** क्या लखविंदर की होगी घर वापसी ? **या हारे हुए बावा पर फिर दांव खेलेगी कांग्रेस ..... जो गगरेट में हुआ क्या वो नालागढ़ में भी होगा ? क्या कालिया की तरह ही लखविंदर की भी होगी घर वापसी ? क्या गगरेट की रणनीति पर नालागढ़ में सियासी व्यूह रचेगी कांग्रेस ? ये तमाम सवाल उठना लाज़मी है क्योंकि अब नालागढ़ में उपचुनाव होने वाला है। जो निर्दलीय थे उनकी घर वापसी हो गई है और जो भाजपाई है उनकी घर वापसी हो सकती है और जो अब अपने घर में बैठे है उनका क्या होगा कोई पता नहीं ..बस कुछ इसी तरह घूम रही है नालागढ़ की सियासत। हाल ही में 6 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में से 4 सीटें कांग्रेस ने जीती है और राजनीतिक विश्लेषक मानते है कि कांग्रेस की इस जीत का बड़ा कारण सही टिकट आवंटन रहा है। गहन चिंतन-मंथन के बाद कांग्रेस ने प्रत्याशियों कि घोषणा की थी। बागियों के भाजपा में जाने से कई भाजपाई ऐसे थे जो कांग्रेस में आना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस ने टिकट दिया केवल 2 सीटों पर, सुजानपुर और गगरेट। अब सुजानपुर में जो भाजपा से कांग्रेस में आए वो कभी कांग्रेसी थे ही नहीं, लेकिन राकेश कालिया की तो घर वापसी हुई है। राकेश कालिया तो पहले भी कांग्रेस से विधायक रहे है। वैसे गगरेट में कांग्रेस के पास कोई मजबूत चेहरा भी नहीं था तो कालिया की घर वापसी कांग्रेस के मुनाफ़े का सौदा ही रही। अब नालागढ़ में भी समीकरण कुछ ऐसे ही बनते दिख रहे है। निर्दलीय केएल ठाकुर की 15 महीने बाद ही घर वापसी हो गई है और 2022 में कांग्रेस से भाजपा में गए लखविंदर राणा भी अब घर वापसी की उम्मीद में ही होंगे। राणा तो अपना दर्द खुले मंच से बयान भी कर चुके है कि अगर दल न बदला होता तो आज विधायक भी होते और सरकार में अहम पद भी मिलता। अब लखविंदर की घर वापसी होती है या नहीं ये तो वही जाने मगर कांग्रेस इस बारे सोच विचार ज़रूर कर सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि लखविंदर पहले भी 2 दफा नालागढ़ सीट कांग्रेस की झोली में डाल चुके है। 2011 के उपचुनाव और 2017 के आम चुनावो में लखविंदर कांग्रेस पार्टी की टिकट पर चुनाव जीते थे। जबकि पिछली दफा कांग्रेस के प्रत्याशी रहे हरदीप सिंह बावा 2 चुनाव हार चुके है 2017 में एक बार निर्दलीय और 2022 में दूसरी दफा कांग्रेस टिकट पर भी बावा को हार ही नसीब हुई है। अब हारे हुए मोहरों पर कांग्रेस फिर दांव खेलेगी ऐसा तो मुश्किल ही लगता है। अब नज़रे टिकी है लखविंदर राणा पर। लखविंदर अगर घर वापसी करते है और पार्टी उन्हें टिकट देती है तो नालागढ़ का ये चुनाव बेहद रोचक होना तय मानिए..ठीक उसी तरह जिस तरह गगरेट में चुनाव ग्रेट बना था।
**कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ तो डॉ.राजेश शर्मा होंगे कांग्रेस का चेहरा **देहरा में 2012 और 2017 में हुई थी कांग्रेस की जमानत जब्त **2022 में डॉक्टर राजेश ने दमदार तरह से लड़ा था चुनाव मुझे मंजिल तक पहुंचना है फिर रास्तों की फिक्र कैसी, अक्सर तूफान के बाद ही आसमान साफ होता है, जिस देहरा में 2012 और 2017 में कांग्रेस की जमानत तक जब्त हो गई थी उसी देहरा में पिछली बार कांग्रेस सिर्फ 3877 वोटो के मार्जिन से जीत से दूर रही थी। यानी देहरा में कांग्रेस की परफॉरमेंस बेहतर हुई थी। अब फिर देहरा में उपचुनाव होने जा रहा है, अब फिर देहरा की सियासत उबाल खा रही है। यहाँ भाजपा प्रत्याशी कौन होगा इसको लेकर तो कोई संशय नहीं है, लेकिन कांग्रेस किस पर दांव खेलेगी ये बड़ा सवाल है ? फिलहाल तो डॉ.राजेश शर्मा ही कांग्रेस के पास एक मजबूत चेहरा है। कांग्रेस इस दफा भी अगर डॉ.राजेश शर्मा को ही टिकट देती है तो जाहिर है कि देहरा में मुकाबला कांटे का होगा। बहरहाल आज चर्चा देहरा की सियासत पर... यूं तो देहरा विधानसभा सीट हमेशा चर्चे में ही रही है। यहां के सियासी समीकरण कब और कैसे बदल जाए ये समझना मुश्किल है। अब कभी निर्दलीय चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे होशियार सिंह आज भाजपाई हो गए है। होशियार सिंह ने इस्तीफा क्यों दिया ये भी बड़ा सवाल है। ख़ैर, इस सवाल का जवाब फिर कभी तलब करेंगे। आज बात देहरा में कांग्रेस परफॉरमेंस पर। इसमें कोई दोहराएं नहीं है कि पिछले कई सालों से देहरा में भाजपा कांग्रेस के मुकाबले होशियार सिंह मजबूत रहे है, लेकिन पिछले कुछ चुनावी नतीजों का आंकलन किया जाए तो अब देहरा में कांग्रेस उतनी कमज़ोर भी नहीं है जितनी कभी हुआ करती थी। 2012 में यहाँ कांग्रेस प्रत्याशी की जमानत जब्त हुई है और 2017 में तो कांग्रेस ने अपनी दिग्गज नेता विप्लव ठाकुर को मैदान में उतारा था और तब विप्लव ठाकुर भी अपनी जमानत तक नहीं बचा पाई थी। बुरी तरह शिकस्त झेल रही पार्टी ने केवल पिछले विधानसभा चुनाव में ही बेहतर परफॉर्म किया है। 2022 में डॉ.राजेश शर्मा ने कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ा और कड़ी टक्कर देते हुए 19,120 वोट हासिल किए। यहाँ जीत का मार्जिन भी 3877 वोटो का ही रहा था। यानी जो कांग्रेस कभी अपनी जमानत नहीं बचा पाती थी आज वही कांग्रेस देहरा में कांटे की टक्कर दे रही है। अब फिर उपचुनाव है और इस बार कांग्रेस पिछली दफा से ज़्यादा बेहतर करने की उम्मीद में होगी। जाहिर सी बात है कि कांग्रेस यहाँ किसी मजबूत दमदार और जिताऊ चेहरे पर ही दांव खेलना चाहेगी। अब कई चाहवान टिकट की टक-टकी लगाए बैठे है, लेकिन नज़रे टिकी है कांग्रेस पार्टी पर, अब देखना ये होगा कि देहरा में कांग्रेस किस पर मेहरबान होती है।
अयोध्या के राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम से कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने दूरी बनाई है। कांग्रेस का राम मंदिर में न जाने को लेकर कहना है कि यह चुनावी, राजनीतिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस का कार्यक्रम है। कांग्रेस का कहना है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी ने 22 जनवरी के कार्यक्रम को पूरी तरह से राजनीतिक और 'नरेंद्र मोदी फंक्शन' बना दिया है। यह चुनावी कार्यक्रम है और इसके जरिए चुनावी माहौल तैयार किया जा रहा है। जाहिर है राजनैतिक चश्मे से देखे तो राम मंदिर निर्माण का श्रेय बीजेपी को जाता है और बीजेपी भी इस भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। उधर, कांग्रेस को कहीं न कहीं अंदाजा है कि लोगों में दिख रहा उत्साह अगर वोट में तब्दील हुआ तो उसकी राह मुश्किल होगी। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस के पास फिलहाल कोई चारा नहीं है। हालांकि माहिर मान रहे है कि 22 जनवरी के बाद विपक्ष के कई बड़े चेहरे अयोध्या में शीश नवाते दिखेंगे। विदित रहे कि कांग्रेस सांसद और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के साथ-साथ सोनिया गांधी को भी राम मंदिर आने का न्योता दिया गया था। इसके साथ-साथ लोकसभा सांसद अधीर रंजन चौधरी को भी बुलावा भेजा गया था। हालांकि, तीनों ने समारोह में नहीं जाने का फैसला लिया है। कांग्रेस ने भाजपा पर इस समारोह को राजनीतिक रंग देने के आरोप लगाए हैं। पार्टी ने मुहूर्त पर सवाल खड़ा करने वाले शंकराचार्य के बयान को आधार बनाकर 22 जनवरी को होने वाली प्राण प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े किए हैं। पार्टी का कहना है कि समारोह राष्ट्रीय एकजुटता के लिए होना चाहिए। अयोध्या न जाने का फैसला लेने वाले कद्दावर नेताओं में शरद पवार का नाम भी शामिल है। उन्होंने कहा है कि 22 जनवरी के समारोह में अयोध्या में काफी भीड़ होगी। ऐसे में वे मंदिर निर्माण पूरा होने के बाद रामलला के दर्शन करेंगे। सपा चीफ अखिलेश यादव और दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल भी आयोजन में शामिल नहीं हो आरहे हैं। पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव भी आयोजन में न जाने का निर्णय लिया हैं। इनके अलावा वाम दल के महासचिव सीताराम येचुरी सहित कई लेफ्ट के नेताओं ने भी आयोजन से दूरी बनाई है। बीजेपी का तंज, कहीं जनता फिर कांग्रेस का बहिष्कार न कर दें ! केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का कहना हैं कि, " कांग्रेस ने नए संसद भवन और प्रधानमंत्री के संबोधन का बहिष्कार किया और लोगों ने उनका बहिष्कार कर दिया। अब उन्हें लगता है कि वे प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार कर सकते हैं लेकिन हो सकता है कि लोग उनका फिर से बहिष्कार कर दें। कांग्रेस और उसके गठबंधन सहयोगियों ने भगवान राम के अस्तित्व को नकारने और हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। विपक्ष के नेता बयान दे रहे हैं और प्राण प्रतिष्ठा समारोह से दूरी बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें भगवान राम के सामने आखिरकार आत्मसमर्पण करना होगा। कई कांग्रेस नेता पूर्व पार्टी प्रमुख राहुल गांधी की बात नहीं मान रहे और अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल हो रहे हैं।"
