रिकेट तक खेला। स्कूली शिक्षा पूरी हुई तो परिवार ने उच्च शिक्षा के लिए ऑक्सफ़ोर्ड भेज दिया। शिक्षा पूरी कर 1918 में वतन वापस लौटी और इसके बाद हुआ 1919 का जलियांवाला बाग़ हत्याकांड। इस हत्याकांड ने राजकुमारी अमृत कौर को झकझोर कर रख दिया और उन्होंने निश्चय कर लिया कि देश की आज़ादी और उत्थान के लिए कुछ करना है, सो सियासत का रास्ते पर निकल पड़ी। राजकुमारी अमृत कौर महात्मा गाँधी से बेहद प्रभावित थी। उस समय उनके पिता हरनाम सिंह से मिलने गोपालकृष्ण गोखले सहित कई बड़े नेता आते थे। उनके ज़रिए ही राजकुमारी अमृत कौर को महात्मा गांधी के बारे में अधिक जानकारी मिली। हालांकि उनके माता-पिता नहीं चाहते थे कि वो आज़ादी की लड़ाई में भाग लें, राजकुमारी अमृत कौर तो ठान चुकी थी। वे निरंतर महात्मा गांधी को खत लिखती रही। 1927 में मार्गरेट कजिन्स के साथ मिलकर उन्होंने ऑल इंडिया विमेंस कांफ्रेंस की शुरुआत की और बाद में इसकी प्रेसिडेंट भी बनीं। इसी दौरान एक दिन अचानक राजकुमारी अमृत कौर को एक खत मिला, ये खत लिखा था महात्मा गांधी ने। उस खत में महात्मा गांधी ने लिखा, 'मैं एक ऐसी महिला की तलाश में हूं जिसे अपने ध्येय का भान हो। क्या तुम वो महिला हो, क्या तुम वो बन सकती हो? ' बस फिर क्या था राजकुमारी अमृत कौर आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गईं। इस दौरान दांडी मार्च और भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने की वजह से जेल भी गईं। वे करीब 17 सालों तक महात्मा गांधी की सेक्रेटरी रही। महात्मा गांधी के प्रभाव में आने के बाद उन्होंने भौतिक जीवन की सभी सुख-सुविधाओं को छोड़ दिया और तपस्वी का जीवन अपना लिया। ब्रिटिश हुकूमत ने लगाया था राजद्रोह का आरोप अमृत कौर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रतिनिधि के तौर पर सन् 1937 में पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत के बन्नू गईं। ब्रिटिश सरकार को यह बात नागवार गुजरी और राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। उन्होंने सभी को मताधिकार दिए जाने की भी वकालत की और भारतीय मताधिकार व संवैधानिक सुधार के लिए गठित ‘लोथियन समिति’ तथा ब्रिटिश पार्लियामेंट की संवैधानिक सुधारों के लिए बनी संयुक्त चयन समिति के सामने भी अपना पक्ष रखा। अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की सह-संस्थापक महिलाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए 1927 में ‘अखिल भारतीय महिला सम्मेलन’ की स्थापना की गई। कौर इसकी सह-संस्थापक थीं। वह 1930 में इसकी सचिव और 1933 में अध्यक्ष बनीं। उन्होंने ‘ऑल इंडिया विमेंस एजुकेशन फंड एसोसिएशन’ के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया और नई दिल्ली के ‘लेडी इर्विन कॉलेज’ की कार्यकारी समिति की सदस्य रहीं। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘शिक्षा सलाहकार बोर्ड’ का सदस्य भी बनाया, जिससे उन्होंने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान इस्तीफा दे दिया था। उन्हें 1945 में लंदन और 1946 में पेरिस के यूनेस्को सम्मेलन में भारतीय सदस्य के रूप में भेजा गया था। वह ‘अखिल भारतीय बुनकर संघ’ के न्यासी बोर्ड की सदस्य भी रहीं। कौर 14 साल तक इंडियन रेड क्रॉस सोसायटी की चेयरपर्सन भी रहीं। देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री बनी कौर जब देश आज़ाद हुआ, तब उन्होंने हिमाचल प्रदेश से कांग्रेस टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। राजकुमारी अमृत कौर सिर्फ चुनाव ही नहीं जीतीं, बल्कि आज़ाद भारत की पहली कैबिनेट में हेल्थ मिनिस्टर भी बनीं। वे लगातार दस सालों तक इस पद पर बनी रहीं। वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली की प्रेसिडेंट भी बनीं। इससे पहले कोई भी महिला इस पद तक नहीं पहुंची थी। यही नहीं इस पद पर पहुंचने वाली वो एशिया से पहली व्यक्ति थीं। स्वास्थ्य मंत्री बनने के बाद उन्होंने कई संस्थान शुरू किए, जैसे इंडियन काउंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर, ट्यूबरक्लोसिस एसोसियेशन ऑफ इंडिया, राजकुमारी अमृत कौर कॉलेज ऑफ़ नर्सिंग, और सेंट्रल लेप्रोसी एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट। इन सभी के अलावा नई दिल्ली में एम्स की स्थापना में अमृत कौर ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। टाइम मैगज़ीन ने दी वुमन ऑफ द ईयर लिस्ट में जगह दुनिया की मशहूर टाइम मैगज़ीन ने 2020 में बेटे 100 सालों के लिए वुमन ऑफ द ईयर की लिस्ट ज़ारी की थी। भारत से इस लिस्ट में दो नाम हैं, एक पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जिन्हें साल 1976 के लिए इस लिस्ट में रखा गया। लिस्ट में शामिल दूसरा नाम है राजकुमारी अमृत कौर का, जिन्हें साल 1947 के लिए इस लिस्ट में जगह दी गई है।
हिमाचल के पहाड़ों में कई रहस्य, कई कहानियां छुपी हुई है। कुछ कहानियां लोगों तक आसानी से पहुँच जाती है और कुछ की तस्वीरें अब भी धुंधली सी है। एक ऐसी ही कहानी है बाबा भलकू की। बाबा भलकू वो प्रतिभावान व्यक्ति थे जिन्होंने अनपढ़ होने के बावजूद भारत - तिब्बत सड़क और कालका - शिमला रेलवे लाइन के निर्माण में अपना अमिट योगदान दिया। बाबा भलकू को कोई इंजीनियर कहता है, कोई संत, तो कोई चरवाहा। कहते है बाबा भलकू का जन्म चायल के पास स्थित झाझा गांव के मामूली किसान माठु के घर हुआ था। भलकू बचपन से ही थोड़े अलग थे। उनकी हरकतें आम तौर पर लोगो को समझ नहीं आती थी इसीलिए उनके पिता ने उनका बाल विवाह करवा दिया कि शायद वो उसके बाद ठीक हो जाए। पर विवाह के बाद जो सोचा था, हुआ उसके बिलकुल विपरीत। सुधरने की बजाए बाबा भलकू घर छोड़ कर चले गए और कभी नहीं लौटे। भलकू का एक भाई भी था, जावलिया जिनकी सातवीं पीढ़ी आज भी झाझा गांव में रहती है। ब्रिटिश अधिकारीयों ने माना, भलकू की देन है भारत-तिब्बत सड़क बताया जाता है कि घर से भागने के बाद भलकू दर - दर भटकता रहा कभी साधु संतों के साथ तो कभी चरानियों के साथ। कुछ साल बाद भलकू ने पटियाला रियासत के लोक निर्माण विभाग में बतौर मज़दूर काम करना शुरू किया। भलकू ठेठ अनपढ़ होने के बावजूद भी सड़क निर्माण कार्य में बेहद निपुण थे। अंग्रेज़ भलकू से इतना अधिक प्रभावित थे की भारत तिब्बत सड़क निर्माण में भी उनकी सहायता ली गई थी। बाबा भलकू के मार्ग निर्देशन में न केवल सर्वे हुआ बल्कि सतलुज नदी पर कई पुलों का निर्माण भी हुआ था। इसके लिए उन्हें ब्रिटिश सरकार के लोक निर्माण विभाग द्वारा ओवरसियर की उपाधि से नवाजा गया था। कहा जाता है की भलकू अपनी एक छड़ी से नपाई करता और जगह-जगह सिक्के रख देता और उसके पीछे चलते हुए अंग्रेज सर्वे का निशान लगाते चलते। टापरी फारेस्ट रेस्ट हाउस की इंस्पेक्शन बुक में एस. डी. ओ. अम्बाला सर्किल बी.