हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव के ऐलान के बाद 18 अक्टूबर को कांग्रेस ने 46 प्रत्याशियों की अपनी पहली लिस्ट जारी कर दी थी। पर इस सूची में चिंतपूर्णी सीट शामिल नहीं थी। बावजूद इसके अगले दिन शाम को चिंतपूर्णी से टिकट के दावेदार सुदर्शन सिंह बबलू ने समर्थकों सहित पार्टी छोड़ने का ऐलान कर दिया। पत्रकार वार्ता में बबलू ने आंसू भी बहाएं और कांग्रेस पर आरोप भी लगाएं। पर इसके बाद जब पार्टी प्रत्याशियों की लिस्ट आई तो चिंतपूर्णी से टिकट वरिष्ठ नेता कुलदीप कुमार को नहीं बल्कि उन्हीं बबलू को मिला जो पार्टी छोड़कर जा रहे थे। फिर जैसा अपेक्षित था, टिकट न मिलने से कुलदीप कुमार खफा हुए और शुरुआत में बगावती तेवर भी दिखाएँ, लेकिन बाद में कांग्रेस यहाँ बगावत साधने में कामयाब रही। बहरहाल टिकट वितरण तक दिखी सियासी उठापठक के बाद चिंतपूर्णी में कांग्रेस के सुदर्शन बबलू ने दमदार तरीके से चुनाव लड़ा है और पार्टी यहाँ जीत का दावा भी कर रही है। उधर भाजपा ने एक बार फिर सीटिंग विधायक बलबीर सिंह को यहाँ मैदान में उतारा है। चिंतपूर्णी में सिटींग विधायक को लेकर थोड़ी नाराजगी भी दिखती रही है। ऐसे में जाहिर है यहाँ एंटी इंकम्बैंसी का खामियाज़ा भाजपा को भुगतना पड़ सकता है। इसके अलावा ओपीएस और महंगाई जैसे चुनावी मुद्दे भी भाजपा को भारी पड़ सकते है। बावजूद इसके बलबीर सिंह का दावा यहाँ कमतर नहीं माना जा सकता। इतिहास पर निगाह डाले तो चिंतपूर्णी विधानसभा सीट कांग्रेस का गढ़ रही है। यहाँ भाजपा को केवल 3 दफा ही जीत हासिल हुई है। 1967 में यहां से कांग्रेस के चौधरी हरिराम ने जीत दर्ज की थी, जबकि 1972 में कांग्रेस के ओंकार चंद यहां से विजयी रहे थे। फिर 1977 में जनता पार्टी की लहर में हंसराज अकरोट यहाँ से जीते। 1980 में हंसराज अकरोट ने कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़कर यहाँ दूसरी बार जीत दर्ज की। 1985 में कांग्रेस लहर में गणेश दत्त भरवाल ने यहां जीत का परचम लहराया था। 1990 में यहाँ भाजपा यहाँ पहली बार जीती और सुषमा शर्मा विधानसभा पहुंची। 1993 में आजाद प्रत्याशी हरिदत्त यहा विजयी रहे, 1998 में भाजपा के प्रवीण शर्मा ने जीत दर्ज की थी। 2003 में राकेश कालिया ने भाजपा के प्रवीण शर्मा को 11 हजार से अधिक मतों से हरा कर ये सीट फिर कांग्रेस के नाम की। 2007 में कालिया ने लगातार दूसरी बार यहां जीत दर्ज की। फिर 2008 के परिसीमन के बाद यह क्षेत्र अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हो गया, जिसके बाद गगरेट से चुनाव लड़ते आ रहे कुलदीप कुमार ने इस क्षेत्र से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ा। तब नजदीकी मुकाबले में उन्होंने भाजपा के बलबीर चौधरी को 438 मतों से हराया। जबकि 2017 में भाजपा के बलबीर चौधरी ने कांग्रेस के कुलदीप कुमार को 8579 मतों से पराजित किया और करीब दो दशक बाद ये सीट भाजपा की झोली में डाली। अब फिर भाजपा से बलबीर चौधरी मैदान में है, तो कांग्रेस ने यहाँ से सुदर्शन बबलू को मैदान में उतारा है। मौजूदा चुनाव में चिंतपूर्णी की गिनती प्रदेश की उन सीटों में है जहाँ बेहद काम अंतर से जीत-हार का फैसला हो सकता है। पर यदि प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के लिए वोट डला है, तो जाहिर है यहाँ भी कांग्रेस का पलड़ा कुछ भारी हो सकता है।
करसोग विधानसभा सीट वो सीट है जहाँ जनता के लिए पार्टी का चिन्ह बाद में, अपनी पसंद पहले आती है। करसोग के चुनावी नतीजे तो यही कहते है। यहाँ की सियासत में मनसा राम का दबदबा रहा है। जनता ने पार्टी चिन्ह के बिना भी मनसा राम पर अपना प्यार बरसाया है। मनसा राम कुल 9 बार चुनावी संग्राम में उतरे और पांच बार करसोग से विधायक बने जिसमें 4 बार कैबिनेट मंत्री तथा एक बार सीपीएस रहे। 1967 में मनसा राम ने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीता भी। दूसरी बार 1972 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े और जीते लेकिन 1977 में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। मनसा राम ने 1982 में फिर निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते। इसके बाद 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस और 2012 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर मनसा राम इस क्षेत्र से विधायक बने। दिलचस्प बात ये है कि मनसा राम प्रदेश के एक मात्र ऐसे नेता हैं, जो यशवंत सिंह परमार सहित चार मुख्यमंत्रियों की कैबिनेट में काम कर चुके हैं। अब अपनी राजनीतिक विरासत मनसा राम ने अपने बेटे महेश राज को सौंप दी है, जो इस बार कांग्रेस से मैदान में है। यहाँ भाजपा ने अपने सिटींग विधायक का टिकट काट कर दीपराज कपूर को मैदान में उतारा है। यहाँ दोनों ही प्रत्याशी पहली बार चुनावी रण में है ऐसे में मुकाबला कांटे का दिख रहा है। करसोग में भाजपा केवल तीन दफा ही जीत दर्ज कर पाई है। 1985 और 1990 में भाजपा के जोगिन्दर पाल ने ये सीट भाजपा की झोली में डाली थी। 2017 में इस सीट पर हीरा लाल ने भाजपा का परचम लहराया। माना जाता है कि तब बगावत कांग्रेस की हार का कारण बनी थी जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिला। पर दशकों बाद करसोग में कमल खिलाने वाले हीरालाल का टिकट काट कर भाजपा ने एक नए चेहरे को मैदान में उतारा है। क्षेत्र में हीरालाल को लेकर नाराज़गी भी दिखती रही है जाहिर है ऐसे में एंटी इंकम्बैंसी को खत्म करने के लिए भाजपा ने यहाँ टिकट बदला है, लेकिन यहाँ भीतरघात की संभावना से भी इंकार नहीं किया सकता है। बहरहाल,करसोग में मुकाबला कांटे का दिख रहा है और इस बार जीत का परचम कौन लहराता है ये तो नतीजे आने के बाद ही पता लगेगा।
2017 में आनी निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा के किशोरी लाल ने कांग्रेस के परसराम को हराकर ये सीट भाजपा की झोली में डाली थी। पर इस बार भाजपा ने यहां से अपने सीटिंग विधायक का टिकट काटकर लोकेन्द्र कुमार पर दांव खेला है। इसके बाद किशोरी लाल ने बगावत कर दी और निर्दलीय चुनाव लड़ा है। उधर कांग्रेस में भी कहानी कुछ ऐसी ही है। पार्टी ने पिछली बार प्रत्याशी रहे परसराम की जगह बंसीलाल को मैदान में उतारा। नतीजन परसराम भी बागी हो गए और उन्होंने भी निर्दलीय चुनाव लड़ा है। अब भाजपा -कांग्रेस उम्मीदवारों के साथ -साथ दोनों तरफ के बागी नेता भी दमखम से चुनाव लड़े है और आनी का चुनाव बेहद रोचक हो गया है। मतदान के बाद भी बड़े से बड़े सियासी दिग्गज दावे के साथ ये नहीं कह पा रहे है कि आनी का अगला विधायक कौन होगा। यहां इस सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पहले दो स्थानों पर कहीं पार्टी प्रत्याशियों की जगह बागी न काबिज हो जाएँ। ये ही कारण है कि दोनों दल बेशक अपने -अपने बागी नेताओं को निष्कासित कर चुके हो लेकिन बड़े नेता इनसे संपर्क साढ़े हुए है ताकि जरुरत पड़ें पर इन्हे पाने पाले में लिया जा सके। आनी के सियासी अतीत में झांके तो 1977 से लेकर 2017 तक यहाँ कांग्रेस और भाजपा ही जीतते आएं है। कभी कोई निर्दलीय आनी में नहीं जीता है। ऐसे में यदि किशोरी लाल या परसराम में से कोई यहां जीतता है तो इतिहास रच देगा।
फतेहपुर भाजपा के टिकट आवंटन के बाद सबसे चर्चित सीटों में से एक है। दरअसल ये वो सीट है जहाँ भाजपा ने नजदीकी निर्वाचन क्षेत्र से प्रत्याशी इम्पोर्ट किया है। नूरपुर से विधायक और कैबिनेट मंत्री राकेश पठानिया को भाजपा ने इस मर्तबा फतेहपुर फ़तेह करने का जिम्मा सौपा है। वैसे भी डॉ राजन सुशांत के पार्टी छोड़ने के बाद से इस क्षेत्र में भाजपा कभी कांग्रेस को जोरदार टक्कर नहीं दे पाई है। बगावत मानो यहाँ भाजपा की नियति बन चुकी है। यहाँ पार्टी दो उपचुनाव सहित लगातार चार चुनाव हार चुकी है। ऐसे में पार्टी ने इस बार राकेश पठानिया को उतार कर बड़ा गैम्बल खेला है। दरअसल इस क्षेत्र में पार्टी टिकट के दो मुख्य दावेदार थे, बलदेव ठाकुर और कृपाल परमार। पिछले चुनावों को देखे तो पार्टी अगर एक को टिकट देती है, तो दूसरा नाराज हो जाता है। संभवतः पार्टी को लगा हो किसी तीसरे को लेकर पार्टी को एकजुट किया जा सकता है। पर दाव उलटा पड़ गया। कृपाल ने बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़ा है। दिलचस्प बात तो ये है कि कृपाल को मनाने के लिए खुद पीएम मोदी का फोन आया था, जो काफी वायरल भी हुआ। पर पीएम के मनाने पर भी कृपाल माने नहीं। अब कृपाल पर मतदाताओं की कितनी कृपा रही, ये देखना रोचक होगा। तो वहीं कभी भाजपा के नेता रहे पूर्व सांसद राजन सुशांत इस बार आम आदमी पार्टी से मैदान में है। पर डॉ राजन सुशांत का प्रचार प्रसार इस बार ज्यादा आक्रामक नहीं दिखा है। पर इस क्षेत्र से वो चार बार विधायक रहे है और उनका एक सेट वोट बैंक है जिसके चलते उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। उधर कांग्रेस ने एक बार फिर भवानी सिंह पठानिया को मैदान में उतारा है। कांग्रेस में भवानी के नाम को लेकर कोई विरोध नहीं दिखा। भवानी सिंह पठानिया कॉर्पोरेट जगत की नौकरी छोड़कर अपने पिता स्व सुजान सिंह पठानिया की राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए फतेहपुर लौटे है। पर पिछले चुनाव को जीत कर भवानी ने ये साबित कर दिया था की वे राजनीति के लिए नए नहीं है। बहरहाल कांग्रेस में 'जय भवानी' का नारा बुलंद है और समर्थक तो उन्हें भावी मंत्री भी बताने लगे है। जानकारों का मानना है कि यदि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और भवानी भी ये चुनाव जीतते है तो उन्हें मंत्री पद या कोई अहम ज़िम्मेदारी मिल सकती है। बहरहाल, भवानी और विधानसभा के बीच भाजपा के बड़े नेता और मंत्री राकेश पठानिया, कृपाल परमार और राजन सुशांत जैसे दिग्गज है। अब फतेहपुर में युवा जोश की जीत होती है या अनुभव की, ये तो नतीजे ही तय करेंगे।
जसवां परागपुर विधानसभा क्षेत्र भाजपा सरकार में मंत्री बिक्रम ठाकुर का गढ़ रहा है। 2012 और 2017 में लगातार जीत दर्ज करने वाले बिक्रम ठाकुर यहां से तीन बार विधायक बने है। दरअसल 2008 के परिसीमन से पहले इस क्षेत्र को जसवां के नाम से जाना जाता था और तब 2003 में बिक्रम पहली बार इस सीट से विधायक बने थे। हालांकि 2007 का चुनाव वे हार गए लेकिन इसमें कोई संशय नहीं है कि वे इस क्षेत्र में आहिस्ता-आहिस्ता मजबूत होते रहे। 2017 में तीसरी बार विधायक बनने के बाद उन्हें जयराम कैबिनेट में मंत्री पद मिला और उद्योग और परिवहन जैसे महत्वपूर्ण महकमे उनके पास रहे है। जाहिर है बिक्रम ठाकुर मंत्री बने तो इस क्षेत्र के लोगों की अपेक्षाएं भी उनसे बढ़ी। इस बार भी यहां भाजपा से बिक्रम सिंह ठाकुर ही प्रत्याशी है, जबकि कांग्रेस ने पूर्व में प्रत्याशी रहे सुरेंद्र सिंह मनकोटिया को मैदान में उतारा है। इन दोनों के अलावा निर्दलीय चुनाव लड़ रहे समाजसेवी कैप्टेन संजय पराशर ने यहाँ के मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है। वहीँ कभी बिक्रम सिंह ठाकुर के करीबी रहे मुकेश ठाकुर अब यहाँ से कांग्रेस के बागी है। सो ये सीट वोटों के ध्रुवीकरण के फेर में फंसी है और इस सीट पर बिक्रम ठाकुर का कड़ा इम्तिहान है। क्या कांग्रेस के सुरेंद्र मनकोटिया को इस ध्रुवीकरण का ज्यादा लाभ मिल सकता है, ये बड़ा और अहम सवाल है। इस सीट के इतिहास पर निगाह डाले तो यहां कभी कोई निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव नहीं जीता है। 1972 से 2017 तक हुए 11 विधानसभा चुनावों में यहां 5 बार कांग्रेस, 5 बार भाजपा एक बार जनता पार्टी की जीत हुई है। कांग्रेस की वरिष्ठ नेता विप्लव ठाकुर भी यहाँ से तीन बार विधायक रही है। विप्लव 1985, 1993 और 1998 में यहां से जीतकर विधानसभा पहुंची और 1995 से 1998 तक वीरभद्र सरकार में मंत्री भी रही। इसके बाद 2017 में बिक्रम ठकुर ही इस सीट से जीतकर मंत्री बन सके है। बहरहाल मतदान हो चुका है और नतीजे तक स्वाभाविक है सभी नेता अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे है। जानकारों की माने तो यहाँ बहुकोणीय मुकाबला देखने को मिल सकता है और जो भी जीते, मुमकिन है अंतर बेहद कम रहे।
2008 के परिसीमन के बाद सोलन सीट आरक्षित हो गई थी। तब 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले चर्चा ये थी कि भाजपा के वरिष्ठ नेता डॉ राजीव बिंदल कहाँ से चुनाव लड़ेंगे और बिंदल ने चुनी नाहन सीट। वो ही नाहन जहाँ अपने गठन के बाद से कभी भाजपा नहीं जीती थी। हालांकि जनसंघ से निकली श्यामा शर्मा ने जरूर ये सीट 1977 और 1982 में जनता पार्टी के टिकट पर और 1990 में जनता दल के टिकट पर जीती थी, पर यहां कमल नहीं खिला था। उधर 1993 से 2007 तक हुए चार विधानसभा चुनाव में से तीन चुनाव डॉ यशवंत सिंह परमार के पुत्र कुश परमार जीत चुके थे। जबकि 2003 में लोक जनशक्ति पार्टी के सदानंद चौहान को विजय मिली थी। 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी कुश परमार सीटिंग विधायक थे और प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा को लेकर कुछ एंटी इंकमबैंसी भी स्वाभाविक थी। बावजूद इसके बिंदल ने परमार को करीब 13 हजार वोट से हराया। इसके बाद बिंदल नाहन के हो गए। 2017 में वे दूसरी बार चुनाव लड़े और तब कांग्रेस ने उनके सामने अजय सोलंकी को उतारा। बिंदल फिर जीते, लेकिन जीत का अंतर 13 हजार से घटकर करीब 4 हजार रह गया। अब इस सीट पर इस बार फिर बिंदल और सोलंकी आमने-सामने है। मौजूदा चुनाव की बात करें तो अजय सोलंकी ने इस बार दमदार तरीके से चुनाव लड़ा है। ओपीएस का मुद्दा हो या महिलाओं को पंद्रह सौ रुपये देने का वादा, सोलंकी को इससे लाभ हो सकता है। नाहन में अल्पसंख्यक वोट भी खासी तादाद में है और इस वोट से भी इस बार कांग्रेस को उम्मीद है। ऐसे में बिंदल की राह मुश्किल जरूर है। पर बिंदल के तजुर्बे और उनकी बेमिसाल पोलिटिकल मैनेजमेंट को देखते हुए उन्हें कम नहीं आँका जा सकता। बहरहाल नाहन इस बार हॉट सीट है और यहां कांटे का मुकाबला दिख रहा है। बिंदल के लिए उतार चढ़ाव भरे रहे पांच साल : यहां जिक्र बीते पांच साल में बिंदल के राजनैतिक जीवन में आएं उतार चढ़ाव का भी करते है। 2017 में भाजपा की सत्ता वापसी के बाद बिंदल मंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। पर ऐसा हुआ नहीं और बिंदल को विधानसभा अध्यक्ष के पद पर बैठा दिया गया। पर 2019 के अंत में समीकरण बदले और बिंदल भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बन गए। फिर आया 2020 का कोरोना काल और प्रदेश में हुए स्वास्थ्य घोटाले में बिंदल का नाम उछला। इसके बाद बिंदल ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया। इसके बाद बिंदल को पार्टी ने सोलन नगर निगम और अर्की उपचुनाव का प्रभारी बनाया, लेकिन दोनों जगह पार्टी हार गई। मौजूदा चुनाव में भाजपा ने बिंदल के अनुभव को देखते हुए उन्हें प्रदेश चुनाव मैनेजमेंट कमेटी का अध्यक्ष बनाया है। पांच साल से चले आ रहे इस उतार चढ़ाव के बीच बिंदल के लिए नाहन से जीत बेहद जरूरी दिख रही है।
