दीपावली का पर्व सदियों से पूरे देशभर में मनाया जाता रहा है। हर किसी को यह पता है कि दीपावली का पर्व क्यों मनाया जाता है। दीपावली के मौके पर पूरे देश भर में रौनक रहती है, लेकिन बीते चार वर्षों में अयोध्या की दीपावली को लेकर पूरे देश भर में चर्चाएं हैं। हर वर्ष दीपावली के पर्व पर दीपोत्सव का आयोजन किया जाता है और ख़ास बात ये है कि इस आयोजन को हर वर्ष और भव्यता दी जा रही है। अयोध्या में हर बार अपना ही रिकॉर्ड तोड़कर एक नया कीर्तिमान स्थापित जाता है। आज दीपोत्सव के कारण अयोध्या की महिमा का बखान पूरी दुनिया में हो रहा है। उत्तर प्रदेश के अयोध्या में फिर दीपोत्सव का नया विश्व रिकॉर्ड बनाने के लिए तैयारी हो रही है। राम नगरी अयोध्या में इस साल का दीपोत्सव बड़ा धूम-धाम से होगा और इसको लेकर तैयारियां शुरू हो गई हैं। अयोध्या में सरयू के किनारे इस बार लगभग 16 लाख दीपक जलाए जाएंगे और कोशिश यह होगी कि पुराना रिकॉर्ड तोड़कर 14 लाख से अधिक दीपों का नया कीर्तिमान बनाया जाए। इसके लिए 18 हजार वालेंटियर्स की टीम बनाई जा रही हैं जिसमे स्कूल कालेज के छात्र-छात्राओं के अलावा एनजीओ और समूहों के लोग भी शामिल होंगे। राम की पौड़ी के किनारे के वृहद क्षेत्र में सभी मंदिर पीले रंग में रंगे जाएंगे और दीपोत्सव के समय लेजर लाइट शो और ग्रीन आतिशबाजी का भव्य दृश्य दिखाई देगा। -5 साल पहले हुई शुरुआत दीपावली के दिन अयोध्या के राजा राम अपने 14 वर्ष के वनवास के बाद लौटे थे। अयोध्यावासियों का हृदय अपने परम प्रिय राजा जो कि पुरुषोत्तम बन चुके थे, उनके आगमन से सभी प्रफुल्लित हो उठे थे। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाए थे। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी थी। तब से ही इसे दीपों का पर्व मनाया जानें लगा। उत्तर प्रदेश में साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली पूर्ण बहुमत की जीत के बाद से ही अयोध्या में दीपोत्सव की शुरुआत की गई थी। जहाँ राम की पैड़ी पर दीपोत्सव पहली बार भव्य रूप से मनाया गया था। इस दौरान हर साल दीप जलाने का रेकॉर्ड बनाया जा रहा है। - एक करोड़ 75 लाख रुपये खर्च होंगे राम की पैड़ी के घाटों पर दीप जलाने व इसकी व्यवस्था में कुल एक करोड़ 75 लाख रुपये खर्च होंगे। इसके लिए अवध विश्वविद्यालय प्रशासन ने तीन हिस्सों में टेंडर किया था, जो अब खोला जा चुका है। इसमें प्रतिभा प्रेस एंड मल्टी मीडिया प्राइवेट लिमिटेड को सबसे बड़ा कार्य दो टेंडर की सामग्री की आपूर्ति का जिम्मा दिया गया है। अवध विश्वविद्यालय प्रशासन चयनित फर्मों को जल्द ही कार्यादेश जारी करेगा। आवश्यक सामग्री की आपूर्ति तय समय पर ही होगी। पहले हिस्से के टेंडर में दीया, बाती, कपूर व तेल की आपूर्ति होनी है, जिस पर एक करोड़ 28 लाख खर्च होंगे। बाल्टी, मग, मोमबत्ती, टोपी, छड़ी, परिचय पत्र, सीटी, वीडियोग्राफी व फोटोग्राफी, रंगोली में प्रयुक्त होने वाले सामान की आपूर्ति 18.5 लाख से की जाएगी। 40 हजार से अधिक स्वयंसेवकों के लिए भोजन जलपान व्यवस्था पर साढ़े 18 लाख खर्च होंगे। इस बार कुल 14 लाख 50 हजार जलते दीपों का विश्व रिकार्ड बनाने की तैयारी है। -हर वर्ष बढ़ाई जा रही दीयों की संख्या पिछले साल अयोध्या राम की पैड़ी में 9,41,551 दीप जलाकर विश्व रिकॉर्ड बनाया गया था। 2017 में यूपी में पूर्ण बहुमत से बीजेपी की सरकार बनने और योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद अयोध्या में दीपोत्सव की शुरुआत की गई थी। पहले साल 51 हजार दीये जलाए गए थे। तबसे हर साल दीयों की संख्या बढ़ती जा रही है। 2018 में 3,01152 दीये जलाए गए। 2019 में इस दीपोत्सव कार्यक्रम को प्रांतीय स्तर का मेला घोषित किया गया। 2019 में 5,50,000 दीप जलाए गए। 2020 में 6,06,569 दीप जलाए गए और 2021 में 9,41,551 दीये जलाए। अब 2022 में 14 लाख से अधिक दीये जलाकर नया विश्व रिकॉर्ड बनाया जाएगा। -18 हजार वालेंटियर्स होंगे इस बार इस दीपोत्सव को लेकर इस साल नया कीर्तिमान बनाने के लिए 16 लाख 28 हजार दीपो को जलाने का टारगेट है। इस बार मानकर चल रहे हैं कि 16 लाख दीपक जलाए जाएंगे। पिछले साल 11000 वालंटियर ने काम किया था। इस साल क्योंकि दीपो की संख्या बढ़ गई है तो करीब 18 हजार वालेंटियर्स स्टूडेंट टीचर इसमें मिलकर काम करेंगे और इसके लिए कमेटियां भी बनाई जा रही हैं। इसके अलावा दीए जलाने की जिम्मेदारी डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय को सौंपी गई है। विश्वविद्यालय के नोडल अधिकारी प्रो. अजय प्रताप सिंह टीम दीपोत्सव को सफल बनाने में जुटी हुई है। राम की पैड़ी सहित अन्य घाटों पर दीपोत्सव में 20 हजार वालंटियर अनुशासित रहकर 16 लाख दीए सजाएंगे। -घाटों पर 20 अक्तूबर तक पहुंच जाएंगे दीए सभी घाटों पर 20 अक्तूबर तक दीए पहुंच जाएंगे। 21 अक्तूबर से दीए बिछाने कार्य शुरू होगा। 22 अक्तूबर को दीयों की गणना होगी और 23 अक्तूबर को दीए में तेल-बाती लगाया जाएगा। फिर शाम को जलाये जायेंगे। -राम मंदिर का निर्माण तेज अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का कार्य जोर-शोर से जारी है। इसी महीने इसके नींव का कार्य पूरा होने की संभावना है और दिसंबर, 2023 से भगवान श्रीराम के इस नए भव्य मंदिर में श्रद्धालु पूजा-अर्चना कर पाएंगे। दिसंबर, 2023 तक मंदिर को भक्तों के लिए खोल दिया जाए, उससे पहले मंदिर निर्माण का कार्य संपन्न कर भगवान को वहां विराजमान करने का लक्ष्य है। यह मंदिर 360 फीट लंबा, 235 फीट चौड़ा और 161 फीट ऊंचा होगा। मंदिर में कुल मिलाकर 5 शिखर होंगे और सबसे ऊंचा शिखर 161 फीट ऊंचा होगा। उन्होंने बताया कि यह मंदिर 3 मंजिला होगा, जिसमें 20-20 फीट के तीन मंजिल बनाए जाएंगे और उसके बाद शिखर होगा। फिलहाल इसके गर्भगृह के बेस बनाने का कार्य पूर्ण हो चुका है और अब आगे की प्रकिया को तेजी से चलाया जा रहा है। ऐसे में माना जा रही है दीवाली के मौके पर बड़ी संख्या में राम मंदिर दिखेने के लिए लोग आएंगे। -दीपोत्सव के दौरान होंगे अनेक कार्यक्रम दीपोत्सव के दौरान अयोध्या में श्रद्धालुओं को जोड़ने के लिए कई आयोजन होंगे। इसकी संस्कृति विभाग अपने स्तर पर तैयारी कर रहा है। भजन संध्या स्थल और सांस्कृतिक मंच पर नियमित रूप से कार्यक्रम। दीपोत्सव की बढ़ती लोकप्रियता के कारण इस बार अन्य साल की तुलना में भारी भीड़ रहने की उम्मीद है। इस बार लक्ष्य बढ़ा कर 14.50 लाख दीप जलाने का है। ऐसे में सभी विभाग आपसी तालमेल समन्वय के साथ व्यवस्था को बेहतर बनाने की कवायद में जुट गए हैं। -21 प्रमुख मंदिर 4.50 लाख दीयों से होंगे रोशन पर्यटन विभाग के उप निदेशक राजेंद्र प्रसाद ने बताया कि दीपोत्सव पर 14 लाख से ज्यादा दीये राम की पैड़ी में जलाए जाएंगे जबकि अयोध्या के प्रमुख 21 मंदिरों में 4.50 लाख दीये जलाए जाएंगे। ये दीये गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज नहीं किए जाएंगे। उन्होंने बताया कि राम जन्म भूमि पर 51 हजार, हनुमान गढ़ी पर 21 हजार दीये जलाए जाएंगे। इसी तरह कनक भवन, गुप्तार घाट, दशरथ समाधि, राम जानकी मंदिर साहिबगंज, देवकाली मंदिर, भरत कुंड (नंदीग्राम) समेत प्रमुख मंदिरों में 21 हजार दीये जलाए जाएंगे। वहीं पूरे अयोध्या को रोशन करने के लिए सामाजिक संगठनों को भी दीये वितरित किए जाएंगे। उप निदेशक ने बताया कि हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी राम लीला होगी, जिसमें कई देशों के कलाकार भाग लेंगे। इसके साथ ही आतिशबाजी और लेजर शो भी होगा। -एक दीए में डाला जाएगा 40 एमएल तेल एक बार फिर यूपी सरकार दीपोत्सव का नया रिकार्ड बनाने के लिए जुटा हुआ है। पर इस बार योगी सरकार एक और नया प्रयोग करने जा रही है। इस दीपोत्सव में दीए अन्य दीपोत्सव की तुलना में अधिक देर तक अपनी रोशनी बिखेरेंगे। इसके लिए जिम्मेदार संस्था ने एक तरकीब निकाली है। उन्होंने दीए की साइज को बड़ा कर दिया। अब इस दीए में 30 एमएल तेल की जगह 40 एमएल तेल डाला जाएगा। जिस वजह से ये दीए देर तक जलेंगे और दीवाली के दिन अपनी रोशनी से भक्तों और दर्शकों का मन मोहेंगे। -रोजगार मिलने से कुम्हारों के घर भी होंगे रोशन दीपोत्सव में जलाने के लिए दिए के निर्माण का कार्य करने वाले कुम्हारों को रोजगार मिलने पर घर रोशन होंगे। आस्था के जरिए यहां के लोगों को रोजगार भी मिल रहा है जिससे ये लोग जीवन-यापन करते हैं।इन लोगों की दीपावली पर दीपक बनाकर अच्छी कमाई हो जाती है। दीपोत्सव में यहां के स्थानीय कुम्हारों से दीए खरीदे जाते हें।
नवरात्र एक प्रमुख हिंदू त्योहार है, जिसे पूरे भारत भर में काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। इस पर्व पर लोगों द्वारा देवी दुर्गा के नौ रुपों की पूजा की जाती है। नवरात्र का यह पर्व उत्तर भारत के कई राज्यों सहित में भी इस पर्व का काफी भव्य आयोजन देखने को मिलता है। वैसे तो नारी शक्ति देवी दुर्गा को समर्पित नवरात्र का यह पर्व एक वर्ष में चार बार आता है लेकिन इनमें से दो नवरात्रों को गुप्त नवरात्र माना जाता है और लोगो द्वारा सिर्फ चैत्र तथा शारदीय नवरात्र को ही मुख्य रूप से मनाया जाता है। ज्योतिष शास्त्रीय गणनानुसार कलश स्थापन शुभमुहूर्त्त प्रात: 06 बजकर 10 मिनट से 07 बजकर 52 मिनट तथ दूसरा अभिजित मुहूर्त्त 11 बजकर 48 मिनट से 12 बजकर 36 मिनट के बीच शुभ रहेगा। तिथि समय मातृस्वरूप दिनॉक आश्विन प्र. प्रतिपदा 27:08 (मां शैलपुत्री) : 26/9/2022 १० सोम द्वितीया 26:28 (मां ब्रह्मचारिणी) : 27/9/2022 ११मंगल तृतीया 25:28 (मां चंद्रघंटा) : 28/9/2022 १२बुध चतुर्थी 24:09 (मां कुष्मांडा) : 29/9/2022 १३गुरु पंचमी 22:35 (मां स्कंदमाता) : 30/9/2022 १४शुक्र षष्ठी 20:47 (मां कात्यायनी) : 01/10/2022 १५शनि सप्तमी 18:47 (मां कालरात्रि) : 02/10/2022 १६रवि अष्टमी 16:28 (मां महागौरी) : 03/10/2022 १७सोम नवमी 14:21 (मां सिद्धिदात्री) : 04/10/2022 १८मंगल दशहरा 12:00 (विजयादशमी ) : 05/10/2022 १९बुध कन्या पूजन का शास्त्रोक्त विधान एक वर्ष की कन्या का पूजन नहीं करना चाहिए। दो वर्ष – कुमारी – दुःख-दरिद्रता और शत्रु नाश तीन वर्ष – त्रिमूर्ति – धर्म-काम की प्राप्ति, आयु वृद्धि चार वर्ष– कल्याणी – धन-धान्य और सुखों की वृद्धि पांच वर्ष – रोहिणी – आरोग्यता-सम्मान प्राप्ति छह वर्ष – कालिका – विद्या व प्रतियोगिता में सफलता सात वर्ष – चण्डिका – मुकदमा और शत्रु पर विजय आठ वर्ष – शाम्भवी – राज्य व राजकीय सुख प्राप्ति नौ वर्ष – दुर्गा – शत्रुओं पर विजय, दुर्भाग्य नाश दस वर्ष – सुभद्रा – सौभाग्य व मनोकामना पूर्ति कन्या पूजन विधि:- सर्वप्रथम व्यक्ति को प्रातः स्नान करना चाहिए। उसके पश्चात् कन्याओं के लिए भोजन अर्थात पूरी, हलवा, खीर, चने आदि को तैयार कर लेना चाहिए । कन्याओं के पूजन के साथ बटुक पूजन का भी महत्त्व है, दो बालकों को भी साथ में पूजना चाहिए एक गणेश जी के निमित्त और दूसरे बटुक भैरो के निमित्त कहीं कहीं पर तीन बटुकों का भी पूजन लोग करते हैं और तीसरा स्वरुप हनुमान जी का मानते हैं | एक-दो-तीन कितने भी बटुक पूजें पर कन्या पूजन बिना बटुक पूजन के अधूरी होती है।कन्याओं को माता का स्वरुप समझ कर पूरी भक्ति-भाव से कन्याओं के हाथ पैर धुला कर उनको साफ़ सुथरे स्थान पर बैठाएं। ॐ कौमार्यै नम: मंत्र से कन्याओं का पंचोपचार पूजन करें । सभी कन्याओं के मस्तक पर तिलक लगाएं, लाल पुष्प चढ़ाएं, माला पहनाएं, चुनरी अर्पित करें तत्पश्चात् भोजन करवाएं। भोजन में मीठा अवश्य हो, इस बात का ध्यान रखें।भोजन के बाद कन्याओं के विधिवत् कुंकुम से तिलक करें तथा दक्षिणा देकर हाथ में पुष्प लेकर यह प्रार्थना करे- मंत्राक्षरमयीं लक्ष्मीं मातृणां रूपधारिणीम्। नवदुर्गात्मिकां साक्षात् कन्यामावाहयाम्यहम्।। जगत्पूज्ये जगद्वन्द्ये सर्वशक्तिस्वरुपिणि। पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमोस्तु ते।। तब वह पुष्प कुमारी के चरणों में अर्पण कर उन्हें ससम्मान विदा करें। इस बार पांचवें नवरात्र अर्थात् 30 सितंबर से 25 नवंबर 2022 तक शुक्र अस्त रहेगा। अस्त से तीन दिन पहले वार्धक्य और तीन दिन बाद तक शुक्र बाल्यत्व दोष शुभ कार्यों में वर्जित रहता है।यथा- विवाह ,मुंण्डन, जनेऊ आदि संस्कार, गृहारंभ, गृह प्रवेश, नया वाहनादि खरीदना वर्जित रहता है। प्राय: अन्य नित्य नैमितिक कृत्य पूजा पाठ तथा नवग्रह अनिष्ट पीड़ा शांति के निमित्त जपानुष्ठान आवश्यकतानुसार करते रहना श्रेयस्कर रहेगा। - डॉ. देश राज शर्मा, नित्यानंद कृपा, हीरानगर शिमला (हि.प्र.)
नवरात्रि का त्योहार 26 सितंबर 2022 से शुरु हो चुका है। सनातन धर्म में नवरात्रि के त्योहारों को बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इस दौरान मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है। नवरात्रि के दिनों में लोग जवारे बोते हैं और इसका विशेष महत्व है। नवरात्रि के पहले दिन से ही जौ बोए जाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि धरती की रचना के बाद जो सबसे पहली फसल उगाई गई थी, वह जौ ही थी। नौ दिनों की नवरात्रि पूजा के बाद इसको नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। मान्यता के अनुसार प्रकृति की शुरुआत में जो फसल सबसे पहले बोई गई थी, वह जौ थी, इसलिए इसे पूर्ण फसल भी कहा जाता है। नवरात्रि के दिनों में सिर्फ जौ बोने से ही सब कुछ नहीं होता बल्कि इसके बढ़ने की गति भी बहुत कुछ बताती है। इन नौ दिनों में जौ कितनी तेजी से बढ़ रही है, यह बहुत महत्वपूर्ण है। माना जाता है कि इसे बोने के पीछे कुछ शुभ और अशुभ संकेत भी छुपे होते हैं। यदि नवरात्रि में जौ बोने के कुछ समय बाद ही उगने लगें और जल्द ही हरी-भरी हो जाएं तो यह आपके लिए एक बहुत ही शुभ संकेत है। मान्यता है कि इससे संकेत मिलता है कि आपके घर के कामों में आ रही हर प्रकार की रुकावट जल्द ही दूर होगी और घर के सदस्यों का स्वास्थ्य भी अच्छा बना रहेगा। तेजी से जौ बढ़ने का अर्थ है कि घर में सुख-समृद्धि आना शुरू हो चुकी है। यदि आपके घर की जौ सफेद और हरे रंग में तेजी से बढ़ रही है तो यह एक शुभ संकेत माना गया है और माना जाता है कि माता ने आपकी पूजा स्वीकार की है। पीले रंग में उगने वाली जौ को भी घर में खुशियों की दस्तक माना जाता है। पर यदि नवरात्रि में बोई गई जौ ठीक प्रकार से नहीं उग रही हैं तो यह आपके घर के लिए एक अशुभ संकेत हो सकता है। यदि जौ काले रंग की टेढ़ी-मेढ़ी होती हैं तो इसे भी एक अशुभ संकेत माना गया है। ऐसे में आपको माता दुर्गा से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह आपकी सारी परेशानियों को दूर करें।
सावन का महीना शुरू हो गया है। इसके सोमवार का बहुत अधिक महत्त्व है। सावन सोमवार के दिन व्रत रखते हुए भगवान शिव की पूजा अर्चना करने से विशेष लाभ प्राप्त होता है। कल यानी 25 जुलाई को सावन का दूसरा सोमवार है। इस दिन भगवान शिव जी पूजा के लिए समर्पित प्रदोष व्रत भी है। इसके साथ ही सावन सोमवार के इस दिन सर्वार्थ सिद्धि व अमृत सिद्धि के साथ धुव्र योग का भी निर्माण हो रहा है। ज्योतिष के अनुसार, सर्वार्थसिद्धि व अमृत सिद्धि योग में ज भी कार्य किये जाते हैं उनका पुण्य फल बहुत जल्द मिलता है।हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार, इस योग में पूजा-अर्चना करने से भगवान शिव व माता पार्वती की असीम कृपा प्राप्त होगी। सावन सोमवार का व्रत रखने के लिए प्रातः काल स्नान करके पूजा स्थल को स्वच्छ करके वेदी स्थापित करें। शिव मंदिर में जाकर भगवान भोलेनाथ को जल चढ़ाएं. पूरी श्रद्धा से शिव जी की पूजा करने और व्रत रखने का संकल्प लें। इस दिन भगवान शिव की आराधना करने के साथ-साथ माता पार्वती की भी पूजा करें। इस दिन सोम प्रदोष व्रत होने के कारण प्रदोष काल में भी शिव की उपासना करना न भूलें। व्रत के दौरान सावन सोमवार व्रत कथा का पाठ सुनें। पूजा समाप्त होने के बाद प्रसाद का वितरण करें।
कहा जाता है कांगड़ा का ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ मां का एक ऐसा धाम है जहां पहुंच कर भक्तों का हर दुख उनकी तकलीफ मां की एक झलक भर देखने से दूर हो जाती है। यह 52 शक्तिपीठों में से मां का वो शक्तिपीठ है जहां सती का दाहिना वक्ष गिरा था और वहां तीन धर्मों के प्रतीक के रूप में मां की तीन पिंडियों की पूजा होती है। पहाड़ों को नहलाती सूर्य देव की पवित्र किरणें और भोर के आगमन पर सोने सी दमकती कांगड़ा की विशाल पर्वत श्रृंखला को देख ऐसा लगता है कि मानो किसी निपुण जौहरी ने घाटी पर सोने की चादर ही मढ़ दी हो। ऐसा मनोरम दृश्य कि एक पल को प्रकृति भी अपने इस रूप पर इतरा उठे। ब्रजेश्वरी देवी के धाम के बारे में एक पौराणिक कथा परसगलित है। कहते हैं कि भगवान शिव के ससुर राजा दक्ष ने अपनी राजधानी में यज्ञ का आयोजन किया था जिसमे उन्होंने भगवान शिव और माता सती को आमंत्रित नहीं किया। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयी। जब यज्ञ स्थल पर माता सती पहुंची तो वहां उनके पिता द्वारा शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और हवन कुण्ड में कूद गई। जब यह बात भगवान शंकर को पता चली तो यज्ञ स्थल पर पहुंचकर उन्होंने सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करना शुरू कर दिया। क्रोध की अग्नि में जल रहे शिव माता सती की देश पूरी सृष्टि में घूमने लगे। भगवान शिव के क्रोध के कारण पूरे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्मांड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागों में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। माता सती के शरीर के यह टुकड़े धरती पर जहां-जहां गिरे वह स्थान शक्तिपीठ स्थापित हो गए। मान्यता है कि यहां माता सती का दाहिना वक्ष गिरा था इसलिए ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ में मां के वृक्ष की पूजा होती है। कहा जाता है पहले यह मंदिर बहुत समृद्ध था। इस मंदिर को बहुत बार विदेशी लुटेरों द्वारा लूटा गया। महमूद गजनवी ने 1009 ई. में इस शहर को लूटा और मंदिर को नष्ट कर दिया था। फिर यह मंदिर वर्ष 1905 में जोरदार भूकंप से पूरी तरह नष्ट हो गया था। 1920 में इसे दोबारा बनवाया गया। माना जाता है कि महाभारत काल में पांडवों ने इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने करवाया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि माँ ब्रजेश्वरी ने पांडवों को सपने में दर्शन दिए थे। उन्होंने पांडवों को बताया कि वाहन कांगड़ा जिला में विराजमान है। फिर पाडंवों ने काँगड़ा जाकर माता के मंदिर का निर्माण किया था। तीन धर्मों के प्रतीक है ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद माता ब्रजेश्वरी का यह शक्तिपीठ अपने आप में अनूठा और विशेष है क्योंकि यहां मात्र हिन्दू भक्त ही शीश नहीं झुकाते बल्कि मुस्लिम और सिख धर्म के भी इस धाम में आकर अपनी आस्था के फूल चढ़ाते हैं। ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद तीन धर्मों के प्रतीक माने जाते हैं। पहला हिन्दू धर्म का प्रतीक है जिसकी आकृति मंदिर जैसी है तो दूसरा मुस्लिम समाज का और तीसरा गुंबद सिख संप्रदाय का प्रतीक है। तीन गुंबद वाले और तीन संप्रदायों की आस्था का केंद्र कहे जाने वाले माता के इस धाम में मां की पिण्डियां भी तीन ही हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित यह पहली और मुख्य पिंडी मां ब्रजेश्वरी की है। दूसरी मां भद्रकाली और तीसरी और सबसे छोटी पिण्डी मां एकादशी की है। मां के इस शक्तिपीठ में ही उनके परम भक्त ध्यानु ने अपना शीश अर्पित किया था। इसलिए मां के वो भक्त जो ध्यानु के अनुयायी भी हैं, वो पीले रंग के वस्त्र धारण कर मंदिर में आते हैं और मां का दर्शन पूजन कर स्वयं को धन्य करते हैं। कहते हैं जो भी भक्त मन में सच्ची श्रद्धा लेकर मां के इस दरबार में पहुंचता है उसकी कोई भी मनोकामना अधूरी नहीं रहती। फिर चाहे मनचाहे जीवनसाथी की कामना हो या फिर संतान प्राप्ति की लालसा। मां अपने हर भक्त की मुराद पूरी करती हैं। मां के दरबार में पांच बार होती है आरती मां ब्रजेश्वरी देवी की इस शक्तिपीठ में प्रतिदिन मां की पांच बार आरती होती है। सुबह मंदिर के कपाट खुलते ही सबसे पहले मां की शैय्या को उठाया जाता है। उसके बाद रात्रि के श्रृंगार में ही मां की मंगला आरती की जाती है। मंगला आरती के बाद मां का रात्रि श्रृंगार उतार कर उनकी तीनों पिण्डियों का जल, दूध, दही, घी, और शहद के पंचामृत से अभिषेक किया जाता है। इसके बाद पीले चंदन से मां का श्रृंगार कर उन्हें नए वस्त्र और सोने के आभूषण पहनाएं जाते हैं। फिर चना पूरी, फल और मेवे का भोग लगाकर आरती संपन्न होती है। मां की प्रात: की, आरती दोपहर की आरती और भोग चढ़ाने की रस्म को गुप्त रखा जाता है। दोपहर की आरती के लिए मंदिर के कपाट बंद रहते हैं, तब श्रद्धालु मंदिर परिसर में ही बने एक विशेष स्थान पर अपने बच्चों का मुंडन करवाते हैं। मान्यता है कि यहां बच्चों का मुंडन करवाने से मां बच्चों के जीवन की समस्त आपदाओं को हर लेती हैं। दोपहर बाद मंदिर के कपाट दोबारा भक्तों के लिए खोल दिए जाते हैं और भक्त मां का आशीर्वाद लेने पहुंच जाते हैं। कहाँ जाता है कि एकादशी के दिन चावल का प्रयोग नहीं किया जाता है, लेकिन इस शक्तिपीठ में मां एकादशी स्वयं मौजूद है इसलिए यहां भोग में चावल ही चढ़ाया जाता है। सूर्यास्त के बाद इन पिण्डियों को स्नान कराकर पंचामृत से इनका दोबारा अभिषेक किया जाता है। लाल चंदन, फूल व नए वस्त्र पहनाकर मां का श्रृंगार किया जाता है और इसके साथ ही सायंकाल आरती संपन्न होती है। शाम की आरती का भोग भक्तों में प्रसाद रूप में बांटा जाता है। रात को मां की शयन आरती की जाती है, जब मंदिर के पुजारी मां की शैय्या तैयार कर मां की पूजा अर्चना करते हैं। भक्तों पर आने वाले संकट से पहले रो देते हैं बाबा भैरव वैसे तो सभी भगवान अपनी भक्तों की रक्षा करते है, लेकिन मां ब्रजेश्वरी देवी के मंदिर परिसर स्थित भगवान भैरव बेहद खास है। कहते हैं कि जब भी कांगड़ा पर कोई मुसीबत आने वाली होती है तो यहां विराजे भगवान भैरव की मूर्ति की आंखों से आंसू और शरीर से पसीना आना शुरू हो जाता है। तब मंदिर के पुजारी विशाल हवन का आयोजन कर मां से आने वाली आपदा को टालने का निवेदन करते हैं। मान्यता है कि ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ के चमत्कार और महिमा से यहाँ आने वाली हर आपदा टल जाती है। ब्रजेश्वरी देवी मंदिर में स्थापित भैरव बाबा की प्रतिमा के बारे में कहा जाता है कि यह प्रतिमा 5 हजार साल से भी ज्यादा पुरानी है। कहा जाता है कि साल 1976-77 में इस मूर्ति में आंसू व शरीर से पसीना निकला था। उस समय कांगड़ा बाजार में भीषण अग्निकांड हुआ था। काफी दुकानें जल गई थी। उसके बाद से यहां ऐसी विपत्ति टालने के लिए हर साल नवंबर व दिसंबर के मध्य में भैरव जयंती मनाई जाती है। उस दौरान यहां पाठ व हवन होता है। यह मूर्ति मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही बाईं तरफ है। इस मंदिर में महिलाओं का जाना पूर्ण रूप से वर्जित हैं। मां ने किया था मक्खन का लेप शक्तिपीठ ब्रजेश्वरी देवी मंदिर में सात दिवसीय घृतमंडल पर्व हर साल 14 जनवरी को मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर शुरू होता है। ये प्रक्रिया पूरे सात दिन चलती है। सात दिवसीय घृतमंडल पर्व में करीब 2 क्विंटल मक्खन से मां की पिंडी का श्रृंगार किया जाता है। इस धार्मिक आयोजन को देखने के लिए देशभर से श्रद्धालु कांगड़ा पहुंचते हैं। मान्यता और दावा है कि इस मक्खन रूपी प्रसाद से चर्म रोगों और कैंसर जैसी बीमारी से निदान मिलता है। घृतमंडल पर्व के संबंध में कहा जाता है कि जालंधर दैत्य को मारते समय मां ब्रजेश्वरी देवी के शरीर पर कई चोटें आई थी और देवताओं ने माता के शरीर पर माखन का लेप किया था। इसी परंपरा के अनुसार देसी घी को एक सौ एक बार शीतल जल से धोकर उसका मक्खन बनाकर मां की पिंडी पर चढ़ाया जाता है। साथ ही मेवों और फलों की मालाएं भी चढ़ाई जाती हैं। बाद में ये मक्खन जरूरतमंदों समेत भक्तों में भी बांटा जाता है।
lord shiva uttrakhand india temple first blessing उत्तराखंड का त्रियुगीनारायण मंदिर वह पवित्र और विशेष पौराणिक मंदिर है जहां साक्षात भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। मंदिर में एक अखंड धुनी है। इस धुनि के संबंध में कहा जाता है कि ये वही अग्नि है, जिसके फेरे शिव-पार्वती ने लिए थे। आज भी उनके फेरों की अग्नि धुनि के रूप में जागृत है। यह स्थान रुद्रप्रयाग जिले का एक भाग है। मान्यता है कि प्राचीन समय उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग के पास स्थित त्रियुगी नारायण मंदिर में भगवान विष्णु ने ही शिव-पार्वती का विवाह करवाया था। यहां स्थित अखंड धुनी के संबंध में मान्यता है कि ये तीन युगों से अखंड जल रही है। इसी वजह से इसे त्रियुगी मंदिर कहते हैं। ये मुख्य रूप से नारायण यानी भगवान विष्णु और लक्ष्मी का मंदिर है, लेकिन यहां शिव-पार्वती का विवाह हुआ था, इस कारण मंदिर में शिवजी और विष्णु जी के भक्त दर्शन के लिए पहुंचते हैं। कहा जाता है कि पार्वती जी ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए त्रियुगी नारायण मंदिर के पास तपस्या की थी। माता पार्वती ने जिस स्थान पर तपस्या की थी उसे गौरी कुंड कहा जाता है। कहा जाता है कि केदारनाथ की यात्रा से पहले यहां पर आना चाहिए। ऐसा करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। शिव-पार्वती के विवाह की संक्षिप्त कथा त्रेता युग में देवी सती ने अपने पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ कुंड में कूदकर प्राण त्याग दिए थे। इसके बाद देवी ने पार्वती के रूप में जन्म लिया था। पार्वती ने कठोर तप करके भगवान शिव को प्रसन्न किया और विवाह करने का वरदान मांगा। तब भगवान विष्णु ने पार्वती और शिवजी का विवाह इसी जगह करवाया था। इस मंदिर का स्वरूप केदारनाथ धाम के मंदिर जैसा है। भगवान शिव को विवाह में उपहार स्वरूप एक गाय मिली थी। यहां मौजूद एक स्तंभ के बारे में मान्यता है कि यह वही स्तंभ है, जिससे उस गाय को बांधा गया था। शिव के बारे में कहा जाता है कि वे इतने भोले हैं उन्हें दूल्हे के तौर पर कैसे सजना है, क्या करना है, इसका भी पता नहीं था। ऐसी बारात न कभी पहले निकली थी और अब न कभी निकलेगी। एक मौका तो ऐसा भी आया जब शिव को देख माता पार्वती की मां ने अपनी बेटी का हाथ उन्हें देने से मना कर दिया था। ब्रह्माजी ने निभाई थी पुरोहित की भूमिका शिव पार्वती के विवाह में ब्रह्माजी ने पुरोहित की भूमिका निभाई थी। विवाह में शामिल होने पहले ब्रह्माजी ने एक कुंड में स्नान किया था, जिसे ब्रह्मकुंड कहा जाता है। यहां भगवान विष्णु ने पार्वती के भाई की भूमिका निभाई थी। उस समय सभी संत-मुनियों ने इस समारोह में भाग लिया था। यहां विवाह में आए अन्य देवी-देवताओं ने स्नान किया था। विवाह से पहले सभी देवताओं ने यहां स्नान भी किया और इसलिए यहां तीन कुंड बने हैं जिन्हें रुद्र कुंड, विष्णु कुंड और ब्रह्मा कुंड कहते हैं। इन तीनों कुंड में जल सरस्वती कुंड से आता है। सरस्वती कुंड का निर्माण विष्णु की नासिका से हुआ था और इसलिए ऐसी मान्यता है कि इन कुंड में स्नान से संतानहीनता से मुक्ति मिल जाती है। जो भी श्रद्धालु इस पवित्र स्थान की यात्रा करते हैं वे यहां प्रज्वलित अखंड ज्योति की भभूत अपने साथ ले जाते हैं ताकि उनका वैवाहिक जीवन शिव और पार्वती के आशीष से हमेशा मंगलमय बना रहे। विवाह स्थल के नियत स्थान को ब्रह्म शिला कहा जाता है जो कि मंदिर के ठीक सामने स्थित है। इस मंदिर के महात्म्य का वर्णन स्थल पुराण में भी मिलता है। मंदिर आने वाले भक्त यहां भेंट में लकड़ियां अर्पित करते हैं। इस स्थान पर विष्णु भगवान ने लिया था वामन अवतार वेदों में उल्लेख है कि यह त्रियुगीनारायण मंदिर त्रेता युग से स्थापित है। जबकि केदारनाथ व बद्रीनाथ द्वापरयुग में स्थापित हुए। यह भी मान्यता है कि इस स्थान पर विष्णु भगवान ने वामन देवता का अवतार लिया था। पौराणिक कथा के अनुसार इंद्रासन पाने के लिए राजा बलि को सौ यज्ञ करने थे, इनमें से बलि 99 यज्ञ पूरे कर चुके थे तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर रोक दिया जिससे कि बलि का यज्ञ भंग हो गया। यहां विष्णु भगवान वामन देवता के रूप में पूजे जाते हैं। यहां शादी करने वालों की संवर जाती है जिंदगी त्रियुगीनारायण मंदिर अब खास वेडिंग डेस्टिनेशन बनता जा रहा है। काफी लोग यहां विवाह करने के लिए पहुंचते हैं। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां शादी करने वाले जोड़े की जिंदगी संवर जाती है। इसी मंदिर में भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। आज भी उनकी शादी की निशानियां यहां मौजूद हैं। इस मंदिर की मान्यता को देखते हुए यहां कई सितारे यहां परिणय सूत्र में बंध चुके हैं। जिन लोगों की शादी हो गई है वो यहां आर्शीवाद लेने आते हैं और जिन लोगों की शादी नहीं हो रही है, वह भी यहां वरदान मांगने आते हैं। देशभर से रुद्रप्रयाग पहुंचने के लिए कई साधन आसानी से मिल सकते हैं। रुद्रप्रयाग से सोनप्रयाग पहुंचना होगा। अगस्त्यमुनि से गुप्तकाशी की फिर सोनप्रयाग आता है। यहां से त्रियुगी नारायण मंदिर आसानी से पहुंच सकते हैं। विश्व कल्याण के लिए होता है हरियाली मेले का आयोजन त्रियुगीनारायण मंदिर में प्रत्येक वर्ष क्षेत्र की खुशहाली व विश्व कल्याण के लिए हरियाली मेले का आयोजन किया जाता है। ये पौराणिक परंपरा अपने पर्यावरण को बचाने का भी संदेश देती है।एक सप्ताह पूर्व से ग्रामीण अपने-अपने घरों में जौ की हरियाली उगाने का कार्यक्रम शुरू करते हैं। सभी ग्रामीण अपने घरों से हरियाली लाकर त्रियुगीनारायण मंदिर परिसर में एकत्रित होते हैं। वैदिक मंत्रोच्चारण और पूजा अर्चना के साथ महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा व पौराणिक रीति-रिवाजों अनुसार पहले भगवान विष्णु को हरियाली को अर्पित करती हैं। गांव में प्रत्येक घर में बांटने के साथ ही बावन द्वादशी मेले के समापन अवसर पर भक्तों को प्रसाद के रूप में वितरित करने की परम्परा है। वामन द्वादशी मेले से पहले हरियाली मेला मनाने की परंपरा भी लंबे समय से चली आ रही है। यह मेला क्षेत्र की खुशहाली के लिए मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसी मंदिर में शिव और पार्वती का विवाह हुआ था।
हिमाचल के चम्बा जिले को शिव भूमि के नाम से जाना जाता है। चम्बा के भरमौर में समुद्र तल से लगभग 13,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र मणिमहेश सरोवर देशभर के भक्तों के लिए आस्था का केंद्र है। मान्यता है कि देवी पार्वती से विवाह करने के बाद भगवान शिव ने मणिमहेश नाम के इस पर्वत की रचना की थी। बर्फ से ढके इस पहाड़ पर भोलेनाथ का वास होता था। वहीं बर्फ से ढकी चोटियों के बीच यह मनोरम झील बनी हुई है। यह भगवान शिव की महिमा ही है कि अष्टमी के दिन स्नान से पहले ही झील का पानी बढ़ने लग जाता है। ऐसा क्यों होता है, इसका पता लगाने में वैज्ञानिक भी नाकाम रहे हैं। अष्टमी के बाद इस झील का पानी फिर कम हो जाता है। झील में इतना पानी अचानक कहां से आ जाता है ये रहस्य बरकरार है। इसी झील में स्नान करने के बाद पवित्र मणि के दर्शन भी होते हैं। इसके बाद से ये पहाड़ रहस्यमयी बन गया। मणि महेश यात्रा पर जाने का मौका श्रद्धालुओं को जुलाई-अगस्त के दौरान ही मिल पाता है, क्योंकि तब यहां का मौसम कमोबेश ठीक रहता है। इन दिनों में यहां मेले का भी आयोजन किया जाता है जो जन्माष्टमी के दिन समाप्त होता है। 15 दिनों तक चलने वाले मेले के दौरान प्रशासन की ओर से सभी प्रकार के प्रबंध किये जाते हैं। जन्माष्टमी पर यहां लगने वाले मेले में हिमाचल सहित देश के कोने कोने से श्रद्धालु आते हैं। यह यात्रा चंबा के लक्ष्मी नारायण मंदिर से शुरू होती है। यहां से भोले की चांदी की छड़ी को लेकर यह यात्रा शुरू होती है और राख, खड़ामुख आदि क्षेत्रों से गुजरते हुए भरमौर पहुंचती है। भरमौर में छड़ी का पूजन किया जाता है और फिर यह हरसर और धांचू होते हुए राधा अष्टमी के दिन मणि महेश पहुंचती है। मणिमहेश झील के पास की हिमाच्छादित चोटियों से पिघलने वाला बर्फीले पानी मणिमहेश झील का मुख्य स्रोत हैं। जैसे ही जून के अंत तक बर्फ पिघलना शुरू होती है, यह कई छोटी धाराओं में टूट जाती है और मणिमहेश झील में आकर मिलती है। हरी-भरी पहाड़ियों और फूलों की एक साथ जलधाराएँ घाटी को सुंदर प्राकृतिक सौंदर्य प्रदान करती हैं जो किसी स्वर्ग से कम नही है। बर्फ से ढकी चोटियों का प्रतिबिंब मणिमहेश झील के पानी में साफ़ साफ देखा जाता है। इसलिए कहा जाता है मणिमहेश मान्यता है कि कैलाश पर्वत पर भगवान भोले नाथ शेषमणि के रूप में विराजमान है। भगवान शिव लोगों को दर्शन भी मणि के रूप में देते है, इसलिए इस धार्मिक स्थल का नाम मणिमहेश पड़ा। कहा जाता है कि सच्चे मन से भगवान भोले नाथ की भक्ति के साथ डल झील में पहुंचने वाले श्रद्वालुओं को ही यहां मणि के दर्शन होते हैं। भगवान शिव आज भी चौथे पहर में अपने भक्तों को मणि के रूप में दर्शन देते हैं। इस भक्तिमय लम्हें के इंतजार में कई शिवभक्त पूरी रात नहीं सोते और जैसे ही चौथे पहर में चांद की रोशनी से मणि चमकती है तो पूरी डल झील और आसपास का क्षेत्र भगवान भोले नाथ के जयकारों और उदघोष से गूंज उठता है। चमत्कारों और रहस्यों से भरे कैलाश पर्वत में दिखने वाले इस अदभुत नजारे के आगे डल झील पर मौजूद हर कोई शख्स नतमस्तक हो जाता है। झील में स्नान करने का अपना महत्व जो भक्त अमरनाथ नहीं जा पाते हैं वे मणिमहेश झील में पवित्र स्नान के लिए पहुंचते हैं। पहले मणिमहेश झील तक पहुंचना काफी जटिल था लेकिन अब भरमौर से गौरीकुंड तक हेलीकॉप्टर की व्यवस्था है। पैदल यात्रा के लिए हड़सर सड़क का अंतिम पड़ाव है। यहां से आगे संकरे रास्तों पर पैदल या घोड़े-खच्चरों की सवारी कर ही सफर तय होता है। हड़सर से मणिमहेश झील की दूरी करीब 13 किलोमीटर है। इसके अलावा पैदल यात्रा करने के इच्छुक भक्तों के लिए हड़सर, धनछो, सुंदरासी, गौरीकुंड और मणिमहेश झील के आसपास रहने के लिए पूर्ण व्यवस्था की जाती है। स्त्रियों के स्नान के लिए गौरीकुंड गौरीकुंड पहुंचने पर प्रथम कैलाश शिखर के दर्शन होते हैं। कहा जाता है कि गौरीकुंड माता पार्वती का स्नान स्थल है। महिलाएं यहां स्नान करती हैं। यहां से करीब दो किलोमीटर की सीधी चढ़ाई के बाद मणिमहेश झील तक पहुंचा जाता है। यहां का खूबसूरत दृश्य पैदल पहुंचने वालों की थकावट को क्षण भर में दूर कर देता है और सकरात्मक ऊर्जा का संचार होता है। माता चौरासी में दर्शन करना जरुरी चौरासी माता के दर्शन के बिना यात्रा अधूरी मानी जाती है। भरमौर का नाम पहले ब्रह्मïपुर हुआ करता था, इस दौरान माता भरमाणी का मंदिर भी चौरासी परिसर में ही था। किवदंतियों के अनुसार चौरासी परिसर में रात के समय पुरुषों के विश्राम पर प्रतिबंध था। उस दौरान चौरासी सिद्धों का एक दल पवित्र मणिमहेश यात्रा पर जा रहा था। यात्रा के दौरान अँधेरा ज्यादा होने के कारण उन्होंने रात में यहीं पर ही रुकने का निर्णय लिया। जैसे चौरासी सिद्धों ने चौरासी परिसर में रात के समय प्रवेश किया तो इससे माता भरमाणी क्रोधित हो उठीं। माता भरमाणी उन चौरासी सिद्धों को श्राप देने लगी तो भगवान शंकर प्रकट हुए। शंकर को देख माता भरमाणी का क्रोध शांत हो गया। माता भरमाणी ने भगवान शंकर से क्षमा मांगी। साथ ही चौरासी परिसर में रात के समय पुरुषों के आगमन निषेध होने की बात कही। माता भरमाणी वहां से विलुप्त होकर यहां से तीन किलोमीटर दूर साहर नामक स्थान पर प्रकट हुईं। जिसके बाद भगवान शंकर ने माता भरमाणी को वरदान दिया कि मणिमहेश यात्रा पर आने वाले श्रद्धालुओं की यात्रा तभी पूर्ण होगी जब श्रद्धालु सर्वप्रथम माता भरमाणी के दर्शन करेंगे। नील मणि के नाम से भी है विख्यात कैलाश पर्वत को टरकोइज माउंटेन यानि कि नीलमणि भी कहा जाता है।मणिमहेश में कैलाश पर्वत के पीछे से जब सूर्य उदय होता है, तो सारे आकाशमंडल में नीलिमा छा जाती है और सूर्य के प्रकाश की किरणें नीले रंग में निकलती है। अलबता इस दौरान यहां का पूरा वातावरण नीले रंग के प्रकाश में ओत-प्रोत हो जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि कैलाश पर्वत पर नीलमणि के गुण-धर्म मौजूद है, जिनसे टकराकर प्रकाश की किरणें नीली हो जाती है और खूबसूरती में चार चाँद लग जाता है।
देवभूमि हिमाचल प्रदेश में देवी-देवताओं के बहुत से मंदिर हैं और हर मंदिर का अपना विशेष महत्त्व है। ऐसा ही एक अलौकिक स्थान है सोलन स्थित माता शूलिनी का मंदिर। दरअसल सोलन का नाम मां शूलिनी देवी के नाम पर पड़ा। माता शूलिनी सोलन की अधिष्ठात्री देवी हैं। माता का मंदिर सोलन बाजार में स्थित है और हर वर्ष यहाँ जून माह में मेले का आयोजन होता है। इस मेले को राज्य स्तरीय मेले का दर्जा प्राप्त है। तीन दिवसीय इस मेले के पहले दिन मां शूलिनी की शोभायात्रा निकाली जाती है और माता शूलिनी अपने मंदिर स्थान से निकलकर अपनी गंज बाजार स्थित अपनी बहन के घर ( मंदिर )पहुँचती है। दो रात्रि तक माता यहाँ ही प्रवास करती है। इसीलिये इस मेले को दो बहनो के मिलन का मेला भी कहा जाता है। इस शोभायात्रा का आयोजन बेहद धूमधाम से होता है और विभिन्न झांकियां भी निकाली जाती है। नगर यात्रा के बाद माता अपनी बहन के घर पहुँचती है। इस दौरान श्रद्धा का जनसैलाब उमड़ता है और लाखों लोग माता के दर्शनों को सोलन नगरी पहुंचते है। तीन दिवसीय इस मेले के दौरान पूरा सोलन शहर दुल्हन की तरह सजाया जाता है और सैकड़ों भंडारों का आयोजन होता है। आसपास के राज्यों से भी व्यापारी दुकाने लगाने सोलन पहुंचते है। इस दौरान तीन दिन सांस्कृतिक संध्या का आयोजन भी होता है। देश -प्रदेश के कई नामी कलाकार इसमें भाग लेते है। मेले के तीसरे दिन माता अपनी बहन के घर से डोले में बैठकर फिर मंदिर को प्रस्थान करती है। बघाट रियासत की कुलदेवी है मां शूलिनी सोलन नगर बघाट रियासत की राजधानी हुआ करता था। इस रियासत की नींव राजा बिजली देव ने रखी थी। बारह घाटों से मिलकर बनने वाली बघाट रियासत का क्षेत्रफल 36 वर्ग मील में फैला हुआ था। इस रियासत की प्रारंभ में राजधानी जौणाजी तदोपरांत कोटी और बाद में सोलन बनी। राजा दुर्गा सिंह इस रियासत के अंतिम शासक थे। रियासत के विभिन्न शासकों के काल से ही माता शूलिनी देवी का मेला लगता आ रहा है। जनश्रुति के अनुसार बघाट रियासत के शासक अपनी कुलश्रेष्ठा की प्रसन्नता के लिए मेले का आयोजन करते थे। बदलते समय के दौरान यह मेला आज भी अपनी पुरानी परंपरा के अनुसार चल रहा है। माता शूलिनी के इस मंदिर का पुराना इतिहास बघाट रियासत से जुड़ा हुआ है। बघाट रियासत के लोग माता शूलिनी को अपनी कुलदेवी के रूप में मानते थे, तभी से माता शूलिनी बघाट रियासत के शासकों के लिए उनकी कुलदेवी के रूप में पूजी जाती है।
51 शक्तिपीठों में एक है मंदिर, अंबूचावी पर्व का है विशेष महत्व भारत धर्म प्रधान देश है। यहां हर स्थान पर देवी-देवताओं का वास है। शायद ही कोई ऐसा कोना हो जहां देवी-देवता वास न करते हों। यहां श्रद्धा चरम पर होती है। भारत का नाम ही आस्था के आधार पर पड़ा है। समय-समय युग पुरुष महात्माओं और महान पुरुषों ने इस धरा पर पांव रखकर इस धरा को पावन किया है। यहीं पर वेदों की रचना हुई। यहीं पर मनिषियों ने प्रकृति पर आधारित ग्रंथों की रचना की। यहीं पर अभिमानी रावण का वध कर श्री राम ने असत्य पर सत्य की जीत का संदेश भी दिया। यहीं पर कुरुक्षेत्र की धरती पर महाभारत जैसा युद्ध हुआ जिसने समस्त विश्व को संदेश दिया कि अधर्म कभी भी जीत नहीं सकता। किसी का जायज हक रखना उचित नहीं है। आज फस्र्ट वर्डिक्ट के सुधी पाठकों को असम की राजधानी दिसपुर में स्थित कामख्या मंदिर के बारे में जानकारी देगा। यह मंदिर गुवाहाटी से 8 किलोमीटर दूर कामाख्या में है। कामाख्या से भी 10 किलोमीटर दूर नीलाचल पर्वत पर स्थित है। यह मंदिर शक्ति सती का है। मंदिर पहाड़ी पर बना है और बहुत ही विहंगम दृश्य प्रस्तुत करता है। यानी कि प्राकृतिक सौंदर्य और आस्था दोनों का ही यहां समावेश होता है। बताया जाता है कि इस मंदिर का तांत्रिक महत्व भी है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। 51 शक्तिपीठों में से एक है मंदिर : पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के 51 शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुंड) स्थित है। देश भर मे अनेकों सिद्ध स्थान है, जहां माता सूक्ष्म स्वरूप में निवास करती है प्रमुख महाशक्तिपीठों में माता कामाख्या का यह मंदिर सुशोभित है।हिंगलाज की भवानी, कांगड़ा की ज्वालामुखी, सहारनपुर की शाकम्भरी देवी, विन्ध्याचल की विन्ध्यावासिनी देवी आदि महान शक्तिपीठ श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र एवं तंत्र-मंत्र, योग-साधना के सिद्ध स्थान है। यहां मान्यता है कि जो भी बाहर से आए भक्तगण जीवन में तीन बार दर्शन कर लेते हैं, उनके सांसारिक भव बंधन से मुक्ति मिल जाती है। अंबूचावी पर्व माना जाता है वरदान : विश्व के सभी तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिए वर्ष में एक बार अम्बूवाची योग पर्व होता है। यह पर्व एक वरदान ही माना जाता है। यह अम्बूवाची पर्व भगवती (सती) का रजस्वला पर्व होता है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलिकाल में प्रत्येक वर्ष जून माह (आषाढ़) में तिथि के अनुसार मनाया जाता है। यह एक प्रचलित धारणा है कि देवी कामाख्या मासिक धर्मचक्र के माध्यम से तीन दिनों के लिए गुजरती है। इन तीन दिनों के दौरान कामाख्या मंदिर के द्वार श्रद्धालुओं के लिए बंद कर दिए जाते हैं। इस बार अम्बूवाची योग पर्व जून की 22, 23, 24 तिथियों में मनाया गया। पौराणिक कथा : पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान मां भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है। कामाख्या के अनन्य भक्त ज्योतिषी एवं वास्तु विशेषज्ञ डॉ. दिवाकर शर्मा ने बताया कि अम्बूवाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट स्वत ही बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन भी निषेध हो जाता है। इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे विश्व से इस पर्व में तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना हेतु सभी प्रकार की सिद्धियां एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु उच्च कोटियों के तांत्रिकों-मांत्रिकों, अघोरियों का बड़ा जमघट लगा रहता है। तीन दिनों के उपरांत मां भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा एवं साधना की जाती है। कामाख्या मन्दिर परिसर : कामाख्या के शोधार्थी एवं प्राच्य विद्या विशेषज्ञ डॉ. दिवाकर शर्मा कहते हैं कि कामाख्या के बारे में किंवदंती है कि घमंड में चूर असुरराज नरकासुर एक दिन मां भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था। कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्रामगृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊंगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है। गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिए और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुकुट (मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गई। इस पर नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला। यह स्थान आज भी विख्यात है। बाद में मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया। नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना। भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और सामंत राजा कामरूप पर अपना शासन करने लगा। नरकासुर के नीच कार्यों के बाद एवं विशिष्ट मुनि के अभिशाप से देवी अप्रकट हो गई थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या मंदिर ध्वंसप्राय हो गया था। पं. दिवाकर शर्मा ने बतलाया कि आद्य-शक्ति महाभैरवी कामाख्या के दर्शन से पूर्व महाभैरव उमानंद, जो कि गुवाहाटी शहर के निकट ब्रह्मपुत्र नद के मध्य भाग में टापू के ऊपर स्थित है। यहां दर्शन करना आवश्यक है। यह एक प्राकृतिक शैलदीप है, जो तंत्र का सर्वोच्च सिद्ध सती का शक्तिपीठ है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। सर्वोच्च कौमारी तीर्थ : सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी अत्यंत महत्व है। यद्यपि आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियां होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है। कामाख्या मंदिर मे योनि(गर्भ) की पूजा : पौराणिक कथा के अनुसार जब देवी सती अपने योगशक्ति से अपना देह त्याग दी तो भगवान शिव उनको लेकर घूमने लगे उसके बाद भगवान विष्णु अपने चक्र से उनका देह काटते गए तो नीलाचल पहाड़ी में भगवती सती की योनि (गर्भ) गिर गई, और उस योनि (गर्भ) ने एक देवी का रूप धारण किया, जिसे देवी कामाख्या कहा जाता है। योनी (गर्भ) वह जगह है जहां बच्चे को 9 महीने तक पाला जाता है और यहीं से बच्चा इस दुनिया में प्रवेश करता है। और इसी को सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना जाता है। कामाख्या मंदिर का समय : कामाख्या मंदिर के दर्शन का समय भक्तों के लिए सुबह 8:00 बजे से दोपहर 1:00 बजे तक और फिर दोपहर 2:30 बजे से शाम 5:30 बजे तक शुरू होता है। सामान्य प्रवेश नि: शुल्क है, लेकिन भक्त सुबह 5 बजे से कतार बनाना शुरू कर देते हैं, इसलिए यदि किसी के पास समय है तो इस विकल्प पर जा सकते हैं। आम तौर पर इसमें 3-4 घंटे लगते हैं। वीआईपी प्रवेश की एक टिकट लागत है, जिसे मंदिर में प्रवेश करने के लिए भुगतान करना पड़ता है, जो कि प्रति व्यक्ति रुपए 501 की लागत पर उपलब्ध है। इस टिकट से कोई भी सीधे मुख्य गर्भगृह में प्रवेश कर सकता है और 10 मिनट के भीतर पवित्र दर्शन कर सकता है।