एन.आर ने लिखा है कि, भारत-तिब्बत सड़क भलकू जमादार की देन है। भारत -तिब्बत सड़क निर्माण में भलकू के योगदान के बारे में तत्कालीन हिन्दुस्तान तिब्बत रोड के मुख्य अभियंता मेजर ए.एम. लांग ने 18 अक्टूबर 1875 में फागु बंगले में एक प्रमाण पत्र में लिखा है " भलकू पिछले 25 वर्षों से हिन्दुस्तान तिब्बत रोड निर्माण कार्य में लगा है। बिना उसके ये कार्य संभव नहीं था। भलकू जैसा प्रतिभावान शायद ही कोई अन्य इस देश में होगा। ऐसी कोई चोटी नहीं जिसे उसने पार नहीं किया। उसके पास नैसर्गिक शक्ति है, जिससे वह सर्वे करते वक्त सही दिशा जान लेता है। इसके साथ ही उसके व्यक्तित्व में न जाने क्या आकर्षण है, मज़दूर उसके इशारे पर जितना काम करते है उतना कार्य उनसे कोई नहीं करवा सकता। मेरे हिसाब से भलकू को उनकी सेवा और उनके नायाब उत्साह, बुद्धि और विशेष शक्तिओं के लिए विभाग के प्रथम श्रेणी के ओवरसियर के साथ -साथ एक पहाड़ी-सड़क-निर्माता की उपाधि दी जानी चाहिए "। बिन भलकू संभव नहीं था कालका - शिमला रेलमार्ग निर्माण : - क्या आधिकारिक ब्रिटिश दस्तावेजों में भी है भलकू के योगदान का ज़िक्र ! बताया जाता है कि लोक निर्माण विभाग में सेवाएं देने के बाद भलकू की सेवाएं रेलवे में भी ली गई। बाबा भलकू ने कालका - शिमला रेल मार्ग के निर्माण में भी ब्रिटिश इंजीनियर की सहायता की। कालका-शिमला रेल लाइन को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल का दर्जा दिया गया है। ब्रिटिश शासन की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला को कालका से जोड़ने के लिए 1896 में दिल्ली अंबाला कंपनी को इस रेलमार्ग के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। कहते है की ब्रिटिश काल के कई बड़े बड़े इंजीनियर्ज ने इसे बनाया है। पर जब इस रेल मार्ग को बनाते हुए बड़े-बड़े इंजीनियर्ज फंस गए तो उन्हें राह दिखाई बाबा भलकू ने। मनमोहक वादियों से गुज़रती देश की सबसे संकरी रेल लाइन बेजोड़ इंजीनियरिंग का जीता जागता उदाहरण है। इस रेलवे लाइन पर सबसे बड़ी सुरंग नंबर 33, बड़ोग में है जो एक किलोमीटर लंबी है। बड़ोग सुरंग का नाम कर्नल एस. बड़ोग के नाम पर रखा गया है। कालका-शिमला रेल खंड के निर्माण के समय सुरंग संख्या 33 बनाते वक्त अंग्रेजी इंजीनियर कर्नल बड़ोग सुरंग के छोर मिलाने में असफल हो गए थे। उन दिनों सर्वे का कार्य ज़ोरो पर था, कई दिनों तक लगातार खुदाई करने के बाद जब सुरंग के छोर मिलने का दिन आया तो पता चला कि 200 मीटर का फासला रह गया है। बड़ोग इस बात से बहुत हताश थे। इस गलती के लिए अंग्रेजी हकूमत ने कर्नल बड़ोग पर सुरंग के गलत अलाइनमेंट की वजह से हुए नुकसान के लिए एक रुपए का जुर्माना लगाया था। इससे आहत होकर उन्होंने इस सुरंग में आत्महत्या कर ली। बड़ोग सुरंग में गए और अपनी ही रिवाल्वर से खुद को शूट कर लिया। कर्नल बड़ोग की मौत के बाद निर्माण की ज़िम्मेदारी मुख्य अभियंता एच. एस. हैरिंगटन को दी गई। बताया जाता है की एच. एस. हैरिंगटन भी ये कार्य बाबा भलकू की सहायता के बिना पूरा नहीं कर पाते। बता दें की बड़ोग टनल के बाहर, शिमला में बने बाबा भलकू रेल म्यूजियम, बड़ोग स्टेशन और कुछ किताबों में तो बाबा भलकू के रेलवे निर्माण में योगदान का ज़िक्र है, परन्तु ब्रिटिश काल के आधिकारिक दस्तावेज़ में बड़ोग टनल के निर्माण का श्रेय बाबा भलकू दिया गया है या नहीं, इसे लेकर स्पष्टता नहीं है। ऐसा भी कहा जाता है की बाबा भलकू ने ही अंगेज़ सरकार से ये दरख्वास्त की थी की स्टेशन का नाम कर्नल बरोग के नाम पर रखा जाए। कहते है की सिर्फ सुरंग नंबर 33 ही नहीं बल्कि सुरंग से आगे पूल और सुरंग और सुरंगें बनी उसमें भी बाबा भलकू ने विशिष्ट योगदान दिया। सिर्फ सुरंग ही नहीं बल्कि सुरंग से आगे कई पल और सुरंगें भी बाबा भलकू ने ही बनाई है। कई रोचक कहानियां प्रचलित बाबा भलकू के जीवन को करीब से जानने वाले बी आर मेहता बताते है कि बाबा भलकू के बचपन की कई कहानियां है, जो आज भी प्रचलित है। बाबा भलकू के बचपन का एक किस्सा ये है कि जब बाबा भलकू मुश्किल से 6 -7 वर्ष के थे तो उनके पिता जी उन्हें खेत में बिठा कर बंदरों से मक्की की रखवाली का काम देते थे। पर बाबा भलकू मक्की के खेत की रखवाली करने के बजाए बंदरों को बुला बुला वो मक्की उन्हें खिला देते थे। पिता को जब ये बात मालूम हुई तो भलकू की खूब पिटाई हुई। भलकू ने कहा की अगर खेत की किसी भी मक्की को नुकसान पहुंचा हो तो मुझे मरना। जब दूसरे दिन खेत का निरीक्षण किया गया तो सब कुछ ठीक था। इसके बाद लोगों को लगने लगा की भलकू कोई आम बालक नहीं है। ऐसी है कई अन्य कहानियां भी है। पर इनमें कितनी सत्यता है, ये किसी को नहीं पता। स्थानीय लोग बड़े - बुजुर्गों से ऐसी कई कहानियां सुनते आ रहे है। गुमनामी में खो गई महान विभूति : मेहता बी आर मेहता बताते है की बाबा भलकू वो महान विभूति थे जो आज गुमनामी के अँधेरे में कहीं खो गए है। इतिहास के पन्नो में बाबा भलकू का ज्यादा ज़िक्र नहीं है। ऐसा हो सकता है की अंग्रेज़ हुकूमत ये चाहती ही नहीं थी की उन्हें याद ही ना किया जाए। वो कहते है की अंग्रेज़ सरकार ही नहीं अपितु , आज़ादी के बाद भी सरकारों ने भी बाबा भलकू व उनके द्वारा किये गए कृत्यों का कहीं उल्लेख नहीं किया। तीर्थ पर निकले और फिर लौट कर नहीं आये ! बाबा भलकू की सातवीं पीढ़ी से गगनदीप बताते है कि बाबा भलकू जिस मकान में रहते थे वो आज भी उनके गांव झाझा में मौजूद है। वे बताते है की भलकू से अंग्रेज़ों का लगाव बेजोड़ था, वे उन्हें विलायत ले जाना चाहते थे ताकि भलकू की सेवाएं अन्य देशों में भी ली जा सके। कई बार भलकू के विदेश जाने का प्रबंध भी किया गया लेकिन वे टालते रहे। अंत में वे मान गए लेकिन उन्होंने ये इच्छा प्रकट की कि वे विलायत जाने से पहले तीर्थ करना चाहते है। अंग्रेजी अधिकारियों ने उन्हें जाने की अनुमति दे दी। गगनदीप कहते है कि हमारे बुज़ुर्गों ने बताया था भलकू तीर्थ पर जाने से पहले सालों बाद अपने पैतृक गांव लौटे। वो गांव तो आये थे पर अपने घर नहीं गए, बल्कि घर के नज़दीक एक पेड़ के नीचे अपना डेरा जमा लिया। कुछ समय वहां रहने के बाद वे तीर्थ के लिए निकल गए। तीर्थ पर जाने के बाद वे कहां गायब हो गए किसी को नहीं मालूम। वहीं कुछ लोगों का मानना है कि बाबा भलकू के किस्से केवल किवदंतियों में ही हैं। उत्तर रेलवे भी बाबा भलकू की असल कहानी को सही-सही नहीं जानता। शिमला में बाबा भलकू के नाम से एकमात्र संग्रहालय बना हुआ है। इसमें उनका स्पष्ट विवरण ही अंकित नहीं है।