ज्वाली की सियासत अर्से से एक प्रोफेसर और उनके परिवार के इर्द गिर्द घूमती रही है। हम बात कर रहे है कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष चौधरी चंद्र कुमार की। 1977 में चौधरी चंद्र कुमार निर्दलीय यहाँ से चुनाव लड़े थे। तब इस सीट का नाम था गुलेर, जो 2008 के परिसीमन के बाद ज्वाली पड़ा। अपना पहला चुनाव चौधरी चंद्र कुमार हार गए और सियासत से दूरी बनाकर शिमला के सेंट बीड्स कॉलेज में पढ़ाने लगे। पर सियासत किसी को आसानी से कहाँ छोड़ती है। चंद्र कुमार कांग्रेस के सम्पर्क में आए और नौकरी छोड़ कर फिर सियासत में एंट्री हो गई। 1982 से 2003 तक हुए 6 विधानसभा चुनावों में सिर्फ 1990 को छोड़कर पांच बार चौधरी चंद्र कुमार को जीत मिली। इस दौरान वे वीरभद्र सिंह के करीबी रहे और मंत्री भी रहे। उनके कद को देखते हुए पार्टी ने उन्हें 2004 में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़वाया और वे लोकसभा पहुंच गए। उनके सांसद बनने के बाद पार्टी ने उनके पुत्र नीरज भारती को उपचुनाव में उतारा, हालांकि नीरज चुनाव हार गए। पर इसके बाद 2007 और 2012 में नीरज ने इस सीट पर जीत दर्ज की। फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने एक बार फिर चौधरी चंद्र कुमार को मैदान में उतारा लेकिन वे भाजपा के अर्जुन सिंह से हार गए। इस बार फिर चंद्र कुमार मैदान में है। उधर भाजपा ने सीटिंग विधायक अर्जुन सिंह का टिकट काटकर संजय गुलेरिया पर दांव खेला है। निसंदेह यहाँ एंटी इंकम्बेंसी को खत्म करने के लिए भाजपा ने नए चेहरे को मैदान में उतारा है, लेकिन भाजपा का ये फैसला कितना सही साबित होता है ये तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। अर्जुन सिंह का टिकट काटने के बाद शुरुआत में भाजपा को यहाँ विरोध का सामना भी करना पड़ा था, लेकिन आखिरकार भाजपा द्वारा रूठों को मना लिया गया। इसके बाद लड़ाई चौधरी चंद्र कुमार बनाम संजय गुलेरिया ही रही है। संजय गुलेरिया को अंडर एस्टीमेट नहीं किया जा सकता है। क्षेत्र में उनकी पकड़ काफी मजबूत है, लेकिन चुनौती कड़ी है क्योंकि उनके सामने कांग्रेस के अनुभवी नेता चौधरी चंद्र कुमार है। यहाँ कौन जीतेगा ये तो आठ दिसंबर को तय होगा लेकिन कांग्रेस यहाँ जीत को लेकर आश्वस्त जरूर दिख रही है। बड़ा ओहदा मिलना लगभग तय अगर प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई और चौधरी चंद्र कुमार भी चुनाव जीत जाते है तो उन्हें अहम ज़िम्मा मिलना तय है। चुनाव से कुछ वक्त पहले पवन काजल के भाजपा में शामिल होने के बाद कांग्रेस ने चौधरी चंद्र कुमार को प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बनाया है। चंद्र कुमार बड़ा ओबीसी चेहरा है और उस जिला कांगड़ा से ताल्लुख रखते है जो प्रदेश की सत्ता का रास्ता प्रशस्त करता है। ऐसे में सीएम पद को लेकर भी उनके नाम को खारिज नहीं किया जा सकता। बहरहाल अगर वे जीते और कांग्रेस सरकार बनी तो उन्हें बड़ा ओहदा मिलना तो लगभग तय है।
इस बार रेणुका सीट पर बीजेपी नारायण-नारायण कर रही है। 2011 में हुए उपचुनाव में जीत हासिल करने के बाद एक बार फिर बीजेपी जीत को लेकर आशावान है। इस बार भाजपा ने यहां से एक नए चेहरे नारायण सिंह को टिकट दिया है। भाजपा पूरी तरह से आश्वस्त है कि हाटी समुदाय के मुद्दे और मौजूदा विधायक के खिलाफ संभावित एंटी इंकमबैंसी के आधार पर इस सीट पर उसे बड़ा उलटफेर करने में सफलता हासिल होगी। उधर, कांग्रेस ने फिर एक बार विनय कुमार को टिकट दिया है। विनय कुमार दो बार के विधायक है और कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष भी। कांग्रेस की सरकार बनने की स्थिति में उन्हें अहम पद मिलना भी लगभग तय है। विनय कुमार इस बार यहां जीत की हैट्रिक लगाने का दावा कर रहे है। हालाँकि क्षेत्र में उनको लेकर दिख रही एंटी इंकम्बैंसी और क्षेत्रीय मुद्दों को लेकर नाराजगी को भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके विनय कुमार का मिलनसार व्यवहार और क्षेत्र में उनकी पकड़ उनका दावा मजबूत करते है। इतिहास पर नजर डाले तो यह सीट कांग्रेस का गढ़ रही है। 1982 से 2007 तक हुए सात विधानसभा चुनावों में 1990 को छोड़कर हर बार कांग्रेस के प्रेम सिंह को जीत मिली फिर 2011 में प्रेम सिंह का स्वर्गवास हो गया। उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने प्रेम सिंह के पुत्र विनय कुमार को टिकट दिया, जबकि भाजपा ने तब आईएएस अधिकारी हिरदा राम को वीआरएस दिला कर मैदान में उतारा। तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल का ये मास्टर स्टॉक काम कर गया और इस सीट पर भाजपा प्रत्याशी ने जीत हासिल कर ली। तब हिरदा राम ने विनय कुमार को करीब 3000 वोट से हराया। फिर 2012 में विनय कुमार ने कांग्रेस टिकट पर चुनाव जीता और हिरदा राम को करीब सात सौ के अंतर से हराया। 2017 में भी विनय की जीत का सिलसिला जारी रहा और उन्होंने भाजपा के बलबीर सिंह को करीब पांच हजार के अंतर से हराया। अब एक बार फिर कांग्रेस ने उन्हें चुनावी दंगल में उतारा है। हाटी फैक्टर का होगा कितना असर ? अब मौजूदा चुनाव में सबसे बड़े फैक्टर की बात करते है जिससे भाजपा को बड़ी आस है।हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने के फैसले का इस विधानसभा क्षेत्र में सीधा असर है। इस फैसले से रेणुका जी में 44 पंचायतों के 122 गांवों के 40,317 संबंधित लोगों को लाभ होगा। जबकि यहां एससी के 29,990 लोग बाहर होंगे। इस मुद्दे को भाजपा ने चुनाव में जमकर भुनाने की कोशिश की है। बाकायदा सतौन में गृह मंत्री अमित शाह का कार्यक्रम आयोजित करवाया गया। पर इसका कितना चुनावी लाभ भाजपा को मिला, ये तो नतीजे ही तय करेंगे।
कहते है न सियासत महाठगिनी है। इस चुनाव में सियासत ने कई नेताओं को ठगा और नतीजों के बाद न जाने कितने ठगा सा महसूस करेंगे। इसी लिस्ट में एक नाम है प्रदेश की सियासत के दिग्गज नेता महेश्वर सिंह का। विधानसभा चुनाव के काफी पहले से चर्चा थी कि क्या भाजपा इस बार कुल्लू सीट से महेश्वर सिंह को एक बार फिर मैदान में उतारेगी? फिर दशहरे के दौरान पीएम मोदी भगवान रघुनाथ जी की रथयात्रा में शामिल हुए और उसके बाद कयास लगने लगे कि शायद महेश्वर को टिकट मिल जाएँ। इस बीच महेश्वर सिंह का भी ब्यान आया कि उन्हें किसी मंत्री पद की लालसा नहीं है बस एक बार और कुल्लू का विधायक बनने की तमन्ना है। तमन्ना पूरी हुई और भाजपा ने कुल्लू सदर सीट से महेश्वर सिंह को टिकट दे दिया। पर उनके बेटे हितेश्वर सिंह बंजार से टिकट न मिलने के चलते निर्दलीय चुनाव लड़ने मैदान में उतर गए। भाजपा को ये गवारा नहीं था कि पिता पार्टी उम्मीदवार और बेटा दूसरी सीट पर बागी। फिर सियासत ने करवट बदली और भाजपा ने यहाँ नामांकन से ठीक एक दिन पहले वरिष्ठ नेता महेश्वर सिंह ठाकुर का टिकट काट दिया। अब बात करते है मौजूदा सियासी समीकरण की। कुल्लू सदर सीट से भाजपा ने टिकट बदल कर नरोत्तम ठाकुर को मैदान में उतारा। उधर, हिमाचल बीजेपी उपाध्यक्ष और 2012 के भाजपा प्रत्याशी रहे राम सिंह ठाकुर भी टिकट की मांग कर रहे थे। टिकट न मिलने से खफा हुए राम सिंह बतौर निर्दलीय चुनावी मैदान में उतरे और यहाँ मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है। निसंदेह राम सिंह के मैदान में होने से यहाँ नरोत्तम ठाकुर की मुश्किलें बढ़ी है। ऐसे में गुटों में बंटी भाजपा इस सीट पर कितना डैमेज कण्ट्रोल कर पायी है, यह तो नतीजे आने के बाद ही पता लग पायेगा। वहीं कांग्रेस ने सुन्दर सिंह ठाकुर को तीसरी बार टिकट दिया है। सुन्दर सिंह ठाकुर पहली बार 2012 में कांग्रेस टिकट से चुनाव लड़े थे और तब हार गए थे। फिर 2017 में उन्होंने चुनाव लड़ा और भाजपा के महेश्वर सिंह ठाकुर को करीब ढाई हजार मतों से पराजित किया। सुन्दर ठाकुर तीसरी बार चुनावी मैदान में है। हालाँकि भाजपा में गुटबाजी और राम सिंह ठाकुर के निर्दलीय चुनावी मैदान में होने से सुन्दर सिंह ठाकुर जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। वहीं उनके समर्थक तो अभी से उन्हें बतौर मंत्री प्रोजेक्ट करने लगे है।
कभी कबड्डी के मैदान में विरोधियों को पटकनी देने वाले वरिष्ठ कांग्रेस नेता रामलाल ठाकुर सियासत के मैदान के भी मंजे हुए खिलाड़ी है। इस बार ठाकुर अपनी परंपरागत सीट श्री नैनादेवी से नौवीं बार मैदान में है और छठी जीत दर्ज करने को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। रामलाल ठाकुर की निगाहें तो विधानसभा पर टिकी है लेकिन उनका निशाना ओक ओवर पर भी है। दरअसल रामलाल ठाकुर का नाम कांग्रेस से सीएम पद के दावेदारों में शुमार है। ऐसे में जाहिर है इस बार नैनादेवी निर्वाचन क्षेत्र सूबे की हॉट सीटों में शुमार है। इस सीट के अतीत पर निगाह डाले तो यहां रामलाल ठाकुर का वर्चस्व स्पष्ट दिखता है। 2008 के परिसीमन से पहले इस सीट को कोट कहलूर के नाम से जाना जाता था और फिर इसका नाम श्री नैनादेवी हो गया। रामलाल ठाकुर 1985 में पहली बार यहां से मैदान में उतरे और विधानसभा पहुंचे। पर 1990 में सीपीआई नेता केके कौशल ने उन्हें हरा दिया। उसके बाद रामलाल ठाकुर 1993, 1998 और 2003 में लगातार तीन बार जीते। इस दौरान वह कानून, खेल व अन्य विभागों के मंत्री भी रहे। उन्होंने स्वास्थ्य, उद्योग व वन विभाग भी संभाला। पर साल 2007 और 2012 में कांग्रेस के इस मजबूत किले में भाजपा ने सेंध लगाई और रणधीर शर्मा यहां से दो बार लगातार विधायक रहे। इसके बाद साल 2017 में रामलाल ठाकुर ने यहां से फिर चुनाव जीत कर वापसी की। मौजूदा स्थिति की बात करें तो श्री नैना देवी सीट पर एक बार फिर राम लाल ठाकुर और भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता रणधीर शर्मा आमने सामने है। इस बार भी यहाँ करीबी मुकाबला संभव है। रामलाल ठाकुर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता है और प्रदेश में यदि कांग्रेस सरकार बनती है तो ठाकुर सीएम पद के दावेदारों में से एक होंगे। यदि सीएम पद की दौड़ में पिछड़ भी गए तो भी ठाकुर को अहम जिम्मा मिलना लगभग तय है। जाहिर है मतदाता भी इस बात को समझता है और सम्भवतः इसका लाभ ठाकुर को मिला हो। इसके अलावा ओपीएस और महिला सम्मान राशि जैसे कांग्रेस के वादे भी लाभदायक सिद्ध हो सकते है। ऐसे में रामलाल ठाकुर अपनी जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। उधर भाजपा भी जीत का दावा कर रही है। बहरहाल नतीजों के लिए आठ दिसम्बर का इन्तजार करना होगा।
2008 में परिसीमन बदलने के बाद अस्तित्व में आया जयसिंहपुर विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। 2012 में यहां कांग्रेस नेता यादविंदर गोमा विधायक बने तो, 2017 में भाजपा नेता रविंद्र धीमान ने गोमा को 10 हजार से अधिक मतों से हराया। इस बार यहां कांग्रेस ने यादविंदर गोमा को ही मैदान में उतारा है, जबकि भाजपा की ओर से रविंदर धीमान मैदान में है। दोनों ही प्रत्याशियों ने इस चुनाव में एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया है और यहां मुकाबला टक्कर का दिखाई दे रहा है। 2017 के चुनाव में रविंदर धीमान यहां करीब 10,000 मतों से जीते थे, मगर इस बार जिस भी प्रत्याशी की जीत होगी अंतर बहुत कम रहने की संभावना है। शुरूआती दौर में यहाँ सीटिंग विधायक रविंद्र धीमान की राह थोड़ी आसान दिख रही थी। दरअसल कांग्रेस में टिकट के दो दावेदार थे, गोमा और सुशील कौल। इसके चलते कांग्रेस के टिकट आवंटन में काफी देर हुई। पर आखिरकार कांग्रेस ने गोमा पर ही भरोसा जताया। पर टिकट मिलने के बाद गोमा का प्रचार काफी आक्रामक रहा। इसके अलावा ओपीएस और महिलाओं को पंद्रह सौ रुपये देने के कांग्रेस के वादों का भी यहाँ जमीनी असर दिखा। नतीजन अब कांग्रेस यहाँ जीत के दावे कर रही है। उधर, कांग्रेस से मौका न मिलने के बाद सुशील कौल ने राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी का दामन थामा और चुनाव लड़ा। अब कौल कितने वोट ले जाते है और किसको कितना नुक्सान पहुंचाते है, इस पर भी सबकी निगाह है। बहरहाल नतीजा आठ तारीख को आएगा और यहाँ कांटे का मुकाबला अपेक्षित है।
भाजपाई कांग्रेसी हो गए और कांग्रेस वाले भाजपाई। बंजार में इस बार सियासत रोमांच से गुलजार रही है। विधानसभा चुनाव से कुछ वक्त पहले भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और दो बार विधायक रहे खीमी राम ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया। तो चुनाव के दौरान टिकट न मिलने से खफा होकर कांग्रेस के आदित्य विक्रम सिंह भाजपा में चले गए। आदित्य विक्रम सिंह वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे स्व कर्ण सिंह के पुत्र है और 2017 में इस सीट से कांग्रेस प्रत्याशी थे। वे इस बार भी टिकट चाहते थे लेकिन पार्टी ने खीमी राम को तवज्जो दी जिसके बाद वे भाजपा में शामिल हो गए। वहीं भाजपा ने इस बार भी इस सीट से सीटिंग विधायक सुरेंद्र शौरी को ही टिकट दिया है। बंजार की सियासत को समझने के लिए यहाँ का सियासी इतिहास भी समझना होगा। ये सीट भाजपा का गढ़ रही है और 1982 से 2017 तक हुए 9 विधानसभा चुनाव में यहाँ भाजपा 6 बार जीती है और कांग्रेस सिर्फ तीन बार। इस सीट पर महेश्वर सिंह ने 1977 पर जनता पार्टी और 1982 में भाजपा के टिकट पर जीत दर्ज की थी। इसके बाद 1985 में कांग्रेस के सत्य प्रकाश जीते। 1990 में भाजपा ने यहाँ से कर्ण सिंह को टिकट दिया और वे जीत दर्ज करने में कामयाब रहे। इसके उपरांत 1993 में सत्य प्रकाश और 1998 में कर्ण सिंह जीते। पर 2003 में भाजपा ने यहां से खीमीराम को टिकट दिया और पार्टी का ये दावं सही पड़ा। 2007 में भी खीमीराम ही जीते। इस बीच दो बार भाजपा के विधायक रहे कर्ण सिंह कांग्रेस में शामिल हो चुके थे और 2012 में वे कांग्रेस के टिकट पर चुनाव भी जीत गए। कर्ण सिंह मंत्री भी बने लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले उनका निधन हो गया। उनके निधन के बाद कांग्रेस ने उनके पुत्र आदित्य विक्रम सिंह को टिकट दिया। उधर भाजपा ने भी खीमीराम का टिकट काटकर सुरेंद्र शौरी पर दांव खेला। तब शौरी चुनाव जीत गए। अब मौजूदा चुनाव में सुरेंद्र शौरी का मुकाबला पूर्व भाजपाई खीमी राम से है जो कांग्रेस में शामिल हो चुके है। जहाँ आदित्य विक्रम के भाजपा में जाने का लाभ शौरी को मिल सकता है, वहीँ हितेश्वर सिंह की बगावत ने उनके समीकरण प्रभावित किये है। इस पर खीमीराम की इस क्षेत्र में अच्छी पकड़ है और उन्हें हल्का नहीं आँका जा सकता। सरकार के खिलाफ एंटी इंकमबैंसी के साथ-साथ ओपीएस और महंगाई जैसे चुनावी मुद्दों का लाभ भी उन्हें मिलता दिख रहा है। ऐसे में बंजार में रोचक मुकाबला तय है।
90 के दशक में कांगड़ा की सियासत में बैजनाथ विधानसभा क्षेत्र की तूती बोला करती थी। दरअसल ये वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे दिग्गज नेता पंडित संत राम का गढ़ रहा है। पंडित संत राम यहाँ से 6 बार विधायक रहे। पहले यहां पंडित संत राम का बोल बाला रहा और फिर उनके बेटे और कांग्रेस नेता सुधीर शर्मा का। हालाँकि 2008 में ये सीट रिज़र्व हो गई और सुधीर शर्मा ने इसके बाद धर्मशाला को अपना चुनाव क्षेत्र बना लिया। पंडित संत राम इस सीट से 1972 से 1985 तक लगातार चार चुनाव जीते। हालांकि 1990 की भाजपा लहर में वे हार गए। पर 1993 और 1998 में उन्होंने फिर जीत दर्ज की। इसके बाद पंडित संतराम का निधन हो गया और बैजनाथ में उपचुनाव हुआ। पंडित संतराम कांग्रेस के एक ऐसे नेता थे जिन्हें बैजनाथ की जनता कभी नहीं भूल सकती। पर उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में उनके बेटे सुधीर शर्मा को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। तब जनता ने दूलो राम को जीतवाकर विधानसभा भेजा। 2003 में सुधीर ने वापसी की और 2007 में वे दूसरी बार विधायक बने। 2012 के चुनाव से पहले बैजनाथ सीट आरक्षित हो गई थी और तब कांग्रेस नेता किशोरी लाल ग्राम पंचायत प्रधान से विधायक बने। किशोरी लाल को सुधीर शर्मा का पूरा समर्थन था। पर पांच साल बाद 2017 में ही जनता का मोहभंग हो गया और भाजपा के मुल्खराज विधायक बने। इस बार कांग्रेस ने फिर यहाँ किशोरी लाल और भाजपा ने फिर से सीटिंग विधायक मुल्खराज प्रेमी को मैदान में उतारा है। अब देखना ये है कि क्या कांग्रेस फिर से एक बार अपने गढ़ पर कब्जा जमा पाएगी या जनता दोबारा से भाजपा के प्रत्याशी पर अपना वोट रूपी आशीर्वाद बरसाएगी। बहरहाल कांग्रेस यहाँ वापसी को लेकर आश्वस्त जरूर दिख रही है।