हिंदू धर्म मान्यता के अनुसार ब्रह्मा, विष्णू और महेश तीन प्रधान देव हैं। इसमें ब्रह्मा जी को समस्त सृष्टि का रचियता माना जाता है। वहीं विष्णू भगवान उस सृष्टि की पालना करते हैं।लेकिन महेश यानी कि भगवान शिव को विनाशकारी माना जाता है क्योंकि पृथ्वी पर पाप बढ़ जाने पर वे अपना रौद्र रूप दिखाते हैं। ब्रह्मा जी ने ही चार वेदों का ज्ञान दिया था। उनकी शारीरिक सरंचना भी बेहद अलग किस्म की है। ब्रह्मा जी के चार हाथ हैं। चार ही चेहरे हैं। ब्रह्मा जी चारों हाथों में एक-एक वेद लिए हुए हैं। इसका मंतव्य यह है कि ब्रह्मा जी चारों वेदों के माध्यम से समस्त सृष्टि का कल्याण करते हैं। अर्थात ब्रह्मा जी को कल्याणकारी माना गया है। मगर यह भी अचंभा है कि समस्त विश्व में विष्णू और महेश यानी कि भगवान शिव के अनगनित मंदिर हैं, मगर ब्रह्मा जी का एक ही मंदिर पुष्कर साहिब में है। पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्रि देवी ने उन्हें श्राप दिया था। हिन्दू लोक कथाओं के अनुसार धरती पर वज्रनाश नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। उसके बढ़ते अत्याचारों से तंग आकर ब्रह्मा जी ने उसका वध किया। लेकिन वध करते वक्त उनके हाथों से तीन जगहों पर कमल का पुष्प गिरा। इन तीनों जगहों पर तीन झीलें बनंी। इसी घटना के बाद इस स्थान का नाम पुष्कर पड़ा। इस घटना के बाद ब्रह्मा ने संसार की भलाई के लिए यहां एक यज्ञ करने का फैसला किया। ब्रह्मा जी यज्ञ करने हेतु पुष्कर पहुंंच गए लेकिन किसी कारणवश सावित्री जी समय पर नहीं पहुंच सकीं। यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उनके साथ उनकी पत्नी का होना जरूरी था, लेकिन सावित्री जी के नहीं पहुंचने की वजह से उन्होंने गुर्जर समुदाय की एक कन्या गायत्री से विवाह कर इस यज्ञ शुरू किया। उसी दौरान देवी सावित्री वहां पहुंचीं और ब्रह्मा के बगल में दूसरी कन्या को बैठा देख क्रोधित हो गईं। उन्होंने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि देवता होने के बावजूद कभी भी उनकी पूजा नहीं होगी। सावित्री के इस रूप को देखकर सभी देवता डर गए। सभी ने सावित्री जी से विनती की कि अपना श्राप वापस ले लीजिए, लेकिन उन्होंने किसा की न सुनी। जब गुस्सा ठंडा हुआ तो सावित्री ने कहा कि इस धरती पर सिर्फ पुष्कर में ही आपकी पूजा होगी। कोई भी आपका मंदिर बनाएगा तो उसका विनाश हो जाएगा। भगवान विष्णु ने भी इस काम में ब्रह्मा जी की मदद की थी। इसलिए देवी सरस्वती ने विष्णु जी को भी श्राप दिया था कि उन्हें पत्नी से विरह का कष्ट सहन करना पड़ेगा। इसी कारण भगवान विष्णु ने राम के रूप में मानव अवतार लिया और 14 साल के वनवास के दौरान उन्हें पत्नी से अलग रहना पड़ा था। पद्म पुराण के अनुसार ब्रह्माजी पुष्कर के इस स्थान पर दस हजार सालों तक रहे थे। इन सालों में उन्होंने पूरी सृष्टि की रचना की। जब पूरी रचना हो गई तो सृष्टि के विकास के लिए उन्होंने पांच दिनों तक यज्ञ किया था। कथा के अनुसार उसी यज्ञ के दौरान सावित्री पहुंच गई थीं जिनके शाप के बाद आज भी उस तालाब की तो पूजा होती है लेकिन ब्रह्माजी की पूजा नहीं होती। आज भी श्रद्धालु केवल दूर से ही उनकी प्रार्थना कर लेते हैं, परंतु उनकी वंदना करने की हिमाकत नहीं करते। ब्रह्माजी के साथ पुष्कर के इस शहर में मां सावित्री की भी काफी मान्यता है।कहते हैं कि क्रोध शांत होने के बाद सावित्री पुष्कर के पास मौजूद पहाडिय़ों पर जाकर तपस्या में लीन हो गईं और फिर वहीं की होकर रह गईं। मान्यतानुसार आज भी देवी यहीं रहकर अपने भक्तों का कल्याण करती हैं। मंदिर का निर्माण कब हुआ इसका कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन ऐसा मन जाता हैं की आज से तकरीबन एक हजार दो सौ साल पहले अरण्व वंश के एक शासक को एक स्वप्न आया था कि इस जगह पर एक मंदिर है, जिसके सही रख रखाव की जरूरत है। तब राजा ने इस मंदिर के पुराने ढांचे को दोबारा जीवित किया। आज के युग में इस मंदिर को जगत पिता ब्रह्मा मंदिर के नाम से जाना जाता है। जहां श्रद्धालुओं की लंबी कतारें देखी जा सकती हैं। लेकिन फिर भी कोई ब्रह्माजी की पूजा नहीं करता। प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा पर इस मंदिर के आसपास बड़े स्तर पर मेला लगता है।
फस्र्ट वर्डिक्ट । सोलन भारत एक महान देश है। यहां महान पुरुषों का ही आगमन नहीं हुआ अपितु महान कलाओं का निर्माण भी हुआ जो इतिहास के पन्नों पर सुनहरी अक्षरों में दर्ज हो गईं। हालांकि इन निर्माणों को बने सदियों बीत गईं, मगर इनकी आभा आज तक दमकती है। यही कारण है कि भारत का नाम विश्व के अग्रणी स्थानों में है। संस्कृति और संस्कारों के उदगम स्थल भारत ने समस्त विश्व को जीने की राह दिखाई। कला में ऐसे आयाम स्थापित किए कि विदेशी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। ओजस्वियों, ऋषि-मुनियों और मनीषियों की तपोस्थली भारत में अनेकों अनेक महापुरुषों का आगमन हुआ जिन्होंने समस्त विश्व को संस्कृति और संस्कारों का उपदेश दिया। फस्र्ट वर्डिक्ट अपने सुधी पाठकों को लगातार भारत की गौरव गाथा से अवगत करवाती जा रही है। हर सप्ताह भारत के उन ऐतिहासिक स्थानों पर प्रकाश डाला जा रहा है जो भारत की गौरव गाथा हैं। हालांकि आज डिजिटल इंडिया है और बहुत कुछ सोशल मीडिया में देखने को मिल रहा है बावजूद इसके भी फस्र्ट वर्डिक्ट बड़ी बारीकी से ऐसे स्थानों को प्रकाशित कर रही है। इसका मकसद भारतवासियों को संस्कृति और संस्कारों से जोड़े रखना है। इसी कड़ी में इस सप्ताह कोणार्क मंदिर पर प्रकाश डाला जा रहा है। उड़ीसा में स्थित है कोणार्क मंदिर : कोणार्क मंदिर भारत के प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थलों में से एक है। यह उड़ीसा में स्थित है। यह जगन्नाथपुरी से पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पूर्व में स्थित है। सर्व प्रथम इस मंदिर को यूनेस्कों ने सन 1949 में विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी थी। यह मंदिर समुद्री तट पर स्थित है। यहां से राष्ट्रीय राजमार्ग 316 गुजरता है। यहां से चंद्रभागा नदी भी गुजरती है। पुरी के मदल पंजी के आंकड़ों के अनुसार और कुछ 1278 ई. के ताम्रपत्रों से पता चलता है कि राजा लांगूल नृसिंहदेव ने 1282 तक शासन किया। कई इतिहासकार इस मत के भी हैं कि कोणार्क मंदिर का निर्माण 1253 से 1260 ई. के बीच हुआ था। अतएव मंदिर के अपूर्ण निर्माण का इसके ध्वस्त होने का कारण होना तर्कसंगत नहीं है। मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है : मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। बाएं मन्दिर का मूलरूप तथा अवशेष वर्तमान रूप जोकि हल्के पीले रंग में है। वहीं दाएं मंदिर का मूलरूप है। कोणार्क मंदिर का नामकरण कोण और अर्क शब्द से हुआ है। अर्क का अर्थ सूर्य है और कोण का अर्थ कोना या किनारा होता है। कोणार्क मंदिर का निर्माण लाल पत्थरों और ग्रेनाइट पत्थरों से हुआ है। इसे 1236-1264 ईसा पूर्व गंग वंश के तत्कालीन सामंत राजा नृसिंहदेव द्वारा बनवाया गया था। यह मन्दिर, भारत के सबसे प्रसिद्ध स्थलों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण कलिंग शैली में किया गया और भगवान सूर्य को रथ के रूप में विराजमान किया गया है। पत्थरों पर उत्कृष्ट नक्काशी की गई है। बारह जोड़ी चक्रों को खींच रहे हैं सात घोड़े : सम्पूर्ण मंदिर स्थल को बारह जोड़ी चक्रों के साथ सात घोड़ों से खींचते हुए निर्मित किया गया है। इनमें सूर्य देव को विराजमान दिखाया गया है। मगर वर्तमान में सातों में से एक ही घोड़ा बचा हुआ है। ये बारह चक्र साल के बारह महीनों के प्रतीक हैं। ेप्रत्येक चक्र आठ अरों यानी पहररों से मिल कर बना है, जो अर दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं। स्थानीय लोग प्रस्तुत सूर्य भगवान को बिरंचि-नारायण कहते थे। द्वार पर दो सिंह आक्रामक रूप से हाथियों पर हैं सवार : इसके द्वार पर दो सिंहों को आक्रामक रूप से रक्षा में तत्पर दिखाया गया है। दोनों हाथी एक-एक मानव के ऊपर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनीं हैं। ये 28 टन की 8.4 फीट लंबी 4.9 फीट चौड़ी तथा 9.2 फीट ऊंची हैं। मंदिर के दक्षिणी भाग में दो सुसज्जित घोड़े बने हैं, जिन्हें उड़ीसा सरकार ने अपने राजचिह्न के रूप में अंगीकार कर लिया है। ये 10 फीट लंबे व 7 फीट चौड़े हैं। मंदिर सूर्य देव की भव्य यात्रा को दिखाता है। इसके के प्रवेश द्वार पर ही नट मंदिर है। ये वह स्थान है, जहां मंदिर की नर्तकियां, सूर्यदेव को अर्पण करने के लिये नृत्य किया करतीं थीं। पूरे मंदिर में जहां तहां फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की नक्काशी की गई है। इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की अकृतियां भी एन्द्रिक मुद्राओं में दर्शित हैं। इनकी मुद्राएं कामुक हैं और कामसूत्र से लीं गईं हैं। मंदिर अब अंशिक रूप से खंडहर में परिवर्तित हो चुका है। यहां की शिल्प कलाकृतियों का एक संग्रह, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सूर्य मंदिर संग्रहालय में सुरक्षित है। महान कवि व नाटकार रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस मन्दिर के बारे में लिखा है कि कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है। यहां की स्थापत्यकला वैभव एवं मानवीय निष्ठा का सौहार्दपूर्ण संगम है। मंदिर की प्रत्येक इंच, अद्वितीय सुंदरता और शोभा की शिल्पाकृतियों से परिपूर्ण है। इसके विषय भी मोहक हैं, जो सहस्रों शिल्प आकृतियां भगवानों, देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वाद्यकों, प्रेमी युगलों, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के चित्रों से भरी हैं। इनके बीच बीच में पशु-पक्षियों और पौराणिक जीवों के अलावा महीन और पेचीदा बेल बूटे तथा ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। उडिय़ा शिल्पकला की हीरे जैसी उत्कृष्त गुणवत्ता पूरे परिसर में अलग दिखाई देती है। कामुक मुद्राओं की शिल्प आकृति : यह मंदिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है।इस प्रकार की आकृतियां मुख्यत: द्वारमंडप के द्वितीय स्तर पर मिलती हैं। इस आकृतियों का विषय स्पष्ट किंतु अत्यंत कोमलता एवं लय में संजो कर दिखाया गया है। जीवन का यही दृष्टिकोण, कोणार्क के अन्य सभी शिल्प निर्माणों में भी दिखाई देता है। हजारों मानव, पशु एवं दिव्य लोग इस जीवन रूपी मेले में कार्यरत हुए दिखाई देते हैं, जिसमें आकर्षक रूप से एक यथार्थवाद का संगम किया हुआ है। यह उड़ीसा की सर्वोत्तम कृति है। इसकी उत्कृष्ट शिल्प-कला, नक्काशी, एवं पशुओं तथा मानव आकृतियों का सटीक प्रदर्शन, इसे अन्य मंदिरों से कहीं बेहतर सिद्ध करता है। एक कथा के अनुसार, गंग वंश के राजा नृसिंह देव प्रथम ने अपने वंश का वर्चस्व सिद्ध करने हेतु, राजसी घोषणा से मंदिर निर्माण का आदेश दिया। बारह सौ वास्तुकारों और कारीगरों की सेना ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा और ऊर्जा से परिपूर्ण कला से बारह वर्षों की अथक मेहनत से इसका निर्माण किया। राजा ने पहले ही अपने राज्य के बारह वर्षों की कर-प्राप्ति के बराबर धन व्यय कर दिया था। लेकिन निर्माण की पूर्णता कहीं दिखायी नहीं दे रही थी। तब राजा ने एक निश्चित तिथि तक कार्य पूर्ण करने का कड़ा आदेश दिया। बिसु महाराणा के पर्यवेक्षण में इस वास्तुकारों की टीम ने पहले ही अपना पूरा कौशल लगा रखा था। तब बिसु महाराणा का बारह वर्षीय पुत्र, धर्म पाद आगे आया। उसने तब तक के निर्माण का गहन निरीक्षण किया, हालांकि उसे मंदिर निर्माण का व्यवहारिक ज्ञान नहीं था, परन्तु उसने मंदिर स्थापत्य के शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन किया हुआ था। उसने मंदिर के अंतिम केन्द्रीय शिला को लगाने की समस्या सुझाव का प्रस्ताव दिया। उसने यह करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। लेकिन इसके तुरन्त बाद ही इस विलक्षण प्रतिभावान का शव सागर तट पर मिला। कहते हैं, कि धर्मपाद ने अपनी जाति के हितार्थ अपनी जान तक दे दी। यहां पर मन्दिर की ध्वस्तता के सम्पूर्ण कारणों का उल्लेख करना जटिल कार्य से कम नहीं है। परन्तु यह सर्वविदित है कि अब इसका काफी भाग ध्वस्त हो चुका है, जिसके मुख्य कारण वास्तु दोष भी कहा जाता है परन्तु मुस्लिम आक्रमणों की भूमिका अहम रही है। कोर्णार्क मंदिर के गिरने से संबंधी एक अति महत्वपूर्ण सिद्धांत, कालापहाड़ से जुड़ा है। उड़ीसा के इतिहास के अनुसार कालापहाड़ ने सन 1508 में यहां आक्रमण किया और कोणार्क मंदिर समेत उड़ीसा के कई हिन्दू मंदिर ध्वस्त कर दिए। पुरी के जगन्नाथ मंदिर के मदन पंजी बताते हैं कि कैसे कालापहाड़ ने उड़ीसा पर हमला किया। कोणार्क मंदिर सहित उसने अधिकांश हिन्दू मंदिरों की प्रतिमाएं भी ध्वस्त करीं। हालांकि कोणार्क मंदिर की 20-25 फीट मोटी दीवारों को तोडऩा असम्भव था, उसने किसी प्रकार से दधिनौति (मेहराब की शिला) को हिलाने का प्रयोजन कर लिया, जो कि इस मंदिर के गिरने का कारण बना। दधिनौति के हटने के कारण ही मन्दिर धीरे-धीरे गिरने लगा तथा छत से भारी पत्थर गिरने से, मूकशाला की छत भी ध्वस्त हो गई। उसने यहाँ की अधिकांश मूर्तियां और कोणार्क के अन्य कई मंदिर भी ध्वस्त कर दिए। कई कथाओं के अनुसार, सूर्य मन्दिर के शिखर पर एक चुम्बकीय पत्थर लगा है। इसके प्रभाव से, कोणार्क के समुद्र से गुजरने वाले सागरपोत, इस ओर खिंचे चले आते हैं, जिससे उन्हें भारी क्षति हो जाती है। अन्य कथा अनुसार, इस पत्थर के कारण पोतों के चुम्बकीय दिशा निरूपण यंत्र सही दिशा नहीं बताते। इस कारण अपने पोतों को बचाने हेतु, मुस्लिम नाविक इस पत्थर को निकाल ले गये। यह पत्थर एक केन्द्रीय शिला का कार्य कर रहा था, जिससे मंदिर की दीवारों के सभी पत्थर संतुलन में थे। इसके हटने के कारण, मंदिर की दीवारों का संतुलन खो गया और परिणामत: वे गिर पड़ीं, परन्तु इस घटना का कोई ऐतिहासिक विवरण नहीं मिलता, ना ही ऐसे किसी चुम्बकीय केन्द्रीय पत्थर के अस्तित्व का कोई ब्यौरा उपलब्ध है।
देवभूमी हिमाचल पावन और पवित्र मानी गई है। इसलिए ये देवी-देवताओं के प्रिय स्थानों में से एक है। हिमाचल अपनी प्राकृतिक सुंदरता और मनोहरी दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है। यहां बहुत ही अच्छे पर्यटन स्थान हैं, जिनकी सुंदरता पर्यटकों के मन को मोह लेती है। तभी तो हिमाचल को प्रकृति का खजाना भी कहा जाता है। आज भी हिमाचल की भूमी यहां के धार्मिक स्थानों की वजह से ही पूरे भारत वर्ष में माननीय है। इनमें से एक है जयसिंहपुर विधानसभा का मां आशापुरी मंदिर। रोपड़ी नागवन के सबसे ऊंचे धौलाधार शृंखला के शिखर पर पंचरुखी के पास चंगर की वादियों में एक पहाड़ की चोटी पर मां आशापुरी विराजमान हैं। यहां के लोगों का मानना है कि जो भी भक्त यहां सच्चे मन से दर्शन के लिए आते हैं, मां उनकी मनोकामनाएं जरूर पूर्ण करती हैं। कांगड़ा जिले के प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों में से एक मां आशापुरी मंदिर का निर्माण पांडवों ने उस समय करवाया जब वे आज्ञातवास के दौरान हिमाचल प्रदेश आए थे। 16वीं सदी में इस मंदिर का निर्माण कटोच वंशज के सुप्रसिद्ध राजा मान सिंह ने करवाया था। मंदिर में पहुंचने वाले भक्तों को यहां आकर स्वर्ग जैसे आनंद का अनुभव होता है। माता आशापुरी का यह मंदिर हमेशा से ही अपनी बेजोड़ कलाकृति के लिए हिमाचल प्रदेश में चर्चित मे रहा है। आशापूरी मंदिर एक ऐतिहासिक स्थान भी है, जिस वजह से इस मंदिर को पुरातत्व विभाग की देख-रेख में रखा गया है। मंदिर के अंदर मां तीन पिंडियों के रूप में विराजमान हैं। मां आशापुरी को माता वैष्णो देवी का रुप माना जाता है। जिसके साथ ही यहां और देवी-देवताओं की भी पुरानी पत्थर से बन मंदिर के आस-पास बहुत ही मनमोहक दृश्य देखने को मिलते हैं।
हिमाचल प्रदेश देव भूमि है। जाहिर है यहां चप्पे-चप्पे पर देव स्थल हैं। कई देव स्थल तो चर्चित हैं। उनके बारे में लोग भलिभांति जानते हैं, मगर कई ऐसे मंदिर और देवस्थान भी हैं जो न ज्यादा चर्चा में हैं और न ही उनके बारे में कोई ज्यादा जानता है। हालांकि ये मंदिर चमत्कारों से परिपूर्ण हैं और यहां आस्था भी बहुत ज्यादा है। जरूरत सिर्फ इनकी पहचान को उजागर करने की है। फस्र्ट वर्डिक्ट अपने प्रयासों से ऐसे देवस्थलों से लोगों को मशरूफ करने जा रहा है। आज आपको कांगड़ा जिले में स्थित तत्वानी मंदिर के बारे में बताया जाएगा। यह मंदिर धर्मशाला से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर सलोल से चार किलोमीटर की दूरी पर बिलकुल गज खड्ड के किनारे स्थापित है। यहां खासियत यह है कि यहां गर्म पानी का चश्मा है। हालांकि कुल्लू के मणिकर्ण में भी गर्म पानी का चश्मा है। मगर यहां भी गर्म पानी का चश्मा है। मगर यहां का पानी कुल्लू के मणिकर्ण चश्मे के पानी से कम गर्म है। फव्वारे की नीचे खड़े होकर आसानी से स्नान किया जा सकता है। मंदिर भोलेनाथ को समर्पित है। यहां शिव भोले की पूजा-अर्चना होती है। इस मंदिर के पुजारी शिव गोस्वामी हैं। उन्होंने मंदिर के इतिहास के बारे में बताया कि प्राचीन समय में यहां घना जंगल हुआ करता था। इसी स्थान पर तीन महात्माओं ने घोर तपस्सया की थी। उनमें से एक महात्मा का नाम गोपाल गिरि था, जबकि दो अन्य महात्माओं का नाम पता नहीं है। जब उनकी तपस्या पूर्ण हुई और प्रभु ने उन्हें अपने साक्षात दर्शन दिए तो इन महात्माओं से कुछ मांगने के लिए कहा। इस पर तीनों महात्माओं ने भगवान से पानी की मांग की। इस भगवान ने उन्हें गर्म पानी दिया। इसी कारण यहां गर्म पानी का चश्मा फूट निकला। इसी स्थान पर उन तीन महात्माओं के मंदिर बने हैं जिनकी आज भी पूजा की जाती है। कालांतर में गुलेर के राजा ने अपनी बेटी की शादी चंबा के राजा के बेटे के साथ कर दी। उस समय यातायात नहीं था तो पैदल ही यात्रा की जाती थी। उस समय गुलेर और चंबा के लिए जाने का यही रास्ता शार्टकट था। अत: एक बार रानी चंबा से पालकी में अपने मायके गुलेर रियासत जा रही थी। इसी स्थान पर कहारों ने उनकी पालकी को विश्राम दिया। तब महारानी की नजर इस चश्मे पर पड़ी। उन्होंने राजा से कह कर इसे बावड़ी के रूप में निर्माण करवा दिया। वहीं रानी ने इसी रास्ते में कई अन्य बावडिय़ों का भी निर्माण करवाया ताकि राहगीर पानी पी सकें। कुछ साल पहले यहां एक बावा सोमगिरि ने भी अपनी कुटिया बनाई थी। वह यहां लगभग 25 वर्ष तक रहे। सोमगिरि बावा ने यहां फलों का बागीचा भी लगाया था। मगर अब यहां कोई नहीं रहता है। वहीं मंदिर के पुजारी शिवदत गोस्वामी ने बताया कि यहां गर्म पानी के चश्में में स्नान करने के बाद अगर कोई शीश नवाकर मन्नत मांगता है तो वह अवश्य पूर्ण होती है। वहीं यहां गणमान्य देवेंद्र गुलेरिया ने डीसी से मंदिर के लिए सोलर लाइट की मंजूरी भी दिलवाई है। मंदिर कब का बना है इसकी सटीक जानकारी नहीं है, मगर मंदिर प्राचीन शैली में बना हुआ है। ऐसा माना जाता है कि यह पुराने राजाओं और महाराजाओं द्वारा ही निर्मित किया गया होगा। यहां प्राचीन शैली में निर्मित कुछ बावडिय़ां भी बनी हुई हैं। माना जाता है कि ये बावडिय़ां भी राजाओं और महाराजाओं के समय की ही बनी हुई हैं। यहां आने पर आदमी स्वत: ही भोलेनाथ की भक्ति में रम जाता है और एक असीम मानसिक सुकून की अनुभूति होती है। मंदिर में प्राचीन शैली में नंदी, शिव भोले नाथ और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां बनी हुई हैं। जहां गर्म पानी का चश्मा है वहां एक बावड़ी बनाई गई है और जिस जगह से गर्म पानी निकलता है वहां शेर का मुंह बनाया गया है। यह आकृति बहुत ही सुंदर ढंग से बनाई गई है। इसे देखने पर भक्त स्वत: ही कला के सौंदर्य की दाद देने को मजबूर हो जाता है। यह एक ऐतिहासिक स्थान है, मगर इसे हमेशा ही नजरअंदाज किया गया है। यहां आने के लिए सलोल के तहत परेई नामक स्थान पर बस से उतरना पड़ता है और उसके बाद गज खड्ड को पार करना पड़ता है। हालांकि गर्मियों में पानी का बहाव इतना ज्यादा नहीं होता, मगर बरसात में यहां बहुत ज्यादा पानी आता है। शिवरात्रि वाले दिन यहां बहुत बड़ा मेला लगता है और यहां स्थानीय भक्तों के अलावा अन्य स्थानों से भी भक्त शीश नवाने आते हैं। मान्यता है कि यहां मन्नत मांगने पर हाल में पूरी होती है और शिवभोलेनाथ अपना आशीर्वाद अवश्य देते हैं। गज खड्ड में पुल न होने के कारण स्थानीय लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए कई बार मांग भी उठाई गई कालांतर में सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया। मंदिर के ठीक ऊपर लंघाणा गांव भी है जहां के वाशिंदे बहुत टफ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यहां सुविधाओं का अभाव है। विकास नाममात्र हुआ है। यहां के लोग बहुत मेहनती और मिलनसार हैं। विकास की बयार न होने पर भी उनके माथे पर कभी शिकन तक नहीं देखी गई। हालांकि लोगों को रंझ जरूर है कि इस गांव के विकास की ओर सरकारें ध्यान नहीं देती। यदि गज खड्ड पर पुल का निर्माण हो जाए तो इन लोगों को बहुत सुविधा होगी। बरसात के दिनों में खड्ड में पानी बहुत ज्यादा होने से इन लोगों को मीलों पैदल सफर कर अपने घरों तक पहुंचना पड़ता है। कई लोग तो इन्हीं असुविधाओं की वजह से अपने आशियाने कहीं और जगह बना रहे हैं। वहीं मंदिर के साथ एक पक्का रोड बनाया गया है जो झीरबल्ला से मिलता है। यहीं से एक रोड सलोल के लिए जाता है तो दूसरा रैत-शाहुपर के लिए निकलता है।
देवभूमि हिमाचल के जिला सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र की करीब सवा सौ पंचायतों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। ये पर्व दिवाली के एक माह बाद अमावस्या को पारंपरिक तरीके के साथ मनाया जाता है। यहां इसे ‘मशराली’ के नाम से जाना जाता है। गिरिपार के अतिरिक्त शिमला जिला के कुछ गांव, उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र एवं कुल्लू जिला के निरमंड में भी बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। दरअसल, गिरिपार क्षेत्र में किवदंती है कि यहां भगवान श्री राम के अयोध्या पहुंचने की खबर एक महीना देरी से मिली थी। इसके चलते यहाँ के लोग एक महीना बाद दिवाली का पर्व मनाते है जिसे आम भाषा में बूढी दिवाली कहा जाता हैं। हालांकि यहाँ मुख्य दिवाली भी धूमधाम से मनाया जाती है। इन क्षेत्रों में बलिराज के दहन की प्रथा भी है। विशेषकर कौरव वंशज के लोगों द्वारा अमावस्या की आधी रात में पूरे गांव की मशाल के साथ परिक्रमा करके एक भव्य जुलूस निकाला जाता है और बाद में गांव के सामूहिक स्थल पर एकत्रित घास, फूस तथा मक्की के टांडे में अग्नि देकर बलिराज दहन की परंपरा निभाई जाती है। वहीँ पांडव वंशज के लोग ब्रह्म मुहूर्त में बलिराज का दहन करते हैं। मान्यता है कि अमावस्या की रात को मशाल जुलूस निकालने से क्षेत्र में नकारात्मक शक्तियों का प्रवेश नहीं होता और गांव में समृद्धि के द्वार खुलते है। बनते है विशेष व्यंजन, नृृत्य करके होता है जश्न: बूढ़ी दिवाली के उपलक्ष्य पर ग्रामीण पारंपरिक व्यंजन बनाने के अतिरिक्त आपस में सूखे व्यंजन मूड़ा, चिड़वा, शाकुली, अखरोट वितरित करके दिवाली की शुभकामनाएं देते हैं। दिवाली के दिन उड़द भिगोकर, पीसकर, नमक मसाले मिलाकर आटे के गोले के बीच भरकर पहले तवे पर रोटी की तरह सेंका जाता है फिर सरसों के तेल में फ्राई कर देसी घी के साथ खाया जाता है। इसके बाद 4 से 5 दिनों तक नाच गाना और दावतों का दौर चलता है। परिवारों में औरतें विशेष तरह के पारंपरिक व्यंजन तैयार करती हैं। सिर्फ बूढ़ी दिवाली के अवसर पर बनाए जाने वाले गेहूं की नमकीन यानी मूड़ा और पापड़ सभी अतिथियों को विशेष तौर पर परोसा जाता है। इसके अतिरिक्त स्थानीय ग्रामीण द्वारा हारूल गीतों की ताल पर लोक नृत्य होता है। ग्रामीण इस त्यौहार पर अपनी बेटियों और बहनों को विशेष रूप से आमंत्रित करते हैं। ग्रामीण परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ साथ हुड़क नृृत्य करके जश्न मनाते हैं। कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है जबकि कुछ गांव में अर्ध रात्रि के समय एक समुदाय के लोगों द्वारा बुड़ियात नृत्य करके देव परंपरा को निभाया जाता है। क्यों मनाते हैं एक माह बाद दिवाली ! दिवाली मनाने के बाद पहाड़ में बूढ़ी दीवाली मनाने के पीछे लोगों के अपने अपने तर्क हैं। जनजाति क्षेत्र के बड़े-बुजुर्गों की माने तो पहाड़ के सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की सूचना देर से मिलने के कारण लोग एक माह बाद पहाड़ी बूढ़ी दिवाली मनाते हैं। वहीं कुछ लोगों का मत है कि दिवाली के वक्त लोग खेतीबाड़ी के कामकाज में बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं जिस कारण वह इसके ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली का जश्न परंपरागत तरीके से मनाते हैं। वहीं, कुछ बुजुर्गों की मानें तो, जब जौनसार व जौनपुर क्षेत्र सिरमौर राजा के अधीन था, तो उस समय राजा की पुत्री दिवाली के दिन मर गई थी। इसके चलते पूरे राज्य में एक माह का शोक मनाया गया था. उसके ठीक एक माह बाद लोगों ने उसी दिन दिवाली मनाई। इस दौरान पहले दिन छोटी दिवाली, दूसरे दिन रणदयाला, तीसरे दिन बड़ी दिवाली, चौथे दिन बिरुड़ी व पांचवें दिन जंदौई मेले के साथ दीवाली पर्व का समापन होता है।
हिमालय की बर्फीली चोटियों में कई देव स्थान हैं। कहते है कि हिमाचल में साक्षात महादेव शिव भी विराजमान होते है। यहां पर शिव के कई ऐसे मंदिर है जिनका पौराणिक महत्व भी है और ये स्थान रह्सयमई भी है। बात चाहे किन्नर कैलाश की करे या पीर पंजाल की पहाडिय़ों के पूर्वी हिस्से में स्थित मणिमहेश की, महादेव है हर स्थान भक्तों के लिए स्वर्ग से कम नहीं है। देश -विदेश से लाखों शिवभक्त पुण्य अर्जित करने व शिवशंभु की कृपा प्राप्ति हेतु इन स्थानों के दर्शन करने पहुँचते है। हिमाचल प्रदेश शिवभूमि भी है। 1. किन्नर कैलाश : हिमालय की गोद में बसा किन्नर कैलाश हिमाचल के किन्नौर जिले में स्थित है। 79 फीट ऊंचा ये शिवलिंग बर्फीले पहाड़ों से घिरा हैं। अत्यधिक ऊंचाई पर होने के कारण किन्नर कैलाश शिवलिंग चारों ओर से बादलों से घिरा रहता है। ये दुर्गम स्थान है, इसलिए यहां पर ज्यादा लोग दर्शन के लिए नहीं आते हैं। ख़ास बात ये है कि सूर्य उदय होने से पहले किन्नर कैलाश के आसपास की पहाड़ियों का रंग और कैलाश के रंग में भी काफी फर्क दिखाई देता है। अब इसे कोई चमत्कार कहे या कोई रहस्य या विज्ञान, इसका उत्तर तो शायद किसी के पास भी नहीं है। ये सत्य है कि यहाँ स्थित शिवलिंग बार-बार रंग बदलता है। कहा जाता है कि यह शिवलिंग हर पहर में अपना रंग बदलता है। 2 . बिजली महादेव : महादेव का ये अनोखा मंदिर कुल्लू के ब्यास और पार्वती नदी के संगम के पास ही एक पहाड़ पर बना हुआ है। कहा जाता है कि यहां आसमानी बिजली गिरने की वजह से शिवलिंग चकनाचूर हो जाता है। फिर मंदिर के पुजारी जब शिवलिंग को मक्खन से जोड़ते हैं, तो यह फिर से अपने पुराने रूप में आ जाता है। मान्यता है कि भगवान शिव अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और बिजली के आघात को वे स्वयं सहन कर लेते हैं। 3 . मणिमहेश : हिमाचल की पीर पंजाल की पहाड़ियों के पूर्वी हिस्से में स्थित है भरमौर, और यहाँ मणिमहेश के रूप में महादेव विराजते है। यहाँ महादेव अपने भक्तों को मणिः के रूप में दर्शन देते है। यही वजह है इस पवित्र स्थल का नाम मणि महेश पड़ा। मणिमहेश नाम का पवित्र सरोवर है जो समुद्र तल से लगभग 13,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इसी सरोवर की पूर्व की दिशा में है वह पर्वत जिसे कैलाश कहा जाता है। इस हिमाच्छादित शिखर की ऊंचाई समुद्र तल से करीब 18,564 फीट है। स्थानीय लोग मानते हैं कि देवी पार्वती से विवाह करने के बाद भगवान शिव ने मणिमहेश नाम के इस पर्वत की रचना की थी। मणिमहेश पर्वत के शिखर पर भोर में एक प्रकाश उभरता है जो तेजी से पर्वत की गोद में बनी झील में प्रवेश कर जाता है। यह इस बात का प्रतीक माना जाता है कि भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर बने आसन पर विराजमान होने आ गए हैं तथा ये अलौकिक प्रकाश उनके गले में पहने शेषनाग की मणि का है। 4 .चूड़धार : सिरमौर जिले की सबसे ऊंची चोटी चूड़धार से शिव भक्तों की अटूट आस्था जुड़ी है। इस स्थल को चूर-चांदनी, चूर शिखर और चूर चोटी के नाम से भी जाना जाता है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 12000 फीट है। यहां पर भगवान शिव के रूप में ही देवता शिरगुल महाराज विराजमान है। चोटी पर स्थित भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए हर साल हजारों सैलानी यहां पहुंचते हैं। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए शिव भक्तों को 14 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। खास बात यह है की इस छोटी पर अधिक बर्फ गिरने से इस मंदिर के कपाट करीब तीन माह के लिए बंद हो जाते है।
भगवान शिव और माता पार्वती का मिलन पर्व महाशिवरात्रि विश्व भर में मनाया जाता है, मगर छोटी काशी मंडी शहर की शिवरात्रि का अंदाज ही अनूठा है। यहां सात दिवसीय महाशिवरात्रि उत्सव मनाया जाता है, जिसे अंतरराष्ट्रीय मेले का तमगा प्राप्त है। ये सात दिन श्रद्धा और भक्ति से सराबोर होते है और लाखों श्रद्धालु इस उत्सव में भाग लेने पहुँचते है। शिवरात्रि के साथ ही हिमाचल प्रदेश में साल भर चलने वाले मेलों की शुरुआत होती है। मंडी नगरी में पावन शिवरात्रि पर्व से जुड़ी एक कथा भी है। इसके अनुसार पर्वतराज हिमालय की पुत्री माता पार्वती को विदा कर ले जाते समय भगवान शिव को संसार का ध्यान आया तो वे बारातियों के साथ ही नई नवेली दुलहन को वहीं छोड़ कर तपस्या में लीन हो गए। शिव के न लौटने पर माता पार्वती विलाप करने लगी, जिसे सुनकर एक पुरोहित आगे आया। फिर भगवान शिव का आह्वान करने के लिए मंडप की स्थापना कराई गई। मंडप में प्रकट होकर भगवान शिव ने पूछा कि उन्हें क्यों बुलाया गया है, तो पुरोहित ने कहा कि आपकी याद में रोते-रोते पार्वती सो गई हैं। तभी से इस स्थान का नाम मंडप से मांडव्य और फिर मंडी पड़ा। माना जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में राजा अजबर सेन ने बटोहली से अपनी राजधानी ब्यास नदी के उस पार स्थापित की थी। संभवत दौरान महाशिवरात्रि के पर्व का शुभारंभ हुआ। प्रारंभ में इसे दो दिन के लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता था, जिसमें मंडी जनपद के लोक देवताओं की भागीदारी रहती थी। फिर सोलहवीं सदी के दौरान राजा सूरज सेन ने मंडी शिवरात्रि में जनपद के देवी-देवताओं को आमंत्रित करने और एक सप्ताह तक मेहमान बनाकर रखने की परंपरा भी डाली। तब से ये परंपरा चली आ रही है। सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से जुड़ा है मंडी का इतिहास : मंडी रियासत का इतिहास सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से प्रारंभ होता है, जब राजा साहूसेन के छोटे भाई बाहूसेन ने अपने भाई से रूष्ट होकर कुछ विश्वास पात्र सैनिकों को साथ लेकर लोहारा को छोड़कर बल्ह के हाट में अपनी राजधानी बसाई थी। इसी के साथ मंडी रियासत की स्थापना हुई थी। बाहूसेन ने ही हाटेश्वरी माता के मंदिर की स्थापना की थी। इसके बाद वे मंगलौर में जा बसे थे। 1280 ई.में बाणसेन ने मंडी शहर के भियूली में मंडी रियासत की राजधानी स्थपित की, जो बटोहली होते हुए 1527 ई. में अजबर सेन ने बाबा भूतनाथ के मंदिर के साथ ही आधुनिक मंडी शहर की स्थापना की थी। श्रद्धा और भक्ति से सराबोर होता है अन्तर्राष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव भगवान शिव और माता पार्वती का मिलन पर्व महाशिवरात्रि विश्व भर में मनाया जाता है, मगर छोटी काशी मंडी शहर की शिवरात्रि का अंदाज ही अनूठा है। यहां सात दिवसीय महाशिवरात्रि उत्सव मनाया जाता है, जिसे अंतरराष्ट्रीय मेले का तमगा प्राप्त है। ये सात दिन श्रद्धा और भक्ति से सराबोर होते है और लाखों श्रद्धालु इस उत्सव में भाग लेने पहुँचते है। शिवरात्रि के साथ ही हिमाचल प्रदेश में साल भर चलने वाले मेलों की शुरुआत होती है। मंडी नगरी में पावन शिवरात्रि पर्व से जुड़ी एक कथा भी है। इसके अनुसार पर्वतराज हिमालय की पुत्री माता पार्वती को विदा कर ले जाते समय भगवान शिव को संसार का ध्यान आया तो वे बारातियों के साथ ही नई नवेली दुलहन को वहीं छोड़ कर तपस्या में लीन हो गए। शिव के न लौटने पर माता पार्वती विलाप करने लगी, जिसे सुनकर एक पुरोहित आगे आया। फिर भगवान शिव का आह्वान करने के लिए मंडप की स्थापना कराई गई। मंडप में प्रकट होकर भगवान शिव ने पूछा कि उन्हें क्यों बुलाया गया है, तो पुरोहित ने कहा कि आपकी याद में रोते-रोते पार्वती सो गई हैं। तभी से इस स्थान का नाम मंडप से मांडव्य और फिर मंडी पड़ा। माना जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में राजा अजबर सेन ने बटोहली से अपनी राजधानी ब्यास नदी के उस पार स्थापित की थी। संभवत दौरान महाशिवरात्रि के पर्व का शुभारंभ हुआ। प्रारंभ में इसे दो दिन के लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता था, जिसमें मंडी जनपद के लोक देवताओं की भागीदारी रहती थी। फिर सोलहवीं सदी के दौरान राजा सूरज सेन ने मंडी शिवरात्रि में जनपद के देवी-देवताओं को आमंत्रित करने और एक सप्ताह तक मेहमान बनाकर रखने की परंपरा भी डाली। तब से ये परंपरा चली आ रही है। सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से जुड़ा है मंडी का इतिहास : मंडी रियासत का इतिहास सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से प्रारंभ होता है, जब राजा साहूसेन के छोटे भाई बाहूसेन ने अपने भाई से रूष्ट होकर कुछ विश्वास पात्र सैनिकों को साथ लेकर लोहारा को छोड़कर बल्ह के हाट में अपनी राजधानी बसाई थी। इसी के साथ मंडी रियासत की स्थापना हुई थी। बाहूसेन ने ही हाटेश्वरी माता के मंदिर की स्थापना की थी। इसके बाद वे मंगलौर में जा बसे थे। 1280 ई.में बाणसेन ने मंडी शहर के भियूली में मंडी रियासत की राजधानी स्थपित की, जो बटोहली होते हुए 1527 ई. में अजबर सेन ने बाबा भूतनाथ के मंदिर के साथ ही आधुनिक मंडी शहर की स्थापना की थी। राज देवता माधोराय, बड़ादेव कमरुनाग और बाबा भूतनाथ से है नाता : मंडी शिवरात्रि में शैव मत का प्रतिनिधित्व जहां शहर के अधिष्ठदाता बाबा भूतनाथ करते हैं, तो वैष्णव का प्रतिनिधित्व राज देवता माधोराय और लोक देवताओं की अगुआई बड़ादेव कमरूनाग और देव पराशर करते हैं। इस लोकोत्सव में देवी देवताओं के साथ जनपद के लोगों की भागीदारी भी रहती थी, जो मंडी नगर में माधोराय के अलावा अपने राजा के दर्शन भी करते थे। मेले के दौरान जनपद के देवी-देवता राजदेवता माधोराय के दरबार में हाजिरी लगाते हैं। यह परंपरा भी राजा सूरज सेन के समय से ही है। शिवरात्रि का शुभारंभ बाबा भूतनाथ और माधोराय के मंदिरों में पूजा अर्चना के साथ होता है। इसमें सबसे पहले बड़ा देव कमरूनाग मंडी नगर में पहुंचते हैं। इसके पश्चात ही शिवरात्रि के कार्य शुरू होते हैं। राजतंत्र के जमाने से ही राजदेवता माधोराय की जलेब निकलती है। देखने को मिलता है देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम : शिवरात्रि मेले के दौरान जनपद के सौ से अधिक देवी-देवता एक सप्ताह तक मंडी नगर में मेहमान बनकर रहते हैं। मंडी शिवरात्रि महोत्सव में देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। इस देव समागम में हिमाचल में पाई जाने वाली देव रथ शैलियों का अवलोकन करने को मिलता है। देव समागम में बैठने वाले देवताओं की वरिष्ठता का विशेष ध्यान रखा जाता है। लोक विश्वास के अनुसार जिस देवता की पालकी पहले बनी है वही वरिष्ठ होता है। राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में होता था शामिल : राजशाही के जमाने में राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में शामिल होता था। शिवरात्रि की जलेब के कुछ चित्र प्राचीन हवेलियों में देखने को मिलते हैं। सेरी चानणी और घंटाघर के आसपास लगे मेले के दृश्य चित्रित हैं। वहीं पर जलेब देखने उमड़ी भीड़ और रनिवास के झरोखों से रानियों और राजपरिवार से जुड़ी महिलाओं के उत्सुकता से इस भव्य जलेब को देखने के दृश्य भी चित्रित हैं। तारा रात्रि से होता है शिवरात्रि का आगाज : पुरातन काल से चली आ रही परंपराओं के अनुसार तारारात्रि से शिवरात्रि का आगाज माना जाता है। तारा रात्रि की रात को मंडी शहर के प्राचीन बाबा भूतनाथ मंदिर के शिवलिंग पर माखन का लेप चढ़ाने की परंपरा रही है। शिवरात्रि वाले दिन माखन को उतारकर इसे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।v देवता माधोरायनाथ से है नाता : मंडी शिवरात्रि में शैव मत का प्रतिनिधित्व जहां शहर के अधिष्ठदाता बाबा भूतनाथ करते हैं, तो वैष्णव का प्रतिनिधित्व राज देवता माधोराय और लोक देवताओं की अगुआई बड़ादेव कमरूनाग और देव पराशर करते हैं। इस लोकोत्सव में देवी देवताओं के साथ जनपद के लोगों की भागीदारी भी रहती थी, जो मंडी नगर में माधोराय के अलावा अपने राजा के दर्शन भी करते थे। मेले के दौरान जनपद के देवी-देवता राजदेवता माधोराय के दरबार में हाजिरी लगाते हैं। यह परंपरा भी राजा सूरज सेन के समय से ही है। शिवरात्रि का शुभारंभ बाबा भूतनाथ और माधोराय के मंदिरों में पूजा अर्चना के साथ होता है। इसमें सबसे पहले बड़ा देव कमरूनाग मंडी नगर में पहुंचते हैं। इसके पश्चात ही शिवरात्रि के कार्य शुरू होते हैं। राजतंत्र के जमाने से ही राजदेवता माधोराय की जलेब निकलती है। देखने को मिलता है देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम : शिवरात्रि मेले के दौरान जनपद के सौ से अधिक देवी-देवता एक सप्ताह तक मंडी नगर में मेहमान बनकर रहते हैं। मंडी शिवरात्रि महोत्सव में देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। इस देव समागम में हिमाचल में पाई जाने वाली देव रथ शैलियों का अवलोकन करने को मिलता है। देव समागम में बैठने वाले देवताओं की वरिष्ठता का विशेष ध्यान रखा जाता है। लोक विश्वास के अनुसार जिस देवता की पालकी पहले बनी है वही वरिष्ठ होता है। राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में होता था शामिल : राजशाही के जमाने में राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में शामिल होता था। शिवरात्रि की जलेब के कुछ चित्र प्राचीन हवेलियों में देखने को मिलते हैं। सेरी चानणी और घंटाघर के आसपास लगे मेले के दृश्य चित्रित हैं। वहीं पर जलेब देखने उमड़ी भीड़ और रनिवास के झरोखों से रानियों और राजपरिवार से जुड़ी महिलाओं के उत्सुकता से इस भव्य जलेब को देखने के दृश्य भी चित्रित हैं। तारा रात्रि से होता है शिवरात्रि का आगाज : पुरातन काल से चली आ रही परंपराओं के अनुसार तारारात्रि से शिवरात्रि का आगाज माना जाता है। तारा रात्रि की रात को मंडी शहर के प्राचीन बाबा भूतनाथ मंदिर के शिवलिंग पर माखन का लेप चढ़ाने की परंपरा रही है। शिवरात्रि वाले दिन माखन को उतारकर इसे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
पंजाब में अगर अमृतसर का नाम लोगे तो अनायास ही यहां विशेष स्थलों का चित्र मानसिक पटल पर उभर कर सामने आ जाता है। अमृतसर को अमृत की धरती कहा जाता है। चूंकि पंजाब एक हिस्टोरीकल प्लेस है तो यहां कई ऐसी चीजें देखने वाली हैं तो पर्यटकों को इतिहास के झरोखों में लेकर चली जाती हैं। यहां सबसे बड़ा धार्मिक स्थान गोल्डन टेंपल है जहां हर रोज हजारों संगत नतमस्तक हो कर अपने जीवन को धन्य बनाती है। वहीं इसके अलावा यहां और भी कई अन्य धार्मिक स्थान हैं जो अपना विशेष महत्व रखते हैं। यहीं माडल टाऊन में एक देवी का मंदिर है। लोगों की उसमें बड़ी आस्था है। इसके अलावा रामतीर्थ और अन्य स्थल भी हैं जहां भक्त अपना शीश नवाते हैं। आज हम आपको अमृतसर के दुर्गियाना मंदिर के बारे में बताएंगे। इस मंदिर में भी लोगों की भारी आस्था है। यहां भी रोज हजारों श्रद्धालु शीश नवाकर मन्नतें मांगते हैं जो पूरी भी होती हैं। वास्तव में श्री दुर्गियाना मंदिर को लक्ष्मी नारायण मंदिर भी कहा जाता है। यह स्वर्ण मंदिर के बाद अमृतसर में अगला सबसे पवित्र मंदिर है। देखने में आपको ये स्वर्ण मंदिर जैसा लग सकता है। मंदिर में मुख्य देवता देवी दुर्गा हैं, फिर भी, यह भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी को भी समर्पित है। मंदिर एक जल निकाय के बीच में स्थित है और यहां एक-एक घाट भी है, जहां तीर्थयात्री डुबकी लगा सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन पवित्र जल में डुबकी लगाने से आपके पिछले जन्मों के सभी पाप मिट जाते हैं। इसका निर्माण मूल रूप से 16वीं शताब्दी के अंत में किया गया था, और वर्ष 1921 में फिर से, इसे गुरु हरसाई मल कपूर द्वारा पुनर्निर्मित किया गया था। मंदिर भक्तों और पर्यटकों के लिए रोजाना लंगर (मुफ्त भोजन) तैयार करता है। यहां दशहरा, जन्माष्टमी, रामनवमी और दिवाली बड़े उत्साह के साथ मनाए जाने वाले मुख्य त्यौहार हैं। इस मंदिर में शाम के समय जाने-माने कलाकार अपने भजनों के माध्यम से मां की स्तुति करते हैं। जब दुर्गियाना आओ तो यहां बैठकर मां की भेंटें सुनना कभी न भूलें। क्योंकि यही वह समय होता है जब चरम मानसिक सुकून की अनुभूति होती है और हर कोई मां की भक्ति में डूब जाता है। वहीं मंदिर के साथ-साथ एक बहुत ही आकर्षक बाजार भी लगता है जहां भक्त अपनी मनपसंद की वस्तुएं खरीद सकते हैं। यहां प्रसाद की दुकानें भी लगती हैं और साथ में फूलों की बिक्री भी होती है। भक्त लोग इन्हीं दुकानों से प्रसाद और फूल खरीदकर मां के चरणों में अर्पित करते हैं। दुर्गियाना में एक विशाल श्मशानघाट भी बना है। माना जाता है कि किसी की मृत्यु के बाद पार्थिव देह का संस्कार भी यहीं किया जाता है। इसके अलावा अमृतसर में कई ऐतिहासिक स्थान भी विद्यमान हैं। यहीं से बाघा बार्डर भी शायद बीस-पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
हिमाचल देवभूमि है। यहां चप्पे-चप्पे पर देवताओं का वास है। यही कारण है कि इस पावन स्थली को देवी-देवताओं ने अपना स्थान बनाया है। यूं भी हिमाचल की आवो-हवा और वातावरण अति शुद्ध है। प्रकृति यहां पर अपनी चरम छटा पर है। वहीं यहां प्रसिद्ध शक्तिपीठ भी विराजमान हैं। हर मंदिर में पूजन की अपनी मान्यताएं हैं। कांगड़ा में माता ब्रजेश्वरी की पिंडी रूप में पूजा होती है। चामुंडा में मां काली की पूजा होती है और ज्वाला में मां की पावन ज्योति की पूजा होती है। आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के दर्शन करवाएंगे जहां पति-पत्नी एक साथ दर्शन नहीं कर सकते हैं। जी हां दंपति को एक साथ दर्शन करने की आज्ञा नहीं है। हालांकि सारे वेदों और संस्कारों में पति-पत्नी के एक साथ पूजन का विधान बताया गया है मगर इस मंदिर में ऐसा करने से मनाही है। शिमला जिला में रामपुर में समुद्र तल से 11000 फुट की ऊंचाई पर मां दुर्गा का एक स्वरूप विराजमान है, जिसे श्राई कोटि माता के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर में पति-पत्नी एक साथ दर्शन नहीं कर सकते। दोनों का यहां एक साथ पूजन करना निषेध माना गया है। हर बात के पीछे कोई अहम कारण होता है। सो इस मंदिर में भी कुछ ऐसी ही कहानी जुड़ी है, जिस कारण पति-पत्नी को एक साथ पूजन करने पर मनाही है। इससे संबंधित जुड़ी कहानी के बारे में पुजारी वर्ग का कहना है कि एक बार भोलेनाथ ने अपने दोनों पुत्रों को गणेश जी तथा कार्तिकेय जी को समस्त ब्रह्मांड का चक्कर लगाने के लिए कहा। पिता का आदेश पाकर ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय जी तो ब्रह्मांड का चक्कर काटने के लिए प्रस्थान कर गए, मगर गणेश जी ने अपने माता-पिता के चक्कर काटकर ही यह कह दिया कि मेरे लिए तो माता-पिता के चरण ही समस्त ब्रह्मांड के तुल्य हैं। ऐसे में ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय जी जब समस्त ब्रह्मांड का चक्कर काटकर वापस लौटे तो तब तक गणेश जी का विवाह हो चुका था। यह देखकर कार्तिकेय ने आजीवन विवाह न करने का प्रण ले लिया। श्राईकोटी मैं आज भी द्वार पर गणपति जी महाराज अपनी पत्नी सहित विराजमान हैं। कार्तिकेय जी के विवाह न करने के प्रण से माता पार्वती बहुत रुष्ट हो गई और उन्होंने कहा कि जो भी पति-पत्नी यहां उनके दर्शन करेंगे उस दम्पति का बिछुडऩा तय होगा। इस कारण आज भी यहां पति- पत्नी एक साथ पूजा नहीं करते। अगर फिर भी कोई ऐसा करता है मां के श्राप अनुसार उसे ताउम्र एक-दूसरे का वियोग सहना पड़ता है। यह मंदिर सदियों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है तथा मंदिर की देख- रेख माता भीमाकाली ट्रस्ट के पास है। घने जंगल के बीच इस मंदिर का रास्ता देवदार के घने वृक्षों से और अधिक रमणीय लगता है। शिमला पहुंचने के बाद यहां वाहन और बस के माध्यम से नारकंडा और फिर मशनु गावं के रास्ते से होते हुए यहां पहुंचा
जयपुर में जहां पुराने राजा-महाराजाओं की रियासतें हैं वहीं यहां कई पौराणिक मंदिर भी स्थापित हैं। जयपुर के एक ऐसे ही मंदिर के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं। जयपुर में स्थित बिरला मंदिर की महिमा अपार है। यह मंदिर भारत में स्थित कई बिरला मंदिरों का ही एक हिस्सा है। इस मंदिर को लक्ष्मी नारायण मंदिर के रूप में भी जाना जाता है। यह मंदिर मंदिर मोती डूंगरी पहाड़ी पर स्थित है। जयपुर के बिरला मंदिर का निर्माण 1988 में बिरला द्वारा किया गया था, जब जयपुर के महाराजा ने एक रुपये की टोकन राशि के लिए जमीन दे दी थी। सफेद संगमरमर से निर्मित, बिड़ला मंदिर की संरचना में आप प्राचीन हिंदू वास्तुकला शैली और आधुनिक डिजाइन का मेल देख सकते हैं। इस मंदिर की दीवारों को देवी-देवताओं की गहन नक्काशी, पुराणों और उपनिषदों के ज्ञान भरे शब्दों से सजाया गया है। इस मंदिर में सुकरात, क्राइस्ट, बुद्ध, कन्फ्यूशियस जैसे कई जैसे ऐतिहासिक प्राप्तकर्ताओं और आध्यात्मिक संतों के चित्र भी देखने को मिलते हैं। अगर आप जयपुर के बिरला मंदिर को देखने के लिए जाना चाहते हैं तो आप जन्माष्टमी के समय जाएँ, क्योंकि इस समय मंदिर में कई धार्मिक गतिविधियाँ होती हैं। बिरला मंदिर को लक्ष्मी नायायण मंदिर भी कहा जाता है क्योंकि यह मंदिर भगवान विष्णु (नारायण) उनकी पत्नी धन की देवी लक्ष्मी को समर्पित है। पत्थर के एक टुकड़े से उकेरे गए लक्ष्मी नारायण देवता का विशेष ध्यान जाता है। इन सभी मूर्तियों के अलावा इस मंदिर में गणेश की मूर्ति भी है जो पारदर्शी दिखाई देती है।