‘क्या है इस जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार’, ‘हिम पुत्रियों की लरकार, वन नीति बदले सरकार, वन जागे वनवासी जागे’, वर्ष 1974 के आसपास उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में नारे आम थे। ये ही नारे पहाड़ों पर आज बचे जंगलों के आधार बने। तब इन नारों की वजह से पहाड़ों के जंगल कटने से बचे थे। ये चिपको आंदोलन का दौर था, वो आंदोलन जिसकी शुरुआत 1973 में चमोली जिले से हुई। इस आंदोलन में लोग पेड़ों से चिपक जाते थे, और उन्हें कटने से बचाते थे। इस आंदोलन के प्रणेता रहे पर्यारणविद् सुंदरलाल बहुगुणा का 94 वर्ष की उम्र में बीते शुक्रवार को निधन हो गया है। उम्र के आखिरी पड़ाव में पहुँचते - पहुँचते बहुगुणा शारीरिक रूप से भी काफी कमजोर हो चुके थे, नजर धुंधली पड़ चुकी थी और काफी कम और धीमी आवाज में बात करते थे। पर जैसे ही पर्यावरण का जिक्र होता, उनकी आंखों में पुरानी चमक लौट आती है और जुबां भी प्रखर हो जाती। उनका जाना बड़ी क्षति है। पद्मविभूषण सुंदरलाल बहुगुणा का दशकों पहले दिया गया सूत्रवाक्य 'धार एंच पाणी, ढाल पर डाला, बिजली बणावा खाला-खाला' आज भी न सिर्फ पूरी तरह प्रासंगिक है। इसका मतलब है कि ऊंचाई वाले इलाकों में पानी एकत्रित करो और ढालदार क्षेत्रों में पेड़ लगाओ। इससे जल स्रोत रीचार्ज रहेंगे और जगह-जगह जो जलधाराएं हैं, उन पर छोटी-छोटी बिजली परियोजनाएं बननी चाहिए। उनकी ये सीख न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि हिमाचल के लिए भी प्रासंगिक है। सुंदरलाल बहुगुणा को 1981 में पद्मश्री पुरस्कार दिया गया। तब उन्होंने यह कहकर पुरस्कार लेने से मना कर दिया कि जब तक पेड़ कट रहेंगे, वे खुद को इस योग्य नहीं समझते। आजादी के लिए लड़े, कांग्रेसी कार्यकर्ता भी रहे 09 जनवरी 1927 को टिहरी गढ़वाल के सिल्यारा गांव में जन्में सुंदरलाल बहुगुणा देश की आजादी के लिए भी लड़े थे और कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे। वे गांधीवादी थे और आजादी के बाद उन्होंने राजनीतिक जीवन त्यागकर समाज सेवा को अपना लक्ष्य बना लिया। भूदान आंदोलन से लेकर दलित उत्थान, शराब विरोधी आंदोलन, चिपको आंदोलन में उनकी सक्रिय भूमिका रही। टिहरी बांध के विरोध उनके लंबे संघर्ष के चलते केंद्र सरकार ने पुनर्वास नीति में तमाम सुधार किए। चंबा से शुरू की थी पदयात्रा वर्ष 1981 से 1983 के बीच सुंदरलाल बहुगुणा ने पर्यावरण संरक्षण के संदेश लेकर, चंबा के लंगेरा गांव से हिमालयी क्षेत्र में करीब 5000 किलोमीटर की पदयात्रा की थी। पूरी दुनिया में यह यात्रा सुर्खियों में रही। टिहरी बांध के विरोधी थे पर्यावरण को बचाने के लिए ही 1990 में सुंदर लाल बहुगुणा ने टिहरी बांध का विरोध किया था। विरोध में उन्होंने 84 दिन लम्बी भूख हड़ताल की और एक बार अपना सर भी मुंडवा लिया। उनका कहना था कि 100 मेगावाट से अधिक क्षमता का बांध नहीं बनना चाहिए। उनका कहना है कि जगह-जगह जो जलधाराएं हैं, उन पर छोटी-छोटी बिजली परियोजनाएं बननी चाहिए। बहुगुणा के उस प्रतिरोध के कारण ही केंद्र सरकार को बांध निर्माण और विस्थापन से जुड़े कई मामलों में समितियों का गठन करना पड़ा। हालांकि टिहरी बांध का निर्माण नहीं रुका।
ये वो दौर था जब हिंदुस्तान के हर कोने में आजादी के लिए नारे लग रहे थे। क्रांतिकारी देश को आज़ाद करवाने के लिए हर संभव प्रत्यन कर रह थे। पुरे मुल्क में हजरत मोहनी का लिखा गया नारा इंकलाब जिंदाबाद क्रांति की आवाज बन चूका था। उसी दौर में हिमाचल की शांत पहाड़ियों में एक व्यक्ति पहाड़ी भाषा और लहजे में क्रांति की अलख जगा रहा था। वो गांव-गांव घूमकर अपने लिखे लोकगीतों व कविताओं से आम जन को आजादी के आंदोलन से जोड़ रहा था। नाम था कांशी राम, वहीँ काशी राम जिन्हे पंडित नेहरू ने बाद में पहाड़ी गाँधी का नाम दिया। वहीँ बाबा काशी राम जो 11 बार जेल गए और अपने जीवन के 9 साल सलाखों के पीछे काटे। वहीँ बाबा कशी राम जिन्हें सरोजनी नायडू ने बुलबुल-ए-पहाड़ कहकर बुलाया था। और वहीँ बाबा काशी राम जिन्होंने कसम खाई कि जब तक मुल्क आज़ाद नहीं हो जाता, वो काले कपड़े पहनेंगे। 15 अक्टूबर 1943 को अपनी आखिरी सांसें लेते हुए भी कांशी राम के बदन पर काले कपड़े थे और मरने के बाद उनका कफ़न भी काले कपड़े का ही था। ‘अंग्रेज सरकार दा टिघा पर ध्याड़ा’ यानी अंग्रेज सरकार का सूर्यास्त होने वाला है, जैसी कई कवितायेँ लिख पहाड़ी गाँधी ने ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया था। मुल्क आज़ाद हो गया लेकिन ये विडम्बना का विषय है कि सियासतगारों ने पहाड़ी गाँधी को भुला दिया। बस कभी -कभार, खानापूर्ति भर के लिए पहाड़ी गाँधी को याद कर लिया जाता है। उनका पुश्तैनी मकान भी पूरी तरह ढहने की कगार पर है, मानो एक तेज बरसात का इन्तजार कर रहा हो। सियासतगार अपनी राजनीति चमकाने के लिए घोषणाएं करते है, वादे करते है पर उन्हें पूरा नहीं किया जाता। न वीरभद्र और न जयराम सरकार ने पूरा किया वादा 2017 में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले वीरभद्र सरकार को पहाड़ी गाँधी की याद आई और डाडासिबा में उनके पुश्तैनी घर को कांशीराम संग्रहालय बनाने का वादा किया गया। खेर चुनाव के बाद सरकार बदल गई और जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री बने। वर्ष 2018 में बाबा काशीराम की जयंती पर 11 जुलाई को जयराम ठाकुर ने भी काशीराम संग्राहलय बनाने की घोषणा की, किन्तु अब तक कुछ नहीं हुआ। परिवार ने कर दी रजिस्ट्री, पर अब तक ताला लटका है 24 जून 2020 को ये खबर आई थी की एसडीएम देहरा धनबीर ठाकुर के नेतृत्व में गठित टीम ने पध्याल गांव (गुरनवाड़ डाडासीबा) में पहुंचकर बाबा कांशीराम के घर की जमीन की निशानदेही की है। एसडीएम ने एसडीओ डाडासीबा को शीघ्र सर्वेक्षण कर एस्टीमेट बनाकर भेजने के निर्देश दिए है। जल्द पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम के पैतृक घर को स्मारक बनाया जाएगा। बाबा कांशीराम के पोते विनोद शर्मा बताते है इस बीच 17 दिसंबर 2020 को परिवार ने उनके पुश्तैनी मकान की रजिस्ट्री भी सम्बंधित महकमे के नाम कर दी ताकि संग्रहालय बन सके किन्तु अब तक ज़मीनी स्तर पर कोई कार्य नहीं हुआ है। संग्राहलय बनाना तो दूर कोई अधिकारी वहां आने का कष्ट भी नहीं करता। बाबा का परिवार अब खुद को ठगा सा महसूस करता है। इंदिरा गांधी ने जारी किया था डाक टिकट 23 अप्रैल 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कांगड़ा के ज्वालामुखी में बाबा