कहते है, देहरा कोई नहीं तेरा। पर विधायक बनने की चाह इस बार अच्छे अच्छों को देहरा खींच कर ले गई। नतीजन इस बार देहरा का चुनाव बेहद रोचक है। कौन जीतेगा, कौन हारेगा, ये तो आठ दिसम्बर को पता चलेगा, लेकिन मुमकिन है इस बार देहरा में परफेक्ट बहुकोणीय मुकाबला देखने को मिले। शुरुआत भाजपा से करते है। भाजपा प्रत्याशी रमेश धवाला अपना पुराना निर्वाचन क्षेत्र ज्वालामुखी छोड़कर चुनाव लड़ने देहरा पहुंचे है। हालाँकि धवाला का घर देहरा निर्वाचन क्षेत्र में आता है लेकिन उनकी कर्म भूमि ज्वालामुखी ही रही है। ऐसे में बेशक धवाला वापस घाट लौट आये हो लेकिन घरवालों ने भी क्या वोटों से उनका स्वागत किया है, ये फिलवक्त बड़ा सवाल है। वहीं कांगड़ा में किस्मत आजमाने के बाद कांग्रेस नेता डॉ राजेश शर्मा ने तो देहरा में घर भी बना लिया। जैसा अपेक्षित था डॉक्टर साहब ही इस बार देहरा से कांग्रेस उम्मीदवार रहे। पिछले चुनाव में कांग्रेस के तरफ से देहरा में वरिष्ठ नेता विप्लव ठाकुर मैदान में थी और उनकी जमानत जब्त हुई थी। पर इस बार ऐसे हाल नहीं है और राजेश शर्मा की दावेदारी दमदार दिख रही है। इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आठ दिसंबर को देहरा में कांग्रेस की वापसी हो। देहरा में तीसरा और अहम नाम है होशियार सिंह का। चुनाव से पहले देहरा से निर्दलीय विधायक होशियार सिंह भाजपा में शामिल हुए। इसे भाजपा की बड़ी जीत के तौर पर देखा गया और लग रहा था मानों इस बार देहरा से होशियार सिंह ही भाजपा के प्रत्याशी होंगे। मगर भाजपा ने होशियार सिंह को गच्चा दे दिया। पार्टी ने होशियार सिंह नहीं बल्कि रमेश धवाला को टिकट दिया और होशियार सिंह को एक बार फिर से बतौर निर्दलीय मैदान में उतरना पड़ा। होशियार सिंह इस बार भी दोनों ही राजनैतिक दलों को कड़ी टक्कर देते हुए दिखाई दे रहे है और देहरा में मुकाबला रोचक हो चला है। देहरा के चुनाव में दो नामो का जिक्र और जरूरी है। एक है निर्दलीय चुनाव लाडे वरुण कुमार और दूसरे है आम आदमी पार्टी के प्रत्यशी कर्नल मनीष। माहिर मान रहे है कि ये दोनों भी इस चुनाव में अपनी उपस्तिथि दर्ज करवाने में कामयाब रहे है और इनके द्वारा लिए गए वोट इस चुनाव में जीत-हार के समीकरण बदल सकते है। विशेषकर वरुण कुमार पर निगाह रहने वाली है कि उन्होंने कहाँ और कितनी सेंध लगाईं है।कुल मिलाकर इस बार देहरा का चुनाव बेहद रोचक है और यहाँ नतीजों से पहले जीत हार को लेकर कयासबाजी चरम पर है। आठ दिसम्बर को नतीजा आएगा और ये देखना भी रोचक होगा कि क्या धवाला को यहाँ से चुनाव लड़वाने का भाजपा का दाव उल्टा पड़ने वाला है।
शिलाई विधानसभा सीट पर अब तक हुए 11 विधानसभा चुनाव में से 9 बार एक ही परिवार ने राज किया है। ये सीट कांग्रेस का गढ़ रही है। इस सीट पर गुमान सिंह चौहान का दबदबा रहा है और गुमान सिंह के बाद उनकी सियासत की विरासत को उनके बेटे हर्षवर्धन सिंह चौहान ने आगे बढ़ाया है। दिलचस्प बात ये है कि इस सीट पर गुमान सिंह चौहान अपराजित रहे। वे 1972 से 1985 तक लगातार चार चुनाव जीते। फिर 1990 में इस सीट से उनके बेटे हर्षवर्धन चौहान ने चुनाव लड़ा लेकिन तब भाजपा-जनता दल की लहर में वे अपना पहला चुनाव ही हार गए। पर इसके बाद 1993 से 2007 तक हर्षवर्धन फिर जीतते रहे। 2012 में हर्षवर्धन दूसरी बार चुनाव हारे, हालांकि 2017 में वे फिर जितने में कामयाब रहे। अब पांच बार विधायक रहे हर्षवर्धन आठवीं बार इस सीट से मैदान में है और अपनी छठी जीत को लेकर आश्वस्त भी। उनका सामना हुआ है भाजपा के बदलेव तोमर से, वो ही बलदेव तोमर जिन्होंने 2012 में हर्षवर्धन को पटकनी दी थी। हालांकि इसके बाद 2017 में बलदेव हारे थे लेकिन इस बार भाजपा भी आश्वस्त है कि बलदेव फिर बल दिखाएंगे। दरअसल इस बार हाटी फैक्टर ने शिलाई के सियासी समीकरण पूरी तरह से बदल दिए है। हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने के फैसले का इस विधानसभा क्षेत्र में सीधा असर है। जानकारी के अनुसार इस विधानसभा क्षेत्र में 58 पंचायतों के 95 गांवों के 66,775 लोग इससे प्रभावित होते है। पर इस विधानसभा क्षेत्र में 30,450 एससी समुदाय के लोग भी है, जो इस फैसले से नाखुश दिखे है। पर भाजपा ने इन्हें इसके दायरे से बाहर रखने का आश्वान देते हुए इन्हें साधने का भी प्रयास किया है। इस चुनाव में भाजपा ने मुद्दे को जमकर भुनाने की कोशिश की है। बाकायदा सतौन में गृह मंत्री अमित शाह का कार्यक्रम आयोजित करवाया गया। पर इसका कितना चुनावी लाभ भाजपा को मिला, ये तो नतीजे ही तय करेंगे। शिलाई का चुनाव इस बार इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्यों कि हर्षवर्धन के लिए ये सिर्फ विधायक बनने का चुनाव नहीं है। दरअसल हर्षवर्धन चौहान भी मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में शामिल है। अगर वे मुख्यमंत्री नहीं भी बनते तो भी उन्हें अहम् दायित्व मिलना तय है। बहरहाल मुख्यमंत्री पद की आस बरकरार रखने के लिए पहले हर्षवर्धन का विधायक बनना जरूरी है। मतदान हो चूका है और शिलाई विधानसभा सीट पर मुकाबला कांटे का दिख रहा है। फिलहाल नतीजों के लिए 8 दिसम्बर का इंतज़ार जारी है।
"जयराम ठाकुर ने सिर्फ सिराज का विकास किया है, उनके राज में सिर्फ सिराज में ही काम हुआ है।"... ये हम नहीं कह रहे है ये तो कांग्रेस कहती आ रही है। अक्सर कांग्रेस जयराम ठाकुर को सिर्फ सिराज का मुख्यमंत्री कहती रही है। यानी एक किस्म से कांग्रेस भी मानती रही है कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने सिराज में विकास के काम करवाएं है। ऐसे में अगर सिराज की जनता ने विकास के नाम पर वोट किया है, तो नतीजा क्या होगा ये सभी जानते है। वैसे भी सिराज की जनता ने 1998 से जयराम ठाकुर की ही जय बोली है। पांच बार के विधायक और मौजूदा मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर अब यहाँ से जीत का छक्का लगाने को लेकर आश्वस्त है। उधर कांग्रेस ने उनके मुकाबले चेतराम को मैदान में उतारा है। सिराज सीट का इतिहास बेहद रोचक है। 2008 के परिसीमन से पहले ये सीट चच्योट के नाम से जानी जाती थी। ये टेरिटोरियल काउंसिल के अध्यक्ष रहे ठाकुर कर्म सिंह का भी निर्वाचन क्षेत्र रहा है। वे यहाँ से 1967 और 1972 में विधायक रहे। ठाकुर कर्म सिंह डा. परमार की कैबिनेट में वित्त मंत्री थे। वे विधानसभा अध्यक्ष के अलावा विभिन्न विभागों के मंत्री भी रहे। पर दिलचस्प बात ये है कि वर्ष 1962 में ठाकुर कर्म सिंह मुख्यमंत्री पद के भी दावेदार थे। माना जाता है कि उस वक्त अधिकांश विधायकों का समर्थन भी उनके साथ था। बावजूद इसके वे डॉ. यशवंत सिंह परमार से इस दौड़ में पिछड़ गए। ठाकुर कर्म सिंह के अलावा यहाँ की सियासत में दूसरा बड़ा नाम रहा मोती राम का जो चार बार विधायक बने। मोती राम 1977 में जनता पार्टी से जीते, 1982 में निर्दलीय, 1990 में जनता दल से और 1993 में कांग्रेस से। वह परिवहन व कृषि मंत्री रहे। जयराम ठाकुर अपना पहला चुनाव 1993 में मोतीराम के खिलाफ ही हारे थे। सिराज के सियासी अतीत का जिक्र करते हुए पंडित शिवलाल का जिक्र भी जरूरी है। वे 1985 में कांग्रेस के विधायक बने। उन्होंने प्रदेश में सहकारिता आंदोलन को बढ़ावा दिया और वह प्रदेश राज्य सहकारी बैंक और भूमि विकास बैंक के अध्यक्ष भी रहे। बाद में उन्होंने सीडी सहकारी बैंक की स्थापना की। इसमें सैकड़ों लोगों को रोजगार मिला हुआ है। बहरहाल मौजूदा स्थिति पर लौटते है। 1998 से लगातार यहाँ चुनाव जीतते आ रहे जयराम ठाकुर जीतेंगे या नहीं, राजनीतिक गलियारों में ये चर्चा नहीं है। चर्चा दरअसल ये है कि जयराम ठाकुर कितने वोटों से जीतेंगे। क्या जयराम इस बार रिकॉर्ड अंतर से ये सीट अपने नाम करेंगे। बहरहाल जनता अपना वर्डिक्ट दे चुकी है और सभी सवालों का जवाब आठ दिसम्बर को मिलेगा।
काँगड़ा विधानसभा क्षेत्र में इस बार गजब की सियासत देखने को मिली है। यहां कौन भाजपाई है और कौन कांग्रेसी, समझना बड़ा मुश्किल हो गया। चुनाव से पहले नेताओं ने पार्टियां भी बदली और विचारधाराएं भी। यहां कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष और सीटिंग विधायक काजल चुनाव से पहले भाजपा के हो गए और भाजपाई खेमे से चौधरी सुरेंद्र काकू ने कांग्रेस में घर वापसी कर ली। पवन काजल काँगड़ा से दो बार विधायक रहे है। 2012 में काजल निर्दलीय चुनाव जीत कर विधायक बने और 2017 में काजल कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ कर विधानसभा पहुंचे। इस बार कांग्रेस ने काजल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया और काजल ने चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। काजल भाजपा में शामिल हुए और चुनाव भी भाजपा टिकट पर ही लड़ा। हालांकि काजल को टिकट देने पर भाजपा मंडल ने उनका कड़ा विरोध किया, कुछ नेताओं को मना लिया गया लेकिन कुछ नेता आखिर तक नही माने। भाजपा से नाराज़ होकर कुलभाष चौधरी ने इस दफा आजाद चुनाव लड़ा है। वहीं कांग्रेस ने इस बार पूर्व विधायक चौधरी सुरेंद्र काकू को मैदान में उतारा है। काँगड़ा विधानसभा सीट के अतीत पर निगाह डाले तो यहां 1982 से 1990 तक भाजपा के विद्यासागर चौधरी ने जीत की हैट्रिक लगाई है। 1993 में यहाँ कांग्रेस के दौलत राम को जीत मिली थी, लेकिन पांच साल बाद 1998 में विद्यासागर चौधरी ने फिर इस सीट को भाजपा की झोली में डाला। 2003 में कांग्रेस के सुरिंदर काकू ने यहाँ जीत दर्ज की। 2007 में सत्ता परिवर्तन हुआ और बसपा के संजय चौधरी ने यहाँ जीत का परचम लहराया। फिर 2012 में निर्दलीय रहे पवन काजल ने यहां जीत हासिल की और पिछले विधानसभा चुनाव यानि 2017 में पवन काजल ने कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ा और जीता भी। इस बार भी काँगड़ा सीट पर काजल सहज दिख रहे है। पवन काजल अपने क्षेत्र में लोकप्रिय नेता है। ऐसे में जाहिर है काजल को लेकर किसी तरह की कोई नाराज़गी भी नहीं दिखती है। विरोध के बावजूद काजल अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। अगर काजल जीते तो वे तीसरी बार विधायक बनेंगे और दिलचस्प बात ये है कि वे अलग-अलग सिंबल से चुनाव लड़ कर जीत की हैट्रिक लगाने वाले विधायक होंगे। उधर कांग्रेस, भाजपा की बगावत और संभावित भीतरघात में जीत की किरण देख रही है।
1990 की शांता लहर में इस सीट से एक निर्दलीय उम्मीदवार जीता। फिर 1993 में कांग्रेस जीती, 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस, 2003 में लोकतांत्रिक मोर्चा और 2007, 2012 और 2017 में भाजपा। हम बात कर रहे है जिला मंडी के धर्मपुर निर्वाचन क्षेत्र की। खास बात ये नहीं है कि पिछले सात चुनाव में यहाँ की जनता पांच अलग अलग चुनाव चिन्ह के साथ गई है, खास ये है कि चिन्ह कोई भी रहा हो उम्मीदवार हर मौके पर एक ही रहा है। ये नेता है महेंद्र सिंह ठाकुर। शायद ही कोई और नेता ऐसा हो जो अपने राजनीतिक जीवन के सात चुनाव में से पांच अलग-अलग सिंबल पर जीता हो। दिलचस्प बात ये है कि 1990 से 2003 तक हर बार महेंद्र सिंह ठाकुर की राजनीतिक निष्ठा बदली, पर बावजूद इसके वे जीते। दल बेशक बदलते रहे लेकिन जनता का भरोसा महेंद्र सिंह पर बरकरार रहा है। हालांकि पिछले तीन चुनाव वे भारतीय जनता पार्टी से ही जीते है। इस बार वे लम्बे अर्से बाद चुनावी मैदान में नहीं है और उनकी सीट से अब उनके बेटे रजत ठाकुर ने चुनाव लड़ा है। इसे महेंद्र सिंह ठाकुर का सियासी तिलिस्म ही कहेंगे कि वे जयराम कैबिनेट के सबसे शक्तिशाली मंत्री माने जाते है। कोई उन्हें नंबर टू कहता है तो कोई पर्दे के पीछे का सीएम। दिलचस्प बात ये है कि इस बार महेंद्र सिंह अपने बेटे रजत ठाकुर के लिए टिकट मांग रहे थे और माहिर मानते थे कि परिवारवाद के नाम पर कांग्रेस को अक्सर घेरने वाली भाजपा ऐसा नहीं कर पायेगी। पर भाजपा ने रजत ठाकुर को टिकट दे दिया, इससे महेंद्र सिंह ठाकुर के रसूख का अंदाज लगाया जा सकता है। वैसे बता दें कि इस सीट से नरेंद्र अत्रि भी टिकट के प्रबल दावेदार थे। बहरहाल टिकट तो रजत ले आएं लेकिन इस बार धर्मपुर की जंग दिलचस्प दिख रही है। कांग्रेस ने तो यहाँ दमखम से चुनाव लड़ा ही है, भाजपा के भीतर भी सब कुछ कण्ट्रोल में है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अब धर्मपुर की सियासत के सिकंदर रहे महेंद्र सिंह के बेटे का मुक्कदर ईवीएम में कैद हो चुका है और आठ दिसम्बर को नतीजा सामने होगा। उधर कांग्रेस को इस सीट पर अंतिम बार 1993 में जीत मिली थी और दिलचस्प बात ये है कि तब कांग्रेस उम्मीदवार थे महेंद्र सिंह ठाकुर। इसके बाद हुए पांच चुनाव में कांग्रेस ने महेंद्र सिंह के आगे पानी नहीं मांगा। बीते तीन चुनाव पर नज़र डाले तो 2007 में पार्टी यहाँ दस हज़ार वोट से हारी। 2012 में पार्टी ने बेहतर किया और ये अंतर करीब एक हजार वोट का रह गया, पर 2017 में फिर बढ़कर करीब दस हजार पहुंच गया। तीनों मर्तबा पार्टी के कैंडिडेट थे चंद्रशेखर। इस बार फिर पार्टी ने चंद्रशेखर को ही मौका दिया है। चंद्रशेखर को लेकर इस बार थोड़ी सहानुभूति भी दिखी है। ऐसे में यहाँ अर्से बार कांग्रेस वापसी की उम्मीद में है।
कभी मेवा विस क्षेत्र के नाम से मशहूर रही भोरंज सीट के अतीत पर निगाह डालें तो ये सीट भाजपा के लिए सच में मेवा ही रही है। कहते है की एक शिक्षक ने लंबे समय तक इस विधानसभा क्षेत्र की सेवा की जिसका मेवा भाजपा को मिला। अध्यापन से राजनीति में आए ईश्वर दास धीमान यहां से लगातार छह बार विधायक रहे और दो बार प्रदेश के शिक्षा मंत्री भी रहे। बेशक वर्ष 2008 में विधानसभा पुनर्सीमांकन के बाद इस विधानसभा क्षेत्र का नाम भोरंज हो गया, लेकिन भाजपा का सिक्का यहां चलता रहा। जब तक आईडी धीमान जीवित रहे भोरंज में भाजपा के लिए सब ठीक था। उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे अनिल धीमान को 2017 में टिकट मिला और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होते हुए भी वह सीट निकाल गए। बेशक डॉ अनिल धीमान ने कांग्रेस सरकार के रहते हुए उपचुनाव जीतकर भाजपा की जीत की परंपरा को आगे बढ़ाया था लेकिन उसी विधानसभा चुनाव में विधायक रहते हुए भी उनका टिकट काटकर भाजपा ने कमलेश कुमारी को दे दिया। जयराम सरकार में फिर भाजपा ने कमलेश कुमारी को उप मुख्य सचेतक बनाकर उन्हें मजबूत करने की कोशिश भी की, लेकिन दूसरी ओर डॉक्टर अनिल धीमान और उनके समर्थक खोई हुई राजनीतिक जमीन को पाने के लिए मैदान में डटे रहे। डॉ अनिल धीमान ने सार्वजनिक मंच से यह घोषणा कर दी है कि अगर भाजपा ने उनको टिकट नहीं दिया तो वह निर्दलीय मैदान में उतरेंगे। नतीजन इस बार भाजपा ने यहां से सीटिंग विधायक कमलेश कुमारी का टिकट काटकर डॉ अनिल धीमान पर भरोसा जताया है। पर भाजपा के बागी पवन कुमार ने यहां से निर्दलीय चुनाव लड़ा है, जो इस बार यहाँ के समीकरण बदल सकता है। भोरंज में कांग्रेस की बात की जाए तो यहां पार्टी कभी भी ना तो सहज दिखी है न ही स्थिर। पार्टी हर बार चेहरे बदलती रही जिसका खामियाजा पार्टी को भुगतान पड़ा। पर इस बार पार्टी ने यहां 2017 के प्रतयाशी सुरेश कुमार को ही फिर टिकट दिया है। वहीं पार्टी काफी हद तक एकजुट भी दिखी है। ऐसे में 1990 से लगातार आठ बार हार के बाद इस बार यहां कांग्रेस बेहतर करती दिख रही है।
आज विश्लेषण करते है कुटलैहड़ विधानसभा क्षेत्र का और वर्तमान चुनाव से पहले बात करते है कुटलैहड़ के इतिहास से जुड़े एक महत्वपूर्ण सियासी अध्याय की। दरअसल इसी निर्वाचन क्षेत्र से ठाकुर रणजीत सिंह तीन बार विधायक रहे है। पहली बार 1967 में वे निर्दलीय चुनाव जीते। दूसरी बार 1982 में जनता पार्टी के टिकट पर और तीसरी बार 1990 में जनता दल प्रत्याशी के तौर पर। वे 1977 की जनता लहर में हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद भी चुने गए। दिलचस्प बात ये है कि 1977 में जा हिमाचल प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार आई तो रंजीत सिंह भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। तब निर्दलीयों सहित कुल 59 विधायक सरकार के समर्थन में थे और इनमें से 29 की पसंद शांता कुमार थे और 29 की पसंद ठाकुर रंजीत सिंह। तब अपने ही वोट से शांता कुमार मुख्यमंत्री बने। अगर तब रंजीत सिंह भी विधानसभा का चुनाव लड़ा होते तो शायद कुटलैहड़ को मुख्यमंत्री मिल गए होता। बताया जाता है कि तब जिला ऊना के दो विधायकों ने रणजीत सिंह को इसलिए वोट नहीं दिया था क्योंकि अगर वह मुख्यमंत्री चुने जाते तो उन्हें छह माह में सांसद का पद छोड़कर विधानसभा चुनाव लड़ना जरूरी था। अपने राजनीतिक भविष्य से चिंतित जिले के दो विधायकों ने ठाकुर रणजीत सिंह के पक्ष वोट न करते हुए शांता कुमार को वोट दिया था। अब आते है मौजूदा चुनाव पर। लगातार सात चुनाव हारने के बाद क्या इस बार कुटलैहड़ में कांग्रेस वापसी कर पायेगी ? क्या चार बार के विधायक और जयराम कैबिनेट में मंत्री वीरेंद्र कंवर को लगातार पांचवीं जीत दर्ज करने से कांग्रेस रोक पायेगी ? इस सवाल का जवाब तो आठ दिसम्बर को ही मिलेगा लेकिन इतना तय है कि नतीजा जो भी हो इस बार कुटलैहड़ में मुकाबला बेहद कड़ा है। कुटलैहड़ एक ऐसी विधानसभा सीट है जहाँ दशकों से भाजपा का एकछत्र राज रहा है और कांग्रेस हमेशा कमजोर रही है। 1967 से लेकर अब तक यहां कांग्रेस सिर्फ 2 बार जीत दर्ज कर पायी है। पार्टी को आखिरी बार 1985 में यहाँ जीत नसीब हुई थी। अब इस बार कांग्रेस यहाँ जीत की आस में है। दरअसल, कुटलैहड़ के लिए कहा जाता है कि यदि यहाँ कांग्रेस एकजुट हो कर चुनाव लड़ती तो शायद यहाँ का सियासी इतिहास कुछ और होता और इस बार कुछ ऐसे ही समीकरण बनते भी दिख रहे है। इस बार कांग्रेस के देवेंद्र कुमार भुट्टो यहाँ से मैदान में है जिन्हें वीरेंद्र कँवर का राइट हैंड माना जाता था, लेकिन बदली राजनीतिक परिस्थितियों में चुनावी रण में दोनों एक-दूसरे के सामने हैं। इस बार मोटे तौर पर कांग्रेस एकजुट भी दिखी है और ऐसे में पार्टी को देवेंद्र कुमार भुट्टो से करिश्मे की आस है। अब भुट्टो 32 वर्षों से चले आ रहे जीत के सूखे को खत्म करते हैं या फिर वीरेंद्र कंवर कांग्रेस के चक्रव्यूह को तोड़कर 5वीं दफा विधायक बनते हैं, ये तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। बहरहाल यहाँ मुकाबला कांटे का दिख रहा है।