2024 के चुनावी भवसागर को पार करने के लिए भाजपा राम नाम की नौका पर सवार दिख रही है। भाजपा के सियासी उदय में राम नाम सदा साहरा रहा है। राम नाम लेकर ही भारतीय जनता पार्टी फर्श से अर्श तक पहुंच गई। 1984 में भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा था और महज 2 सीटों पर सिमट गई थी। वहीँ भाजपा आज देश की 300 से ज्यादा लोकसभा सीटों पर राज करती है। अब लोकसभा चुनाव दस्तक दे चुके है और इस बीच अयोध्या में श्री राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठता के चलते देश में राम लहर चली है और माहिर मान रहे है भाजपा को इसका सियासी लाभ होना तय है। यूँ तो भाजपा 1986 में लालकृष्ण आडवाणी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद से ही हिन्दुत्त्व और राममंदिर के मुद्दे पर आक्रमक हो गई थी लेकिन औपचारिक तौर पर पार्टी ने राममंदिर बनाने का संकल्प लिया 1989 में हुई पालमपुर की राष्ट्रीय कार्यसमिति बैठक में। इन 35 सालों में भगवा दल ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सर्वविदित है कि भारतीय जनता पार्टी के अतीत का संघर्ष लंबा है, जिसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जनसंघ से लेकर अटल बिहारी वाजपाई और लालकृष्ण आडवाणी का संघर्ष रहा है। शून्य से शिखर तक पहुंचने वाली भाजपा का सियासी सफर काफी कठिनाइयों वाला रहा है, लेकिन हर बार भाजपा के लिए राम नाम एक सहारा बना है। जाहिर है मौजूदा वक्त में भी राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठता आयोजन ने देश का सियासी माहौल भी प्रभावित किया है। देश राम रंग में सराबोर हैं और राजनैतिक चश्मे से देखे तो भाजपा भी इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। दरअसल, ये गलत भी नहीं है क्यों कि राजनैतिक फ्रंट पर राम मंदिर निर्माण के संघर्ष की अगुआई भी भाजपा ने ही की है, सो श्रेय लेना राजनैतिक लिहाज से गलत भी नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा 'हिंदू नवजागरण काल' को एक बड़े मुद्दे के रूप में पेश करेगी और राम मंदिर इसका प्रतीक बनेगा। अब इसका कितना लाभ चुनाव में भाजपा को मिलेगा ये तो नतीजे तय करेंगे, पर निसंदेह राम मंदिर के जरिये बीजेपी ने देश के 80 प्रतिशत मतदाताओं को प्रभावित जरूर किया है। दो वादे पुरे, समान नागरिक सहिंता शेष भाजपा के तीन बड़े लक्ष्य रहे है, धारा 370 हटाना, राम मंदिर बनाना और समान नागरिक सहिंता लागू करना। ये कहना गलत नहीं होगा कि इन्हीं तीन वादों की बिसात पर भाजपा का काडर मजबूत हुआ। पार्टी ने हमेशा इन तीन विषयों पर खुलकर अपना पक्ष भी रखा और अपना वादा भी दोहराया। इनमें से भाजपा दो वादे पुरे कर चुकी है, कश्मीर से धारा 370 हटाई जा चुकी है और अब राम मंदिर का निर्माण भी हो गया है। अब सिर्फ समान नागरिक सहिंता लागू करने का भाजपा का वादा अधूरा है और पार्टी इसे लागू करने की प्रतिबद्धता दोहरा रही है। 400 सीट जीतने का लक्ष्य भाजपा को उम्मीद है कि राम लहर के बीच वो आगामी चुनाव में 400 सीट का लक्ष्य हासिल करेगी। पार्टी राम मंदिर के अलावा लाभार्थी वोट और महिला आरक्षण की बिसात पर ऐतिहासिक बहुमत हासिल करना चाहती है। हालहीं में हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा को हिंदुत्व एजेंडा का लाभ मिला है जिसके बाद पार्टी का जोश हाई है।
कांग्रेस के दो लोकसभा प्रत्याशी अब भाजपा में हो चुके हैं शामिल लोकसभा चुनाव का मंच सज चूका हैं और हिमाचल प्रदेश में भी दोनों तरफ से उम्मीदवारों को लेकर कयासबाजी जारी हैं। हर सीट पर कई चेहरे हैं, विशेषकर भाजपा में दावेदारों की कतार लम्बी हैं। 31 जनवरी तक भाजपा में उम्मीदवारों का पैनल तैयार होना हैं और पार्टी में अंदरखाते सियासी सरगर्मियां प्रखर हैं। पर भाजपा के दो चेहरे ऐसे हैं जिन पर विशेष तौर से राजनैतिक माहिरों की निगाहें टिकी हैं। ये चेहरे हैं पवन काजल और आश्रय शर्मा। ये दोनों वो नेता हैं जो 2019 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं और अब भाजपा में हैं। तब दोनों ही हारे थे और रिकॉर्ड अंतर से हारे थे, पर अब दोनों ही अपनी राजनैतिक निष्ठा बदलकर भाजपा का दामन थाम चुके हैं। ऐसे में क्या भाजपा इन्हें टिकट देती हैं, ये चर्चा का विषय हैं। विशेषकर पवन काजल को लेकर अटकलों का बाजार गर्म हैं। 2019 लोकसभा चुनाव में हिमाचल प्रदेश भी हवा के रुख के साथ ही चला था। तब प्रदेश की जनता का ब्रांड मोदी पर भरोसा बरकरार रहा और भाजपा ने क्लीन स्वीप किया। प्रदेश की चारों सीटें कांग्रेस हारी और वो भी रिकॉर्ड मार्जिन से। अब पांच साल में बहुत कुछ बदल गया हैं। तब प्रदेश में विपक्ष में बैठी कांग्रेस अब सत्ता के रथ पर सवार हैं। पर दिलचस्प बात ये हैं कि तब कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले चार प्रत्याशियों में से दो अब भाजपाई बन चुके हैं। कांगड़ा से चुनाव लड़ने वाले पवन काजल और मंडी से प्रतयाशी रहे आश्रय शर्मा। 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से भाजपा किशन कपूर ने 72.02 प्रतिशत मत हासिल कर इतिहास बना दिया था। तब कपूर को 7,25,218 वोट पड़े थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी पवन काजल को 2,47,595 मतों पर ही सिमटना पड़ा था। अब पवन काजल बीजेपी में शामिल हो चुके हैं और टिकट को लकर भी उनका नाम चर्चा में हैं। पर सवाल ये ही हैं की क्या भाजपा उन पर दांव खेलेगी या काजल प्रदेश की राजनीति में ही सिमित रहेंगे। वहीँ, मंडी संसदीय हलके से 2019 में पंडित सुखराम के पोते आश्रय शर्मा भाजपा से टिकट मांग रहे थे, लेकिन जब बात नहीं बनी तो पंडितजी पोते सहित कांग्रेस में चले गए और दिल्ली से टिकट भी ले आएं। हालांकि आश्रय के पिता अनिल शर्मा भाजपा में ही बने रहे। लोकसभा चुनाव में हार के बाद आश्रय कांग्रेस में भी साइडलाइन दिखे और पंडित सुखराम के निधन के बाद भाजपा में लौट गए। बहरहाल ये देखना रोचक होगा कि क्या भाजपा आश्रय के नाम पर विचार करेगी। दल न बदलते तो शायद मंत्री होते काजल ! पवन काजल यूँ तो भाजपा पृष्टभूमि से रहे हैं लेकिन भाजपा ने जब काजल की कद्र नहीं की तो 2012 में काजल ने कांगड़ा विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव जीतकर अपनी सियासी कुव्वत का अहसास करवा दिया। फिर वीरभद्र सिंह के कहने पर कांग्रेस में शामिल हो गए और 2017 का चुनाव कांग्रेस से लड़ा और जीते। वीरभद्र सिंह के निधन के बाद काजल कांग्रेस के कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष बना दिए गए। पर फिर 2022 के चुनाव के कुछ समय पहले भाजपा में शामिल हो गए। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी और माहिर मानते हैं कि अगर काजल कांग्रेस में रहते तो कैबिनेट मंत्री होते। बहरहाल, काजल बड़ा ओबीसी चेहरा हैं और इसी बुनियाद पर लोकसभा टिकट के दावेदारों में उनका नाम भी शामिल हैं।
तीनों दिग्गजों को नहीं मिला है कोई अहम जिम्मा तीनों का रुख साफ, सभी को कद के मुताबिक मिले पद सुधीर शर्मा, राजेंद्र राणा और कुलदीप राठौर...हिमाचल प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस के तीन विधायक, तीनों दिग्गज और तीनों हाशिये पर। सत्ता मिलने से पहले तीनों का मंत्रिपद मानो तय था, पर सियासत की फितरत ही कुछ ऐसी होती है, जो लगता है वो होता नहीं। सत्ता तो आई पर समीकरण कुछ यूँ बने और उलझे कि ये तीनों दिग्गज भी उलझ कर रह गए। इन तीनों का असंतोष भी सामने आता रहा है, किसी का मीडिया बयानों में, किसी का सोशल मीडिया पर तो किसी का इशारों-इशारों में। दिलचस्प बात ये है कि इनका असंतोष तो कांग्रेस के लिए चिंता का सबब है ही, इनकी खमोशी भी पार्टी को असहज करने वाली है। इनके कदम सुक्खू सरकार की चाल से नहीं मिले तो लोकसभा चुनाव में भी इसका खामियाजा तय मानिये। बहरहाल अंदर की खबर ये है कि इन तीनों नेताओं को साधने के लिए दिल्ली में विशेष रूप से मंथन हुआ है। हालांकि तीनों का रुख साफ है, कद के मुताबिक पद मिले। बहरहाल इन तीनों ही नेताओं को भले ही अब तक सत्ता में कोई अहम जिम्मा या भागीदारी न मिली हो, लेकिन सच ये है कि इन्हें दरकिनार भी नहीं किया जा सकता। कम से कम पार्टी आलाकमान ये जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं दीखता। माहिर मानते है कि ऐसे में मुमकिन है कि बीच का कोई रास्ता निकाल कर पार्टी आलाकमान संभावित डैमेज को कण्ट्रोल करने हेतु हस्तक्षेप करें। चार बार के विधायक और पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा जिला कांगड़ा में पार्टी का बड़ा चेहरा है। पूर्व की वीरभद्र सरकार में सुधीर मंत्री थे और उन्हें वीरभद्र सिंह का सबसे करीबी माना जाता था। कहते है तब उनकी रज़ा में ही वीरभद्र सिंह की रज़ा होती थी। ये सुधीर का ही सियासी बल था कि तब चाहे नगर निगम की लड़ाई हो, स्मार्ट सिटी या फिर धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने का निर्णय, धर्मशाला हर जगह बाजी मार गया। तब कुछ माहिर तो उन्हें कांग्रेस में वीरभद्र सिंह का उत्तराधिकारी भी कहने लगे थे। फिर सियासी गृह चाल कुछ यूँ बदली कि पंडित जी अलग थलग से हो गए। बीते दिनों देर रात सीएम सुक्खू, सुधीर से मिलने उनके घर पहुंचे थे, जिसके बाद कयास लग रहे है कि उन्हें कोई अहम ज़िम्मा मिल सकता है। इसमें पीसीसी चीफ का पद भी शामिल है। हालांकि एक खबर ये भी है कि आलाकमान के दरबार में उन्हें लोकसभा चुनाव लड़वाने की पैरवी की जा रही है। कहा जा रहा है की सुधीर ही सबसे मजबूत चेहरा है। अब आलाकमान सुधीर को चुनाव लड़ने का फरमान सुनाता है या प्रदेश में सुधीर के कद मुताबिक भूमिका उनके लिए तैयार की जाती है, ये देखना रोचक होगा। राजेंद्र राणा वो नेता है जिन्होंने 2017 में भाजपा के सीएम कैंडिडेट को हराया था। 