कांशीराम पर एक डाक टिकट जारी किया था। तब सांसद नारायण चंद पराशर ने बाबा को सम्मान दिलवाने के लिए संसद में बहस की और तमाम सबूत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सौंपे। जिसके बाद 1984 में प्रसिद्ध शक्तिपीठ ज्वालामुखी में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बाबा के नाम का डाक टिकट जारी किया। कई सालों से नहीं दिया गया पहाड़ी बाबा गांधी पुरस्कार बाबा कांशीराम के नाम पर हिमाचल प्रदेश से आने वाले कवियों और लेखकों को अवॉर्ड देने की भी शुरुआत हुई थी, पर पिछले कुछ सालों से ये अवार्ड नहीं दिया जा रहा है। देहरा से संबध रखने वाले पूर्व सांसद हेमराज सूद के प्रयासों से वर्ष 1981 में हिमाचल प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी हिमाचल प्रदेश ने पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम जयंती का आयोजन शुरू किया और पहाड़ी साहित्य के लिए बाबा कांशी राम पुरस्कार योजना शुरू की। पहाड़ी गजल को नई पहचान देने वाले डॉ. प्रेम भारद्वाज को उनके पहाड़ी काव्य ‘मौसम खराब है’ के लिए पहली बार यह पुरस्कार मिला था। अब बीते कुछ सालों से ये सम्मान नहीं दिया जा रहा है। पंजाब के मुख्यमंत्री ने बनवाया था स्कूल बाकी कांशीराम के नाम से उनके गांव में एक सरकारी स्कूल बना है, जो पंजाब के मुख्यमंत्री पूर्व प्रताप सिंह कैरों ने बनवाया था। दरअसल, हिमाचल बनने से पहले बाबा कांशीराम का गृह क्षेत्र पंजाब में आता था। इस स्कूल का उद्घाटन तत्कालीन शिक्षा मंत्री लाला जगत नारायण ने 1954 में सवैया राजाओं की पुरानी घुड़साल में किया था। 508 में से 64 कविताएं छपी हैं, बाकी संदूकों में धूल खा रही राष्ट्रीय स्तर पर चमकेगा पहाड़ी के रचनाकार का घर पहाड़ी भाषा में क्रांति का बिगुल फूंकने वाले बाबा कांशीराम ने ‘अंग्रेजी सरकारा दे ढिगा पर ध्याड़े’, ‘समाज नी रोया’, ‘निक्के -निक्के माहणुआ जो दुख बड़ा भारी’, ‘उजड़ी कांगड़े देस जाणा’, ‘पहाड़ी सरगम’, ‘कुनाळे दी कहाणी’ ‘क्रांति नाने दी कहाणी कांसी दी जुबानी’ सहित कई क्रन्तिकारी रचनाओं से लोगों को आजादी के जूनून से लबरेज कर दिया था। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘अंग्रेज सरकार दा टिघा पर ध्याड़ा’ (अंग्रेज सरकार का सूर्यास्त होने वाला है) के लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया था मगर राजद्रोह का मामला जब साबित नहीं हुआ तो रिहा कर दिया गया। अपनी क्रांतिकारी कविताओं के चलते उन्हें 1930 से 1942 के बीच 9 बार जेल जाना पड़ा। हैरत की बात ये है कि रिकार्ड्स के मुताबिक बाब कांशी राम ने 508 कविताएं लिखी जिनमें से सिर्फ 64 कविताएं ही छपी हैं, बाकी संदूकों में पड़ी धूल खा रही हैं। काम के गए थे लाहौर पर क्रांतिकारी बन गए 11 जुलाई 1882 को लखनू राम और रेवती देवी के घर पैदा हुए कांशीराम की शादी 7 साल की उम्र में हो गई थी। उस वक्त पत्नी सरस्वती की उम्र महज 5 साल थी। जब कांशीराम 11 साल के ही हुए तो उनके पिता की मौत हो गई। परिवार की पूरी जिम्मेदारी उनके सिर पर आ गई थी। काम की तलाश में वो लाहौर चले गए। यहां कांशी ने काम ढूंढा, मगर उस वक्त आजादी का आंदोलन तेज हो चुका था और कांशीराम के दिल दिमाग में आजादी के नारे गूंजने लगे। यहां वो दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों से मिले इनमें लाला हरदयाल, भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह और मौलवी बरक़त अली शामिल थे। संगीत और साहित्य के शौकीन कांशीराम की मुलाकात यहां उस वक्त के मशहूर देश भक्ति गीत ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ लिखने वाले सूफी अंबा प्रसाद और लाल चंद ‘फलक’ से भी हुई, जिसके बाद कांशीराम का पूरा ध्यान आजादी का लड़ाई में रम गया। साल 1905 में कांगड़ा घाटी में आये भूकंप में करीब 20 हजार लोगों की जान गई और 50,000 मवेशी मारे गए। तब लाला लाजपत राय की कांग्रेस कार्यकर्ताओं की एक टीम लाहौर से कांगड़ा पहुंची जिसमें बाबा कांशीराम भी शामिल थे। उनकी ‘उजड़ी कांगड़े देश जाना’ कविता आज भी सुनी जाती है। 1919 में जब जालियांवाला बाग हत्याकांड हुआ, बाबा कांशीराम उस वक्त अमृतसर में थे। इस क्रूर घटना ने बाबा कांशीराम को बहुत आहत किया। वो कभी ढोलक तो कभी मंजीरा लेकर गांव-गांव जाते और अपने देशभक्ति के गाने और कविताएं गाते थे, पर जो काम उन्होंने काम किया उस हिसाब से उन्हें सम्मान नहीं मिल पाया। बाबा कांशी राम ने अपनी ज़मीन गिरवी रख दी थी ताकि घर का पालन पोषण हो सके क्यों कि वे कमाते नहीं थे, उनका पूरा समय स्वतंत्र भारत के लिए संघर्ष में व्यतीत होता था। उनके पास एक मकान, एक गौशाला और दो दुकानें थी जो वे गिरवी रख चुके थे। शुरूआती दौर में उन्होंने अपने ताया के पास भी नौकरी की। मगर आज़ादी के लिए जूनून ने सब कुछ छुड़वा दिया। काले कपड़े पहनने का लिया प्रण, नेहरू ने दिया पहाड़ी गांधी का नाम 1931 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी मिलने के बाद उन्होंने प्रण लिया कि जब तक मुल्क आज़ाद नहीं हो जाता, तब तक वो काले कपड़े पहनेंगे। उन्हें ‘स्याहपोश जरनैल’ भी कहा गया। उनकी क्रन्तिकारी कविताओं के लिए अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें कई बार पीटा, कई यातनाएं दी मगर वो लिखते रहे। वर्ष 1937 में जवाहर लाल नेहरू ने होशियारपुर के गद्दीवाला में एक सभा को संबोधित करते हुए बाबा कांशीराम को पहाड़ी गांधी कहकर संबोधित किया था, जिसके बाद से कांशी राम को पहाड़ी गांधी के नाम से ही जाना गया। अब भी रखे है बाबा का चरखा और चारपाई बाबा कांशी राम के पैतृक घर को स्मारक बनाने की मांग काफी पुरानी है। उनके पुराने घर में अब भी उनकी कई पुरानी चीज़ें रखी है, जैसे उनका चरखा, उस समय की चारपाई, खपरैल और उनके द्वारा इस्तेमाल किया अन्य सामान। इन धरोहरों को संजो के रखना बेहद महत्वपूर्ण है।
1931 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी मिलने के बाद उन्होंने प्रण लिया कि जब तक मुल्क आज़ाद नहीं हो जाता, तब तक वो काले कपड़े पहनेंगे। उन्हें ‘स्याहपोश जरनैल’ भी कहा गया। उनकी क्रन्तिकारी कविताओं के लिए अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें कई बार पीटा, कई यातनाएं दी मगर वो लिखते रहे। वर्ष 1937 में जवाहर लाल नेहरू ने होशियारपुर के गद्दीवाला में एक सभा को संबोधित करते हुए बाबा कांशीराम को पहाड़ी गांधी कहकर संबोधित किया था, जिसके बाद से कांशी राम को पहाड़ी गांधी के नाम से ही जाना गया। अब भी रखे है बाबा का चरखा और चारपाई बाबा कांशी राम के पैतृक घर को स्मारक बनाने की मांग काफी पुरानी है। उनके पुराने घर में अब भी उनकी कई पुरानी चीज़ें रखी है, जैसे उनका चरखा, उस समय की चारपाई, खपरैल और उनके द्वारा इस्तेमाल किया अन्य सामान। इन धरोहरों को संजो के रखना बेहद महत्वपूर्ण है।