बल्ह में इस बार मुकाबला बेहद दिलचस्प दिख रहा है। यहाँ दो पुराने प्रतिद्वंदी तीसरी बार आमने-सामने है। भाजपा ने यहाँ से सीटिंग विधयक इन्द्र सिंह को फिर मैदान में उतारा है, तो कांग्रेस ने पूर्व मंत्री प्रकाश चौधरी को। 2012 में दोनों पहली बार आमने-सामने थे और तब प्रकाश चौधरी की जीत हुई। इसके बाद चौधरी वीरभद्र सरकार में मंत्री भी रहे लेकिन 2017 में उन्हें इंद्र सिंह ने हरा दिया। अब इस बार चौधरी फिर वापसी की उम्मीद में है। बल्ह विधानसभा सीट का इतिहास भी बेहद रोचक रहा है। 1967 से 2017 तक यहाँ पांच दफा कांग्रेस, तो तीन दफा भाजपा को जीत मिली है। इसके अलावा यहां माकपा, जनता दल और हिमाचल विकास कांग्रेस पार्टी ने भी जीत का परचम लहराया है। भाजपा के दामोदर दास वो नेता है जिन्होंने पहली बार 1990 में बल्ह विधानसभा सीट पर कमल खिलाया था। फिर 1998 में जब स्वर्गीय पंडित सुखराम ने हिमाचल विकास कांग्रेस पार्टी का गठन किया तो बल्ह से प्रकाश चौधरी ने हिमाचल विकास कांग्रेस पार्टी से चुनाव लड़ा और जीता भी। इसके बाद 2003 में दामोदर दास ने हिमाचल विकास कांग्रेस पार्टी के प्रकाश चौधरी को हराकर यहाँ भाजपा का परचम लहराया। फिर प्रकाश चौधरी कांग्रेस में शामिल हो गए और 2007 व 2012 में बल्ह सीट पर जीत हासिल कर ये सीट कांग्रेस की झोली में डाली। पिछले विधानसभा चुनाव में इंद्र सिंह गाँधी ने यहां जीत हासिल की और एक बार फिर वे ही मैदान में है। कांग्रेस प्रत्याशी प्रकाश चौधरी निसंदेह एक अनुभवी नेता है और इस बार उन्होंने पुरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा है। ये उनका छठा चुनाव है और अब तक उन्हें तीन बार जीत मिली है। वे दो बार मंत्री रहे है और दिलचस्प बात ये है कि मंत्री बनने के बाद अगला चुनाव वे हारे है। बहरहाल इस बार चौधरी फिर जीत को लेकर आश्वस्त है। उधर इंद्र सिंह भी जीत का दावा कर रहे है। मंडी संसदीय उपचुनाव में भी इस क्षेत्र में भाजपा को लीड मिली थी, ऐसे में उन्हें भी हल्का नहीं आंका जा सकता।
गगरेट निर्वाचन क्षेत्र का चुनाव इस बार बेहद रोचक दिखा है। दरअसल चुनाव से कुछ दिन पहले तक यहाँ सबसे बड़ी चर्चा ये नहीं थी कि इस बार कौन जीतेगा, चर्चा ये थी कि चैतन्य शर्मा किस पार्टी में शामिल होंगे। दरअसल चैतन्य शर्मा जिला परिषद चुनाव में रिकाॅर्ड मतों से आजाद चुनाव जीते थे और इस क्षेत्र में लगातार समाजसेवा कर रहे थे। चैतन्य विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान भी कर चुके थे सो उन्हें लेकर जिज्ञासा होने स्वाभाविक था। आखिरकार चुनावी बेला में तमाम कयासों पर विराम लगा और चैतन्य ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया। जैसा अपेक्षित था कांग्रेस ने चैतन्य शर्मा को ही टिकट दिया। इससे पूर्व विधायक राकेश कालिया खफा हो गए और भाजपा में चले गए। उधर भाजपा ने सीटिंग विधायक राजेश ठाकुर पर ही यहाँ से दाव खेला है। बहरहाल यहाँ मुख्य मुकाबला कांग्रेस के चैतन्य शर्मा और भाजपा के राजेश ठाकुर के बीच दिख रहा है। इतिहास पर निगाह डालें तो कभी इस सीट पर कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व मंत्री कुलदीप कुमार का वर्चस्व था। कुलदीप ने यहां से 1993, 1998 और 2003 में जीत की हैट्रिक लगाई लेकिन 2007 में गगरेट की जनता ने उन्हें नकार दिया। फिर 2008 में परिसीमन हुआ और चिंतपूर्णी विधानसभा क्षेत्र की कुछ पंचायतें गगरेट में आ गई और गगरेट का कुछ क्षेत्र चिंतपूर्णी में चला गया। परिसीमन के बाद चिंतपूर्णी सीट भी आरक्षित हो गई और इसी के चलते 2012 के चुनाव में कांग्रेस ने एक सियासी प्रयोग करते हुए चिंतपूर्णी के विधायक राकेश कालिया को गगरेट और कुलदीप कुमार को चिंतपूर्णी से मैदान में उतारा। प्रयोग सफल रहा और दोनों सीटें कांग्रेस की झोली में गई, लेकिन 2017 आते -आते इन दोनों नेताओं से जनता का मोहभंग हुआ और दोनों चुनाव हार गए। अब इस बार गगरेट में कांग्रेस वापसी की जद्दोजहद में है तो भाजपा के लिए इस सीट पर कब्ज़ा बरकरार रखना चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि राजेश ठाकुर को लेकर क्षेत्र में एंटी इंकम्बैंसी भी दिखती रही है जिसका खामियाज़ा भाजपा को भुगतना पड़ सकता है। यहाँ राकेश कालिया के भाजपा में जाने का कितना फर्क पड़ता है ये भी देखना रोचक होगा। उधर चैतन्य लगातार क्षेत्र में समाज सेवा करते रहे है जिसका लाभ उन्हें मिल सकता है। बहरहाल सवाल ये ही है कि क्या सीटिंग विधायक राजेश ठाकुर और पूर्व विधायक राकेश कालिया मिलकर चैतन्य को रोक पाएं है ? इसका जवाब तो आठ दिसम्बर को ही मिलेगा।
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा इसी सीट से तीन बार विधायक रहे। 1993 में इसी सीट से वे पहली बार विधानसभा पहुंचे और विपक्ष के नेता भी बन गए। हम बात कर रहे है बिलासपुर सदर सीट की। ये खुद नड्डा की सीट रही है तो ऐसे में जाहिर है यहाँ भाजपा की जीत - हार को भी सीधे नड्डा की राजनैतिक प्रतिष्ठता से जोड़ा जायेगा। इतिहास पर नज़र डाले तो भाजपा की स्थापना के बाद से ही इस सीट पर पार्टी का दबदबा रहा है। 1982 से 2017 तक हुए 9 विधानसभा चुनावों में 6 बार भाजपा तो 3 बार कांग्रेस को इस सीट पर जीत मिली है। जेपी नड्डा ने खुद इस सीट से चार दफा चुनाव चुनाव लड़ा है। 1993 और 1998 में नड्डा ने इस सीट पर जीत दर्ज की लेकिन 2003 के विधानसभा चुनाव में नड्डा को हार का सामना करना पड़ा था। 2007 में जेपी नड्डा ने इस सीट से अपना आखिरी चुनाव लड़ा था तब नड्डा ने फिर फतह हासिल की थी। 2012 में इस सीट पर कांग्रेस के बंबर ठाकुर ने जीत हासिल की थी। वहीं पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के सुभाष ठाकुर ने कांग्रेस के बंबर ठाकुर को मात देकर जीत दर्ज की और ये सीट फिर भाजपा की झोली में चली गयी।अब आते है मौजूदा चुनाव पर। इस बार भाजपा ने सीटिंग विधायक सुभाष ठाकुर का टिकट काटकर प्रदेश महामंत्री त्रिलोक जम्वाल पर दांव खेला है। इसके बाद भाजपा सुभाष ठाकुर को तो मनाने में कामयाब रही लेकिन एक अन्य टिकट के चाहवान सुभाष शर्मा ने निर्दलीय ताल ठोक दी। यानी इस बार नड्डा के घर में भी बगावत को भाजपा रोक नहीं पाई। उधर कांग्रेस ने गहन चिंतन मंथन के बाद बम्बर ठाकुर को ही टिकट दिया है। अब भाजपा की बगावत का कितना लाभ बम्बर ठाकुर को मिलता है, ये तो चुनाव के नतीजे ही बताएँगे। बहरहाल इस सीट पर कांटे का मुकाबला है और यदि कांग्रेस जीत दर्ज करती है तो स्वाभाविक है भाजपा के भीतर भी कई सवाल उठेंगे।
भटियात विधानसभा सीट पर पुराने प्रतिद्वंदी एक बार फिर आमने-सामने है। भाजपा से यहाँ विक्रम जरियाल मैदान में है, तो कांग्रेस से कुलदीप पठानिया। पिछले दो चुनावों के नतीजों पर गौर करे तो यहाँ विक्रम जरियाल कमल खिलाने में सफल रहे है। कुलदीप 2012 में सिर्फ 112 वोट से हारे थे, जबकि 2017 में ये अंतर सात हजार के करीब था। 2017 में चुनाव जीतने के बाद भाजपा विधायक विक्रम जरियाल को मंत्री पद का दावेदार भी माना जा रहा था, लेकिन भाजपा ने जिला से चुराह विधायक हंसराज को डिप्टी स्पीकर बनाया और जरियाल के हाथ खाली रहे। अब फिर जरियाल जीत की हैट्रिक लगाने को मैदान में है। इस बार भी यहाँ नजदीकी मुकाबला देखने को मिल रहा है। विक्रम जरियाल और कुलदीप पठानिया के बीच कांटे का मुकाबला अपेक्षित है। भटियात विधानसभा में राजपूत व अनुसूचित जाति के मतदाताओं की बहुलता है। अगर 2012 के विधानसभा को देखें तो जरियाल यह चुनाव सिर्फ 112 मतों से जितने में सफल रहे थे, जबकि चार बार के विधायक रहे पठानिया आसानी से हार गए थे। इसका कारण था यहाँ से निर्दलीय उम्मीदवार रहे भूपिंदर सिंह चौहान, जिन्होंने दस हज़ार के आस-पास मत प्राप्त किये थे। साफ़ तौर पर मतों का विभाजन यहाँ दिखता है। 2017 में फिर जरियाल को यहाँ के लोगों ने विधानसभा पहुँचाया। पर इस बार भटियात में विक्रम जरियाल की राह आसान नहीं दिख रही। दरअसल प्रदेश की अपनी ही सरकार होने के बावजूद भटियात क्षेत्र के लिए कोई बड़ी उपलब्धि लाना भी उनके लिए दूर की कौड़ी साबित हुआ है। कांगड़ा और चंबा की सीमा से लगते इस विधानसभा क्षेत्र के बाबत अगर बुनियादी सुविधाओं की बात की जाए तो अच्छे स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए यहाँ के बाशिंदों को टाँडा मेडिकल कॉलेज कांगड़ा और धर्मशाला का रुख करना पड़ता है। अगर इस क्षेत्र के स्वास्थ्य केंद्रों, आयुर्वेदिक डिस्पेंसरियो, प्लस टू किए गए स्कूलों की उद्घाटन पट्टिकाओं पर नज़र डालें तो ज्यादातर पर कुलदीप पठानिया का नाम दर्ज है। भटियात के इतिहास पर निगाह डाले तो किसी भी नेता ने यहाँ जीत की हैट्रिक नहीं लगाईं है। शिव कुमार यहाँ से 1977 और 1982 में जीते लेकिन 1985 का चुनाव हार गए। हालांकि 1990 में वे फिर जीते। इसी तरह 1985 और 1993 में जीतने के बाद कुलदीप पठानिया 2003 और 2007 में लगातार दो चुनाव जीते लेकिन 2012 में हार गए। अब विक्रम जरियाल यहाँ से लगातार दो चुनाव जीत चुके है और यदि इस बार भी जीते तो वे यहाँ जीत की हैट्रिक लगाने वाले पहले नेता होंगे।
प्रदेश की सियासत में डॉक्टरों का चुनाव लड़ना पुराना रिवाज रहा है। कई मौकों पर डॉक्टर मरीजों की नब्ज जांचते जांचते चुनावी बैटल फील्ड में उतरे है। 2017 में आईजीएमसी के डॉक्टर राजेश कश्यप वीआरएस लेकर सोलन से चुनाव लड़े थे और अब फुल टाइम पॉलिटिशियन बन चुके है। वहीं इस बार तो आईजीएमसी के एमएस रहे डॉ जनकराज ने वीआरएस लेकर जिला चम्बा की भरमौर सीट से चुनाव लड़ा है। प्रचार के दौरान स्टेथॉस्कोप थामे हुए डॉ जनकराज की कई तस्वीरें भी वायरल हुई। बहरहाल मतदान हो चूका है और डॉ जनकराज अब विधानसभा पहुंचने को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। हालांकि उनकी राह आसान बिलकुल नहीं है। जिस भरमौर सीट से डॉ जनकराज ने चुनाव लड़ा है ये कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व मंत्री ठाकुर सिंह भरमौरी का निर्वाचन क्षेत्र है। इस सीट से भरमौरी दसवीं बार मैदान में है और अब तक पांच बार जीत चुके है। 2017 में भरमौरी भाजपा के जिया लाल से चुनाव हार गए थे। वहीं इस बार उनके टिकट को युवा कांग्रेस के नेता सुरजीत भरमौरी ने चुनौती दी थी। पर पार्टी ने ठाकुर सिंह भरमौरी के अनुभव पर भरोसा जताया और उन्हें एक बार फिर मैदान में उतारा है। इस सीट को लेकर एक और रोचक तथ्य है। 1985 से लेकर यहां कोई भी पार्टी लगातार दो बार नहीं जीती और ठाकुर सिंह भरमौरी यहां एक चुनाव छोड़कर एक चुनाव जीतते आ रहे है। अब बात भाजपा की करते है। पिछले साल हुए मंडी संसदीय उपचुनाव में भरमौर विधानसभा सीट पर कांग्रेस को लीड मिली और भाजपा पिछड़ी। माना जाता है इसका खामियाज़ा सिटींग विधायक जियालाल को भुगतना पड़ा है और इस बार भाजपा ने यहाँ जियालाल का टिकट काट कर डॉ जनकराज को टिकट दिया है। जियालाल ने बगावत तो नहीं की और भाजपा बाहरी तौर पर एकजुट भी दिखी है। पर माहिर मानते है कि यहां भीतरघात हुआ है या नहीं, ये नतीजे ही तय करेंगे। बहरहाल इस सीट पर सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच है और यहां दोनों के बीच कांटे का मुकाबला दिख रहा है।'
शाहपुर विधानसभा क्षेत्र की सियासत भी शाही है। भाजपा, कांग्रेस, जनता पार्टी, जनता दल, निर्दलीय सभी को इस सीट पर जनता का साथ मिला है। इस सीट के पचास साल के इतिहास पर निगाह डाले तो 1972 में यहाँ कांग्रेस जीती, 1977 में जनता पार्टी, 1982 में आजाद, 1985 में कांग्रेस, 1990 में जनता दल, 1993 में कांग्रेस, 1998 में भाजपा और 2003 में फिर कांग्रेस। यानी 1972 से 2003 तक यहाँ किसी पार्टी ने रिपीट नहीं किया। पर 2007 से 2017 तक हुए तीनों चुनाव यहाँ बीजेपी जीती। ये तो बात हुई राजनीतिक दलों की। अब चेहरों पर आते है। कांग्रेस से यहां मेजर विजय सिंह मनकोटिया 1985, 1993 और 2003 में चुनाव जीते। पर ये ही मेजर मनकोटिया 1982 में निर्दलीय जीते थे, तो 1990 में जनता दल के टिकट पर। रोचक बात ये है कि वर्तमान में मेजर साहब भाजपाई हो चुके है। उधर भाजपा की बात करें तो 1998 से अब तक हुए 6 विधानसभा चुनाव में सरवीण चौधरी ही पार्टी का चेहरा रही है और 2003 के अलावा चार मौकों पर जीती है। वहीं वर्तमान चुनाव का परिणाम आना अभी बाकी है। अब मौजूदा दौर में कांग्रेस की बात करते है। मेजर मनकोटिया के कांग्रेस से बाहर होने के बाद कांग्रेस में एंट्री हुई केवल पठानिया की। 2007 में केवल पहली बार चुनाव लड़े और तीसरे स्थान पर रहे। तब दूसरे नंबर थी बहुजन समाज पार्टी। उधर 2012 आते -आते मेजर साहब फिर कांग्रेस में आ चुके थे और फिर कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़े, लेकिन जीत नहीं सके। पर 2017 तक फिर कांग्रेस और मेजर की राहें जुदा हो चुकी थी। ऐसे में 2017 में पार्टी ने फिर केवल पर दाव खेला। पर मेजर मनकोटिया भी निर्दलीय मैदान में थे। तब यहां केवल और मेजर की आपसी लड़ाई में बाजी सरवीण जीत गई। दिलचस्प बात ये है कि केवल तीसरे स्थान पर रहे। मौजूदा चुनाव की बात करें तो इस बार मेजर विजय सिंह मनकोटिया मैदान में नहीं है। वहीं भाजपा से एक बागी उम्मीदवार सरवीण चौधरी के खिलाफ मैदान में उतरे है। ऐसे में कांग्रेस के केवल सिंह पठानिया क्या इस बार जीत का स्वाद चख पाएंगे, इस पर सभी की नजरें है। पर अगर केवल अभी भी नहीं जीते तो ये उनकी तीसरी हार होगी और ऐसे में उनके राजनीतिक भविष्य पर सवाल उठना भी लाजमी होगा। हालांकि मंत्री सरवीण चौधरी को लेकर इस क्षेत्र में एंटी इंकम्बेंसी जरूर दिखी है। पर ऐसा पिछले दो चुनाव में भी था लेकिन, बावजूद इसके सरवीण आसानी से जीती थी। ऐसे में अब आठ दिसम्बर को क्या नतीजा आता है, इसका अनुमान अभी से लगाना मुश्किल है।