2022 में भी धूमल परिवार ने पूरी ताकत झोंकी लेकिन राणा जीतने में कामयाब रहे। बावजूद इसके राणा को अब तक उचित सियासी अधिमान नहीं मिला है। कहने को वे कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष भी है लेकिन संगठन में भी उनकी भूमिका क्या और कितनी है, ये सर्वविदित है। हालांकि वे हौली लॉज के करीबी है और वो ही पहले ऐसे बड़े नेता थे जिन्होंने खुलकर प्रतिभा सिंह को सीएम बनाने की वकालत की थी। बहरहाल अब राणा की कैबिनेट में एंट्री की सम्भावना न के बराबर है। हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से सीएम, डिप्टी सीएम और एक मंत्री राजेश धर्माणी है और यहाँ से एक और एंट्री मुश्किल होगी। ऐसे में राणा को कहाँ और कैसे एडजस्ट किया जाता है, ये देखना दिलचस्प होगा। वहीँ खबर ये है कि आलकमान के समक्ष सुधीर की तरह ही राणा को भी लोकसभा चुनाव के लिए दमदार बताया जा रहा है। हालांकि राणा की रूचि इसमें नहीं दिखती। कुलदीप राठौर पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष है और आलाकमान के करीबी भी है। राठौर वो नेता है जो खुलकर कहते रहे है कि सत्ता दिलवाने वालों की उपेक्षा हो रही है। जिला शिमला से ही तीन मंत्री है, ऐसे में राठौर का ठौर भी जाहिर है कैबिनेट में नहीं होगा। पर राठौर की बेबाकी और स्पष्टवादिता प्रदेश सरकार को असजह जरूर करती रही है। बताया जा रहा है की राठौर भी आलाकमान के समक्ष अपनी बात रख चुके है और अब निर्णय आलाकमान को लेना है। सिर्फ एक रिक्त पद, ठाकुर भी दावेदार ! सुक्खू कैबिनेट में एक पद खाली है और इन तीन नेताओं के साथ -साथ कुल्लू विधायक सूंदर सिंह ठाकुर भी दावेदार है। मंडी संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक मंत्री है और ऐसे में क्षेत्रीय संतुलन के लिहाज से सूंदर ठाकुर का दावा भी मजबूत है। हालांकि सूंदर ठाकुर को सीपीएस बनाया गया था लेकिन ये पद कब तक रहेगा, ये कोर्ट ने तय करना है। वहीँ सूंदर ठाकुर भी सीपीएस को मिली गाड़ी लौटकर चुप रहकर भी काफी कुछ कह चुके है।
आम तौर पर एकमुश्त पड़ने वाला गद्दी वोट कांगड़ा संसदीय क्षेत्र की सियासत में निर्णायक भूमिका निभाता है। गद्दी समुदाय की एकता इनकी सियासी ताकत का असल कारण है और ये ही वजह है कि कोई भी दल इन्हें नजर अंदाज़ नहीं करता। विशेषकर भाजपा गद्दी चेहरों पर दांव खेलती आई है और सीटिंग सांसद किशन कपूर लम्बे वक्त से प्रोमिनेन्ट गद्दी फेस है। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में जिला चम्बा के चार और जिला कांगड़ा के 13 विधानसभा क्षेत्र आते है। इस संसदीय क्षेत्र की 17 में से कम से कम 11 सीटों पर गद्दी फैक्टर हावी रहता है। इनमें चम्बा सदर, डलहौज़ी, चुराह, भटियात, धर्मशाला, बैजनाथ, पालमपुर, शाहपुर, ज्वाली, नूरपुर और इंदौरा शामिल है। माना जाता है कि गद्दी समुदाय का वोट मौटे तौर पर विभाजित नहीं होता। ऐसे में सियासी गणित के लिहाज से राजनैतिक दल गद्दी चेहरे को सेफ बेट मानते है, विशेषकर भाजपा। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने धर्मशाला के विधायक और तब की जयराम सरकार में मंत्री किशन कपूर को कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया था और कपूर ने रिकॉर्ड जीत दर्ज कर इतिहास रच दिया था। अब फिर लोकसभा चुनाव का काउंट डाउन शुरू हो चुका है और टिकट की कयासबाजी भी। किशन कपूर टिकट के मिशन पर है लेकिन उन्हें टिकट मिलता है या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। पर माहिर मान रहे है कि संभव है भाजपा यदि किशन कपूर का टिकट काटती है तो अगला उम्मीदवार भी गद्दी समुदाय से ही हो। दावेदारों की फेहरिस्त में जो नाम प्रमुख है उनमें एक है त्रिलोक कपूर जो भाजपा प्रदेश महामंत्री भी है और दूसरे नेता है विशाल नेहरिया। इस सूची में एक तीसरे नाम का जिक्र भी जरूरी है और वो है चुराह विधायक हंसराज। बतौर भाजपा प्रदेश महामंत्री त्रिलोक कपूर का ये दूसरा टर्म है। पर साथ ही त्रिलोक कपूर के खाते में पालमपुर विधानसभा सीट की हार भी दर्ज है। विधानसभा चुनाव में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को 17 में से सिर्फ 5 सीट पर जीत मिली थी। यानी त्रिलोक कपूर के सियासी खाते में जमा से ज्यादा घटाव है। पर कपूर का लम्बा अनुभव और आलाकमान की गुड बुक्स में उनकी उपस्थिति उनका दावा मजबूत करते है। चुराह विधायक और पूर्व विधानसभा स्पीकर हंसराज की बात करें तो वे निसंदेह तेजतर्रार नेता तो है ही, पर उनका चम्बा से होना उनके लिए फायदे का सौदा भी हो सकता है तो रुकावट भी। जनजातीय क्षेत्र से उम्मीदवार देकर भाजपा बड़ा सन्देश भी दे सकती है, तो जिला कांगड़ा की नाराजगी का डर चम्बा की उम्मीदवारी में रोड़ा भी है। साथ ही यदि हंसराज उम्मीदवार होते है और जीत जाते है तो भाजपा को विधानसभा उपचुनाव का सामना भी करना पड़ेगा। ऐसे में उनकी उम्मीदवारी पर पार्टी को काफी सियासी गणित लगनी पड़ेगी। तीसरा नाम है विशाल नेहरिया का। 2019 के धर्मशाला उपचुनाव में भाजपा ने उनको उम्मीदवार बनाया और नेहरिया ने शानदार जीत दर्ज की। इसके बाद 2022 में उनका टिकट काट दिया गया लेकिन नेहरिया समर्थकों की नाराजगी के बावजूद पार्टी लाइन से बाहर नहीं गए। ये फैक्टर उनके पक्ष में जा सकता है। नेहरिया युवा नेता है और माहिर मान रहे है कि भाजपा अधिक से अधिक युवाओं को टिकट देने की नीति पर आगे बढ़ेंगी। ऐसे में इस मापदंड पर भी नेहरिया फिट बैठते है। बहरहाल ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या सीटिंग सांसद किशन कपूर फिर टिकट लाने में कामयाब होंगे ? और किशन कपूर नहीं तो क्या भाजपा गद्दी समुदाय से ही प्रत्याशी देती है या नहीं। फिलवक्त सब सियासी अटकलें है और अटकलों का क्या। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से भाजपा में कम से कम एक दर्जन टिकट के चाहवान है।
भाजपा में टिकट चाहवानों की कतार, कांग्रेस में नेता कतरा रहे ! उम्मीदवार का चयन कांग्रेस के लिए चुनौती, भाजपा को भी बरतनी होगी सावधानी एक तरफ कतार लगी है और एक ओर मानो सब कतरा से रहे है। लोकसभा चुनाव की रुत में ये ही मिजाज -ए-कांगड़ा है। भाजपा में टिकट के चाहवानों की लम्बी कतार है, उधर कांग्रेस में टालमटाल की स्थिति बनती दिख रही है। हालांकि सन्नाटा दोनों ही खेमो में है, भाजपा में चाहवानों की वाणी पर अनुशासन का ताला है तो कांग्रेस में एक किस्म से चाहवान ही नहीं दिख रहे। विशेषकर हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद से ही स्थिति बदल सी गई है। इस पर राम मंदिर फैक्टर का भी असर दिखने लगा है। हालांकि सियासी मौसम भी पहाड़ों के मौसम की तरह ही होता है, कब बदल जाएँ पता नहीं लगता। पर फिलहाल कांगड़ा में कांग्रेस की मुश्किलें निसंदेह भाजपा से अधिक है। यूँ तो चुनाव लोकसभा का है और राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाना है। पर प्रदेश के सियासी मसलों को इससे पूरी तरह इतर नहीं किया जा सकता। प्रदेश में कांग्रेस सत्तासीन है और कांगड़ा संसदीय क्षेत्र को एक साल बाद प्रदेश कैबिनेट में दूसरा मंत्री पद मिला है। अब भी एक मंत्री पद की कमी कांगड़ा को खल रही है। ये कांग्रेस के सियासी सुकून में बड़ा खलल भी डाल रही है। इस पर कांगड़ा में कांग्रेस खेमो में बंटी है, ये भी सर्वविदित है। हालांकि खेमेबाजी भाजपा में भी बेशुमार है। कभी तस्वीरों के जरिये तो भी सांझी पत्रकार वार्ताओं में इसकी झलक दिखती रही है। विधानसभा चुनाव में भाजपा की शिकस्त का एक बड़ा कारण भी इसी गुटबाजी को माना जाता है। पर लोकसभा चुनाव पीएम मोदी के चेहरे पर होगा और ये कहना गलत नहीं है कि पीएम मोदी के चेहरे के आगे बाकी सभी फैक्टर बौने हो जाते है। फिर भी भाजपा के पास यहाँ चूक की कोई गुंजाईश नहीं दिखती। इतिहाज गवाह है कि इसी कांगड़ा से सीटिंग सीएम भी विधानसभा चुनाव हारे है, सो जाहिर है कांगड़ा को 'फॉर ग्रांटेड' नहीं लिया जा सकता। माहिर मान रहे है कि भाजपा को भी चेहरे के चयन में सावधानी बरतनी होगी। भाजपा का गढ़ रहा है कांगड़ा भाजपा के गठन के बाद से दस लोकसभा चुनाव हुए है जिनमें से सात बार कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को जीत मिली है। यूँ तो भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव 1984 में लड़ा था लेकिन पार्टी की जड़े जमी 1989 में। तब राम मंदिर आंदोलन प्रखर था और आंदोलन की तरह ही भाजपा भी तेजी से बढ़ती जा रही थी। इसी बीच 1989 में शांता कुमार पहली बार संसद की दहलीज लांघने में कामयाब हुए। तब से कांगड़ा में भाजपा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। कांग्रेस सिर्फ दो मर्तबा जीती, 1996 में सत महाजन और 2004 में चौधरी चंद्र कुमार ही कांग्रेस को जीत दिला सके। उम्मीदवार बदला, वोट शेयर बढ़ा ! कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा लगतार तीन चुनाव जीत चुकी है। दिलचस्प बात ये है कि पिछले तीन चुनाव में भाजपा ने हर बार चेहरा बदला है और हर बार जीती है। इससे भी दिलचस्प तथ्य ये है कि हर बार भाजपा के वोट प्रतिशत में भारी बढ़ोतरी हुई है। 