हरिपुर-गुलेर रियासत 1415 ईस्वी में राजा हरिचंद ने बसाई थी। गुलेर का पहले का नाम ग्वालियर था और हरिपुर का नाम राजा हरिचंद के नाम पर पडा। उसी दौरान लगभग 500 के करीब ऐतिहासिक निर्माण हुए, जिनमें बावडिय़ां, तालाब, मंदिर, किले और कूओं का निर्माण हुआ। इन्हीं मंदिरों के निर्माण का एक हिस्सा गुलेर में आने वाले बिलासपुर नामक स्थान पर पर मां बिलासा और शिव भोलेनाथ का प्राचीन मंदिर है। बिलासपुर नगरोटा सूरियां (पौंग डैम) से देहरा की ओर जाने वाले रोड से 12 किलोमीटर की दूरी और हरिपुर से नगरोटा की ओर जाने वाले रोड से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह़ां से गुलेर रेलवे स्टेशन लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसी जगह पर स्थित है पावन मां बिलासा का मंदिर। यह मंदिर प्राचीन शैली में बना हुआ है। यह़ां खासियत यह है कि ऊपर मां का मंदिर बना हुआ है ठीक इसके नीचे एक सदाबहार और बहुत ही आकर्षक बावड़ी बनी हुई है। सदाबहार इसलिए कि इस बावडी का पानी कभी सूखता नहीं है और पानी बहुत ही शीतल है। स्थानीय भाषा में लोग इसे नौण के नाम से पुकारते हैं। मां बिलासा में भक्तों की बहुत ज्यादा आस्था है। यह़ां हर मन्नत पूरी होती है। यह़ां हर साल मां का जागरण होता है और विशाल भंडारा लगता है। दूर-दूर से भक्त शीश नवाने पहुंचते हैं। यह़ां स्थानीय तौर पर भक्तों की की कीर्तन मंडली भी बनी जो माता का गुणगान करती रहती है। मंदिर प्राचीन शैली में बहुत ही सुंदर ढंग से बना है, जिसे निहारने से अनायास ही पुरानी गुलेर रियासत की याद ताजा होती है। कुछ साल पहले यह़ां एक दीवार क्षतिग्रस्त हो गई थी, जिसका जीर्णोद्धार किया गया है। यह़ां से कुछ ही दूरी पर प्राचीन शैली में बना शिव भोले का मंदिर भी है। यह़ां पहुंचने पर ऐसा लगता है कि हम प्रकृति से पूरी तरह आत्मसात हो गए हैं। हो सकता है क्षेत्र में आसपास और भी प्राचीन निर्माण हों, जिन्हें सहेजने की बहुत जरूरत है।
उत्तराखंड को देव भूमि कहा जाता है। जाहिर है कि उत्तराखंड के चप्पे-चप्पे पर देवी-देवताओं का वास है। हालांकि उत्तराखंड के अलावा हिमाचल प्रदेश को भी देवभूमि कहा जाता है। दोनों की भागौलिक स्थिति भी एक जैसी। दोनों ही पहाड़ी क्षेत्र हैं। दोनों ही के चप्पे-चप्पे पर देवी-देवताओं का वास है। आज उत्तराखंड के एक ऐसे मंदिर की यात्रा करवाते हैं जहां पहुंचने मात्र से ही सारे दुखों और कष्टों पर मानो जैसे एक कैंची सी चल जाती है। जी हां उत्तराखंड की वादियों में कैंची धाम के नाम से विश्वविख्यात मंदिर में पहुंचने से भक्त के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। इस मंदिर को नींब करौरी अथवा नीम करौली के नाम से भी जाना जाता है। कई भक्तों के दूर हुए कष्ट : कैंची धाम के बारे में कई किस्से प्रचलित हैं, जिनसे यह पता चलता है कि यहां कष्ट जैसे छू मंत्र ही हो जाते हैं। मान्यता है कि यहां के बाबा नींब करौरी को हनुमान की शक्तियां प्राप्त थीं। लोग इन्हें हनुमान का ही अवतार मानते थे। बेहद साधारण वेषभूषा वाले बाबा नींब करौरी हमेशा आडंबरों से दूर रहे। वे न तो मस्तक पर तिलक लगाते थे और न ही गले में कंठी या माला धारण करते थे। उनके शिष्य की लिस्ट विदेशों तक थी। मिली जानकारी के अनुसार फेसबुक निर्माता जुकरवर्ग भी इनके शिष्यों की लिस्ट में शामिल हैं। एक बार जीवन में कोई कष्ट आने पर जुकरवर्ग बाबा नींब करौरी की शरण में आए थे। बाबा जी अभिमान और दंभ से सदा दूर रहते थे। इसका पता इस बात से चलता है कि वह कभी किसी को अपने पांव नहीं छूने देते थे। हालांकि वह सबको फलदायी आशीर्वाद तो देते मगर अपने पांव नहीं छूने देते थे। यदि कोई इनके पैर छूने की कोशिश करता तो वह सदैव हनुमान के पांव छूने का आह्वान करते। मान्यता है कि उन्हें साक्षात हनुमान जी के दर्शन हुए थे। कहां है धाम स्थित : यह धाम नैनीताल से लगभग ६५ किलोमीटर दूर स्थित है। यहां ट्रेन, बस या अपने किसी अन्य व्हीकल के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। नैनीताल तो वैसे भी पर्यटन की दृष्टि से एक खूबसूरत स्थान है। ऐसे में यहां स्थित कैंची धाम पर्यटन के सौंदर्य के साथ आस्था के सागर में भी डिबो देता है। कैंची धाम को लेकर मान्यता है कि यहां आने वाला व्यक्ति कभी भी खाली हाथ वापस नहीं लौटता। यहां पर मांगी गई मनौती पूर्णतया फलदायी होती है। यही कारण है कि देश-विदेश से हज़ारों लोग यहां हनुमान जी का आशीर्वाद लेने आते हैं। आम आदमी से लेकर खरबपति तक हैं बाबा के शिष्य : बाबा के भक्तों में एक आम आदमी से लेकर अरबपति-खरबपति तक शामिल हैं। बाबा के इस पावन धाम में होने वाले नित-नये चमत्कारों को सुनकर दुनिया के कोने-कोने से लोग यहां पर खिंचे चले आते हैं। बाबा के भक्त और जाने-माने लेखक रिचर्ड अल्बर्ट ने मिरेकल आफ लव नाम से बाबा पर पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में बाबा नीब करौरी के चमत्कारों का विस्तार से वर्णन है। इनके अलावा हॉलीवुड अभिनेत्री जूलिया राबट्र्स, एप्पल के फाउंडर स्टीव जाब्स और फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग जैसी बड़ी विदेशी हस्तियां बाबा के भक्त हैं। हर साल लगता है विशाल भंडारा : श्री हनुमान जी के अवतार माने जाने वाले बाबा के इस पावन धाम पर पूरे साल श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, लेकिन हर साल १५ जून को यहां पर एक विशाल मेले व भंडारे का आयोजन होता है। यहां इस दिन इस पावन धाम में स्थापना दिवस मनाया जाता है। बाबा नीब करौरी ने इस आश्रम की स्थापना १९६४ में की थी। बाबा १९६१ में पहली बार यहां आए और उन्होंने अपने पुराने मित्र पूर्णानंद जी के साथ मिल कर यहां आश्रम बनाने का विचार किया था।
भारतवर्ष देवी-देवताओं की पावन स्थली है। यूं तो भारत के चप्पे-चप्पे पर धार्मिक स्थान हैं, मगर हिमाचल और उत्तराखंड को इसके लिए विशेष वरदान है। यही कारण है कि हिमाचल और उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से जाना जाता है। आइए आज उत्तराखंड कुमाऊं के अल्मोड़ा जिला में स्थित नंदा देवी मंदिर की यात्रा करते हैं। इस मंदिर में मां दुर्गा के अवतार में विराजमान है। यह मंदिर समुद्रतल से 7816 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर चंद वंश की ईष्ट देवी मां नंदा को समर्पित है। चूंकि यहां मां दुर्गा के अवतार में विराजमान है तो मां दुर्गा भगवान शंकर की पत्नी हैं। पर्वतीय आंचल में इसकी मुख्य देवी के रूप में आराधना की जाती है। नंदा देवी गढ़वाल के राजा दक्षप्रजापति की पुत्री हैं। अत: सभी कुमाऊंनी और गढ़वाली इस मां को पर्वतांचल की पुत्री मानते हैं। इस मां को बुराई की विनाशकारण माना जाता है। वहीं इसे कुमणू घुमंतू के रूप में भी माना जाता है। इसका इतिहास 1000 वर्ष से भी पुराना है। यह मंदिर शिव मंदिर की बाहरी ढलान पर स्थित है। इसका उल्लेख महापुराणों, उपनिषदों, धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। पत्थर का मुकुट है आकर्षण का केंद्र इस मंदिर में पत्थर का मुकुट और पत्थर से दीवार पर बनाई कलाकृतियां आकर्षण का केंद्र हैं। भविष्यपुराण में इसका महालक्ष्मी, नंदा, नंदा क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूंढस, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी के रूप में उल्लेख है। अल्मोड़ा स्थित नंदा देवी का मंदिर उत्तराखंड के प्रमुख मंदिरों में से एक है। कुमाऊं में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पोंथिग, कपकोट तहसील, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा देवी के मंदिर स्थित हैं। अल्मोड़ा में मां नंदा की पूजा-अर्चना तारा शक्ति के रूप में तांत्रिक विधि से करने की परंपरा है। हर साल भाद्र मास की अष्टमी को लगता है मेला नंदा देवी का मेला हर साल भाद्र मास की अष्टमी को मेला लगता है। पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है। यह प्रतिमाएं कदली स्तम्भ से बनाई जाती हैं। मूर्ति का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊंची चोटी नंदादेवी के सदृश बनाया जाता है। षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चंदन, अक्षत एवं पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्त्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाते है। धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मु_ी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं। जो स्तम्भ पहले हिलता है उसे देवी नन्दा बनाया जाता है । जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाए जाते हैं। सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है। इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुंवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते हंै। मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है। इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलाएं भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं। दिन भर भगवती पूजन चला रहता है। अष्टमी की रात्रि को भी पूजन होता है। नवमी के दिन माँ नंदा और सुनंदा को डोलो में बिठाकर अल्मोड़ा और आसपास के क्षेत्रो में शोभायात्रा के रूप में निकाली जाती है।
जैसा कि नाम से विदित है कि मां जयंती पापों का नाश करती है और जीत का प्रतीक है। मान्यता है कि मनुष्य चाहे कितना भी पापी क्यों न हो, अगर उसने मां के चरणों में शीश नवा लिया तो समझो सारे पाप नष्ट हो गए। इस मां का उल्लेख द्वापर युग में भी मिलता है। माना जाता है कि यह माता सती की छठी भुजा से उत्पन्न हुई है। गोरखा समुदाय की है कुलदेवी यह माता गोरखा समुदाय की कुलदेवी है और नेपाल में भी इसकी बहुत मान्यता है। बताया जाता है कि यह मां जीत की भी परिचायक है। स्थिति चाहे कितनी भी विकट क्यों न हो, सच्चे मन से आराधना करने पर मां उसकी विजय का रास्ता प्रशस्त करती है। बताया जाता है कि एक बार इंद्र को शक्तिशाली राक्षस ने घेर लिया। उसे लगने लगा कि अब उसकी हार निश्चित है। उसी समय उसने मां जयंती की आराधना की। मां ने तुरन्त चामुण्डा का रूप धारण करते हुए उसकी रक्षा कर जीत का रास्ता प्रशस्त किया। लंज-कांगड़ा रोड पर स्थित है माता का मंदिर अब बात करते हैं कांगड़ा जिला में स्थापित मां जयंती के मंदिर की। यह मंदिर लंज-कांगड़ा रोड पर स्थित है। कांगडा से इसकी दूरी शायद एक अनुमान के अनुसार 6 या 7 किलोमीटर के बीच हो सकती है। यह माता 500 फीट ऊंची पहाड़ी पर पर स्थित है। मंदिर बहुत प्राचीन है। ठीक से अनुमान नहीं है, मगर मान्यता है कि मां यहां द्वापर काल से ही विराजमान है। वनवासकाल में पांडव भी रुके थे यहां माना जाता है कि अपने वनवास काल के दौरान पांडव भी यहां रुके थे। यही कारण है कि यहां हर साल पंचभीष्म (गुप्त नवरात्र) मनाए जाते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में पंजभीखू भी कहा जाता है। इस हिसाब से मंदिर कितना प्राचीन है, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस मंदिर के संबंध में एक चंडीगढ़ के माजरा में भी है मां का मंदिर किंवदंती भी प्रचलित है। एक बार एक राजा की कन्या थी। वह मां की आराधना करती थी। जब वह कन्या वर योग्य हुई तो राजा ने उसकी शादी रचा दी। सब रस्में संपूर्ण होने के बाद जब विदाई का समय हुआ, तो कहार उसकी डोली नहीं उठा सके। उन्होंने बहुत कोशिश की, मगर डोली नहीं हिल सकी। आखिर में उस कन्या ने बताया कि मैं मां की अनन्य भक्त हूं। मां मेरे स्वप्न में आई थी और कहा था कि मैं भी तेरे साथ जाना चाहती हूं। फिर एक पत्थर की मूर्ति को मां की मूर्ति से स्पर्श करवाया गया, तब जाकर उसकी डोली उठी। यह जगह चंडीगढ़ के जयंती माजरा नामक गांव में स्थित है, जहां मां का मंदिर बना हुआ है। इस तरह मां की आस्था बहुत ज्यादा है। यह सारी जानकारी रिसर्च की गई है। भूल-चूक के लिए क्षमा-याचना। अब बात करते हैं मां के चारों ओर के दृश्य की। 500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है मंदिर जैसा कि बताया गया कि मां का मंदिर 500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर पूरी तरह से प्रकृति की गोद में स्थित है। मंदिर तक पहुंचने के लिए थोड़ी सी चढ़ाई चढऩी पड़ती है। यहां दृशय बहुत ही विहंगम है। मंदिर के ठीक सामने कांगडा का ऐतिहासिक किला स्थापित है। मंदिर में पहुंचने पर असीम शांति का अनुभव होता है। इस मंदिर से सारा परिक्षेत्र नजर आता है। यूं कहिए की मंदिर में पहुंचने पर ऐसा लगता है जैसे हम प्रकृति की गोद में आ गए हों पक्षियों का चहचहाना एक अलग उल्लास भर देता है। पंचभीष्म में उमड़ते हैं भक्त, खट्टे का उठाते हैं आनंद कहीं-कहीं मोर की कूहक भी सुनाई देती है। यहां हर साल पंचभीष्म (गुप्त नवरात्र) जिन्हें स्थानीय भाषा में पंजभीखू कहा जाता है, में मेले लगते हैं। मेलों में आस्था का सैलाब उमड़ता है। सड़क से लेकर ऊपर तक भक्तों की कतार नजर आती है। इन्हीं मेलों में विभिन्न प्रकार की दुकानें सजती हैं। मगर इन मेलों में सबसे स्पैशल चीज यहां मिलने वाला खट्टा है, जिसे स्थानीय भाषा में त्रुंज या दुडुंज कहते हैं। यहां वाहनों के नाम भी जयंती माता के नाम पर रखे गए हैं, जिनमें जयंती ट्रांसपोर्ट भी एक नाम है। मंदिर के ठीक नीचे एक नदी भी बहती है। कुल-मिलाकर यह आस्था का स्थान तो है ही, साथ में प्रकृति को करीब से निहारने का एक सुअवसर भी है।
हिमाचल देव भूमि है। यहां चप्पे-चप्पे पर आस्था का सैलाब है। यही कारण है कि हिमाचल का ख्याल जहन में आते ही सबसे पहले मानसिक पटल पर देवी-देवताओं की तस्वीर घूमने लगती है और अनायास ही श्रद्धा हिलोरे मारने लगती है। हालांकि बहुत सारे ऐसे देव स्थल हैं जिन्हें अभी पहचान नहीं मिल पाई है, मगर यहां आस्था और चमत्कार भरपूर हैं। जरूरत है तो बस इनको पहचान दिलवाने की। आइए आज एक ऐसे ही धर्मशाला में चाय के बागानों में स्थित धार्मिक स्थल कुनाल पत्थरी के बारे में जानते हैं। कुनाल पत्थर से हुआ नामकरण.......... हालांकि इस मंदिर का नाम कपालेश्वर भी है मगर यह मंदिर ज्यादातर कुनाल पत्थरी के नाम से ही विख्यात है। इसका कारण यह है कि मां के कपाल के ऊपर एक बड़ा सा पत्थर कुनाल की तरह विराजमान है। यही कारण है कि यह मंदिर कुनाल पत्थरी के नाम से विख्यात हो गया। सत्ती का गिरा था यहां कपाल............ यह मंदिर भी 51 शक्तिपीठों में से एक है। बताया जाता है कि पिता की ओर से शिव के अपमान से मां सत्ती इतनी कुपित हो गई कि राजा दक्ष के यज्ञ कुंड में कूद कर अपनी जान दे दी। तब क्रोधित शिव सत्ती की पावन देह को लेकर सारी सृष्टि में घूमे। इस पर भगवान विष्णू ने शिव का क्रोध शांत करने के लिए सत्ती के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इस प्रक्रिया के तहत जहां भी सत्ती के पावन शरीर के अंग गिरे वहीं शक्तिपीठ स्थापित हो गए। ऐसा माना जाता है कि यहां मां सत्ती का कपाल गिरा था और यहां मां के कपाल की पूजा होती है। मां के कपाल के ऊपर स्थित कुनाल सदैव पानी से भरा रहता है और यही भक्तों की आस्था का केंद्र भी है। कुनाल में भरे पानी को भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है और उनकी सुख-स्मृद्धि की कामना की जाती है। कुनाल पत्थरी नाम के पीछे भी एक कहानी है कि इस पत्थर का आकार आटा गूथने वाले बर्तन परात के जैसा है। परात को पहाड़ की कांगड़ी बोली में कुनाल कहा जाता है। इस कुन्ड़ ने नीचे देवी की पिन्ड़ी रुपी शिला है। इस कुन्ड़ में हर समय पानी भरा रहता है। इस पानी में कोई कीड़ा या जाला नहीं लगता है। इस मन्दिर में रात्रि विश्राम हेतू सराय और धर्मशाला भी बनायी गयी है। यह मन्दिर ज्वालामुखी, बज्रेश्वरी, चामुन्ड़ा, भागसूनाग, अघंजर महादेव (मैंने नहीं देखा), तपोवन आदि मन्दिरों की परिक्रमा में आता है। पयर्टन की दृष्टि से भी है विहंगम स्थल यहां आस्था ही नहीं बल्कि पर्यटन भी अपने चरम पर है। धर्मशाला से ठीक तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर चाय के बागानों अपनी मनोरम छटा लिए हुए है। यहां आकर हर कोई एक आनंद की दुनिया में खो जाता है। क्योंकि चारों हरियाली ही हरियाली दिखती है। चाय के बागान ऐसे लगते हैं जैसे मानों हरियाली और आस्था में एक वृहद तारतम्य हो। जहां भी नजर डालो एक विहंगम परिदृश्य नजर आता है। हर आगंतुक को यहां आकर मानसिक सुकून मिलता है। यही कारण है कि यहां विदेशी पर्यटक भी अकसर आते रहते हैं। वहीं मान्यता है कि यहां आने वाले हर भक्त की मनोकामनाएं पूरी होती हैं। नवरात्रों में लगती है भक्तों की भीड़ नवरात्र में इस मंदिर में भक्तों की भीड़ जुटती है और सारा वातावरण धार्मिक हो जाता है। हालांकि यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है, फिर इस मंदिर को इतनी पहचान नहीं मिल पाई है। इस मंदिर को धार्मिक पर्यटन के रूप में उभारा जाना चाहिए। इससे प्रदेश का भी गौरव बढ़ेगा वहीं ऐसा करने से दूर-दराज के पर्यटक भी आएंगे, जिससे प्रदेश की आर्थिकी को संबल मिलेगा। हिमाचल में अभी ऐसे कई धार्मिक स्थान हैं जिन को अभी पहचान की जरूरत है। फस्र्ट वर्डिक्ट का यही मकसद है कि ऐसे धार्मिक स्थानों को पहचान दिलवाई जाए जो भरपूर आस्था से लबालब हैं। जरूरत बस उन्हें उभारने की है। कैसे पहुंचे मंदिर यह धार्मिक मंदिर कांगड़ा से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, वहीं धर्मशाला से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए पठानकोट-जोगिंद्र रेलमार्ग का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।इसके कांगड़ा मंदिर रेलवे स्टेशन पर उतरना पड़ता है। वहां से किसी अन्य वाहन का सहारा लेना पड़ता है। इसके अतिरिक्त वायुमार्ग से भी पहुंचा जा सकता है, जिसके लिए गग्गल एयरपोर्ट पर उतरना पड़ेगा, जहां से किसी अन्य वाहन का सहारा लेना पड़ता है। इसी तरह इस मंंदिर में अन्य वाहनों के माध्यम से भी पहुंचा जा सकता है। दूर-दराज के लोग रात को धर्मशाला में ठहर सकते हैं, क्योंकि यहां रात्रि ठहराव के लिए होटलों की समुचित व्यवस्था है। वहीं यहां आने पर भक्त अन्य धार्मिक स्थलों और पर्यटन स्थलों का भी दीदार कर सकते हैं। चूंकि कांगड़ा एक धार्मिक स्थान है तो यहां अन्य मंदिर जैसे बज्रेश्वरी, चामुंडा, भागसूनाग, जयंती माता, कालका माता और अन्य धार्मिक स्थल भी हैं।
हिमाचल के चम्बा जिले को शिव भूमि के नाम से जाना जाता है। चम्बा के भरमौर में समुद्र तल से लगभग 13,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र मणिमहेश सरोवर देशभर के भक्तों के लिए आस्था का केंद्र है। मान्यता है कि देवी पार्वती से विवाह करने के बाद भगवान शिव ने मणिमहेश नाम के इस पर्वत की रचना की थी। बर्फ से ढके इस पहाड़ पर भोलेनाथ का वास होता था। वहीं बर्फ से ढकी चोटियों के बीच यह मनोरम झील बनी हुई है। यह भगवान शिव की महिमा ही है कि अष्टमी के दिन स्नान से पहले ही झील का पानी बढ़ने लग जाता है। ऐसा क्यों होता है, इसका पता लगाने में वैज्ञानिक भी नाकाम रहे हैं। अष्टमी के बाद इस झील का पानी फिर कम हो जाता है। झील में इतना पानी अचानक कहां से आ जाता है ये रहस्य बरकरार है। इसी झील में स्नान करने के बाद पवित्र मणि के दर्शन भी होते हैं। इसके बाद से ये पहाड़ रहस्यमयी बन गया। मणि महेश यात्रा पर जाने का मौका श्रद्धालुओं को जुलाई-अगस्त के दौरान ही मिल पाता है, क्योंकि तब यहां का मौसम कमोबेश ठीक रहता है। इन दिनों में यहां मेले का भी आयोजन किया जाता है जो जन्माष्टमी के दिन समाप्त होता है। 15 दिनों तक चलने वाले मेले के दौरान प्रशासन की ओर से सभी प्रकार के प्रबंध किये जाते हैं। जन्माष्टमी पर यहां लगने वाले मेले में हिमाचल सहित देश के कोने कोने से श्रद्धालु आते हैं। यह यात्रा चंबा के लक्ष्मी नारायण मंदिर से शुरू होती है। यहां से भोले की चांदी की छड़ी को लेकर यह यात्रा शुरू होती है और राख, खड़ामुख आदि क्षेत्रों से गुजरते हुए भरमौर पहुंचती है। भरमौर में छड़ी का पूजन किया जाता है और फिर यह हरसर और धांचू होते हुए राधा अष्टमी के दिन मणि महेश पहुंचती है। मणिमहेश झील के पास की हिमाच्छादित चोटियों से पिघलने वाला बर्फीले पानी मणिमहेश झील का मुख्य स्रोत हैं। जैसे ही जून के अंत तक बर्फ पिघलना शुरू होती है, यह कई छोटी धाराओं में टूट जाती है और मणिमहेश झील में आकर मिलती है। हरी-भरी पहाड़ियों और फूलों की एक साथ जलधाराएँ घाटी को सुंदर प्राकृतिक सौंदर्य प्रदान करती हैं जो किसी स्वर्ग से कम नही है। बर्फ से ढकी चोटियों का प्रतिबिंब मणिमहेश झील के पानी में साफ़ साफ देखा जाता है। इसलिए कहा जाता है मणिमहेश मान्यता है कि कैलाश पर्वत पर भगवान भोले नाथ शेषमणि के रूप में विराजमान है। भगवान शिव लोगों को दर्शन भी मणि के रूप में देते है, इसलिए इस धार्मिक स्थल का नाम मणिमहेश पड़ा। कहा जाता है कि सच्चे मन से भगवान भोले नाथ की भक्ति के साथ डल झील में पहुंचने वाले श्रद्वालुओं को ही यहां मणि के दर्शन होते हैं। भगवान शिव आज भी चौथे पहर में अपने भक्तों को मणि के रूप में दर्शन देते हैं। इस भक्तिमय लम्हें के इंतजार में कई शिवभक्त पूरी रात नहीं सोते और जैसे ही चौथे पहर में चांद की रोशनी से मणि चमकती है तो पूरी डल झील और आसपास का क्षेत्र भगवान भोले नाथ के जयकारों और उदघोष से गूंज उठता है। चमत्कारों और रहस्यों से भरे कैलाश पर्वत में दिखने वाले इस अदभुत नजारे के आगे डल झील पर मौजूद हर कोई शख्स नतमस्तक हो जाता है। झील में स्नान करने का अपना महत्व जो भक्त अमरनाथ नहीं जा पाते हैं वे मणिमहेश झील में पवित्र स्नान के लिए पहुंचते हैं। पहले मणिमहेश झील तक पहुंचना काफी जटिल था लेकिन अब भरमौर से गौरीकुंड तक हेलीकॉप्टर की व्यवस्था है। पैदल यात्रा के लिए हड़सर सड़क का अंतिम पड़ाव है। यहां से आगे संकरे रास्तों पर पैदल या घोड़े-खच्चरों की सवारी कर ही सफर तय होता है। हड़सर से मणिमहेश झील की दूरी करीब 13 किलोमीटर है। इसके अलावा पैदल यात्रा करने के इच्छुक भक्तों के लिए हड़सर, धनछो, सुंदरासी, गौरीकुंड और मणिमहेश झील के आसपास रहने के लिए पूर्ण व्यवस्था की जाती है। स्त्रियों के स्नान के लिए गौरीकुंड गौरीकुंड पहुंचने पर प्रथम कैलाश शिखर के दर्शन होते हैं। कहा जाता है कि गौरीकुंड माता पार्वती का स्नान स्थल है। महिलाएं यहां स्नान करती हैं। यहां से करीब दो किलोमीटर की सीधी चढ़ाई के बाद मणिमहेश झील तक पहुंचा जाता है। यहां का खूबसूरत दृश्य पैदल पहुंचने वालों की थकावट को क्षण भर में दूर कर देता है और सकरात्मक ऊर्जा का संचार होता है। माता चौरासी में दर्शन करना जरुरी चौरासी माता के दर्शन के बिना यात्रा अधूरी मानी जाती है। भरमौर का नाम पहले ब्रह्मïपुर हुआ करता था, इस दौरान माता भरमाणी का मंदिर भी चौरासी परिसर में ही था। किवदंतियों के अनुसार चौरासी परिसर में रात के समय पुरुषों के विश्राम पर प्रतिबंध था। उस दौरान चौरासी सिद्धों का एक दल पवित्र मणिमहेश यात्रा पर जा रहा था। यात्रा के दौरान अँधेरा ज्यादा होने के कारण उन्होंने रात में यहीं पर ही रुकने का निर्णय लिया। जैसे चौरासी सिद्धों ने चौरासी परिसर में रात के समय प्रवेश किया तो इससे माता भरमाणी क्रोधित हो उठीं। माता भरमाणी उन चौरासी सिद्धों को श्राप देने लगी तो भगवान शंकर प्रकट हुए। शंकर को देख माता भरमाणी का क्रोध शांत हो गया। माता भरमाणी ने भगवान शंकर से क्षमा मांगी। साथ ही चौरासी परिसर में रात के समय पुरुषों के आगमन निषेध होने की बात कही। माता भरमाणी वहां से विलुप्त होकर यहां से तीन किलोमीटर दूर साहर नामक स्थान पर प्रकट हुईं। जिसके बाद भगवान शंकर ने माता भरमाणी को वरदान दिया कि मणिमहेश यात्रा पर आने वाले श्रद्धालुओं की यात्रा तभी पूर्ण होगी जब श्रद्धालु सर्वप्रथम माता भरमाणी के दर्शन करेंगे। नील मणि के नाम से भी है विख्यात कैलाश पर्वत को टरकोइज माउंटेन यानि कि नीलमणि भी कहा जाता है।मणिमहेश में कैलाश पर्वत के पीछे से जब सूर्य उदय होता है, तो सारे आकाशमंडल में नीलिमा छा जाती है और सूर्य के प्रकाश की किरणें नीले रंग में निकलती है। अलबता इस दौरान यहां का पूरा वातावरण नीले रंग के प्रकाश में ओत-प्रोत हो जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि कैलाश पर्वत पर नीलमणि के गुण-धर्म मौजूद है, जिनसे टकराकर प्रकाश की किरणें नीली हो जाती है और खूबसूरती में चार चाँद लग जाता है। शिव स्तुति.... आशुतोष शशाँक शेखर, चन्द्र मौली चिदंबरा, कोटि कोटि प्रणाम शम्भू, कोटि नमन दिगम्बरा ॥ निर्विकार ओमकार अविनाशी, तुम्ही देवाधि देव , जगत सर्जक प्रलय करता, शिवम सत्यम सुंदरा ॥ निरंकार स्वरूप कालेश्वर, महा योगीश्वरा , दयानिधि दानिश्वर जय, जटाधार अभयंकरा ॥ शूल पानी त्रिशूल धारी, औगड़ी बाघम्बरी , जय महेश त्रिलोचनाय, विश्वनाथ विशम्भरा ॥ नाथ नागेश्वर हरो हर, पाप साप अभिशाप तम, महादेव महान भोले, सदा शिव शिव संकरा ॥ जगत पति अनुरकती भक्ति, सदैव तेरे चरण हो, क्षमा हो अपराध सब, जय जयति जगदीश्वरा ॥ जनम जीवन जगत का, संताप ताप मिटे सभी, ओम नमः शिवाय मन, जपता रहे पञ्चाक्षरा ॥ आशुतोष शशाँक शेखर, चन्द्र मौली चिदंबरा, कोटि कोटि प्रणाम शम्भू, कोटि नमन दिगम्बरा ॥ कोटि नमन दिगम्बरा.. कोटि नमन दिगम्बरा.. कोटि नमन दिगम्बरा..
हिमालय के वास्तविक सार को खोजने के लिए इन पहाड़ियों की गहराई तक पहुंचना बेहद ज़रूरी है। हिमाचल के दूरदराज इलाकों और बर्फ से ढकी चोटियों में भी कई रहस्य छुपे है। ऐसी ही एक जगह है स्पीति घाटी जो अपने ठंडे रेगिस्तान से इलाके और अलौकिक दृश्यों के साथ अविस्मरणीय अनुभव प्रदान करती है और इसी स्पीति घाटी में 10,000 फीट की ऊंचाई पर मौजूद है मजबूत ताबो मठ। यह मठ भारत के सबसे पुराने मठों में से एक है। यह भारत और हिमालय का सबसे पुराना मठ है जो अपनी स्थापना के बाद से लगातार काम कर रहा है। यह आकर्षक मठ ‘हिमालय के अजंता’ के रूप में प्रसिद्ध है। ऐसा इसलिए कहा जाता है कि इस मठ की दीवारों पर अजंता की गुफाओं की तरह आकर्षक भित्ति चित्र और प्राचीन चित्र बने हुए हैं। मिट्टी की मोटी दीवारों से बना ये मठ किले जैसा दिखता है। बौद्ध संस्कृति में सबसे ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण स्थलों में से एक होने के नाते, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इसके रखरखाव और संरक्षण की जिम्मेदारी संभाली है। यह मठ 6300 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है और बौद्ध समुदाय के लिए एक अनमोल खजाना है। ताबो घाटी के ठंडे रेगिस्तान में और मिट्टी की ईंटों की ऊंची दीवारों से ढंका यह समृद्ध विरासत स्थल बौद्ध भिक्षुओं द्वारा अत्यधिक पूजनीय है और तिब्बत में थोलिंग गोम्पा के बाद दूसरे स्थान पर आता है। इस गोंपा यानि मठ की स्थापना लोचावा रिंगचेन जंगपो ने 996 ई. में की थी। लोचावा रिंगचेन जंगपो एक प्रसिद्ध विद्वान थे। ताबो मठ परिसर में कुल 9 देवालय हैं, जिनमें से चुकलाखंड, सेरलाखंड एवं गोंखंड प्रमुख है। ये सभी मिट्टी से बने हैं और 1000 से अधिक वर्षों से इसी तरह खड़े हैं। मुख्य मंदिर में एक सभा कक्ष है जहां भिक्षु एक साथ प्रार्थना करते थे। मठ के भीतर सभी दीवारें बौद्ध कथाओं से रंगी हुई हैं। कहते है ताबो भित्ति चित्रों ने बौद्ध धर्म की विरासत को संरक्षित रखा हुआ है। चुकलाखंड (देवालय) की दीवारों पर बहुत ही सुंदर चित्र अंकित हैं। इसमें बुद्ध के संपूर्ण जीवन को चित्रों के माध्यम से बताने का प्रयास किया गया है। बुध के आलावा विभिन्न बोधिसत्वों के जीवन की कहानियां भी यहां मौजूद हैं। दिलचस्प बात यह है कि ताबो मठ के चित्र दो अलग-अलग चरणों को दिखाते है। 996 सीई का पहला चरण स्पष्ट स्थानीय और मध्य एशियाई प्रभाव दिखाता है; जबकि 11वीं सदी के दूसरे चरण में स्पष्ट कश्मीरी और पूर्वी भारतीय (पाल वंश) का प्रभाव दिखाई देता है। दीवारों पर बोधिसत्वों की 33 प्लास्टर मूर्तियां भी हैं। गोंपा में बहुत ही पुराने धर्म ग्रंथ (जो कि तिब्बती भाषा में लिखे हुए है) एवं बौद्ध धर्म से संबंधित बहुत पुरानी पांडुलिपि भी मौजूद है। ताबो गोंपा के चित्र अजंता गुफा के चित्रों से मेल खाते हैं इसलिए ताबो गोंपा को हिमालयन अजंता के नाम से भी जाना जाता है। पुराने मठ परिसर के बगल में, एक नया मठ और एक सभा हॉल है। अन्य मंदिर आमतौर पर बंद रहते हैं, लेकिन भिक्षु आपके अनुरोध पर उन्हें आपके लिए खोल सकते हैं। ये मंदिर तारा और बुद्ध मैत्रेय जैसे बौद्ध देवताओं के हैं। ताबो मठ में चित्रों की कोई फोटोग्राफी की अनुमति नहीं है, हालांकि आप परिसर के बाहर की तस्वीरें ले सकते हैं। इन सुंदर चित्रों के चित्र पोस्टकार्ड भिक्षुओं के पास बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि साल 1975 में आए एक भूकंप ने इस मठ की संरचना को काफी नुकसान पहुंचाया था, लेकिन इसकी इमारत की बेहतर गुणवत्ता ने इसे गिरने नहीं दिया। बाद में साल 1983 में, 14वें दलाई लामा ने इसे फिर बनाने का काम शुरू करवाया था। मठ के ठीक ऊपर पहाड़ी पर कुछ ध्यान गुफाएँ भी दिखाई देती हैं जो अभी भी भिक्षुओं द्वारा उपयोग की जाती हैं। इस गोंपा में लगभग 60 से 80 लामा प्रतिदिन बौद्ध धर्म का अध्ययन करते हैं। इनकी दैनिकचर्या बौद्ध धर्म के धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन एवं स्थानीय लोगों के अनुरोध पर उनके घरों में जाकर धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना एवं पूजा पाठ कराना है। मुख्य मंदिर के मध्य में वेरोकाना की मूर्ति है, जो मुख्य मंदिर को चारों दिशाओं से मुखारबिंद किए हुए है। साथ ही उनके चारों तरफ मंदिर की दीवार के मध्य में दुरयिंग की मूर्तियां हैं। इनमें महाबुद्ध अमिताभ, अक्षोभया, रत्नासंभा की मूर्तियां प्रमुख हैं। यह मोनेस्ट्री भारत में सबसे पुरानी कोब संरचना है। कोब यानि प्राकृतिक चीज़ों से बना एक तरह का मिट्टी का घर। बनाने में मुख्य रूप से कच्ची मिट्टी का उपयोग किया गया है। इतना ही नहीं, यहां के पारंपरिक घरों की फ्लैट छतों में भी मिट्टी ही इस्तेमाल की गई है। देवताओं ने एक रात में बनाए थे यहां चित्र- वर्ष 1983 एवं 1996 में 14वें दलाई लामा ने यहां कालचक्र समारोह का आयोजन किया। इस कालचक्र समारोह में दीक्षा एवं पुनर्जीवन जैसे विषयों पर चर्चा की गई। यहां हर चार वर्ष में एक बार चाहर मेला लगता है जो अक्तूबर माह में होता है। इस मठ के गर्भगृह में अलौकिक भित्ति चित्र देखने को मिलते हैं। इन्हें लेकर मान्यता है कि यह सभी चित्र देवताओं ने एक ही रात में बनाए थे। शायद यही वजह है कि यहां बने भित्ति चित्रों जैसी भाव-भंगिमाएं विश्वभर में कहीं और देखने को नहीं मिलती। मठ पर नहीं होता बर्फबारी का असर -आपको यह जानकर हैरानी होगी लेकिन यही सच है कि गोंपा परिसर के सभी मठों की दीवारें, छतें, सब कुछ मिट्टी से निर्मित है। इन्हें बने हुए हजारों वर्षों से अधिक का समय हो चुका है, लेकिन इसकी अनूठी वास्तुकला पर बारिश और बर्फबारी का कोई असर नहीं होता। इसे दैवीय शक्तियों का आशीर्वाद माना जाता है। बता दें कि 1975 के भूकंप के बाद मठ का पुनर्निर्माण किया गया है। ऐतिहासिक धरोहर के रूप में इस मठ का संरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को सौंपा गया है। इस मठ का नाम यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया है। दूर-दूर से लोग इस मठ को देखने आते हैं। ताबो मठ रोजाना सुबह 6:00 बजे से शाम 7:00 बजे तक खुला रहता है, जिसमें सप्ताहांत और सार्वजनिक अवकाश शामिल हैं। यहाँ पर सुबह की प्रार्थनाएं 6:00 बजे शुरू होती हैं जिसका अनुभव आपको एक बार जरुर लेना चाहिए। भिक्षुओं के लिए कक्षाएं सुबह 8:00 बजे से 9:00 बजे तक आयोजित होती हैं, जिनमें आप पूर्व अनुमति के बाद शामिल हो सकते हैं। सदियों से कोब की मजबूत दीवारों ने अपने भीतर की इस सुंदरता को संभालकर रखा है। हालांकि, आज इस मठ को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, वे पहले की तुलना में अधिक गंभीर हैं और इसका सबसे बड़ा कारण है जलवायु परिवर्तन। सिप्टी घाटी में होने वाली तेज बारिश से मठ की दीवारों पर बनी कलाकृतियां धुंधली होती जा रही हैं। यूएन वर्ल्ड कमीशन ने पर्यावरण और विकास को लेकर चिंता जताई है। उन्होंने भविष्य में ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग करके सस्टेनेबल कंस्ट्रक्शन पर जोर देने की वकालत की है। उनके अनुसार, पुरानी शैली से प्रेरणा लेकर हमें बिना प्रकृति को नुकसान पहुचाएं, मजबूत और अच्छी इमारतें बनाने पर ध्यान देना होगा।
सोलन-सिरमौर की सीमा पर स्थित बोन मेनरी मोनेस्ट्री विश्व की सबसे पुरानी बोन मठ में शामिल है। बॉन धर्म तिब्बत की प्राचीन और पारंपरिक धार्मिक प्रथा है। माना जाता है कि लगभग आठवीं शताब्दी में तिब्बत में बौद्ध धर्म भारत से गया। पर बॉन धर्म उससे पहले से ही तिब्बत में प्रचलित था। यानि बोन धर्म तिब्बत का अपना स्थानीय धर्म है। बौद्ध धर्म के तिब्बत में आने के बाद राजकीय समर्थन उस ओर मुड़ गया और बॉन धर्म के अनुचरों के साथ भेदभाव किया जाने लगा तो उन्होंने बौद्ध धर्म की कुछ मान्यताएं और कर्मकांड अपना लिया जिसके चलते यह बौद्ध धर्म का की एक सम्प्रदाय लगने लगा। जबकि वास्तव में दोनों धर्म अलग- अलग है। बोन मतावलंबियों के अनुसार उनका धर्म तोनपा शेनरब के द्वारा स्थापित किया गया था जो शाक्यमुनि गौतम से भी पहले के युग के बुद्ध थे। बोन धर्म के मूल विहार मेनरी मोनेस्ट्री की स्थापना भी सदियों पहले तिब्बत में हुई थी। फिर चीन के कब्जे के बाद कई बोन धर्मावलम्बी भारत आ गए और दोलांजी का मौजूदा विहार मूल मेनरी विहार के नाम पर फिर से बनाया गया। यहाँ मौजूद युंगडुंग बोन पुस्तकालय भी दुनियाभर में बॉन साहित्य का सबसे बड़ा संग्रह है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार बॉन धर्म के तत्व सिर्फ़ तिब्बत तक ही सीमित नहीं थे बल्कि उनका ऐतिहासिक प्रभाव तिब्बत से दूर कई मध्य एशिया के क्षेत्रों तक भी मिलता था। इतिहासकार बॉन धर्म को तिब्बती साम्राज्य से पहले आने वाले झ़ंगझ़ुंग राज्य से भी संबंधित मानते हैं। जबकि कई विद्वानों का मानना है कि बॉन धर्म और हिन्दू धर्म के भगवान शिव में बहुत-सी तीर्थ व अन्य समानताएं हैं। मसलन मानसरोवर और कैलाश पर्वत दोनों ही धर्मों में पवित्र माने जाते थे और हिंदुओं के लिए भगवान शिवजी के कारण विशेष महत्व रखते हैं। इसी तरह बहुत-सी तिब्बत में उत्पन्न होने वाली नदियां भी हिंदुओं और बोन धर्मियों के लिए धार्मिक आस्था की बिंदु हैं। इसलिए करते है जीभ दिखाकर अभिवादन : 18वीं शताब्दी में तिब्बत पर द्जुन्गर कबीलों का कब्ज़ा हो गया। द्जुन्गरों ने स्थानीय धार्मिक परम्पराओं का दमन शुरू किया और लामाओं (मॉन्क्स) और बोन धर्मावलम्बियों को पकड़ के जेलों में ठूंस दिया। उनका मानना था कि लगातार मंत्र पढ़ने से जीभ का रंग काला पड़ जाता है इसलिए द्जुन्गर अधिकारियों से मिलने आए हर व्यक्ति को अपनी जीभ दिखानी पड़ती थी, ताकि पहचान हो सके की वह लामा है या नहीं। कालांतर में लोगों के बीच यही अभिवादन का तरीका बन गया। आज भी तिब्बत में लोग एक दूसरे का अभिवादन जीभ दिखाकर ही करते हैं। शिक्षा के बाद मिलती है गेशे की उपाधि : दोलांजी स्थित मेनरी विहार बोन धर्म के अध्ययन का महत्वपूर्ण केंद्र है जहाँ शिक्षा के साथ भिक्षुओं के रहने और खाने का भी इंतजाम होता है। न्यूनतम 12 और अधिकतम 16 वर्ष तक भिक्षुओं को धर्म, दर्शन, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष आदि की शिक्षा दी जाती है। प्रवीणता प्राप्त करने पर भिक्षुओं को ‘गेशे’ की उपाधि मिलती है जो पीएचडी के समकक्ष मानी जाती है। मौजूदा समय में विहार में 200 से ज्यादा भिक्षु हैं जिनमें मंगोलिया, म्यांमार, तिब्बत, नेपाल के भिक्षु भी शामिल हैं।
केदारनाथ धाम को 12 ज्योतिर्लिंगों में विशेष माना गया है। केदारनाथ धाम का इतिहास काफी पुराना है। माना जाता है कि इस ज्योतिर्लिंग का निर्माण पांडवों ने महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद कराया था। केदारनाथ धाम का वर्णन पुराणों में भी मिलता है। पुराणों के अनुसार केदारनाथ धाम को महिष यानि भैंसे का पिछला भाग है. मान्यता है कि सच्चे मन जो भी केदारनाथ का स्मरण करता है उसकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। केदारनाथ धाम को भगवान शिव का आवास बताया गया है। केदारनाथ धाम का जिक्र 'स्कंद पुराण' में भी आता है। इसमें बताया गया है कि एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से प्रश्न किया। जिसके उत्तर में भोलेनाथ ने बताया कि यह क्षेत्र उतना ही प्राचीन है, जितना कि मैं हूं। भगवान शिव जी विस्तार से बताते हैं कि इस स्थान पर सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा के रूप में परब्रह्मत्व को प्राप्त किया था, तभी से यह स्थान उनके लिए आवास के समान है। ऋषि ने की थी कठोर तपस्या पुराण कथा के अनुसार हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित है। पांडव भ्रातृहत्या के पाप से होना चाहते थे मुक्त महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। इसलिए भगवान शंकर अंतर्ध्यान होकर केदार में जा बसे। पांडव उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक भैंसे का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। अत: भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल और भैंसे तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी भैंसे पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस भैंस पर झपटे, लेकिन भैंस भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देखकर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर भैंस की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। भव्य है केदारनाथ मंदिर केदारनाथ मंदिर 6 फीट ऊंचे चौकोर चबूतरे पर बनाया गया है। इसके बाहरी प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। इसकी दीवारें करीब 12 फुट मोटी हैं और यह मजबूत पत्थरों से बनाया गया है। यह बात आश्चर्य में डाल देती है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर किस तरह मंदिर का निर्माण किया गया होगा। बाबा केदार का ये धाम कात्युहरी शैली में बना है। वहीं इस मंदिर की छत लकड़ी की बनी हुई है और इसके शिखर पर सोने का कलश रखा हुआ है। वहीं इस मंदिर को तीन भागों में बांटा गया है। केदारनाथ धाम को लेकर कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं। माना जाता है कि इसी स्थान पर पांडवों ने भी भगवान शिव के एक मंदिर का निर्माण करवाया था। कहा जाता है कि इसके बाद इस मंदिर का निर्माण आदि गुरु शंकराचार्य ने दसवीं ईसवी में करवाया। 6 माह तक जलता है दीपक दीपावली महापर्व के दूसरे दिन शीत ऋतु में मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं। 6 माह तक दीपक जलता रहता है। पुरोहित ससम्मान पट बंद कर भगवान के विग्रह एवं दंडी को 6 माह तक पहाड़ के नीचे ऊखीमठ में ले जाते हैं। 6 माह बाद मई माह में केदारनाथ के कपाट खुलते हैं। 6 माह मंदिर और उसके आसपास कोई नहीं रहता है, लेकिन आश्चर्य है की 6 माह तक दीपक निरंतर जलता रहता है।
यहाँ लोग निष्ठाभाव से श्री गुरु नानक देव की शरण में आते हैं और कभी भी खाली पेट नहीं लौटते। अमृतसर स्थित श्री हरमंदिर साहिब जो स्वर्ण मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, न सिर्फ करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र है बल्कि ये वो पवित्र स्थान है जहाँ दुनिया का सबसे बड़ा लंगर होता है। गुरु के लंगर में रोज लाखों लोग लंगर चखते हैं और ये दुनिया का सबसे बड़ा किचन भी है। गुरु के लंगर में बनाया जाने वाला भोजन पूरी तरह से शाकाहारी होता है। इस लंगर में आमतौर पर रोटियां, दाल, सब्जी और मीठा होता है। श्रद्धालुओं की संख्या को ध्यान में रखते हुए इस लंगर में लगभग 2 लाख रोटियां आधुनिक मशीनों से तैयार की जाती हैं। इसे दुनिया की सबसे बड़ी रसोई माना जाता है, जहां एक घंटे में लगभग 25 हजार रोटियां तैयार की जाती हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि यहां परोसे जाने वाली सभी भोजन सामग्रियां भक्तों द्वारा भेंट की होती हैं। लंगर की परंपरा श्री गुरु नानक देव जी ने शुरु की थी और श्री गुरु अमरदास जी ने इसे आगे बढ़ाया। कहते हैं मुगल बादशाह अकबर ने भी गुरु के लंगर में आम लोगों के साथ बैठकर प्रसाद खाया था। कहा जाता है यहां रोज लगभग 12000 किलो आटा, 13000 किलो दाल, 1500 किलो चावल और 2000 किलो सब्जियों का इस्तेमाल होता है। रोजाना लगभग दो लाख रोटियां बनाई जाती हैं। जबकि खीर बनाने के लिए 5000 लीटर दूध, 1000 किलो चीनी और 500 किलो घी का इस्तेमाल होता है। इस लंगर को तैयार करने में रोज 100 से ज्यादा एलपीजी सिलेंडर और 5000 किलो लकड़ी का इस्तेमाल होता है। खाना बनाने के लिए करीब 500 स्टाफ के अलावा सैकड़ों आम लोग वालंटियर्स के तौर पर काम करते हैं। यहां दो किचन हैं, जहां 24 घंटे काम होता है। लोगों को लंगर में खाना खिलाने के लिए वालंटियर्स हर रोज तीन लाख बर्तन धोते हैं। लाखों लोग यहां सेवा भाव से जाते है। देश के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी गोल्डन टेंपल में माथा टेकने के साथ ही आम जनों को खाना खिलाया था। ऐसा करने वाले वो देश के पहले प्रधानमंत्री भी हैं। सद्भावना का अद्धभुत उदाहरण : अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर न केवल सिखों का एक केंद्रीय धार्मिक स्थान है, बल्कि सभी धर्मों की समानता का प्रतीक भी है। हर कोई, चाहे वह किसी भी जाति, पंथ या नस्ल का क्यों न हो, बिना किसी रोक टोक के अपनी आध्यात्मिक शांति के लिए इस स्थान पर जा सकता है। लंगर हॉल में सभी लोग पंगतों में बैठते हैं। इनमें धर्म, जाति, लिंग और उम्र का कोई भेद नहीं होता है। जो बोले, सो निहाल... के साथ खाने की शुरुआत होती है लेकिन ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि सभी को ये बोलना होगा। यहां दाल-सब्जी तो थाली में परोसी जाती है लेकिन रोटियां थाली में नहीं दी जाती, दोनों हाथ पसार कर रोटियां लेनी होती हैं। ये माना जाता है कि रोटी ईश्वर की नेमत है और इसे इसी भाव के साथ लेना चाहिए। सेवा भाव ही सर्वोपरि : लंगर का सारा कामकाज सेवा भावना और मन से किया जाता है, इसलिए यहां सब-कुछ अच्छा होता है। यहां इस्तेमाल होने वाली सभी वस्तुओं की क्वालिटी की परख की जाती है। भोजन में क्या-क्या पकेगा, यह पहले से ही तय होता है। इतनी बड़ी रसोई से रोजाना खाना बनाने के लिए श्रद्धालु सेवा भी करते हैं। इसके अलावा कमाई का दसवां भाग गुरुद्वारों की सेवा में अर्पित करते हैं। इसकी वजह से गोल्डन टेंपल में 24 घंटे लंगर चलता है। क्या होता है लंगर? लंगर में विभिन्न जातियों के लोग, छोटे-बड़े सब एक ही स्थान पर बैठकर भोजन करते हैं। पूरी दुनिया में जहां भी सिख बसे हुए हैं, उन्होंने इस लंगर प्रथा को कायम रखा है। सिख समुदाय में खुशी के मौकों के अलावा त्योहार, गुरु पर्व, मेले व शुभ अवसरों पर लंगर आयोजित किया जाता है। इसके अलावा गुरुद्वारों मेंं भी नियमित लंगर होता है। श्री गुरु राम दास जी ने रखी थी नींव : स्वर्ण मंदिर यानी श्री हरमंदिर साहिब की नींव श्री गुरु राम दास जी ने 1577 ई. में रखी थी और 15 दिसंबर, 1588 को श्री गुरु अर्जन देव जी जो पांचवें सिख गुरु थे। उन्होंने श्री हरमंदिर साहिब का निर्माण भी शुरू कर दिया था। पहली बार 16 अगस्त, 1604 ई. को श्री हरमंदिर साहिब स्थापित किया गया था। स्वर्ण मंदिर जो श्री हरमंदिर साहिब के नाम से जाना जाता है, पंजाब के समृद्ध इतिहास में एक अभिन्न भूमिका निभाता है। वास्तव में यह धार्मिक विरासत न सिर्फ सिखों के लिए बल्कि सभी धर्मों के लोगों के लिए सबसे पवित्र तीर्थ स्थल के रूप में सामने आता है। पवित्र सरोवर से घिरा हुआ है स्वर्ण मंदिर : स्वर्ण मंदिर के आस-पास के कुंड को अमृत सरोवर के नाम से जाना जाता है जिसे भक्तों द्वारा बहुत पवित्र माना जाता है। पूजा करने से पहले सभी श्रद्धालु सरोवर के पवित्र जल में स्नान करते हैं। लोगों का मानना है कि पवित्र कुंड के पवित्र जल में डुबकी लगाने से आध्यात्मिक संपत्ति प्राप्त की जा सकती है। पहले कुछ धर्म गुरुओं का मानना था कि अमृत सरोवर में डुबकी लगाने से सभी बीमारियां दूर हो जाती हैं। 500 किलोग्राम से भी अधिक सोने का इस्तेमाल : स्वर्ण मंदिर में इस्तेमाल किए गए सोने की बात की जाए तो इसमें 500 किलोग्राम से भी अधिक सोने का इस्तेमाल किया गया है। इसके सोने के सभी कोट देश के विभिन्न हिस्सों के कुशल कलाकारों द्वारा बनाए गए थे। महाराजा रणजीत सिंह ने स्वर्ण मंदिर पर परत चढ़ाने में केवल 7 से 9 परतों का ही इस्तेमाल किया था। लेकिन धीरे-धीरे नवीनीकरण के दौरान मंदिर में 24 परतें चढ़ाई गई।
सोलन शहर से लगभग पांच किलोमीटर स्थित जटोली में ना केवल हिमाचल और भारत बल्कि एशिया का सबसे ऊँचा शिव मंदिर है। कोरोना काल के दो साल बाद इस साल जटोली शिव मंदिर में धूमधाम से शिवरात्रि हर वर्ष के भांति मनाई जाएगी। एक मार्च को हर साल के भांति रात्रि भजन संध्या होगी तथा अगले दिन बुधवार को विशाल भंडारा आयोजित किया जायेगा। भंडारा सुबह 9 बजे से शुरू होकर रात्रि तक चलता है। जटोली शिव मंदिर में इस बार शिवरात्रि पर्व पर हिमाचल पुलिस विभाग के महानिदेशक संजय कुंडू मुख्य तिथि के तौर पर उपस्थित होंगे। जानकारी देते हुए मंदिर के सचिव डॉ उपेंद्र कॉल ने कहा कि दो साल के बाद अब त्योहारों को मानाने की अनुमति सरकार ने दी है। मंदिर कमेटी ने हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी हिमाचल के बेह्तरीन भजन मण्डली को शिवरात्रि पर्व पर मंदिर बुलाया गया है। उन्होंने बताया की पहले दिन जागरण व् दूसरे दिन शिव भक्तों के लिए विशाल भंडारे का आयोजन किया जाएगा जो सुबह से रात्रि तक चलता रहेगा। इस दौरान उन्होंने सोलन तथा सोलन के आस -पास की जनता को भगवान शिव के मंदिर में लोगो को हाज़री लगाने के लिए आमंत्रित किया।