इस दफा ऊना जिला की हरोली सीट का चुनाव बड़े मायने रखता है। यह नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री की गृह सीट है। अग्निहोत्री कांग्रेस के तेज तर्रार नेताओं में से हैं, जो 5 साल भाजपा सरकार को विधानसभा के भीतर से लेकर बाहर तक घेरते रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई तो बड़ा सवाल था कि आखिर सदन में कांग्रेस की अगुवाई कौन करेगा ? निगाहें उम्रदराज वीरभद्र सिंह पर थी और उन्होंने अपना भरोसा जताया मुकेश अग्निहोत्री पर। अग्निहोत्री भी भरोसे पर खरा उतरे। वे चौथी बार के विधायक थे और वीरभद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रह चुके थे। वीरभद्र सिंह से सियासत की बारीकियां सीखते-सीखते आगे बढ़ रहे थे, सो मात कैसे खाते। सदन में मुकेश अग्निहोत्री ने दमदार तरीके से न सिर्फ कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया बल्कि हर मुमकिन मौके पर जयराम सरकार को भी जमकर घेरा। कभी पेशे से मुकेश अग्निहोत्री पत्रकार थे और जनसत्ता अखबार के लिए लिखा करते थे। तभी राजनीतिक खबरें लिखते-लिखते राजनीति ने न जाने कब मुकेश को अपने पाले में कर लिया और पत्रकारिता छोड़ अग्निहोत्री सियासी अखाड़े में उतर आएं। 2003 में वे संतोखगढ़ से अपना पहला चुनाव लड़े और विधानसभा पहुंच गए। 2007 में इसी सीट से दूसरी बार जीते। फिर नए परिसीमन के बाद अस्तित्व में आये हरोली विधानसभा क्षेत्र से वे 2012 और 2017 में चुनाव जीते। इस दौरान वे वीरभद्र सिंह के करीबी रहे और उन्हीं की सरपरस्ती में लगातार आगे बढ़ते रहे। अब इस बार मुकेश अग्निहोत्री ने पांचवी बार विधानसभा का चुनाव का लड़ा है और वे फिर अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। हरोली सीट की बात करें तो इस बार तीसरी बार मुकेश अग्निहोत्री और भाजपा के प्रो राम कुमार आमने सामने है। साल 2012 के विधानसभा चुनाव में मुकेश अग्निहोत्री ने भाजपा के राम कुमार को 5172 वोटों से हराया तो यही अंतर साल 2017 के चुनाव में 7377 हो गया। अब इस चुनाव में भाजपा ने हरोली सीट पर एड़ी चोटी का जोर लगाया है। जयराम सरकार के विकास कार्यों और केंद्र की बल्क ड्रग पार्क की सौगात के सहारे भाजपा उलटफेर की कोशिश में रही है। उधर मुकेश अग्निहोत्री ने भी निसंदेह हरोली में काफी विकास करवाया है। पर खास बात ये है कि उन्होंने भावी सीएम के टैग के साथ इस बार चुनाव लड़ा है। हालांकि बेशक खुद मुकेश अग्निहोत्री बार -बार सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात दोहराते रहे हो, लेकिन उनके समर्थक तो उन्हें भावी सीएम ही मानते रहे है। दरअसल यदि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनती है तो मुकेश अग्निहोत्री भी मुख्यमंत्री की रेस में है। जाहिर है ऐसे में हरोली सीट पर सबकी निगाह टिकी है। बहरहाल मुकेश अग्निहोत्री अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। ये है सीएम पद के दावेदार अब बात कर लेते है कांग्रेस में सीएम पद के दावेदारों की। कुछ माह पूर्व प्रदेश में हुए फेरबदल के दौरान कांग्रेस आलाकमान ने तीन नेताओं को महत्वपूर्ण जिम्मे दिए थे। प्रतिभा सिंह प्रदेश अध्यक्ष, सुखविंद्र सिंह सुक्खू चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष और मुकेश अग्निहोत्री नेता प्रतिपक्ष। जाहिर है ये तीनों कांग्रेस की सत्ता वापसी की स्थिति में सीएम पद के दावेदार है। इनके अलावा कौल सिंह ठाकुर, राम लाल ठाकुर, आशा कुमारी सहित कई और नाम है जिन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। जानकार मानते है कि होलीलॉज और मुकेश के बीच सीएम को लेकर एकराय दिख सकती है, चेहरा चाहे कोई भी हो। तब रणजीत सिंह नहीं कर पाएं, अब मुकेश पर निगाहें : ऊना जिला को कभी सीएम पद नहीं मिला है। हालांकि इतिहास में एक मौका ऐसा आया जब ऊना को सीएम पद मिलते-मिलते रह गया। 1977 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश में जनता पार्टी सत्ता में आई थी। तब जनता पार्टी को 53 सीटें मिली थी। जबकि कांग्रेस को महज 9 सीट मिली थी। उस चुनाव में 6 निर्दलीय भी जीते थे और सभी ने जनता पार्टी को समर्थन दिया। इस तरह जनता पार्टी के समर्थन में कुल विधायकों का आंकड़ा पहुंच गया 59। चुनाव के बाद बारी आई मुख्यमंत्री चुनने की। सीएम पद के लिए शांता कुमार का मुकाबला हमीरपुर के लोकसभा सदस्य ठाकुर रणजीत सिंह से था। ठाकुर रणजीत सिंह ऊना जिला के कुटलैहड़ से ताल्लुख रखते थे। तब सीएम पद के लिए एक गुट ने सांसद रणजीत सिंह का नाम आगे किया, तो दूसरे ने शांता कुमार के नाम का प्रस्ताव रखा। दोनों गुट सीएम पद पर समझौता करने को तैयार नहीं थे। ऐसे में वोटिंग ही इकलौता रास्ता रह गया था। शांता कुमार के अलावा कुल 58 विधायक थे और जब वोटिंग हुई तो इनमें से 29 ने शांता कुमार का समर्थन किया और 29 ने ठाकुर रणजीत सिंह का। इसके बाद जो हुआ वो इतिहास है। तब अपने ही वोट से शांता कुमार के समर्थक विधायकों का आंकड़ा 30 पंहुचा और इस तरह वे पहली बार मुख्यमंत्री बने। तब ऊना को सीएम पद मिलते-मिलते रह गया था। अब अगर मुकेश अग्निहोत्री सीएम पद तक पहुंच पाएं तो 45 वर्ष पहले टुटा जिला ऊना का अरमान पूरा होगा।
धर्मशाला प्रदेश की दूसरी "कागजी" राजधानी है। कहते है धर्मशाला में सियासत कभी थमती नहीं। इस चुनाव में भी धर्मशाला हॉट सीट बनी हुई है। ये कांग्रेस के दिग्गज नेता सुधीर शर्मा की सीट है और यहाँ इस बार भी सुधीर शर्मा ने पूरे दमखम से चुनाव लड़ा है। वहीं दूसरी ओर इस बार धर्मशाला में भाजपा ने सिटींग विधायक का टिकट काट कर हाल ही में आम आदमी पार्टी से भाजपा में लौटे राकेश चौधरी को मैदान में उतारा है। इस टिकट के बदलाव के चलते भाजपा ने यहां विरोध का सामना भी किया। पार्टी ने यहां सीटिंग विधायक विशाल नेहरिया को तो मना लिया, लेकिन पार्टी टिकट के एक अन्य चाहवान विपिन नेहरिया को नहीं मना पाई। विपिन नेहरिया भाजपा जनजातीय मोर्चा के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे है, परन्तु टिकट न मिलने पर उन्होंने बगावत कर दी और बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा। यूँ तो कांग्रेस में सुधीर शर्मा को टिकट मिलने से कई लोग नाराज थे, लेकिन उन्होंने खुल कर बगावत नहीं की। जानकर मानते है कि जितनी नाराजगी भाजपा में राकेश चौधरी को लेकर रही, उतनी ही नाराजगी कांग्रेस में सुधीर शर्मा को लेकर भी रही, बस फर्क रहा कि भाजपा की नाराजगी खुले तौर पर सामने आई और कांग्रेस की नाराजगी अंदर ही अंदर चलती रही। फिर भी यहाँ सुधीर शर्मा 2012 से 2017 के अपने कार्यकाल में करवाएं गए विकास कार्यों को लेकर दमखम से चुनाव लड़े है। उनका नारा 'सुधीर ही सुधार है' भी चर्चा में रहा और वे जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। सुधीर का दावा है कि धर्मशाला की जनता सुधार कर चुकी है और आठ दिसम्बर को वे फिर धर्मशाला के विधायक होंगे। उधर भाजपा अगर जीत दर्ज नहीं कर सकी तो कई सवाल उठेंगे। दरअसल सवाल तो अभी से उठ रहे है। 2019 में इसी धर्मशाला सीट पर उपचुनाव हुआ था और तब पार्टी ने विशाल नेहरिया को टिकट दिया था। विरोध में राकेश चौधरी ने निर्दलीय चुनाव लड़ा। हालांकि तब जीत विशाल की हुई लेकिन अब भाजपा ने तब बगावत करने वाले को ही टिकट दे दिया। इस पर राकेश चौधरी इस बीच आम आदमी पार्टी में जाकर भी वापस आएं है। फिर भी पार्टी को चौधरी में ही जीत की सम्भावना दिखी। अब चौधरी जीत गए तो ठीक, वरना अभी से पार्टी के भीतर उठे रहे सवाल भाजपा को बहुत चुभने वाले है।
1980 में भाजपा की स्थापना हुई थी और हिमाचल प्रदेश में 1982 के अपने पहले विधानसभा चुनाव में ही पार्टी ने 29 सीटों पर जीत दर्ज की थी। प्रदेश में पार्टी का जनधार लगातार बढ़ता रहा और एक- एक कर कांग्रेस के कई मजबूत गढ़ों में भाजपा ने सेंध लगाईं। पर एक सीट ऐसी है जिसे अब तक भाजपा जीत नहीं पाई है और ये सीट है रामपुर। इस सीट पर कांग्रेस सिर्फ 1977 की जनता लहर में हारी थी। इसके बाद हर बार यहाँ कांग्रेस ही जीती है। दरअसल रामपुर सीट पर रामपुर बुशहर रियासत के राजा और हिमाचल की सियासत के भी राजा रहे स्व वीरभद्र सिंह का ख़ासा प्रभाव रहा है। हालांकि आरक्षित होने के चलते इस सीट पर कभी राजपरिवार का कोई सदस्य खुद चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन चेहरा चाहे कोई भी रहा हो यहां वोट राजपरिवार के नाम पर ही पड़ते आएं है। अब वीरभद्र सिंह के निधन के बाद भी इस सीट पर राजपरिवार का प्रभाव दिखता है। पिछले साल हुए मंडी संसदीय उपचुनाव में भी इस सीट पर कांग्रेस को रिकॉर्ड लीड मिली थी। इस सीट के इतिहास पर निगाह डाले तो 1982 से लेकर 2003 तक यहाँ कांग्रेस के सिंघीराम ने लगातार जीत दर्ज की। सिंघीराम कभी वीरभद्र सिंह के करीबी थे, लेकिन दोनों में दूरियां बढ़ी तो 2007 में राज परिवार का आशीर्वाद नंदलाल को मिला। तब से नंदलाल तीन बार जीत चुके है और इस मर्तबा उन्होंने अपना चौथा चुनाव लड़ा है। पर इसी रामपुर सीट पर एक आंकड़ा कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है। 2003 के चुनाव में कांग्रेस 17247 वोट से इस सीट पर जीती थी। 2007 में कांग्रेस ने यहाँ से प्रत्याशी बदला, और नंदलाल को मैदान में उतारा। नंदलाल को जीत तो मिली लेकिन अंतर घटकर 6470 वोट का रह गया। 2012 में नंदलाल 9471 वोट से जीते, पर 2017 में अंतर 4037 वोट का ही रहा। अब इस बार इस क्षेत्र में नंदलाल को लेकर ख़ासा विरोध दिखा है। हालांकि होलीलॉज से नजदीकी नंदलाल के काम आई और वे फिर टिकट ले आए, किन्तु पहली बार इस सीट पर नजदीकी मुकाबले के कयास लग रहे है। उधर इस बार भाजपा ने रामपुर विधानसभा सीट से युवा चेहरे कौल सिंह नेगी को मैदान में उतारा है। इसमें कोई संशय नहीं है कि कौल सिंह नेगी ने पुरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा है। अब उनकी मुहीम रंग लाती है या नहीं, इसके लिए फिलवक्त आठ दिसंबर का इन्तजार करना होगा।
बड़सर विधानसभा सीट वो सीट है जहाँ अक्सर बगावत और भीतरघात के कारण राजनितिक दलों को हार का ही सामना करना पड़ा है। कभी ये सीट भाजपा की गढ़ थी। 1980 में भाजपा का गठन हुआ और उसके बाद 1982 में हुए पहले चुनाव में ही भाजपा ने यहाँ जीत के साथ खाता खोला था। 2007 तक यहाँ भाजपा सिर्फ दो चुनाव हारी थी,और 1998 से 2007 तक तीन चुनाव जीतकर बलदेव शर्मा यहाँ जीत की हैट्रिक लगा चुके थे। पर परिसीमन के बाद ये सीट बड़सर हो गई और यहाँ के समीकरण भी बदल गए। 2012 में कांग्रेस के इंद्रदत्त लखनपाल ने लम्बे अंतराल के बाद इस सीट को कांग्रेस के नाम किया। 2017 में फिर इंद्रदत्त लखनपाल ने बड़सर विधानसभा सीट पर जीत हासिल की। इस बार फिर कांग्रेस से इंद्रदत्त लखनपाल मैदान में है। उधर भाजपा से टिकट के प्रबल दावेदार माने जा रहे राकेश शर्मा बबली के आकस्मिक निधन के बाद भाजपा ने पूर्व विधायक बलदेव शर्मा की पत्नी माया शर्मा को मैदान में उतारा है। जबकि भाजपा से टिकट की मांग कर रहे राकेश बबली के भाई संजीव ने टिकट न मिलने पर इस बार निर्दलीय ताल ठोकी है। निसंदेह बलदेव शर्मा की क्षेत्र में पकड़ है जिसका लाभ माया शर्मा को मिल सकता है, लेकिन संजीव के मैदान में होने से भाजपा को बगावत का सामना करना पड़ा है। ऐसे में जाहिर है कि इसका सीधा लाभ कांग्रेस के इंद्रदत्त लखनपाल को मिलता दिख रहा है। बहरहाल इस बार इंद्रदत्त लखनपाल जीत की हैट्रिक लगा पाते है या नहीं, ये तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। कांग्रेस और लखनपाल दोनों जीते, तो भी मंत्री पद पक्का नहीं ! अगर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और इंद्रदत्त लखनपाल भी अपना चुनाव जीत जाते है, तो उन्हें अहम् दायित्व मिल सकता है। पर मसला ये है कि जिला हमीरपुर में कांग्रेस के तीन ऐसे नेता है जिनको सरकार में बड़ा दायित्व मिलने के कयास है। लखनपाल के अलावा चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू और प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष राजेंद्र राणा भी हमीरपुर जिला से ही है। ऐसे में अगर कांग्रेस जीतती है और ये सभी नेता भी चुनाव जीत जाते है, तब भी जीत की हैट्रिक के बावजूद लखनपाल मंत्री पद से वंचित रह सकते है।
जिला बिलासपुर की झंडूता भी प्रदेश की उन सीटों में शुमार है जहाँ बगावत ने इस बार भाजपा की परेशानी बढ़ाई है। 2008 के परिसीमन से पहले इस सीट को गेहरवीं के नाम से जाना जाता था, फिर ये झंडूता हो गई। इस सीट पर हमेशा भाजपा का दबदबा रहा है। अपने गठन के बाद 1982 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में ही भाजपा ने यहाँ जीत दर्ज की। तब से 2017 तक हुए 9 चुनावों में से सात बार बीजेपी, एक बार कांग्रेस और एक बार निर्दलीय ने जीत हासिल की है। भाजपा के रिखी राम कौंडल इस सीट से पांच बार विधायक रहे है, जबकि कांग्रेस के बीरु राम किशोर दो बार, एक बार बतौर कांग्रेस प्रत्याशी और एक मर्तबा निर्दलीय। परिसीमन के बाद झंडूता सीट अस्तित्व में आई और 2012 में भी इस सीट से भाजपा के रिखी राम कौंडल जीते। पर 2017 में भाजपा ने टिकट बदला और आईएएस ऑफिसर रहे जीतराम कटवाल को चुनावी दंगल में उतारा। उस चुनाव में करीब छ हज़ार वोट के अंतर से कटवाल ने कांग्रेस प्रत्याशी बीरु राम किशोर को हराया था। इस बार भी भाजपा ने एक बार फिर से सीटिंग एमएलए जेआर कटवाल को प्रत्याशी के रूप में उतारा है। पर नाराज होकर पूर्व विधायक रिखी राम कौंडल के बेटे राजकुमार कौंडल ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। ये बगावत भाजपा के लिए खतरे की घंटी जरूर है, हालांकि इसके बावजूद यहाँ भाजपा कमतर बिलकुल नहीं है। उधर, कांग्रेस ने इस सीट से बीरु राम किशोर की जगह विवेक कुमार को मैदान में उतारा है। कांग्रेस को जहाँ नए चेहरे से आस है, वहीं ओपीएस और सत्ता विरोधी लहर भी कांग्रेस की उम्मीद प्रबल कर रहे है। बहरहाल निर्दलीय राजकुमार कौंडल ने यहां मुकाबले को त्रिकोणीय बनाया है और वे किसे कितना नुकसान करेंगे, ये इस सीट के नतीजे तय करने में निर्णायक हो सकता है।
कोई नेता महज एक दफा का विधायक हो और समर्थक उसे बतौर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करें, ऐसे उदाहरण सियासत में कम ही देखने को मिलते है। पर शिमला ग्रामीण विधायक विक्रमादित्य सिंह ऐसे ही नेता है। 2017 में अपने पिता स्व वीरभद्र सिंह की सरपरस्ती में जब विक्रमादित्य सिंह ने पहला चुनाव लड़ा था, तो शायद ही किसी को इल्म हो कि महज़ पांच साल में विक्रमादित्य इतनी दूर निकल आएंगे। पर विक्रमादित्य सिंह ने ऐसा कर दिखाया। न सिर्फ पांच साल अपने निर्वाचन क्षेत्र में उनका प्रभाव दिखा बल्कि प्रदेश का ऐसा कोई कोना नहीं है, जहाँ विक्रमादित्य सिंह का प्रभाव न दिखे। ये ही कारण है कि वे कांग्रेस के स्टार प्रचारक भी रहे और इस बार चुनाव लड़ने वाले उन चुनिंदा चेहरों में शामिल है जो अपने निर्वाचन क्षेत्र से निकल कर अन्य क्षेत्रों में पार्टी के लिए प्रचार करते दिखे। हालांकि सियासी चश्मे से देखे तो फिलवक्त विक्रमादित्य सीएम की रेस में नहीं दिखते, पर उनके समर्थक ऐसा नहीं मानते। इस बार विक्रमादित्य सिंह शिमला ग्रामीण सीट से अपना दूसरा चुनाव लड़ रहे है। शिमला शहरी व ग्रामीण क्षेत्र पहले शिमला निर्वाचन क्षेत्र में ही आते थे, लेकिन 2008 में परिसीमन बदलने के बाद शिमला शहरी और शिमला ग्रामीण सीट अस्तित्व में आई। तब रोहड़ू सीट भी आरक्षित हो गई थी। ऐसे में वीरभद्र सिंह ने 2012 के विधानसभा चुनाव में शिमला ग्रामीण सीट से चुनाव लड़ा। तब वीरभद्र सिंह ने भाजपा के ईश्वर रोहाल को करीब 20 हजार वोटों से हराया था और वे मुख्यमंत्री भी बन गए। फिर आया 2017 का विधानसभा चुनाव जब वीरभद्र सिंह ने शिमला ग्रामीण से चुनाव नहीं लड़ा, कारण था उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह की चुनावी राजनीति में एंट्री करवाना। वीरभद्र ये जानते थे कि विक्रमादित्य को पहली बार चुनाव लड़वाने के लिए सबसे सुरक्षित सीट शिमला ग्रामीण ही होगी, इसलिए उन्होंने इस सीट को विक्रमादित्य के लिए छोड़ा और खुद अर्की विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा। विक्रमादित्य के सर पर पिता का आशीर्वाद तो था, मगर अपनी ही पार्टी की ओर से आ रही कड़ी चुनौतियां भी थी। परिवारवाद के नाम पर खड़े हो रहे सवाल और संभावित भीतरघात उनके लिए समस्याएं खड़ी कर रहा था। इसके बावजूद भी वे चुनाव जीत गए। शिमला ग्रामीण सीट से पहली बार चुनाव लड़े 28 साल के विक्रमादित्य ने तब भाजपा के अनुभवी डॉ. प्रमोद शर्मा को शिकस्त दी थी। विपक्ष में रहते हुए भी विक्रमादित्य सिंह ने अपने निर्वाचन क्षेत्र में करीब 90 करोड़ के विकास कार्य करवाए है। शिमला ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र में विक्रामादित्य की पकड़ की झलक साफ तौर पर देखने को मिलती है। वहीँ इस बार भाजपा ने उनके विरुद्ध इस सीट से रवि मेहता को मैदान में उतारा है। जाहिर है यहाँ भाजपा की राह आसान नहीं दिख रही। फिर भी सियासत में कुछ भी मुमकिन है और भाजपा आशावान जरूर होगी। बहरहाल विक्रमादित्य सिंह अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है और यदि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनती है तो उनको अहम ज़िम्मा मिलना भी लगभग तय है। स्व वीरभद्र सिंह का पुत्र होने के चलते जाहिर है विक्रमादित्य सिंह से लोगों को खासी अपेक्षाएं है। अब तक इन अपेक्षाओं के बोझ में विक्रमादित्य सियासी तौर पर निखरते दिखे है, और उनके समर्थकों को उम्मीद है कि ये सिलसिला आगे भी बरकरार रहेगा।