2009 में भाजपा के उम्मीदवार थे डॉ राजन सुशांत और उन्हें 48.69 प्रतिशत वोट मिले थे। फिर 2014 में शांता कुमार ने चुनाव लड़ा और उन्हें लगभग 57 प्रतिशत वोट मिले। वहीँ 2019 में भाजपा ने किशन कपूर को उम्मीदवार बनाया और उन्होंने रिकॉर्ड 72 प्रतिशत वोट बटोरे। किशन कपूर ने रचा था इतिहास 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र पर किशन कपूर ने 72.02 प्रतिशत मत हासिल कर इतिहास बना दिया था। तब कपूर को 7,25,218 वोट पड़े थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी पवन काजल को 2,47,595 मतों पर ही सिमटना पड़ा था। कांगड़ा हलके की दिलचस्प बात यह रही थी कि प्रदेश में सबसे अधिक नोटा का इस्तेमाल भी यहीं हुआ। तब 11,327 मतदाताओं ने नोटा दबाया था। वहीँ बहुजन समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी डॉ. केहर सिंह को 0.88 प्रतिशत वोट हासिल हुए, जबकि नोटा 1.12 % था। 2004 के बाद नहीं जीती कांग्रेस कांग्रेस को आखिरी बार 2004 में कांगड़ा संसदीय सीट पर जीत मिली थी और तब उम्मीदवार थे चौधरी चंद्र कुमार। इसके बाद से कांग्रेस लगातार तीन चुनाव हार चुकी है। आगामी लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की राह आसान नहीं दिखती। सही उम्मीदवार का चयन और अंतर्कलह और असंतोष पर लगाम ही कांग्रेस को टक्कर में ला सकता है। बहरहाल कांग्रेस के सामने सबसे पहली चुनौती असंतोष को साधना है। । विधानसभा चुनाव में लगा था भाजपा को झटका कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में जिला चम्बा के 4 और जिला कांगड़ा के 13 विधानसभा क्षेत्र आते है। जिला चम्बा के चम्बा सदर, भटियात, चुराह और डलहौज़ी कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में आते है, जबकि भरमौर मंडी संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। वहीँ जिला कांगड़ा के फतेहपुर, नूरपुर, इंदोरा, ज्वाली, धर्मशाला, शाहपुर, कांगड़ा, नगरोटा, पालमपुर, सुलह, जयसिंहपुर, बैजनाथ और ज्वालामुखी विधानसभा हलके कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के अधीन आते है । 2022 में हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को झटका लगा था। भाजपा को 17 में से सिर्फ पांच सीटों पर ही जीत मिली थी। हारने वालों में दो कैबिनेट मंत्री और प्रदेश महामंत्री भी शामिल थे। तब असंतोष और गलत टिकट आवंटन हार के कारण बने थे और जाहिर है भाजपा को लोकसभा चुनाव इसे साधना होगा। श्री राम मंदिर का पालमपुर कनेक्शन 1989 के पालमपुर अधिवेशन के बाद बीजेपी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा श्री राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी को की जाएगी। हिंदुस्तान के कई राजनैतिक दलों ने राम मंदिर निर्माण की लम्बी लड़ाई लड़ी है, जिनमें भारतीय जनता पार्टी प्रमुख है। वो बीजेपी का राम मंदिर आंदोलन ही था जिसने देश की राजनीति की धारा को ही पलट दिया। राम मंदिर आंदोलन की बिसात पर मजबूत हुई। बीजेपी आज केंद्र में सत्तासीन है और मंदिर आंदोलन से निकले कई नेता संसद में बैठकर देश की नीतियां निर्धारित कर रहे हैं। राम मंदिर बनाने का संघर्ष लम्बा है, और इस संघर्ष में हिमाचल प्रदेश का पालमपुर भी बेहद ख़ास स्थान रखता है। 1989 में जिला कांगड़ा के पालमपुर में बीजेपी का अधिवेशन हुआ था। इस अधिवेशन में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, विजयाराजे सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी समेत पार्टी के तमाम बड़े नेता पालमपुर में थे। इसी अधिवेशन में अयोध्या में भगवान् श्री राम के भव्य मंदिर निर्माण के साथ साथ भारतीय जनता पार्टी के स्वर्णिम भविष्य की पटकथा लिखी गई और भाजपा ने मंदिर निर्माण का प्रस्ताव पास किया। इस तरह इस ऐतिहासिक घटनाक्रम का पालमपुर साक्षी बना। इस तीन दिवसीय अधिवेशन में राम मंदिर निर्माण को लेकर पार्टी ने मंथन किया और तय हुआ कि अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा। 11 जून, 1989 को राम मंदिर के निर्माण का प्रस्ताव तैयार किया गया। इसी दिन लालकृष्ण आडवाणी ने सबकी सहमति से राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव रखा था। पालमपुर में हुई इस बैठक के सूत्रधार थे पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार जो उस समय प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष थे और उन्हें ही उस ऐतिहासिक बैठक की पूरी व्यवस्था करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वह राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य भी थे, इसलिए उस ऐतिहासिक प्रस्ताव के पारित होने और सारी व्यवस्था के वह भी साक्षी हैं। क्या होगी सुधीर की भूमिका ? जिला कांगड़ा में सुधीर शर्मा कांग्रेस का बड़ा नाम है। सुधीर धर्मशाला से विधायक है और पूर्व की वीरभद्र सरकार में मंत्री रह चुके है। इस बार भी उन्हें मंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था लेकिन अब तक ऐसा नहीं हुआ। चार बार के विधायक सुधीर शर्मा सुक्खू राज में मंत्री पद से महरूम है, पर पंडित जी का सियासी रसूख कुछ ऐसा है कि उन्हें किनारे करके भी दरकिनार नहीं किया जा सकता। हाल ही में सीएम सुक्खू उनसे मिलने देर रात उनके आवास पर पहुंचे थे, तो अंतर्कलह की स्थिति को भांप आलाकमान ने उन्हें तमाम मंत्रियों सहित बैठक के लिए दिल्ली से बुलावा भेजा । इस बैठक का निष्कर्ष क्या निकला ये तो अब तक स्पष्ट नहीं है लेकिन माहिर मान रहे है कि सुधीर के लिए कोई भूमिका तय कर ली गई है। एक कयास है कि सुधीर कांगड़ा से कांग्रेस के उम्मीदवार होंगे और दिल्ली में इसी को लेकर चर्चा हुई है। वहीँ अटकले ये भी है कि सुधीर शर्मा को संगठन की कमान देकर साधा जा सकता है। यदि ऐसा हुआ तो सुधीर के साथ -साथ कांगड़ा का सियासी वजन भी बढ़ेगा। बहरहाल सब अटकलें है और सुधीर के हिस्से में क्या आता है और कब आता है, ये देखना रोचक होगा।
शिमला संसदीय क्षेत्र में कार्यकर्ताओं में जान फूंक गए नड्डा हिमाचल में कोई चूक नहीं चाहेंगे नड्डा : भारतीय जनता पार्टी का आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर उन प्रदेशों में ज्यादा फोकस है, जहां गैर भाजपा दलों की सरकार है। हिमाचल की सत्ता पर कांग्रेस काबिज है, ऐसे में भाजपा लोकसभा चुनाव को लेकर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहेगी। भाजपा ने हिमाचल में लोकसभा चुनाव का उद्घोष कर दिया है। भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के दौरे के साथ ही लोकसभा चुनाव का शंखनाद हो गया है। इसके आरंभ के लिए नड्डा ने शिमला संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले सोलन को चुना। दरअसल 2022 के विधानसभा चुनाव में शिमला संसदीय क्षेत्र में ही भाजपा सबसे कमजोर साबित हुई थी। विधानसभा चुनाव में संसदीय क्षेत्र की 17 में से महज तीन सीट पर पार्टी को जीत मिली थी। जाहिर है ऐसे में पार्टी अब कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। खुद नड्डा ने सोलन में रोड शो किया और फिर जनसभा को सम्बोधित कर चुनावी हुंकार भरी। इसके उपरांत शिमला पहुंचे नड्डा ने भाजपा कोर ग्रुप की बैठक भी ली। सोलन में हुए नड्डा के रोड शो में विशेषकर सोलन और सिरमौर से भारी भीड़ उमड़ी। सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का भी भरपूर जलवा दिखा। हाटी फैक्टर का असर भी इस आयोजन में दिखा। विशेषकर हाटी बेल्ट से काफी संख्या में लोग नड्डा के इस्तेकबाल को पहुंचे। जाहिर है भाजपा ने बेहद रणनीतिक तरीके से हाटी फैक्टर को भुनाने की तैयारी की है और इसका चुनावी लाभ भी पार्टी को मिल सकता है। सम्भवतः बेवजह टिकट न बदले भाजपा ! लोकसभा चुनाव के लिए दावेदारी का सिलसिला भी शुरू हो गया है। शिमला संसदीय क्षेत्र से सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का दावा एक बार फिर मजबूत है। नड्डा के दौर में भी कश्यप की पकड़ की झलक दिखी। कश्यप के अलावा पच्छाद विधायक रीना कश्यप का नाम भी चर्चा में है। हालांकि माहिर मान रहे है कि अगर तमाम सर्वे ठीक आते है तो भाजपा बेवजह टिकट नहीं बदलेगी। शिमला संसदीय क्षेत्र में हाटी फैक्टर से भी भाजपा को बड़ी उम्मीद है और वोटर्स के बीच इसका श्रेय भी काफी हद तक सुरेश कश्यप को जाता दिख रहा है।