भीमराव रामजी अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को महाराष्ट्र के एक महार परिवार में हुआ था। अम्बेडकर को डॉक्टर बाबासाहब अम्बेडकर के नाम से भी जाना जाता है। वह भारतीय बहुज्ञ, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, और समाजसुधारक थे। अम्बेडकर स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मन्त्री भी रहे। अम्बेडकर भारतीय संविधान के जनक एवं भारत गणराज्य के निर्माताओं में से एक थे। आज देश में डॉ. भीमराव अम्बेडकर का 130वां जन्म दिवस मनाया जा रहा है। अम्बेडकर का बचपन ऐसी सामाजिक दशाओं और आर्थिक तंगी में बीता जहां पर दलितों को निम्न स्थान दिया जाता था। पाठशाला में भी दलितों के बच्चों को समान अधिकार प्राप्त नहीं थे, वह स्वयं टाट-पट्टी लेकर पाठशाला जाया करते थे। दलित वर्ग के बच्चों को उच्च जाति के बच्चों के साथ पड़ने-लिखने की इजाज़त नहीं थी। अम्बेडकर एक विपुल प्रतिभा के छात्र थे। सामाजिक अर्थव्यवस्था, अशिक्षा, और अन्धविश्वास जैसी कुरीतियों ने उन्हें बहुत पीड़ा पहुंचाई थी, लेकिन महाराजा गायकवाड़ ने उनकी योग्यता को देखते हुए शिक्षा के संबंध में छात्रवृति दिलवाई जिससे उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा समाप्त की और बाद में मुंबई के एल्फिस्टन कॉलेज आ गए। उन्होंने 1913 में दो विश्वविद्यालयों कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्राप्त की। उन्होंने विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में शोध कार्य भी किये थे। अम्बेडकर अपने व्यावसायिक जीवन के आरम्भिक भाग में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे और उन्होंने वकालत भी की तथा बाद का जीवन राजनीतिक गतिविधियों में बिताया। इसके बाद आम्बेडकर भारत की स्वतन्त्रता के लिए प्रचार और चर्चाओं में शामिल हो गए और पत्रिकाओं को प्रकाशित करने, राजनीतिक अधिकारों की वकालत करने और दलितों के लिए सामाजिक स्वतंत्रता की वकालत की और भारत के निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। अम्बेडकर के मन में बचपन से ही छुआछूत का ऐसा प्रभाव पड़ा था जो बाद में एक विस्फोट के रूप में सामने आया। उन्होंने दलित बौद्ध आन्दोलन को प्रेरित किया और अछूतों (दलितों) से सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध अभियान चलाया था। डॉ. अम्बेडकर ने देशी-विदेशी सामाजिक व्यवस्थाओं को बहुत नजदीक से देखा और अनुभव किया था। अम्बेडकर का कहना था कि "छुआछूत गुलामी से भी बदतर है।" बॉम्बे हाईकोर्ट में विधि का अभ्यास करते हुए, उन्होंने अछूतों की शिक्षा को बढ़ावा देने और उन्हें ऊपर उठाने के प्रयास किये। सन 1927 तक, डॉ॰ आम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक एवं सक्रिय आंदोलन आरम्भ करने का निर्णय किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों, सत्याग्रहों और जलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी वर्गों के लिये खुलवाने के लिए अटूट प्रयास किये और साथ ही अछूतों को भी हिंदू मन्दिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये संघर्ष किया। 1927 के अंत सम्मेलन में, आम्बेडकर ने जाति भेदभाव और "छुआछूत" को वैचारिक रूप से न्यायसंगत और समुचित बनाने के लिए, प्राचीन हिंदू पाठ, मनुस्मृति, जिसके कई पद, खुलकर जातीय भेदभाव व जातिवाद का समर्थन करते हैं ,की सार्वजनिक रूप से निंदा की। डॉ. भीमराव अम्बेडकर वर्तमान में सभी लोगों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है। एक अर्थशास्त्री के रूप में, एक समाजसुधारक के रूप में और एक राजनीतिज्ञ के रूप में अम्बेडकर ने अपनी भूमिका निभाई है। अम्बेडकर की कहानी एक संघर्ष के रूप में भविष्य में भी याद की जाएगी।
जल्लियाँवाला बाग हत्याकांड इतिहास का एक काला अध्याय है। देश की आज़ादी के इतिहास में 13 अप्रैल एक दर्दनाक और खौफनाक हादसे के नाम से दर्ज है। भारत देश के पंजाब के अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग में 1919 में हुआ था। पंजाब के अमृतसर जिले में ऐतिहासिक स्वर्ण मंदिर के नजदीक जलियांवाला बाग नाम का एक बगीचा है जिसमें 13 अप्रैल बैसाखी के दिन एक सभा का आयोजन किया था जिसमें कुछ नेता भाषण देने वाले थे तथा शहर में कर्फ्यू लगाया गया था। "रौलेट एक्ट" जिसे काला कानून भी कहते हैं, का विरोध करने के लिए सभा हो रही थी। कर्फ्यू के बावज़ूद भी सभा में हज़ारों की संख्या में भारतीय शामिल हुए थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जो अपने परिवार के साथ बैसाखी का उत्सव मनाने और बाज़ार घूमने परिवार सहित आये थे और आभा की खबर सुनने के बाद वो भी शामिल हो गए। जब नेता भाषण दे रहे थे तो ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर नाम के एक अँग्रेज ऑफिसर ने अकारण निहथि भीड़ पर अपने ९० ब्रिटिश सैनिकों की मदद से गोलियाँ चलवा दीं, जिसमें बहुत से व्यक्ति मारे गए और बहुत अधिक संख्या में घायल हुए। अंग्रेजों की गोलीबारी से घबराये हुए बहुत से लोग और औरतें अपने बच्चों को लेकर जान बचाने के लिए एक कुएं में कूद गए। बाहर निकलने का रास्ता तंग होने के कारण बहुत से लोग भगदड़ में कुचले गए और हजारों लोग गोलियों की चपेट में आए। कुआँ लाशों के ढेर से भर चुका था। प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान भारतीय नेताओं और जनता ने खुल कर ब्रिटिशों का साथ दिया था। लगभग 13 लाख भारतीय सैनिक और सेवक यूरोप, अफ़्रीका और मिडल ईस्ट में ब्रिटिशों की तरफ़ से तैनात किए गए थे, जिनमें से 43,000 भारतीय सैनिक युद्ध में शहीद हुए थे। युद्ध के खत्म होने पर भारतीय नेता और जनता ब्रिटिश सरकार से सहयोग और नरमी के रवैये की आशा कर रहे थे परंतु ब्रिटिश सरकार ने मॉण्टेगू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार लागू कर दिए जो इस भावना के विपरीत थे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पंजाब के क्षेत्र में ब्रिटिशों का विरोध बढ़ गया था जिसे भारत प्रतिरक्षा विधान (1915) लागू कर के खत्म कर दिया गया था। उसके बाद 1918 में एक ब्रिटिश जज सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक सेडीशन समिति नियुक्त की गई थी जिसकी ज़िम्मेदारी ये अध्ययन करना था कि भारत में, विशेषकर पंजाब और बंगाल में ब्रिटिशों का विरोध किन विदेशी शक्तियों की सहायता से हो रहा था। इस समिति के सुझावों के अनुसार भारत प्रतिरक्षा विधान (1915) का विस्तार कर के भारत में रॉलट एक्ट लागू किया गया था, जो आजादी के लिए चल रहे आंदोलन पर रोक लगाने के लिए था। इसके अंतर्गत ब्रिटिश सरकार को और अधिक अधिकार दिए गए थे जिससे वह प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकती थी, नेताओं को बिना मुकदमें के जेल में रख सकती थी, लोगों को बिना वॉरण्ट के गिरफ़्तार कर सकती थी, उन पर विशेष ट्रिब्यूनलों और बंद कमरों में बिना जवाबदेही दिए हुए मुकदमा चला सकती थी। इसके विरोध में पूरा भारत उठ खड़ा हुआ और देश भर में लोग गिरफ्तारियां देने लगे थे। भारतियों का शोषण ब्रिटिश शासन की एक मंशा थी जिससे वह भारतियों पर अपनी हुकूमत के सकते थे। 