सुजानपुर, वो विधानसभा सीट जिसने 2017 में एक किस्म से हिमाचल की सियासी तस्वीर बदल कर रख दी थी। तब इसी सीट से भाजपा के सीएम कैंडिडेट प्रो प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए थे। तब प्रदेश में सरकार तो भाजपा की बनी लेकिन धूमल साहब सीएम नहीं बन सके। इसके साथ ही भाजपा में बहुत कुछ बदल गया। जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री बने और आहिस्ता -आहिस्ता प्रदेश भाजपा उन्हीं के रंग-ढंग में ढलती चली गई। तब हुआ यूँ था कि 9 नवंबर 2017 को हिमाचल प्रदेश में मतदान था। तब भाजपा धूमल को मुख्यमंत्री फेस घोषित करने से बचती सी दिख रही थी और कांग्रेस, भाजपा को बिना दूल्हे की बारात कहकर चुटकी ले रही थी। पर प्रदेश में पार्टी की समीकरण बिगड़ते देख आखिरकार 30 अक्टूबर को राजगढ़ की रैली में तत्कालीन भाजपा राष्ट्रिय अध्यक्ष अमित शाह ने प्रेम कुमार धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। इस घोषणा के बाद हाल बदला, हालात बदले और 18 दिसंबर को जब नतीजा आया तो भाजपा विधायकों की संख्या 44 थी। पर इस लिस्ट में खुद धूमल का नाम नहीं था। धूमल सुजानपुर से चुनाव हार गए वो भी 1911 वोटों से और हराने वाले थे कभी उनके करीबी रहे और कांग्रेस प्रत्याशी राजेंद्र राणा। दिलचस्प बात ये है कि प्रेम कुमार धूमल 2012 में हमीरपुर सीट से चुनाव लड़े थे, पर पार्टी ने 2017 में उनकी सीट बदलकर उन्हें सुजानपुर से मैदान में उतारा था। उनकी सीट बदलने के बाद से ही कयासबाजी जारी थी कि कहीं धूमल खुद चुनाव न हार जाए और हुआ भी ऐसा ही। ये सवाल अब भी कई लोगों के जहन में है कि उनकी सीट आखिर क्यों बदली गई थी। बहरहाल सबके अपने कयास है और अपना-अपना विश्लेषण, लेकिन तब धूमल का हारना प्रदेश में भाजपा की सियासत का सबसे बड़ा घटनाक्रम साबित हुआ। अब वर्तमान पर आते है। इस बार भी सुजानपुर विधानसभा सीट पर रोचक मुकाबला दिख रहा है। इस बार फिर कांग्रेस से राजेंद्र राणा मैदान में है, लेकिन भाजपा ने इस दफा कैप्टन रंजीत सिंह राणा को मैदान में उतारा है। दरअसल प्रो धूमल ने चुनावी राजनीति से दूरी बना ली जिसके बाद उन्हीं की पसंद के उम्मीदवार को पार्टी ने मैदान में उतारा है। ये ही कारण है कि रंजीत सिंह राणा के लिए खुद धूमल मोर्चा संभालते हुए नजर आये है। बेशक धूमल खुद चुनावी दंगल में नहीं उतरे है, लेकिन धूमल का अपना जनाधार है और जाहिर है कि इसका लाभ कैप्टेन को मिल सकता है। उधर, राजेंद्र राणा ने भी दमखम से चुनाव लड़ा है और स्वाभविक है खुद धूमल को हारने के बाद तो उन्हें हल्का नहींआँका जा सकता है। ऐसे में जाहिर है कांग्रेस इस सीट पर जीत को लेकर आश्वस्त है। पर खुद धूमल का यहाँ जमकर प्रचार करना क्या रंग लाएगा, ये देखना भी दिलचस्प होगा। पर इसमें कोई संशय नहीं है कि अगर खुद धूमल मैदान में होते, तो संभवतः कुछ और बात होती।
कभी कांग्रेस की गढ़ रही जिला मंडी की सरकाघाट सीट अब भाजपा का मजबूत किला बन चुकी है। 2008 परिसीमन से पहले इस सीट को गोपालपुर के नाम से जाना जाता था, फिर ये सीट सरकाघाट हो गई। इस सीट पर बीते 15 सालों से भाजपा काबिज है। यह वो सीट है जहाँ कभी कांग्रेस के पूर्व मंत्री रंगीला राम राव की तूती बोलती थी। वर्ष 1972 में पहली बार रंगीला राम राव ने आजाद उम्मीदवार के तौर पर गोपालपुर से चुनाव लड़ा और वे पहली बार विधायक बने। कुछ समय बाद उन्होंने कांग्रेस का हाथ थामा और वर्ष 1977 से 2003 तक वे इस सीट से 6 बार जीते। सिर्फ 1990 में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। फिर 2007 आते-आते इस निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा मजबूत हुई और भाजपा के इंद्र सिंह ने फिर यहाँ कमल खिलाया। तब उन्होंने रंगीला राम राव को करीब साढ़े सात हज़ार मतों के अंतर से पराजित किया था। हार का सिलसिला 2012 के चुनाव में भी बरकरार रहा और तब रंगीला राम राव को करीब 2200 वोटों से शिकस्त मिली। कांग्रेस ने लगातार दो बार हार का मुँह देखने के बाद 2017 ने रंगीला राम राव का टिकट काटकर नए चेहरे पर दांव खेला और पवन ठाकुर को मैदान में उतारा, लेकिन कांग्रेस का यह पासा भी उल्टा पड़ा और इंद्र सिंह ने जीत की हैट्रिक लगा दी। अब बात करते है वर्तमान स्थिति की। बीते तीन चुनावों से सरकाघाट में भाजपा विधायक इंद्र सिंह भाजपा के प्राइम फेस बने हुए थे। 2022 के विधानसभा चुनाव में टिकट को लेकर वे खुद आश्वस्त भी थे, लेकिन पार्टी ने उनका टिकट काट यहां दलीप ठाकुर को मैदान में उतारा है। उधर कांग्रेस की बात करे तो इस सीट से लगातार युंका के कार्यकारी अध्यक्ष यदुपति ठाकुर टिकट मांग रहे थे, मगर पार्टी ने टिकट अपने पुराने उम्मीदवार पवन कुमार को ही दिया। पवन लगातार पांच साल लोगों के बीच सक्रिय रहे हैं और स्थानीय मुद्दों को भी उठाते रहे हैं। इस बार उन्हें ओपीएस और सत्ता विरोधी लहर से भी आस है। ऐसे में कांग्रेस पंद्रह साल बाद इस क्षेत्र में वापसी की उम्मीद में है।
1970 के दशक में एक लड़की भोपाल में छात्र राजनीति में सक्रीय थी और सियासत की बारीकियां सीख रही थी। रुझान शुरू से कांग्रेस की तरफ था। वहीं, उस युवती के पिता मध्य प्रदेश सरकार में आला प्रशासनिक अधिकारी थे, जो आगे चलकर मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव भी रहे। पिता का नाम था एम एस सिंह देव और उन्हीं की बेटी है आशा कुमारी। इन्हीं आशा कुमारी की शादी चम्बा के राजपरिवार में हुई और मध्य प्रदेश से आशा हिमाचल प्रदेश में आ बसी। पर यहाँ भी सियासत का उनका सफर न सिर्फ जारी रहा बल्कि परवान भी चढ़ा। 1985 में आशा कुमारी ने बनीखेत से अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ा और विधानसभा पहुंची। 2007 तक उन्होंने बनीखेत से 6 चुनाव लड़े और चार बार जीती। फिर परिसीमन बदला और बनीखेत का नाम हुआ डलहौजी। 2012 और 2017 में आशा कुमारी इसी डलहौजी सीट से विधायक बनी। अब फिर एक बार यहाँ से किस्मत आजमा रही है। आशा कुमारी दो बार प्रदेश में मंत्री भी रही, पहले 1995 से 1998 तक और फिर 2003 से 2005 तक। केंद्र में भी उनका अच्छा रसूख है। अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे पंजाब की प्रभारी भी रह चुकी है। हालांकि इस बीच कुछ विवाद भी उनके साथ रहे। कभी न्यायलय में चल रहे जमीन विवाद ने उनकी चिंता बढ़ाई तो 2017 में एक महिला कांस्टेबल को थप्पड़ मारने के चलते वे चर्चा में रही। पर विवादों के बावजूद आशा कुमारी के राजनीतिक कद पर कोई खास आंच नहीं आई। अब आशा कुमारी न सिर्फ सातवीं बार विधायक बनने के पथ पर है, बल्कि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने की स्थिति में सीएम पद की दावेदार भी है। अब आते है मौजूदा चुनाव पर। डलहौजी सीट से आशा कुमारी मैदान में है और फिर उनका सामना है भाजपा के डीएस ठाकुर से। 2017 में भी ये दोनों ही आमने -सामने थे और तब आशा कुमारी मामूली अंतर से चुनाव जीती थी। ऐसे में इस बार उनकी सीट को लेकर कयासबाजी जारी है। इस पूरे चुनाव में आशा कुमारी प्रदेश में ज्यादा प्रचार करती नहीं दिखी है और उनका फोकस अपनी सीट पर रहा है। इससे समझा जा सकता है कि वे खुद भी कोई चूक नहीं करना चाहती थी। जाहिर है अगर मुख्यमंत्री बनना है, तो पहले विधायक बनना होगा। हालांकि प्रदेश में एंटी इंकमबैंसी और ओपीएस जैसे मुद्दों से भी आशा कुमारी आशावान है, पर बावजूद इसके डलहौजी में करीबी मुकाबला देखने को मिल सकता है। बहरहाल आशा कुमारी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है और समर्थक उन्हें भी बतौर भावी सीएम प्रोजेक्ट कर रहे है।
हमीरपुर विधानसभा क्षेत्र वो सीट है जिसे चर्चा से बाहर नहीं रखा जा सकता। भाजपा के कद्दावर नेता स्व जगदेव चंद की ये सीट भाजपा का गढ़ रही है। खुद जगदेव चंद 1977 से 1993 तक पांच बार यहाँ से लगातार जीते। फिर 2012 में इसी सीट से पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल चुनाव लड़े और विधानसभा पहुंचे। तब धूमल सीटिंग सीएम थे, हालांकि चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनी और भाजपा विपक्ष में चली गई। जगदेव चंद के निधन के बाद इस सीट पर दो महिलाओं का बारी-बारी कब्ज़ा रहा। दरअसल 1993 का चुनाव जीतने के बाद जगदेव चंद का निधन हो गया और इस सीट पर उपचुनाव हुए। तब प्रदेश में कांग्रेस की लहर थी और साहनुभूति के बावजूद कांग्रेस की अनीता वर्मा यहाँ से जीती। पर 1998 में अगले ही चुनाव में स्व जगदेव चंद की बहु उर्मिल ठाकुर ने भाजपा टिकट ये सीट जीती। 2003 में फिर अनीता वर्मा जीती और 2007 में उर्मिल ठाकुर। 2012 का चुनाव आते -आते जगदेव चंद के पुत्र नरेंद्र ठाकुर कांग्रेस का दामन थाम चुके थे और कांग्रेस ने उन्हें ही उम्मीदवार बनाया। उधर भाजपा से सीटिंग सीएम धूमल खुद हमीरपुर से मैदान में उतरे। जो संभावित था, वो ही हुआ और धूमल चुनाव जीत गए। पर असली ट्विस्ट आया 2017 में। माना जाता है कि धूमल एक बार फिर हमीरपुर से ही चुनाव लड़ने के इच्छुक थे। पर पार्टी ने उन्हें सुजानपुर से मैदान में उतारा, जहाँ उन्हें हार का सामना भी करना पड़ा। उधर हमीरपुर से भाजपा के उम्मीदवार थे नरेंद्र ठाकुर जो 2012 में धूमल के विरुद्ध चुनाव लड़े थे और कांग्रेस छोड़कर भाजपाई हो चुके थे। तब कांग्रेस ने कुलदीप सिंह पठानिया को मैदान में उतारा, पर जीत नरेंद्र ठाकुर की हुई। इस बार भी हमीरपुर की सियासत बेहद रोचक है। दरअसल चुनाव के काफी वक्त पहले से यहाँ एक समाजसेवी नेता आशीष शर्मा सक्रिय दिख रहे थे और माना जा रहा था कि चुनाव आते-आते आशीष किसी राजनीतिक दल में शामिल हो सकते है। हुआ भी ऐसा ही। आचार सहिंता लगने के बाद आशीष कांग्रेस में शामिल हो गए लेकिन दिलचस्प बात ये है कि कांग्रेस उन्हें 48 घंटे भी नहीं भाई और वैचारिक असमानता का हवाला देते हुए उन्होंने पार्टी छोड़ दी। आशीष के आने -जाने में कांग्रेस अंत तक कंफ्यूज रही और अंत में पार्टी ने पुष्पेंद्र वर्मा को टिकट दिया। जाहिर है इस स्थिति का असर पार्टी के प्रचार अभियान पर भी पड़ा। उधर आशीष शर्मा ने आखिरकार निर्दलीय चुनाव लड़ा और दमखम के साथ लड़ा। हमीरपुर सीट पर कभी कोई निर्दलीय नहीं जीता है, पर इस बार इस संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता। उधर भाजपा की बात करें तो पार्टी ने फिर नरेंद्र ठाकुर को ही टिकट दिया है। माना जा रहा था कि अगर इस बार धूमल चुनाव लड़ते है तो हमीरपुर भी एक विकल्प होगा। पर धूमल ने चुनाव नहीं लड़ा। वहीं भाजपा की दो बार विधायक रही और नरेंद्र ठाकुर की भाबही उर्मिल ठाकुर का जिक्र भी यहाँ जरूरी है। दरअसल उर्मिल भाजपा छोड़कर कांग्रेस में जा चुकी थी लेकिन कुछ माह पूर्व ही उनकी पार्टी में वापसी हुई। ऐसे में वे भी टिकट की दावेदार थी लेकिन बाजी उनके देवर नरेंद्र ठाकुर मार गए। बहरहाल इस दफा हमीरपुर विधानसभा सीट पर फिर कमल खिलता है या कांग्रेस कोई कमाल करती है, इससे ज्यादा चर्चा आशिष शर्मा की है। फिलवक्त इतना जरूर कहा जा सकता है कि हमीरपुर सीट से पहली बार किसी निर्दलीय के चुनाव जीतने की सम्भावना है। आशीष शर्मा ने क्षेत्र के सियासी समीकरणों को एक नया मोड़ दे दिया है। निसंदेह दोनों ही दलों की धुकधुकी बढ़ी हुई है और सभी को आठ दिसम्बर का इंतजार है।
नाचन का सियासी आँगन इस बार बेहद टेड़ा लग रहा है। यहाँ भाजपा पर सीट बचाने की चुनौती है, तो कांग्रेस पर वापसी का दबाव। जिला मंडी के 10 सीटों में से नाचन निर्वाचन क्षेत्र को भाजपा का मजबूत किला माना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भाजपा के गठन के बाद 1982 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में ही नाचन की जनता ने भाजपा प्रत्याशी पर भरोसा जताया था। उस दौरान भाजपा के प्रत्याशी थे दिले राम, जो 1977 में भी जनता पार्टी से विधायक रहे थे। इसके बाद 1990 की शांता लहर में एक बार फिर इस सीट पर कमल खिला। मौजूदा स्थिति की बात करें तो 2007 से इस सीट पर भाजपा का कब्जा है। 2007 में दिले राम जीते, तो 2012 और 2017 में विनोद कुमार। इस बार भी भाजपा ने सीटिंग विधायक विनोद कुमार को ही प्रत्याशी बनाया है। वर्ष 2017 में हुए चुनाव में विनोद कुमार का मुकाबला कांग्रेस के लाल सिंह कौशल के साथ हुआ था। तब विनोद कुमार को 38154 वोट मिले थे, जबकि लाल सिंह कौशल को सिर्फ 22258। ऐसे में इस बार कांग्रेस नया चेहरा उतारेगी, ये तय माना जा रहा था और हुआ भी ऐसा ही। कांग्रेस ने यहाँ से नरेश चौहान को मैदान में उतारा है। टिकट के चाहवानों की फेहरिस्त में कांग्रेस प्रवक्ता ब्रह्म दास चौहान, लाल सिंह कौशल, दामोदर चौहान के अलावा पूर्व विधायक रहे टेकचंद डोगरा के पुत्र संजू डोगरा का भी नाम शामिल था, पर टिकट नरेश ले गए। हालांकि कांग्रेस में खुलकर कोई बगावत नहीं दिखी है लेकिन भीतरघात की सम्भावना को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। इस सीट पर आप से जबना चौहान, बसपा से नंद लाल और निर्दलीय ज्ञान चंद और शौणू राम भी चुनावी मैदान में हैं। नाचन सीट 2021 में मंडी संसदीय उपचुनाव के नतीजे के बाद भी चर्चा में रही थी। कारण था यहाँ से कांग्रेस की लीड। तब संसदीय क्षेत्र के तहत मंडी जिला की 9 सीटों में से सिर्फ नाचन में भाजपा पिछड़ी थी। अब देखना यह होगा कि क्या कांग्रेस संसदीय उपचुनाव जैसा प्रदर्शन दोहराती है या मौजूदा विधायक विनोद जीत की हैट्रिक बनाने में सफल होते है। फिलहाल सभी को 8 दिसंबर का इंतज़ार है।
चौपाल वो निर्वाचन क्षेत्र है जो उम्मीदवार देखता है, पार्टी सिंबल नहीं। पिछले 6 चुनाव के नतीजे तो ये ही बयां कर रहे है। 1993 के विधानसभा चुनाव से 2017 तक यहां एक बार निर्दलीय उम्मीदवार जीतता है, तो अगली बार किसी राजनीतिक पार्टी का प्रत्याशी। एक और रोचक बात है, यहां एक बार जो उम्मीदवार बतौर निर्दलीय जीत दर्ज करता है, वो ही अगली मर्तबा पार्टी सिंबल पर जीतकर विधायक बनता है। साल 1993 में इस सीट से योगेंद्र चंद ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और वे चुनाव जीत गए। उसके बाद 1998 में योगेंद्र चंद्र की कांग्रेस में वापसी हुई और वे ही बतौर कांग्रेस प्रत्याशी ये चुनाव जीते। वर्ष 2003 में चौपाल से निर्दलीय प्रत्याशी सुभाष चंद मंगलेट ने कांग्रेस प्रत्याशी योगेंद्र चंद्र को शिकस्त दी। 2007 में सुभाष की कांग्रेस में एंट्री हुई और उन्होंने चुनाव भी जीता। 2012 के चुनावों में भाजपा ने टिकट बदल कर एडवोकेट सीमा मेहता को दिया, जबकि कांग्रेस ने एक बार फिर से मंगलेट पर ही दांव खेला। इसके बाद दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों के समीकरण को ठियोग के पूर्व विधायक राकेश वर्मा के चचेरे भाई बलवीर वर्मा ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़कर बिगाड़ दिया और वे चुनाव जीते। साढ़े चार साल तक कांग्रेस का एसोसिएट सदस्य रहने के बाद वर्मा ने पलटी मारकर चुनावों से ठीक पहले भाजपा का दामन थाम लिया व 2017 विधानसभा चुनावों में भाजपा का टिकट लेकर चुनाव जीते। अब इस बार यहां कांग्रेस ने रजनीश खिमटा को मैदान में उतारा है, तो भाजपा ने बलवीर वर्मा को। वहीं कांग्रेस से टिकट न मिलने पर नाराज हुए पूर्व विधायक सुभाष मंगलेट बतौर निर्दलीय मैदान में है। क्या इस बार फिर निर्दलीय की बारी ? बहरहाल बड़ा सवाल ये है कि क्या एक चुनाव के बाद अगला चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के जीतने का सियासी रिवाज चौपाल में कायम रहने वाला है, या इस बार इस सिलसिले पर ब्रेक लगेगा। बहरहाल इस त्रिकोणीय मुकाबले में सुभाष मंगलेट का दावा कमतर नहीं माना जा सकता। टिकट काटने के चलते मंगलेट को चौपाल में खूब सहानुभूति मिलती दिखी है। वहीं कांग्रेस टिकट न मिलने पर मंगलेट ने कांग्रेस पर टिकटों की खरीद फरोख्त का इल्जाम लगाकर भी खूब ध्यान खींचा है। उधर, कांग्रेस का बागी मैदान में होने के चलते भाजपा को भरोसा है कि वो चौपाल में जीत दर्ज करेगी। हालांकि बलबीर वर्मा को लेकर कुछ एंटी इंकम्बैंसी भी दिखी है, लेकिन कांग्रेस की बगावत के बीच भाजपा को जीत की किरण दिख रही है। कांग्रेस की बात करें तो रजनीश खिमटा ने पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा है। उन्हें भरोसा है कि काडर वोट का साथ उन्हें ही मिला है। साथ ही ओपीएस और महंगाई जैसे मुद्दे भी उनके पक्ष में गए है। बहरहाल, चुनाव नतीजों से पहले कयासबाजी जोरों पर है और इस त्रिकोणीय मुकाबले को कौन जीतेगा, अभी ये कहना जल्दबाजी हो सकता है।