'येन-केन-प्रकारेण'..जैसे भी हो कांग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव में बेहतर करना होगा। 138 साल पुरानी देश की सबसे बुजुर्ग राजनैतिक पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है और इसलिए पार्टी अब अपने सबसे बड़े योद्धाओं को भी चुनावी मैदान में उतार सकती है। बीत दिनों हुई एआईसीसी की बैठक में पार्टी ने सबसे दमदार नेताओं को चुनाव लड़वाने का निर्णय लिया है। ऐसे में कई पूर्व मुख्यमंत्री तो चुनाव लड़ते दिख ही सकते है, संभव है कई राज्यों में सीटिंग विधायक और मंत्री भी लोकसभा चुनाव के मैदान में उतार दिए जाएँ। कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ तो अशोक गहलोत, भूपेश बघेल, कमलनाथ सहित कई दिग्गज मैदान में होंगे। वहीँ सूत्रों की माने तो पार्टी विभिन्न क्षेत्रों से सम्बंधित कई लोकप्रिय चेहरों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति पर भी आगे बढ़ रही है। योजना परवान चढ़ी तो कई सेलब्रिटी भी कांग्रेस से चुनाव लड़ते दिख सकते है। सूत्रों की माने तो कांग्रेस की रणनीति जल्द से जल्द कई सीटों पर उम्मीदवार घोषित करने की है, ठीक वैसे ही जैसा भाजपा ने मध्य प्रदेश में किया था। मुमकिन है जो चेहर तय है उनकी घोषणा पार्टी फरवरी में ही कर दें। अशोक गहलोत सहित कई नेता पार्टी पटल पर ये सुझाव रख चुके है ताकि प्रत्याशियों को ज्यादा से ज्यादा समय मिल सके। हिमाचल में मंत्री लड़ेंगे चुनाव ? कांग्रेस 'करो या मरो' के जज्बे के साथ चुनावी मैदान में उतरना चाहती है और ऐसे में मुमकिन है कि हिमाचल में भी कई बड़े चेहरे चुनावी मैदान में हो। सिर्फ विधायक ही नहीं मंत्री भी चुनावी मैदान में उतारे जा सकते है। इसे लेकर कयासबाजी का सिलसिला जारी है। कांगड़ा से चौधरी चंद्र कुमार और शिमला से कर्नल धनीराम शांडिल के नाम की अटकलें तो है ही, हमीरपुर से उप मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री का नाम भी सियासी गलियारों में चर्चा का विषय है। हालांकि फिलहाल ये सब अटकलें है।
दस में से आठ मौकों पर भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्षों ने लड़ा है चुनाव मंडी, हमीरपुर, कांगड़ा सभी विकल्प भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा क्या लोकसभा चुनाव लड़ेंगे और लड़े तो सीट कौन सी होगी, सियासी गलियारों में ये चर्चा का विषय बना हुआ है। जगत प्रकाश नड्डा के सियासी कद को लेकर कोई सवाल नहीं है और उनके लिए मैदान खुला है। ये भी संभव है कि अगर वे चुनाव लड़े तो हिमाचल प्रदेश की ही किसी सीट को चुन सकते है। वर्तमान में नड्डा राज्यसभा सांसद है और उनका कार्यकाल आगामी अप्रैल में पूरा होगा। लगभग इसी दौरान लोकसभा चुनाव है, इसलिए भी उनके चुनाव लड़ने की अटकलें तेज है। हिमाचल प्रदेश में चार लोकसभा सीटें है में से सिर्फ शिमला सीट ही आरक्षित है। ऐसे में अन्य तीन सीटें नड्डा के लिए खुली है। उनके गृह क्षेत्र हमीरपुर की बात करें तो वहां से अनुराग ठाकुर सांसद है और अनुराग एक बार फिर हमीरपुर से चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके है। हालांकि भाजपा में अंतिम फैसला आलाकमान का होता है और नड्डा तो खुद ही आलाकमान है। यदि नड्डा हमीरपुर से मैदान में होते है तो अनुराग तो कांगड़ा से चुनाव लड़वाया जा सकता है। वहीँ ये भी मुमकिन है कि खुद नड्डा ही कांगड़ा से चुनाव लड़े। वहीँ मंडी की बात की जाएँ तो उपचुनाव में भाजपा ने ये सीट गवां दी थी। ऐसे में प्रतिभा सिंह के सामने भी खुद नड्डा उतर सकते है। बहरहाल ये सब अटकलें है और मूल सवाल ये ही है कि क्या नड्डा हिमाचल की किसी सीट से चुनाव लड़ेंगे या नहीं। नड्डा के सामने तीनों सीटों के विकल्प खुले है और माहिर मानते है कि अगर नड्डा को पार्टी मैदान में उतारती है तो हिमाचल प्रदेश की सभी सीटों पर इसका प्रभाव पड़ेगा। बता दें भाजपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष के खुद लोकसभा चुनाव लड़ने का रिवाज पुराना है। 1984 में अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर 2019 में अमित शाह तक अगर एकाध मौकों को छोड़ दिया जाएँ तो पार्टी के सभी अध्यक्ष अपने कार्यकाल में खुद लोकसभा चुनाव लड़े है। 1999 में कुशाभाऊ ठाकरे और 2004 के लोकसभा चुनाव में वैंकया नायडू ही अपवाद है। ऐसे में अब मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के भी चुनाव लड़ने की अटकलें है।
पांच में से तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत हुई और मुख्यमंत्री बने विष्णु, मोहन और भजन। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री की कमान विष्णुदेव साय को दी गई। मधयप्रदेश में सभी को चौंकाते हुए भाजपा ने मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया और राजस्थान में बड़ा बदलाव कर पहली बार विधायक बने भजन लाल शर्मा को मुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया। जो नाम चर्चा तक में नहीं थे वो सीधे मुख्यमंत्री बन गए और जो उम्मीदें लगाए बैठे थे हाथ पर हाथ धरे, निष्ठावान कार्यकर्त्ता बने बैठे रहे। भाजपा ने जो किया इसे समझना जितना आम व्यक्ति के लिए मुश्किल है उतना ही मुश्किल ये राजनीतिज्ञों के लिए भी है। भाजपा का ये सियासी दांव देखकर विपक्ष और सियासी माहिरों के होश तो उड़े ही मगर खुद भाजपाई भी भौचक्के रह गए। ये बदलाव सोचने पर मजबूर कर रहा है कि आखिरकार इतना अनप्रिडिक्टेबल होकर भाजपा ज़ाहिर क्या करना चाहती है। क्या गुटबाज़ी खत्म करने के लिए भाजपा ने ऐसा किया या फिर ये नए चेहरे एंटी इंकम्बेंसी की काट है, या भाजपा की सियासी लैब का कोई नया एक्सपेरिमेंट या कोई नई रणनीति है जिसे डिकोड करने में अभी समय लगेगा । अब ये जो भी था हर किसी के लिए सबक था। आइये इसे डिकोड करने के कुछ प्रयास करते है। शुरुआत से शुरू करें तो बीजेपी ने इस बार राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना विधानसभा चुनाव में सीएम चेहरा घोषित ही नहीं किया था। पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम और काम पर ही पूरा चुनाव लड़ा था। 3 दिसम्बर वो तारीख थी जब तीनों राज्यों में भाजपा को प्रचंड जीत मिली और तमाम सर्वे फेल हो गए। जिस तरह भाजपा को मोदी के नाम पर तीनो राज्यों में जीत मिली उससे ये तो तय था कि पार्टी अब तीनों राज्यों में नई लीडरशिप को खड़ा करने का दांव खेल सकती है और हुआ भी कुछ ऐसा ही, भाजपा ने तीनो राज्यों में उन चेहरों को मुख्यमंत्री की कमान सौंपी जिनका इस फेहरिस्त में दूर दूर तक नाम शामिल नहीं था। इसे भाजपा में अब पीढ़ी परिवर्तन का दौर ही समझ लीजिये जिस तरह से शिवराज और वसुंधरा राजे को राज सिंहासन से दूर रख भाजपा ने मास्टरस्ट्रोक खेला है। यानी जिस तरह चुनाव वन मैन शो था अब पावर भी शायद वहीँ केंद्रित रहे । इसके अलावा अन्य कारणों को टटोले तो पहला कारण विभिन्न जातीय वर्गों को लुभाना दिखता है । ये तो स्पष्ट है कि भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अभी से महामंथन कर रही है। राजनीतिक विश्लेष्कों कि माने तो तीनो राज्यों में पार्टी ने ऐसे चेहरे तलाशे है जिनको लेकर व्यापक स्वीकार्यता हो। छत्तीसगढ़ में आदिवासी समुदाय, मध्यप्रदेश में ओबीसी और राजस्थान में ब्राह्मण चेहरा देकर पार्टी ने इन समुदाय के वोटर्स पर फोकस किया है। इन राज्यों के साथ लगते अन्य राज्यों में भी इसका व्यापक प्रभाव होगा। जातीय समीकरणों को साधने के लिए भाजपा का ये बड़ा दांव माना जा रहा है। ऐसे में जाहिर है इस फैक्टर के सहारे पार्टी 2024 में भी विजयश्री कि गाथा लिखने कि तैयारी कर रही है। दूसरा, पार्टी ने तीनो राज्यों में मुख्यमंत्री ऐसे बनाए हैं जो संघ की शाखाओं से निकले हैं। नए चेहरों को मौका देकर पार्टी ने ये भी जहन में रखा होगा कि ऐसे मुख्यमंत्री कम से कम अपने पहले कार्यकाल में लो प्रोफाइल रहेंगे और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के हिसाब से ही काम करेंगे। यानी कमांड पूरी तरह से आलाकमान के हाथ होगी। तीसरा, भाजपा ने जिस तरह से चेहरे बदले है उससे ये स्पष्ट है की पार्टी राजनीति की नयी परिभाषा लिखने के साथ ही जमीनी कार्यकर्ताओं को भविष्य के नेता बनाने का संदेश दे चुकी है। पार्टी संगठन से जुड़े हुए कार्यकर्ताओं को ये सन्देश दे रहे हैं कि साधारण से साधारण कार्यकर्ता भी पार्टी में एक दिन ऊंचे से ऊंचे पद पर पहुंच सकता है और इसका सबसे बड़ा उदहारण राजस्थान के मुख्यमंत्री भजन लाल शर्मा है जो पहली बार में ही विधानसभा चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री बन गए। साथ ही पार्टी ने राजनीति के धुरंधर और दिग्गज खिलाड़ियों को भी उनकी जमीन दिखाने की कोशिश की है। ये भाजपा की तीन राज्यों में ही नहीं बल्कि देश में भी सियासी संदेश देने की रणनीति है, कुल मिलाकर यह BJP की नई तरह की रणनीति है। युवा को सामने लाओ, जो पार्टी को आगे बढ़ाएं और दस साल बाद नए चेहरे को रिले रेस की तरह सत्ता का बैटन सौंप दें। भाजपा के इस प्रयोग ने विरोधियों को भी चौंका दिया है l