धर्मशाला से करीब 20 किलोमीटर दूर और धौलीधार की तलहटी में बसे खनियारा गांव में स्थित महादेव मंदिर में भक्तों की अटूट आस्था है। अघंजर महादेव के नाम से मशहूर इस प्राचीन मंदिर में शिव भक्तों की टोलियां निरंतर पहुंचती हैं। इस स्थान पर 500 वर्षों से बाबा श्री गंगा भारती जी महाराज का अखंड धूणा जल रहा है। माना जाता है कि इस स्थान पर ही बाबा ने तपस्या की थी। यूँ तो इस मंदिर में साल भर श्रद्धालु आते रहते हैं, लेकिन विशेषकर सावन माह और शिवरात्रि पर्व पर यहाँ अधिक भीड़ देखने को मिलती है। माना जाता है कि मंदिर की स्थापना महाभारतकालीन है। दंत कथाओं के मुताबिक खनियारा गांव में महाभारत के बराह पर्व में अर्जुन ने भगवान शिव से जहां पशुपति अस्त्र प्राप्त किया था। इस स्थान पर ही पांडु पुत्र अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने भोले की उपासना करने को कहा। अर्जुन ने इसी स्थान पर बैठकर घोर तप करके भोलेनाथ को प्रसन्न किया और उनसे दिव्य शक्तियां प्राप्त कीं। कहा जाता है कि भोले नाथ कैलाश पर्वत के लिए इसी रास्ते से होकर जाया करते थे और अर्जुन की तपस्या से खुश होकर भोले नाथ ने उन्हें विजयश्री का आशीर्वाद दिया और दिव्य शक्तियां प्रदान करके अर्जुन को शक्तिशाली बना दिया। चट्टान के नीचे मौजूद है प्राचीन शिवलिंग : मंदिर की बगल में बहने वाली मांझी खड्ड के पास एक चट्टान के नीचे प्राचीन शिवलिंग भी मौजूद है, जिसे गुप्तेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। यहां पर मेला लगता है और श्रद्धालु दूरदराज क्षेत्रों से यहां पर पूजा-अर्चना व जलाभिषेक करने आते हैं। धौलाधार की पहाड़ियों से घिरा यह मंदिर दूर से मनमोहक प्रतीत होता है। मंदिर परिसर में देवी दुर्गा व हनुमान की मूर्तियां और शिवलिंग स्थापित किए गए हैं, जहां पर आकर लोग पूजा-अर्चना करते हैं। मंदिर परिसर में श्रद्धालुओं व साधु-संतों के लिए लंगर व ठहरने की भी व्यवस्था है। इसके लिए एक सराय का निर्माण भी मंदिर के पास करवाया गया है। पांडवों ने की थी स्थापना : बराह पर्व के दौरान अज्ञातवास के वक्त अर्जुन ने तत्कालीन जंगल और आज के खनियारा गांव में पशुपति अस्त्र प्राप्त करने के लिए गुप्तेश्वर महादेव की स्थापना की थी। तदोपरान्त अर्जुन ने राज पाट भोगने के बाद वन पर्व के समय हिमालय पर्वत की यात्रा करते हुए इसी स्थान पर दोबारा गुप्तेश्वर महादेव के दर्शन किए और तब इसी स्थान पर पांडवों ने दोबारा भगवान महादेव का अघंजर नाम से मंदिर तैयार किया। मंदिर के पुजारियों के मुताबिक अघंजर महादेव का मतलब है पाप को नष्ट करने वाला, आघन का अर्थ है पाप और अंजर का अर्थ होता है नष्ट हो जाना। पांडवों ने महाभारत के युद्ध में अपने गुरुओं, भाइयों और पूर्वजों का संहार किया था और पांडव इसी पाप से मुक्त होना चाहते थे। इस स्थान पर उस वक्त अर्जुन के कहने पर महादेव के एक और मंदिर की स्थापना की गई इसे अघंजर महादेव का नाम दिया। इस वजह से इस मंदिर का निर्माण हुआ था। इस मंदिर के साथ यहां के एक गुफा में गुप्तेश्वर महादेव के भी दर्शन होते हैं, जिसका वर्णन 300 वर्ष पुराने शिलालेखों में मिलता है। बाबा गंगा भारती जी का इतिहास : प्राचीन ऐतिहासिक अघंजर महादेव का इतिहास बाबा गंगा भारती जी, महाराजा रणजीत सिंह और पांडु पुत्र धनुर्धर अर्जुन से जुड़ा है। इस मंदिर के संदर्भ में विभिन्न दंत कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह उदर रोग से ग्रस्त थे। एक दिन जब महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी पीड़ा बाबा गंगा भारती जी को बताई और उन्होंने उनका इलाज किया, जिससे महाराजा पूरी तरह से ठीक हो गए। कहा जाता है कि बाबा ने यहां पर पानी की तीन चूलियां पिलाकर महाराजा का उदर रोग ठीक किया था। इससे खुश होकर महाराजा रणजीत सिंह ने बाबा जी को अपना दुशाला भेंट किया। बाबा गंगा भारती ने इस दुशाले को अपने हवन कुंड में डाल दिया। इस पर महाराजा रणजीत सिंह हैरान हुए और थोड़ी ही देर बाद बाबा ने सैकड़ों दुशाले उस धूणे से एक जैसे निकाल दिए और कहा कि इनमें पहचान कर अपना दुशाला उठा लो। बाबा का यह चमत्कार देखकर महाराजा रणजीत सिंह अचंभित रह गए और बाबा जी की शरण में गिर गए। इसके बाद महाराजा रणजीत सिंह ने कुछ भूमि बाबा जी को मंदिर बनवाने के लिए दे दी। यह भी कहा जाता है कि इसी स्थान पर बाबा गंगा भारती जी ने जीवित समाधि ली थी। मंदिर परिसर में ही बाबा जी का समाधि स्थल भी मौजूद है।
मेष मेष राशि के जातकों को इस सप्ताह आलस्य और लापरवाही से बचना होगा। लापरवाही से बनी हुई बात बिगड़ सकती है और आर्थिक नुकसान भी झेलना पड़ सकता है। कार्यक्षेत्र में विरोधियों से सावधान रहें। लोगों से न उलझें और छोटी-मोटी बातों को इग्नोर करें। दांपत्य जीवन में मधुरता बनी रहेगी और जीवनसाथी का पूरा साथ मिलेगा। मौसमी बीमारियों को लेकर बेहद सतर्क रहें । वृष वृष राशि के जातकों के लिए किस्मत इस सप्ताह दरवाजे खटखटा रही है। आय के नये स्रोत बनेंगे और आशा के अनुकूल प्रगति होगी। नौकरीपेशा लोगों के लिए समय अनुकूल है। राजनीति से जुड़े लोगों को बहुप्रतीक्षित पद मिल सकता है। सेहत की दृष्टि से भी समय अनुकूल है। प्रेम संबंधों में प्रगाढ़ता आयेगी। दांपत्य जीवन में मधुरता बनी रहेगी। घर में किसी मांगलिक कार्यक्रम के चलते खुशियों का माहौल बना रहेगा। मिथुन मिथुन राशि के जातक यदि अपने कार्य की योजना बनाकर समय पर पूरा करते हैं तभी आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो पाएगी। घर हो या फिर कार्यक्षेत्र छोटी-मोटी बातों को तूल न दें। सप्ताह के उत्तरार्ध में वाहन चलाते समय सावधानी बरतें। प्रेम संबंधों में किसी बात को लेकर अनबन हो सकती है। जीवनसाथी की सेहत को लेकर मन चिंतित रहेगा। कर्क कर्क राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह अत्यंत शुभ साबित होने जा रहा है। बेरोजगार लोगों को रोजगार के नए अवसर मिल सकते हैं। कारोबार में अप्रत्याशित लाभ हो सकता है। बाजार में अटका धन भी निकल सकता है। कामकाजी महिलाओं के लिए समय अनुकूल है। जीवनसाथी के साथ प्रेम और सामंजस्य बना रहेगा। सिंह सिंह राशि के जातक जरूरी काम करते समय बहुत सावधानीपूर्वक कार्य करें, अन्यथा आर्थिक नुकसान के साथ-साथ शारीरिक कष्ट भी हो सकता है। यदि कामकाज के सिलसिले में यात्रा पर निकलना पड़े तो अपने सामान और सेहत का विशेष ख्याल रखें। प्रेम संबंधों में लव पार्टनर की भावनाओं की अनदेखी न करें। दांपत्य जीवन में खट्टी-मीठी नोक-झोंक के साथ जीवनसाथी का भरपूर साथ मिलता रहेगा। सप्ताह के उत्तरार्ध में किसी धार्मिक स्थान की यात्रा संभव है। कन्या कन्या राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह अत्यधिक व्यस्तता वाला रह सकता है। सप्ताह के मध्य में लंबी या छोटी दूरी की यात्रा पर निकलना पड़ सकता है। राजनीति से जुड़े लोगों के लिए समय थोड़ा चुनौतीपूर्ण है। सप्ताह के उत्तरार्ध में घर की मरम्मत और सुख-सुविधाओं से जुड़ी चीजों को खरीदने पर जेब से अधिक खर्च हो सकता है। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण बढ़ेगा। प्रेम संबंध में मधुरता बनी रहेगी। तुला तुला राशि के जातकों के लिए सप्ताह की शुरुआत में किसी प्रिय चीज का नुकसान होने के कारण मन थोड़ा खिन्न रहेगा। समय पर मित्रों के सहयोग न मिल पाने और किसी बात को लेकर स्वजनों का विरोध भी आपकी चिंता का बड़ा कारण बनेगा। छात्रों का मन पढ़ाई से उचट सकता है। सट्टे और शेयर के चक्कर में न पड़ें। सप्ताह के अंत तक भूमि-भवन को लेकर कोई बड़ा सौदा हो सकता है। प्रेम संबंध सामान्य बने रहेंगे। जीवनसाथी का सहयोग बना रहेगा। सेहत को लेकर सावधान रहें। वृश्चिक वृश्चिक राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह कभी खुशी कभी गम वाला साबित होगा। यह समय आपको आर्थिक दृष्टि से योजना बनाकर चलने का है। शेयर बाजार आदि में पैसा लगाने से भी बचें, अन्यथा नुकसान झेलना पड़ सकता है। किसी बड़े मामले को कोर्ट-कचहरी से बाहर सुलझा लेने में ही फायदा रहेगा। प्रेम संबंधों के प्रति ईमानदार रहें । सेहत सामान्य बनी रहेगी। धनु यह सप्ताह धनु राशि के लिए काफी शुभ हो सकता है। नौकरीपेशा लोगों को कार्यक्षेत्र में सीनियर और जूनियर दोनों का सहयोग मिलेगा। आय के नये स्रोत बनेंगे। परीक्षा-प्रतियोगिता की तैयारी में जुटे लोगों को इस सप्ताह कोई अच्छी खबर सुनने को मिल सकती है। इस दौरान कारोबारियों को छोटे निवेश से बड़ा लाभ मिल सकता है। कामकाजी महिलाओं के लिए समय अनुकूल है। जीवनसाथी का भरपूर सहयोग प्राप्त होगा। मकर मकर राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह मिला-जुला साबित होने जा रहा है। कोई पुराना रोग फिर से उभर सकता है। संतान पक्ष को लेकर कोई बड़ी चिंता सताती रहेगी। पैसों की आवक के साथ खर्चों की भी अधिकता बनी रहेगी। यदि किसी भूमि या भवन को खरीदने की योजना बना रहे हैं तो उसके लिए धन उधार लेने की नौबत आ सकती है। जीवनसाथी के साथ सामंजस्य बना रहेगा। कुंभ कुंभ राशि के जातकों के लिए सप्ताह की शुरुआत में ही किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की मदद से भूमि-भवन से जुड़े विवाद का हल निकल आने से मन को बड़ी राहत मिलेगी। सत्ता पक्ष से लाभ के पूरे योग हैं। यदि किसी सरकारी योजना या कार्यालय में पैसा अटका है तो थोड़ा प्रयास करने पर निकल सकता है। प्रेम संबंधों में प्रगाढ़ता आयेगी। वैवाहिक सुखों में वृद्धि होगी। सेहत संबंधी समस्याओं की अनदेखी करने की भूल बिल्कुल न करें। मीन कार्यक्षेत्र में किसी दूसरे के काम का जिम्मा आपके सिर पर आ सकता है। कार्यों में मिलने वाली सफलता से आपके मनोबल में वृद्धि होगी। सप्ताह के उत्तरार्ध में घर-परिवार के किसी धार्मिक आयोजन में शामिल होने का मौका मिलेगा। भाइयों और बहनों आदि के साथ सामंजस्य बना रहेगा। प्रेम संबंधों में आ रही बाधाएं दूर होंगी। मौसमी बीमारियों को लेकर सचेत रहें।
उत्तराखंड का त्रियुगीनारायण मंदिर वह पवित्र और विशेष पौराणिक मंदिर है जहां साक्षात भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। मंदिर में एक अखंड धुनी है। इस धुनि के संबंध में कहा जाता है कि ये वही अग्नि है, जिसके फेरे शिव-पार्वती ने लिए थे। आज भी उनके फेरों की अग्नि धुनि के रूप में जागृत है। यह स्थान रुद्रप्रयाग जिले का एक भाग है। मान्यता है कि प्राचीन समय उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग के पास स्थित त्रियुगी नारायण मंदिर में भगवान विष्णु ने ही शिव-पार्वती का विवाह करवाया था। यहां स्थित अखंड धुनी के संबंध में मान्यता है कि ये तीन युगों से अखंड जल रही है। इसी वजह से इसे त्रियुगी मंदिर कहते हैं। ये मुख्य रूप से नारायण यानी भगवान विष्णु और लक्ष्मी का मंदिर है, लेकिन यहां शिव-पार्वती का विवाह हुआ था, इस कारण मंदिर में शिवजी और विष्णु जी के भक्त दर्शन के लिए पहुंचते हैं। कहा जाता है कि पार्वती जी ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए त्रियुगी नारायण मंदिर के पास तपस्या की थी। माता पार्वती ने जिस स्थान पर तपस्या की थी उसे गौरी कुंड कहा जाता है। कहा जाता है कि केदारनाथ की यात्रा से पहले यहां पर आना चाहिए। ऐसा करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। शिव-पार्वती के विवाह की संक्षिप्त कथा : त्रेता युग में देवी सती ने अपने पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ कुंड में कूदकर प्राण त्याग दिए थे। इसके बाद देवी ने पार्वती के रूप में जन्म लिया था। पार्वती ने कठोर तप करके भगवान शिव को प्रसन्न किया और विवाह करने का वरदान मांगा। तब भगवान विष्णु ने पार्वती और शिवजी का विवाह इसी जगह करवाया था। इस मंदिर का स्वरूप केदारनाथ धाम के मंदिर जैसा है। भगवान शिव को विवाह में उपहार स्वरूप एक गाय मिली थी। यहां मौजूद एक स्तंभ के बारे में मान्यता है कि यह वही स्तंभ है, जिससे उस गाय को बांधा गया था। शिव के बारे में कहा जाता है कि वे इतने भोले हैं उन्हें दूल्हे के तौर पर कैसे सजना है, क्या करना है, इसका भी पता नहीं था। ऐसी बारात न कभी पहले निकली थी और अब न कभी निकलेगी। एक मौका तो ऐसा भी आया जब शिव को देख माता पार्वती की मां ने अपनी बेटी का हाथ उन्हें देने से मना कर दिया था। ब्रह्माजी ने निभाई थी पुरोहित की भूमिका : शिव पार्वती के विवाह में ब्रह्माजी ने पुरोहित की भूमिका निभाई थी। विवाह में शामिल होने पहले ब्रह्माजी ने एक कुंड में स्नान किया था, जिसे ब्रह्मकुंड कहा जाता है। यहां भगवान विष्णु ने पार्वती के भाई की भूमिका निभाई थी। उस समय सभी संत-मुनियों ने इस समारोह में भाग लिया था। यहां विवाह में आए अन्य देवी-देवताओं ने स्नान किया था। विवाह से पहले सभी देवताओं ने यहां स्नान भी किया और इसलिए यहां तीन कुंड बने हैं जिन्हें रुद्र कुंड, विष्णु कुंड और ब्रह्मा कुंड कहते हैं। इन तीनों कुंड में जल सरस्वती कुंड से आता है। सरस्वती कुंड का निर्माण विष्णु की नासिका से हुआ था और इसलिए ऐसी मान्यता है कि इन कुंड में स्नान से संतानहीनता से मुक्ति मिल जाती है। जो भी श्रद्धालु इस पवित्र स्थान की यात्रा करते हैं वे यहां प्रज्वलित अखंड ज्योति की भभूत अपने साथ ले जाते हैं ताकि उनका वैवाहिक जीवन शिव और पार्वती के आशीष से हमेशा मंगलमय बना रहे। विवाह स्थल के नियत स्थान को ब्रह्म शिला कहा जाता है जो कि मंदिर के ठीक सामने स्थित है। इस मंदिर के महात्म्य का वर्णन स्थल पुराण में भी मिलता है। मंदिर आने वाले भक्त यहां भेंट में लकड़ियां अर्पित करते हैं। इस स्थान पर विष्णु भगवान ने लिया था वामन अवतार : वेदों में उल्लेख है कि यह त्रियुगीनारायण मंदिर त्रेता युग से स्थापित है। जबकि केदारनाथ व बद्रीनाथ द्वापरयुग में स्थापित हुए। यह भी मान्यता है कि इस स्थान पर विष्णु भगवान ने वामन देवता का अवतार लिया था। पौराणिक कथा के अनुसार इंद्रासन पाने के लिए राजा बलि को सौ यज्ञ करने थे, इनमें से बलि 99 यज्ञ पूरे कर चुके थे तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर रोक दिया जिससे कि बलि का यज्ञ भंग हो गया। यहां विष्णु भगवान वामन देवता के रूप में पूजे जाते हैं। यहां शादी करने वालों की संवर जाती है जिंदगी : त्रियुगीनारायण मंदिर अब खास वेडिंग डेस्टिनेशन बनता जा रहा है। काफी लोग यहां विवाह करने के लिए पहुंचते हैं। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां शादी करने वाले जोड़े की जिंदगी संवर जाती है। इसी मंदिर में भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। आज भी उनकी शादी की निशानियां यहां मौजूद हैं। इस मंदिर की मान्यता को देखते हुए यहां कई सितारे यहां परिणय सूत्र में बंध चुके हैं। जिन लोगों की शादी हो गई है वो यहां आर्शीवाद लेने आते हैं और जिन लोगों की शादी नहीं हो रही है, वह भी यहां वरदान मांगने आते हैं. देशभर से रुद्रप्रयाग पहुंचने के लिए कई साधन आसानी से मिल सकते हैं। रुद्रप्रयाग से सोनप्रयाग पहुंचना होगा। अगस्त्यमुनि से गुप्तकाशी की फिर सोनप्रयाग आता है। यहां से त्रियुगी नारायण मंदिर आसानी से पहुंच सकते हैं। विश्व कल्याण के लिए होता है हरियाली मेले का आयोजन : त्रियुगीनारायण मंदिर में प्रत्येक वर्ष क्षेत्र की खुशहाली व विश्व कल्याण के लिए हरियाली मेले का आयोजन किया जाता है। ये पौराणिक परंपरा अपने पर्यावरण को बचाने का भी संदेश देती है।एक सप्ताह पूर्व से ग्रामीण अपने-अपने घरों में जौ की हरियाली उगाने का कार्यक्रम शुरू करते हैं। सभी ग्रामीण अपने घरों से हरियाली लाकर त्रियुगीनारायण मंदिर परिसर में एकत्रित होते हैं। वैदिक मंत्रोच्चारण और पूजा अर्चना के साथ महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा व पौराणिक रीति-रिवाजों अनुसार पहले भगवान विष्णु को हरियाली को अर्पित करती हैं। गांव में प्रत्येक घर में बांटने के साथ ही बावन द्वादशी मेले के समापन अवसर पर भक्तों को प्रसाद के रूप में वितरित करने की परम्परा है। वामन द्वादशी मेले से पहले हरियाली मेला मनाने की परंपरा भी लंबे समय से चली आ रही है। यह मेला क्षेत्र की खुशहाली के लिए मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसी मंदिर में शिव और पार्वती का विवाह हुआ था।
बिहार में फाल्गू नदी के किनारे स्थित बोधगया जिला भारत में ही नहीं दुनिया भर में मशहूर है। यहां स्थित महाबोधि मंदिर को बेहद विशेष माना जाता है। माना जाता है कि यह मन्दिर उसी स्थान पर खड़ा है जहाँ भगवान गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था। बिहार बोधगया के आध्यात्मिक महत्व के कारण यह स्थल विश्व विख्यात है। इस स्थान को बौद्ध धर्म का तीर्थ स्थान कहा जाता है। यूनेस्को द्वारा इस शहर को विश्व धरोहर स्थल भी घोषित किया गया है। महाबोधि मंदिर बौद्ध धर्म के लोगों के लिए बेहद ही पवित्र स्थल है। यह मंदिर भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित चार सबसे पवित्र जगहों में से एक है। एक किवदंती के अनुसार ये वो स्थल है, जहां मोह-माया त्यागने के बाद गौतम बुद्ध को आत्म ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। जिस वृक्ष के नीचे गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी वो आज समस्त भारत और बौद्ध धर्म के अनुयायी लोगों के लिए बेहद ही पवित्र स्थल है। कहा जाता है कि इस पेड़ के नीचे सम्राट अशोक ने एक मंदिर बनवाया था, जो गौतम बुद्ध की स्मृति में समर्पित था। इस स्थान को बौद्ध सभ्यता का केन्द्र बिंदु माना जाता है। बुद्ध की मृत्यु के पश्चात, मौर्य शासक अशोक ने यहां महाबोधि मंदिर और सैकडों मठों का निर्माण करवाया था। इस मंदिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद समय व्यतीत किया था। यहां पर बुद्ध की इस अवस्था में एक मूर्त्ति बनी हुई है। इस मूर्त्ति को अनिमेश लोचन कहा जाता है। मुख्य मंदिर के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्य बना हुआ है। मुख्य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद तीसरा सप्ताह व्यतीत किया था। अब यहां पर काले पत्थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है। महाबोधि मंदिर के उत्तर पश्चिम भाग में एक छतविहीन भग्नावशेष है जो रत्नाघारा के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्ताह व्यतीत किया था। दन्तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे अपने पताके में किया है।माना जाता है कि बुद्ध ने मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवा सप्ताह व्यतीत किया था। बुद्ध ने छठा सप्ताह महाबोधि मंदिर के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा क्षील के नजदीक व्यतीत किया था। यह क्षील चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है। इस क्षील के मध्य में बुद्ध की मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है। इस मूर्ति के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने लीन थे कि उन्हें आंधी आने का ध्यान नहीं रहा। बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो सांपों का राजा मूचालिंडा अपने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की। इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना सांतवा सप्ताह इसी वृक्ष के नीचे व्यतीत किया था। यहीं बुद्ध दो बर्मी व्यापारियों से मिले थे। इन व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की। सम्राट अशोक ने बोधगया में लगवाया था हीरों से बना राजसिहांसन महाबोधि मंदिर का निर्माण कब हुआ इसकी कोई स्पष्ट तिथि किसी को भी नहीं मालूम है लेकिन, यह मंदिर लगभग 2 हज़ार सालों से भी अधिक समय से हिन्दु और बौद्ध धर्म के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल रहा है। इस मंदिर और इसके आसपास की जगहों पर महान सम्राट अशोक के काल के कुछ शिलालेख मिले थे जिससे यह अंदाजा लगाया जाता है कि यह मंदिर 232 ईसा पूर्व से भी अधिक प्राचीन है। इस मंदिर को किसने बनवाया इसके बारे में भी किसी का नाम स्पष्ट नहीं है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इस स्थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और जिसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा गया। जताकास के अनुसार, दुनिया में कोई भी दूसरी जगह बुद्धा के भार को सहन नहीं कर सकती। बुद्ध लिपिकों के अनुसार जब इस पूरी दुनिया का विनाश होगा तब बोधिमंदा धरती से गायब होने वाली अंतिम जगह होगी। परंपराओ का यह भी कहना है कि वहाँ आज भी कमल खिलते है। बोधगया में बुद्ध जयन्ती के अवसर पर विशेष आयोजन होते हैं। नये साल के अवसर पर यहां महाकाली पूजन कर मठों को पवित्र किया जाता है। अनूठे वास्तुकला के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है महाबोधि मंदिर बिहार में स्थित महाबोधि मंदिर अपनी वास्तुकला के लिए भी प्रसिद्ध है। मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की 7 फीट ऊंची विजरासन मुद्रा में मूर्ति है। इस मूर्ति के चारों ओर विभिन्न रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूर्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करते हैं। राजा अशोक को महाबोधि मन्दिर का संस्थापक माना जाता है। महाबोधि मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान है। निःसन्देह रूप से यह सबसे पहले बौद्ध मन्दिरों में से है जो पूरी तरह से ईंटों से बना है और वास्तविक रूप में अभी भी खड़ा है। महाबोधि मन्दिर की केन्द्रीय लाट 55 मीटर ऊँचा है और इसकी मरम्मत 19वीं शताब्दी में करवाई गयी थी। इसी शैली में बनी चार छोटी लाटें केन्द्रीय लाट के चारों ओर स्थित हैं। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है। ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। महाबोधि मन्दिर चारों ओर से पत्थरों की बनी 2 मीटर ऊँची चहारदीवारी से घिरा है। कुछ पर कमल बने हैं जबकि कुछ चहारदीवारियों पर सूर्य, लक्ष्मी और कई अन्य हिन्दू देवी-देवताओं की आकृतियाँ बनी हैं। मंदिर समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज और बुद्धम शरणम गच्छामि के मंत्र से मन शांत होता है। सिद्धार्थ गौतम के जीवन से जुड़ा है बोधि वृक्ष बोधि वृक्ष महाबोधि मंदिर और बोधगया का महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक वृक्ष या स्थान है जो सिद्धार्थ गौतम के जीवन से सीधे जुड़ा हुआ है। पौराणिक मान्यतानुसार कहा जाता है कि जब राजा सिद्धार्थ गौतम ने देखा की संसार मे बहुत पाप बढ़ गये हैं। धरती पर लोग दुःखो से ग्रसित है तो उन दुखों को समाप्त करने के लिए वह फाल्गु नदी के किनारे पर पहुंचे, जो बिहार के गया शहर से होकर बहती है। वही पर वे एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान की अवस्था में बैठे और तीन रात और तीन दिन तक गहन ध्यान अवस्था में रहने के बाद सिद्धार्थ गौतम ने आत्मज्ञान प्राप्त किया जिसके बाद पीपल वृक्ष को बोधि वृक्ष के नाम से जाना जाने लगा। यहीं पर सम्राट अशोक ने एक मंदिर बनवाया था, जो महान गौतम बुद्ध की स्मृति में समर्पित था। महा बोधि मंदिर के आस पास है कई दर्शनीय सथल थाई मठ: बोधगया में थाई मठ, भगवान बुद्ध की एक सुंदर नक्काशीदार विशाल कांस्य प्रतिमा का घर है, जिसे 1956 में थाईलैंड के सम्राट ने बनाया था। थाई मठ भारत में एक अनूठा और एकमात्र थाई मंदिर है, जिसे भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अनुरोध पर थाईलैंड के सम्राट ने बनाया था। मठ एक ढलान और घुमावदार छत के साथ सुशोभित है जो सुनहरी टाइलों से ढका है। मठ का अंदर का वातावरण काफी शांत और निर्मल है। रॉयल भूटानी मठ: रॉयल भूटान मठ क्षेत्र में सबसे शानदार मठों में से एक है, जिसे भगवान बुद्ध को श्रद्धांजलि के रूप में भूटान के राजा द्वारा बनाया गया था। इस मठ में मिट्टी की नक्काशी के साथ भगवान बुद्ध के जीवन का चित्रण है, जिसे सजावटी स्थापत्य शैली से सजाया गया है। मठ के अंदर, भगवान बुद्ध की सात फीट ऊंची प्रतिमा है, जिसे बौद्ध प्रतीकों और शास्त्रों के साथ उकेरा गया है। बुद्ध की ऊंची प्रतिमा: यह स्थित विशालकाय बुद्ध प्रतिमा बौद्ध तीर्थ और पर्यटन मार्गों में से एक है। यह बुद्ध मुर्ति ध्यान मुद्रा में 25 मीटर ऊँची खुली हवा में एक कमल पर विराजमान है। इस प्रतिमा को पूरा करने के लिए 12,000 राज मिस्त्रियों को सात साल लग गए थे। यह प्रतिमा बलुआ पत्थर ब्लॉक और लाल ग्रेनाइट का एक मिश्रण है। जापानी मंदिर: इंडोस निप्पन जापानी मंदिर बोधगया में सुंदर और लोकप्रिय मंदिरों में से एक है। यह मंदिर जापानी संस्कृति में बौद्ध धर्म की उपस्थिति को दर्शाता है। इंडोसन निप्पन जापानी मंदिर बोधगया में सबसे अधिक देखा जाने वाला मंदिर है, जिसे 1972 के वर्ष में बनाया गया था। मंदिर का मुख्य उद्देश्य बौद्ध धर्म और भगवान बुद्ध के विचारों का संरक्षण और प्रसार करना है। यह मंदिर जंगल की खूबसूरती से उकेरा गया है, इसलिए इस मंदिर का मुख्य आकर्षण इसकी लकड़ी की नक्काशी है जो इसे एक अनोखा आकर्षण प्रदान करती है। आर्कियोलॉजिक म्यूजियम: आर्कियोलॉजिकल म्यूजियम एक छोटा सा संग्रहालय है जिसमें केवल तीन हॉल हैं। इस संग्रहालय में हिंदू और बौद्ध धर्म की कई मूर्तियां और कलाकृतियां हैं। साथ ही इसके अलावा खुदाई में मिली कुछ अन्य चीजें भी रखी गई हैं। जो देखने लायक है। मुचलिंडा झील: सुंदर मुचलिंडा झील बिहार में एक ऐतिहासिक स्थल है, जो प्रसिद्ध महाबोधि मंदिर के दाईं ओर स्थित है, जिसे लोटस पॉन्ड के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ भगवान बुद्ध की एक सुंदर प्रतिमा है, जो झील के केंद्र में रखे हुड द्वारा संरक्षित एक सांप के कुंडल पर ध्यान लगा रही है। ऐसा माना जाता है कि बुद्ध के ध्यान के छठे सप्ताह के दौरान, झील में एक बहुत बड़ा तूफान आया था, जबकि बुद्ध ध्यान कर रहे थे, तब मुचलिंडा भगवान बुद्ध को तूफान के उत्पात से बचाने के लिए झील के नीचे से बाहर आया था। चीनी मंदिर: चीनी मंदिर महाबोधि मंदिर के पास स्थित यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है। वास्तुकला का यह प्रभावशाली टुकड़ा चीनी भिक्षुओं द्वारा बनाया गया है। इस चीनी मंदिर में भगवान बुद्ध की तीन आकर्षक स्वर्ण मूर्तियाँ हैं जिन्हें इस स्थान के प्राथमिक आकर्षणों में गिना जाता है। हर साल बुद्ध जयंती भगवान बुद्ध के जन्म का सम्मान करने के लिए यहां मनाया जाता है, हर साल बुद्ध जयंती मनाने के लिए दुनिया भर के लोग यहां आते हैं।
कहा जाता है कांगड़ा का ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ मां का एक ऐसा धाम है जहां पहुंच कर भक्तों का हर दुख उनकी तकलीफ मां की एक झलक भर देखने से दूर हो जाती है। यह 52 शक्तिपीठों में से मां का वो शक्तिपीठ है जहां सती का दाहिना वक्ष गिरा था और वहां तीन धर्मों के प्रतीक के रूप में मां की तीन पिंडियों की पूजा होती है। पहाड़ों को नहलाती सूर्य देव की पवित्र किरणें और भोर के आगमन पर सोने सी दमकती कांगड़ा की विशाल पर्वत श्रृंखला को देख ऐसा लगता है कि मानो किसी निपुण जौहरी ने घाटी पर सोने की चादर ही मढ़ दी हो। ऐसा मनोरम दृश्य कि एक पल को प्रकृति भी अपने इस रूप पर इतरा उठे। ब्रजेश्वरी देवी के धाम के बारे में एक पौराणिक कथा परसगलित है। कहते हैं कि भगवान शिव के ससुर राजा दक्ष ने अपनी राजधानी में यज्ञ का आयोजन किया था जिसमे उन्होंने भगवान शिव और माता सती को आमंत्रित नहीं किया। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयी। जब यज्ञ स्थल पर माता सती पहुंची तो वहां उनके पिता द्वारा शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और हवन कुण्ड में कूद गई। जब यह बात भगवान शंकर को पता चली तो यज्ञ स्थल पर पहुंचकर उन्होंने सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करना शुरू कर दिया। क्रोध की अग्नि में जल रहे शिव माता सती की देश पूरी सृष्टि में घूमने लगे। भगवान शिव के क्रोध के कारण पूरे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्मांड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागों में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। माता सती के शरीर के यह टुकड़े धरती पर जहां-जहां गिरे वह स्थान शक्तिपीठ स्थापित हो गए। मान्यता है कि यहां माता सती का दाहिना वक्ष गिरा था इसलिए ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ में मां के वृक्ष की पूजा होती है। कहा जाता है पहले यह मंदिर बहुत समृद्ध था। इस मंदिर को बहुत बार विदेशी लुटेरों द्वारा लूटा गया। महमूद गजनवी ने 1009 ई. में इस शहर को लूटा और मंदिर को नष्ट कर दिया था। फिर यह मंदिर वर्ष 1905 में जोरदार भूकंप से पूरी तरह नष्ट हो गया था। 1920 में इसे दोबारा बनवाया गया। माना जाता है कि महाभारत काल में पांडवों ने इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने करवाया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि माँ ब्रजेश्वरी ने पांडवों को सपने में दर्शन दिए थे। उन्होंने पांडवों को बताया कि वाहन कांगड़ा जिला में विराजमान है। फिर पाडंवों ने काँगड़ा जाकर माता के मंदिर का निर्माण किया था। तीन धर्मों के प्रतीक है ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद माता ब्रजेश्वरी का यह शक्तिपीठ अपने आप में अनूठा और विशेष है क्योंकि यहां मात्र हिन्दू भक्त ही शीश नहीं झुकाते बल्कि मुस्लिम और सिख धर्म के भी इस धाम में आकर अपनी आस्था के फूल चढ़ाते हैं। ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद तीन धर्मों के प्रतीक माने जाते हैं। पहला हिन्दू धर्म का प्रतीक है जिसकी आकृति मंदिर जैसी है तो दूसरा मुस्लिम समाज का और तीसरा गुंबद सिख संप्रदाय का प्रतीक है। तीन गुंबद वाले और तीन संप्रदायों की आस्था का केंद्र कहे जाने वाले माता के इस धाम में मां की पिण्डियां भी तीन ही हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित यह पहली और मुख्य पिंडी मां ब्रजेश्वरी की है। दूसरी मां भद्रकाली और तीसरी और सबसे छोटी पिण्डी मां एकादशी की है। मां के इस शक्तिपीठ में ही उनके परम भक्त ध्यानु ने अपना शीश अर्पित किया था। इसलिए मां के वो भक्त जो ध्यानु के अनुयायी भी हैं, वो पीले रंग के वस्त्र धारण कर मंदिर में आते हैं और मां का दर्शन पूजन कर स्वयं को धन्य करते हैं। कहते हैं जो भी भक्त मन में सच्ची श्रद्धा लेकर मां के इस दरबार में पहुंचता है उसकी कोई भी मनोकामना अधूरी नहीं रहती। फिर चाहे मनचाहे जीवनसाथी की कामना हो या फिर संतान प्राप्ति की लालसा। मां अपने हर भक्त की मुराद पूरी करती हैं। मां के दरबार में पांच बार होती है आरती मां ब्रजेश्वरी देवी की इस शक्तिपीठ में प्रतिदिन मां की पांच बार आरती होती है। सुबह मंदिर के कपाट खुलते ही सबसे पहले मां की शैय्या को उठाया जाता है। उसके बाद रात्रि के श्रृंगार में ही मां की मंगला आरती की जाती है। मंगला आरती के बाद मां का रात्रि श्रृंगार उतार कर उनकी तीनों पिण्डियों का जल, दूध, दही, घी, और शहद के पंचामृत से अभिषेक किया जाता है। इसके बाद पीले चंदन से मां का श्रृंगार कर उन्हें नए वस्त्र और सोने के आभूषण पहनाएं जाते हैं। फिर चना पूरी, फल और मेवे का भोग लगाकर आरती संपन्न होती है। मां की प्रात: की, आरती दोपहर की आरती और भोग चढ़ाने की रस्म को गुप्त रखा जाता है। दोपहर की आरती के लिए मंदिर के कपाट बंद रहते हैं, तब श्रद्धालु मंदिर परिसर में ही बने एक विशेष स्थान पर अपने बच्चों का मुंडन करवाते हैं। मान्यता है कि यहां बच्चों का मुंडन करवाने से मां बच्चों के जीवन की समस्त आपदाओं को हर लेती हैं। दोपहर बाद मंदिर के कपाट दोबारा भक्तों के लिए खोल दिए जाते हैं और भक्त मां का आशीर्वाद लेने पहुंच जाते हैं। कहाँ जाता है कि एकादशी के दिन चावल का प्रयोग नहीं किया जाता है, लेकिन इस शक्तिपीठ में मां एकादशी स्वयं मौजूद है इसलिए यहां भोग में चावल ही चढ़ाया जाता है। सूर्यास्त के बाद इन पिण्डियों को स्नान कराकर पंचामृत से इनका दोबारा अभिषेक किया जाता है। लाल चंदन, फूल व नए वस्त्र पहनाकर मां का श्रृंगार किया जाता है और इसके साथ ही सायंकाल आरती संपन्न होती है। शाम की आरती का भोग भक्तों में प्रसाद रूप में बांटा जाता है। रात को मां की शयन आरती की जाती है, जब मंदिर के पुजारी मां की शैय्या तैयार कर मां की पूजा अर्चना करते हैं। भक्तों पर आने वाले संकट से पहले रो देते हैं बाबा भैरव वैसे तो सभी भगवान अपनी भक्तों की रक्षा करते है, लेकिन मां ब्रजेश्वरी देवी के मंदिर परिसर स्थित भगवान भैरव बेहद खास है। कहते हैं कि जब भी कांगड़ा पर कोई मुसीबत आने वाली होती है तो यहां विराजे भगवान भैरव की मूर्ति की आंखों से आंसू और शरीर से पसीना आना शुरू हो जाता है। तब मंदिर के पुजारी विशाल हवन का आयोजन कर मां से आने वाली आपदा को टालने का निवेदन करते हैं। मान्यता है कि ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ के चमत्कार और महिमा से यहाँ आने वाली हर आपदा टल जाती है। ब्रजेश्वरी देवी मंदिर में स्थापित भैरव बाबा की प्रतिमा के बारे में कहा जाता है कि यह प्रतिमा 5 हजार साल से भी ज्यादा पुरानी है। कहा जाता है कि साल 1976-77 में इस मूर्ति में आंसू व शरीर से पसीना निकला था। उस समय कांगड़ा बाजार में भीषण अग्निकांड हुआ था। काफी दुकानें जल गई थी। उसके बाद से यहां ऐसी विपत्ति टालने के लिए हर साल नवंबर व दिसंबर के मध्य में भैरव जयंती मनाई जाती है। उस दौरान यहां पाठ व हवन होता है। यह मूर्ति मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही बाईं तरफ है। इस मंदिर में महिलाओं का जाना पूर्ण रूप से वर्जित हैं। मां ने किया था मक्खन का लेप शक्तिपीठ ब्रजेश्वरी देवी मंदिर में सात दिवसीय घृतमंडल पर्व हर साल 14 जनवरी को मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर शुरू होता है। ये प्रक्रिया पूरे सात दिन चलती है। सात दिवसीय घृतमंडल पर्व में करीब 2 क्विंटल मक्खन से मां की पिंडी का श्रृंगार किया जाता है। इस धार्मिक आयोजन को देखने के लिए देशभर से श्रद्धालु कांगड़ा पहुंचते हैं। मान्यता और दावा है कि इस मक्खन रूपी प्रसाद से चर्म रोगों और कैंसर जैसी बीमारी से निदान मिलता है। घृतमंडल पर्व के संबंध में कहा जाता है कि जालंधर दैत्य को मारते समय मां ब्रजेश्वरी देवी के शरीर पर कई चोटें आई थी और देवताओं ने माता के शरीर पर माखन का लेप किया था। इसी परंपरा के अनुसार देसी घी को एक सौ एक बार शीतल जल से धोकर उसका मक्खन बनाकर मां की पिंडी पर चढ़ाया जाता है। साथ ही मेवों और फलों की मालाएं भी चढ़ाई जाती हैं। बाद में ये मक्खन जरूरतमंदों समेत भक्तों में भी बांटा जाता है।
हिमालय की गोदी में स्थित शिव शंकर महादेव को समर्पित अमरनाथ मंदिर हिंदुओं के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है, जिससे करोड़ों भक्तों की आस्था जुड़ी हुई है। जम्मू कश्मीर स्थित अमरनाथ की गिनती दुनियाभर में भोलेनाथ के प्रमुख तीर्थस्थलों में होती है। यहां मुख्य आकर्षण का केंद्र है अमरनाथ की गुफा। अमरनाथ की गुफा श्रीनगर से 141 किमी दूर 3888 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। गुफा की लंबाई 19 मीटर और चौड़ाई 16 मीटर है। साल भर ये स्थल बर्फ की सफ़ेद चादर से ढका रहता है। गर्मियों में जब यह बर्फ पिघलने लगती है, तो इस तीर्थ स्थल को कुछ समय के लिए श्रद्धालुओं के लिए खोला जाता है। अमरनाथ को तीर्थों का तीर्थ भी कहा जाता है, क्योंकि यहीं पर भगवान शिव ने अपनी दैवीय पत्नी पार्वती को जीवन और अनंत काल का रहस्य बताया था। पौराणिक कथा के अनुसार कहा जाता है कि इसी गुफा में माता पार्वती को भगवान शिव ने अमरकथा सुनाई थी, जिसे सुनकर सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गये थे। गुफा में आज भी श्रद्धालुओं को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई दे जाता है, जिन्हें श्रद्धालु अमर पक्षी बताते हैं। वे भी अमर कथा सुनकर अमर हुए हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जिन श्रद्धालुओं को कबूतरों को जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव पार्वती अपने प्रत्यक्ष दर्शनों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं। ये है पौराणिक मान्यता अमरनाथ गुफा से जुड़ी एक पौराणिक मान्यता है कि भगवान शिव ने मां पार्वती को इस गुफा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमें अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई। कहा जाता है कि एक बार माता पार्वती ने महादेव से पूछा कि ऐसा क्यों है कि आप अजर-अमर है और आपके गर्दन में पड़ी नरमुंड की माला का रहस्य क्या है? इस पर महादेव ने पार्वती के सवाल का जवाब देना उचित नहीं समझा। इसलिए उन्होंने उस बात को टालने की कोशिश की, लेकिन पार्वती की जिद के कारण इस रहस्य को बताना स्वीकार किया। कहते हैं कि इस रहस्य को बताने के लिए भगवान शिव को एक एकांत जगह की आवश्यकता थी जिसकी तलाश करते हुए वो माता पार्वती को लेकर आगे बढ़ते चले गए। गुप्त स्थान की तलाश में महादेव ने अपने वाहन नंदी को सबसे पहले छोड़ा। नंदी जिस जगह पर छूटा उसे ही पहलगाम कहा जाने लगा। जहां से अमरनाथ यात्रा शुरू होती है। यहां से कुछ आगे जाने पर शिव जी ने अपने माथे से चंद्रमा को अलग कर दिया। जिस जगह पर उन्होंने चद्र्मा को छोड़ा वह जगह चंदनवाड़ी कहलाती है। इसके बाद भगवान शिव ने गंगा जी को पंचतरणी में और गले के सांपों को शेषनाग पर छोड़ दिया। जिस कारण इस पड़ाव का नाम शेषनाग पड़ा। अमरनाथ यात्रा का अगला पड़ाव गणेश टॉप है। मान्यता है कि इस स्थान पर शिव ने अपने पुत्र गणेश को छोड़ा था। इस प्रकार इन सभी को पीछे छोड़ने के बाद भगवान शिव ने माता पार्वती के साथ उस गुफा में प्रवेश किया। कोई भी तीसरा प्राणी इसमें प्रवेश न कर पाए इसलिए शिव ने गुफा के चारों ओर अग्नि को प्रज्ज्वलित कर दिया। इसके बाद महादेव ने जीवन के उस गूढ रहस्यों की कथा शुरू कर दी। कहते है कथा सुनते-सुनते देवी पार्वती को नींद आ गई थी। उस समय वो कथा वहां दो सफेद कबूतर सुन रहे थे। जब कथा समाप्त हुई और भगवान शिव का ध्यान माता पार्वती पर गया तो उन्होंने पार्वती जी को सोया हुआ पाया। तब महादेव की नजर उन दोनों कबूतरों पर पड़ी। इसे देखते ही महादेव को उन पर क्रोध आ गया। फिर दोनों कबूतर महादेव के पास आकार बोले कि हमने आपकी अमर कथा सुनी है, यदि आप हमें मार देंगे तो आपकी कथा झूठी हो जाएगी। कहते हैं कि इस पर महादेव ने उन कबूतरों को वर दिया कि वो सदैव उस स्थान पर शिव और पार्वती के प्रतीक के रूप में रहेंगे। मुस्लिम गड़रिये ने की थी अमरनाथ गुफा की खोज अमरनाथ गुफा की खोज के बारे में एक कथा प्रचलित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि अमरनाथ गुफा की खोज एक कश्मीरी मुसलमान ने की थी। इस व्यक्ति का नाम बूटा मलिक था। मलिक भेड़ चराने का काम करता था। एक दिन यह गड़रिया भेड़ें चराते-चराते बहुत दूर निकल गया। बर्फीले वीरान इलाके में पहुंचकर उसकी एक साधु से भेंट हो गई। साधु ने बूटा मलिक को कोयले से भरी एक पोटली दे दी। घर पहुंचकर उसने जब उस कोयले की पोटली को खोला तो उस पोटली से कोयले की जगह सोना निकला। यह देखकर बूटा मलिक काफी हैरान हुआ। वह साधु का धन्यवाद करने के लिए गया परंतु वहां साधु को न पाकर एक विशाल गुफा को उसने देखा। गड़रिया जैसे ही उस गुफा के अंदर गया तो उसने वहां पर देखा कि भगवान भोले शंकर बर्फ के बने शिवलिंग के आकार में स्थापित थे। इसके बाद उसने यह बात गांव के मुखिया को बताई और यह मामला वहां के तत्कालीन राजा के दरबार में पहुंचा। इस घटना के बाद से इस स्थान के महत्व के बारे में लोगों को मालूम हुआ और यहां लोगों का आना शुरू हो गया। तभी से यह स्थान एक तीर्थ बन गया। इतिहासकार गुफा की खोज के बारे में यह कहते हैं कि जिस बूटा मलिक ने इसकी खोज की थी वह मुसलमान नहीं था। उनके अनुसार, इस गुफा को खोजने वाला बूटा मलिक गुज्जर समाज से था। ये भी कहा जाता है कि इतनी ऊंचाई पर गड़रिया भेड़ चराने क्यों जाएगा, जहां ऑक्सीजन तक की कमी होती है। कुछ स्थानीय इतिहासकार यह भी मानते हैं कि 1869 के ग्रीष्मकाल में गुफा की फिर से खोज की गई और पवित्र गुफा की पहली औपचारिक तीर्थयात्रा 3 साल बाद 1872 में आयोजित की गई थी। इस तीर्थयात्रा में बूटा मलिक भी साथ थे। लेकिन, अमरनाथ यात्रा के बारे में अन्य साहित्य और जानकारी उपलब्ध है उसमें बूटा मलिक को मुसलमान बताया गया है। आश्चर्य की बात यह है कि अमरनाथ गुफा एक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी-बड़ी गुफाएं दिखती हैं। वे सभी बर्फ से ढकी हैं। एक और कहानी है कि कश्मीर घाटी पूरी तरह से पानी में डूबी हुई थी और कश्यप मुनि ने वहां नदियों का निर्माण किया और पानी कम होने के बाद घाटी का निर्माण हुआ। तदोपरांत भृगु मुनि घाटी के प्रवास पर गए जहाँ उन्होंने पवित्र अमरनाथ गुफा की खोज की। अमरनाथ गुफा में बर्फ से बना है प्राकृतिक शिवलिंग यहाँ की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक बर्फ से निर्मित होने के कारण इसे स्वयंभू हिमानी शिवलिंग भी कहते हैं। अमरनाथ गुफा चारों तरफ से कच्ची बर्फ से ढकी होती है। गुफा के अंदर मौजूद शिवलिंग पक्की बर्फ का होता है, जबकि गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाती है। यह शिवलिंग पक्की बर्फ से किस तरह बनता है ये आज भी एक रहस्य बना हुआ है। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें ऊपर से बर्फ के पानी की बूँदें जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूँदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंग बनता है। यह पानी कहां से टपकता है, यह भी एक रहस्य ही बना हुआ है। कहते है कि चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस बर्फ का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। पहलगाम से अमरनाथ यात्रा पहलगाम जम्मू से 324 किलोमीटर की दूरी पर है। यह विख्यात पर्यटन स्थल भी है और यहाँ का नैसर्गिक सौंदर्य देखते ही बनता है। पहलगाम तक जाने के लिए जम्मू-कश्मीर पर्यटन केंद्र से सरकारी बस उपलब्ध रहती है। पहलगाम में गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था की जाती है। तीर्थयात्रियों की पैदल यात्रा यहीं से आरंभ होती है। पहलगाम के बाद पहला पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से आठ किलोमीटर की दूरी पर है। पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहाँ रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं। इसके ठीक दूसरे दिन पिस्सू घाटी की चढ़ाई शुरू होती है। कहा जाता है कि पिस्सू घाटी पर देवताओं और राक्षसों के बीच घमासान लड़ाई हुई जिसमें राक्षसों की हार हुई। चंदनवाड़ी से आगे इसी नदी पर बर्फ का यह पुल सलामत रहता है। चंदनवाड़ी से 14 किलोमीटर दूर शेषनाग में अगला पड़ाव है। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दर्शन होते हैं। अमरनाथ यात्रा में पिस्सू घाटी काफी जोखिम भरा स्थल है। यात्री शेषनाग पहुँच कर ताजा दम होते हैं। यहाँ पर्वत मालाओं के बीच नीले पानी की खूबसूरत झील है। इस झील में झांककर यह भ्रम हो उठता है कि कहीं आसमान तो इस झील में नहीं उतर आया। यह झील करीब डेढ़ किलोमीटर लंबाई में फैली है। किंवदंतियों के मुताबिक शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दर्शन देते हैं, लेकिन यह दर्शन खुशनसीबों को ही नसीब होते हैं। तीर्थयात्री यहाँ रात्रि विश्राम करते हैं और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं। शेषनाग से पंचतरणी आठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता हैं। यहाँ पांच छोटी-छोटी सरिताएँ बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चोटियों से ढका है। ऊंचाई की वजह से ठंड भी ज्यादा होती है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियों को यहाँ सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ते हैं। अमरनाथ की गुफा यहाँ से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती हैं और रास्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। यह रास्ता काफी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफा में पहुँचते ही सफर की सारी थकान पल भर में छू-मंतर हो जाती है और अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।