ठियोग कांग्रेस की दिग्गज नेता विद्या स्टोक्स का निर्वाचन क्षेत्र रहा है। हिमाचल प्रदेश में सेब लाने वाले सत्यानंद स्टोक्स की बहू विद्या स्टोक्स को ठियोग ही नहीं, बल्कि पूरे हिमाचल प्रदेश की राजनीति में सम्मान की नजर से देखा जाता रहा है। मैडम स्टोक्स सियासत का बड़ा नाम है और ऐसे में उनके निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस का दबदबा रहना स्वाभाविक है। ठियोग से विद्या स्टोक्स 1982, 1985, 1990, 1998 और 2012 में पांच बार चुनाव जीती। पर इसी ठियोग में 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस जमानत भी नहीं बचा पाई थी। दरअसल 2017 में कांग्रेस ने मैडम स्टोक्स को टिकट तो दिया, मगर उनका नामांकन पत्र अधूरा होने के कारण उसे रद्द कर दिया गया था। ऐसे में कांग्रेस के उम्मीदवार बने दीपक राठौड़, जिन्हें राहुल गांधी के करीबी माना जाता है। पर सिर्फ दिल्ली दरबार का करीबी होना हिमाचल की सियासी जमीन पर पाँव जमाने के लिए काफी नहीं होता। जिसका डर था वो ही हुआ, दीपक राठौर कुल कास्ट हुए करीब 58 हज़ार वोट में से करीब 9 हजार वोट ही पा सके और चुनाव हार गए। तब मुख्य मुकाबला माकपा के राकेश सिंघा और भाजपा के राकेश वर्मा के बीच हुआ जिसमें सिंघा को जीत मिली। अब आते है मौजूदा चुनाव पर। वर्तमान विधायक माकपा के राकेश सिंघा ने एक बार फिर ठियोग से चुनाव लड़ा है। उधर पूर्व विधायक और 2017 में भाजपा प्रत्याशी रहे राकेश वर्मा का कुछ वक्त पहले स्वर्गवास हो गया। उनकी राजनीतिक विरासत को संभाला उनकी पत्नी इंदु वर्मा ने। इंदु वर्मा कुछ माह पूर्व कांग्रेस में शामिल हो गई थी और माना जा रहा था कि वे कांग्रेस की प्रत्याशी हो सकती है। पर ऐसा हुआ नहीं। कांग्रेस ने यहां से पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर को अपना उम्मीदवार बनाया। नतीजन इंदु वर्मा ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। इन सबके बीच भाजपा की बात भी करते है। भाजपा ने यहां से अजय श्याम को मैदान में उतारा है। यहां बहुकोणीय मुकाबला है, पर रिवाज बदलने का दावा कर रही भाजपा के सामने यहां असल चुनौती ये मानी जा रही है कि नतीजा जो भी हो, सम्मानजनक हो। जमीनी स्थिति की बात करें तो मौजूदा विधायक राकेश सिंघा को लेकर यहाँ कुछ एंटी इंकमबेंसी जरूर दिखी है, पर बावजूद इसके उनका दावा कमतर नहीं है। उधर कांग्रेस यहां 2017 की तरह कमजोर बिल्कुल नहीं दिख रही। इस बार कांग्रेस में भीतरघात की आशंका भी कम है। ऐसे में इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि कुलदीप राठौर इस सीट को फिर कांग्रेस की झोली में डाल सकते है। वहीं निर्दलीय चुनाव लड़ी इंदु वर्मा को लेकर क्षेत्र में खासी साहनुभूति दिखी है। साहनुभूति लहर अगर वोट में भी तब्दील हुई है तो उसके आगे किसी का भी टिकना मुश्किल है। भाजपा की बात करें तो सबकी लड़ाई में ही भाजपा शायद उम्मीद की किरण खोज रही हो। अजय श्याम की जय होगी, ऐसा मुश्किल लगता है।
हर्ष महाजन कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे है। उन्हें वीरभद्र सिंह का हनुमान कहा जाता था। माना जाता है कि चम्बा में उनकी जबरदस्त पकड़ है। वे 1993 से 2003 तक तीन बार चंबा सदर विधानसभा क्षेत्र से विधायक भी चुने गए। किन्तु इसके बाद क्या हुआ, ये रोचक बात है। दरअसल, 2007 में हर्ष महाजन ने चुनावी राजनीति को अलविदा कह दिया और इसके बाद 2017 तक हुए तीन चुनाव में कांग्रेस को चंबा में जीत नहीं नसीब हुई। हर्ष महाजन जैसे कद्दावर नेता के रहते कांग्रेस क्यों नहीं जीती, इसे लेकर हमेशा सवाल उठे है। बहरहाल कुछ वक्त पहले हर्ष महाजन कांग्रेस पर आरोपों की बौछार करते हुए भाजपा में शामिल हो गए है। अब सबके मन में एक ही सवाल है, क्या भाजपा इस सीट पर अपना कब्ज़ा बरकरार रख पायेगी ? हालांकि हर्ष महाजन ने चम्बा सदर सीट से खुद चुनाव नहीं लड़ा है और न ही उनका सीधे तौर पर चुनावी नतीजे से लेना देना है, पर अगर उनकी पार्टी के चुनाव हारने का सियासी इत्तेफ़ाक़ जारी रहता है, तो चर्चा तो होगी ही। बहरहाल बात करते है मौजूदा चुनाव की। पहले भाजपा ने यहां से सीटिंग विधायक पवन नैय्यर का टिकट काटा और मैदान में उतारा इंदिरा कपूर को। फिर नामांकन की अंतिम तिथि से ठीक पहले इंदिरा कपूर की जगह पवन नैयर की पत्नी नीलम नैयर को मैदान में उतार दिया। दरअसल भाजपा के निर्णय के बाद संभव था कि पवन नय्यर बगावत कर दें, सो भाजपा ने परिवारवाद के सिद्धांत को साइड में रखा और उनकी पत्नी को मौका दे दिया। पर पार्टी की मुश्किल समाप्त नहीं हुई और इंदिरा कपूर ने बगावत कर निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा। अब इसके बावजूद क्या भाजपा इस सीट पर जीत का चौका लगा पायेगी, इस पर सबकी निगाह है। उधर कांग्रेस ने नीरज नय्यर को मैदान में उतारा है। भाजपा में लगे बगावती सुरों के बीच नीरज नय्यर को इसका लाभ मिल सकता है। नीरज भी अपनी जीत का दावा कर रहे है। दरअसल ओपीएस और सत्ता विरोधी लहर भी उनकी उम्मीद का बड़ा कारण है। बहरहाल असल नतीजा आठ दिसम्बर को सामने आएगा और तब तक दावों का सिलिसला भी जारी रहेगा।
पालमपुर यूँ तो भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का गृह क्षेत्र है, मगर हमेशा यहां कांग्रेस का दबदबा रहा है। 1985 से हुए 8 विधानसभा चुनावों में से पालमपुर में भारतीय जनता पार्टी सिर्फ दो बार जीत दर्ज कर पाई है। पालमपुर की जनता का स्नेह लगातार बुटेल परिवार पर बरसता रहा है। 1993 से लेकर साल 2007 तक ये सीट कांग्रेस के बृज बिहारी लाल बुटेल के नाम रही। फिर 2007 में जनता ने एक मौका भाजपा को दिया, पर अगली बार फिर बुटेल परिवार की वापसी हुई। 2012 से 2017 तक फिर बृज बिहारी लाल बुटेल विधायक रहे। जबकि वर्तमान में उनके बेटे आशीष बुटेल पालमपुर से विधायक है। पालमपुर में बुटेल परिवार के वर्चस्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2017 में पहला चुनाव लड़े आशीष ने भाजपा की वरिष्ठ नेता व वर्तमान राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी को 4324 मतों से हराया था। इसके बाद पालमपुर नगर निगम चुनाव में भी भाजपा को यहां करारी शिकस्त मिली। इस बार भाजपा ने बुटेल परिवार के इस गढ़ को भेदने के लिए वूल फेडरेशन के चेयरमैन और प्रदेश महामंत्री त्रिलोक कपूर को मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस की तरफ से फिर आशीष बुटेल मैदान में है। जाहिर सी बात है भाजपा महामंत्री के मैदान में होने से ये सीट भी हॉट सीट बनी हुई है और हिमाचल की राजनीति में रुची रखने वाले हर व्यक्ति की निगाहें इस सीट के नतीजों पर टिकी हुई है। माना जा रहा है कि महामंत्री के मैदान में होने से आशीष बुटेल के लिए बड़ी चुनौती साबित होगी। दरअसल इस सीट पर गद्दी वोटरों की संख्या ज्यादा होने से भी त्रिलोक ने मुकाबले को बेहद कड़ा बना दिया है। ग्राउंड रिपोर्ट की बात करें तो आशीष बुटेल को लेकर इस क्षेत्र में कोई नाराजगी नहीं दिखती। वहीं सत्ता विरोधी लहर और ओपीएस जैसे मुद्दे भी कांग्रेस को मजबूत करते है। सम्भवतः ये ही कारण है कि आशीष जीत को लेकर सौ फीसदी आश्वस्त दिख रहे है। उधर, त्रिलोक कपूर अगर हारे तो पार्टी के बाहर ही नहीं, पार्टी के भीतर भी उनको कई सवालों का सामना करना पड़ सकता है। बहरहाल प्रदेश भाजपा ने अपने महामंत्री को जिताने के लिए एड़ी चोटी का जोर जरूर लगाया है, पर बावजूद इसके बुटेल परिवार का बुलेट प्रूफ किला बन चुके पालमपुर में पार्टी की डगर मुश्किल लग रही है।
** मुश्किल हो सकती है भाजपा और आप की राह 'प्रदेश का मुख्यमंत्री कैसा हो, सुक्खू भाई जैसा हो' ,चुनाव प्रचार के दौरान नादौन विधानसभा क्षेत्र में ये नारा खूब बुलंद रहा। इस बार सुखविंद्र सिंह सुक्खू के समर्थक उन्हें भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देख रहे है। नादौन में जहाँ भी सुक्खू प्रचार के लिए पहुंचे, समर्थक ये ही नारा दोहराते दिखे। इस बार कांग्रेस ने बेशक सामूहिक नेतृत्व में और बगैर सीएम फेस के चुनाव लड़ा है ,लेकिन इसमें कोई संशय नहीं है कि यदि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और नादौन विधानसभा सीट से सुखविंद्र सिंह सुक्खू चुनाव जीत कर आते है तो मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में सुक्खू का दावा बेहद मजबूत है। नादौन की सियासी फ़िज़ाओं में सुगबुगाहट तेज़ है कि मुमकिन है इस बार नादौन विधानसभा क्षेत्र को मुख्यमंत्री मिल जाएँ। ऐसे में जाहिर है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भावी सीएम फैक्टर का लाभ इस चुनाव में सुक्खू को मिला हो। नादौन के इतिहास की बात करें तो नादौन विधाभसभा सीट यूँ तो कांग्रेस का गढ़ रही है। यहां से नारायण चंद पराशर तीन बार विधायक रहे। नारायण चंद पराशर के बाद सुखविंद्र सिंह सुक्खू ने इस सीट पर राज किया है। 2003 से अब तक सुखविंद्र सिंह सुक्खू नादौन सीट पर तीन बार जीत चुके है, हालांकि 2012 के विधानसभा चुनाव में सुक्खू को 6750 मतों के अंतर से हार का सामना करना पड़ा था। पर फिर 2017 में सुक्खू ने जीत हासिल की। कांग्रेस में सुक्खू के अलावा कभी कोई अन्य चेहरा विकल्प के तौर पर नहीं उभरा। इस बीच भाजपा की बात करे तो एक बार फिर विजय अग्निहोत्री मैदान में है। अग्निहोत्री एक दफा सुक्खू को पटकनी भी दे चुके है और इस बार फिर मैदान में डटे हुए है। नादौन में भाजपा के लिए ऐसा भी कहा जाता है कि अगर यहां भाजपा एकजुट हो जाए तो शायद कांग्रेस की राह इतनी आसान न हो। अब भाजपा एकजुट है या नहीं ये तो आने वाला समय ही बताएगा। वहीँ इस बार आम आदमी पार्टी ने नादौन के सियासी समीकरण ज़रूर बदले है। दरअसल इस बार आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी शैंकी ठुकराल ने पुरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा है। अब देखना ये होगा कि शैंकी किसके वोट बैंक में कितनी सेंध लगाते है। नादौन में फिलवक्त सुक्खू जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त है। सुक्खू ने भावी सीएम के टैग के साथ चुनाव लड़ा है। ऐसे में जाहिर है इसका लाभ भी उन्हें मिलता दिख रहा है। बहरहाल, जनादेश ईवीएम में कैद है और सभी अपनी -अपनी जीत का दावा कर रहे है।
'प्रदेश का मुख्यमंत्री कैसा हो, सुक्खू भाई जैसा हो' ,चुनाव प्रचार के दौरान नादौन विधानसभा क्षेत्र में ये नारा खूब बुलंद रहा। इस बार सुखविंद्र सिंह सुक्खू के समर्थक उन्हें भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देख रहे है। नादौन में जहाँ भी सुक्खू प्रचार के लिए पहुंचे, समर्थक ये ही नारा दोहराते दिखे। इस बार कांग्रेस ने बेशक सामूहिक नेतृत्व में और बगैर सीएम फेस के चुनाव लड़ा है ,लेकिन इसमें कोई संशय नहीं है कि यदि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और नादौन विधानसभा सीट से सुखविंद्र सिंह सुक्खू चुनाव जीत कर आते है तो मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में सुक्खू का दावा बेहद मजबूत है। नादौन की सियासी फ़िज़ाओं में सुगबुगाहट तेज़ है कि मुमकिन है इस बार नादौन विधानसभा क्षेत्र को मुख्यमंत्री मिल जाएँ। ऐसे में जाहिर है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भावी सीएम फैक्टर का लाभ इस चुनाव में सुक्खू को मिला हो। नादौन के इतिहास की बात करें तो नादौन विधाभसभा सीट यूँ तो कांग्रेस का गढ़ रही है। यहां से नारायण चंद पराशर तीन बार विधायक रहे। नारायण चंद पराशर के बाद सुखविंद्र सिंह सुक्खू ने इस सीट पर राज किया है। 2003 से अब तक सुखविंद्र सिंह सुक्खू नादौन सीट पर तीन बार जीत चुके है, हालांकि 2012 के विधानसभा चुनाव में सुक्खू को 6750 मतों के अंतर से हार का सामना करना पड़ा था। पर फिर 2017 में सुक्खू ने जीत हासिल की। कांग्रेस में सुक्खू के अलावा कभी कोई अन्य चेहरा विकल्प के तौर पर नहीं उभरा। इस बीच भाजपा की बात करे तो एक बार फिर विजय अग्निहोत्री मैदान में है। अग्निहोत्री एक दफा सुक्खू को पटकनी भी दे चुके है और इस बार फिर मैदान में डटे हुए है। नादौन में भाजपा के लिए ऐसा भी कहा जाता है कि अगर यहां भाजपा एकजुट हो जाए तो शायद कांग्रेस की राह इतनी आसान न हो। अब भाजपा एकजुट है या नहीं ये तो आने वाला समय ही बताएगा। वहीँ इस बार आम आदमी पार्टी ने नादौन के सियासी समीकरण ज़रूर बदले है। दरअसल इस बार आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी शैंकी ठुकराल ने पुरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा है। अब देखना ये होगा कि शैंकी किसके वोट बैंक में कितनी सेंध लगाते है। नादौन में फिलवक्त सुक्खू जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त है। सुक्खू ने भावी सीएम के टैग के साथ चुनाव लड़ा है। ऐसे में जाहिर है इसका लाभ भी उन्हें मिलता दिख रहा है। बहरहाल, जनादेश ईवीएम में कैद है और सभी अपनी -अपनी जीत का दावा कर रहे है।
साल था 1982, प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार का निर्वाचन क्षेत्र रहे पच्छाद में एक सरकारी मुलाजिम राजनीति में आने का फैसला कर चुका था। राजनीतिक दलों ने भरोसा नहीं जताया तो निर्दलीय ही चुनावी समर में उतर गया और जीतकर विधानसभा पंहुचा। हम बात करे रहे है गंगूराम मुसाफिर की। इस बीच प्रदेश कांग्रेस में टिम्बर घोटाले पर बवाल मचा और मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल को हटाकर आलाकमान ने वीरभद्र सिंह को सीएम बना दिया। मुसाफिर की वीरभद्र सिंह से खूब जमी और वीरभद्र उन्हें कांग्रेस में ले आएं। इसके बाद 1985 से लेकर 2007 तक हुए 6 विधानसभा चुनाव मुसाफिर कांग्रेस टिकट पर लड़े और जीते भी। पर सातवीं बार विधायक बनने के बाद गंगूराम मुसाफिर को लेकर क्षेत्र में खासी एंटी इंकमबैंसी पनप चुकी थी। नतीजन 2012 का चुनाव वे हार गए। उनकी हार का सिलसिला भी जीत की तरह चला आ रहा है, मुसाफिर 2017 का विधानसभा चुनाव और 2019 का उपचुनाव भी हार चुके है। गंगूराम मुसाफिर के नाम हार की हैट्रिक दर्ज हुई तो स्वाभाविक है आलाकमान का भरोसा भी कम हुआ। ये ही कारण रहा कि इस बार कांग्रेस ने लगातार 9 बार मुसाफिर को टिकट देने के बाद उनका टिकट काट दिया। पार्टी ने मौका दिया दयाल प्यारी को। वो ही दयाल प्यारी जो 2019 के उपचुनाव में भाजपा की बागी थी और डेढ़ साल पहले ही कांग्रेस में आई है। पर दयाल प्यारी के आने के बाद से ही उनके और मुसाफिर के बीच तल्खियां दिखती रही। नतीजन दयाल प्यारी को टिकट दिए जाना मुसाफिर को मंजूर नहीं था और मुसाफिर भी बगावत कर मैदान में कूद गए। ख़ास बात ये है कि मुसाफिर को तीन बार हरा चुकी पच्छाद की जनता में इस बार उनको लेकर साहनुभूति दिखी है। उधर भाजपा ने उपचुनाव जीतकर पहली बार विधायक बनी रीना कश्यप को फिर मैदान में उतारा है। रीना को लेकर थोड़ी एंटी इंकमबैंसी है लेकिन कांग्रेस की बगावत में भाजपा को जीत की किरण जरूर दिख रही है। पर इस चुनाव में एक और ट्विस्ट है, वो है राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी की मौजूदगी। यहाँ राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी ने दमखम से चुनाव लड़ा है, और ये कहना बेहद मुश्किल है कि उन्होंने किसके वोट बैंक में सेंध लगाई है। ऐसे में इस रोचक मुकाबले में कुछ भी मुमकिन है। बहरहाल पच्छाद में निगाहें गंगूराम मुसाफिर पर रहने वाली है और ये देखना रोचक होगा कि क्या अपना पहला चुनाव बतौर निर्दलीय जीते मुसफिर अब अपना ग्यारहवां चुनाव भी निर्दलीय जीत पाएंगे।