हिमाचल प्रदेश सरकार का एक वर्ष का कार्यकाल पूरा हो चुका है। इस एक वर्ष में सरकार ने क्या किया, क्या करना चाहा और क्या सरकार नहीं कर पाई, ये तमाम सवाल सरकार से तपोवन धर्मशाला में होने वाले विधानसभा के शीत सत्र में पूछे जाएंगे। विपक्ष सवाल दागेगा और सत्तापक्ष को हर सवाल का जवाब देना होगा। विपक्ष ने अभी से ही सुक्खू सरकार की विफलताओं को सदन में उठाने की रणनीति बना ली है। चर्चा सरकार के एक साल पर होगी, अधूरी गारंटियों पर होगी, प्रदेश में आई आपदा पर होगी और हर उस मसले पर होगी जो हिमाचल प्रदेश की जनता के लिए महत्वपूर्ण है। इस सेशन में केंद्र सरकार से राहत राशि नहीं मिलने के बावजूद प्रभावित परिवारों को मदद करने को कांग्रेस अपनी ढाल बनाएगी। इस बाबत 18 दिसंबर को धर्मशाला में कांग्रेस और 19 दिसंबर को भाजपा के विधायक दल की बैठक होगी। प्रदेश के अपने सीमित संसाधनों के बावजूद प्रभावितों के लिए 4500 करोड़ रुपये का पैकेज जारी करने की बात भी प्रदेश सरकार और कांग्रेस सदन में बताएगी। केंद्र सरकार की ओर से आर्थिक मदद नहीं दिए जाने को भी कांग्रेस विधायक हथियार के तौर पर प्रयोग करेगी। उधर, भाजपा विधायक केंद्र सरकार से विभिन्न मदों के तहत जारी हुई आपदा राहत राशि को मुद्दा बनाकर सरकार को घेरेंगे। सुक्खू सरकार के एक वर्ष के कार्यकाल के दौरान विकास कार्य नहीं होने, कर्मचारी वर्ग को देय वित्तीय लाभ नहीं मिलने को लेकर भाजपा विधायकों ने हंगामा करने की तैयारी की है। भाजपा विधायकों ने सड़क, स्वास्थ्य और कानून व्यवस्था से जुड़े कई सवाल लगाकर भी सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाने की तैयारी की है। वही विधानसा में विपक्ष कांगड़ा से भेदभाव के मुद्दों को भी धार देगा। बीजेपी प्रदर्शन से भी माहौल बनाएगी और विधानसभा सत्र में हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय की 30 करोड़ की धनराशी जमा करवाने, कांगड़ा के क्रशरों को बंद कर विकास पर ब्रेक लगाने, कोविड आउटसोर्स कर्मचारी की बहाली जैसे मुद्दे भी उठाएगी। चार से पांच लेयर में होगी सुरक्षा बता दें कि हिमाचल प्रदेश विधानसभा का शीतकालीन सत्र पांच दिनों तक चलेगा। इस सत्र में निजी कार्य दिवस भी शामिल है। हर बार की तरह इस बार भी हिमाचल विधानसभा का शीतकालीन सत्र धर्मशाला स्थित तपोवन में होगा। इस बार तपोवन विधानसभा परिसर की सुरक्षा व्यवस्था चार से पांच लेयर में होगी। साथ ही दर्शक दीर्घा में बैठने वाले तमाम अधिकारियों-कर्मचारियों, मीडिया कर्मियों व अन्य लोगों की जानकारी पुलिस के पास रहेगी। इसके अलावा परिसर में मंत्रियों के कमरों तक फरियाद लेकर पहुंचने वालों के पहचान पत्र भी पुलिस जवानों की ओर से जांचे जाएंगे। हाल ही में दिल्ली संसद में चल रहे सत्र के दौरान सुरक्षा व्यवस्था में चूक सामने आई थी। इस तरह की कोई चूक तपोवन में होने वाले शीत सत्र के दौरान सामने न आए, इसके लिए बोर्ड ऑफ आफिसर्स की कमेटी गठित की गई है। वहीं विधानसभा सत्र के दौरान धर्मशाला शहर से लेकर विस परिसर तक करीब 1,000 पुलिस जवान सुरक्षा का जिम्मा संभालेंगे। विस ड्यूटी के लिए प्रदेश की विभिन्न बटालियनों से जवान 17 दिसंबर को धर्मशाला पहुंच जाएंगे।
सुक्खू मंत्रिमंडल की नई और अब भी अधूरी तस्वीर सामने आ गई है। अब इस तस्वीर में भरे रंग प्रदेश के सामाजिक, भौगोलिक और राजनैतिक परिदृश्य से कितना मेल खा रहे है इस पर विश्लेषणों और टिप्पणियों का दौर जारी है। पिछले एक साल से जारी गहन चिंतन और मंथन के बाद सुक्खू सरकार क्या साध पाई और क्या नहीं इसका आंकलन किया जा रहा है। सवाल पूछे जा रहे है और जवाब ढूंढें जा रहे है। वो नेता जिनके धैर्य की परिकाष्ठा पार हो चुकी थी क्या अब वो संतुष्ट है ? वो मंडी और काँगड़ा लोकसभा की जनता जिनकी नज़रअंदाज़गी के चर्चे थे क्या अब ज़रूरी तवज्जों हासिल कर चुके है? क्या कांग्रेस की वो अंदरूनी खींचतान, वो एकतरफा झुकाव और कल्पित असंतुलन अब संतुलित है ? और सबसे बड़ा सवाल आखिर ये मंत्रिमंडल अब भी अधूरा क्यों है ? इन तमाम सवालों पर चर्चा करेंगे पर पहले सुक्खू सरकार की दो नई एंट्रीज पर गौर फरमाते है। सुक्खू मंत्रिमंडल में दो नए चेहरे शामिल हुआ है। घुमारवीं से विधायक राजेश धर्माणी और जैसिंघपुर से विधायक यादविंदर गोमा। धर्माणी घुमारवीं विधानसभा से तीसरी बार मुख्यमंत्री चुन कर आए है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता है और पहले सीपीएस भी रह चुके है। बिलासपुर जिले से सुक्खू सरकार में अब तक कोई भी मंत्री नहीं था। धर्माणी के मंत्री बनने के बाद बिलासपुर जिले को प्रतिनिधित्व मिल गया है। ये भाजपा के राष्ट्रिय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का भी गढ़ है और धर्माणी के मंत्री बनने के बाद यहाँ कांग्रेस के थोड़ा और मज़बूत होने की उम्मीद है। राजेश धर्माणी मुख्यमंत्री के करीबी माने जाते हैं। कहा जाता है कि इसी वजह से पूर्व वीरभद्र सरकार में वह मंत्री बनते-बनते रह गए थे और अब ये ही उनकी ताजपोशी के कई कारणों में से एक बना है। वहीँ दूसरा नाम यादविंदर गोमा का है। गोमा एससी कोटे से मंत्री बने है। मंत्रिमंडल विस्तार से पहले ही कयास जारी थे की कांग्रेस के राष्ट्रिय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के निर्देशानुसार हिमाचल को एससी कोटे से एक और मंत्री मिलेगा और हुआ भी ऐसा ही। गोमा महज़ दो बार के विधायक है और मंत्रिमंडल में उनकी एंट्री किसी लोटरी से कम नहीं है। साल 2012 में वह पहली बार चुनाव जीते। 2017 में हार गए, जबकि 2022 में गोमा दूसरी बार चुनाव जीते। गोमा की ताजपोशी के बाद प्रदेश के सबसे बड़े कांगड़ा जिले का भी कुछ अधिमान बढ़ा है काँगड़ा को दूसरा मंत्री मिल गया। अब बात समीकरणों की। क्षेत्रीय लिहाज़ से देखें तो परिस्थिति में ज़्यादा अंतर् नहीं दिखता। काँगड़ा संसदीय क्षेत्र को अब दो मंत्री मिल गए है। मगर ये अब भी अपेक्षित अधिमान से कम है। उम्मीद दो की थी मगर मिला सिर्फ एक। वहीँ दूसरी तरफ जहाँ हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से पहले से ही मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री दोनों थे अब एक और मंत्री भी इस संसदीय क्षेत्र को मिल गया है। वहीँ शिमला संसदीय क्षेत्र की पहले से ही झोली ओवर फ्लो है और मंडी में कुछ नहीं बदला। पूरे मंडी संसदीय क्षेत्र से अब भी महज़ एक ही मंत्री है और वो है जगत सिंह नेगी। यहाँ उम्मीद थी की मंडी में बेहतर करने को पार्टी कुल्लू से विधायक और सीपीएस सूंदर सिंह ठाकुर को मंत्री बना सकती है मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। अब शिमला से 5 मंत्री है। हमीरपुर से तीन। काँगड़ा से दो और मंडी से एक। क्षेत्रीय संतुलन भले ही अब भी कुछ अटपटे दिखें मगर जातीय संतुलन काफी हद तक साध लिए गए है। इस कैबिनेट के कुल 11 मंत्रियों में से 6 क्षत्रिय है जिनमें एक ट्राइबल भी है, दो एससी एक ओबीसी और दो ब्राह्मण भी है। अब बात करते है पार्टी के अंदरूनी गणित और असंतुष्ट नेताओं की । दो नए मंत्रियों में से धर्माणी सुक्खू के करीबी है। वहीँ दूसरी तरफ यादविंदर गोमा पहले होलीलोज के करीबी माने जाते थे मगर अब वे भी कमोबेश सुक्खू समर्थक ही दिखते है। यानि इस लिहाज़ से किसी और तबके को तवज्जो अब भी नहीं मिली। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने दबाव ज़रूर बनाया मगर मंत्रिमंडल विस्तार में उनकी चली हो ऐसा नहीं दिखता। मुकेश अग्निहोत्री फैक्शन भी विस्तार से नदारद है। वहीँ वो नेता जो खुले मंचों पर नाराज़गी ज़ाहिर कर रहे थे अब भी नाराज़ ही है। इनमें दो नाम प्रमुख थे। धर्मशाला विधायक सुधीर शर्मा और सुजानपुर विधायक राजेंद्र राणा। सुधीर पूर्व सरकार में मंत्री रह चुके है ऐसे में इस बार उनका मंत्री न होना काफी अटपटा दिखता है। सुधीर पूरी उम्मीद में थे। सरकार के एक साल के कार्यक्रम पर सुधीर ने जनता भी एकत्रित की और समर्थकों ने उनके नारे भी लगाए। मगर फिर भी सुधीर की झोली खाली रही। सुधीर का इंतज़ार जारी है। माना जा रहा है की चुनाव से सुधीर की दूरी ही मंत्रिपद से उनकी दूरी का कारण बनी है। सुधीर ने साल 2019 में लोकसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था, इसके बाद धर्मशाला सीट पर हुआ उपचुनाव भी सुधीर नहीं लड़े थे। सुधीर शर्मा पर धर्मशाला नगर निगम में भी पार्टी विरोध गतिविधियों के आरोप लगते रहे हैं जिन्होंने उनका काम बिगाड़ा है। वहीँ राजेंद्र राणा भी मंत्री पद से अछूते ही है। हमीरपुर से मुख्यमंत्री स्वयं है और ऐसे में इसी क्षेत्र से एक और मंत्री का होना मुश्किल था। माना जा रहा है की महज़ क्षेत्रीय बाधाएं ही राणा के रस्ते में आई है। यानी ये नाराज़गी अब भी बरकरार है। अब बात मंत्रिमंडल की एक खाली कुर्सी की। सुक्खू मंत्रिमंडल में पिछले एक साल से तीन कुर्सियां खाली थी विस्तार हुआ और अब एक खाली है। सरकार की क्या मजबूरियां है और सरकार क्या गुंजाइश बनाए रखना चाहती है ये कांग्रेस बेहतर जानती है। ये उम्मीद की एक किरण है, विरोध न करने की चेतावनी, या काबिल नेताओं की कमी मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू बेहतर जानते है।