देवभूमि हिमाचल में ऐसे कई रहस्यमयी मंदिर है जिसके आगे विज्ञान भी फैल है। ऐसा ही एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है हिमाचल प्रदेश के जिला काँगड़ा में स्थित श्री ज्वालामुखी मंन्दिर। इस मंदिर को ज्योता वाली माता के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में काफी अनोखा है क्योंकि यहां पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा होती है। ज्वाला देवी मंदिर में बिना तेल और बाती के नौ ज्वालाएं दिन रात जलती रहती है। इन्हे माता के नौ स्वरूपों का प्रतीक माना हैं। मंदिर में जल रही सबसे बड़ी ज्वाला को माता ज्वाला माना जाता है और अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां अन्नपूर्णा, मां विध्यवासिनी, मां चण्डी देवी, मां महालक्ष्मी, मां हिंगलाज, मां सरस्वती, मां अम्बिका देवी एवं मां अंजी देवी स्थापित हैं। कहा जाता है कि बादशाह अकबर ने भी इस ज्वाला को बुझाने की कोशिश की थी लेकिन वो नाकाम रहे थे। इतना ही नहीं वैज्ञानिकों ने भी इस ज्वाला के लगातार जलने का कारण खोजने की कोशिश की लेकिन वे भी इसके पीछे का रहस्य नहीं जान पाए हैं। यह सब बातें सिद्ध करती हैं कि यहां ज्वाला प्राकृतिक रूप से ही नहीं चमत्कारी रूप से भी निकलती है। 51 शक्तिपीठों में से एक है ज्वाला देवी मंदिर पूरे भारतवर्ष मे कुल 51 शक्तिपीठ है। ज्वाला देवी मंदिर इन शक्ति पीठ मंदिरों में से एक है। इन सभी शक्तिपीठों की उत्पत्ति की कथा एक ही है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुऐ है। धार्मिक ग्रंथ के अनुसार इन सभी स्थलों पर देवी सती के अंग गिरे थे। दरअसल भगवान शिव के ससुर राजा दक्ष ने अपनी राजधानी में यज्ञ का आयोजन किया था जिसमे उन्होंने भगवान शिव और माता सती को आमंत्रित नही किया। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयी। जब यज्ञ स्थल पर माता सती पहुंची तो वहां उनके पिता द्वारा शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और हवन कुण्ड में कूद गई। जब यह बात भगवान शंकर को पता चली तो यज्ञ स्थल पर पहुंचकर उन्होंने सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करना शुरू कर दिया। इस कारण सारे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागो में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। मान्यता है कि ज्वालाजी में माता सती की जीभ गिरी थी। श्री ज्वालामुखी मन्दिर का इतिहास श्री ज्वालामुखी मन्दिर के निर्माण को लेकर एक अन्य कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार सतयुग में सम्राट भूमिचन्द्र ने ऐसा अनुमान किया कि सती की जिह्वा भगवान् विष्णु के चक्र से कटकर हिमालय के धौलाधार पर्वतों पर गिरी है। काफी प्रयत्न करने के बाद भी वह उस स्थान को ढूंढ़ने में असफल रहे। तदोपरान्त उन्होंने नगरकोट काँगड़ा में एक छोटा-सा मन्दिर भगवती सती के नाम से बनवाया। इसके कुछ वर्षों के बाद किसी ग्वाले ने सम्राट भूमिचन्द्र को सूचना दी कि उसने अमुक पर्वत पर ज्वाला निकलती हुई देखी है, जो ज्योति के समान निरन्तर जलती है। महाराज भूमिचन्द्र ने स्वयं आकर इस स्थान के दर्शन किए और घोर वन में मन्दिर का निर्माण किया। मन्दिर में पूजा के लिए शाक-द्वीप से भोजक जाति के दो पवित्र ब्राह्मणों को लाकर यहाँ का पूजन-अधिकार सौंपा गया। इन पंडितों के नाम पंडित श्रीधर तथा पंडित कमलापति थे। उन्हीं भोजक ब्राह्मणों के वंशज आज तक श्री ज्वालामुखी देवी की पूजा करते आ रहे हैं। बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसार चंद ने 1835 में इस मंदिर का निर्माण पूरा करवाया। एक अन्य किवंदती के अनुसार कहा जाता है कि पांडवों ने ज्वालामुखी की यात्रा की थी तथा उन्होंने ज्वाला माता के मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। गोरख-डिब्बी की कथा ज्वालामुखी तीर्थ का दूसरा महत्वपूर्ण पूजा स्थान गोरख-डिब्बी है। यहाँ पर डिब्बी का अर्थ जलकुण्ड से है। ज्वाला दवी शक्तिपीठ में माता की ज्वाला के अलावा एक अन्य चमत्कार देखने को मिलता है। यहां एक कुण्ड में पानी खौलता हुआ प्रतीत होता जबकि छूने पर कुंड का पानी ठंडा लगता है। इस जलकुण्ड का सम्बन्ध नाथ संप्रदाय के प्रमुख आचार्य योगीराज गोरखनाथ से है। कथा है कि भक्त गोरखनाथ यहां माता की आरधाना किया करता था। एक बार गोरखनाथ को भूख लगी तब उसने माता से कहा कि आप आग जलाकर पानी गर्म करें, मैं भिक्षा मांगकर लाता हूं। माता आग जलाकर बैठ गयी और गोरखनाथ भिक्षा मांगने चले गये। इसी बीच समय परिवर्तन हुआ और कलियुग आ गया। भिक्षा मांगने गये गोरखनाथ लौटकर नहीं आये। तब से माता अग्नि जलाकर गोरखनाथ का इंतजार कर रही हैं। मान्यता है कि सतयुग आने पर बाबा गोरखनाथ लौटकर आएंगे, लेकिन तब-तक यह ज्वाला यूं ही जलती रहेगी। माता ज्वाला ने तोड़ा था अकबर का घमंड पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता हैं कि मुग़ल बादशाह अकबर को जब ज्वालामुखी में माता के इस चमत्कार के बारे में पता चला तो उसने नई ज्योतियों को बुझाने का प्रयास किया था। अकबर ने ज्योति को बुझाने के लिए नहर का निर्माण किया और सेना से पानी डलवाना शुरू कर दिया, लेकिन नहर के पानी से मां की ज्योतियां नहीं बुझीं। इसके बाद अकबर ने मां से माफी मांगी और पूजा कर सोने का सवा मन का छत्र चढ़ाया । कहा जाता है कि घमंड में चढ़ाया हुआ ये सवा मन भारी शुद्ध सोने का छत्र खंडित हो गया था। माता ने उसका छत्र स्वीकार नहीं किया था। यह छत्र सोने का न रहकर किसी दूसरी धातु में बदल गया था। इसके बाद वह कई दिन तक मंदिर में रहकर क्षमा मांगता रहा, लेकिन माता ने उसकी क्षमा स्वीकार नहीं की। कहते हैं कि इस घटना के बाद ही अकबर के मन में हिंदू देवी-देवताओं के लिए श्रद्धा पैदा हुई थी। अकबर का चढ़ाया गया छत्र किस धातु में बदल गया, इसकी जांच के लिए साठ के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू की पहल पर यहां वैज्ञानिकों का दल पहुंचा। छत्र के एक हिस्से का वैज्ञानिक परीक्षण किया तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आए। वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर इसे किसी भी धातु की श्रेणी में नहीं माना गया। जो भी श्रद्धालु शक्तिपीठ में आते हैं, वे अकबर के छत्र और नहर देखे बगैर यात्रा को अधूरा मानते हैं। आज भी छत्र ज्वाला मंदिर के साथ भवन में रखा हुआ है। मंदिर के साथ नहर के अवशेष भी देखने को मिलते हैं। श्री ज्वालामुखी तीर्थ के दर्शनीय स्थल सेजा-भवन : ज्वालामुखी के मुख्य मन्दिर के सामने सेजा भवन बनाया गया है। यह भगवती ज्वाला देवी का शयन-स्थान है। भवन में प्रवेश करते ही बीचों-बीच संगमरमर का चबूतरा बना हुआ है, जिसके ऊपर चांदनी लगी हुई है। रात 10 बजे शयन आरती के उपरान्त माँ भगवती के शयन के लिए कपड़े एवं शृंगार के सामान के साथ पानी का लोटा और दांतुन आदि रखी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि माँ भगवती यह रात्रि एक समय शयन के लिए आती है। सेजा-भवन में चारों ओर दस महाविद्याओं तथा महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती की मूर्तियां बनी हैं। श्री गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रखवाई गई श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की हस्तलिखित प्रतिलिपि भी सेजा-भवन में सुरक्षित है। वीर कुण्ड: मंदिर के निकट ही योगिनी खर्पर तथा वीर कुण्ड है। इस खर्पर का पूजन वार्षिक होता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यदि वंध्यानारी इस कुण्ड में श्रद्धापूर्वक स्नान करे तो वंध्यापन दूर होकर उन्हें संतान सुख प्राप्त होता है। श्री राधा-कृष्ण मन्दिर: गोरख-डिब्बी के समीप ही राधा कृष्ण जी का एक छोटा-सा मन्दिर है। विश्वास किया जाता है कि यह प्राचीन मन्दिर कटोच राजाओं के समय में बनवाया गया था। शिव-शक्ति : गोरख-डिब्बी से लगभग 15 सीढ़ियाँ ऊपर चढ़कर शिव-शक्ति नामक स्थान है। यहाँ पर शिवलिंग के साथ ज्योति के दर्शन किये जाते है। काली-भैरव मन्दिर : काली-भैरव मन्दिर काफी प्राचीन मन्दिर है। कहा जाता है कि शरीर में किसी भी प्रकार की पीड़ा हो, वह केवल इसके दर्शन मात्र से ही दूर हो जाती है। सिद्ध नागार्जुन : यह रमणीक स्थान लाल-शिवालय से ऊपर लगभग एक फर्लांग सीढ़ियाँ चढ़कर आता है। यहाँ पर डेढ़ हाथ ऊँचे काले पत्थर की मूर्ति है। इसी को सिद्ध-नागार्जुन कहते हैं। कहा जाता है कि जब गुरु गोरखनाथ जी खिचड़ी लाने गए और बहुत देर हो जाने पर भी वापिस न लौटे, तब उनके शिष्य सिद्ध-नागार्जुन पहाड़ी पर चढ़कर उन्हें देखने लगे कि गुरु जी कहाँ निकल गए। वहाँ से इन्हें अपने गुरु तो दिखाई नहीं दिए, परन्तु यह उन्हें स्थान इतना मनोहर लगा कि नागार्जुन वहीं समाधि लगाकर बैठ गए। अम्बिकेश्वर महादेव : सिद्ध नागार्जुन से एक फर्लांग पूर्व की ओर यह मन्दिर है। इस स्थान को उन्मत्त भैरव भी कहते हैं तथा इस मन्दिर का पौराणिक महत्व है। श्री शिव महापुराण की पीछे लिखी कथा के अनुसार, जहाँ- जहाँ भी सती के अंग-प्रत्यंग गिरे, वहीं वहीं पर शिवजी ने किसी-न-किसी रूप में निवास किया था। इसी तरह ज्वालामुखी में शिवजी उन्मत्त भैरव रूप में स्थित हुए। यह मंदिर मन्दिर अम्बिकेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। टेढ़ा मन्दिर: अम्बिकेश्वर से लगभग एक फर्लांग की चढ़ाई चढ़ने के बाद इस प्राचीन मन्दिर में सीताराम के दर्शन होते हैं। कहा जाता है कि भूचाल आने से यह मन्दिर बिल्कुल टेढ़ा हो गया था, फिर भी देवी के प्रताप से यह मंदिर गिरा नहीं। देखने में अब भी यह मन्दिर टेढ़ा अर्थात् एक ओर को झुका हुआ है। इसलिए इसे टेढ़ा मन्दिर के नाम से जाना जाता है।
पश्चिम बंगाल के शांत और खूबसूरत शहर बिश्नुपुर को टेराकोटा मंदिरों के लिए जाना जाता है। ये जगह पर्यटकों के बीच सांस्कृतिक संगीत, वास्तुकला और सुंदर हस्तशिल्प के लिए मशहूर है। मान्यता है कि यहां पर स्थित शानदार टेराकोटा मंदिरों को 17वीं से 18वीं शताब्दी में मल्ला राजाओं द्वारा बनवाया गया था। ये मल्ला शासक भगवान विष्णु के उपासक थे और इसी वजह से इस स्थान को बिश्नुपुर नाम मिला है। कहा जाता है कि टेराकोटा शैली में निर्मित इन मंदिरों के परिसर में किसी ज़माने में रासलीला भी हुआ करती थी। लोग कृष्ण भक्ति में लीन रहा करते थे। हर साल दिसंबर माह में यहां बिश्नुपुर मेला जरूर लगता है, जिसे देखने विदेशों से भी पर्यटक आते हैं। यह मेला कला व संस्कृति का अनोखा संगम है। यहां दूर-दूर से अपना हुनर दिखाने कलाकार आते हैं और उनकी कला के पारखी पर्यटक भी यहां आते हैं। टेराकोटा बिश्नुपुर की पहचान है। यहां इससे बने बर्तनों के अलावा सजावट की चीजें भी मिलती है। मेले में तो एक सिरे से यही दुकानें नज़र आती हैं। इसके अलावा पीतल के बने सामान भी यहां खूब बनते व बिकते हैं। इन चीजों के अलावा यहां बनी बालूचरी साड़ियां देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर हैं। इन साड़ियों पर महाभारत व रामायण के दृश्यों के अलावा कई अन्य दृश्य कढ़ाई के जरिए उकेरे जाते हैं। बालूचरी साड़ियां किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इन साड़ियों ने अपनी अलग पहचान कायम की है। साल के आखिरी सप्ताह के दौरान पूरा शहर उत्सव के रंगों में रंग जाता है। मल्ला राजाओं के नाम पर इसे 'मल्लभूमि' भी कहा जाता था। जानकारों के मुताबिक बिश्नुपुर में मल्ल राजवंश की स्थापना ईसा पूर्व 694 में हुई थी। 17 वीं और 18वीं शतब्दी में बिश्नुपुर एक आध्यात्मिक शहर माना जाता था। समुद्र गुप्त जैसे नामी हिंदू राजाओं ने बिश्नुपुर को आध्यात्मिक नगर बनाने में काफी योगदान दिया था। कहते है की कुछ समय बाद मुगलकालीन शासन में बिश्नुपुर का पतन हुआ। फिर, जब अंग्रेज आए तो बिश्नुपुर की सांस्कृतिक-आध्यात्मिक महत्ता को पहचान कर इसके साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं हुई। कहते हैं कि बिश्नुपुर के राजा रघुनाथ सिंह देव के जमाने में यहां की बात ही निराली थी। फिर, वीर सिंह देव ने जब सत्ता संभाली, यहां का संगीत अपने चरमोत्कर्ष पर था। पुराने लोगों को मालूम है की हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में बिश्नुपुर घराने का अपना रुतबा था। तब बिश्नुपुर स्कूल आफ पेंटिंग की भी ख्याति थी। बिश्नुपुर का डोकरा शिल्प और बालुचुरी साड़ी अब भी विश्वविख्यात हैं। इसके शौकीन लोग अब भी इसे खरीदने बिश्नुपुर पहुंचते है । यहां के मंदिरों की यह शान अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के हाथ में है। वे ही लोग मंदिरों की देख-रेख करते हैं। वर्ष 1997 से बिश्नुपुर यूनेस्को के विश्व धरोहर में शामिल हैं। हर समय बिश्नुपुर में चहल-पहल बनी रहती है। यहां के मंदिरों को दूर से ही देखने पर लगता है कि यहां का अतीत कितना गौरवशाली रहा होगा। एक जमाने में बिश्नुपुर बंगाल का सांस्कृतिक केंद्र भी होता था। बिश्नुपुर के रासमंच मंदिर, जोड़ बांग्ला मंदिर, मदन मोहन मंदिर, रघुनाथ जीऊ मंदिर, नूतन महल, बिश्नुपुर हवा महल आदि को देखने पर यहां की खूबसूरती का अनुभव होता है। पाथोर दरवाज़ा पाथोर दरवाजे को बिष्णुपुर साम्राज्य का प्रवेश द्वार कहा जाता है। बिष्णुपुर, सातवीं सदी में मलभूम राजाओं की राजधानी रही है। और इसे पश्चिम बंगाल के साम्राज्यों में से एक सांस्कृतिक केंद्र होने का गौरव प्राप्त है। इसका निर्माण लेटराइट पत्थरों से किया गया है। इसलिए इसे पाथोर दरवाज़ा या विशाल दरवाज़ा भी कहा जाता है। दिलचस्प बात यह है कि इसमें ऊपर सशस्त्र सैनिकों के लिए कैबिन भी बने हुए हैं। संभवतः सैनिक यहाँ से राज्य में प्रवेश करने वाले लोगों पर नज़र रखा करते थे। पंच रत्न मंदिर पंच रत्न मंदिर 1643 ई में मल्ला राजा, रघुनाथ सिंह द्वारा निर्मित इस मंदिर का शिखर अष्टकोण आकार में बना है , जबकि बाकी का मंदिर चौकोर आकार का है। इस मंदिर की टेराकोटा नक्काशी पर भगवान कृष्ण के जीवन को दर्शाया गया है। इस अनूठे और खूबसूरत मंदिर को देखकर आपको बंगाली संस्कृति को जानने का मौका मिलेगा। मदन मोहन मंदिर मदन मोहन मंदिर बिश्नुपुर के सबसे लोकप्रिय मंदिरों में से एक है मदन मोहन मंदिर। ये मंदिर रत्न यानि एक स्तंभ पर टिका हुआ है। मंदिर की दीवारों पर रामायण, महाभारत और अन्य पौराणिक कथाओं का वर्णन किया गया है। लालजी मंदिर लालजी मंदिर राधा और कृष्ण को समर्पित है। इस मंदिर की स्थापना 1658 ईस्वी में हुई थी। ये मंदिर चौकोर आधार पर स्थित है और इसमें गुंबद के आकार का शिखर है। इसकी दीवारों पर पुराणों के जीवन को फूलों और चित्रों द्वारा दर्शाया गया है। कलाचंद मंदिर कलाचंद मंदिर 1656 ईस्वीं में इस शानदार मंदिर को राजा रघुनाथ सिंह ने एकरत्न शैली में बनवाया था। ये मंदिर लेटराइट के पत्थरों से बना है। इस मंदिर में भगवान कृष्ण को कलाचंद के रूप में पूजा जाता था। हालांकि, वर्तमान समय में इस मंदिर में किसी भी देवी-देवता की पूजा नहीं होती है। इस मंदिर की दीवारों पर की गई नक्काशी से कृष्ण लीलाओं और रामायण के बारे में जान सकते हैं। जोर मंदिर जोर मंदिर तीन मंदिरों का संगम है जोर मंदिर। इसे मल्ला राजा कृष्ण सिंह द्वारा 1726 ईस्वीं में बनवाया गया था। ये मंदिर टेराकोटा वास्तुशिल्प में बना है। इस मंदिर और इसकी दीवारों को देखकर आपको अपने बिशनुपर आने का कारण पता चल जाएगा। राधा माधव मंदिर राधा माधब मंदिर इस मंदिर का शिखर रेखा शैली में बना है और से षट्कोण आकार का है। इस मंदिर के तीन दरवाज़े हैं। इस मंदिर की कुछ दीवारें क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। मंदिर की दीवारों और मेहराबों पर खूबसूरत नक्काशी की गई है जिन पर रामायण और कृष्ण लीलाओं का वर्णन मिलता है। इस मंदिर के खोए सौंदर्य को वापस लाने में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण भरपूर प्रयास कर रही है। नंदलाल मंदिर नंदलाल मंदिर बिश्नुपुर के सात एक रत्नों में से एक है नंदलाल मंदिर जोकि हरे-भरे बगीचों से घिरा हुआ है। किसी को नहीं पता कि इस मंदिर का निर्माण किसने करवाया था। हालांकि, माना जाता है कि इस मंदिर को 17वीं शताब्दी में बनवाया गया था। दक्षिण की ओर मुख किए इस मंदिर का आधार चौकोर है। बिश्नुपुर का ये एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसे बाहर से सजाया नहीं गया है। वर्तमान समय में इस मंदिर में किसी देवी-देवता की पूजा नहीं होती है। राधा गोविंदा मंदिर राधा गोविंदा मंदिर इस एक रत्न शैली में बने मंदिर को कृष्ण सिंह के पुत्र गोपाल सिंह द्वारा 1729 ईस्वी में बनवाया गया था। राधा गोविंदा मंदिर की दीवारों को भित्ति चित्रों से सजाया गया है जिनमें फूलों की आकृति, पौराणिक दृश्य आदि शामिल हैं। मंदिर के सामने एक छोटा सा रथ भी है और मानव निर्मित प्राचीन तालाब भी है। ये तालाब पर्यटकों को खूब आकर्षित करता है। ये मंदिर राधा-कृष्ण की प्रेम कहानी का जीवंत उदाहरण है। रासमंच यहां स्थित रासमंच पिरामिड की शक्ल में ईंटों से बना सबसे पुराना मंदिर है। 16वीं सदी में राजा वीर हंबीरा ने इसका निर्माण कराया था। उस समय रास उत्सव के दौरान पूरे शहर की मूर्तियां इसी मंदिर में लाकर रख दी जाती थीं और दूर-दूर से लोग इनको देखने के लिए उमड़ पड़ते थे। इस मंदिर में टेराकोटा की सजावट की गई है जो आज भी पर्यटकों को लुभाती है। इसकी दीवारों पर रामायण, महाभारत व पुराणों के श्लोक खुदाई के जरिए लिखे गए हैं। इसी तरह 17वीं सदी में राजा रघुनाथ सिंघा के बनवाए जोरबंगला मंदिर में भी टेराकोटा की खुदाई की गई है। शहर में इस तरह के इतने मंदिर हैं कि इसे मंदिरों का शहर भी कहा जा सकता है। झिलमिली झिलमिली को 'दार्जिलिंग ऑफ साउथ बंगाल' के रूप में भी जाना जाता है। झिलमिली, पुरुलिया, बांकुरा और मिदनापुर की सीमा पर स्थित है और बांकुरा शहर से सिर्फ 70 किमी दूर है। बंगाली भाषा में स्पार्कल या ट्विंकल करने का शाब्दिक अनुवाद, इस क्षेत्र में घने हरे-भरे जंगल हैं जो लुभावनी सुंदरता रखते हैं। यह जगह अलग-अलग ऊंचाइयों पर एक पहाड़ी और घने जंगलों के बीच स्थित है। कांग्सबाती, इस जंगल से होकर बहती है और इसके किनारे पिकनिक के लिए एक आदर्श स्थान है। इसके अलावा, यहां की मिट्टी सूक्ष्म है, जो इस जगह की सुंदरता को और निखारती है। यहाँ का वॉच टॉवर आसपास के अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करता है। इस भूमि की आकर्षक सुंदरता के साथ संयुक्त रूप से बहने वाली हवा का शांत प्रतिबंध केवल कंगसबाती नदी के पानी के तेज बहाव से दूसरे आयाम तक बढ़ जाता है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार माता सती के अंग जहां-जहां गिरे, वहां शक्तिपीठ के रूप में उनकी उपासना की जाती है। हिंदू धर्म में कुल 51 शक्तिपीठों की मान्यता है। इन्ही में से एक हैं उज्जैन स्थित माँ हरिसिद्धि, जहां माता सती की कोहनी गिरी थी। माता के 51 शक्तिपीठों में से एक ऐसा चमत्कारी शक्तिपीठ है उज्जैन स्थित हरसिद्धि माता मंदिर। इस स्थान पर देवी सती की कोहनी गिरी थी, जिसके बाद यहां शक्तिपीठ स्थापित हो गया। मंदिर में लोगों की आकर्षण का केंद्र यहां प्रांगण में मौजूद 2 दीप स्तंभ हैं। यह स्तंभ लगभग 51 फीट ऊंचे हैं, दोनों दीप स्तंभों में मिलाकर लगभग 1 हजार 11 दीपक हैं। इस मंदिर में दीप स्तंभों की स्थापना राजा विक्रमादित्य ने करवाई थी। यदि अनुमान लगाया जाए तो दीप स्तंभ 2 हजार साल से अधिक पुराने हैं क्योंकि राजा विक्रमादित्य का इतिहास भी करीब 2 हजार साल पुराना है। कहा जाता है कि इस स्तंभों पर दीप जलाना बहुत ही कठिन है। हरसिद्धि देवी के मंदिर की विशेषता यह है कि इसमें देवी का कोई विग्रह नहीं है, बल्कि सिर्फ कोहनी ही है, जिसे हरसिद्धि देवी के रूप में पूजा जाता है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में माता हरसिद्धि के आस-पास महालक्ष्मी और महासरस्वती भी विराजित हैं। यह अद्भुत शक्तिपीठ मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले में हरसिद्धि मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। वैसे तो हर समय ही यहां भक्तों की भीड़ रहती है किन्तु नवरात्रि के समय और खासकर यहां आश्विन नवरात्रि के अवसर पर अनेक धार्मिक आयोजन होते हैं। रात्रि को आरती में एक उल्लासमय वातावरण होता है। इसलिए नवरात्रि के पर्व पर यहां खासा उत्साह देखने को मिलता है। मंदिर महाकाल मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित हैं। रात के समय हरसिद्धि मंदिर के कपाट बंद होने के बाद गर्भगृह में विशेष पर्वों के अवसर पर विशेष पूजा की जाती है। श्रीसूक्त और वेदोक्त मंत्रों के साथ होने वाली इस पूजा का तांत्रिक महत्व बहुत ज्यादा है। भक्तों की मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए यहां विशेष तिथियों पर भी पूजन करवाया जाता है। गुजरात स्थित पोरबंदर से करीब 48 किमी दूर मूल द्वारका के समीप समुद्र की खाड़ी के किनारे मियां गांव है। खाड़ी के पार पर्वत की सीढ़ियों के नीचे हर्षद माता (हरसिद्धि) का मंदिर है। मान्यता है कि उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य यहीं से आराधना करके देवी को उज्जैन लाए थे। तब देवी ने विक्रमादित्य से कहा था कि मैं रात के समय तुम्हारे नगर तथा दिन में इसी स्थान पर वास करूंगी। इस कारण आज भी माता दिन में गुजरात और रात में मध्य प्रदेश के उज्जैन में वास करती हैं। माता हरसिद्धि की साधना से समस्त प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। हरसिद्धि देवी की आराधना करने से शिव और शक्ति दोनों की पूजा हो जाती है। ऐसा इसलिए कि ये एक ऐसा स्थान है, जहां महाकाल और मां हरसिद्धि के दरबार हैं। मंदिर का दरवाजा अपने आप हो गया था पश्चिम में माँ हरसिद्धि मंदिर से जुड़ी कई मान्यताएं एवं इतिहास है। बताया जाता है कि मंदिर का निर्माण उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के भांजे वियजसिंह ने करवाया था। जब विजय सिंह यहां के राजा थे तब वे माँ हरसिद्धि के अनन्य भक्त थे और प्रतिदिन माँ हरसिद्धि के दर्शन करने के लिए में उज्जैन के हरसिद्धि मंदिर जाते थे। उनकी इस भक्ति को देखकर माँ हरसिद्धि ने राजा विजय सिंह को सपने में दर्शन देकर कहा कि ' मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हुई हूं। तुम बीजा नगरी में ही मेरा मंदिर बनवाओ और उस मंदिर का दरवाजा पूर्व दिशा में रखना।' राजा विजय सिंह ने ऐसा ही किया एवं मंदिर निर्माण करवाया। जिसके बाद माता ने पुनः राजा को सपना दिया और कहां कि 'मैं तुम्हारे बनाए हुए मंदिर में विराजमान हो गई हूँ। तुमने मंदिर का दरवाजा पूर्व में रखा था अब वह पश्चिम में हो गया है।' राजा जब सुबह उठकर मंदिर पहुंचा तो उसने देखा की मंदिर का दरवाजा पश्चिम में हो गया है, जिसके बाद से मंदिर पर कई चमत्कार हुए है। वर्तमान में माँ हरसिद्धि का यह मंदिर पुरातत्व विभाग के अधीन है। मन्नता धारी बनाते है उल्टा स्वास्तिक माँ हरसिद्धि मंदिर पर नवरात्रि में लाखों श्रद्धालु दर्शन करते है। मन्नत लेने वाले श्रद्धालु गोबर से उल्टा स्वास्तिक मंदिर पर बनाते है। मन्नत पूरी हो जाने के बाद पुनः मंदिर में आकर सीधा स्वास्तिक बनाते है। चमत्कारिक मंदिर में विराजित मां हरसिद्धि दिन भर में तीन रूप में नजर आती है। यहां पहुंचने वाले श्रृद्धालुओं के अनुसार माँ हरिसिद्धि सुबह बचपन, दोपहर को जवानी और शाम को बुढ़ापे के रूप में दिखाई देती है। माता के तीना रूप में दर्शन करने के लिए यहां श्रृद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। विक्रमादित्य ने 11 बार चढ़ाया सिर हरसिद्धि माता के इस पावन धाम से जुड़ी एक कहानी है, जिसके अनुसार सम्राट विक्रमादित्य माता के अनन्य भक्त थे, हर बारहवें वर्ष देवी के मंदिर पर आकर अपना शीश माता के चरणों में अर्पित कर देते थे, लेकिन हरसिद्धि देवी की कृपा से उन्हें हर साल एक नया सिर मिल जाता था। मान्यता है कि जब बारहवीं बार उन्होंने अपना सिर चढ़ाया तो सिर फिर वापस नहीं आया और उनका जीवन समाप्त हो गया था। शिव-शक्ति के प्रतीक हैं ये दीप स्तंभ हरसिद्धि माता के मंदिर की चारदीवारी में चार प्रवेश द्वार हैं। मंदिर के पूर्व द्वार पर सप्तसागर तालाब है और दक्षिण-पूर्व कोने में कुछ ही दूरी पर एक बावड़ी है, जिसमें एक स्तंभ है। माता के पावन धाम में दो और स्तंभ है। इन दो विशालकाय दीप-स्तंभ को नर-नारी का प्रतीक माना जाता है। इसमें दाहिनी ओर का स्तंभ बड़ा है, जबकि बांई ओर छोटा स्तंभ है। हालांकि कुछ लोग इसे शिव-शक्ति का प्रतीक भी मानते हैं। दोनों स्तंभ पर 1100 दीप हैं, जिन्हें जलाने के लिए तकरीबन 60 किलो तेल लगता है। दोनों स्तंभ के दीप जलाए जाने के बाद ये स्तंभ अत्यंत आकर्षक लगते हैं। शाम के समय इस दीपमालिका को देखने के लिए लोग बड़ी दूर दूर से यहां पर पहुंचते है। इसलिए पड़ा हरसिद्धि नाम स्कंदपुराण में कथा है कि एक बार जब चंड-प्रचंड नाम के दो दावन जबरन कैलास पर्वत पर प्रवेश करने लगे तो नंदी ने उन्हें रोक दिया। असुरों ने नंदी को घायल कर दिया। इस पर भगवान शिव ने भगवती चंडी का स्मरण किया। शिव के आदेश पर देवी ने दोनों असुरों का वध कर दिया। प्रसन्न महादेव ने कहा, तुमने इन दानवों का वध किया है, इसलिए आज से तुम्हारा नाम हरसिद्धि प्रसिद्ध होगा। ऐसे हुई माँ के इस रूप की उत्पत्ति शिव पुराण की मान्यता के अनुसार जब सती बिना बुलाए अपने पिता के घर गई और वहां पर दक्ष के द्वारा अपने पति का अपमान सहन न कर सकने पर उन्होंने अपनी काया को अपने ही तेज से भस्म कर दिया। भगवान शंकर यह शोक सह नहीं पाए और उनका तीसरा नेत्र खुल गया, जिससे चारों ओर प्रलय मच गया। भगवान शंकर ने माता सती के पार्थिव शरीर को कंधे पर उठा लिया और जब शिव अपनी पत्नी सती की जलती पार्थिव देह को दक्ष प्रजापति की यज्ञ वेदी से उठाकर ले जा रहे थे, तब विष्णु ने सती के अंगों को अपने चक्र से 52 भागों में बांट दिया, उज्जैन के इस स्थान पर सती की कोहनी का पतन हुआ था इसी लिए यहाँ कोहनी की पूजा होती है।
हिमालय के भीतरी क्षेत्र में गंगोत्री धाम सबसे पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता है। यहाँ से ही जीवन की धारा गंगा पहली बार पृथ्वी को स्पर्श करती है। उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के उत्तरकाशी जिले में भागीरथी नदी के तट पर गंगोत्री चार धामों में से एक है। जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से इसकी दूरी 97 किमी है। यहाँ पहुंचकर गंगा उत्तर की ओर बहने लगती है, इसलिए इसे उतर की ओर गंगा यानि गंगोत्री कहा जाता है। गंगोत्री को सामान्यतः गंगा नदी का उद्गम माना जाता है लेकिन गंगा नदी का उद्गम गंगोत्री धाम से 17 किमी आगे गौमुख ग्लेशियर से है। गंगा से ही गंगोत्री नाम कहा जाता है लेकिन यहां इसके प्रवाह को भागीरथी कहा जाता है। देवप्रयाग में भागीरथी, अलकनंदा और मन्दाकिनी के मिल जाने के बाद से इसे गंगा कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार गंगोत्री ही वह जगह है जहां भगीरथ ने गंगा को धरती पर ले आने के लिए घोर तपस्या की थी। भगीरथ के पूर्वज कपिल मुनि के क्रोध से भस्मीभूत हो गए थे। अपने इन्हीं पूर्वजों, जोकि सगर के पुत्र थे, के तारण के लिए वे गंगा को धरती पर लाना चाहते थे। उन्होंने श्रीमुख पर्वत पर घोर तपस्या की और ब्रह्मा के कमंडल में रहने वाली गंगा को धरती पर आने के लिए राजी कर लिया। उस समय सवाल यह था कि गंगा जब धरती पर आएगी तो उसके प्रचंड वेग को कौन संभालेगा। इसके लिए देवों के देव महादेव शिव राजी हुए। शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को संभाल लिया। वहां से भगीरथ अपने तप के प्रताप से गंगा को गंगासागर ले गए। उन्हीं राजा भगीरथ का मंदिर भी गंगोत्री में है। यह भी कहा जाता है कि महाभारत में पांडवों द्वारा गोत्र, गुरु, बंधु हत्या के बाद जब शिव उनसे नाराज हो गए थे तो पांडवों ने गंगोत्री में ही शिव की आराधना की। गंगोत्री में भगवान शिव के दर्शन करने के बाद पांडव स्वर्गारोहिणी के लिए निकल पड़े थे। यहाँ पर भगीरथ के मंदिर के अलावा गंगा का मंदिर भी है। कहते हैं कि पहले कभी यहाँ कोई मंदिर नहीं था। उन्नीसवीं सदी में गोरखा शासक अमर सिंह थापा ने यहाँ एक छोटा सा मंदिर बनवाया था। यह मंदिर उसी शिला पर बनाया गया था जिस पर बैठकर भगीरथ ने तपस्या की थी। अमर सिंह थापा ने ही मुखबा के सेमवाल ब्राह्मणों को यहाँ का पुजारी नियुक्त किया। मुखबा गांव ही गंगा का शीतकालीन प्रवास भी है। शीतकाल में जब गंगोत्री के कपाट बंद कर दिए जाते हैं तब उनकी पूजा-अर्चना मुखबा के गंगा मंदिर में ही की जाती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि वर्तमान मंदिर का निर्माण जयपुर के राजपूत राजाओं द्वारा करवाया गया था। इस मंदिर में मां गंगा की भव्य प्रतिमा है। इसके अलावा जाह्नवी, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा, भागीरथी, सरस्वती तथा आदि शंकराचार्य की मूर्तियाँ भी इस मंदिर में हैं। गंगोत्री में मौजूद भगीरथ शिला के पास ही ब्रह्म कुंड, सूर्यकुंड, विष्णु कुंड है, जहां पर श्रद्धालु गंगा स्नान के बाद अपने पितरों का पिंडदान किया करते हैं। गंगोत्री मंदिर को लेकर प्रचलित है कई किवदंतियां राजा सागर ने पृथ्वी पर राक्षसों का वध करने के बाद, अपने वर्चस्व की घोषणा के रूप में एक अश्वमेध यज्ञ का मंचन करने का फैसला किया था। पृथ्वी के चारों ओर एक निर्बाध यात्रा पर जो घोड़ा ले जाया जाना था, उसका प्रतिनिधित्व, महारानी सुमति के 60,000 पुत्रों एवं दूसरी रानी केसनी से हुए पुत्र असमंजा के द्वारा किया जाना था। देवताओं के सर्वोच्च शासक इंद्र को डर था कि अगर वह ‘यज्ञ’ सफल हो गया तो वह अपने सिंहासन से वंचित हो सकते हैं। उन्होंने फिर घोड़े को उठाकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया, जो उस समय गहन ध्यान में थे। राजा सगर के पुत्रों ने घोड़े की खोज की और आखिरकार उसे ध्यानमग्न कपिल मुनि के पास बंधा पाया। राजा सागर के साठ हजार क्रोधित पुत्रों ने ऋषि कपिल के आश्रम पर धावा बोल दिया। जब कपिल मुनि ने अपनी आँखें खोलीं, तो उनके श्राप से राजा सागर के 60,000 पुत्रो की मृत्यु हो गयी। माना जाता है कि राजा सगर के पौत्र भागीरथ ने देवी गंगा को प्रसन्न करने के लिए अपने पूर्वजों की राख को साफ करने और उनकी आत्मा को मुक्ति दिलाने के लिए उनका ध्यान किया, उन्हें मोक्ष प्रदान किया। एक अन्य किंवदंती यह है कि गंगा भगवान ब्रह्मा के जलपात्र से उत्पन्न हुई एक सुंदर जीवंत युवती थी। गंगा के जन्म के बारे में दो संस्करण हैं। एक के अनुसार भगवान ब्रह्मा ने भगवान विष्णु के पैरों को धोया था, और इस पानी को अपने कमंडलु में एकत्र किया क्योंकि उनके वामन रूप ने पुनर्जन्म में राक्षस बाली से ब्रह्माण्ड को छुटकारा दिलाया था। दूसरी किंवदंती के अनुसार गंगा एक मानव रूप में पृथ्वी पर आई और राजा शांतनु से विवाह किया। जिनके साथ पुत्र पैदा हुए जिनमें से सभी को उसने अस्पष्ट तरीके से नदी में फेंक दिया गया। आठवां पुत्र भीष्म राजा शांतनु के हस्तक्षेप के कारण, बच गया। हालांकि, गंगा ने फिर उसे छोड़ दिया। भीष्म महाभारत के भव्य महाकाव्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गंगोत्री धाम के पास मौजूद है निकटवर्ती आकर्षण स्थान गौमुख गंगोत्री से 19 किलोमीटर दूर 3,892 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गौमुख गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना तथा भागीरथी नदी का उद्गम स्थल है। कहते हैं कि यहां के बर्फिले पानी में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। गंगोत्री से यहां तक की दूरी पैदल या फिर ट्ट्टुओं पर सवार होकर पूरी की जाती है। चढ़ाई उतनी कठिन नहीं है तथा कई लोग उसी दिन वापस भी आ जाते है। गंगोत्री में कुली एवं ट्ट्टु उपलब्ध होते हैं। 25 किलोमीटर लंबा, 4 किलोमीटर चौड़ा तथा लगभग 40 मीटर ऊंचा गौमुख अपने आप में एक परिपूर्ण माप है। इस गोमुख ग्लेशियर में भगीरथी एक छोटी गुफानुमा ढांचे से आती है। इस बड़ी बर्फानी नदी में पानी 5,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक बेसिन में आता है, जिसका मूल पश्चिमी ढलान पर से संतोपंथ समूह की चोटियों से है। मुखबा गांव इस गांव के निवासी ही गंगोत्री मंदिर के पुजारी हैं जहां मुखीमठ मंदिर भी है। प्रत्येक वर्ष गंगोत्री मंदिर बंद होने पर जाड़ों में देवी गंगा को बाजे एवं जुलुस के साथ इस गांव में लाया जाता है। इसी जगह जाड़ों के 6 महीनों, बसंत आने तक गंगा की पूजा होती है जब प्रतिमा को गंगोत्री वापस लाया जाता है। केदार खंड में मुख्यमठ की तीर्थयात्रा को महत्वपूर्ण माना गया है। इससे सटा है मार्कण्डेयपुरी, जहां मार्कण्डेय मुनि के तप किया तथा उन्हें भगवान विष्णु द्वारा सृष्टि के विनाश का दर्शन कराया गया। पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी प्रकार से मातंग ऋषि ने वर्षों तक बिना कुछ खाये-पीये यहां तप किया। भैरों घाटी धाराली से 16 किलोमीटर तथा गंगोत्री से 9 किलोमीटर भैरों घाटी, जध जाह्नवी गंगा तथा भागीरथी के संगम पर स्थित है। यहां तेज बहाव से भागीरथी गहरी घाटियों में बहती है, जिसकी आवाज कानों में गर्जती है। वर्ष 1985 से पहले जब संसार के सर्वोच्च जाधगंगा पर झूला पुल सहित गंगोत्री तक मोटर गाड़ियों के लिये सड़क का निर्माण नहीं हुआ था, तीर्थयात्री लंका से भैरों घाटी तक घने देवदारों के बीच पैदल आते थे और फिर गंगोत्री जाते थे। भैरों घाटी हिमालय का एक मनोरम दर्शन कराता है, जहां से आप भृगु पर्वत श्रृंखला, सुदर्शन, मातृ तथा चीड़वासा चोटियों के दर्शन कर सकते हैं। हर्षिल भटवारी से 43 किलोमीटर तथा गंगोत्री से 20 किलोमीटर दूर स्थित हर्षिल का वर्णन सिर्फ एक शब्द में हो सकता हैः अलौकिक। यह हिमाचल प्रदेश के बस्पा घाटी के ऊपर स्थित एक बड़े पर्वत की छाया में, भागीरथी नदी के किनारे, जलनधारी गढ़ के संगम पर एक घाटी में अवस्थित है। बस्पा घाटी से हर्षिल लमखागा दर्रे जैसे कई रास्तों से जुड़ा है। मातृ एवं कैलाश पर्वत के अलावा उसकी दाहिनी तरफ श्रीकंठ चोटी है, जिसके पीछे केदारनाथ तथा सबसे पीछे बदंरपूंछ आता है। यह वन्य बस्ती अपने प्राकृतिक सौंदर्य एवं मीठे सेब के लिये मशहूर है। हर्षिल के आकर्षण में हवादार एवं छाया युक्त सड़क, लंबे कगार, ऊंचे पर्वत, कोलाहली भागीरथी, सेबों के बागान, झरनें, सुनहले तथा हरे चारागाह आदि शामिल हैं। नंदनवन तपोवन गंगोत्री से 25 किलोमीटर दूर गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर एक कठिन ट्रेक में नंदनवन ले जाती है जो भागीरथी चोटी के आधार शिविर गंगोत्री से 25 किलोमीटर दूर है। यहां से शिवलिंग चोटी का मनोरम दृश्य दिखता है। गंगोत्री नदी के मुहाने के पार तपोवन है जो यहां अपने सुंदर चारागाह के लिये मशहूर है तथा शिवलिंग चोटी के आधार के चारों तरफ फैला है। गंगोत्री चिरबासा गौमुख के रास्ते पर 3,600 फीट ऊंचे स्थान पर स्थित चिरबासा एक अत्युत्तम शिविर स्थल है जो विशाल गौमुख ग्लेशियर का आश्चर्यजनक दर्शन कराता है। चिरबासा का अर्थ है चिर का पेड़। यहां से 6,511 मीटर ऊंचा मांडा चोटी, 5,366 मीटर पर हनुमान तिब्बा, 6,000 मीटर ऊंचा भृगु पर्वत तथा भागीरथी 1, 2,एवं 3 देख सकते हैं। चिरबासा की पहाड़ियों के ऊपर घूमते भेड़ों को देखा जा सकता है। गंगोत्री-भोजबासा भोजपत्र पेड़ों की अधिकता के कारण भोजबासा गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर है। यह जाट गंगा तथा भागीरथी नदी के संगम पर है। गौमुख जाते हुए इसका उपयोग पड़ाव की तरह होता है। मूल रूप से लाल बाबा द्वारा निर्मित एक आश्रम में मुफ्त भोजन का लंगर चलाता है तथा गढ़वाल मंडल विकास निगम का गृह, आवास प्रदान करता है। केदारताल केदार ग्लेशियर के पिघलते बर्फ से बनी यह झील भागीरथी की सहायक केदार गंगा का उद्गम स्थल है। गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर इस मनोरम झील तक की चढ़ाई में अनुभवी आरोहियों की भी परीक्षा होती है। बहुत ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों पर चढ़ने के लिये एक मार्गदर्शक की नितांत आवश्यकता होती है। रास्ते में किसी प्रकार की सुविधा नहीं है इसलिये सब कुछ पहले प्रबन्ध करना होता है। झील पूर्ण साफ है, जहां विशाल थलयसागर चोटी है। यह स्थान समुद्र तल से 15,000 फीट ऊंचा है तथा थलयसागर जोगिन, भृगुपंथ तथा अन्य चोटियों पर चढ़ने के लिये यह आधार शिविर है। Dev Bhoomi | Devastha
भगवान विष्णु को समर्पित अंकोरवाट मंदिर को हिन्दू धर्म के सबसे बड़े मंदिर जाने का गौरव प्राप्त है। पर रोचक तथ्य ये है कि ये मंदिर भारत में है ही नहीं। हिन्दू धर्म के आराध्य देव भगवान विष्णु को समर्पित ये मंदिर कंबोडिया में स्थित है। यह मंदिर कंबोडिया के अंकोर में है जिसका पुराना नाम 'यशोधरपुर' था। इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय ने 1112-53ई. में करवाया था। कंबोडिया में बड़ी संख्या में हिन्दू और बौद्ध मंदिर हैं, जो इस बात की गवाही देते हैं कि कभी यहां भी हिन्दू धर्म अपने चरम पर था। मीकांग नदी के किनारे सिमरिप शहर में बना यह मन्दिर आज भी संसार का सबसे बड़ा मन्दिर है जो सैकड़ों वर्ग मील में फैला हुआ है। 402 एकड़ जमीन में फैले अंकोरवाट का नाम गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज है। राष्ट्र के लिए सम्मान के प्रतीक इस मन्दिर को कंबोडिया के राष्ट्रध्वज में भी स्थान दिया गया है। यह मन्दिर मेरु पर्वत का भी प्रतीक है। इसकी दीवारों पर भारतीय हिन्दू धर्म ग्रंथों के प्रसंगों का चित्रण है। विश्व के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थानों में से एक होने के साथ ही यह मन्दिर यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से एक है। पर्यटक यहाँ केवल वास्तुशास्त्र का अनुपम सौंदर्य देखने ही नहीं आते बल्कि यहाँ का सूर्योदय और सूर्यास्त देखने भी आते हैं। कहते हैं कि राजा सूर्यवर्मन हिंदू देवी-देवताओं से नजदीकी बढ़ाकर अमर होना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपने लिए एक विशिष्ट पूजा स्थल बनवाया, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की ही पूजा होती थी। आज वही मंदिर अंकोरवाट के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर के बारे में यह भी कहा जाता है कि स्वयं देवराज इन्द्र ने महल के तौर पर अपने बेटे के लिए इस मंदिर का निर्माण करवाया था। यह मन्दिर एक ऊंचे चबूतरे पर स्थित है। इसमें तीन खण्ड हैं। हर खंड में 8 गुम्बज हैं। इनमें सुन्दर मूर्तियां हैं और ऊपर के खण्ड तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां हैं। मुख्य मन्दिर तीसरे खण्ड की चौड़ी छत पर है, जिसका शिखर 213 फीट ऊंचा है। मंदिर के चारों ओर पत्थर की दीवार का घेरा है जो पूर्व से पश्चिम की ओर करीब दो-तिहाई मील एवं उत्तर से दक्षिण की ओर आधे मील लंबा है। इस दीवार के बाद लगभग 700 फुट चौड़ी खाई है, जिस पर 36 फुट चौड़ा पुल है। इस पुल से पक्की सड़क मंदिर के पहले खण्ड द्वार तक है। मंदिर की रक्षा करती है 330 फुट चौड़ी खाई अंकोरवाट के चारों ओर 330 फुट चौड़ी खाई है जो सदा जल से भरी रहती थी। इस मंदिर में अनेक भव्य और विशाल महाद्वार बने हैं। महाद्वारों के ऊँचे शिखरों को त्रिशीर्ष दिग्गज अपने मस्तक पर उठाए खड़े हैं। विभिन्न द्वारों से पाँच विभिन्न राजपथ नगर के मध्य तक पहुँचते हैं। विभिन्न आकृतियों वाले सरोवरों के खण्डहर आज अपनी जीर्णावस्था में भी निर्माणकर्ता की प्रशस्ति गाते हैं। नगर के ठीक बीचों बीच शिव का एक विशाल मंदिर है जिसके तीन भाग हैं। प्रत्येक भाग में एक ऊँचा शिखर है। मध्य शिखर की ऊँचाई लगभग 150 फुट है। इस ऊँचे शिखरों के चारों ओर अनेक छोटे-छोटे शिखर बने हैं जो संख्या में लगभग 50 हैं। इन शिखरों के चारों ओर समाधिस्थ शिव की मूर्तियां स्थापित हैं। मंदिर की विशालता और निर्माण कला आश्चर्यजनक है। उसकी दीवारों को पशु, पक्षी, पुष्प एवं नृत्यांगनाओं जैसी विभिन्न आकृतियों से अलंकृत किया गया है। यह मन्दिर वास्तुकला की दृष्टि से अद्भुत है। मंदिर में है हिन्दू धर्म से संबंधित शिलाचित्र मन्दिर के गलियारों में तत्कालीन सम्राट, बलि-वामन, स्वर्ग-नरक, समुद्र मंथन, देव-दानव युद्ध, महाभारत, हरिवंश पुराण तथा रामायण से संबद्ध अनेक शिलाचित्र हैं। यहाँ के शिलाचित्रों में रूपायित राम कथा बहुत संक्षिप्त है। इन शिला चित्रों की श्रंखला रावण वध हेतु देवताओं द्वारा की गयी आराधना से आरम्भ होती है। उसके बाद सीता स्वयंवर का दृश्य है। बालकांड की इन दो प्रमुख घटनाओं की प्रस्तुति के बाद विराध एवं कबन्ध वध का चित्रण हुआ है। अगले शिलाचित्र में राम धनुष-बाण लिए स्वर्ण मृग के पीछे दौड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं। इसके उपरान्त सुग्रीव से राम की मैत्री का दृश्य है। फिर, बाली और सुग्रीव के द्वन्द्व युद्ध का चित्रण हुआ है। परवर्ती शिलाचित्रों में अशोक वाटिका में हनुमान की उपस्थिति, राम-रावण युद्ध, सीता की अग्नि परीक्षा और राम की अयोध्या वापसी के दृश्य हैं। अंकोरवाट के शिलाचित्रों में रूपायित राम कथा यद्यपि अत्यधिक विरल और संक्षिप्त है, तथापि यह महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसकी प्रस्तुति आदिकाव्य की कथा के अनुरूप हुई है। अंकोरवाट में बौद्ध धर्म का भी पड़ा गहरा प्रभाव अंकोरवाट के हिन्दू मन्दिरों पर बाद में बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा और कालान्तर में उनमें बौद्ध भिक्षुओं ने निवास भी किया। अंकोरवाट में 20वीं सदी के आरम्भ में जो पुरातात्विक खुदाइयाँ हुई हैं उनसे ख्मेरो के धार्मिक विश्वासों, कलाकृतियों और भारतीय परम्पराओं की प्रवासगत परिस्थितियों पर बहुत प्रकाश पड़ा है। कला की दृष्टि से अंकोरवाट अपने महलों और भवनों तथा मंदिरों और देवालयों के खण्डहरों के कारण संसार के उस दिशा के शीर्षस्थ क्षेत्र बन गए हैं। जगत के विविध भागों से हजारों पर्यटक उस प्राचीन हिन्दू-बौद्ध-केन्द्र के दर्शनों के लिए वहाँ प्रति वर्ष जाते हैं। पश्चिम दिशा की ओर स्थित है मंदिर का मुख्य द्वार इस मंदिर की अनेक विशेषताएं हैं, जो इस दूसरे मंदिरों से अलग करती है। सामान्य तौर पर हिन्दू मंदिरों और तीर्थ स्थलों का मुख्य द्वार पूर्व की ओर होता है लेकिन अंकोरवाट मंदिर का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा की ओर बना है। यह मंदिर सूर्यास्त के समय सूर्यदेव को नमन करता हुआ प्रतीत होता है और ढलते सूरज की रोशनी इसकी सुंदरता को कई गुना तक बढ़ा देती है। अंकोरवाट मंदिर से जुड़ी मुख्य बातें -अंकोरवाट कंबोडिया में एक मंदिर परिसर और दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक स्मारक है, जो 162.6 हेक्टेयर यानी करीब 2 किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। -यह मूल रूप से खमेर साम्राज्य के लिए भगवान विष्णु के एक हिंदू मंदिर के रूप में बनाया गया था, जो धीरे-धीरे 12 वीं शताब्दी के अंत में बौद्ध मंदिर में बदल गया। -यह कंबोडिया के अंकोर में है जिसका पुराना नाम यशोधरपुर था। इसका निर्माण 1112 से 1153 ई सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय के शासनकाल में हुआ था। -यह मंदिर लम्बे समय तक गुमनाम रहा। 19वीं शताब्दी के मध्य में एक फ्रांसीसी पुरातत्वविद हेनरी महोत के कारण अंकोरवाट मंदिर फिर से अस्तित्व में आया। -वर्ष 1986 से लेकर वर्ष 1993 तक भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस मंदिर के संरक्षण का जिम्मा संभाला था। फ्रांस से आजादी मिलने के बाद अंकोरवाट मंदिर कंबोडिया देश का प्रतीक बन गया। राष्ट्र के लिए सम्मान के प्रतीक इस मंदिर को 1983 से कंबोडिया के राष्ट्रध्वज में भी स्थान दिया गया है। -विश्व के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक होने के साथ ही यह मंदिर यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से एक है।
भारत रहस्यों का गढ़ है। ओडिशा के कोर्णाक में स्थित सूर्य मंदिर के साथ जुड़े तथ्य भी रहस्यमयी है। ओडिशा के कोर्णाक में स्थित सूर्य देव का कोणार्क मंदिर अपनी पौराणिकता और आस्था के लिए विश्व भर में मशहूर है। इसके साथ ही और भी कई कारण हैं, जिसकी वजह से इस मंदिर को देखने के लिए दुनिया के कोने-कोने से लोग यहां आते हैं। ये मंदिर ओडिशा की मध्यकालीन वास्तुकला का अनोखा नमूना है और इसी वजह से साल 1984 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है। कोर्णाक मंदिर के गर्भगृह में स्थापित किए गए सूर्य भगवान के साक्षात दर्शन करने का सौभाग्य कम ही लोग को मिल पाता है। कहा जाता है कि इस मंदिर में 52 टन का विशालकाय चुंबक लगा हुआ था। हिन्दू मान्यता के अनुसार, सूर्य देवता के रथ में बारह जोड़ी पहिए मौजूद हैं। साथ ही 7 घोड़े भी हैं जो रथ को खींचते हैं। यह 7 घोड़े 7 दिन के प्रतीक हैं। वहीं, 12 जोड़ी पहिए दिन के 24 घंटों के प्रतीक हैं। कई लोग तो यह भी कहते हैं कि यह 12 पहिए साल के 12 वर्षों के प्रतीक हैं। इनमें 8 ताड़ियां भी मौजूद हैं जो दिन के 8 प्रहर का प्रतीक है। यह मंदिर सूर्य देवता के रथ के आकार का ही बनाया गया है। कोर्णाक मंदिर में भी घोड़े और पहिए हैं। यह मंदिर बेहद खूबसूरत और भव्य है। यहां पर दूर-दूर से पर्यटक आते हैं। माना जाता है कि कोणार्क मंदिर को पहले समुद्र के किनारे में बनाया गया था लेकिन समंदर धीरे-धीरे कम होता गया और मंदिर भी समंदर के किनारे से थोडा दूर हो गया और मंदिर के गहरे रंग के लिये इसे काला पगोडा कहा जाता है और नकारात्मक ऊर्जा को कम करने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है। कहा जाता है कि सूर्य देव की आराधना मात्र से सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है। इसके अतिरिक्त रविवार को सूर्यदेव की पूजा से समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। इनकी भक्ति करने से जीवन में सुख, शांति, सफलता, अच्छी सेहत व यश की प्राप्ति होती है। राजा नरसिंह देव ने करवाया था मंदिर का निर्माण : ओडिशा के कोर्णाक में स्थित सूर्य मंदिर का निर्माण राजा नरसिंह देव ने 13वीं शताब्दी में करवाया था। अपने विशिष्ट आकार और शिल्पकला के लिए यह मंदिर पूरे विश्व में जाना जाता है। मान्यता है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों पर सैन्य बल की सफलता का जश्न मनाने के लिए राजा नरसिंह देव ने कोणार्क में सूर्य मंदिर का निर्माण कराया था, लेकिन 15वीं शताब्दी में मुस्लिम सेना ने यहां लूटपाट मचा दी थी। इस समय सूर्य मंदिर के पुजारियों ने यहां स्थापित मूर्ति को पुरी में ले जाकर रख दिया था, लेकिन मंदिर नहीं बच सका। पूरा मंदिर काफी क्षतिग्रस्त हो गया था। फिर धीरे-धीरे मंदिर पर रेत जमा होती रही और मंदिर पूरा रेत से ढक गया। फिर 20वीं सदी में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत रीस्टोरेशन का काम हुआ और इसी में सूर्य मंदिर खोजा गया। कोणार्क सूर्य मन्दिर का पौराणिक महत्व: यहां के बाशिंदे इस मंदिर को बिरंचि नारायण भी कहते थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब, उनके श्राप से कोढ़ रोगी बन गए थे। साम्ब ने कोणार्क के मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर करीबन बारह वर्षों तक तपस्या की। उन्होंने सूर्यदेव को प्रसन्न किया। सूर्यदेव ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर साम्ब के रोग का भी निवारण कर दिया। फिर साम्ब ने सूर्य भगवान का एक मंदिर बनवाया। अपने रोगों से मुक्ति पाने के बाद वह चंद्रभागा नदी में स्नान करने गया। वहां उसे एक सूर्यदेव की मूर्ति मिली। इस मूर्ति को सूर्यदेव के शरीर के ही भाग से बनाया गया था। इसे भगवान विश्वकर्मा ने बनाई थी। साम्ब ने इस मूर्ति को अपने बनवाए मित्रवन में स्थापित किया था। कोणार्क मंदिर के चुंबकीय पत्थर का राज : दंतकथाओं के अनुसार सूर्य मंदिर के शीर्ष पर एक चुंबकीय पत्थर रखा हुआ है। कहा जाता है कि चुंबकीय पत्थर का इतना प्रभाव है कि समुंद्र में गुजरने वाली प्रत्येक पानी की जहाज, इस मंदिर की ओर अपने आप ही खींची चली आती थी। इस वजह से पानी के जहाजों को भारी नुकसान उठाना पड़ता था और वह अक्सर अपने रास्ते से भटक जाया करते थे। कहा जाता है कि जो भी समुंद्र नाविक अपने जहाज को लेकर मंदिर के रास्ते से होकर गुजरते थे, उनका चुंबकीय दिशा सूचक यंत्र अपनी दिशा को सही से नहीं बताता था और वह दिशा से भटक जाते थे। इसलिए कहा जाता है कि कुछ नाविकों इस पत्थर को निकाल कर अपने साथ लेकर चले गए थे। आज भी सुनाई देती है पायलों की झंकार ! कुछ स्थानीय लोगों के अनुसार, आज भी इस मंदिर में पायलों की हल्की सी झंकार सुनाई देती है। पुराने समय में सूर्य देव की आराधना के तौर पर नर्तकियां नृत्य किया करती थीं, जिनकी पायलों की आवाज आज भी प्रांगण में सुनाई देती है। हालाँकि हम इस बात की पुष्टि नहीं करते। ऐसे ध्वस्त हुआ मंदिर ! माना जाता है कि यह मंदिर अपने वास्तु दोषों के कारण मात्र 800 वर्षों में ही ध्वस्त हो गया। कहते है यह इमारत वास्तु-नियमों के विरुद्ध बनी थी। मंदिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व दिशा, एवं आग्नेय एवं ईशान कोण खंडित हो गए। कोणार्क मंदिर के गिरने से संबंधी एक कथा कालापहाड से जुड़ी है। ओडिशा के इतिहास के अनुसार कालापहाड़ ने सन 1508 में यहां आक्रमण किया, और कोणार्क मंदिर समेत ओडिशा के कई हिन्दू मंदिर ध्वस्त कर दिये। हालांकि कोणार्क मंदिर की 20-25 फीट मोटी दीवारों को तोड़ना असम्भव था, पर उसने किसी प्रकार से दधिनौति को हिलाने का प्रयोजन कर लिया, जो कि इस मंदिर के गिरने का कारण बना। उसने यहां की अधिकांश मूर्तियां और कोणार्क के अन्य कई मंदिर भी ध्वस्त कर दिए थे। नहीं होती पूजा : आश्चर्य की बात है कि इस मंदिर में आजतक पूजा नहीं हुई, एक तरफ़ जिसे मंदिर कहा जाये वहीं पूजा न हो ये भी किसी अचम्भे से कम नहीं है। यहां के स्थानीय लोगों की अगर माने तो आज तक इस मंदिर में कभी पूजा नहीं हुई। कहा जाता है कि मंदिर के प्रमुख वास्तुकार के पुत्र ने राजा द्वारा उसके पिता के बाद इस निर्माणाधीन मंदिर के अंदर ही आत्महत्या कर ली जिससे बाद से इस मंदिर में पूजा या किसी भी धार्मिक अनुष्ठान पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगा दिया गया। यूनेस्को द्वारा मिली मान्यता: कलिंग शैली में निर्मित यह मंदिर अपनी अद्भुत स्थापत्य कला व पत्थरों पर की गई उत्कृष्ट नक्काशी से हर किसी को आश्चर्य में डाल देता है। इन सभी विशेषताओं के कारण वर्ष 1984 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल का दर्जा दिया था। आज कोणार्क मंदिर न केवल आस्था का केंद्र बना हुआ है बल्कि पर्यटकों के लिए भी मनपसंद स्टेशन के तौर पर उभरा है।