सुलह वो सीट है जिसने दो बार हिमाचल प्रदेश को मुख्यमंत्री दिया है। इसी सीट से चुनाव लड़कर वर्ष 1977 में शांता कुमार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। फिर 1990 में जब दूसरी बार शांता कुमार मुख्यमंत्री बने तब भी वे इस सीट से चुनाव लड़कर विधायक बने थे। पर अगले ही चुनाव में, यानी 1993 में इसी सीट से खुद शांता कुमार चुनाव हार गए थे। यहाँ की सियासत बड़ी पेचीदा है। चालीस साल से यहाँ कोई भी नेता लगातार दो बार विधायक नहीं बन सका है। आखिर बार 1977 और फिर 1982 में चुनाव जीतकर शांता कुमार ने यहाँ रिपीट किया था, इसके बाद से हर पांच साल में जनता विधायक बदलती आ रही है। वहीँ 1985 से जो भी सुलह में जीतता है, सरकार भी उसी पार्टी की बनती है। सुलह की सियासत में कब क्या हो कोई दावे के साथ नहीं कह सकता। इस बार भी कमोबेश ये ही स्थिति है। सुलह सीट पर बेहद रोचक मुकाबला देखने को मिल रहा है। पिछले 24 सालों में यहां कभी विधायक भाजपा नेता विपिन सिंह परमार रहे तो कभी पूर्व कांग्रेस नेता जगजीवन पाल। इस बार यहां भाजपा ने फिर से विधानसभा अध्यक्ष विपिन सिंह परमार को मैदान में उतारा है। पर कांग्रेस ने सबको चौकांते हुए पूर्व विधायक जगजीवन पाल का टिकट काटकर जगदीश सिपहिया पर दाव खेला है। इसके बाद वो ही हुआ जिसकी आशंका थी, जगजीवन पाल ने निर्दलीय ताल ठोक दी। यानी सुलह में कांग्रेस को बगावत का सामना करना पड़ा, जबकि भाजपा एकजुट दिखी। जाहिर है कांग्रेस की इस बगावत के बीच भाजपा यहाँ रिवाज़ बदलने को लेकर आश्वस्त है। पर दिलचस्प बात ये है कि जगजीवन पाल के पक्ष में जहाँ इस क्षेत्र में सहानुभूति भी दिखी है, वहीं कांग्रेस का एक खेमा भी उनके साथ चला है। ऐसे में निर्दलीय होने के बावजूद उनका दावा कमतर नहीं है। जानकार मान रहे है कि सुलह में मुख्य मुकाबला भाजपा के विपिन सिंह परमार और निर्दलीय जगजीवन पाल के बीच देखने को मिल सकता है। यानी कांग्रेस का दाव यहाँ उल्टा पड़ा सकता है। बहरहाल मतदान हो चुका है और नतीजा आने पर आठ दिसम्बर को ही ये तय होगा कि कांग्रेस ने भूल की है या समझदारी। एक और दिलचस्प बात, अगर जगजीवन पाल सुलह में जीत जाते है तो वे इतिहास रच देंगे। दरअसल सुलह में आज तक कोई निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव नहीं जीता है।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के करीबी माने जाने वाले ये नेता 2017 में पहली बार विधायक बने और 2020 में जब जयराम कैबिनेट का विस्तार हुआ तो भाजपा ने सबको चौंकाते हुए इनको मंत्री पद भी दे दिया। तब मंत्री पद की दौड़ में विक्रम जरियाल सहित कई वरिष्ठ नेता थे, लेकिन किस्मत इनकी चमकी। जी हाँ हम बात कर रहे है घुमारवीं से वर्तमान विधायक और जयराम सरकार में खाद्य आपूर्ति मंत्री राजेंद्र गर्ग की। अब राजेंद्र गर्ग फिर से घुमारवीं से मैदान में है, मतदान हो चूका है और नतीजे के लिए आठ दिसम्बर का इन्तजार है। राजेंद्र गर्ग का नाम जयराम सरकार के उन मंत्रियों में शामिल है जिनके सामने अपनी सीट बचाने का संकट दिख रहा है। गर्ग मंत्री बने तो जाहिर है लोगों की अपेक्षाएं भी उनसे बढ़ी। इन्हीं अपेक्षाओं के बोझ तले क्या राजेंद्र गर्ग के दोबारा विधानसभा पहुँचने के अरमान कुचले जायेंगे, ये फिलवक्त बड़ा सवाल है। बहरहाल इतना तय है कि नतीजा जो भी रहे राजेंद्र गर्ग की डगर कठिन जरूर है। भाजपा के टिकट आवंटन से पहले घुमारवीं उन सीटों में शामिल थी जहां टिकट बदलने के कयास लग रहे थे। दरअसल भाजपा विचारधारा के एक समाजसेवी कोरोना काल से ही इस क्षेत्र में सक्रिय भी थे, लेकिन चुनाव नजदीक आते-आते उक्त समाजसेवी ने न तो तेवर दिखाए और न ही सियासी दमखम। ऐसे में भाजपा के सामने भी कोई दुविधा नहीं थी और गर्ग के टिकट की राह आसान हो गई। अब मतदान हो चुका है और भाजपा इस आस में होगी कि उसका निर्णय सही साबित हो। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव के दौरान जमीनी स्तर पर एंटी इंकम्बेंसी जरूर दिखी है। अब बात करते है कांग्रेस की। पार्टी ने यहाँ से दो बार विधायक रहे राजेश धर्माणी को फिर मौका दिया है और धर्माणी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। धर्माणी आक्रामक राजनीति करते है और वे लगातार क्षेत्र में सक्रिय भी रहे है। राजेंद्र गर्ग के खिलाफ भी उन्होंने हमेशा मोर्चा खोले रखा। इसके साथ ही सरकार के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी, पुरानी पेंशन बहाली और महिलाओं को प्रतिमाह 1500 रुपये देने जैसे कांग्रेस के वादे भी उन्हें फायदा पहुंचा सकते है। वहीँ इस सीट पर आम आदमी पार्टी का जिक्र भी जरूरी है क्यों कि पार्टी प्रत्याशी राकेश चोपड़ा ने यहाँ दमखम से चुनाव लड़ा है। माहिर मान रहे है कि चोपड़ा यहाँ ज्यादा नुक्सान राजेंद्र गर्ग को पंहुचा गए है जिसका लाभ धर्माणी को मिल सकता है। बहरहाल नतीजा जो भी हो, इस त्रिकोणीय मुकाबले में सभी अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे है और फिलहाल हकीकत से पर्दा उठाने के लिए आठ दिसम्बर का इन्तजार करना होगा।
जयराम कैबिनेट के मंत्री डॉ राम लाल मारकंडा उन नेताओं में से एक है जिनके सामने इस बार अपनी सीट बचाने की चुनौती है। डॉ मारकंडा जनजातीय जिला लाहौल स्पीति के वर्तमान में विधायक है और फिलवक्त बड़ा सवाल ये है कि इस बार फिर वे विधानसभा पहुंच पाएंगे। मतदान हो चुका है और नतीजा आठ दिसंबर को आना है, लेकिन तब तक मारकंडा की जीत- हार को लेकर कयासों का दौर जारी है। उधर, कांग्रेस ने इस बार फिर उनके सामने पूर्व विधायक रवि ठाकुर को मैदान में उतारा है। ठाकुर के लिए भी ये चुनाव बेहद अहम है। लाहौल-स्पीति की ठंडी फिजाओं में हर पांच साल बाद सियासत गर्मा जाती है। इस जिला में विधानसभा की महज एक ही सीट है, जो हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन की साक्षी रही है। जाे भी राजनीतिक दल सत्ता में आता है उसी दल काे यहां जीत मिलती रही है,1993 से ऐसा ही चला आ रहा है। लाहौल-स्पीति विधानसभा सीट पर 1993 में कांग्रेस ने जीत दर्ज की और सरकार भी कांग्रेस की बनी।1998 में जब पंडित सुखराम ने कांग्रेस से अलग होकर हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई तो उनकी पार्टी से लड़े डॉ रामलाल मारकंडा यहाँ से जीते। इसके बाद 2003 में कांग्रेस और 2007 में भाजपा को यहाँ जीत मिली। 2012 के चुनाव में यहाँ कांग्रेस के रवि ठाकुर काे जीत मिली थी और प्रदेश में भी कांग्रेस की ही सरकार बनी। इसी तरह से 2017 के चुनाव में फिर भाजपा के डा.रामलाल मारकंडा को जीत मिली और वो प्रदेश में जयराम सरकार के कैबिनेट मंत्री भी बने। 2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजे पर निगाह डालें तो कांग्रेस ने लाहौल-स्पीति विधानसभा सीट से रवि ठाकुर को चुनाव मैदान में उतारा था। कांग्रेस के रवि ठाकुर को भाजपा के रामलाल मारकंडा ने तब 1478 मतों से हराया। इससे पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में रवि ठाकुर ने डॉ रामलाल मार्कंडेय को शिकस्त दी थी। पूर्व विधायक रवि ठाकुर के पिता निहाल चंद भी प्रदेश विधानसभा के सदस्य रह चुके हैं। वहीं कैबिनेट मंत्री डॉ रामलाल मारकंडा लाहौल-स्पीति से तीन बार चुनाव जीत चुके है। 1998 में वो हिमाचल विकास कांग्रेस के टिकट पर जीते, जबकि 2007 और 2017 में भाजपा टिकट पर। अब तीसरी बार रवि ठाकुर और राम लाल मारकंडा मैदान में है। कभी कांग्रेसी थे मारकंडा डा.रामलाल मारकंडा का राजनीतिक सफर एनएसयूआई यानी कांग्रेस के छात्र संगठन से शुरु हुआ था। वे हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में एनएसयूआई के छात्र नेता रह चुके हैं। धीरे-धीरे कांग्रेस में बात नहीं बनी तो उन्होंने 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस से चुनाव लड़ा और जीत भी गए और भाजपा-हिविकां गठबंधन सरकार में मंत्री की कुर्सी भी मिली गई। उसके बाद जब हिमाचल विकास कांग्रेस में बिखराव शुरू हुआ तो उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया। लाहौल स्पीति में पिछड़ी है भाजपा पिछले साल लाहौल स्पीति में हुए पंचायत चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन फीका रहा था। हालाँकि जैसे -तैसे निर्दलियों की सहायता से पंचायत समिति में अल्पमत में होने के बाद भी भाजपा ने अध्यक्ष पद पर कब्जा जमा लिया। पर नतीजों के बाद मंत्री राम लाल मारकंडा पर सवाल जरूर उठे। इसके बाद मंडी संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में भी वे भाजपा को लीड नहीं दिलवा पाए थे। इसे भी मंत्री की बड़ी नाकामी के तौर पर देखा गया।
बेशक जिला किन्नौर में सिर्फ एक ही विधानसभा सीट है लेकिन यहां का सियासी रोमांच किसी अन्य जिला से कमतर बिलकुल नहीं है। इस बार भी विधानसभा चुनाव में यहाँ भरपूर रोमांच देखने को मिला है। कांग्रेस और भाजपा दोनों तरफ जमकर खींचतान दिखी ही। कांग्रेस में जहाँ सीटिंग विधायक और वरिष्ठ नेता जगत सिंह नेगी का टिकट अंतिम समय तक लटका रहा, तो भाजपा ने पूर्व विधायक तेजवंत नेगी का टिकट काटकर युवा सूरत नेगी को मैदान में उतारा। खफा होकर तेजवंत भी चुनावी समर में कूद गए और इस मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया। बहरहाल मतदान हो चुका है और किन्नौर सीट पर सबकी निगाह है। युवा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष निगम भंडारी भी किन्नौर से कांग्रेस का टिकट मांग रहे थे। पर कांग्रेस के लिए सीटिंग विधायक और वरिष्ठ नेता जगत सिंह नेगी का टिकट काटना आसान नहीं था। जैसा अपेक्षित था वैसा ही हुआ, कांग्रेस ने निगम भंडारी को मना लिया और जगत सिंह फिर मैदान में है। वहीँ भाजपा ने पिछला चुनाव 120 वोट से हारे तेजवंत की जगह इस बार सूरत नेगी को मौका दिया। पर तेजवंत ने निर्दलीय चुनाव लड़कर पार्टी की परेशानी बढ़ा दी। तेजवंत को लेकर सहानुभूति भी दिखी लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि तेजवंत ने सिर्फ भाजपा के वोट में ही सेंध लगाई है। यानी मुकाबला दिलचस्प है। सिर्फ ठाकुर सेन नेगी लगा सके है हैट्रिक किन्नौर के चुनावी इतिहास पर नज़र डाले तो अब तक सिर्फ ठाकुर सेन नेगी ही जीत की हैट्रिक लगा सके है। ठाकुर सेन नेगी 1967 से 1982 तक लगातार चार चुनाव जीते। दिलचस्प बात ये है कि वे तीन बार निर्दलीय और एक बार लोकराज पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते। फिर वे भाजपा में शामिल हो गए और एक बार 1990 में भाजपा टिकट से भी जीतने में कामयाब हुए। ठाकुर सेन नेगी के अलावा जगत सिंह नेगी ही इकलौते ऐसे नेता है जिन्होंने लगातार दो चुनाव जीते हो। इस बार क्या जगत सिंह नेगी हैट्रिक लगा पाएंगे, ये देखना रोचक होगा। कांग्रेस जीती तो जगत नेगी को मिलेगा अहम जिम्मा किन्नौर से यदि जगत सिंह नेगी जीत दर्ज करते है और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है तो नेगी को अहम जिम्मा मिल सकता है। जानकार जगत सिंह नेगी को भावी मंत्री के तौर पर देखते है। इससे पहले नेगी विधानसभा उपाध्यक्ष रह चुके है।
2017 के विधानसभा चुनाव नतीजों में भाजपा का आंकड़ा 44 पहुंच गया था, लेकिन जीते हुए उम्मीदवारों की सूची में दो मुख्य नाम नदारद थे। एक थे भाजपा के सीएम फेस प्रो. प्रेम कुमार धूमल और दूसरे तत्कालीन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती। 2017 के चुनाव में दोनों नेताओं को हार का मुँह देखना पड़ा था। कहा जाता है कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतपाल सत्ती यदि उस दौरान जीत जाते, तो वे सीएम पद के प्रबल दावेदार थे। मुमकिन था कि ऊना को मुख्यमंत्री मिल गया होता। पर ऐसा हो न सका और सत्ती दौड़ से बाहर हो गए। सतपाल सिंह सत्ती वो नेता है जिन्होंने छात्र राजनीति से अपना करियर शुरू कर पार्टी प्रदेशाध्यक्ष पद तक का सफर तय किया। 2017 के चुनाव में भले ही सतपाल सिंह सत्ती चुनाव हारे हो लेकिन उनका रसूख कायम रहा। प्रदेश में जयराम सरकार बनी और 2020 में सत्ती को कैबिनेट रैंक देकर राज्य के छठे वित्त आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। इस बीच 2019 के अंत तक प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर भी वे बने रहे। वे भाजपा प्रदेश कोर कमेटी के सदस्य भी है। अब सत्ती पांचवी बार ऊना सदर सीट से मैदान में है और चौथी जीत को लेकर आश्वस्त भी। उधर, कांग्रेस ने एक बार फिर वर्तमान विधायक सतपाल रायजादा को टिकट दिया है। रायजादा और सत्ती तीसरी बार आमने -सामने है। पहली बार दोनों 2012 में मैदान में थे और तब सतपाल सत्ती करीब 4700 वोट से जीते थे। इसके बाद 2017 में सतपाल रायजादा ने हिसाब बराबर किया और करीब तीन हज़ार वोट से सतपाल सत्ती को हराया। रायजादा को लेकर इस बार भी क्षेत्र में एंटी इंकम्बेंसी नहीं दिखती। इसके अलावा ओपीएस और महिलाओं को पंद्रह सौ रुपये जैसे कांग्रेस के वादे भी उनकी जीत के दावे को प्रबल करते है। बहरहाल मतदान हो चुका है और दोनों के जीत के दावों के बीच नजदीकी मुकाबला तय है। निसंदेह इस बार ऊना सदर सीट पर कड़ा मुकाबला हुआ है और संभव है यहाँ जीत-हार का अंतर बेहद कम रहे।
मुख्यमंत्री शिमला का होगा, कांगड़ा का होगा, मंडी का होगा या हमीरपुर का होगा...इस तरह की कयासबाजी और बयानबाजी अक्सर सियासी गलियारों में आम है। स्वभाविक बात है कि किसी जिला से मुख्यमंत्री का होना बड़ी बात है। पर हिमाचल प्रदेश में एक ऐसा निर्वाचन क्षेत्र भी है जिसने प्रदेश को दो मुख्यमंत्री दिए है। ये विधानसभा सीट है जुब्बल कोटखाई, हिमाचल प्रदेश का इकलौता ऐसा निर्वाचन क्षेत्र है जिसने दो मुख्यमंत्री दिए है, ठाकुर रामलाल और वीरभद्र सिंह। इसी सीट से जीतकर कुल तीन बार ठाकुर राम लाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, तो एक बार वीरभद्र सिंह ने। नौ बार के विधायक और तीन बार मुख्यमंत्री रहे ठाकुर रामलाल की कर्मभूमि जुब्बल कोटखाई क्षेत्र रहा है। 1977 में ठाकुर रामलाल जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब वे इसी सीट से विधायक थे। फिर 1980 में जब शांता सरकार को गिराकर ठाकुर रामलाल दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तब भी वे इसी सीट से विधायक थे। 1982 में विधानसभा चुनाव हुए और कांग्रेस ने रिपीट किया और जुब्बल कोटखाई से विधायक ठाकुर रामलाल तीसरी बार मुख्यमंत्री बने। फिर 1983 में हिमाचल की सियासत में टिम्बर घोटाले के चलते बवाल मच गया। तब इसी बवाल में मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल की कुर्सी चली गई और वीरभद्र सिंह पहली बार सीएम बने थे। सियासत के जादूगर वीरभद्र सिंह ने जनता की नब्ज को भांपते हुए विधानसभा जल्दी भंग करवा दी और 1985 में ही विधानसभा चुनाव करवा दिए। दिलचस्प बात ये है कि 1985 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह ने अपना चुनाव क्षेत्र बनाया जुब्बल कोटखाई को। वीरभद्र सिंह जीत गए और दूसरी बार मुख्यमंत्री भी बन गए। यानी जुब्बल कोटखाई को दूसरा मुख्यमंत्री मिल गया। यहां वीरभद्र सिंह भी हारे है 1990 में वीरभद्र सिंह हैट्रिक लगाने के इरादे से मैदान में उतरे। उस चुनाव में वीरभद्र दो सीटों से लड़े, रोहड़ू और जुब्बल कोटखाई। रोहड़ू में तो वीरभद्र जीत गए लेकिन जुब्बल कोटखाई में करीब पंद्रह सौ वोट से हार गए। दिलचस्प बात ये है कि वीरभद्र सिंह को हराने वाले थे ठाकुर रामलाल जिन्हें कुर्सी से हटाकर वीरभद्र सिंह पहली बार सीएम बने थे। इस बार कौन जीतेगा ? मौजूदा चुनाव की बात करें तो यहाँ त्रिकोणीय मुकाबला है और ये सीट बेहद रोचक है। कांग्रेस ने ट्राइड एंड टेस्टेड मौजूदा विधायक और ठाकुर रामलाल के पौते रोहित ठाकुर को फिर मैदान में उतारा है, तो भाजपा ने उपचुनाव से सबक लेते हुए चेतन बरागटा पर दाव खेला है। पिछले साल हुए उपचुनाव में इस सीट पर भाजपा की जमानत जब्त हुई थी जिसके बाद भाजपा ट्रैक पर जरूर लौटी है। यहाँ मुकाबले को दिलचस्प बनाया है माकपा के विशाल शांगटा ने। शांगटा दमदार तरीके से चुनाव लड़े है और क्या उन्होंने कांग्रेस को अपेक्षित एंटी इंकम्बैंट वोट में भी ठीकठाक सेंध मारी है, इसका जवाब इस सीट का नतीजा तय करेगा। रोहित ठाकुर यहाँ जीत को लेकर आश्वस्त जरूर है लेकिन यहाँ नतीजा चौंकाने वाला हो सकता है।