लोकसभा चुनाव की तैयारियों का आगाज़ हो चूका है। अब दिग्गजों के दौरे, उनकी जनसभाएं और महा रैलियों की गूंज उठने लगी है। तीन राज्यों में जीत का परचम लहराने के बाद भाजपा मिशन 2024 के लिए एक्टिव मोड में नज़र आ रही है। भाजपा के राष्ट्रिय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा हिमाचल के दौरे पर है। नड्डा ने हिमाचल में लोकसभा चुनाव जीतने के लिए हुंकार भर दी है और प्रदेश की चारों लोकसभा सीट पर जीत का दावा किया है। अब ये दावा कितना सच साबित होता है ये तो समय ही तय करेगा। बहरहाल नड्डा के आगमन से हिमाचल भाजपा में भी जोश भर गया है। जेपी नड्डा के हिमाचल दौरे से सियासी हलचल तेज़ होना तो लाज़मी था। नड्डा ने बिलासपुर से लोकसभा चुनाव का शंखनाद किया और सुंदरनगर में रोड शो कर ये भी जता दिया की भाजपा मिशन 2024 का आगाज़ कर चुकी है। तीन राज्यों में भाजपा भले ही जीत दर्ज करने में कामयाब रही हो, लेकिन अपने गृह राज्य में पार्टी की हार का मलाल तो नड्डा को आज भी होगा। अब ये गलती फिर न दोहराई जाए इसके लिए नड्डा खुद मोर्चा संभालते नज़र आ रहे है। नड्डा ने लोकसभा चुनाव कि चारों सीटों पर भगवां लहराने का दावा किया है। वहीँ इस बार नड्डा के खुद चुनाव लड़ने की अटकले भी लगाई जा रही है। ऐसा होगा या नहीं ये वक्त ही बताएगा और ऐसा हुआ तो सीट कौन सी होगी ये भी वक्त ही तय करेगा। वैसे भी जिस तरह भाजपा ने इस बार तीन राज्यों में चेहरों और परिणामो को लेकर चौंकाया है, उससे ये तो स्पष्ट है कि पार्टी विद डिफ़्फेरन्स में कभी भी कुछ भी होना सम्भव है। नड्डा के दौरे से पार्टी के कार्यकताओं में नई ऊर्जा भरी है। नड्डा ने अपने बिलासपुर दौरे के दौरान कांग्रेस को तो गहरा ही साथ ही राजनीति कि नई परिभाषा का भी पाठ पढ़ाया। नड्डा ने तंज कस्ते हुए कहा कि अब राजनीति की संस्कृति बदल गई है। झूठ बोलकर वोट नहीं मिलता काम करके वोट मिलता है। आज की राजनीति रिपोर्ट कार्ड की राजनीति है, जो रिपोर्ट कार्ड रखेगा वह जीत हासिल करेगा। नड्डा कांग्रेस की गारंटियों पर भी जमकर बरसे और नड्डा ने कहा कि कांग्रेस की एक ही गारंटी है, गारंटी नहीं होने की गारंटी। हिमाचल में जनता 68 इंग्लिश मीडियम स्कूल ढूंढ रहे है, महिलाओं को 1500 रु नही मिले, मोबाइल स्वास्थ्य वैन नहीं मिली, गोबर दूध नहीं खरीदी, युवाओं को 5 लाख नौकरियां नही मिली, 300 यूनिट बिजली नहीं मिली। ये तो स्वाभाविक था कि नड्डा कांग्रेस को घेरने से पीछे नहीं हटेंग, लेकिन अपनी ही पार्टी के नेताओं को भी नड्डा ने आढ़े हाथो लिया। हिमाचल में भाजपा कि हार का कारण नड्डा ने कार्यकर्ताओं व नेताओं में आत्मविश्वास की कमी बताया। संदेश स्पष्ट था कि हिमाचल में पार्टी कि हार का कारण हिमाचल भाजपा ही रही है। जाहिर है अब लोकसभा चुनाव में पार्टी कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहेगी और नड्डा अपने गृह राज्य का रिपोर्ट कार्ड भी बेहतर ही चाहेंगे इसलिए भाजपा अब एक्शन में नज़र आ रही है।
सचिवालय के कमरों में कमरा नंबर 202 ,वो कमरा है जिसका नाम सुनते ही मंत्री भागे भागे फिरते है। कांग्रेस सरकार बनने के बाद अब तक सुक्खू कैबिनेट में किसी भी मंत्री को ये कमरा नहीं मिला था, मगर कैबिनेट विस्तार के बाद नवनियुक्त मंत्री राजेश धर्माणी को कमरा नंबर 202 अलॉट हुआ है और धर्माणी ने इसे बदलने की मांग की है। अब इस कमरे से जुड़ा इतिहास ही कुछ ऐसा है कि धर्माणी ही क्या कोई और भी मंत्री इस कमरे में बैठने से इंकार ही करेगा। क्या है कमरा नंबर 202 का इतिहास ? आखिर क्यों कोई भी मंत्री इसमें बैठने को तैयार नहीं होता?आइये आपको बताते है। कमरा नंबर 202 में बैठने वाला हर मंत्री चुनाव हारता है, ऐसा हम नहीं इतिहास के पन्नो में दर्ज चुनावी परिणाम कहते है। पिछले चुनाव के नतीजों पर गाैर करें ताे इस कमरे में मंत्री बनने पर जगत प्रकाश नड्डा, आशा कुमारी, नरेंद्र बरागटा और सुधीर शर्मा भी बैठे है और ये सभी तत्कालीन मंत्री रहते हुए अगला चुनाव हार गए। गौरतलब है कि वर्ष 1998 से 2003 तक तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री एवं भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा इस कमरे में बैठे। नड्डा 2003 का चुनाव हार गए। फिर वीरभद्र सरकार में मंत्री रही आशा कुमारी 2007 का विधानसभा चुनाव हार गई। 2007 में प्रदेश में फिर धूमल सरकार बनी और नरेंद्र बरागटा कैबिनेट मंत्री बने और इसी कमरे में बैठे। बरागटा भी 2012 का चुनाव हार गए। इसके बाद वीरभद्र सरकार में शहरी विकास मंत्री रहे सुधीर शर्मा भी इस कमरे में बैठे और 2017 का विधानसभा चुनाव हार गए। हालांकि उस वक्त सुधीर शर्मा बार-बार यही कहते थे कि ये सबकुछ अन्धविश्वास है, ऐसा कुछ नहीं हाेगा, मगर हुआ तो वो जो सोचा न था। वहीं पिछली जयराम सरकार में मंत्री रहे डॉ रामलाल मारकंडा भी इस दफा चुनाव हारे है जो इसी कमरा नंबर 202 में बैठते थे। इस कमरे का इतिहास अब तक बरकार है। हालाँकि दो बार ऐसे मौके भी रहे जब नेताओं को जीत तो मिली पर कैबिनेट रैंक नहीं मिल पाई। 2012 के चुनाव में जब आशा कुमारी जीत कर विधानसभा पहुंची थी तो वीरभद्र सिंह कि कैबिनेट में उन्हें जगह नहीं मिल पाई थी। इसी तरह से पूर्व बागवानी मंत्री नरेंद्र बरागटा 2017 का चुनाव जीत कर तो आए थे मगर जयराम सरकार में उन्हें मंत्री पद नसीब नहीं हुआ था और तब नरेंद्र बरागटा को चीफ व्हिप की कुर्सी दी गई, वह भी डेढ़ साल बाद। अब इसे अंधविश्वास कह लीजिये या फिर कुछ और, इस कमरे की परम्परा अब भी बरकरार है और अब धर्माणी भी कोई रिस्क लेने के मूड में नज़र नहीं आ रहे है और अब उन्होंने भी इस कमरे को बदलने की मांग कि है।
आपदा प्रबंधन को सलाम, महिलाओं को 1500 का इंतजार **पुरानी पेंशन बहाल कर सरकार ने निभाया बड़ा वादा ** सुखाश्रय योजना से सुक्खू सरकार ने जीता दिल ** सियासी संतुलन बनाने में असफल रही सरकार "...सत्ता परिवर्तन का जो सियासी रिवाज हिमाचल प्रदेश में 1990 से चला आ रहा था उसे जनता ने 2022 में भी बरकरार रखा। 8 दिसंबर 2022 को विधानसभा चुनाव के नतीजे आएं और कयासों के मुताबिक ही कांग्रेस सत्तासीन हुई। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के दो मुख्य कारण अगर देखे जाएँ, तो सम्भवतः पहला कारण रहा भाजपा का कमजोर चुनाव लड़ना। एक तिहाई सीटों पर भाजपा के बागी मैदान में थे और ये उसकी हार का बड़ा कारण बना। दोनों पार्टियों के वोट शेयर में अंतर एक प्रतिशत से भी कम रहा, जबकि निर्दलीयों के खाते में करीब दस प्रतिशत वोट गए। इनमें अधिकांश भाजपा के बागी थे। दूसरा कारण था, कांग्रेस की गारंटियां। कांग्रेस ने भाजपा से बेहतर चुनाव लड़ा और उसका गारंटी कार्ड चल गया। ये ही कारण है कि सिमटते कैडर के बावजूद कांग्रेस ने दमदार वापसी की। कांग्रेस के खाते में 40 सीटें आई, लेकिन भाजपा भी तमाम गलतियों के बावजूद 25 का आंकड़ा छू गई। यानी सरकार बेशक कांग्रेस ने बना ली हो लेकिन पहले दिन से उस पर परफॉरमेंस प्रेशर है। फिर तारीख आई 11 दिसंबर 2022, जगह थी हिमाचल की राजधानी शिमला का रिज मैदान, सर्दी का मौसम मगर तेज़ धूप और उस धूप में उबाल खाता हज़ारों कांग्रेस कार्यकर्ताओं का उत्साह। अर्से बाद वीरभद्र सिंह की जगह कोई और कांग्रेसी चेहरा सीएम पद की शपथ ले रहा था। जो सुखविंदर सिंह सुक्खू सालों वीरभद्र सिंह के सामने एक किस्म से अपने सियासी रसूख को बचाये रखने की लड़ाई लड़ते रहे थे, वे अब उनके बाद मुख्यमंत्री बन चुके थे। पार्टी के 40 विधायक जीत कर आए थे और इन 40 विधायकों में से सबसे ज्यादा सुक्खू के पक्ष में थे। होली लॉज खेमे के विधायक प्रतिभा सिंह और मुकेश अग्निहोत्री के बीच बंटे हुए थे। ये ही सुक्खू के पक्ष में गया था। राजधानी कांग्रेसमय दिख रही थी, मैदान खचाखच भरा था और नारे लग रहे थे 'प्रदेश का मुख्यमंत्री कैसा हो, सुक्खू भाई जैसा हो। कांग्रेस में ये नए दौर की शुरुआत थी। शपथ ग्रहण मंच पर पूर्व मुख्यमंत्री स्व राजा वीरभद्र सिंह की तस्वीर भी रखी गई थी, उन्हें शपथ से पहले श्रद्धांजलि दी गई और फिर मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री ने शपथ ली। धुआंधार लॉबिंग और मैराथन बैठकों के बाद सुक्खू मुख्यमंत्री तो बन गए थे लेकिन ये ताज काँटों भरा ताज है। सुक्खू सरकार के सामने पहले दिन से न सिर्फ परफॉर्म करने की चुनौती है बल्कि पार्टी के भीतर भी सामंजस्य बैठाना है। एक साल बीत गया है और कई मोर्चों पर सरकार हिट साबित हुई है, तो कई पैमानों पर अब सरकार का असल इम्तिहान होना है। " सुक्खू सरकार एक साल की हो गई है ...सत्ता पक्ष इसे 'सुख की सरकार' कह रहा है तो विरोधी 'दुख की सरकार', कांग्रेस उपलब्धियों की बुकलेट बाँट रही है तो भाजपा नाकामी के पर्चे। ये तो सियासत के रस्म-ओ-रिवाज है जो सत्ता पक्ष को भी निभाने है और विपक्ष को भी। बहरहाल एक साल की सुक्खू सरकार को लेकर भी सबका अपना-अपना विश्लेषण है। सरकार का कामकाज उसकी गारंटियों की कसौटी पर भी आँका जा रहा है, आपदा प्रबंधन पर भी और सरकार की जमीनी पकड़ भी इसका मापदंड है। कहीं शांता कुमार जैसे दिग्गज सरकार की तारीफ कर रहे है, तो कहीं पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष ही सीएम को पत्र लिखकर वादे याद दिला रहे है। इस बीच सुक्खू सरकार जनता के बीच सुछवि गढ़ने के प्रयास में लगी है, तो भाजपा छवि बिगाड़ने का कोई मौका नहीं चूक रही। खेर, बनती बिगड़ती सियासी इक्वेशन अपनी जगह, लेकिन कामकाज की कसौटी पर आंके तो सुक्खू सरकार ने कई ऐसे काम किये है जो अपनी छाप छोड़ गए। पुरानी पेंशन बहाली का वादा भी सरकार ने पूरा किया और सुख आश्रय योजना से सरकार का मानवीय चेहरा भी दिखा। वहीँ आपदा में सुक्खू सरकार के कामकाज पर तो वर्ल्ड बैंक और नीति आयोग ने भी ताली बजाई। हालांकि, सरकार के लिए सब हरा हरा नहीं है, महिलाओं को 1500 रुपये देने की गारंटी भी अभी अधूरी है और सियासी संतुलन बनाने में भी सरकार असफल दिखती है। पुरानी पेंशन के अलावा भी कर्मचारियों के मसले है जो अनसुलझे है। युवा एक साल में ही सड़कों पर उतर आए थे, कोई रिजल्ट मांग रहा है तो कोई नौकरी। प्रयास तो जारी है मगर फिलहाल खाली खजाना सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। सरकार के बड़े काम ... अनाथ बच्चे अब 'चिल्ड्रन ऑफ़ स्टेट' हिमाचल प्रदेश के सभी अनाथ बच्चे अब 'चिल्ड्रन ऑफ स्टेट' है। ये सुक्खू सरकार का वो फैसला है जिसने सबका दिल छुआ। अनाथ बच्चों का पालन पोषण, शिक्षा, आवास, विवाह आदि का