पुरे देश में दिवाली का पर्व 4 नवंबर को मनाया जा चुका है लेकिन देवभूमि हिमाचल के जिला सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र की करीब सवा सौ पंचायतों में दिवाली अभी बाकी है। इन क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली की तैयारियां हो चुकी हैं। यहां बूढ़ी दिवाली को ‘मशराली’ के नाम से मनाया जाता है। दिवाली के एक माह बाद अमावस्या को गिरिपार क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली को हर साल हर्षोल्लास एवं पारंपरिक तरीके के साथ मनाया जाता है। गिरिपार के अतिरिक्त शिमला जिला के कुछ गांव, उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र एवं कुल्लू जिला के निरमंड में भी बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। दरअसल गिरिपार क्षेत्र में किवदंती है कि यहां भगवान श्री राम के अयोध्या पहुंचने की खबर एक महीना देरी से मिली थी। इसके चलते यहाँ के लोग एक महीना बाद दिवाली का पर्व मनाते है जिसे आम भाषा में बूढी दिवाली कहा जाता हैं। हालांकि यहाँ मुख्य दिवाली भी धूमधाम से मनाया जाती है। इन क्षेत्रों में बलिराज के दहन की प्रथा भी है। विशेषकर कौरव वंशज के लोगों द्वारा अमावस्या की आधी रात में पूरे गांव की मशाल के साथ परिक्रमा करके एक भव्य जुलूस निकाला जाता है और बाद में गांव के सामूहिक स्थल पर एकत्रित घास, फूस तथा मक्की के टांडे में अग्नि देकर बलिराज दहन की परंपरा निभाई जाती है। वहीँ पांडव वंशज के लोग ब्रह्म मुहूर्त में बलिराज का दहन करते हैं। मान्यता है कि अमावस्या की रात को मशाल जुलूस निकालने से क्षेत्र में नकारात्मक शक्तियों का प्रवेश नहीं होता और गांव में समृद्धि के द्वार खुलते है। बनते है विशेष व्यंजन, नृृत्य करके होता है जश्न बूढ़ी दिवाली के उपलक्ष्य पर ग्रामीण पारंपरिक व्यंजन बनाने के अतिरिक्त आपस में सूखे व्यंजन मूड़ा, चिड़वा, शाकुली, अखरोट वितरित करके दिवाली की शुभकामनाएं देते हैं। दीवाली के दिन उड़द भिगोकर, पीसकर, नमक मसाले मिलाकर आटे के गोले के बीच भरकर पहले तवे पर रोटी की तरह सेंका जाता है फिर सरसों के तेल में फ्राई कर देसी घी के साथ खाया जाता है। इसके बाद 4 से 5 दिनों तक नाच गाना और दावतों का दौर चलता है। परिवारों में औरतें विशेष तरह के पारंपरिक व्यंजन तैयार करती हैं। सिर्फ बूढ़ी दिवाली के अवसर पर बनाए जाने वाले गेहूं की नमकीन यानी मूड़ा और पापड़ सभी अतिथियों को विशेष तौर पर परोसा जाता है। इसके अतिरिक्त स्थानीय ग्रामीण द्वारा हारूल गीतों की ताल पर लोक नृत्य होता है। ग्रामीण इस त्यौहार पर अपनी बेटियों और बहनों को विशेष रूप से आमंत्रित करते हैं। ग्रामीण परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ साथ हुड़क नृृत्य करके जश्न मनाते हैं। कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है जबकि कुछ गांव में अर्ध रात्रि के समय एक समुदाय के लोगों द्वारा बुड़ियात नृत्य करके देव परंपरा को निभाया जाता है। उत्तराखंड के जौनसार बावर में भी बूढ़ी दीपावली मनाने की परंपरा कायम पूरे देश में अनूठी संस्कृति और परंपराओं के लिए मशहूर उत्तराखंड के जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर में भी बूढ़ी दीपावली मनाने की परंपरा कायम है। यहां पर देश की दीपावली के एक माह के बाद दीपावली मनाने की परंपरा है। यहां पांच दिन तक ईको फ्रेंडली दीपावली का जश्न मनाया जाता है। ख़ास बाते ये है कि इस जश्न में न पटाखों का शोर रहता है और न ही बेवजह का खर्च। बल्कि पारम्परिक तरीके से भीमल की लकड़ी की मशाल जलाकर दिवाली का जश्न मनाया जाता है। तीन सौ से ज्यादा राजस्व गांवों और खेड़े मजरों के पंचायती आंगनों में ग्रामीण महिलाएं और पुरुष सामूहिक नृत्य से लोक संस्कृति का नज़ारा पेश करते हैं। अतीत की ये परंपरा आज भी बरकरार हैं। लोग बेहद आत्मीयता ढंग से इस त्यौहार को मनाते हैं, जिसमें स्थानीय फसलों के पकवान भी बनाये जाते हैं। परंपरा के मुताबिक, यहाँ पतली लकड़ियों को ढेर बनाया जाता है, फिर रात को भीमल की लकड़ियों की मशाल बनाई जाती है। रात के वक़्त सभी पुरुष होला को जलाकर ढोल दमाऊ के साथ नाचते-गाते हुए मशाल जलाते हैं, जिसके बाद दीपावली के गीत गाते हुए वापस गांव आते हैं, जबकि दूसरे दिन गांव के पंचायती आंगन के अंदर अलाव जला दिया जाता है। जौनसार-बावर परगने के सीमांत तहसील त्यूणी, चकराता और कालसी तीनों तहसील से जुड़े करीब चार सौ गांवों और इतने ही तोक-मजरों को 39 खतों में बांटा गया है। देहरादून जनपद के सुदूरवर्ती जौनसार-बावर और पछवादून के बिन्हार क्षेत्र में ठीक इसके उलट एक माह बाद पहाड़ी बूढ़ी दीवाली परपंरागत तरीके से मनाई जाती है। बावर क्षेत्र के सिद्ध पीठ श्री महासू देवता मंदिर हनोल, बाशिक महासू व देवलाड़ी माता मंदिर मैंद्रथ, देवघार के अणू, फेडिज, शेडकुडिया महाराज मंदिर रायगी समेत पांच गांवों में पहले से नई दीवाली मनाई जाती है। इसके अलावा जौनसार-बावर के अन्य गांवों में देशवासियों के दीपावली मनाने के ठीक एक माह बाद बूढ़ी दीवाली मनाने की परंपरा हमेशा से रही है। क्यों मनाते हैं एक माह बाद दिवाली ! दीवाली मनाने के बाद पहाड़ में बूढ़ी दीवाली मनाने के पीछे लोगों के अपने अपने तर्क हैं। जनजाति क्षेत्र के बड़े-बुजुर्गों की माने तो पहाड़ के सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की सूचना देर से मिलने के कारण लोग एक माह बाद पहाड़ी बूढ़ी दिवाली मनाते हैं। वहीं कुछ लोगों का मत है कि दिवाली के वक्त लोग खेतीबाड़ी के कामकाज में बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं जिस कारण वह इसके ठीक एक माह बाद बूढ़ी दीवाली का जश्न परंपरागत तरीके से मनाते हैं। वहीं, कुछ बुजुर्गों की मानें तो, जब जौनसार व जौनपुर क्षेत्र सिरमौर राजा के अधीन था, तो उस समय राजा की पुत्री दिवाली के दिन मर गई थी। इसके चलते पूरे राज्य में एक माह का शोक मनाया गया था. उसके ठीक एक माह बाद लोगों ने उसी दिन दिवाली मनाई। इस दौरान पहले दिन छोटी दिवाली, दूसरे दिन रणदयाला, तीसरे दिन बड़ी दिवाली, चौथे दिन बिरुड़ी व पांचवें दिन जंदौई मेले के साथ दीवाली पर्व का समापन होता है।
भारत वर्ष में अनेकों मंदिर है। हर मंदिर की अपनी विशेषता और महत्व है। ऐसा ही एक मंदिर महाराष्ट्र के अहमदनगर जिला के शिंगणापुर गांव में भगवान शनि को समर्पित है। इस मंदिर को शनि शिंगणापुर मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस बात पर यकीन करना मुश्किल है लेकिन इस गांव के किसी भी घर या दुकान में दरवाजा नहीं है। बीते कुछ समय में यह गांव अपनी इसी खासियत से देश-दुनिया में काफी मशहूर हुआ है। यहां जाने वाले आस्थावान लोग केसरी रंग के वस्त्र पहनकर ही जाते हैं। कहते हैं मंदिर में कथित तौर पर कोई पुजारी नहीं है, भक्त प्रवेश करके शनि देव जी के दर्शन करके सीधा मंदिर से बाहर निकल जाते हैं। रोजाना शनि देव की स्थापित मूर्ति पर सरसों के तेल से अभिषेक किया जाता है। मंदिर में आने वाले भक्त अपनी इच्छानुसार यहां तेल का चढ़ावा भी देते हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जो भी भक्त मंदिर के अंदर जाता है तो उसे केवल सामने की ओर देखते हुए ही जाना चाहिए। उसे पीछे से कोई भी आवाज लगाए तो मुड़कर नहीं देखना चाहिए। शनि देव को माथा टेक कर सीधा-सीधा बाहर आ जाना है, यदि पीछे मुड़कर देखा तो बुरा प्रभाव होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि एक बार इस गांव में काफी बाढ़ आ गई थी, गांव में जलस्तर इतना बढ़ गया था कि सब कुछ डूबने लगा था। लोग मानते है कि उस भयंकर बाढ़ के दौरान कोई दैवीय ताकत पानी में बह रही थी। जब पानी का स्तर कुछ कम हुआ तो एक व्यक्ति ने पेड़ की झाड़ पर एक बड़ा सा पत्थर देखा। वह पथर बेहद अजीबोगरीब था, लालचवश उस व्यक्ति ने उस पत्थर को नीचे उतारा और उसे तोड़ने के लिए जैसे ही उसमें कोई नुकीली वस्तु मारी उस पत्थर में से खून बहने लगा। यह देखकर वह व्यक्ति दंग रह गया और वहां से भाग गया। गांव वापिस लौटकर उसने सब लोगों को यह बात बताई। सभी दोबारा उस स्थान पर गांववासी पहुंचे, पर पत्थर को देखकर सभी भौचक्के रह गए। उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आखिरकार इस चमत्कारी पत्थर का क्या करें। उसी रात गांव के एक शख्स के सपने में भगवान शनि आए और बोले “मैं शनि देव हूं। जो पत्थर तुम्हें आज मिला उसे अपने गांव में लाओ और मुझे स्थापित करो।” अगली सुबह होते ही उस शख्स ने गांव वालों को सारी बात बताई, जिसके बाद सभी उस पत्थर को उठाने के लिए वापस उसी जगह लौटे। बहुत से लोगों ने पत्थर को उठाने का प्रयास किया, किंतु वह पत्थर अपनी जगह से एक इंच भी न हिला। काफी देर तक कोशिश करने के बाद गांव वालों वापस गांव लौटकर आये और उन्होंने निर्णय किया कि अगली सुबह पत्थर को उठाने आएंगे। उस रात फिर से शनि देव उस शख्स के सपने में आए और उसे यह बताया कि वह पत्थर कैसे उठाया जा सकता है। उन्होंने बताया कि उन्हें उस स्थान से केवल सगे मामा भांजा ही उठा सकते है। इसके बाद सगे मामा भांजे ने उस पत्थर को उठाकर एक बड़े से मैदान में सूर्य की रोशनी के तले स्थापित किया। तभी से यह मान्यता है कि इस मंदिर में यदि मामा-भांजा दर्शन करने जाते है तो अधिक फायदा होता है। गांव में नहीं होती चोरी शनिदेव के इस मंदिर में अद्भुत चमत्कार होते है। इस गांव के बारे में कहा जाता है कि यहां रहने वाले लोग अपने घरों में ताला नहीं लगाते हैं और आज तक के इतिहास में यहां किसी ने चोरी नहीं की और नहीं किसी के घर में चोरी हुई है। ऐसी मान्यता है कि बाहरी या स्थानीय लोगों ने यदि यहां किसी के भी घर से चोरी करने का प्रयास किया तो वह गांव की सीमा के पार नहीं जा पाता है, उसके गांव से निकलने से पूर्व ही शनि देव का प्रकोप उस पर हावी हो जाता है। उक्त चोर को अपनी चोरी कबूल भी करनी पड़ती है और शनि भगवान के समक्ष उसे माफी भी मांगनी पड़ती है। छाया पुत्र को नहीं जरूरत छाया की शनि शिंगणापुर की खास बात यह है कि यहाँ भगवान शनि मंदिर में विराजमान नहीं है। न ही उन ऊपर कोई छत्र है। यहां भगवान शनि देव मूर्ति के रूप में नहीं बल्कि एक काले लंबे पत्थर के रूप में विराजमान हैं। शनि भगवान की स्वयंभू मूर्ति काले रंग की है। 5 फुट 9 इंच ऊंची व 1 फुट 6 इंच चौड़ी यह मूर्ति संगमरमर के एक चबूतरे पर धूप में ही विराजमान है। यहां शनिदेव अष्ट प्रहर धूप हो, आंधी हो, तूफान हो या जाड़ा हो, सभी ऋतुओं में बिना छत्र धारण किए खड़े हैं। मूर्ति के आसपास वृक्ष है लेकिन उनसे छाया नहीं आती। शनिवार के दिन आने वाली अमावस को तथा प्रत्येक शनिवार को यहां शनि भगवान की विशेष पूजा और अभिषेक होता है। प्रतिदिन प्रातः 4 बजे एवं सायंकाल 5 बजे यहां आरती होती है। शनि जयंती पर जगह-जगह से प्रसिद्ध ब्राह्मणों को बुलाकर 'लघु रुद्राभिषेक' कराया जाता है। यह कार्यक्रम प्रातः 7 से सायं 6 बजे तक चलता है। मूलतः आध्यात्मिक है शनि ग्रह हिन्दू धर्म में मान्यता है कि शनि का मारा पानी नहीं मांगता। जब शनिदेव की दृष्टि व्यक्ति पर शुभ होती है तो रंक को राजा बनते देर नहीं लगती। वहीं, जब शनि की दृष्टि अशुभ होती है तो व्यक्ति राजा से रंक बन जाता है। पर शनि ग्रह मूलतः आध्यात्मिक है। महर्षि पाराशर ने बताया कि जिस अवस्था में शनि होगा उसका फल वैसा ही होगा। शनिदेव को नवग्रहों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है। श्री शनि देवता अत्यंत जाज्वल्यमान और जागृत देवता माने जाते हैं। शनि शिंगणापुर में हर वर्ग का व्यक्ति अपना माथा टेकता है। किसी के भी घर में नहीं है दरवाजा शनि शिंगणापुर गांव में करीब तीन हजार जनसंख्या है और यहां पर किसी के भी घर में दरवाजा नहीं है। साथ ही कुंडी और कड़ी भी घरों में नहीं है। यही नहीं, लोगों के घरों में अलमारी और सूटकेस जैसी चीजें भी नहीं हैं। लोगों का कहना है कि ऐसा शनि भगवान की आज्ञा से किया जाता है। लोग अपने घरों में किसी भी तरह की महंगी वस्तु, गहने, कपड़े, रुपये आदि के लिए डिब्बे या थैली का इस्तेमाल करते हैं। इस गांव में केवल पशुओं की रक्षा के लिए बांस का ढकना दरवाजे पर लगाया जाता है। महिलाओं को भीतरी गर्भगृह में जाने की नहीं थी अनुमति पहले महिलाओं को शनि शिंगणापुर मंदिर के गर्भगृह में जाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन 26 जनवरी 2016 को तिरुपति देसाई (सामाजिक कार्यकर्ता) के नेतृत्व में 500 से अधिक महिलाओं के एक समूह ने मंदिर तक मार्च किया। वे मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करना चाहते थे, लेकिन पुलिस ने रोक लिया। लेकिन 30 मार्च 2016 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को मंदिर के आंतरिक गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देने का आदेश दे दिया।
भारत में कई अद्भुत और चमत्कारिक मंदिर है। हर मंदिर की अपनी विशेषता और महत्व है। ऐसा ही एक मंदिर ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित है, लिंगराज मंदिर। यह मंदिर भुवनेश्वर के सबसे पुराने और अद्भुत मंदिरों में से एक है। लिंगराज मंदिर हिन्दू धर्म के आराध्य देव भगवान शिव के एक रूप हरिहर को समर्पित है। हरिहर का मतलब है -हरि है विष्णु जिन्हें शिव ने हरा है। यह मंदिर वैसे तो भगवान शिव को समर्पित है परन्तु शालिग्राम के रूप में भगवान विष्णु भी यहां मौजूद हैं। यह भारत का ऐसा इकलौता मंदिर है, जहां भगवान शंकर और भगवान विष्णु दोनों के ही रूप बसते हैं। इस मंदिर को लेकर एक कथा प्रचलित है, जिसका पुराणों में भी जिक्र मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव ने माता पार्वती से भुवनेश्वर शहर की चर्चा की। तब माता पार्वती ने निश्चय किया कि वह भुवनेश्वर शहर को खोज कर ही लौटेंगी। गाय का रूप धारण कर माता पार्वती भुवनेश्वर शहर की खोज में निकल पड़ी। जब माता शहर की खोजबीन कर रही थी तब दो राक्षस जिनका नाम लिट्टी एवं वसा था, माता पार्वती के पीछे पड़ गए और उनसे शादी का प्रस्ताव रखने लगे। हालांकि माता पार्वती ने उन्हें मना कर दिया, बावजूद इसके वह उनका पीछा करते रहे। अंत में माता पार्वती ने उन दोनों राक्षसों का वध कर दिया। लड़ाई के बाद जब माता पार्वती को प्यास लगी तो भगवान शिव अवतरित हुए और भगवान शिव ने कुआं बना कर सभी पवित्र नदियों का आह्वान किया। यहाँ पर उन्होंने बिन्दुसागर सरोवर का निर्माण किया और भुवनेश्वर शहर की खोज हुई। कहा जाता है कि भगवान शिव और माता पार्वती लंबे समय तक इस शहर में निवास करते रहे। बिंदुसार सरोवर के निकट ही लिंगराज का विशालकाय मंदिर है। सैकड़ों वर्षों से भुवनेश्वर यहीं पूर्वोत्तर भारत में शैव सम्प्रदाय का मुख्य केंद्र रहा है। कहते हैं कि मध्ययुग में यहाँ सात हज़ार से अधिक मंदिर और पूजा स्थल थे, जिनमें से अब क़रीब पाँच सौ ही शेष बचे हैं। लिंगराज का अर्थ होता है लिंगम के राजा, जो यहां भगवान शिव को कहा गया है। वास्तव में यहां शिव की पूजा कृतिवास के रूप में की जाती थी और बाद में भगवान शिव की पूजा हरिहर नाम से की जाने लगी। इतिहासकार फग्युर्सन का मानना है की इस मंदिर का निर्माण कार्य ललाट इंदु केसरी ने आरम्भ करवाया था जिन्होंने 615 से 657 शताब्दी तक शासन किया था। मौजूदा मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजा जजाति केशरि ने 11वीं शताब्दी में करवाया था जो सोमा वंश के थे। उसने तभी अपनी राजधानी को जयपुर से भुवनेश्वर में स्थानांतरित किया था। इस स्थान को ब्रह्म पुराण में एकाम्र क्षेत्र बताया गया है। किंतु इसके कुछ हिस्से 1400 वर्ष से भी ज्यादा पुराने हैं। इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है। लिंगराज मंदिर कुछ कठोर परंपराओं का अनुसरण भी करता है। यहाँ पर गैर-हिंदू को मंदिर के अंदर प्रवेश की अनुमति नहीं है। हालांकि मंदिर के ठीक बगल में एक ऊंचा चबूतरा बनाया गया है, जहाँ से दूसरे धर्म के लोग मंदिर को देख सकते है। बेहद अनोखी है लिंगराज मंदिर की बनावट लिंगराज मंदिर की बनावट बेहद अद्भुत है। यह भारत के कुछ बेहतरीन गिने चुने हिंदू मंदिर में एक है। पूरे मंदिर में बेहद उत्कृष्ट नक्काशी की गई है। गणेश, कार्तिकेय तथा गौरी के तीन छोटे मन्दिर भी मुख्य मन्दिर के विमान से संलग्न हैं। गौरी मंदिर में पार्वती की काले पत्थर की बनी प्रतिमा है। मंदिर का प्रांगण 150 मीटर वर्गाकार का है तथा मंदिर में स्थापित कलश की ऊंचाई 40 मीटर है। मंदिर में चतुर्दशी गज सिंहों की उकेरी हुई मूर्तियां दिखाई पड़ती हैं। मन्दिर के शिखर की ऊँचाई 180 फुट है। मुख्य मंदिर 55 मीटर लंबा है और इसमें लगभग 50 अन्य मंदिर हैं। इस मन्दिर का शिखर भारतीय मन्दिरों के शिखरों के विकास क्रम में प्रारम्भिक अवस्था का शिखर माना जाता है। यह नीचे से तो सीधा तथा समकोण है लेकिन ऊपर पहुँचकर धीरे-धीरे वक्र होता चला गया है और मंदिर के शीर्ष पर यह वर्तुल दिखाई देता है। अपनी स्थापत्य कला के लिए मशहूर लिंगराज मंदिर को गहरे शेड बलुआ पत्थरों का इस्तेमाल कर निर्मित किया गया है। यह करीब 2,50,000 वर्ग फुट के विशाल क्षेत्र में बना अद्भुत मंदिर हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की तरफ है, जबकि अन्य छोटे द्वार उत्तर और दक्षिण दिशा की तरफ बने हैं। वास्तुकला की दृष्टि से लिंगराज मंदिर, जगन्नाथ पुरी मंदिर और कोणार्क मंदिर लगभग एक जैसी विशेषताएं समेटे हुए हैं। बाहर से देखने पर मंदिर चारों ओर से फूलों के मोटे गजरे पहना हुआ-सा दिखाई देता है। मंदिर के चार हिस्से हैं–मुख्य मंदिर और इसके अलावा यज्ञशाला, भोग मंडप और नाट्यशाला। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर कलिंग वास्तुशैली और उड़ीसा शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। लिंगराज मंदिर में पूजा का है विशेष महत्व लिंगराज मंदिर की पूजा पद्धति के अनुसार सबसे पहले बिंदु सरोवर में स्नान किया जाता है, फिर क्षेत्रपति अनंत वासुदेव के दर्शन किए जाते हैं, जिनका निर्माण काल नवीं से दसवीं सदी का रहा है। इसके बाद गणेश पूजा की जाती है। गणेश पूजा के बाद गोपालनीदेवी व शिवजी के वाहन नंदी की पूजा की जाती है। फिर लिंगराज के दर्शन के लिए मुख्य स्थान में प्रवेश किया जाता है, जहाँ आठ फ़ीटमोटा तथा क़रीब एक फ़ीट ऊँचा ग्रेनाइट पत्थर का स्वयंभू लिंग स्थित है। शिवलिंग का बाहरी रूप पारम्परिक शिवलिंग जैसा गोलाकार है जिसमें से एक ओर से पानी जाने का मार्ग है लेकिन बीचों-बीच लिंग न होकर चाँदी का शालीग्राम है जो विष्णु जी है। ये देखने में ऐसा प्रतीत होता है जैसे गहरे भूरे लगभग काले शिवलिंग की काया के बीच में सफेद शालिग्राम शिव के हृदय में विष्णु समाए है। इसीलिए इन्हें हरिहर कहा जाता है। लिंगराज मंदिर में शिव-विष्णु एक साथ होने से यहाँ ऑक के फूल और तुलसी एक साथ चढ़ाए जाते है। ओडिशा में जगन्नाथ पुरी जाने से पहले पौराणिक मान्यता के अनुसार लिंगराज मंदिर में हरिहर के दर्शन किए जाने चाहिए। भीतर मुख्य गर्भगृह में हरि को हरने वाले इस हरिहर के अतिरिक्त लिंगराज मन्दिर के विशाल प्रांगण में अनेकों देवी-देवताओं के छोटे-छोटे मन्दिर है। इनमें गणेश, पार्वती, महालक्ष्मी, दुर्गा, काली, नागेश्वर, राम, हनुमान, शीतला माता, संतोषी माता, सावित्री, व यमराज के मंदिर शामिल है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार लिंगराज मंदिर से होकर एक नदी गुजरती है। इस नदी के पानी से मंदिर का बिंदु सागर टैंक भरता है। इसके बारे में कहा जाता है कि यह पानी शारीरिक और मानसिक बीमारियों को दूर करता है। लोग अक्सर इस पानी को अमृत के रूप में पीते हैं और उत्सवों के समय भक्त इस टैंक में स्नान भी करते हैं। लिंगराज मंदिर में होता है विशेष उत्सव यहां शिवरात्रि पर विशेष उत्सव होता है, जिसमें लाखों श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है। शिवरात्रि का मुख्य उत्सव रात के दौरान होता है, जब भक्तजन लिंगराज मंदिर के शिखर पर महादीप को प्रज्जवलित करने के बाद अपना व्रत खोलते हैं। इसके बाद यहां चंदन समारोह एवं चंदन यात्रा का उत्सव भी बेहद धूमधाम से किया जाता है। चंदन समारोह इस मंदिर में करीब 22 दिन तक चलने वाला महापर्व है। इस मंदिर की महिमा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मंदिर में रोजाना 6 हजार लोग लिंगराज के दर्शन के लिए आते हैं। और शिवरात्रि के समय यह संख्या लगभग 2 लाख से अधिक तक पहुंच जाती है। प्रतिवर्ष अप्रैल महीने में यहाँ रथयात्रा आयोजित होती है।
देवों की भूमि कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश में अनेक ऐतिहासिक धार्मिक स्थल मौजूद है। इन्हीं धार्मिक स्थलों में से एक है दियोटसिद्ध बाबा बालकनाथ जो हिन्दू आराध्य देव है। यह उत्तर भारत का दिव्य शक्ति पीठ है जो हिमाचल के हमीरपुर जिले के चकमोह गाँव की पहाड़ी के शिखर पर स्थित है। इस पूजनीय स्थल को दियोटसिद्ध के नाम से जाना है। मंदिर में पहाड़ी के बीच एक ऐतिहासिक गुफा है जिसे बाबा जी का आवास स्थान माना जाता है। मंदिर में बाबा जी की एक भव्य मूर्ति स्थापित की गई है। वहीं मंदिर में जो भक्तगण बाबाजी के दर्शन के लिए आते है वो बाबा जी की वेदी में रोट चढ़ाते हैं। इस रोट को आटे में चीनी या गुड़ डाल कर घी में बनाया जाता है। यहाँ पर बाबाजी को बकरा भी चढ़ाया जाता है, जो कि उनके प्रेम का प्रतीक है। पर मंदिर में बकरे की बलि नहीं दी जाती बल्कि उनका पालन पोषण किया जाता है। मंदिर से करीब छह किमी आगे एक शाहतलाई नामक स्थान है, ऐसी मान्यता है कि इस जगह पर बाबाजी ध्यान योग किया करते थे। मंदिर में बाबा जी के दर्शन के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु मंदिर में पहुंचते है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि बाबा बालकनाथ गुजरात के जूनागढ़ से भगवान शिव के दर्शन करने के लिए शाहतलाई आए थे। उस समय शाहतलाई में रत्नों माई नाम की एक महिला रहा करती थी। उस महिला की कोई संतान नहीं थी। रत्नों ने बाबा बालक नाथ को अपना धर्म का पुत्र बनाया था। बाबा बालकनाथ गांव में रत्नों की गायों को चराया करते थे। माता रत्नों उन्हें खाने में रोटी और छाछ देती थी। यह सिलसिला 12 साल तक चला। एक दिन बाबाजी अपनी तपस्या में लीन थे, उस दौरान सभी गाय लोगों के खेतों में चरने के लिए घुस गई। इस बात की शिकायत लेकर गांव के लोग माता रत्नों के पास आ गए। लोगों की बाते सुन कर माता रत्नों गुस्से में आ गईं और उन्होंने गुस्से में आकर बाबा बालक नाथ को बुरा भला कह डाला। यहां तक कि उन्होंने बाबाजी को रोटियों और छाछ का ताना भी दे दिया। माता रत्नों की बातों से दुखी होकर बाबा ने वट वृक्ष के खोल में रखीं 12 वर्षों की रोटियां और छाछ से भरा तालाब उन्हें दिखा दिया। तब कहीं जाकर मां रत्नों को बाबा बालकनाथ के दिव्य पुरुष होने का अहसास हुआ। उन्होंने बाबा से क्षमा याचना भी की। जब इस बात की जानकारी गुरू गोरख नाथ को मिली तो वह प्रसन्न होकर बाबा बालक नाथ के पास पहुंच गए और उन्हें अपना चेला बनने के लिए कहा। परन्तु बाबा बालक ने उनका चेला बनने से इंकार कर दिया। गोरख नाथ ने क्रोधित होकर उन्हें जबरदस्ती अपना चेला बनाने की कोशिश भी की लेकिन गोरख नाथ की कोशिश को नाकामयाब करते हुए बाबा बालकनाथ ने उड़ारी मारी और धौलगिरी पर्वत पर पहुंच गए, जहां पर बाबा जी की पवित्र गुफा है। कहा जाता है कि बाबाजी तपस्या करते हुए इसी गुफा में अंतर्ध्यान हो गए थे। जानकरों का कहना है कि बाबा बालक नाथ की गुफा में दियोट यानि दीपक जलता है। जिसके बाद से यहां का नाम दियोटसिद्ध पड़ा। ऐसे पड़ा नाम बाबा बालकनाथ माना जाता है कि बाबा बालकनाथ जी ने कलयुग में गुजरात के काठियाबाद में देव के नाम से जन्म लिया था। उनकी माता का नाम लक्ष्मी और पिता का नाम वैष्णो वैश था। बाबा बालकनाथ बचपन से ही अध्यात्म में लीन रहते थे। यह देखकर उनके माता पिता ने उनका विवाह करने का निश्चय किया, परन्तु बाबाजी उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। परम सिद्धि की राह को अपनाते हुए बाबा जी ने अपने घर परिवार का त्याग कर दिया। परम सिद्धि की राह पर निकले बाबा बालकनाथ का सामना जूनागढ़ की गिरनार पहाडी में स्वामी दत्तात्रेय से हुआ और यहीं पर बाबाजी ने स्वामी दत्तात्रेय से सिद्ध की बुनियादी शिक्षा ग्रहण की और वह सिद्ध बने। तभी से उन्हें बाबा बालकनाथ जी कहा जाने लगा। भगवान शिव ने दिया बालक की छवि में रहने का वरदान पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि बाबा बालकनाथ जी का जन्म सभी युगों में हुआ। हर एक युग में उनको अलग-अलग नाम से जाना गया। सत युग में उन्हें स्कन्द, त्रेता युग में उन्हें कौल और द्वापर युग में बाबाजी महाकौल के नाम से जाना गया। अपने हर अवतार में उन्होंने गरीबों एवं निस्सहायों की सहायता करके उनके दुख दर्द और तकलीफों का नाश किया है। हर एक जन्म में बाबा बालकनाथ भगवान शिव के भगत कहलाए। द्वापर युग के दौरान जब महाकौल कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के दर्शन के लिए जा रहे थे। रास्ते में उनकी मुलाकात एक वृद्ध स्त्री से हुई, उस वृद्ध स्त्री ने महाकौल से कैलाश जाने का कारण पूछा। वृद्ध स्त्री को जब बाबाजी की इच्छा का पता चला कि वह भगवान शिव से मिलने जा रहे हैं तो वृद्ध स्त्री ने बाबा जी को मानसरोवर नदी के किनारे तपस्या करने की सलाह दी। स्त्री ने उन्हें माता पार्वती जोकि मानसरोवर नदी में अक्सर स्नान के लिए आया करती थीं उन से भगवान शिव तक पहुँचने का उपाय पूछने के लिए कहा। बाबाजी ने बिलकुल वैसा ही किया जैसा उस वृद्ध स्त्री ने उन्हें करने के लिए कहा और घोर तपस्या के बाद बाबाजी भगवान शिव से मिलने में सफल हुए। बालयोगी की तपस्या को देखकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बाबाजी को कलयुग तक भक्तों के बीच सिद्ध प्रतीक के तौर से पूजे जाने का आशीर्वाद प्रदान किया और चिर आयु तक उनकी छवि को बालक की छवि के तौर पर बने रहने का भी आशीर्वाद दिया। गुफा के अंदर दर्शन के लिए नहीं जाती महिलाएं बाबा बालकनाथ गुफा के अंदर महिलाएं नहीं जाती है। यह परंपरा काफी लम्बे से चली आ रही है। महिलाएं गुफा में प्रवेश करने के बजाय मंदिर परिसर में चबूतरे से ही गुफा के दर्शन करती थी। महिलाओं का गुफा का दूर से दर्शन करने का कारण बाबाजी का ब्रह्मचारी होना माना जाता है। कुछ समय पहले मंदिर में एक बोर्ड लगा जिस पर महिलाओं का गुफा में प्रवेश न करने का संदेश था। मंदिर में प्रवेश के लिए महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग रास्ते थे। हालांकि अब उस बोर्ड को हटा दिया गया है। मंदिर प्रशासन और सरकार द्वारा भी मंदिर में प्रवेश के लिए महिलाओं पर किसी तरह की रोक नहीं लगायी गयी है। यदि कोई महिला दर्शन के लिए गुफा के अंदर जाना चाहती है तो वह जा सकती है। यह पूरी तरह महिलाओं की इच्छा पर निर्भर करता है। गुरना पेड़ में डोरी बांधकर होती है हर इच्छा पूरी बाबा बालकनाथ की तपोस्थली शाहतलाई में प्राचीन काल की दो ऐतिहासिक धरोहरें वट वृक्ष और गुरना पेड़ आज भी उपस्तिथ हैं। इन पेड़ों से लाखों लोगों की श्रद्धा जुड़ी हुई है। इन ऐतिहासिक धरोहर की खास बात यह है कि प्राचीन काल से यह पेड़ सालभर हरे भरे रहते हैं। शाहतलाई में स्थित गुरना पेड़ का विशेष धार्मिक महत्व है। गुरना पेड़ का दर्शन किए बिना बाबा बालक नाथ की यात्रा अधूरी मानी जाती है। मान्यता के अनुसार बाबा जी ने चरण गंगा के किनारे स्थित गुरने की छाया में बैठकर तपस्या की थी। गुरना पेड़ आज भी उसी तरह हरा भरा है। माना जाता है कि गुरना पेड़ के तने में डोरी बांधने से हर मनोकामना पूरी होती है। जब मनोकामना पूरी हो जाती है तो श्रद्धालु उस डोरी को खोल देते हैं। इतना ही नहीं श्रद्धालु गुरने के पत्तों को तोड़कर प्रसाद के रूप में घर ले जाते थे। इससे गुरने का अस्तित्व खतरे में पड़ने लगा था। इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिए मंदिर न्यास ने गुरने के तने के चारों ओर लोहे की ऊंची ग्रील लगा दी है। अब श्रद्धालु ग्रील पर ही डोरी बांधकर मन्नतें मांगते हैं।
सनातन धर्म में बांके बिहारी मंदिर का एक विशिष्ट स्थान है। ये मंदिर उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के पवित्र शहर वृंदावन में स्थित है। वृंदावन भगवान श्रीकृष्ण की क्रीड़ा स्थली है। यहां की कुंज गलियों में भगवान कृष्ण ने तमाम लीलाएं की हैं। बांके बिहारी मंदिर देश के सबसे प्रसिद्ध और सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है। इस मंदिर में स्थापित मूर्ति भगवान श्री कृष्ण और राधा का एकाकार रूप है। भगवान कृष्ण का यह मंदिर वृंदावन के ठाकुर जी के 7 मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी मंदिर राजस्थानी शैली में बना हुआ है, यह मंदिर मेहराबदार खिड़कियों और शानदार स्टोन वर्क से सजा हुआ है। मंदिर में भगवान कृष्ण की छवि एक बालक के रूप में दिखाई देती है जो त्रिभंगा स्थिति में खड़ी हुई है। बांके बिहारी मंदिर का सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि यहां परिसर में कोई भी शंख या घंटी नहीं है। यह मंदिर अपने आप में अनोखा मंदिर है। यहाँ सिर्फ इस भावना से सुबह घंटी या शंख नहीं बजाए जाते कि कहीं बांके बिहारी की नींद में खलल न पड़ जाए, इसलिए हौले-हौले एक बालक की तरह उन्हें दुलार कर उठाया जाता है। इसी तरह शाम को आरती के वक्त भी घंटी या शंख नहीं बजाए जाते ताकि उनकी शांति में कोई खलल न पड़े। यहां भगवान का दिव्य आह्वान ‘राधा नाम’ के शांतिपूर्ण मंत्रों के साथ किया जाता है। बांके बिहारी मंदिर पूरे साल भर भक्तों की भीड़ से भरा हुआ होता हैं। इस मंदिर में आकर भगवान कृष्ण के भक्तों को अद्भुद शांति और आनंद की प्राप्ति होती है। पौराणिक कथा के अनुसार बांके बिहारी मंदिर की स्थापना स्वामी हरिदास ने की थी। स्वामी हरिदास प्राचीन काल के मशहूर गायक तानसेन के गुरु और भगवान कृष्ण के भक्त थे। उनका अपना ज्यादातर समय शास्त्रों का ध्यान करने, पढ़ने में और प्रार्थना करने में व्यतीत होता था। भगवान कृष्ण के प्रति वो इतने ज्यादा समर्पित थे कि उन्होंने हरिमति से विवाह करने के बाद भी अपना यह कठोर अनुशासन जारी रखा। भगवान को आत्मसमर्पण करने के बाद स्वामी हरिदास वृंदावन के लिए लिए निकल गए और वहां पहुंचकर उन्होंने ध्यान करने के लिए एकांत का रास्ता चुना, जिसको आज निधिवन के नाम से जाना जाता है। वे निधिवन में तमाम भजन आदि गाकर श्रीकृष्ण की भक्ति किया करते थे। उन्हें राधा कृष्ण दर्शन दिया करते थे। एक दिन वृंदावन के लोगों ने स्वामी हरिदास से कहा कि वे भी राधा कृष्ण के दर्शन करना चाहते हैं तब स्वामी हरिदास ने कृष्ण और राधा से निवेदन किया कि वो दोनों की छवि को एक रूप दें और इसके साथ उन्होंने भगवान से हमेशा उनकी दृष्टि के सामने रहने की कामना की। श्री कृष्ण ने स्वामी जी की इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और अपने भक्तों की इच्छा को पूरा करते हुए अपनी एक आकर्षक छवि छोड़ दी। यह काली छवि मूर्ति का आकर लेकर वहां प्रकट हो गई। 1864 में मंदिर का निर्माण औपचारिक रूप से गोस्वामियों के योगदान से किया गया था। मंदिर का निर्माण हो जाने के बाद गोस्वामियों ने भगवान की मूर्ति को मंदिर में स्थानांतरित कर दिया। यह भव्य मूर्ति वही है जो भगवान ने स्वामी हरिदास के निवेदन पर दी थी। मूर्ति के आगे हर दो मिनट में लगाया जाता है पर्दा बांके बिहारी मंदिर की एक और कथा बहुत मान्य है वो ये कि बांके बिहारी की मूर्ति को हर थोड़ी देर में पर्दे से ढक दिया जाता है ताकि भगवान कृष्ण अपना स्थान छोड़ कर कहीं चले ना जाएं। कहा जाता है कि यदि कोई बांके बिहारी के मुखारविंद को लगातार देखता रहे तो प्रभु उसके प्रेम से मंत्रमुग्ध होकर उनके साथ चल देते हैं, इसलिए दर्शन के कुछ समय बाद ही पर्दे से उनको ढक दिया जाता है। माना जाता है कि भगवान भक्तों की भक्ति से अभिभूत होकर या उनकी व्यथा से द्रवित हो भक्तों के साथ ही चल देते है। बांके बिहारी भक्तों की भक्ति से इतना प्रभावित हो जाते हैं कि मंदिर में अपने आसन से उठकर भक्तों के साथ हो लेते हैं। इसीलिए मंदिर में उन्हें पर्दे में रखकर उनकी क्षणिक झलक ही भक्तों को दिखाई जाती है। सिर्फ जन्माष्टमी पर होती मंगला आरती बांके बिहारी मंदिर में साल भर भारी संख्या में भगवान कृष्ण के भक्त उनके दर्शन के लिए आते हैं। इस मंदिर में कृष्ण के जन्मदिन को बहुत ही हर्षोल्लास और उत्साह के साथ मनाया जाता है। मंदिर में जन्माष्टमी के दौरान मंगला आरती का आयोजन किया जाता है। अक्षय तृतीया एकमात्र दिन है जब भक्त कृष्ण के चरण कमलों को देख सकते हैं और केवल शरद ऋतु पूर्णिमा के दिन कृष्ण को विशेष मुकुट पहने और बांसुरी के साथ देखा जा सकता है। फाल्गुन के हिंदू महीने के आखिरी पांच दिनों में यानी होली के त्योहार के दौरान कृष्ण की मूर्ति को बाहर लाया जाता है। इस समय उनके आसपास उन्हें चार ‘गोपियों’ के साथ देखा जाता है। अक्षय तृतीया पर ही होते हैं चरण दर्शन कान्हा की नगरी वृंदावन में अक्षय तृतीया के दिन भारी भीड़ उमड़ती है। अक्षय तृतीया पर भगवान कृष्ण के चरणों के दर्शन होते हैं। मान्यता है कि इस दिन भगवान कृष्ण के चरणों के दर्शन करने से भक्तों को विशेष कृपा मिलती है। भगवान कृष्ण को इस अद्भुत रूप में देखने का मौका साल में केवल एक बार ही मिलता है। यही वजह है कि भक्त अपने आराध्य बांके बिहारी की एक झलक पाने के लिए दूर-दूर से यहां चले आते हैं। इस दिन भगवान के चरणों पर चंदन का लेप किया जाता है स्वर्ण झूले पर बैठाया जाता है बांके बिहारी को भगवान कृष्ण के झूले के त्यौहार को यहाँ झूलन यात्रा कहा जाता है। द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने राधा रानी को झूला झुलाया था। तभी से मथुरा में बृज में झूलन उत्सव की यह परंपरा चली आ रही है। इस त्यौहार के समय बांके बिहारी को एक स्वर्ण झूले पर बैठाया जाता है जिसको हिंडोला कहा जाता है। मंदिर को पर्दों से बंद कर दिया जाता है फिर कुछ मिनट के बाद फिर से खोल दिया जाता है। मान्यता है कि इस समय बांके बिहारी की आँखें इतनी तेज होती हैं कि अगर कोई उनकी आँखों में देख लेता है तो वो बेहोश भी हो सकता है। इस दौरान भारी संख्या में भक्त मंदिर में कृष्ण की एक झलक पाने के लिए जाते हैं। अर्द्धरात्रि के बाद निधिवन जाते हैं भगवान कृष्ण वृंदावन का निधिवन लगभग दो से ढाई एकड़ क्षेत्रफल में फैला है। कहा जाता है कि यहां लगे पेड़ों की संख्या सोलह हजार है। वृक्षों की खासियत यह है कि इनमें से किसी भी वृक्ष के तने सीधे नहीं मिलेंगे तथा इन वृक्षों की डालियां नीचे की ओर झुकी तथा आपस में गुंथी हुई प्रतीत होती हैं। मान्यता है कि ये वृक्ष भगवान कृष्ण की सोलह हजार रानियां हैं और शयन आरती के बाद भगवान कृष्ण निधिवन में जाते हैं और सुबह जल्दी 4 बजे वापिस मंदिर में लौट आते हैं। भगवान कृष्ण की नींद में खलल न पड़े इसलिए सुबह के दौरान मंदिर के कपाट थोड़े देरी से खोले जाते है। केवल जन्माष्टमी के दिन ही मंगला आरती की जाती है। बिहार पंचमी के रूप में मनाया जाता है प्राकट्य दिवस बांके बिहारी की मूर्ति मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को निधिवन स्थित विशाखा कुण्ड से प्रकट हुई थी। बांके बिहारी की प्राकट्य तिथि को हर साल बिहार पंचमी के रूप में बड़े ही उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन वृंदावन में कई धार्मिक आयोजन होते है। बिहार पंचमी के दिन ही चरणामृत के स्थान पर भक्तों को पंचामृत बांटा जाता है। बिहार पंचमी को विवाह पंचमी के नाम से भी जाना जाता है।
रामेश्वरम मंदिर हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ स्थल है। यह तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। यह तीर्थ हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। इसके अलावा यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है। बहुत पहले यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि के साथ जुड़ा हुआ था, परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया। माना जाता है कि यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिसपर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची व वहां विजय पाई। बाद में श्री राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था। आज भी इस 48 कि.मी लंबे आदि-सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। रामेश्वरम् के विख्यात मंदिर की स्थापना के बारें में कई रोचक कथाएं प्रचलित है। मान्यता है कि सीताजी को छुड़ाने के लिए श्री राम ने लंका पर यही से चढ़ाई की थी। उन्होंने युद्ध के बिना सीताजी को छुड़वाने का बहुत प्रयत्न किया, पर रावण के न मानने पर विवश होकर उन्होने युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध हेतु राम को वानर सेना सहित सागर पार करना था, जो अत्यधिक कठिन कार्य था। तब श्री राम ने, युद्ध कार्य में सफलता और विजय के पश्र्चात कृतज्ञता हेतु उनके आराध्य भगवान शिव की आराधना के लिए समुद्र किनारे की रेत से शिवलिंग का अपने हाथों से निर्माण किया, तभी भगवान शिव स्वयं ज्योति स्वरुप प्रकट हुए और उन्होंने इस लिंग को श्री रामेश्वरम की उपमा दी। इस युद्ध में रावण के साथ, उसका पुरा राक्षस वंश समाप्त हो गया और अन्ततः सीताजी को मुक्त करवाकर श्रीराम वापिस लौट आए। रावण भी कोई साधारण राक्षस नहीं था। वह महर्षि पुलस्त्य का वंशज, वेदों का महाज्ञानी औरभगवान शिव का सबसे बड़ा था। श्रीराम को उसे मारने के बाद बड़ा खेद हुआ। ब्रह्मा-हत्या के पाप प्रायस्चित के लिए श्री राम ने युुद्ध विजय पश्र्चात भी यहां रामेश्वरम् जाकर पूरा की। रावण का वध करने के बाद भगवान राम अपनी पत्नी देवी सीता के साथ रामेश्वरम के तट पर कदम रखकर भारत लौटे थे। एक ब्राह्मण को मारने के दोष को खत्म करने के लिए भगवान राम शिव की पूजा करना चाहते थे। चूंकि द्वीप में कोई मंदिर नहीं था, इसलिए भगवान शिव की मूर्ति लाने के लिए श्री हनुमान को कैलाश पर्वत भेजा गया था। जब हनुमान समय पर शिवलिंग लेकर नहीं पहुंचे तब देवी सीता ने समुद्र की रेत को मुट्ठी में लाकर शिवलिंग बनाया और भगवान राम ने उसी शिवलिंग की पूजा की। बाद में हनुमान द्वारा लाए गए शिवलिंग को भी वहीं स्थापित कर दिया गया था। इसके बाद 15वीं शताब्दी में राजा उडैयान सेतुपति एवं नागूर निवासी वैश्य ने 1450 ई. में इसके 78 फीट ऊंचे गोपुरम का निर्माण करवाया था। फिर सोलहवीं शताब्दी में मंदिर के दक्षिणी में दूसरे हिस्से की दीवार का निर्माण तिरुमलय सेतुपति ने करवाया था। मंदिर के द्वार पर ही तिरुमलय एवं इनके पुत्र की मूर्ति विराजमान है। सोलहवीं शताब्दी में मदुरै के राजा विश्वनाथ नायक के एक अधीनस्थ राजा उडैयन सेतुपति कट्टत्तेश्वर ने नंदी मण्डप का निर्माण करवाया था। माना जाता है कि वर्तमान समय में रामेश्वरम मंदिर जिस रूप में मौजूद है, उसका निर्माण सत्रहवीं शताब्दी में कराया गया था। जानकारों के अनुसार राजा किजहावन सेठुपति या रघुनाथ किलावन ने इस मंदिर के निर्माण कार्य की आज्ञा दी थी। मंदिर के निर्माण में सेठुपति साम्राज्य के जफ्फना राजा का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। मान्यता : जो श्रद्धा से गंगाजल चढ़ाता है, उसे होती है मोक्ष की प्राप्ति रामेश्वरम मंदिर एक हजार फुट लंबा और 650 फुट चौड़ा है। चालीस फुट ऊंचे दो पत्थरों पर इतनी ही बराबरी के एक लंबे पत्थर को लगाकर इसका निर्माण किया गया है जो आकर्षण का केंद्र है। माना जाता है कि रामेश्वरम मंदिर के निर्माण में लगे पत्थरों को श्रीलंका से नावों द्वारा लाया गया था। रामेश्वरम का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है। यह उत्तर-दक्षिण में 197 मीटर एवं पूर्व-पश्चिम 133 मीटर है। इसके परकोटे की चौड़ाई छह मीटर एवं ऊंचाई नौ मीटर है। मंदिर के प्रवेशद्वार का गोपुरम 38.4 मीटर ऊंचा है। यह मंदिर लगभग छह हेक्टेयर में बना हुआ है। जानकारों के अनुसार रामेश्वर मंदिर परिसर के भीतर के सभी कुओं को भगवान राम ने अपने अमोघ बाणों से तैयार किया था। उन्होंने इन कुओं में कई तीर्थों का जल छोड़ा था। मान्यता है कि जो व्यक्ति ज्योतिर्लिंग पर पूरी श्रद्धा से गंगाजल चढ़ाता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। चूंकि भगवान राम से हत्या दोष से मुक्ति पाने के लिए यहां शिव की पूजा की थी, इसलिए मान्यता है कि ज्योतिर्लिंग की विधि विधान से पूजा करने से व्यक्ति ब्रह्म हत्या जैसे पापों से मुक्त हो जाता है। रामेश्वरम मंदिर के अंदर 22 तीर्थ हैं, जो अपने आप में प्रसिद्ध हैं। मंदिर के पहले और सबसे मुख्य तीर्थ को अग्नि तीर्थं नाम से जाना जाता है। रामेश्वरम मंदिर का प्रवेश द्वार 40 फीट ऊंचा है जो भारतीय निर्माण कला का एक आकर्षक नमूना है। मंदिर में सैकड़ों विशाल खंभे हैं और प्रत्येक खंभे पर अलग अलग तरह की बारीक कलाकृतियां बनी है। इस मंदिर का निर्माण द्रविण स्थापत्य शैली में किया गया है। मंदिर में लिंगम के रूप में प्रमुख देवता रामनाथस्वामी यानि शिव को माना जाता है। मंदिर के गर्भगृह में दो शिव लिंग हैं, एक सीता द्वारा रेत से निर्मित जिन्हें कि मुख्य देवता माना जाता है और इन्हें रामलिंगम नाम दिया गया है। जबकि दूसरा लिंग हनुमान द्वारा कैलाश पर्वत से लाया गया, जिसे विश्वलिंगम के नाम से जाना जाता है। भगवान राम के आदेशानुसार हनुमान द्वारा लाए गए शिवलिंग अर्थात् विश्वलिंगम की पूजा आज भी सबसे पहले की जाती है। राममय है रामेश्वरम् धाम रामेश्वरम् में हर जगह राम-कहानी की गूंज सुनाई देती है। रामेश्वरम् के विशाल टापू का चप्पा-चप्पा भूमि राम की कहानी से जुड़ी हुई है। किसी जगह पर राम ने सीता जी की प्यास बुझाने के लिए धनुष की नोंक से कुआं खोदा था, तो कहीं पर उन्होंने सेनानायकों से सलाह की थी। कहीं पर सीताजी ने अग्नि-प्रवेश किया था तो किसी अन्य स्थान पर श्रीराम ने जटाओं से मुक्ति पायी थी। ऐसी सैकड़ों कहानियां प्रचलित है। यहां राम-सेतु के निर्माण में लगे ऐसे पत्थर भी मिलते हैं, जो पानी पर तैरते हैं। मान्यता अनुसार नल-नील नामक दो वानरों ने उनको मिले वरदान के कारण जिस पाषाण शिला को छूआ, वो पानी पर तैरने लगी और सेतु के काम आयी। एक अन्य मतानुसार ये दोनों सेतु-विद्या जानते थे। गंधमादन पर्वत रामेश्वरम् शहर से करीब डेढ़ मील उत्तर-पूर्व में गंधमादन पर्वत नाम की एक छोटी-सी पहाड़ी है। मान जाता है हनुमानजी ने इसी पर्वत से समुद्र को लांघने के लिए छलांग मारी थी। बाद में राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए यहीं पर विशाल सेना संगठित की थी। इस पर्वत पर एक सुंदर मंदिर बना हुआ है, जहां श्रीराम के चरण-चिन्हों की पूजा की जाती है। इसे पादुका मंदिर कहते हैं। सेतुबंध रामेश्वरम् शहर और रामनाथजी का प्रसिद्ध मंदिर इस टापू के उत्तर के छोर पर है। टापू के दक्षिणी कोने में धनुषकोटि नामक तीर्थ है, जहां हिंद महासागर से बंगाल की खाड़ी मिलती है। इसी स्थान को सेतुबंध कहते है। लोगों का विश्वास है कि श्रीराम ने लंका पर चढाई करने के लिए समुद्र पर जो सेतु बांधा था, वह इसी स्थान से आरंभ हुआ। इस कारण धनुष-कोटि का धार्मिक महत्व बहुत है। यही से कोलम्बो को जहाज जाते थे। देवी मंदिर रामेश्वर के मंदिर में जिस प्रकार दो शिवलिंग है, उसी प्रकार देवी पार्वती की भी मूर्तियां अलग-अलग स्थापित की गई है। देवी की एक मूर्ति पर्वतवर्द्धिनी कहलाती है, दूसरी विशालाक्षी। मंदिर के पूर्व द्वार के बाहर हनुमान की एक विशाल मूर्ति अलग मंदिर में स्थापित है। सेतु माधव रामेश्वरम् का मंदिर है तो शिवजी का, परन्तु उसके अंदर कई अन्य मंदिर भी है। सेतुमाधव का कहलानेवाले भगवान विष्णु का मंदिर इनमें प्रमुख है। बाईस कुण्ड तिर्थम् रामनाथ के मंदिर के अंदर और परिसर में अनेक पवित्र तीर्थ है। ‘कोटि तीर्थ’ जैसे एक दो तालाब भी है। रामनाथ स्वामी मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां स्थित अग्नि तीर्थम में जो भी श्रद्धालु स्नान करते है उनके सारे पाप धुल जाते हैं। इस तीर्थम से निकलने वाले पानी को चमत्कारिक गुणों से युक्त माना जाता है। यह 274 पादल पत्र स्थल में से एक है, जहाँ तीनों श्रद्धेय नारायण अप्पर, सुन्दरर और तिरुग्नना सम्बंदर ने अपने गीतों से मंदिर को जागृत किया था। ये शैव, वैष्णव और समर्थ लोगो के लिए एक पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। भारत के तमिलनाडु राज्य के रामेश्वरम द्वीप पर और इसके आसपास कुल मिलाकर 64 तीर्थ है। स्कंद पुराण के अनुसार, इनमें से 24 ही महत्वपूर्ण तीर्थ है, जिसमें 22 तीर्थ तो केवल रामानाथस्वामी मंदिर के भीतर ही है। 22 संख्या को भगवान की 22 तीर तरकशों के समान माना गया है। मंदिर के पहले और सबसे मुख्य तीर्थ को अग्नि तीर्थं नाम दिया गया है। इन तीर्थो में स्नान करना बड़ा फलदायक पाप-निवारक समझा जाता है, जिसमें श्रद्धालु पूजा से पहले स्नान करते हैं। हालांकि ऐसा करना अनिवार्य नहीं है। रामेश्वरम के इन तीर्थो में नहाना काफी शुभ माना जाता है और इन तीर्थो को भी प्राचीन समय से काफी प्रसिद्ध माना गया है। विल्लीरणि तीर्थ रामेश्वरम् के मंदिर के बाहर भी दूर-दूर तक कई तीर्थ है। प्रत्येक तीर्थ के बारें में अलग-अलग कथाएं है। यहां से करीब तीन मील पूर्व में एक गांव है, जिसका नाम तंगचिमडम है। यह गांव रेल मार्ग के किनारे बसा है। वहां स्टेशन के पास समुद्र में एक तीर्थकुंड है, जो विल्लूरणि तीर्थ कहलाता है। समुद्र के खारे पानी के बीच में से मीठा जल निकलता है, यह बड़े ही अचंभे की बात है। कहा जाता है कि एक बार सीताजी को बड़ी प्यास लगी। पास में समुद्र को छोड़कर और कहीं पानी न था, इसलिए राम ने अपने धनुष की नोक से यह कुंड खोदा था। एकांत राम तंगचिडम स्टेशन के पास एक जीर्ण मंदिर है, जिसे ‘एकांत’ राम का मंदिर कहते है। इस मंदिर के अब जीर्ण-शीर्ण अवशेष ही बाकी हैं। रामनवमी के पर्व पर यहां कुछ रौनक रहती है, बाकी दिनों में बिलकुल सूना रहता है। मंदिर के अंदर श्रीराम, लक्ष्मण, हनुमान और सीता की बहुत ही सुंदर मूर्तिया है। धुर्नधारी राम की एक मूर्ति ऐसी बनाई गई है, मानो वह हाथ मिलाते हुए कोई गंभीर बात कर रहे हो। दूसरी मूर्ति में राम सीताजी की ओर देखकर मंद मुस्कान के साथ कुछ कह रहे है। ये दोनों मूर्तियां बड़ी मनोरम है। यहां सागर में लहरें बिल्कुल नहीं आतीं, इसलिए एकदम शांत रहता है। शायद इसीलिए इस स्थान का नाम एकांत राम है। कोद्ण्ड स्वामि मंदिर रामेश्वरम् के टापू के दक्षिण भाग में, समुद्र के किनारे, एक और दर्शनीय मंदिर है। यह मंदिर रमानाथ मंदिर से पांच मील दूर पर बना है। यह कोदंड ‘स्वामी का मंदिर’ कहलाता है। कहा जाता है कि विभीषण ने यहीं पर राम की शरण ली थी। रावण-वध के बाद राम ने इसी स्थान पर विभीषण का राजतिलक कराया था। इस मंदिर में राम, सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां के साथ ही विभीषण की भी मूर्ति स्थापित है। सीता कुण्ड रामेश्वरम् को घेरे हुए समुद्र में भी कई विशेष स्थान ऐसे बताये जाते है, जहां स्नान करना पाप-मोचक माना जाता है। रामनाथजी के मंदिर के पूर्वी द्वार के सामने बना हुआ सीताकुंड इनमें मुख्य है। कहा जाता है कि यही वह स्थान है, जहां सीताजी ने अपना सतीत्व सिद्व करने के लिए आग में प्रवेश किया था। सीताजी के ऐसा करते ही आग बुझ गई और अग्नि-कुंड से जल उमड़ आया। वही स्थान अब ‘सीताकुंड’ कहलाता है। यहां पर समुद्र का किनारा आधा गोलाकार है। आदि-सेतु रामेश्वरम् से सात मील दक्षिण में एक स्थान है, जिसे ‘दर्भशयनम्’ कहते है। यहीं पर राम ने पहले समुद्र में सेतु बांधना शुरू किया था। इस कारण यह स्थान आदि सेतु भी कहलाता है। रामसेतु पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरे पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के नृत्य-नाटकों में सेतु बंधन का वर्णन किया जाता है। राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का उल्लेख आया है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। अनेक पुराणों में भी श्रीरामसेतु का विवरण आता है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में इसे राम सेतु कहा गया है। नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। यह सेतु तब पांच दिनों में ही बन गया था। इसकी लंबाई 100 योजन व चौड़ाई 10 योजन थी। इसे बनाने में रामायण काल में श्री राम नाम के साथ, उच्च तकनीक का प्रयोग किया गया था।