13 अप्रैल 1919 देश के इतिहास का एक ऐसा भाग है जिसे अलग नहीं किया जा सकता। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में सबसे अधिक प्रकाश डालने वाली यदि कोई घटना है तो वो घटना जल्लियाँवाला बाग है। माना जाता है कि ये हादसा ही ब्रिटिश शासन के अंत का प्राम्भ बना था। जलियाँवाला बाग हत्याकांड: भारत माँ के चरणों में, मै जलता हुआ चराग हूँ हाँ-हाँ-हाँ मै वही अभागा, जलियांवाला बाग हूँ। गूंजे जो चारों ओर, मैं वो विप्लव राग हूँ दबे मेरे छाती पर अनगिनत, शहीदों का मैं त्याग हूँ।
सारे जहाँ से अच्छा या तराना-ए-हिन्दी उर्दू भाषा में लिखी गई देशप्रेम की एक ग़ज़ल है जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश राज के विरोध का प्रतीक बनी और जिसे आज भी देश-भक्ति के गीत के रूप में भारत में गाया जाता है। इसे अनौपचारिक रूप से भारत के राष्ट्रीय गीत का दर्जा प्राप्त है। इस गीत को प्रसिद्ध शायर मुहम्मद इक़बाल ने 1905 में लिखा था सबसे पहले सरकारी कालेज, लाहौर में पढ़कर सुनाया था। यह इक़बाल की रचना बंग-ए-दारा में शामिल है। उस समय इक़बाल लाहौर के सरकारी कालेज में व्याख्याता थे। उन्हें लाला हरदयाल ने एक सम्मेलन की अध्यक्षता करने का निमंत्रण दिया। इक़बाल ने भाषण देने के बजाय यह ग़ज़ल पूरी उमंग से गाकर सुनाई। यह ग़ज़ल हिन्दुस्तान की तारीफ़ में लिखी गई है और अलग-अलग सम्प्रदायों के लोगों के बीच भाई-चारे की भावना बढ़ाने को प्रोत्साहित करती है।1950 के दशक में सितार-वादक पण्डित रवि शंकर ने इसे सुर-बद्ध किया। जब इंदिरा गांधी ने भारत के प्रथम अंतरिक्षयात्री राकेश शर्मा से पूछा कि अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखता है, तो शर्मा ने इस गीत की पहली पंक्ति कही। सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा। हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसताँ हमारा।। ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में। समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा।। सारे... परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का। वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा।। सारे... गोदी में खेलती हैं, उसकी हज़ारों नदियाँ। गुलशन है जिनके दम से, रश्क-ए-जिनाँ हमारा।। सारे.... ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको। उतरा तेरे किनारे, जब कारवाँ हमारा।। सारे... मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा।। सारे... यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा, सब मिट गए जहाँ से। अब तक मगर है बाक़ी, नाम-ओ-निशाँ हमारा।। सारे... कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा।। सारे... 'इक़बाल' कोई महरम, अपना नहीं जहाँ में। मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहाँ हमारा।। सारे...
25 जनवरी का दिन हिमाचल प्रदेश के लोगों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक दिन है। हिमाचल इसी दिन भारतीय गणतंत्र का 18वां राज्य बना। सन 1971 में आज ही के दिन हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला था। हिमाचल कठिन भौगोलिक परिस्थितियों वाला प्रदेश है लेकिन 50 वर्षों की यात्रा महत्वपूर्ण है। हिमाचल के पूर्ण राज्यत्व की घोषणा शिमला के एतिहासिक रिज मैदान से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने की थी। बताते हैं कि जब इंदिरा गांधी ने यह घोषणा की तो उस दौरान भी बर्फ गिर रही थी। कड़ाके की ठंड के बावजूद रिज पर काफी भीड़ जमा थी। उस वक्त कई संस्थाएं हिमाचल के पूर्ण राज्यत्व के खिलाफ भी थीं। बावजूद इसके लंबे संघर्ष के बाद हिमाचल को पूरे राज्य का दर्जा दिया गया। तब डॉ. यशवंत सिंह परमार हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री बने थे। पहली सितंबर 1972 को प्रदेश में जिलों का पुनर्गठन हुआ और कांगड़ा जिले को तीन भागों में विभाजित कर दो नए जिले ऊना व हमीरपुर बने। वहीं महासू व शिमला जिलों का पुनर्गठन कर शिमला व सोलन जिले बनाए गए और जिलों की संख्या बढ़कर नौ से 12 हो गई। इससे पहले 15 अप्रैल 1948 को स्वतंत्रता प्राप्ति से आठ माह बाद छोटी-बड़ी 30 रियासतों के विलय के साथ ही यह पहाड़ी प्रांत अस्तित्व में आया। 1948 से अपनी यात्रा शुरू कर प्रदेश के लोगों के 64 वर्ष में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। प्रदेश के विकास में आने वाली बाधाओं का मुकाबला कर इस पहाड़ी प्रांत ने यह साबित कर दिया कि गरीबी पहाड़ की नियति नहीं है, वहीं देश में यह आदर्श राज्य के रूप में भी उभरकर सामने आया है। 25 जनवरी 1971 को हिमाचल को जब पूर्ण राज्य का दर्जा मिला उस समय प्रति व्यक्ति आय 651 रुपये थी और वर्तमान में 1 लाख 95 हजार 2 सौ 55 है। उस समय कृषि 911.7 हेक्टयर था वर्तमान में 959.2 हेक्टेयर है। सड़के उस वक्त 7370 किलोमीटर थी, वर्तमान में 38470 किलोमीटर है। 1971 में 1 मेडिकल कॉलेज था, लेकिन आज 6 मेडिलक कॉलेज सरकार 1 एम्स 1 प्राइवेट कॉलेज है। प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के समय साक्षरता दर 31.96 थी आज 86.60 है।