भारत में कई अद्भुत व चमत्कारिक मंदिर है। हर मंदिर की अपनी विशेषता व महत्व है। ऐसा ही एक मंदिर एलोरा की गुफाओं में स्थित है। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर एलोरा के कैलाश मंदिर के नाम से जाना जाता है। एलोरा की 34 गुफाओं में कैलाश मंदिर सबसे अद्भुत है। इस मंदिर का महत्व कैलाश मंदिर से कम नहीं माना जाता है। मंदिर का आकार का भी कुछ कुछ कैलाश से मेल खाता हुआ ही है। कैलाश मंदिर का निर्माण मालखेड स्थित राष्ट्रकूट वंश के नरेश कृष्ण प्रथम ने 760-753 ई में करवाया था। यह औरंगाबाद के एलोरा जिला स्थित लयण-श्रृंखला में है। विशाल कैलाश मंदिर देखने में बेहद अलौकिक ही, और इस मंदिर का निर्माण बेहद खूबसूरती के सतह किया गया है। कैलाश मंदिर की खास बात यह है कि इस विशालकाय मंदिर को तैयार करने में करीब 150 साल लगे थे और करीब 7000 मजदूरों ने लगातार इस मंदिर को बनाने का काम किया था। अन्य मान्यताओं के अनुसार ऐसा भी कहा जाता है कि मंदिर का निर्माण परलौकिक शक्तियों द्वारा 18 वर्ष में पूरा कर लिए गया था, जोकि मंदिर के वास्तु चित्रकला के हिसाब से संभव प्रतीत नहीं होता। एलोरा कैलाश मंदिर में एक और हैरान करने वाली बात यह कि यहाँ देश विदेश से लोग भगवान शिव के दर्शन के लिए आते है लेकिन इस मंदिर में एक भी पुजारी नहीं है। मंदिर में पूजा नहीं की जाती है। एक ही पत्थर को तराश कर बनाया गया मंदिर मंदिर का निर्णाम एक पहाड़ी को काट कर किया गया है। बताया जाता है कि जिस पहाड़ी को काट कर मंदिर का निर्माण किया गया था उसका भार लगभग 40 हज़ार टन था। मंदिर जिस चट्टान से बनाया गया है उसके चारों ओर सबसे पहले चट्टानों को ‘U’ आकार में काटा गया है जिसमें लगभग 2,00,000 टन पत्थर को हटाया गया। पत्थरों को काटकर बनाए गए इस मंदिर कि ऊंचाई 90 फुट है। यह मंदिर 276 फ़ीट लम्बा व 154 फ़ीट चौड़ा है। इस मंदिर के आंगन के तीनों ओर कोठारिया हैं और सामने खुले मंडप में नंदी विराजमान है और उसके दोनों ओर विशालकाय हाथी और स्तंभ बने हैं। यह कृति भारतीय वास्तु-शिल्पियों के कौशल का अद्भुत नमूना है। कैलाश मंदिर में विशाल और भव्य नक्काशी है। आमतौर पर पत्थर से बनने वाले मंदिरों को सामने की ओर से तराशा जाता है, लेकिन 90 फुट ऊँचे कैलाश मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसे ऊपर से नीचे की तरफ तराशा गया है। कैलाश मंदिर एक ही पत्थर से निर्मित विश्व की सबसे बड़ी संरचना है। कैलाश की तर्ज पर हुआ है मंदिर निर्माण कैलाश मंदिर को हिमालय के कैलाश का रूप देने का भरपूर प्रयास किया गया है। शिव का यह दो मंजिला मंदिर पर्वत चट्टानों को काटकर बनाया है। यह मंदिर दुनिया भर में एक ही पत्थर की शिला से बनी हुई सबसे बड़ी मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यहाँ दर्शन करने वाले भक्तों को वैसा ही फल मिलता है जैसा फल भक्तों को कैलाश में मिलता है। इसलिए जो लोग कैलाश दर्शन के लिए नहीं जा पाते, वें यहाँ आकर भगवान शिव की आराधना करते है। मान्यताओं के अनुसार यहाँ आने वाले हर व्यक्ति की इच्छा पूरी होती है। मंदिर के निर्माण को लेकर है कई रहस्य मंदिर को लेकर जानकारी मिलती है कि इसका निर्माण राष्ट्र कृष्ण प्रथम ने कराया था। कहा जाता है कि एक बार राजा गंभीर रूप से बीमार हो गए थे। तमाम कोशिशों और इलाज के बाद भी राजा को ठीक कर पाना असंभव सा प्रतीत हो रहा था। फिर रानी ने भगवान शिव की आराधना की। उन्होंने कहा कि वह राजा के ठीक होते ही भगवान शिव के एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाएगी व मंदिर का शिखर देखने तक व्रत धारण करेगी। राजा के स्वस्थ होने के बाद रानी को बताया गया कि मंदिर के निर्माण के लिए कई वर्ष लग जाएंगे व इतने लम्बे समय तक व्रत रख पाना संभव नहीं है। फिर रानी ने भगवान शिव से मंदिर के निर्माण के लिए मदद मांगी। मान्यता है कि तब उन्हें भगवान शिव द्वारा भूमि अस्त्र प्रदान किया गया जो पत्थर को भाप बना सकता था। इस अस्त्र का ज़िक्र ग्रंथो में भी किया गया है। कहा जाता है कि उसी अस्त्र से इस मंदिर का निर्माण किया गया तथा निर्माण के उपरांत इसे गुफा के नीचे दबा दिया गया। जानकारों की माने तो इतने कम समय में पारलौकिक शक्तियों से मंदिर का निर्माण किया जा सकता है अन्यथा इतना कम समय ऐसे मंदिर का निर्माण करना सम्भव नहीं है। मंदिर को लेकर है कई मान्यताएं माना जाता है कि मंदिर के नीचे हाथियों का निर्माण किया गया है। मान्यता है कि यह मंदिर पूरी तरह से उसी के ऊपर टिका हुआ है। इनके ऊपर भगवान विष्णु के कई रूप और महारभारत के दृश्य भी अंकित किये गए है। मंदिर की दीवारों पर अलग अलग लिपियों का प्रयोग किया है जिन्हें आज तक कोई नहीं समझ पाया है। कहा जाता है कि अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान इन गुफाओं में शोध कार्य शुरू किया गया था लेकिन वहां हाई रेडियोऐक्टिविटी के चलते शोध करना मुश्किल हो गया। तब अंग्रेज़ों ने शोध कार्य बंद करके इन गुफाओं को बंद कर दिया था। बता दें कि आज़ादी मिलने के बाद भी यह गुफाएं बंद पड़ी हुई है। एक मान्यता ये भी है कि इन गुफाओं के आगे भी दुनिया हो सकती है जहाँ से ये रेडियोऐक्टिव किरणें आती हैं क्योंकि यह किरणें गुफाओं में किसी एक स्त्रोत से ही आती है। मुग़ल शासक औरंगजेब ने भी इस मंदिर को नुकसान पहुँचाने का बहुत प्रयास किया था लेकिन छोटे-मोटे नुकसान के अलावा वह इसे किसी भी प्रकार की क्षति पहुँचाने में असफल रहा। यूनेस्को ने 1983 में ही इस जगह को 'विश्व विरासत स्थल' घोषित किया है। इस मंदिर में आज तक कभी पूजा हुई हो, इसका प्रमाण नहीं मिलता। यहां आज भी कोई पुजारी नहीं है। इस मंदिर को कब बनाया गया, इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। मंदिर के पत्थरों की कार्बन डेटिंग उसे एक लाख साल पुराना बताती है। एक्सपर्ट्स के मुताबिक इस मंदिर को 200 बीसी और 650 एडी के मध्य बनाया गया। इस मंदिर को बनाने वाले शिल्पकारों ने एक विशालकाय शिला को ऊपर से तराशना शुरू किया था। आमतौर पर पत्थरों को सामने से तराशा जाता है, लेकिन इस मंदिर के लिए वर्टिकल (ऊपर से नीचे की तरफ) तराशा गया। औरंगाबाद से 30 किमी दूर बना कैलाश मंदिर 50 मीटर गहरा है। जानकारों के मुताबिक इस मंदिर को 2 लाख टन भारी शिला को तराशकर बनाया गया है। किंवदंती के मुताबिक इसका निर्माण एक हफ्ते में हुआ था, लेकिन इतिहासकारों की मानें तो इस मंदिर को 700 मजदूरों ने लगभग 150 साल में तैयार किया होगा। कैलाश मंदिर एलोरा की 34 गुफाओं में 16वें नंबर की गुफा माना जाता है।
गणेश चतुर्थी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है। यह त्यौहार भारत के विभिन्न भागों में मनाया जाता है किन्तु महाराष्ट्र में इस त्यौहार को बडी़ धूमधाम से मनाया जाता है। पुराणों के अनुसार इसी दिन गणेश का जन्म हुआ था।गणेश चतुर्थी पर हिन्दू भगवान गणेशजी की पूजा की जाती है। कई प्रमुख जगहों पर भगवान गणेश की बड़ी प्रतिमा स्थापित की जाती है। इस प्रतिमा का नौ दिनों तक पूजन किया जाता है। बड़ी संख्या में आस पास के लोग दर्शन करने पहुँचते है। नौ दिन बाद गानों और बाजों के साथ गणेश प्रतिमा को किसी तालाब इत्यादि जल में विसर्जित किया जाता है। हालांकि कोरोना संकट के चलते इस साल गणेश उत्सव अलग रुप में मनाया जाएगा। देश के रामनाथ कोविंद ने ट्वीट के देशवासियों को गणेश चतुर्थी कि बधाई दी। उन्होंने ट्वीट कर कहा ‘’गणपति बाप्पा मोरया! गणेश चतुर्थी के शुभ अवसर पर सभी देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं। मेरी कामना है कि कोविड-19 के विरुद्ध किए जा रहे हमारे प्रयासों को विघ्नहर्ता गणेश सफल बनाएं और सभी को सुख और शांति प्रदान करें. आइए, हम सब कोविड-अनुकूल व्यवहार करते हुए यह त्योहार मनाएं।’’
माना जाता है कि देवभूमि उत्तराखंड में साक्षात देवी देवताओं का वास है। इसी उत्तराखंड में एक ऐसा मंदिर भी है, जहां कहा जाता है कि हर रात महाकाली विश्राम करने के लिए पहुंचती है। मंदिर से जाने के बाद हर सुबह उनके रात्रि विश्राम के प्रमाण मिलते हैं। ये स्थान है उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद की गंगोलीहाट तहसील महाकाली का हाट कालिका मंदिर है। बताते हैं कि इसी मंदिर के स्थान पर माता ने काली रूप धारण कर जब शत्रुओं का नाश किया था तो यहां मां का गुस्सा शांत करने के लिए भगवान शिव उनके पांव के नीचे लेट गए थे। कहा जाता है इस स्थान पर कई वर्षों तक माता की तेज ज्वाला निकलती देखी गई है। कई वर्षों बाद आदि गुरु शंकराचार्य ने माता की ज्वाला को शांत किया और यहां माता के शांत स्वरूप की स्थापना की। हर साल देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु मां के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। हाट कालिका मंदिर में हर रोज शाम आरती के बाद माता को भोग लगाया जाता है, जिसके उपरांत माता की शयन आरती गाई जाती है और माता का बिस्तर लगाया जाता है। फिर माता के मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। कहा जाता है कि माता रात्रि विश्राम के लिए मंदिर में पहुंचती हैं और सुबह जब मंदिर के कपाट खोले जाते हैं तो बिस्तर में कुछ इस तरह का आभास होता है कि जैसे किसी ने इसमें रात्रि विश्राम किया हो। माँ हाट कालिका देश की सबसे पुरानी सेना कुमाऊं रेजीमेंट की देवी भी है। कहते है कि देवी ने सैनिक की एक पुकार पर सेना के सैकड़ों जवानों की जान बचाई थी जिसके बाद अब हर जंग में जाने से पहले कुमाऊं रेजिमेंट के जवान इस देवी की पूजा करते हैं। लोग बताते हैं कि एक बाद सेना की कुमाऊं रेजिमेंट के जवान पानी के जहाज से कहीं कूच कर रहे थे। अचानक तकनीकी खराबी आ गई और जहाज डूबने लगा। तब उन जवानों में से एक पिथौरागढ़ निवासी जवान में मां कालिका की स्तुति की। कुछ ही देर बार डूबता जहाज ऊपर आने लगा और खुद धीर-धीरे किनारे लग गया। इस घटना के बाद कुमाऊं रेजीमेंट के जवानों ने मंदिर में दो बड़ी घंटियां चढ़ाई और मंदिर का गेट बनवाया। इस चमत्कार के बाद कुमाऊं रेजिमेंट युद्ध में जाने से पहले और ट्रेनिंग में जाने से पहले काली माता का नाम लिए बिना आगे नहीं बढ़ते। कुमाऊं रेजीमेंट के जवानों की आस्था मंदिर के साथ ऐसी है कि कहा जाता है कि बस महाकाली का नाम लेते ही लड़ाई के मैदान में जवानों की शक्ति दोगुनी हो जाती है। जवानों का कहना है कि उन्हें ऐसा लगता है जैसे उनकी ओर से कोई और लड़ाई कर रहा है और दुश्मनों का खात्मा कर रहा है। हर मुराद होती है पूरी उत्तराखंड के लोगों की आस्था का केन्द्र महाकाली मंदिर अनेक रहस्यमयी कथाओं को अपने आप में समेटे हुए है। कहा जाता है कि जो भी भक्तजन श्रद्धापूर्वक महाकाली के चरणों में आराधना के श्रद्धा पुष्प अर्पित करता है उसके रोग, शोक, दरिद्रता एवं महान विपदाओं का हरण हो जाता है व अतुल ऐश्वर्य एवं संपत्ति की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि मां हाल कालिका मंदिर में आने वाले भक्त की हर मुराद पूरी होती है। 450 साल पुराने देवदार से घिरा है मंदिर महाकाली के दर्शनों के लिए हर साल लाखों की तादाद में श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। चैत्र और शारदीय नवरात्रों में हाट कालिका मंदिर में भक्तों की भीड़ बढ़ती जाती है। मंदिर को चारों ओर से देवदार के पेड़ों ने घेरा हुआ है। सैकड़ों साल पुराने देवदार के पेड़ मंदिर को और ज्यादा सुंदर और विहंगम बनाते हैं। गोविंद बल्लभ पंत पर्यावरण संस्थान कोसी कटारमल अल्मोड़ा के वैज्ञानिकों ने यहां रिसर्च की है जिसमें यह पता चला है कि मंदिर के कुछ पेड़ 450 साल पुराने हैं। कुमाऊं रेजीमेंट के जवानों ने स्थापित की थी महाकाली की मूर्ति कुमाऊं रेजीमेंट ने पाकिस्तान के साथ छिड़ी 1971 की लड़ाई के बाद गंगोलीहाट के कनारागांव निवासी सूबेदार शेर सिंह के नेतृत्व में सैन्य टुकड़ी ने इस मंदिर में महाकाली की मूर्ति की स्थापना की थी। कालिका के मंदिर में शक्ति पूजा का विधान है। सेना की ओर से स्थापित यह मूर्ति मंदिर की पहली मूर्ति थी। इसके बाद साल 1994 में कुमाऊं रेजीमेंट ने ही मंदिर में महाकाली की बड़ी मूर्ति चढ़ाई है। कुमाऊं रेजीमेंटल सेंटर रानीखेत के साथ ही रेजीमेंट की बटालियनों में हाट कालिका के मंदिर स्थापित हैं। हाट कालिका की पूजा के लिए सालभर सैन्य अफसरों और जवानों का तांता लगा रहता है। गण, आंण व बांण की सेना भी चलती है साथ कहा जाता है कि जो भी भक्तजन श्रद्धापूर्वक महाकाली के चरणों में आराधना के पुष्प अर्पित करता है उसके रोग, शोक, दरिद्रता एवं महान विपदाएं दूर हो जाती है। स्थानीय लोग बताते हैं यहां श्रद्धा एवं विनयता से की गयी पूजा का विशेष महत्व हैं। इसलिये वर्ष भर यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। महाकाली के संदर्भ में एक प्रसिद्ध किवदंती है कि कालिका का जब रात में डोला चलता है तो इस डोले के साथ कालिका के गण, आंण व बांण की सेना भी चलती हैं। स्कंदपुराण के मानस खंड में यहां स्थिति देवी का विस्तार से वर्णन मिलता है। आदि गुरु शंकराचार्य हुए थे जड़वत आदि शक्ति महाकाली का यह मंदिर ऐतिहासिक, पौराणिक मान्यताओं सहित अद्भुत चमत्कारी किवदंतियों व गाथाओं को अपने आप में समेटे हुए है। कहा जाता है कि महिषासुर व चण्ड मुण्ड सहित तमाम भयंकर शुम्भ निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करने के बाद भी महाकाली का यह रौद्र रूप शांत नहीं हुआ और इस रूप ने महा विकराल धधकती महाभयानक ज्वाला का रूप धारण कर तांडव मचा दिया था। महाकाली ने महाकाल का भयंकर रूप धारण कर देवदार के वृक्ष में चढ़कर जगन्नाथ व भुवनेश्वर नाथ को आवाज लगानी शुरू कर दी। कहते हैं यह आवाज जिस किसी के कान में पड़ती थी वह व्यक्ति सुबह तक यमलोक पहुंच चुका होता था। छठी शताब्दी में आदि जगत गुरु शंकराचार्य जब अपने भारत भ्रमण के दौरान जागेश्वर आये तो शिव प्रेरणा से उनके मन में यहां आने की इच्छा जागृत हुई, लेकिन जब वे यहां पहुंचे तो नरबलि की बात सुनकर उद्वेलित शंकराचार्य ने इस दैवीय स्थल की सत्ता को स्वीकार करने से इंकार कर दिया और शक्ति के दर्शन करने से भी वे विमुख हो गए। शंकराचार्य के मन में विचार आया कि देवी इस तरह का तांडव नहीं मचा सकती, यह किसी आसुरी शक्ति का काम है। लोगों को राहत दिलाने के उद्देश्य से वो गंगोलीहाट के लिए रवाना हो गए। जगतगुरु जब मंदिर के 20 मीटर पास में पहुंचे तो वह जड़वत हो गए और लाख चाहने के बाद भी उनके कदम आगे नहीं बढ़ पाए। शंकराचार्य को देवी शक्ति का आभास हो गया और वो देवी से क्षमा याचना करते हुए पुरातन मंदिर तक पहुंचे। पूजा अर्चना के बाद मंत्र शक्ति के बल पर महाकाली के रौद्र रूप को शांत कर शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया और गंगोली क्षेत्र में सुख शांति व्याप्त हो गई। अष्टदल व कमल से मढवायी गयी इस शक्ति की ही पूजा अर्चना वर्तमान समय में यहां पर होती है। चमत्कारों से भरे इस महामाया भगवती के दरबार में सहस्त्र चंडी यज्ञ, सहस्रघट पूजा, शतचंडी महायज्ञ, अष्टबली अठवार का पूजन समय-समय पर आयोजित होता है। यही एक ऐसा दरबार है। जहां अमावस्या हो चाहे पूर्णिमा सब दिन हवन यज्ञ आयोजित होते हैं। मंदिर में अर्धरात्रि में भोग चैत्र और अश्विन मास की महाष्टमी को पिपलेत गांव के पंत उपजाति के ब्राह्मणों द्वारा लगाया जाता है। इस कालिका मंदिर के पुजारी स्थानीय गांव निवासी रावल उपजाति के लोग हैं। आराध्य स्थल ही है माता का साक्षात यंत्र सरयू एवं रामगंगा के मध्य गंगावली की सुनहरी घाटी में स्थित भगवती के इस आराध्य स्थल की बनावट त्रिभुजाकार बतायी जाती है और यही त्रिभुज तंत्र शास्त्र के अनुसार माता का साक्षात यंत्र है। यहां धनहीन धन की इच्छा से, पुत्रहीन पुत्र की इच्छा से, संपत्ति हीन संपत्ति की इच्छा से सांसारिक मायाजाल से विरक्त लोग मुक्ति की इच्छा से आते हैं व अपनी मनोकामना पूर्ण पाते हैं। चमत्कारिक है मंदिर निर्माण की कथा इस मंदिर के निर्माण की कथा भी बड़ी चमत्कारिक रही है।माना जाता है कि महामाया की प्रेरणा से प्रयाग में होने वाले कुंभ मेले में से नागा पंथ के महात्मा जंगम बाबा को स्वप्न में कई बार इस शक्ति पीठ के दर्शन होते थे। उन्होंने रूद्र दन्त पंत के साथ यहां आकर भगवती के लिए मंदिर निर्माण का कार्य शुरू किया। परन्तु उनके आगे मंदिर निर्माण के लिये पत्थरों की समस्या आन पडी। इसी चिंता में एक रात्रि वे अपने शिष्यों के साथ अपनी धूनी के पास बैठकर विचार कर रहे थे। कोई रास्ता नजर न आने पर थके व निढाल बाबा सोचते-सोचते शिष्यों सहित गहरी निद्रा में सो गये तथा स्वप्न में उन्हें महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूपी तीन कन्याओं के दर्शन हुए वे दिव्य मुस्कान के साथ बाबा को स्वप्न में ही अपने साथ उस स्थान पर ले गयी जहां पत्थरों का खजाना था। यह स्थान महाकाली मंदिर के निकट देवदार वृक्षों के बीच घना वन था। इस स्वप्न को देखते ही बाबा की नींद भंग हुई उन्होंने सभी शिष्यों को जगाया स्वप्न का वर्णन कर रातों-रात चीड की लकड़ी की मशालें तैयार की तथा पूरा शिष्य समुदाय उस स्थान की ओर चल पड़ा, जिसे बाबा ने स्वप्न में देखा था। वहां पहुंचकर रात्रि में ही खुदाई का कार्य आरम्भ किया गया थोड़ी ही खुदान के बाद यहां संगमरमर से भी बेहतर पत्थरों की खान निकल आयी। कहते हैं कि पूरा मंदिर, भोग भवन, शिव मंदिर, धर्मशाला वं मंदिर परिसर का व प्रवेश द्वारों का निर्माण होने के बाद पत्थर की खान स्वत: ही समाप्त हो गयी। आश्चर्य की बात तो यह है इस खान में नौ फिट से भी लम्बे तराशे हुए पत्थर मिले।
जगत मंदिर के रूप में जाना जाने वाला द्वारकाधीश मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल है। इस मंदिर में श्री कृष्ण को द्वारकाधीश या 'द्वारका के राजा' के नाम से पूजा जाता है। द्वारकाधीश मंदिर भारत के गुजरात के द्वारका शहर में गोमती नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर द्वारका का मुख्य मंदिर है जिसे जगत मंदिर या रणछोड़राय मंदिर भी कहते हैं। यही गोमती द्वारका भी कहलाती है। द्वारकाधीश मंदिर चार धाम रामेश्वरम,बद्रीनाथ, द्वारका और जगन्नाथ पुरी में से एक है। पुरातात्विक निष्कर्ष के अनुसार यह मंदिर करीब 2,000-2200 वर्ष पुराना है। ऐसा भी माना जाता है कि महाभारत युद्ध के बाद द्वारका सागर में जलमग्न हो गई थी, लेकिन बाद में इस मंदिर का निर्माण भगवान कृष्ण के पड़पोते वज्रनाभ ने किया था। हिन्दू दृष्टि और धर्मगुरु शंकराचार्य ने भी इसके विस्तार और निर्माण में व्यापक योगदान दिया है। इतिहास के पन्ने पलटने पर मालूम होता है कि जगत मंदिर के आस-पास की संरचनाओं का निर्माण 16 वीं शताब्दी और इसका नवीनीकरण 19वीं शताब्दी में हुआ था। श्री कृष्ण का यह मंदिर 108 पवित्र विष्णु मंदिरों में से एक है। अद्भुत है द्वारकाधीश मंदिर इस मंदिर का निर्माण चूना-पत्थर से हुआ है। सात मंज़िले द्वारकाधीश मंदिर की ऊंचाई करीब 157 फ़ीट है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर सजावट कृष्ण की जीवन लीलाओं का चित्रण करते हुए की गई है। मंदिर का आंतरिक भाग साधारण और सौम्य है। मंदिर के दो प्रवेश द्वार हैं जिनमें से एक दक्षिण में है उसे स्वर्ग द्वार कहा जाता है। तीर्थ यात्री आमतौर पर इसी द्वार के माध्यम से मंदिर में प्रवेश करते हैं। उत्तर की तरफ जो द्वार है उसे मोक्ष द्वार कहा जाता है। यह द्वार गोमती नदी के 56 तटों की ओर ले जाता है। अंदर मंदिर में द्वारकाधीश जी की श्यामवर्ण चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। भगवान ने हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किए हैं। बहुमूल्य अलंकरणों तथा सुंदर वेशभूषा से सजी प्रतिमा हर किसी का मन मोह लेती है। इस मंदिर का शिखर 43 मीटर ऊँचा है जिसके ऊपर एक बड़ा ध्वज लगा हुआ है, जिस पर सूर्य और चन्द्रमा बने हुए हैं। यह विश्व की सबसे बड़ी ध्वजा है जिसे 10 किमी की दूरी से भी देखा जा सकता है। यह ध्वजा दिन में तीन बार बदली जाती है। इस अवसर पर ढोल-नगाड़ों की गूँज के साथ यहाँ का माहौल अत्यंत आध्यात्मिक एवं उत्सवी हो जाता है। मंदिर के दक्षिण में भगवान त्रिविक्रम का मंदिर है। इसमें राजा बलि तथा सनकादि चारों कुमारों की मूर्तियों के साथ-साथ गरुड़ जी की मूर्ति भी विराजमान है। मंदिर के उत्तर में प्रद्युम्न जी की प्रतिमा और उसके पास ही अनिरुद्ध व बलदेव जी की मूर्तियां भी हैं। मंदिर की पूर्व दिशा में दुर्वासा ऋषि का मंदिर है। मंदिर के पूर्वी घेरे के भीतर ही मंदिर का भण्डार है और उसके दक्षिण में जगत गुरु शंकराचार्य का शारदा मठ है। उत्तरी मोक्ष द्वार के निकट कुशेश्वर शिव मंदिर है यहाँ के दर्शन किए बिना यात्रा अधूरी मानी जाती है। श्री कृष्ण की मृत्यु के पश्चात समुद्र में समां गई थी द्वारका धर्मग्रंथों के अनुसार जब श्री कृष्ण ने मथुरा के राजा कंस का वध किया तो कंस के ससुर मगध पति जरासंध ने कृष्ण और यादवों का कुल नाश करने की ठान ली थी। वह मथुरा पर बार-बार आक्रमण रहता था। यादवो की सुरक्षा के लिए श्री कृष्ण ने मथुरा को छोड़ने का निर्णय लिया। फिर भगवान श्री कृष्ण ने द्वारकापुरी की स्थापना का निर्देश विश्वकर्मा को दिया, विश्वकर्मा ने एक ही रात में इस भव्य नगरी का निर्माण कर दिया। भगवान श्री कृष्ण समस्त यादवों के साथ द्वारका आकर रहने लगे। श्री कृष्ण ने द्वारका पर 36 वर्ष तक शासन किया। मान्यता हैं की बड़े-बड़े राजा द्वारका आकर विभिन्न मसलों पर भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे। इस जगह का धार्मिक महत्व तो है ही, रहस्य भी कम नहीं है। कहा जाता है कि कृष्ण की मृत्यु के साथ उनकी बसाई हुई यह नगरी समुद्र में डूब गई थी। कुछ वर्षों पहले नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एशियनोग्राफी को समुद्र के अंदर प्राचीन द्वारका के अवशेष प्राप्त हुए थे। माना जाता है कि श्री कृष्ण की द्वारका नगरी की दीवारें आज भी समुद्र के गर्त में मौजूद हैं। ऋषि दुर्वासा के श्राप से जुड़ी है द्वारका की कहानी मंदिर को लेकर एक और अन्य मन्यता भी है। हिंदू कथा के अनुसार द्वारका का निर्माण कृष्ण द्वारा भूमि के एक टुकड़े पर किया गया था जो समुद्र से प्राप्त हुआ था। मान्यता के अनुसार एक बार ऋषि दुर्वासा कृष्ण और उनकी पत्नी रुक्मिणी से मिलने गए। ऋषि की इच्छा थी कि कृष्ण और रुक्मणि उन्हें अपने महल में ले जाए। कृष्ण और रुक्मणि ऋषि को अपने साथ ले जाने के लिए राज़ी हो गए। महल की ओर जाते वक़्त कुछ दूर जाने के बाद रुक्मिणी थक गईं और उन्होंने कृष्ण से कुछ पानी मांगा। कृष्ण और रुक्मणि पानी पीने के लिए रुके जिससे ऋषि दुर्वासा क्रोधित हो गए और रुक्मिणी को उसी जगह में रहने के लिए श्राप दिया। कहते हैं द्वारका वहीं स्थापित की गई जिस स्थान पर रुक्मणि खड़ी थी। कुशस्थली भी है द्वारका द्वारका को शास्त्रों में कुशस्थली भी कहा गया है। ऐसी मान्यता है कि सतयुग में महाराजा रैवत ने समुद्र के मध्य की भूमि पर कुश बिछाकर कई यज्ञ किए थे। यहाँ कुश नाम का एक दानव था, जिसने बहुत उपद्रव फैला रखा था। ब्रह्माजी के अनेक प्रयासों के बाद भी जब वह दानव नहीं मरा तो त्रिविक्रम भगवान ने उसे भूमि में गाढ़कर उसके ऊपर उसी के आराध्य देव कुशेश्वर की लिंग मूर्ति स्थापित कर दी। दैत्य द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान ने उसे वरदान दिया कि द्वारका आने वाला जो व्यक्ति कुशेश्वर के दर्शन नहीं करेगा उसका आधा पुण्य उस दैत्य को मिलेगा। इसलिए समुद्र में विलीन हुई द्वारका धार्मिक महत्वता के साथ इस नगर के साथ कई रहस्य भी जुड़े हुए हैं। समस्त यदुवंशियों के मारे जाने और द्वारका के समुद्र में विलीन होने के पीछे मुख्य रूप से दो घटनाएं जिम्मेदार है। एक माता गांधारी द्वारा श्री कृष्ण को दिया गया श्राप और दूसरा ऋषियों द्वारा श्री कृष्ण पुत्र सांब को दिया गया श्राप। महाभारत के युद्ध में पांडवों की विजयी हुई। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को राजगद्दी पर बैठाया और राज्य से जुड़े नियम-कानून उन्हें समझाकर वे कौरवों की माता गांधारी से मिलने गए। कृष्ण के आने पर गांधारी फूट-फूटकर रोने लगीं और फिर क्रोधित होकर उन्हें श्राप दिया कि जिस तरह तुमने मेरे कुल का नाश किया तुम्हारे कुल का अंत भी इसी तरह होगा। श्री कृष्ण साक्षात भगवान थे, चाहते तो इस श्राप को निष्फल कर सकते थे, लेकिन उन्होंने मानव रूप में लिए अपने जन्म का मान रखा और गांधारी को प्रणाम करके वहां से चले गए। अन्य मान्यताओं के अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र सांब अपने मित्रों के साथ हंसी-ठिठोली कर रहे थे। उस समय महर्षि विश्वामित्र और कण्व ऋषि ने द्वारका में प्रवेश किया। जब सांब के नवयुवक मित्रों की दृष्टि इन महान ऋषियों पर पड़ी तो वे इन पुण्य आत्माओं का अपमान कर बैठे। इन युवकों ने सांब को एक महिला के वेश में तैयार किया और महर्षि विश्वामित्र तथा कण्व ऋषि के सामने पहुंचकर उनसे बोले यह स्त्री गर्भवती है। आप देखकर बताइए कि इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा? दोनों ही ऋषि युवकों के इस परिहास से अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने कहा कि इसके गर्भ से एक मूसल उत्पन्न होगा जिससे तुम जैसे दुष्ट, असभ्य और क्रूर लोग अपने समस्त कुल का नाश कर लेंगे। धार्मिक पुस्तकों के आधार पर, महाभारत युद्ध के 36वें वर्ष में द्वारका नगरी में बहुत अपशकुन होने लगे थे। इस पर सभी लोग द्वारका नगरी से तीर्थ के लिए निकल गए। प्रभास क्षेत्र में आने पर विश्राम के दौरान किसी बात पर ये लोग आपस में भिड़ गए। यह बहसबाजी, झगड़े में बदली और झगड़ा मार काट में बदल गया। इस दौरान ऋषियों का शाप इस रूप में फलिभूत हुआ कि लड़ाई के दौरान जो भी व्यक्ति खड़ी एरका घास को उखड़ता वह मूसल का रूप ले लेती। ऐसी मूसल जिसका एक वार ही व्यक्ति की जान लेने के लिए काफी था। इस सब की सुचना मिलते ही कृष्ण प्रभास पहुंचे, अपने पुत्र और प्रियजनों को मृत देखकर श्रीकृष्ण ने क्रोध में बाकी बचे लोगों का भी वध कर दिया। अंत में सिर्फ श्रीकृष्ण, उनके सारथी दारुक और बलराम बचे। इस पर श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा कि हस्तिनापुर जाकर अर्जुन को यहाँ लेकर आए। कृष्ण ने वासुदेव जी को इस नरसंहार के बारे में बताया और कहा कि जल्द यहां अर्जुन आएंगे। आप नगर की स्त्रियों और बच्चों को लेकर यहाँ से हस्तिनापुर चले जाये। जब श्रीकृष्ण वापस प्रभास क्षेत्र पहुंचे तब बलराम ध्यानावस्था में बैठे थे। कान्हा के पहुंचते ही उनके शरीर से शेषनाग निकल कर समुद्र में चले गए। अब श्रीकृष्ण अपने जीवन और गांधारी के श्राप के बारे में विचार करने लगे और फिर एक पेड़ की छांव में बैठ गए। इसी समय जरा नामक एक शिकारी का बाण उनके पैर में आकर लगा, और श्री कृष्ण ने अपनी देह त्याग दी। अर्जुन द्वारका पहुंचकर सभी महिलाओं और बच्चों को लेकर हस्तिनापुर चले गए। जैसे से ही उन लोगों ने नगर छोड़ा द्वारका का राजमहल और नगरी समुद्र में समा गई।
भारत के उत्तराखण्ड राज्य में चमोली जनपद नामक स्थान पर हिमालय की बर्फ से ढकी पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ बद्रीनाथ मंदिर हिन्दू धर्म का एक पवित्र तीर्थ स्थल है। भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर में उनके ‘बद्रीनारायण‘ रूप की पूजा होती है। यह स्थान हिन्दू धर्म में वर्णित सर्वाधिक पवित्र स्थानों, चार धामों, में से एक प्राचीन मंदिर है। बद्रीनाथ की यात्रा के बिना सारे तीर्थ अधूरे माने जाते है। समुद्र तल से लगभग 10,279 फुट की ऊंचाई पर अलकनंदा नदी के समीप गढ़वाल पहड़ी पर यह पुनः भूमि स्थित है। इस क्षेत्र में अधिक हिमपात होने के कारण मंदिर के कपाट साल में केवल 6 मन यानि अप्रैल माह से सितम्बर तक ही खुलते है। बद्रीनाथ मन्दिर में देवता विष्णु के रूप बद्रीनारायण की एक मीटर लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि चीन ने भारत पर आक्रमण कर इस मंदिर को तबाह कर दिया था और मंदिर में स्थित मूर्ति को नारद कुण्ड में डाल दिया था, जिसे जगत गुरु आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी मे वहां से निकालकर गरुड़ गुफा में पुनः स्थापित किया। विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण जैसे कई प्राचीन ग्रन्थों में इस मन्दिर का उल्लेख मिलता है। आठवीं शताब्दी से पहले आलवार सन्तों द्वारा रचित नालयिर दिव्य प्रबन्ध में भी इसकी महिमा का वर्णन है। बद्रीनाथ नगर, जहां ये मन्दिर स्थित है, हिन्दुओं के पवित्र चार धामों के अतिरिक्त छोटे चार धामों में भी गिना जाता है और यह विष्णु को समर्पित 108 दिव्य देशों में से भी एक है। एक अन्य संकल्पना अनुसार इस मन्दिर को बद्री-विशाल के नाम से पुकारते हैं और श्री विष्णु को ही समर्पित निकटस्थ चार अन्य मंदिरों – योगध्यान-बद्री, भविष्य-बद्री, वृद्ध-बद्री और आदि बद्री के साथ जोड़कर पूरे समूह को "पंच-बद्री" के रूप में जाना जाता है। बद्रीनाथ मंदिर ऋषिकेश से 294 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह 12 धाराओं में बंट गई। इस स्थान पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से प्रसिद्ध हुई और यहां पर बद्रीनाथ के रूप में भगवान विष्णु का निवास बना। भगवान विष्णु की प्रतिमा वाला वर्तमान मंदिर 3,133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और माना जाता है कि आठवीं शताब्दी के आदि शंकराचार्य ने इसका निर्माण कराया था। इसके पश्चिम में 27 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बद्रीनाथ शिखर की ऊंचाई 7,138 मीटर है। मंदिर में एक विष्णु की एक वेदी भी है। ये है मंदिर का इतिहास बद्रीनाथ मन्दिर की उत्पत्ति के विषय में कई कथाएं प्रचलित हैं। कुछ मान्यताओं के अनुसार, यह मन्दिर आठवीं शताब्दी तक एक बौद्ध मठ था, जिसे आदि शंकराचार्य ने एक हिन्दू मन्दिर में परिवर्तित कर दिया। इस तर्क के पीछे मंदिर की वास्तुकला एक प्रमुख कारण है, जो किसी बौद्ध मंदिर के समान है। इसका चमकीला तथा चित्रित मुख-भाग भी किसी बौद्ध मंदिर के समान ही प्रतीत होता है। अन्य स्रोत बताते हैं कि इस मन्दिर को नौवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा एक तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित किया गया था। एक अन्य मान्यता यह भी है कि शंकराचार्य छः वर्षों यानि 814 से 820 ई वीं तक इसी स्थान पर रहे थे। इस स्थान में अपने निवास के दौरान वह छह महीने के लिए बद्रीनाथ में, और फिर शेष वर्ष केदारनाथ में रहते थे। हिंदू अनुयायियों का कहना है कि बद्रीनाथ की मूर्ति देवताओं ने स्थापित की थी। जब भारत में बौद्धों की पराजय हुई तो उन्होंने मंदिर की मूर्ति को अलकनंदा नदी में फेंक दिया। शंकराचार्य ने ही अलकनंदा नदी में से बद्रीनाथ की इस मूर्ति की खोज की, और इसे तप्त कुंड नामक गर्म चश्मे के पास स्थित एक गुफा में स्थापित किया। उसके बाद मूर्ति फिर से स्थानांतरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की। एक अन्य मान्यता के अनुसार अनुसार शंकराचार्य ने परमार शासक राजा कनक पाल की सहायता से इस क्षेत्र से सभी बौद्धों को निष्कासित कर दिया था। इसके बाद कनकपाल, और उनके उत्तराधिकारियों ने ही इस मंदिर की प्रबंध व्यवस्था संभाली। गढ़वाल के राजाओं ने मन्दिर प्रबन्धन के खर्चों को पूरा करने के लिए ग्रामीणों के एक समूह की स्थापना की। इसके अतिरिक्त मन्दिर की ओर आने वाले रास्ते पर भी कई ग्राम बसाये गए, जिनसे हुई आय का उपयोग तीर्थयात्रियों के खाने और ठहरने की व्यवस्था करने के लिए किया जाता था। समय के साथ-साथ, परमार शासकों ने "बोलांद बद्रीनाथ" नाम अपना लिया, जिसका अर्थ बोलते हुए बद्रीनाथ है। इस समय तक गढ़वाल राज्य के सिंहासन को "बद्रीनाथ की गद्दी" कहा जाने लगा था, और मंदिर में जाने से पहले भक्त राजा को श्रद्धा अर्पित करते थे। यह प्रथा उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक जारी रही। बताया जाता है कि सोलहवीं शताब्दी में गढ़वाल के तत्कालीन राजा ने बद्रीनाथ की मूर्ति को गुफा से लाकर वर्तमान मंदिर में स्थापित किया। मंदिर के बन जाने के बाद इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने यहां स्वर्ण कलश छत्री चढ़ाई थी। बीसवीं शताब्दी में जब गढ़वाल राज्य को दो भागों में बांटा गया, तो बद्रीनाथ मन्दिर ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया, हालांकि मन्दिर की प्रबंधन समिति का अध्यक्ष तब भी गढ़वाल का राजा ही होता था। कई बार हुआ मंदिर का नवीनीकरण मन्दिर की आयु, और क्षेत्र में निरंतर आने वाले हिमस्खलनों के कारण होने वाली क्षति के फलस्वरूप मन्दिर का कई बार नवीनीकरण हुआ है। सत्रहवीं शताब्दी में गढ़वाल के राजाओं द्वारा मंदिर का विस्तार करवाया गया था। 1803 में इस हिमालयी क्षेत्र में आये एक भूकम्प ने मन्दिर को भारी क्षति पहुंचाई थी, जिसके बाद यह मन्दिर जयपुर के राजा द्वारा पुनर्निर्माण करवाया गया था। यह मंदिर प्रथम विश्व युद्ध के समय तक बनकर पूरी तरह से तैयार हो गया था। इस समय तक मन्दिर के आस पास एक छोटा सा नगर भी बसने लगा था, जिसमें मंदिर के कर्मचारियों के आवास के रूप में 20 झोपड़ियां थी। मन्दिर को विभिन्न राजाओं द्वारा दान दिए गए कई ग्रामों से भी राजस्व प्राप्ति होती थी। 2003 में राज्य सरकार ने अवैध अतिक्रमण पर रोक लगाने के लिए बद्रीनाथ के आसपास के क्षेत्र को नो-कंस्ट्रक्शन जोन घोषित कर दिया। ऐसे पड़ा नाम बद्रीनाथ पौराणिक कथाओं के अनुसार मुनि नारद एक बार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे, जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा। चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवान विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए। जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने खुद भगवान विष्णु के पास खड़े हो कर एक बेर (बदरी) के पेड़ का रूप ले लिया और सारी बर्फ को अपने ऊपर सहने लगीं। माता लक्ष्मी, भगवान विष्णु को धूप, बारिश और बर्फ से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गई। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूरा किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं, तब उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है, इसलिए आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा। इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बद्रीनाथ पड़ा। जिस स्थान पर भगवान ने तप किया था, वही पवित्र-स्थल आज तप्त-कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है और उनके तप के रूप में आज भी उस कुण्ड में हर मौसम में गर्म पानी उपलब्ध रहता है। वही हिमालय में स्थित बद्रीनाथ क्षेत्र भिन्न-भिन्न कालों में अलग नामों से प्रचलित रहा है। स्कन्द पुराण में बद्री क्षेत्र को "मुक्तिप्रदा" के नाम से जाना जाता था, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि सतयुग में यही इस क्षेत्र का नाम भी था। त्रेता युग में भगवान नारायण के इस क्षेत्र को योग सिद्ध , और फिर द्वापर युग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण इसे मणिभद्र आश्रम या विशाला तीर्थ कहा गया है। कलियुग में इस धाम को बद्रिकाश्रम अथवा "बद्रीनाथ" के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि स्थान का यह नाम इस क्षेत्र में अधिक मात्रा में पाए जाने वाले बद्री यानी बेर के वृक्षों के कारण पड़ा था। एडविन टी॰ एटकिंसन ने अपनी पुस्तक, "द हिमालयन गजेटियर" में इस बात का उल्लेख किया है कि इस स्थान पर पहले बद्री के घने वन पाए जाते थे, हालांकि अब उनका कोई निशान नहीं बचा है। कई प्राचीन ग्रन्थों में वर्णन बद्रीनाथ मन्दिर का उल्लेख विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण समेत कई प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। कई वैदिक ग्रंथों में भी मंदिर के प्रधान देवता, बद्रीनाथ का उल्लेख मिलता है। स्कन्द पुराण में इस मन्दिर का वर्णन करते हुए लिखा गया है: "बहुनि सन्ति तीर्थानि दिव्य भूमि रसातले। बद्री सदृश्य तीर्थं न भूतो न भविष्यतिः॥", अर्थात् स्वर्ग, पृथ्वी तथा नर्क तीनों ही जगह अनेकों तीर्थ स्थान हैं, परन्तु फिर भी बद्रीनाथ जैसा कोई तीर्थ न कभी था, और न ही कभी होगा। मंदिर के आसपास के क्षेत्र को पद्म पुराण में आध्यात्मिक निधियों से परिपूर्ण कहा गया है। भागवत पुराण के अनुसार बद्रिकाश्रम में भगवान विष्णु सभी जीवित इकाइयों के उद्धार हेतु नर तथा नारायण के रूप में अनंत काल से तपस्या में लीन हैं। महाभारत में बद्रीनाथ का उल्लेख करते हुए लिखा गया है- "अन्यत्र मरणामुक्ति: स्वधर्म विधिपूर्वकात। बदरी दर्शनादेव मुक्ति: पुंसाम करे स्थिता॥" अर्थात अन्य तीर्थों में तो स्वधर्म का विधि पूर्वक पालन करते हुए मृत्यु होने से ही मनुष्य की मुक्ति होती है, किन्तु बद्री विशाल के दर्शन मात्र से ही मुक्ति उसके हाथ में आ जाती है। मंदिर में जलती है अखंड ज्योति ये स्थान पंच-बदरी में से एक बद्री है। उत्तराखंड के पंच बदरी, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इस मंदिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञान ज्योति का प्रतीक है। यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ-स्थल है। यहां पर ठंड के कारण अलकनन्दा में स्नान करना अत्यंत ही कठिन है। अलकनन्दा के तो दर्शन ही किये जाते हैं और यात्री तप्तकुण्ड में स्नान करते हैं। यहां वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। बद्रीनाथ मंदिर को लेकर कई मान्यताएं है प्रचलित - बद्रीनाथ मंदिर की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हो रही थी , तो गंगा नदी 12 धाराओं में बंट गयी। इसलिए इस जगह पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस जगह को भगवान विष्णु ने अपना निवास स्थान बनाया और यह स्थान बाद में “बद्रीनाथ” कहलाया। - बद्रीनाथ मंदिर की मान्यता यह भी है कि प्राचीन काल मे यह स्थान बेर के पेड़ो से भरा हुआ करता था। इसलिए इस जगह का नाम बद्री वन पड़ गया। यह भी कहा जाता है की इसी गुफा में वेदव्यास ने महाभारत लिखी थी और पांडवो के स्वर्ग जाने से पहले यह जगह उनका अंतिम पड़ाव था, जहां वे रुके थे। - बद्रीनाथ मंदिर के बारे में एक मुख्य कहावत है ” जो जाऐ बद्री, वो ना आये ओदरी “ अर्थात जो व्यक्ति बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है। उसे माता के गर्भ में नहीं आना पड़ता है। मतलब दर्शन करने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है। - बद्रीनाथ धाम की मान्यता यह है कि बद्रीनाथ में भगवान शिव जी को ब्रह्म हत्या से मुक्ति मिली थी।इस घटना को “ब्रह्मकपाल” नाम से जाना जाता है। ब्रह्मकपाल एक ऊँची शिला है, जहां पितरों का तर्पण,श्राद्ध किया जाता है। माना जाता है कि यहां श्राद्ध करने से पितरों को मुक्ति मिल जाती है। - इस जगह के बारे में यह भी कहते है कि इस जगह पर भगवान विष्णु के अंश नर और नारायण ने तपस्या की थी। नर अगले जन्म में अर्जुन और नारायण श्री कृष्ण के रूप में जन्मे थे । - बद्रीनाथ के बारे में कहा जाता है कि यहां पहले भगवान भोलेनाथ का निवास हुआ करता था लेकिन बाद में भगवान विष्णु ने इस स्थान को भगवान शिव से मांग लिया था। - मान्यता है कि केदारनाथ और बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं उस समय मंदिर में जलने वाले दीपक के दर्शन का खास महत्व होता है। ऐसा माना जाता है कि 6 महीने तक बंद दरवाजे के अंदर देवता इस दीपक को जलाए रखते हैं। - बद्रीनाथ के पुजारी शंकराचार्य के वंशज होते हैं। कहा जाता है कि जब तक यह लोग रावल पद पर रहते हैं इन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है। इन लोगों के लिए स्त्रियों का स्पर्श वर्जित माना जाता है। - केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि केदारनाथ के रावल के निर्देशन में उखीमठ में पंडितों द्वारा तय की जाती है। इसमें सामान्य सुविधाओं के अलावा परंपराओं का ध्यान रखा जाता है। यही कारण है कि कई बार ऐसे भी मुहूर्त भी आए हैं जिससे बद्रीनाथ के कपाट केदारनाथ से पहले खोले गए हैं। जबकि आमतौर पर केदारनाथ के कपाट पहले खोले जाते है।
भारत की प्राचीन स्थापत्य कला में मंदिरों का विशिष्ट स्थान है। अपनी अनूठी वास्तुकला और अद्धितीय शिल्पकारी के लिए कई मंदिर मशहूर है, लेकिन दक्षिण भारतीय वास्तुकला का अनूठा नमूना है तिरुपति बालाजी मंदिर। यह मंदिर आंध्रप्रदेश की तिरुमाला की दिव्य सात पहाड़ियों के सातवें वेकेटाद्री नामक शिखर पर स्थित है, इन पहाड़ियों में नारायणाद्री, अंजनद्री, नीलाद्री, शेषाद्रि, गरुदाद्री, वृशाभद्री, और वेंकटचला शामिल हैं। तिरुपति बालाजी मंदिर विश्व के सबसे प्रसिद्ध और अमीर धार्मिक स्थलों में शामिल है। ऐसा माना जाता है कि ये सात चोटियां भगवान विष्णु के सात सिर का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह भगवान विष्णु जी को समर्पित एक पवित्र धाम है। बालाजी और भगवान वेंकटेश्वर को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। इसलिए इस मंदिर को श्री वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। आपको बता दें कि भगवान वेंकटेश्वर को श्रीनिवास और गोविंदा के नाम से भी जाना जाता है। तिरुमाला की पहाड़ियों में बना यह भव्य मंदिर भगवान विष्णु के 8 स्वयंभू मंदिरों में से एक है। यह विश्व प्रसिद्ध मंदिर द्रविड़ वास्तु शैली में बनाया गया है, वहीं भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला और शिल्पकला का एक नायाब नमूना है, जिसके दर्शन के लिए दुनिया के कोने-कोने से श्रद्धालु आते हैं। इस मंदिर का अपना एक अलग धार्मिक महत्व और मान्यताएं हैं, यही वजह है कि बड़ी संख्या में लोगों की इस मंदिर से गहरी आस्था जुड़ी हुई हैं। वहीं श्री वेंकटेश्वर मंदिर में बड़े-बड़े राजेनता, कारोबारियों, फिल्म स्टार आदि के द्वारा हर साल लाखों-करोड़ों रुपए का बेहिसाब चढ़ावा चढ़ाया जाता है। 12 साल के बंद किया गया था कपाट माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्दी से आरम्भ हुआ था। जब करांचीपुरम के शासक वंशपल्ल्वियों ने इस स्थान पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। किन्तु 15वीं शताब्दी में तिरुमाला की सातवीं पहाड़ी में स्थित इस प्रसिद्ध तिरुपति बालाजी मंदिर को प्रसिद्धि मिली है। इस प्रसिद्ध मंदिर का कार्यभार 1843 ईसवी से लेकर 1933 ईसवी तक हाथीरामजी मठ के महंत ने संभाला था। इसके बाद 1933 में मंदिर की देखरेख का जिम्मा मद्रास सरकार ने ले लिया था, फिर बाद में इस मंदिर का प्रबंधन की जिम्मेदारी एक स्वतंत्र प्रबंधन समिति तिरुमाला-तिरुपति को सौंप दी गई थी। इसके बाद जब आंध्रप्रदेश राज्य का गठन हुआ था, उसके बाद एक तिरुपति बोर्ड बनाया गया जो कई शहरों और कस्बों में मंदिरों का संचालन करता है। इस मंदिर को लेकर ऐसी मान्यता है कि जब 18वीं सदी में 12 साल के लिए इस मंदिर के पट को बंद किया गया था, तब किसी शासक ने 12 लोगों को मौत के घाट उतारकर दीवार पर लटका दिया था। उस समय विमान में प्रभु वेंकटेश्वर प्रकट हुए थे। ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु जी ने कलियुग में मानव जाति को विपत्तियों से बचाने के लिए वेंकटेश्वर जी का अवतार लिया था। वहीं इस मंदिर में वेंकटेश्वर भगवान की स्वयं प्रकट हुई मूर्ति विराजमान है, जिसे आनंद निलायम भी कहा जाता है, इसमें भगवान श्रीवनिवास जी की बेहद आर्कषक और सुंदर प्रतिमा भी है। तिरुपति बालाजी से जुड़ी पौराणिक कथाएं एवं धार्मिक मान्यताएं मंदिर से जुड़ी प्रख्यात पौराणिक कथा के मुताबिक एक बार पृथ्वी पर जब विश्व कल्याण के लिए यज्ञ का आयोजन किया गया था, तब इस यज्ञ का फल ब्रम्हा, विष्णु और महेश तीनों भगवान में किसे अर्पित किया जाए। इसे जानने के लिए इसकी जिम्मेदारी अपने क्रोध के लिए पहचाने जाने वाले भृगु ऋषि को सौंपी गई थी, क्योंकि भृगु ऋषि ही देवताओं की परीक्षा लेने का साहस कर सकते थे। जिसके बाद ऋषि भृगु सबसे पहले ब्रहा् जी के पास गए, लेकिन ब्रह्रा जी वीणा की धुन में लीन थे और उन्होनें भृगु ऋषि पर ध्यान नहीं दिया। क्रोधित होकर भृगु ऋषि वहां से चले गए। इसके बाद ऋषि भृगु भगवान शिव के पास गए, जहां भगवान शिव-पार्वती वार्तालाप में लीन थे और उन्होंने भी ऋषि भृगु की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया, क्रोधित ऋषि भृगु ने भगवान शिव को श्राप दिया कि उनके केवल लिंग की पूजा होगी। वहीं जब ऋषि भृगु ने यज्ञ का फल देने के लिए ब्रह्रा और महेश भगवान को ठीक नहीं समझा तब वे सबसे आखिरी में विष्णु भगवान के पास गए। जहां भगवान विष्णु भी उस वक्त अपनी शैया पर आराम कर रहे थे। ऋषि भृगु ने उन्हें कई आवाजें दी लेकिन भगवान विष्णु ने जब उनकी एक भी आवाज नहीं सुनी तब क्रोधित होकर ऋषि भृगु ने भगवान विष्णु के सीने पर लात मार दी, जिसके बाद भगवान विष्णु ने क्रोध करने की बजाय ऋषि भृगु का पैर पकड़ लिया और मालिश करते हुए ऋषि से पूछा कि कहीं उनको चोट तो नहीं लगी। जिससे प्रसन्न होकर ऋषि भृगु ने विष्णु जी को यज्ञ का पुरोहित बना दिया। इस हरकत से माँ लक्ष्मी क्रोधित हुई, क्योंकि भगवान विष्णु जी का वक्षस्थान माता लक्ष्मी का निवास स्थान है और वहां ऋषि भृगु को लात मारने का दुस्साहस किया। साथ ही माता लक्ष्मी को भगवान विष्णु पर भी गुस्सा आया कि ऋषि भृगु को दंड देने की बजाय विष्णु जी ने ऋषि के पैर पकड़कर माफी मांग ली। कहा जाता है कि जिसके बाद क्रोधित माता लक्ष्मी जी वैकुंठ धाम में विष्णु जी को छोड़कर चली गईं। इसके बाद उन्होंने माता लक्ष्मी की बहुत खोज की औऱ जब वे कहीं नहीं मिली तो तब उन्होंने धरतीलोक पर आंध्रप्रदेश की एक पहाड़ी पर शरण ली, जो वर्तमान में वेंकटाद्री के पवित्र पहाड़ी के नाम से जानी जाती है। श्रद्धालुओं की अटूट आस्था इस मंदिर से जुडी है। वेंकटेश्वर की मूर्ति में चोट का निशान जब ब्रह्म और भगवान शिव ने विष्णु जी का दर्द देखा तब ब्रह्म जी गाय का और शंकर जी ने बछड़े का रुप धारण कर धरती पर प्रकट हुए। जिन्हें चोल देश के एक शासक ने खरीद लिया और वे उन्हें वेंकट पहाड़ी के खेतो में चरने के लिए रोजाना भेजते हैं। लेकिन जब एक दिन गाय ने उन्हें दूध देना बंद कर दिया तब उन्होंने गाय पर नजर रखने के लिए एक दास को दायित्व दिया। तो उस दास ने देखा कि गाय वेंकट पहाड़ी पर अपना सारा दूध गिरा देती है। जिसे देख गाय पर नजर रख रहे आदमी ने क्रोधित होकर गाय को कुल्हाड़ी फेंक कर मारी तब भगवान विष्णु प्रकट हो गए, और वो कुल्हाड़ी विष्णु जी के माथे पर लग गई। वहीं उस चोट का निशान आज भी भगवान वेंकटेश्वर की मूर्तियों में दिखता है। कुल्हाड़ी लगने के बाद भगवान विष्णु ने पहले तो चौल वंश के शासक को असुर बनने का श्राप दिया, लेकिन फिर बाद में राजा के द्वारा माफी मांगने पर विष्णु जी ने उस राजा को एक पद्मवती नाम की पुत्री होने का वरदान दिया और वह अपनी बेटी का विवाह श्रीनिवास से करेगा। इस तरह भगवान विष्णु श्रीनिवास का रुप धारण कर वराह में रहने लगे। इसके कुछ सालों बाद भगवान विष्णु के अवतार श्रीनिवास और माता लक्ष्मी के अवतार पद्मावती दोनों का विवाह हो गया। कर्ज का करते है भुगतान पौराणिक कथाओं के मुताबिक ऐसी भी मान्यता है कि भगवान विष्णु ने विवाह का खर्चा उठाने के लिए यह कहकर धन कुबेर से उधार लिया कि वे उनके ऋण को कलियुग के अंत तक चुका देंगे। वहीं भगवान विष्णु के कर्ज में डूबे होने के कारण ऐसी मान्यता है कि कोई भी भक्त तिरुपति बालाजी के मंदिर में अपनी श्रद्धा से जो कुछ भी चढ़ाता है तो वह भगवान विष्णु के ऊपर कुबेर के कर्ज को चुकाने में मदद करता है वहीं इस मान्यता की वजह से बड़े उद्योगपति और धनवान लोग यहां खूब चढ़ावा चढ़ाते हैं, यही वजह है कि यह मंदिर विश्व के सबसे अमीर मंदिरों में शुमार है। केशदान करते है श्रद्धालु इस मंदिर की खास बात यह भी है कि श्रद्धालु प्रभु को अपने केश समर्पित करते हैं। इसका अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना अहंकार ईश्वर को समर्पित करते हैं। पुराने समय में यह संस्कार घरों में ही नाई द्वारा संपन्न किया जाता था, पर समय के साथ-साथ इस संस्कार का भी केंद्रीकरण हो गया और मंदिर के पास स्थित कल्याण कट्टा नामक स्थान पर यह सामूहिक रूप से संपन्न किया जाने लगा। कई श्रद्धालु यहाँ आकर भगवान् को अपने बाल भेंट स्वरुप देते है, जिसे “मोक्कू” कहा जाता है। रोज़ इन बालो को जमा किया जाता है और बाद में मंदिर की संस्था द्वारा इसे नीलाम कर बेच दिया जाता है। कुछ समय पहले ही मंदिर की संस्था ने बालो को बेचकर 6 मिलियन डॉलर की कमाई की थी। मंदिर में किसी भी स्त्रोत से आने वाली यह दूसरी सबसे बड़ी कमाई मानी जाती है। कई चमत्कार, कई रहस्य बालाजी की पीठ रहती है गीली, मूर्ति को आता है पसीना विश्व प्रसिद्ध इस श्री वेंकटेश्वर मंदिर से जुड़ी एक यह भी मान्यता है कि इस मंदिर में विराजित बालाजी की प्रतिमा पर पसीना आता है और उनकी पीठ को कई बार कपड़े से पोछने पर भी इस पर नमी बनी रहती है। ऐसा क्यों होता है इसका जवाब आज तक किसी को नहीं मिल पाया है। इसके अलावा चमत्कारी तिरुपति बालाजी मंदिर में बालाजी की प्रतिमा पर जो भी फूल-मालाएं आदि चढ़ाईं जाती हैं उन्हें मूर्ति के पीछे फेंक दिया जाता है, इनको देखना अशुभ और पाप माना जाता है। इसके आलावा भगवान बालाजी के सिर पर रेशमी केश हैं, और उनमें गुत्थिया नहीं आती और वह हमेशा सुलझे रहते है। अति आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि भगवान बालाजी गर्भगृह के मध्य भाग में खड़े दिखते हैं लेकिन, वे दाई तरफ के कोने में खड़े हैं बाहर से देखने पर ऎसा लगता है। बालाजी को प्रतिदिन नीचे धोती और उपर साड़ी से सजाया जाता है। हमेशा जलता रहता है दीपक लाखों भक्तों की आस्था से जुड़े इस तिरुपति बालाजी मंदिर में एक दीपक बिना तेल और घी डाले ही हमेशा जलता रहता है, जो अपने आप में एक चमत्कार माना जाता है। वहीं इस दीपक के जलने के रहस्य का आज तक पता नहीं लगाया जा सका है। तिरुपति बालाजी मंदिर में होने वाले कुछ चमत्कारों की वजह से ऐसा माना जाता है कि भगवान वेंकटेश्वर जी यहां साक्षात विराजित हैं। वहीं इस मंदिर में हर गुरुवार के दिन जब बालाजी का पूरा श्रंगार उतारकर उन्हें स्नान करवाकर चंदन का लेप लगया जाता है, तब बालाजी के ह्रदय पर लगे चंदन में माता लक्ष्मी की अनोखी छवि दिखती है। मूर्ति पर लगाया जाता है पचाई कपूर श्री वेंकटेश्वर भगवान जी की प्रतिमा पर बेहद खास तरह का पचाई कपूर भी लगाया जाता है, वहीं वैज्ञानिकों की माने तो यह कपूर जिस भी पत्थर पर लगाया जाता है, तो वह कुछ समय बाद ही चटक जाता है, लेकिन वेंककटेश्वर जी की प्रतिमा पर पचाई कपूर लगाने का कोई असर नहीं होता है। इसके पीछे क्या कारण है यह भी रहस्य है। विश्व का सार्वधिक धनी और समृद्ध मंदिर के रुप में तिरुपति बालाजी मंदिर सप्तगिरी की पहाड़ियों पर बना हुआ यह अद्भुत मंदिर विश्व के सबसे समृद्ध और अमीर मंदिरों में से एक है, इस मंदिर से भक्तों की गहरी आस्था जुड़ी हुई है, इसलिए यहां बड़े-बड़े उद्योगपति, राजनेता एवं फिल्मस्टार करोड़ों रुपए का चढ़ावा चढ़ाते हैं। यहां रोजाना 50 हजार से करीब 1 लाख तक लोग दर्शन के लिए आते हैं। वहीं इस मंदिर के ट्रस्ट के खजाने में करीब 50 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा की संपत्ति है। पुरानी पारंपरिक विधि से बनता है प्रसाद यहां की गुप्त रसोई (पोटू) में रोज प्रसाद के लिए 3 लाख लड्डू बनाए जाते हैं। इन लड्डूओं को बनाने के लिए यहां के कारीगर 300 साल पुरानी पारंपरिक विधि का प्रयोग करते हैं। खास बात यह है कि ये लड्डू केवल पुंगनूर प्रजाति की गाय के दूध से बने मावे से ही बनाए जाते हैं और ऐसा सालों से होता आ रहा है। वहीं मंदिर में रोजाना तीन बार प्रसाद तैयार होता है। लड्डू के अलावा बाकी प्रसाद निःशुल्क दिया जाता है। तीनों समय चावल के साथ प्रसाद बनता है।
जगन्नाथ धाम को चार वैष्णव धामों में से एक माना जाता है। ओडिशा के पूरी में विराजमान भगवान जगन्नाथ को भगवान विष्णु के पूर्ण कला अवतार श्रीकृष्ण का ही एक रूप माना जाता हैं। महाप्रभु जगन्नाथ को कलयुग का भगवान भी कहते है। पुरी में जगन्नाथ स्वामी अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ निवास करते है। इसे श्री क्षेत्र, श्री पुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं। यहां लक्ष्मीपति ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथ जी की सारी रीतियां करते हैं। भगवान जगन्नाथ के मंदिर में आज भी कई ऐसे चमत्कार होते है जिसका जवाब विज्ञान के पास भी नहीं है। आंखों पर पट्टी बांध बदली जाती हैं मूर्तियां : भगवान जगन्नाथ और अन्य प्रतिमाएं उसी साल बदली जाती हैं जब साल में आसाढ़ के दो महीने आते हैं। इस मौके को नव-कलेवर कहते हैं। नई मूर्तियों का हिन्दू विधिवत तरीके से स्थापन किया जाता है। मूर्ति बदलने की इस प्रकिया से भी कई रोचक किस्से जुड़े है। इस विधि के दौरान मंदिर परिसर के साथ लगते क्षेत्र में बिजली काट दी जाती है और पूरा परिसर अँधेरे में डूब जाता है। मुख्य पुजारी के आँखों पर पट्टी बाँधी जाती है, कपाट के बाहर जवान तैनात होते है और मंदिर के भीतर जाने की किसी भी सूरत में अनुमति नहीं मिलती। केवल मुख्य पुजारी को ही प्रवेश करने की अनुमति होती है जो मूर्ति को बदलते है। पुजारी के हाथ में दस्ताने होते है वो पुरानी मूर्ति से “ब्रह्म पदार्थ” निकालता है और नई मूर्ति में डाल देता है। ब्रह्मा पदार्थ को लेकर कई सवाल बरकरार : ये ब्रह्म पदार्थ क्या है आजतक किसी को पता नहीं चल पाया, इसे आजतक किसी ने नही देखा पर इससे जुड़ी कई किवदंतियां है और कई रोचक किस्से। इस ब्रह्म पदार्थ का संबंध भगवान श्री कृष्ण से है। मगर, आज तक कोई भी पुजारी ये नहीं बता पाया कि महाप्रभु जगन्नाथ की मूर्ति में आखिर ऐसा क्या है। कुछ पुजारियों का कहना है कि जब हमने उसे हाथ में लिया तो कुछ उछलने जैसा प्रतीत हुआ। मानों जैसे खरगोश उछल रहा हो या जैसे दिल धड़क रहा हो। ब्रह्मा पदार्थ को लेकर सभी के मन में कई सवाल है जिसका जवाब आजतक किसी को पूर्णता नहीं मिल पाया। सबसे आगे बलराम का रथ, पीछे - पीछे श्रीकृष्ण : जगन्नाथ की यात्रा दुनिया की सबसे बड़ी रथयात्रा मानी जाती है। हर साल आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान जगन्नाथजी की पुरी में रथ यात्रा निकाली जाती है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ के अलावा उनके बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा का रथ भी निकाला जाता है। इस रथ यात्रा को लेकर मान्यता है कि एक दिन भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने उनसे द्वारका के दर्शन कराने की प्रार्थना की थी। तब भगवान जगन्नाथ ने अपनी बहन की इच्छा पूर्ति के लिए उन्हें रथ में बिठाकर पूरे नगर का भ्रमण करवाया था और इसके बाद से इस रथ यात्रा की शुरुआत हुई थी। जगन्नाथ की रथ यात्रा के बारे में स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी बताया गया है, इसलिए हिंदू धर्म में इसका विशेष है। रथयात्रा के लिए भगवान बलराम, श्रीकृष्ण और देवी सुभद्रा के लिए तीन अलग-अलग रथ निर्मित किए जाते हैं। सबसे आगे बलराम जी का रथ, उसके बाद बीच में देवी सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ श्रीकृष्ण का रथ होता है। बलरामजी के रथ को 'तालध्वज' कहते हैं, जिसका रंग लाल और हरा होता है। देवी सुभद्रा के रथ को 'दर्पदलन' कहा जाता है, जो काले या नीले और लाल रंग का होता है, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ को 'गरुड़ध्वज' कहते हैं। इसका रंग लाल और पीला होता है। इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या अन्य किसी धातु का प्रयोग नहीं होता है। रथों के लिए काष्ठ यानि लकड़ी का चयन बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है। जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा शुरू होकर यह रथ गुंडीचा मंदिर पहुंचते हैं। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं। भगवान जगन्नाथ के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है। प्रतिमा में है ब्रह्मा जी का वास : ऐसी मान्यता है कि मंदिर में मौजूद प्रतिमा के अंदर ब्रह्मा जी का वास है। जब श्रीकृष्ण ने धर्म स्थापना के लिए धरती पर अवतार लिया तब उनके पास अलौकिक शक्तियां थी लेकिन शरीर मानव का था। जब धरती पर उनका समय पूरा हो गया तो वो शरीर त्याग कर अपने धाम चले गए। इसके बाद पांडवों ने उनका अंतिम संस्कार किया लेकिन शरीर ब्रह्मलीन होने के बाद भी उनका हृदय जलता रहा। पांडवों ने इसे जल में प्रवाहित कर दिया। जल में हृदय ने लट्ठे का रूप धारण कर लिया और ओडिशा के समुद्र तट पर पहुंच गया व यही लठ्ठा राजा इंद्रद्युम्न को मिल गया। आज तक अधूरी है मूर्तियां: मान्यताओं के मुताबिक नरेश इंद्रद्युम्न, जो भगवान विष्णु के भक्त थे उन्हें स्वयं श्री हरि ने सपने में दर्शन दिए और कहा कि पुरी के समुद्र तट पर तुम्हें एक लकड़ी का लठ्ठा मिलेगा, उस से मूर्ति का निर्माण करवाओ। राजा जब तट पर पहुंचे तो उन्हें लकड़ी का लट्ठा मिल गया। अब उनके सामने यह प्रश्न था कि मूर्ति किससे बनवाएं। कहा जाता है कि भगवान विष्णु और स्वयं विश्वकर्मा के साथ एक वृद्ध मूर्तिकार के रूप में प्रकट हुए। वृद्ध मूर्तिकार ने कहा कि वे एक महीने के अंदर मूर्तियों का निर्माण कर देंगें लेकिन इस काम को एक बंद कमरे में अंजाम देंगें। एक महीने तक कोई भी इसमें प्रवेश नहीं करेगा और न कोई तांक-झांक करेगा, चाहे वह राजा ही क्यों न हों। महीने का आखिरी दिन था, कमरे के भीतर से कोई आवाज नहीं आ रही थी। कोई हलचल न देख राजा विचलित हुए और वे अंदर झांककर देखने लगे लेकिन तभी वृद्ध मूर्तिकार दरवाजा खोलकर बाहर आ गए और राजा को बताया कि मूर्तियां अभी अधूरी हैं, उनके हाथ और पैर नहीं बने हैं। राजा को अपने कृत्य पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने वृद्ध से माफी भी मांगी लेकिन उन्होंने कहा कि यह मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जाएगी। अधूरी बनी तीनों मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गईं। आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की मूर्तियां उसी अवस्था में हैं। विश्व प्रसिद्ध है मंदिर की पाकशाला : मंदिर के रसोईघर को दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर माना जाता है। मंदिर में 752 चूल्हों पर 500 रसोइए और 300 सहयोगी रसोइए साल भर भोग बनाने के कार्य में जुटे रहते हैं। मंदिर के रसोई घर में जहां महा प्रसाद बनता है वहां बर्तन केवल मिट्टी के होते हैं। यहां बनने वाले भोजन के सात पात्र एक के ऊपर एक रखकर पकाए जाते हैं। अचंभित करने वाली बात ये है की भोग सबसे पहले नीचे नहीं ऊपर के पात्र में पकता है। मंदिर में हमेशा एक ही मात्रा में भोग बनता है लेकिन भक्त की संख्या या घटने पर भी भोग कम या ज्यादा नहीं पड़ता। इतना ही नहीं मंदिर का कपाट बंद होते ही भोग भी खत्म हो जाता है। यह रहस्य भी कोई नहीं सुलझा पाया : जगन्नाथ मंदिर करीब चार लाख वर्ग फीट एरिया में है। इसकी ऊंचाई 214 फीट है। आमतौर पर दिन में किसी वक्त किसी भी इमारत या चीज या इंसान की परछाई जमीन दिखाई देती है लेकिन जगन्नाथ मंदिर की परछाई कभी किसी ने नहीं देखी। इसके अलावा मंदिर के शिखर पर जो झंडा लगा है, उसे लेकर भी बड़ा रहस्य है। इस झंडे को हर रोज बदलने का नियम है। मान्यता है कि अगर किसी दिन झंडे को नहीं बदला गया तो शायद मंदिर अगले 18 सालों के लिए बंद हो जाएगा। इसके अलावा ये झंडा हमेशा हवा की विपरीत दिशा में उड़ता है। मंदिर के शिखर पर एक सुदर्शन चक्र भी है। कहा जाता है कि पुरी के किसी भी कोने से अगर इस सुदर्शन चक्र को देखा जाए तो उसका मुंह आपकी तरफ ही नजर आता है। इसी तरह प्रभु जगन्नाथ मंदिर के ऊपर से परिंदे नहीं गुजरते, ये भी एक रहस्य है। अचंभित करने वाला सिंहद्वार का रहस्य : जगन्नाथ पुरी मंदिर समुद्र किनारे पर है। मंदिर में एक सिंहद्वार है, कहा जाता है कि जब तक सिंहद्वार में कदम अंदर नहीं जाता तब तक समंदर की लहरों की आवाज सुनाई देती है, लेकिन जैसे ही सिंहद्वार के अंदर कदम जाता है लहरों की आवाज खत्म हो जाती है। इसी तरह सिंहद्वार से निकलते वक्त वापसी में जैसे ही पहला कदम बाहर निकलता है, समंदर की लहरों की आवाज फिर आने लगती है। इसके पीछे क्या कारण है इसका जवाब आजतक किसी को नहीं मिल पाया है। सोने के झाड़ू से किया जाता है मार्ग साफ: सूर्योदय से पहले ही रथयात्रा की तैयारियां शुरू हो जाती है। इस यात्रा की एक और खास बात है, इसके शुरू होने से पहले इसके मार्ग को 'सोने की झाड़ू' से साफ किया जाता है। इसके बाद रथों की पूजा की जाती है, फिर रथों को खींचकर जगन्नाथ मंदिर से 3 कि.मी. दूर गुंडीचा मंदिर ले जाते हैं। इस स्थान को भगवान की मौसी का घर कहते है, जहां तीनों भाई-बहन 7 दिनों तक आराम करते हैं और इसके बाद फिर आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ वापस मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। वापसी की यह यात्रा 'बहुड़ा यात्रा' कहलाती है।
आज आषाढ़ माह की विनायक चतुर्थी है। यह त्योहार भगवान गणेश जी को समर्पित है। इस दिन गणेश भगवान की विधि-विधान से पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस व्रत को करने से जातकों के समस्त प्रकार के विघ्न, संकट मिट जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार, गणेश भगवान सभी देवताओं से पहले पूजे जाते हैं। हर-पूजा पाठ का प्रारंभ उन्हीं के आवाह्न के साथ होता है। गणपति महाराज शुभता, बुद्धि, सुख-समृद्धि के देवता हैं। जहां भगवान गणेश का वास होता है। वहां पर रिद्धि सिद्धि और शुभ लाभ भी विराजते हैं। इनकी पूजा से आरंभ किए गए किसी कार्य में बाधा नहीं आती है इसलिए गणेश जी को विघ्नहर्ता कहा जाता है। विनायक चतुर्थी के दिन भगवान गणेश का विधि-विधान के साथ पूजन करने एवं कथा का सुनने से घर में सौभाग्य और सुख, समृद्धि में वृद्धि होती है। विनायक चतुर्थी की कथा एकबार माता पार्वती एक बालक की मूर्ति बनाकर उसमें जान फूंकती हैं। इसके बाद वे कंदरा में स्थित कुंड में स्नान करने के लिए चली जाती हैं। लेकिन जाने से पहले माता अपने पुत्र को आदेश देती हैं कि किसी भी परिस्थिति में किसी भी व्यक्ति को कंदरा में प्रवेश नहीं करने देना। बालक अपनी माता के आदेश का पालन करने के लिए कंदरा के द्वार पर पहरा देने लगता है। कुछ समय बीत जाने के पश्चात भगवान शिव वहां पहुंचते हैं। भगवान शिव जैसे ही कंदरा के अंदर जाने लगते हैं तो वह बालक उन्हें रोक देता है। महादेव बालक को समझाने का प्रयास करते हैं। लेकिन वह उनकी एक नहीं सुनता है। जिससे क्रोधित होकर भगवान शिव त्रिशूल से बालक का शीश धड़ से अलग कर देते हैं। इस घटना का पता जब माता पार्वती को हुआ तो वह स्नान करके कंदरा से बाहर आती हैं और देखती हैं कि उनका पुत्र धरती पर प्राण विहीन पड़ा है। उसका शीश उसके धड़ से अलग कटा हुआ है। यह दृष्य देखकर माता क्रोधित होती हैं। जिसे देखकर सभी देवी-देवता भयभीत हो जाते हैं। तब भगवान शिव अपने गणों को आदेश देते हैं कि ऐसे बालक का सिर ले आओ जिसकी माता की पीठ उसके बालक की ओर हो। शिवगण एक हथनी के बालक का शीश लेकर आते हैं। भगवान शिव गज के शीश को बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर देते हैं। इसके बाद माता पार्वती शिवजी से कहती हैं कि यह शीश गज का है जिसके कारण सब मेरे पुत्र का उपहास करेंगे। तब भगवान शिव बालक को वरदान देते हैं कि आज से संसार इन्हें गणपति के नाम से जानेगा। इसके साथ ही सभी देव भी उन्हें वरदान देते हैं कि आज से वह प्रथम पूज्य हैं। विनायक चतुर्थी पूजा-विधि सुबह उठ कर स्नान करें। स्नान करने के बाद घर के मंदिर में दीप प्रज्वलित करें। भगवान गणेश को स्नान कराएं। स्नान के बाद भगवान गणेश को साफ वस्त्र पहनाएं। भगवान गणेश को सिंदूर का तिलक लगाएं। सिंदूर का तिलक अपने माथे में भी लगाना चाहिए। गणेश भगवान को दुर्वा अतिप्रिय होता है। भगवान गणेश को दुर्वा अर्पित करना चाहिए। गणेश जी को लड्डू, मोदक का भोग लगाएं। गणेश जी की आरती करें।
देवों के देव महादेव के पंच केदारों में से एक है तुंगनाथ। ये अन्य केदारों की तुलना में विशेष महत्व रखता है क्योंकि यह स्थान भगवान राम से भी जुड़ा हुआ है। कहते हैं कि यहां श्री रामचंद्र ने अपने जीवन के कुछ क्षण एकांत में बिताए थे। तुंगनाथ एक ऐसा दिव्य स्थान है जहां शिव और राम दोनों की कृपा बरसती है। मान्यता है कि तुंगनाथ क्षेत्र में माता पार्वती ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तप किया था। मंदिर का इतिहास एक हजार साल से भी ज्यादा पुराना है। महादेव शिव के पंच केदार में केदारनाथ, रुद्रनाथ, तुंगनाथ, मध्येश्वर, कल्पेश्वर शामिल है। इनमें से तुंगनाथ सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित है। ये दुनिया के सबसे ऊंचाई पर स्थित शिव मंदिरों में माना जाता है। पंचकेदारों में द्वितीय केदार के नाम प्रसिद्ध तुंगनाथ की स्थापना के संदर्भ में कहा जाता है कि महाभारत युद्ध के बाद पांडव अपनों का वध करने के उपरांत बाद व्याकुल थे। इस व्याकुलता को दूर करने के लिए वे महर्षि व्यास के पास गए। तब महर्षि व्यास ने उनका मार्गदर्शन किया और कहा कि अपने भाइयों और गुरुओं को मारने के बाद वे ब्रह्म हत्या के कोप में आ चुके हैं। उन्हें सिर्फ महादेव शिव ही बचा सकते हैं, इसलिए उन्हें महादेव की शरण में जाना चाहिए। सो महर्षि व्यास की सलाह पर पांडव महादेव शिव की शरण में हिमालय पर्वत पहुंचे। पर भगवान शिव महाभारत के युद्ध के कारण पांडवों से रुष्ट थे और पांडवों से मिलना नहीं चाहते थे। इसलिए महादेव पांडवों को भ्रमित करके भैंसों के झुंड के बीच भैंसा का रूप धारण कर वहां से निकल गए। यही कारण है कि भगवान शिव को महेश के नाम से भी जाना जाता है। पर पांडव नहीं माने और भीम ने भैंसे बने महादेव का पीछा किया। तब भगवान शिव के अपने शरीर के हिस्से पांच जगहों पर छोड़े और ये स्थान केदारधाम अर्थात पंच केदार कहलाए। पांडवों ने इन प्रत्येक स्थान पर भगवान शिव के मंदिरों का निर्माण कर उनकी पूजा की और आशीर्वाद प्राप्त किया। इन मंदिरों को भगवान शिव के शरीर के हर एक भाग से पहचाना जाता है। तुंगनाथ की पहचान उस जगह के रूप में की जाती है जहां उनकी बाहु (हाथ) देखा गया था। केदारनाथ में उनका कूबड़ देखा गया था। रुद्रनाथ में सिर दिखाई दिया। मध्यमहेश्वर में उनकी नाभि और पेट उभरा तथा कल्पेश्वर में उनके जटा (बाल या ताले) उभरे। तुंगनाथ मंदिर करीब एक हजार साल पुराना माना जाता है। पांडवों ने किया तुंगनाथ का मंदिर का निर्माण कहा जाता है कि पांडवों ने ही तुंगनाथ मंदिर की स्थापना की थी। पंचकेदारों में यह मंदिर सबसे ऊंची चोटी पर विराजमान है। तुंगनाथ की चोटी तीन धाराओं का स्रोत है, जिससे अक्षकामिनी नदी बनती है। मंदिर रुद्रप्रयाग जनपद में स्थित है और चोपता से तीन किलोमीटर दूर स्थित है। भगवान राम से भी जुड़ा है तुंगनाथ पुराणों में कहा गया है कि रामचंद्र शिव को अपना भगवान मानकर पूजते थे। कहते हैं कि लंकापति रावण का वध करने के बाद रामचंद्र ने तुंगनाथ से डेढ़ किलोमीटर दूर चंद्रशिला पर आकर ध्यान किया था। रामचंद्र ने यहां कुछ वक्त बिताया था। चौदह हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित चंद्रशिला पहुंचकर हिमालय की सुंदर छटा का आनंद लिया जा सकता सकता हैं। चंद्रशिला प्रसिद्ध तुंगनाथ मंदिर की मेजबानी करने वाले रिज की चोटी है। यह समुद्र तल से लगभग 4,000 मीटर (13,000 फीट) की ऊंचाई पर स्थित है। यह चोटी नंदादेवी, त्रिशूल, केदार शिखर, बंदर पंच और चौखम्बा चोटियों सहित हिमालय के मनोरम द्रश्य के साथ मंत्रमुग्ध कर देती है। इस जगह के साथ विभिन्न किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं। ऐसी ही एक पौराणिक कथा के अनुसार यहाँ चंद्रमा (भगवान चंद्र) ने तपस्या की थी। जिसने चोपता नहीं देखा, उसका जीवन व्यर्थ है सर्दियों के वक्त बर्फ पड़ने की वजह से शिवलिंग को यहां से चोपता लाया जाता है। इस दौरान ग्रामीण पूरे ढोल के साथ शिव को ले जाते हैं और गर्मियों में वापस रखते हैं। ब्रिटिश शासनकाल में कमिश्नर एटकिन्सन ने कहा था कि जिसने अपने जीवन में चोपता नहीं देखा, उसका जीवन व्यर्थ है। समुद्रतल से तुंगनाथ मंदिर की ऊंचाई करीब 12000 फीट है। इसी वजह से ये मंदिर ट्रैकिंग के शौकीनों की पसंद है। हर साल यहां हजारों पर्यटक देशभर से पहुंचते हैं। कंचुला कोरक कस्तूरी मृग अभयारण्य कंचुला कोरक कस्तूरी मृग अभयारण्य प्रसिद्ध कस्तूरी मृग का घर है। इस जगह पर हरे-भरे वनस्पतियों की बहुतायत है, जिनमें से कई किस्मों का चमत्कारी दावा स्थानीय लोगों द्वारा किया जाता है परन्तु अभी तक वैज्ञानिक रूप से इसको वर्गीकृत नहीं किया गया है। चोपता से 7 किमी दूर स्थित यह स्थान - गोपेश्वर सड़क से 5 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह पशु प्रेमियों और दुर्लभ हिमालयी वन्यजीवों की तलाश करने वालों के लिए एक आदर्श स्थान है। तुंगनाथ महादेव मंदिर तक कैसे पहुंचे फ्लाइट द्वारा: यहाँ तक पहुंचने के लिये सबसे निकटतम हवाई अड्डा जॉली ग्रांट, देहरादून है, जहां से यह स्थान 232 किलोमीटर की दूरी पर है। ट्रेन द्वारा: सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन, ऋषिकेश है, जो यहाँ से 215 किलोमीटर की दूरी पर है। सड़क मार्ग से : तुंगथ कुंड-गोपेश्वर मार्ग द्वारा चोपता तक पहुंचा जा सकता है, जो 212 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके लिये ऋषिकेश से चमोली-गोपेश्वर-चोपता मार्ग से जाया जा सकता है। यहाँ तक पहुंचने के लिये बस और टैक्सी आसानी से मिल जाती है। चोपता से तुंगनाथ मंदिर 3 कि.मी. दूर है।
वेद और पुराणों के अनुसार हिंदू धर्म में 33 कोटि देवी-देवता हैं जिन्हें कुछ लोग 33 करोड़ मानते हैं तो कुछ कोटि को प्रकार समझते है। इनमें से त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की महत्ता सबसे ज्यादा मानी गई है। भगवान विष्णु संसार के पालनहार है, महादेव संसार के संहारक है और ब्रह्मा सृष्टि के रचनाकार हैं। भगवान विष्णु और महादेव के कई मंदिर हैं, पर परमपिता ब्रह्मा जी का भारत में केवल एक ही मंदिर है। ब्रह्मा जी से ही वेद ज्ञान का प्रचार हुआ। उनके चार चेहरे, चार भुजाएं और प्रत्येक भुजा में एक-एक वेद है परन्तु बहुत ही कम सम्प्रदाय हैं जो उनकी आराधना करते हैं। उनका इकलौता मंदिर राजस्थान की तीर्थ नगरी पुष्कर में स्थित है। पद्म पुराण के अनुसार, एक बार धरती पर वज्रनाश नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। उसके उत्पात से पूरी पृथ्वी पर त्राहि -त्राहि मची थी। ऐसे में उसके अत्याचारों से निजात दिलवाने के लिए परमपिता ब्रह्मा जी को उसका वध करना पड़ा। कथा के अनुसार जब ब्रह्मा जी उसका वध कर रहे थे तब उनके हाथों से तीन जगहों पर कमल का पुष्प गिरा। जहां-जहां तीन कमल गिरे वहां पर तीन झीलें बन गईं। इसी कारण इस स्थान का नाम पुष्कर पड़ा। तदोपरांत जग कल्याण हेतु ब्रह्मा जी ने उक्त स्थान पर महायज्ञ करने का फैसला किया। यज्ञ करने के लिए ब्रह्मा जी पुष्कर पहुंच गए पर उनकी पत्नी देवी सावित्री समय पर नहीं पहुंच पाईं। पर यज्ञ की सफलता के लिए सावित्री का होना बेहद जरूरी था। ऐसे में जब सावित्री नहीं आईं तो ब्रह्मा जी गायत्री से विवाह कर लिया। देवी गायत्री को लेकर दो अलग -अलग कथाएं है। एक मान्यता ये है कि वे गुर्जर समुदाय की एक कन्या थी, जबकि दूसरी मान्यता ये है कि ब्रह्माजी ने नंदिनी गाय के मुख से गायत्री को प्रकट किया। जब ब्रह्मा जी और गायत्री का विवाह हो ही रहा था तभी देवी सावित्री भी वहां पहुँच गई। जब उन्होंने गायत्री को ब्रह्मा के बगल में बैठा देखा तो वह क्रोधित हो गईं और ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि वो एक देवता जरूर हैं लेकिन उनकी पूजा फिर भी कभी नहीं की जाएगी। देवी सावित्री का श्राप सुन सभी देवता डर गए और उन्होंने विनती की कि वो इस श्राप को वापस ले, लेकिन वे नहीं मानी। पर जब देवी सावित्री का गुस्सा शांत हुआ तो उन्होंने कहा कि इस धरती पर सिर्फ पुष्कर में ही ब्रह्मा जी की पूजा होगी। अगर कोई दूसरा व्यक्ति आपका मंदिर बनाएगा तो उस मंदिर का विनाश हो जाएगा। ऐसे में पुष्कर में ही ब्रह्मा जी का एक मंदिर है। ब्रह्मा जी का पुष्कर में स्थित ये मंदिर बहुत प्रसिद्ध है और अजमेर आने वाले सभी हिन्दू पुष्कर में ब्रह्मदेव के मंदिर और वहां स्थित तालाब के दर्शन करने अवश्य आते हैं। भगवान श्री विष्णु को भी मिला शाप मान जाता है कि यज्ञ के आयोजन में भगवान विष्णु ने भी ब्रह्मा जी की मदद की थी। इसलिए देवी सावित्री ने विष्णु जी को भी श्राप दिया था कि उन्हें पत्नी से विरह का कष्ट सहन करना पड़ेगा। इसी कारण राम (भगवान विष्णु का मानव अवतार) को जन्म लेना पड़ा और पत्नी से अलग रहना पड़ा था। पहाड़ों की चोटी पर विराजती हैं देवी सावित्री मान्यता है कि क्रोध शांत होने के पश्चात देवी सावित्री पुष्कर के समीप स्थित एक पहाड़ी पर जाकर तपस्या में लीन हो गईं और आज भी वहां उपस्थित हैं और अपने भक्तों का कल्याण करती हैं। पुष्कर में जितनी अहमियत ब्रह्माजी की है, उतनी ही सावित्री की भी है। सावित्री को सौभाग्य की देवी माना जाता है। यह मान्यता है कि यहां पूजा करने से सुहाग की लंबी उम्र होती है। महिलाएं यहां आकर प्रसाद के तौर पर मेहंदी, बिंदी और चूड़ियां चढ़ाती हैं और देवी सावित्री से पति की लंबी उम्र मांगती हैं। चांदी के सिक्कों से सजा है ब्रह्मा मंदिर पुष्कर में स्थित परमपिता ब्रह्मा जी का मंदिर किसने बनाया और कब बनाया, इसकी जानकारी फिलहाल नहीं है। मान्यता है कि तकरीबन एक हज़ार दो सौ साल पहले अरण्व वंश के एक शासक को एक स्वप्न आया था कि इस जगह पर एक मंदिर है। ब्रह्माजी के मंदिर का प्रवेश द्वार संगमरमर का और दरवाजे चांदी के बने हैं। मंदिर का निर्माण संगमरमर पत्थर से हुआ तथा इसे चांदी के सिक्कों से सजाया गया है। इन सिक्कों पर दानदाता के नाम खुदे हैं। यहां मंदिर की फर्श पर एक रजत कछुआ है। देवी सरस्वती के वाहन मोर के चित्र भी शोभा बढ़ाते हैं। ब्रह्मा जी की चार मुखों वाली मूर्ति को चौमूर्ति कहा जाता है। यहां भगवान शिव को समर्पित एक छोटी गुफा भी बनी है। पुष्कर में 500 मंदिर और 52 घाट हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान ब्रह्मा त्रिदेवों में से एक देव हैं। तीनों देवों का कार्य, जीवन चक्र (जन्म,पालन,विनाश) के आधार पर विभाजित है। ब्रह्मा जी का कार्य जन्म देना है। मान्यता है कि पुष्कर झील में डुबकी लगाने से पापों का नाश होता है। झील के चारों ओर 52 घाट हैं। इनमें गऊघाट, वराह घाट, ब्रह्म घाट, जयपुर घाट प्रमुख हैं। जयपुर घाट से सूर्यास्त का नजारा अत्यंत अद्भुत लगता है। पुष्कर में छोटे-बड़े करीब 500 मंदिर बने हैं। इसलिए इसे मंदिर नगरी भी कहा जाता है । त्रेता और द्वापर युग से नाता मान्यता है कि पुष्कर शताब्दियों पुराना धार्मिक स्थल है। महाभारत के वनपर्व के अनुसार श्रीकृष्ण ने पुष्कर में दीर्घकाल तक तपस्या की थी। सुभद्रा के अपहरण के बाद अर्जुन ने पुष्कर में विश्राम किया था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भी अपने पिता दशरथ का श्राद्ध पुष्कर में किया था। वाल्मीकि रामायण में विश्वामित्र के तप करने की बात भी कही गई है। इसका उल्लेख चौथी शताब्दी में आये चीनी यात्री फाह्यान ने भी किया है। सर्वधर्म समभाव की नगरी है पुष्कर पुष्कर का महत्व सर्वधर्म समभाव नगर के रूप में भी है। यहां कई धर्मों के देवी-देवताओं के आस्था स्थल हैं। जगतगुरु रामचन्द्राचार्य का श्रीरणछोड़ मंदिर, निम्बार्क सम्प्रदाय का परशुराम मंदिर, गायत्री शक्तिपीठ, महाप्रभु की बैठक, जोधपुर के बाईजी का बिहारी मंदिर, तुलसी मानस व नवखंडीय मंदिर, गुरुद्वारा और जैन मंदिर आदि दर्शनीय स्थल हैं। जैन धर्म की मातेश्वरी पद्मावती के जमींदोज हो चुके मंदिर के अवशेष आज भी हैं। नए और पुराने रंगजी का मंदिर भी आकर्षण का केंद्र है। कार्तिक पूर्णिमा पर लगाता है पुष्कर मेला भगवान ब्रह्मा ने पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा के दिन यज्ञ किया था। यही कारण है कि हर साल अक्टूबर-नवंबर के बीच पड़ने वाले कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर पुष्कर मेला लगता है। मेला के दौरान ब्रह्मा जी के मंदिर में हजारों की संख्या में भक्त पहुंचते हैं। इन दिनों में भगवान ब्रह्मा की पूजा करने से विशेष लाभ मिलता है।
हिमाचल प्रदेश अपने धार्मिक स्थानों और देवी-देवताओ के मंदिरों के लिए पुरे देश भर में जाना जाता है। ऐसा ही एक मंदिर हिमाचल के सोलन जिले में शूलिनी माता मंदिर के नाम से विख्यात है। यह लोकप्रिय शूलिनी मंदिर देवी शूलिनी को समर्पित है, यह मंदिर इस क्षेत्र के सबसे पुराने और पवित्र मंदिरों में से एक माना जाता है। हर साल इस मंदिर में जून के महीने में राज्यस्तरीय मेले का आयोजन किया जाता है। जिसे बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। सोलन के लोगों में इस देवी के प्रति गहरी आस्था व विश्वास रखते है। देवी भागवत पुराण में माँ दुर्गा के बहुत से नामों के बारे में बताया गया है, जिसमें शूलिनी नाम भी मौजूद है। ऐसी मान्यता है कि दशम गोबिंद सिंह जी ने माँ शूलिनी की स्तुति करके आशीर्वाद प्राप्त किया था. माँ शूलिनी के प्रकट होने की कथा भी बहुत ही रोचक और दिलचस्प है। पौराणिक कथा के अनुसार माँ शूलिनी सात बहनों में से एक थी। बाकि की बहनें ज्वाला जी, हिंगलाज देवी, नैना देवी, लुगासना देवी और तारा देवी के नाम से जानी जाती हैं. माता शूलिनी साक्षात देवी मां दुर्गा का स्वरूप है। शूलिनी देवी को भगवान शिव की शक्ति माना जाता है। कहते हैं जब दैत्य महिषासुर के अत्याचारों से सभी देवता और ऋषि- मुनि तंग हो गए थे, तो वे भगवान शिव और विष्णु जी के पास गए और उनसे सहायता मांगी थी। तो भगवान शिव और विष्णु के तेज से भगवती दुर्गा प्रकट हुई थी। जिससे सभी देवता खुश हो गए थे और अपने अस्त्र-शस्त्र भेंट करके दुर्गा मां का सम्मान किया था। इसके बाद भगवान शिव ने त्रिशूल से एक शूल देवी मां को भेंट किया था, जिसकी वजह से देवी दुर्गा मां का नाम शूलिनी पड़ा था। ये वही त्रिशूल है, जिससे मां दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था। ख़ास बात यह है की माता शूलिनी देवी के नाम से सोलन शहर का नामकरण हुआ था। बघाट रियासत की राजधानी हुआ करता सोलन नगर सोलन नगर बघाट रियासत की राजधानी हुआ करता था। इस रियासत की नींव राजा बिजली देव ने रखी थी। बारह घाटों से मिलकर बनने वाली बघाट रियासत का क्षेत्रफल 36 वर्ग मील में फैला हुआ था। इस रियासत की प्रारंभ में राजधानी जौणाजी इसके बाद कोटी और बाद में सोलन बनी। राजा दुर्गा सिंह इस रियासत के अंतिम शासक थे। रियासत के विभिन्न शासकों के काल से ही माता शूलिनी देवी का मेला लगता आ रहा है। जानकारों के अनुसार बघाट रियासत के शासक अपनी कुलश्रेष्ठा की प्रसन्नता के लिए मेले का आयोजन करते थे। बदलते समय के दौरान यह मेला आज भी अपनी पुरानी परंपरा के अनुसार चल रहा है। माता शूलिनी के इस मंदिर का पुराना इतिहास बघाट रियासत से जुड़ा हुआ है। बघाट रियासत के लोग माता शूलिनी को अपनी कुलदेवी के रूप में मानते थे, तभी से माता शूलिनी बघाट रियासत के शासकों के लिए उनकी कुलदेवी के रूप में पूजी जाती है। मंदिर का इतिहास मंदिर के पुजारी से मिली जानकारी के अनुसार माँ शूलिनी का इतिहास बघाट रियासत से जुड़ा हुआ है. कहते हैं सदियों पहले बघाट रियासत की राजधानी जौणाजी हुआ करती थी, ये उस समय की बात है जब इस प्रदेश में राजाओं का राज हुआ करता था । बताया जाता है की इस दौरान राजा को एक सपना आया और सपने में माँ शूलिनी देवी ने उनको दर्शन दिए, जिसमें देवी माँ ने कहा कि मैं जौणाजी में रहती हूँ और वहां धरती के नीचे से मेरी मूर्तियों को निकाला जाए. इसके बाद ही राजा ने जौणाजी में खुदाई शुरू करवा दी और वहां से माँ शूलिनी देवी की और दो अन्य देवताओं की मूर्तियाँ निकलीं। इसके बाद तत्काल ही राजा ने इन मूर्तियों को सोलनी गाँव में स्थापित कर दिया। जिसके बाद यहाँ पर राजा द्वारा मंदिर का निर्माण किया गया। मंदिर बनने के बाद लोगों से इस देवी को अपनी कुलदेवी माना। मेले के दौरान निकाली जाती है भव्य शोभा यात्रा शूलिनी माता मेला हर वर्ष जून माह में मनाया जाता है, इस दौरान माता पुरे शहर के भ्रमण पर निकलती है। माता की पालकी को फूलों से सजाया जाता है, इसके बाद माता के जयकारों के बीच शूलिनी मंदिर से यह शोभा यात्रा निकलती है। माता की पालकी को प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा भी उठाया जाता है व माता का आशीर्वाद लेकर शोभा यात्रा को शुरू किया जाता है। यदि मुख्यमंत्री किसी कारणवश मेले में नहीं पहुंच पाते है तो जिला उपायुक्त इसकी सभी रस्मे निभाते है। मंदिर से निकलने के बाद शहर में जगह -जगहों पर शूलिनी माता की पालकी का लोगों द्वारा भव्य स्वागत किया जाता है। इस दौरान सोलन शहर में लोगों का सैलाब उमड़ जाता है। शहर का भ्रमण करने के बाद माता गंज बाजार स्थित अपनी बहन से मिलने पहुंचती है और वहां पर दो दिनों तक माता की झांकी को रखा जाता है। मां प्रसन्न हो तो दूर होते हैं प्रकोप मान्यता है कि माता शूलिनी के प्रसन्न होने पर क्षेत्र में किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा या महामारी का प्रकोप नहीं होता है, बल्कि सुख-समृद्धि व खुशहाली आती है। मेले की यह परंपरा आज भी कायम है। कालांतर में यह मेला केवल एक दिन ही अर्थात् आषाढ़ मास के दूसरे रविवार को शूलिनी माता के मंदिर के समीप खेतों में मनाया जाता था। सोलन जिला के अस्तित्व में आने के पश्चात् इसका सांस्कृतिक महत्व बनाए रखने तथा इसे और आकर्षक बनाने के अलावा पर्यटन की दृष्टि से बढ़ावा देने के लिए राज्य स्तरीय मेले का दर्जा प्रदान किया गया और इसे तीन दिवसीय उत्सव का दर्जा प्रदान किया गया है। मौजूदा समय में यह मेला जहां जनमानस की भावनाओं से जुड़ा है, वहीं पर विशेषकर ग्रामीण लोगों को मेले में आपसी मिलने-जुलने का अवसर मिलता है जिससे लोगों में आपसी भाईचारा तथा राष्ट्र की एकता व अखंडता की भावना पैदा होती है। जगह- जगह भंडारों का आयोजन इस राज्य स्तरीय मेले के दौरान खास बात यह रहती है की स्थानीय लोगों द्वारा शहर में जगह-जगह लंगर दिए जाते है। तीन दिनों तक चलने वाले इस मेले में प्रतिदिन शहर व आसपास के क्षत्रों में लोगों द्वारा लंगर लगाए जाते है। बता दें की हिमाचल में किसी भी मेले में तीन दिनों तक लगातार लंगर आयोजित नहीं किये जाते है। मेले के दौरान लोग माँ शुलिनी का प्रसाद समझकर इन लंगरों को ग्रहण करते है। शूलिनी मेले के दौरान शहर में काफी भीड़ लोगों की देखने को मिलती है। कोरोना की वजह से इस वर्ष भी सूक्ष्म तरीके से मनाया जाएगा मेला कोरोना के चलते सरकार ने कई बंदिशे प्रदेश में लगाई है, इसी के चलते बीते वर्ष शूलिनी मेले को सूक्ष्म तरीके से मनाया गया। मंदिर में सभी रस्मे व पूजा -पाठ कर माता की शोभायात्रा कोरोना नियमों के तहत निकाली गई। इस यात्रा में मंदिर के पुजारी सहित माता के कारगार व प्रशासन के कुछ अधिकारी मौजूद रहे थे। इसके साथ ही कोरोना के चलते कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित नहीं किये गए। इस बार भी मेले को सूक्ष्म तरीके से प्रशासन द्वारा आयोजित किया जाएगा। मेला 25 से 27 जून तक मनाया जाएगा जिसको लेकर प्रशासन ने अधिसूचना भी जारी कर दी है। सोलन शहर में बना हुआ भव्य मंदिर माता शूलिनी का भव्य मंदिर सोलन शहर के दक्षिण दिशा में बना हुआ है। इस मंदिर के अंदर माता शूलिनी के अलावा अन्य देवी-देवताओं की भी पूजा होती है जिसमे शिरगुल देवता,माली देवता इत्यादि की मूर्तियां विद्यमान हैं। कहते हैं कि मेले के जरिये मां शूलिनी शहर के भ्रमण पर निकलती हैं और जब वापस आती हैं, तो अपनी बहन के पास दो दिन के लिए रुकती हैं। यही वजह है कि मेले का आयोजन किया जाता है।
भारत में कई ऐसे मंदिर है जिसके साथ कोई न कोई अचम्भित करने वाली जनश्रुति जुड़ी हुई है। अक्सर मंदिरों के साथ जुड़ी बाते इतनी विचित्र होती हैं कि सुनकर सहसा विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा भी हुआ होगा लेकिन बाशिंदों में प्रचलित किवदंतियां सुन इन्हें मानने पर मजबूर होना ही पड़ता है। ऐसा ही एक रहस्य्मय मंदिर राजस्थान के पाली में स्थित है। इस मंदिर में किसी देवी-देवता की नहीं बल्कि एक बुलेट बाइक की पूजा की जाती है। यहाँ लोग मनोकामना मांगने दूर-दूर से आते हैं। बाइक की पूजा होनेवाला यह मंदिर ओम बन्ना को समर्पित है। बात साल 1988 की है, जब पाली के रहने वाले ओम बन्ना ( राजस्थान में राजपूत परिवार के युवा लोगों के लिए बन्ना शब्द का इस्तेमाल किया जाता है) अपनी बुलेट बाइक से जा रहे थे और रास्ते में दुर्घटना का शिकार हो गए। इस दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। इस स्थान पर कई हादसे हो चुके थे। कहा जाता है कि एक्सीडेंट के बाद इस बाइक को रोहिट थाने ले जाया गया पर अगले दिन पुलिस कर्मियों को वो बुलेट थाने में नहीं मिली। कहते है वो बुलेट बिना सवारी चल कर उसी स्थान पर चली गयी। फिर अगले दिन उनकी बुलेट को रोहिट थाने ले जाया गया पर फिर वही बात हुयी। ऐसा तीन बार हुआ, चौथी बार पुलिस ने बुलेट को थाने में चैन से बाँध कर रखा पर बुलेट पुनः दुर्घटना स्थल पर पहुंच गयी। ग्रामीणो और पुलिस वालो ने इसे चमत्कार मान कर उस बुलेट को वही पर रख दिया। उस दिन से आज तक वहाँ दूसरी कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुयी, जबकि उक्त क्षेत्र राजस्थान के बड़े दुर्घटना क्षेत्रों में से एक था। स्थानीय लोग कहते है कि ओम बन्ना आज भी अपनी मौजूदगी का एहसास करवाते है। अब उक्त दुर्गटना स्थल पर बाइक का मंदिर है और कहा जाता है कि जब से बाइक का मंदिर बनाया गया है, तब से वहां कोई एक्सीडेंट नहीं हुआ है। इसके बाद से लोग दूर-दूर से वहां पूजा करने आने लगे। अब राजस्थान में एक बड़ा वर्ग ओम बन्ना की पूजा करता है और ढोलकी के साथ उनकी आरती, भजन भी गाए जाते हैं। आज यह मंदिर बुलेट बाबा के नाम से भी विख्यात है। शीशे के आवरण में रखी गई है ओम बन्ना की मोटरसाइकिल यह स्थान जोधपुर पाली हाईवे पर पाली से लगभग 20 किलोमीटर दूर बुलेट बाबा के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। मुख्य हाइवे के पास स्थित यह स्थान बीते कुछ सालों में बहुत चर्चित हुआ है। सड़क के किनारे जंगल में लगभग 20-25 प्रसाद व पूजा अर्चना के सामान से सजी दुकाने दिखाई देती है और साथ ही नजर आता है एक चबूतरा जिस पर ओम बन्ना की एक बड़ी सी फोटो, अखंड जलती ज्योत और उनकी बुलेट मोटरसाइकिल को एक शीशे के आवरण में रखा गया है। बुलेट बाबा के मंदिर में दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं और मन्नत मांगते हैं। ये लोगों की आस्था का केन्द्र है। ओमबन्ना की पुण्यतिथि पर देशभर से श्रद्धालु ओमबन्ना मंदिर में पहुंचते है और नजारा देखने लायक होता है। आम दिनों ओम बन्ना देवल पर सुबह व् शाम को भी ठीक सात बजे आरती की जाती है। इसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते है। आरती व पूजन यूं तो ओम बन्ना के परिजन ही करते है। कई बार उनके नहीं पहुंचने पर एक ब्राह्मण की ओर से आरती की जाती है। पुत्र और सुहाग की रक्षा के लिए पहियों पर बांधते है मोली पुत्र और सुहाग की रक्षा के लिए महिलाएं इस बाइक के पहियों पर मोली धागा बांध कर उनकी लम्बी उम्र के लिए दुआ करती है। शहर के आसपास रहने वाले लोगों की बाबा के प्रति अटूट श्रद्धा है, यही कारण है शादी के दौरान, दूल्हा और दुल्हन वहां आते हैं और सुहाग रक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं। स्थानीय लोग यहां अपने बच्चे के बाल निकालने की रस्म भी निभाते हैं। लाखों वाहनों में लगी है ओम बन्ना की तस्वीर ओम सिंह राठौर एक ऐसे व्यक्ति थे जो ज्यादा दिन जी तो नहीं सके लेकिन मर कर भगवान रूप बन गए। भगवान की सत्ता पर आपको यकीन हो या न हो लेकिन बुलेट मंदिर में लोगों को ओम बन्ना (ओम सिंह राठौर) भगवान पर जरूर यकीन है। यकीन इतना कि यहां से गुजरते हुए कोई भी यात्री ओम बन्ना के बुलेट मंदिर में पूजा और प्रसाद चढ़ाए बिना नहीं जाता। अगर जाता है तो एक्सीडेंट की भेंट चढ़ जाता है, ऐसा लोगों का कहना है। राजस्थान में चलने वाली लाखों गाड़ियों में ओम बन्ना की लगी तस्वीरें देखकर आपको यकीन हो जायेगा कि किस कदर लोगों की ओम बन्ना में आस्था है। लोग अपने वाहनों में ओम बन्ना की प्रतिमा, फ़ोटो व बुलेट के फोटो को रक्षा के तौर पर रखते है। कुछ वाहन चालकों की मान्यता तो यह भी है कि ओम बन्ना चालको को दुर्घटना से पहले ही अनहोनी का आभास करवाते है। बाकायदा ओम बन्ना को समर्पित कई भजन अब तक रिलीज़ हो चुके है।
हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले में बसा नारकंडा प्रदेश के बेहतरीन हिल स्टेशनों में से एक है। नारकंडा चारों ओर फैली सफेद बर्फ से ढकी गहरी घाटियों के लिए प्रसिद्द है। यहां प्रकृति की अद्भुत छटा देखने लायक होती है। प्रकृति की इसी खूबसूरती के बीच नारकंडा के हाटू पीक पर स्थापित है प्रसिद्ध हाटू माता का मंदिर। बर्फ से लदी पहाड़ियों और चारों तरफ प्रकृति के सौंदर्य से घिरा यह पवित्र स्थल देवी मां काली को समर्पित है। मंदिर का निर्माण विशिष्ट हिमाचली वास्तुकला में किया गया है। हाटू माता को नारकंडा क्षेत्र की देवी एवं नारकंड जनजाति की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने बिताया था यहां समय : हाटू माता मंदिर को लेकर मान्यता है कि मंदिर का निर्माण रावण की पत्नी मंदोदरी ने करवाया था। वैसे तो यहां से लंका बहुत दूर है, लेकिन इसके बावजूद वह अक्सर यहां माता के दर्शन और पूजा करने के लिए आया करती थी। बताया जाता है कि मंदोदरी हाटू माता की बहुत बड़ी भक्त थी। वहीं एक मान्यता यह भी है कि महाभारत काल में पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान हाटू माता मंदिर में काफी समय बिताया था। पांडवों ने यहां पर माता की कठिन तपस्या और उपासना कर शत्रुओं पर विजय पाने का वरदान प्राप्त किया था। उस समय की प्राचीन शिला आज भी हाटू पीक पर साक्ष्य के रूप में मौजूद है। मंदिर के पास ही तीन बड़ी चट्टानें हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि ये भीम का चूल्हा है। जहां आज भी खुदाई करने पर जला हुआ कोयला मिलता है, जिससे पता चलता है कि पांडव इस जगह पर खाना बनाया करते थे। ज्येष्ठ महीने के पहले रविवार को मनाया जाता है स्थापना दिवस : हाटू माता मंदिर में हर साल ज्येष्ठ महीने के पहले रविवार को बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। इस दिन को हाटू माता मंदिर की स्थापना के रूप में मनाया जाता है। इस दिन यहां विशाल मेला भी लगाया जाता है। मान्यता है कि हाटू माता मंदिर में आकर जो श्रद्धालु सच्ची भक्ति से मां हाटू माता के दरबार में पहुंचता है, उसकी हर मनोकामना पूरी होती है। दुख, दर्द, दरिद्र दूर हो जाते हैं। हाटू माता मंदिर से राजों और रजवाड़ों का पूर्वजों के समय से खास लगाव रहा है। आज भी देश-विदेश के लाखों श्रद्धालुओं की हाटू माता के प्रति गहरी आस्था है।