साल के पहले महीने जनवरी की 19 तारीख देश की राजनीती के इतिहास में विशेष महत्व रखती है। 1966 में आज ही के दिन इंदिरा गांधी को देश का प्रधानमंत्री चुना गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा गांधी ने वह कुर्सी संभाली जिस पर कभी उनके पिता जवाहर लाल नेहरू बैठे थे। वह 1967 से 1977 और फिर 1980 से 1984 में उनकी मृत्यु तक इस पद पर रहीं। वह देश की पहली व एकमात्र महिला प्रधानमंत्री रहीं। इंदिरा ने प्रधानमंत्री हते हुए कई ऐसे ऐतिहासिक काम किएं हैं जिनके लिए उन्हें "दुर्गा" तक कहा गया तो वहीं दूसरी तरफ आपातकाल का उनके जीवन पर ऐसा दाग भी है जिसके लिए उन्हें कभी माफ नहीं किया जा सकता। आज हम आपको इंदिरा गांधी के ऐसे की कुछ फैसलों बड़े के बारे में बताते हैं। 19 जुलाई, 1969 को बैंकों का राष्ट्रीयकरण 19 जुलाई, 1969 को इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने एक अध्यादेश पारित करके देश के 14 निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण कर दिया। इन 14 बैंकों में देश का करीब 70 फीसदी धन जमा था। अध्यादेश पारित होने के बाद इन बैंकों का मालिकाना हक सरकार के पास चला गया। ऐसा आर्थिक समानता को बढ़ावा देने के लिए किया गया था। 1971 में पाक के टुकड़े करवाकर बांग्लादेश बनवाया 1971 में इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान से युद्ध के बाद उसके दो टुकड़े करवा दिए। इस युद्ध में पाकिस्तान की शर्मनाक हार हुई और उसके 90,000 सैनिकों को भारत ने युद्धबंदी बना लिया था। 1971 में प्रिवी पर्स को खत्म किया प्रिवी पर्स को खत्म करना इंदिरा गांधी के उन बड़े कामों में से एक है जिसके लिए इंदिरा को काफी विरोध का सामना करना पड़ा था। बता दें कि आजादी के बाद राज परिवारों को एक निश्चित रकम भत्ते के तौर पर दी जाती थी। इसी राशि को प्रिवी पर्स कहा जाता था। इंदिरा ने इसी भत्ते को बंद कर दिया था। 1974 में परमाणु परीक्षण किया स्माइलिंग बुद्धा के अनौपचारिक छाया नाम से 1974 में भारत ने सफलतापूर्वक एक भूमिगत परमाणु परीक्षण राजस्थान के रेगिस्तान में बसे गाँव पोखरण के करीब किया। शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परीक्षण का वर्णन करते हुए भारत दुनिया की सबसे नवीनतम परमाणु शक्तिधर बन गया। 1975-77 तक देश में आपातकाल लगाया इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को आपातकाल लगा दिया और बड़ी संख्या में विरोधियों के गिरफ्तारी का आदेश दिया। भारतीय लोकतंत्र में इस दिन को 'काला दिन' कहा जाता है। आपातकाल करीब 19 महीने तक रहा। 1984 में ऑपरेशन मेघदूत के जरिए सियाचिन पर भारत का कब्जा इंदिरा ने ऑपरेशन मेघदूत को अंजाम दिया था। दरअसल पाकिस्तान ने 17 अप्रैल, 1984 को सियाचिन पर कब्जा करने की योजना बनाई थी जिसकी जानकारी भारत को लग गई। भारत ने उससे पहले सियाचिन पर कब्जा करने की योजना बनाई और इस ऑपरेशन का कोड नाम 'ऑपरेशन मेघदूत' था। 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया एक समय पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था। जनरैल सिंह भिंडरावाला सहित कुछ अलगाव वादी भारत के टुकड़े करके पंजाबियों के लिए एक अलग देश बनाना चाहते थे। यह सब आतंकी स्वर्ण मंदिर में छुपे हुए थे। इन्हीं आतंकियों को मारने के लिए भारत सरकार ने "ऑपरेशन ब्लूस्टार" चलाया जिसमें सभी आतंकियों को मार गिराया गया। इसी कारण इंदिरा गांधी की हत्या भी हुई थी।
मैं जो हूँ जॉन एलिया हूँ साहब इस बात का बे-हद लिहाज़ कीजिएगा पूरा नाम सय्यद हुसैन जॉन असग़र। जॉन का जन्म 14 दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुआ। शुरूआती तालीम अमरोहा में ही ली और उर्दू, फ़ारसी और अर्बी सीखते-सीखते अल्हड़ उम्र में ही शायर हो गए। 1947 में मुल्क आज़ाद हुआ और आज़ादी अपने साथ बंटवारे का ज़लज़ला भी लाई। तब सय्यद हुसैन जॉन असग़र ने हिंदुस्तान में रहना तय किया पर 1957 आते-आते समझौते के तौर पर पाकिस्तान चले गए और पूरी उम्र वहीं गुज़ारी। जॉन पाकिस्तान चले तो गए मगर यूँ समझिए के जॉन का दिल अमरोहा में ही रह गया। अमरोहा से चले जाने का अफ़सोस उन्हें ता-उम्र ही रहा, जॉन ने लिखा। जॉन को बे-हद दुःख था अमरोहा छोड़ के कराची जाने का और दोनों मुल्क़ों के दो हिस्से होने का। मत पूछो कितना ग़मगीन हूँ, गंगा जी और जमना जी में जो था अब मैं वो नहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी मैं जो बगुला बनके बिखरा,वक़्त की पागल आंधी में क्या मैं तुम्हारी लहर नहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी बाण नदी के पास अमरोही में जो लड़का रहता था अब वो कहाँ है, मैं तो वहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी दंगों के दौरान, जॉन पकिस्तान तो आ गए मगर जॉन इसे एक समझौता ही समझा करते थे। जॉन की नज़्मों और ग़ज़लों से अमरोहा और हिन्दुस्तान की मिटटी की खुशबू अक्सर आती रही। 1947 के सियासी माहौल को बयां करते हुए उन्होंने लिखा- हरमो-दैर की सियासत है और सब फैसले हैं नफरत के यार कल सुबह आए हमको नज़र आदमी कुछ अजीब सूरत के इन दिनों हाल शहर का है अजीब लोग मारे हुए हैं दहशत के 08 नवंबर 2002 को पाकिस्तान के कराची में ही इंतकाल हुआ पर तब तलक सय्यद हुसैन जॉन असग़र दुनिया के लिए जॉन एलिया बन चुके थे। लाखों दिलों के महबूब शायर बन चुके थे। जॉन वो शायर हो चुके थे जो हर मर्तबा जदीद लगे। जॉन वो शायर हो चुके थे जिसकी बेफिक्र शायरी में हर शख्श को अपना अक्स दिखे। पर जॉन के असल दौर का आगाज़ तो अभी बाकी था। इस दुनिया में रहते हुए जो जॉन एक रस्मी शायर थे, दुनिया को अलविदा कहने के बाद सरताज़ हो गए। उनके इंतेक़ाल के बाद उन्हें बेशुमार नाम-ओ-शोहरत नसीब हुआ। कहते है एक बार जॉन ने कहा था आज किसी शायर का है, कल किसी और शायर का होगा और परसों मेरा होगा। उनकी जुबां मुबारक हुई और आज सोशल मीडिया के इस दौर में उनकी शायरी युवाओं को खुदरंग सी लगती है। 8 साल की उम्र से शायरी से दिल लगाने वाले जॉन ने बहुत कम उम्र से ही अपनी एक अलग ज़ेहनी दुनिया बसा ली थी शायद इसलिए भी फिर वक़्त के साथ ज़िन्दगी की हकीकत उन्हें न-पसंद रही। जो देखता हूँ वो कहने का आदि हूँ मैं अपने शहर का सबसे बड़ा फसादी हूँ बातों को पहेलियों की शक्ल में पेश करने वालों में जॉन नहीं थे, वे जो कहते साफ़ कहते। एक शायर के लिए अपने जिए और लिखे के बीच का फ़र्क़ कम करना ही उसकी मुसलसल कोशिश रहती हैं। मगर जॉन इस काम में माहिर थे, जॉन सच कहते थे, वे झूठ भी कहते तो खुद को "झूठा कह कर सच्चे बन जाते। खुद के सिवा जॉन को किसी से भी, कोई शिकायत न थी, ज़िन्दगी जीनी तो थी मगर, ज़िन्दगी से भी मोहब्बत न थी। हैं बतौर ये लोग तमाम इनके सांचे में क्यों ढलें मैं भी यहाँ से भाग चलूँ तुम भी यहाँ से भाग चलो दुनियादारी के रस्मों रिवाज़ों से ऊब चुके जॉन ने कुछ इस अंदाज़ से, दुनियादारी की परवाह छोड़ कर, अपनी शरीक-ए-मोहब्बत से दूसरी किसी दुनिया में चलने की बात कही। जॉन पकिस्तान के बड़े शायर थे और कहा जाता है कि जॉन की मोहब्बत "फ़ारेहा" हिन्दुस्तान में रहा करती थी। दो मुल्क़ों के बीच जॉन का उनसे मिलना तो मुमकिन नहीं हुआ मगर अपनी ग़ज़लों में फ़ारेहा का ज़िक्र, जॉन अक्सर किया करते थे। पाकिस्तान के मशहूर शायर "जॉन" की मोहब्बत की दास्ताँ एक अधूरा क़िस्सा ही रही, मगर वे ता-उम्र जॉन फ़ारेहा का नाम दोहराते रहे। अब जॉन की ये मोहब्बत एक-तरफ़ा थी या दो-तरफ़ा ये बात तो बस जॉन ही जानते थे। फ़ारेहा के अलावा जॉन की ज़िन्दगी में तीन और भी नाम शामिल रहे जिसमें से एक थी सुरैय्या, जो अपने आप में एक पहेली है। उनकी ज़िन्दगी में बनावटी गम की इन्तेहाई उन्होंने खुद मानी और बयां की - जाने-निगाहो-रूहे-तमन्ना चली गई ऐ नज़दे आरज़ू, मेरी लैला चली गई बर्बाद हो गई मेरी दुनिया-ए-जुस्तजू दुनिया-ए-जुस्तजू मेरी दुनिया चली गई ज़ोहरा मीरा सितारा-ए-क़िस्मत खराब है नाहीद!आज मेरी "सुरैय्या" चली गई किस्से कहूं कि एक सरापा वफ़ा मुझे तन्हाइयों में छोड़ के चली गई हालाँकि, कहा जाता है जॉन कि ये सुरैय्या और ये दुनिया ये गम ये तन्हाई की बातें सब मन घडन्त कहानियां थी, बिलकुल वैसे ही जैसे कोई परियों के देश कि कहानी होती है। 1970 में जॉन का निकाह 'ज़ाहिदा' हिना से हुआ जो जॉन कि तरह 1947 में हिंदुस्तान से पाकिस्तान , कराची आयी थी। जॉन और ज़ाहिदा का निकाह उनका अपना फैसला था, बहर-हाल दोनों का ये फैसला गलत साबित हुआ। जॉन कि एहल-ए-ज़िंदगी ज़ाहिदा ता-उम्र तक साथ न रह सकी और दोनों कुछ सालों बाद अलग हो गए। कहा जाता है कि जॉन चाहते थे ज़ाहिदा घर संभालें और ज़ाहिदा एक पत्रकार थी, सारी घर की ज़िम्मेदारी उठाना उन्हें मुमकिन न लगा और ये बात दोनों के अलग होने का सबब बनी । जाहिदा से अलग होने के बाद जॉन ने लिखा हम तो जी भी नहीं सके एक साथ हमको तो एक साथ मरना था अलग होने के बाद वे ज़ाहिदा को अक्सर खत लिखा करते थे जिन्हे उर्दू भाषा के एहम दस्तावेज़ों की शक्ल में भी देखा गया। जॉन ने ज़ाहिदा के लिए अपनी फ़िक्र और उनसे सभी गिले माफ़ करने का ज़िक्र भी अक्सर किया - नया एक रिश्ता पैदा क्यों करें हम बिछड़ना है तो झगड़ा क्यों करें हम ख़ामोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी कोई हंगामा बरपा क्यों करें हम ये क़ाफ़ी है के दुश्मन नहीं हैं हम वफादारी का दावा क्यों करें हम नहीं दुनिया को जब परवाह हमारी तो दुनिया कि परवाह क्यों करें हम ज़ाहिदा से अलैदगी के बाद जॉन ने 10 साल तक कुछ नहीं लिखा। हुई नहीं मुझे कभी मोहब्बत किसी से मगर यक़ीं सबको दिलाता रहा हूँ मैं जॉन की ज़िन्दगी का एक फसलफा एक गुमनाम शख्सियत के नाम भी रहा। इस शख्सियत का नाम तो कोई नहीं जानता मगर कहा जाता है जॉन की ज़िन्दगी के आखिर पलों में जॉन ने इनके लिए लिखा, ज़ाहिदा से अलग होने के बाद वे जॉन के साथ थी मगर कभी उनकी शरीक-ए-मोहब्बत न बन सकी। जॉन उनसे झूठा प्यार जताने के बोझ में दब रहे थे। जॉन ने बनावटी दुःख और झूठी तकलीफ प्यार की बात करते हुए लिखा- तुम मेरा दुःख बाँट रही हो , मैं खुद से शर्मिंदा हूँ अपने झूठे दुःख से तुमको कब तक दुःख पहुंचाऊंगा एहद-ए-रफ़ाक़त ठीक है लेकिन मुझको ऐसा लगता है तुम तो मेरे साथ रहोगी मैं तन्हा रह जाऊंगा। ये गुमनाम हसीना जॉन से बे-इंतेहा मोहब्बत करने का दावा करती थी और जॉन उन्हें झूठे दिलासे दे दिया करते थे। दोनों एक दूसरे को खत भी लिखा करते थे। कहा जाता है उस लड़की का इंतेक़ाल टी-बी की बीमारी से हुआ, जिसको जॉन ने शायरी में लिखा और जॉन का इंतेक़ाल भी लम्बे अरसे तक टी-बी की बीमारी से लड़ने के बाद हुआ। - आ गई दरमियाँ रूह की बात ज़िक्र था जिस्म की ज़रुरत का थूक कर खून रंग में रहना में हुनरमंद हूँ अज़ीयत का जॉन दोबारा कभी हिंदुस्तान नहीं आए और न ही फ़ारेहा से कभी मिले मगर फ़ारेहा का नाम जॉन से आज भी हमेशा जोड़ा जाता रहा है । जॉन ने फ़ारेहा के नाम कई बेहतरीन ग़ज़लें लिखी। फ़ारेहा जॉन की ज़िन्दगी का एक ज़रूरी हिस्सा थी और जॉन उन्हें शायद किसी मर्ज़ की दवा की तरह वक़्त वक़्त पर याद करते रहे। फ़ारेहा के नाम जॉन की एक ग़ज़ल - सारी बातें भूल जाना फ़ारेहा था वो सब कुछ एक फ़साना फ़ारेहा हाँ मोहब्बत एक धोखा ही तो थी अब कभी धोखा न खाना फ़ारेहा छेड़ दे अगर कोई मेरा तज़्कीरा सुन के तंज़न मुस्कुराना फ़ारेहा था फ़क़त रूहों के नालों की शिकस्त वो तरन्नुम वो तराना फ़ारेहा बेहेस क्या करना भला हालात से हारना है हार जाना फ़ारेहा
''एक लंबे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी।'' यह उदगार बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी की है जिन्होंने अपना पूरा जीवन और साहित्य भारतीय जनजातीय समाज को समर्पित कर दिया। वह जीवन भर लिखती रहीं, उन लोगों के लिए जिनके हक़ में खड़ा होना जरूरी था। अपनी कृतियों में महाश्वेता देवी ने आधुनिक भारत के उस इतिहास को जीवंत किया, जिसकी तरफ कम साहित्यकारों का ध्यान गया। महाश्वेता देवी का नाम ध्यान में आते ही उनकी कई-कई छवियां आंखों के सामने प्रकट हो जाती हैं। दरअसल उन्होंने मेहनत व ईमानदारी के बलबूते अपने व्यक्तित्व को निखारा। उन्होंने अपने को एक पत्रकारीका, लेखिका, साहित्यकारीका और आंदोलनधर्मी के रूप में विकसित किया। महाश्वेता ने कम उम्र में लेखन का शुरू किया और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका पहला उपन्यास, "नाती", 1957 में अपनी कृतियों में प्रकाशित किया गया था। ‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम गद्य रचना है जो 1956 में प्रकाशन में आई। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, "इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।" इस पुस्तक को महाश्वेता ने कलकत्ता में बैठकर नहीं बल्कि सागर, जबलपुर, पुणे, इंदौर, ललितपुर के जंगलों, झाँसी ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं यानी 1857-58 में इतिहास के मंच पर जो हुआ उस सबके साथ-साथ चलते हुए लिखा। अपनी नायिका के अलावा, लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि अंग्रेज अफसर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है। इनकी कई रचनाओं पर फ़िल्म भी बनाई गई। इनके उपन्यास 'रुदाली ' पर कल्पना लाज़मी ने 'रुदाली' तथा '1084 की माँ' पर इसी नाम से 1998 में फिल्मकार गोविन्द निहलानी ने फ़िल्म बनाई। इन्हें 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1986 में पद्मश्री ,1997 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार इन्हें नेल्सन मंडेला के हाथों प्रदान किया गया था। इस पुरस्कार में मिले 5 लाख रुपये इन्होंने बंगाल के पुरुलिया आदिवासी समिति को दे दिया था। महाश्वेता देवी ने अपना पूरा जीवन गरीब असहायों के हक के लिए लिखा और लड़ाई की। उन्होंने 18 जुलाई 2016 में अपनी आखिरी सांस ली, लेकिन वह अपना नाम हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज कर चुकी हैं।