खर्चा सरकार ने उठाने का निर्णय लिया है। सुक्खू सरकार की इस मानवीय पहल को चौतरफा तारीफ मिली है। सुख आश्रय योजना निसंदेह सुक्खू सरकार का वो काम है जो सदा याद रखा जायेगा। राज्य में अब तक 4000 अनाथ बच्चों को पात्रता प्रमाण पत्र जारी कर दिए गए हैं, जिससे अब वह मुख्यमंत्री सुखाश्रय योजना का लाभ उठा सकेंगे। इस योजना के तहत 27 वर्ष की आयु तक अनाथ बच्चे की देखभाल का ज़िम्मा राज्य सरकार का है। इसके साथ ही अनाथ बच्चों को क्लोथ अलाउंस व त्यौहार मनाने के लिए भत्ता प्रदान किया जा रहा है। उनकी उच्च शिक्षा, रहने का खर्च, 4000 रुपए पॉकेट मनी राज्य सरकार की ओर से प्रदान की जाएगी। राज्य सरकार अनाथ बच्चों को नामी स्कूलों में दाख़िला दिलाने के लिए भी प्रयास कर रही है। इसके साथ ही उन्हें आत्मनिर्भर बनाने तथा घर बनाने के लिए 3 बिस्वा भूमि तथा 2 लाख रुपए की आर्थिक सहायता प्रदान की जा रही है। पुरानी पेंशन बहाल करके दिखाई वादे के मुताबिक सुक्खू सरकार ने कर्मचारियों को पुरानी पेंशन बहाली का तोहफा दिया है। प्रदेश की ख़राब आर्थिक स्थिति के बावजूद सरकार ने कर्मचारियों से वादा निभाया है। प्रदेश सरकार द्वारा चौथी कैबिनेट की बैठक में ही पुरानी पेंशन बहाली की एसओपी को मंज़ूरी दे दी गई थी और 1 अप्रैल, 2023 से पुरानी पेंशन लागू कर दिया गया । चुनाव से पहले कांग्रेस द्वारा जनता को दी गई गारंटियों में से पुरानी पेंशन बहाली पहली गारंटी थी। प्रदेश की नई सरकार ने कर्मचारियों की पेंशन की सबसे बड़ी टेंशन को खत्म कर दिया। हिमाचल में करीब सवा लाख कर्मचारी इस समय एनपीएस के दायरे में आते थे जिन्हे इसका लाभ मिला । इस फैसले से प्रदेश सरकार पर सालाना करीब 1,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त वित्तीय बोझ बढ़ गया मगर सरकार अपने वादे से पीछे नहीं हटी। अब इसका सियासी लाभ कांग्रेस को होगा या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा लेकिन ये सुक्खू सरकार का बड़ा फैसला है। ग्रीन हिमाचल मुहीम हरित राज्य प्रदेश सरकार ने राज्य को 31 मार्च, 2026 तक हरित ऊर्जा राज्य के रूप में विकसित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रदेश सरकार ने राज्य के प्रत्येक जिले में दो-दो ग्राम पंचायतों को पायलट आधार पर हरित पंचायत के रूप में विकसित करने की रूपरेखा तैयार की है। इन पंचायतों में 500 किलोवाट से एक मेगावाट विद्युत उत्पादन क्षमता की सौर ऊर्जा परियोजनाएं स्थापित की जाएंगी। हिमाचल प्रदेश ऊर्जा क्षेत्र विकास कार्यक्रम के तहत इन परियोजनाओं की स्थापना के लिए 50 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। सुक्खू सरकार ने 100 किलोवाट से लेकर एक मेगावाट तक की सौर ऊर्जा परियोजनाओं की स्थापना पर युवाओं को 40 प्रतिशत सब्सिडी देने की भी घोषणा की है। इन परियोजनाओं से उत्पन्न बिजली की खरीद राज्य विद्युत बोर्ड करेगा। सरकार सार्वजनिक परिवहन को विद्युत परिवहन के रूप में विकसित करने के लिए भी प्रयास कर रही है। इसके लिए इलेक्ट्रिक वाहनों को सरकारी महकमों में भी इस्तेमाल किया जा रहा है और इलेक्ट्रिक टैक्सी की खरीद पर सरकार सब्सिडी भी दे रही है। हिमाचल को ग्रीन राज्य बनाने में सुक्खू सरकार जुटी है, और ये सरकार की बेहतरीन पहल है। दशकों से लंबित इंतकाल के मामलों का निबटारा इंतकाल और तकसीम के दशकों पुराने मामलों को लेकर सुक्खू सरकार एक्शन मोड में है। सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू ने अधिकारियों को 24 जनवरी तक इंतकाल और तकसीम के मामलों को सुलझाने के निर्देश दिए हैं। इससे सालों से लंबित मामलों का निपटारा हो सकेगा। राजस्व लोक अदालतों का आयोजन कर सरकार हाज़ों मामले निबटा चुकी है। अब तक इंतकाल के लम्बित कुल 45 हजार 055 मामलों का निपटारा किया जा चुका है। किलो के हिसाब से सेब, अगले सीजन से यूनिवर्सल कार्टन किलो के हिसाब से सेब बेचने का फैसला हो या अगले सीजन से यूनिवर्सल कार्टन लागू करने का निर्णय, सुक्खू सरकार ने सेब बागवानों के हितों को महफूस रखने की दिशा में इच्छाशक्ति भी दिखाई है और फैसले भी लिए है। बागवानी मंत्री जगत सिंह नेगी हर मसले पर एक्टिव दिखे है और उनकी कार्यशैली की असर साफ दिख रहा है। एचपीएमसी को लेकर भी सरकार ने बड़े बदलाव लाने की दिशा में काम शुरू किया है और उम्मीद है इसके अच्छे नतीजे सामने आएंगे। अब 40 साल तक ही लीज पर जमीन सुक्खू सरकार ने लीज पर जमीन लेने की अवधि को 99 वर्ष से घटाकर अब अधिकतम 40 साल कर दिया है। हालांकि पुरानी लीज की अवधि नहीं बदलेगी। उद्योग लगाने और अन्य विकास परियोजनाओं को स्थापित करने के लिए अब 40 साल के लिए ही लीज पर जमीन का प्रावधान है। सरकार का कहना है कि अब धौलासिद्ध, लुहरी फेज-1 तथा सुन्नी जल विद्युत परियोजनाओं को 40 वर्ष के बाद हिमाचल प्रदेश को वापिस सौंपना होगा। वाईल्ड फ्लावर हॉल होटल को वापिस पाने के लिए राज्य सरकार कानूनी लड़ाई लड़ रही है। शानन प्रोजेक्ट को वापस लेने के लिए भी हिमाचल सरकार एक्शन मोड में दिखी है। आपदा प्रबंधन पर सुक्खू सरकार हिट... एक साल के कार्यकाल में सुक्खू सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी आपदा। आपदा में खुद सीएम सुक्खू दिन रात मैदान में डेट दिखे और हिमाचल सरकार ने बेहतरीन काम किया। वर्ल्ड बैंक और नीति आयोग ने भी सरकार के काम की तरफ की। सुक्खू सरकार 4500 करोड़ का बड़ा आपदा राहत पैकेज लेकर आई और मुआवजे की राशि में भारी वृद्धि कर पीड़ितों को राहत पहुँचाने का काम किया। राजनीति से इतर कई दूसरी विचारधारा के लोगों ने भी सरकार के कामकाज को सराहा। वहीँ केंद्र से मिलने वाली मदद को लेकर भी खूब सियासत हुई। भाजपा कहती है कि केंद्र से भरपूर मदद मिली और सीएम सुक्खू खुलकर कहते है कि अगर मदद मिली है तो भाजपा बताएं। इसमें कोई संशय नहीं है कि केंद्र ने हिमाचल को कोई विशेष आपदा राहत पैकेज नहीं दिया है। वहीँ प्रदेश की आर्थिक स्थीति भी खराब है। बावजूद इसके सुक्खू सरकार ने साहस भी दिखाया और बड़ा दिल भी। बहरहाल, सीमित संसाधनों के बीच सरकार के सामने अब चुनौती बड़ी है और सुक्खू सरकार का असल इम्तिहान अभी बाकी है। बढ़ता कर्ज सबसे बड़ी चुनौती .... हिमाचल प्रदेश पर 78,430 करोड़ रुपए कर्ज है। राज्य सरकार पर डीए और एरियर के रूप में करीब 12 हजार करोड़ रुपए के करीब देनदारियां हैं। यदि इसी रफ्तार से कर्ज लिया जाता रहा तो अगले साल हिमाचल पर कर्ज का बोझ एक लाख करोड़ रुपए को पार कर जाएगा। कर्ज को लेकर सियासत भी खूब हुई है। सुक्खू सरकार विधानसभा में श्वेत पत्र लेकर इसका ठीकरा पूर्व की जयराम सरकार पर फोड़ चुकी है तो भाजपा का कहना है कि सुक्खू सरकार प्रतिमाह एक हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज ले रही है। बहरहाल, प्रदेश की आर्थिक हालत पतली है, केंद्र ऋण लेने की सीमा कम कर चुका है, ओपीएस का बोझ भी सरकार पर अभी पड़ना है और आपदा ने भी कमर तोड़ दी है। ऐसे में सुक्खू सरकार के लिए आने वाला समय बेहद कठिन होने वाला है। राजस्व बढ़ाने के हुए प्रयास, पर इतना काफी नहीं .... इस वर्ष हिमाचल प्रदेश सरकार के राजस्व में 1100 करोड़ रुपये की वृद्धि का अनुमान है। वर्तमान राज्य सरकार ने राजस्व बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए हैं, जिनके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। शराब के ठेकों की नीलामी से राज्य सरकार को 500 करोड़ रुपये का अतिरिक्त राजस्व मिलेगा। इसके अलावा कई छोटे छोटे फैसलों से सरकार को राजस्व बढ़ोतरी हो रही है, हालंकि ये नाकाफी है। फिर भी सरकार के प्रयास जरूर दिखे है। हिमाचल सरकार ने प्रदेश की आर्थिकी को पटरी पर लाने के लिए ऊर्जा उत्पादकों पर वॉटर सेस लगाने का निर्णय लिया था। वॉटर सेस की दर 0.06 से लेकर 0.30 रुपये प्रति घन मीटर तय की गई थी। राज्य जल उपकर आयोग ने सितंबर में कई ऊर्जा उत्पादकों को वाटर सेस के बिल जारी कर दिए थे। बीबीएमबी,एनटीपीसी,एनएचपीसी समेत कई अन्य ऊर्जा उत्पादकों ने प्रदेश सरकार के इस निर्णय को हाई कोर्ट में चुनौती दे रखी है। वहीँ केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय ने 25 अक्टूबर को सभी राज्यों को एक पत्र लिख वॉटर सेस को अवैध व असंवैधानिक बताते हुए इसे शीघ्र बंद करने के निर्देश दिए हैं। सुक्खू सरकार की तरफ से पर्यटन को बढ़ावा देने के कुछ प्रयास भी दिखते है और इच्छाशक्ति भी। हालांकि आपदा ने सरकार को बड़ा झटका जरूर दिया है। अलबत्ता पर्यटन आधारभूत या पॉलिसी सुधार की दिशा में अब तक कोई बड़ी कामयाबी सरकार को नहीं मिली है, लेकिन उम्मीद जरूर जगी है कि जल्द सरकार एक्शन मोड में दिखेगी। एडवेंचर टूरिज्म, धार्मिक पर्यटन की दिशा में सरकार के थोड़े प्रयास दिखे है, लेकिन सरकार से अपेक्षा किसी बड़ी योजना है। माहिर भी मानते है कि पर्यटन की दिशा में कोई बड़ा कदम उठाकर ही सरकार आत्मनिर्भर हिमाचल के लक्ष्य की तरफ बढ़ सकती है। धर्म संकट...खाली खजाना और 1500 देने का अधूरा वादा हिमाचल में कांग्रेस पर गारंटियां पूरी करने का दबाव है। जिन दस गारंटियों के बुते कांग्रेस सत्ता में आई उनमे से एक मुख्य गारंटी थी महिलाओं को हर माह पंद्रह सौ रुपये देना। बढ़ते कर्ज के बीच सुक्खू सरकार कैसे इसे पूरा करती है , इस पर निगाह टिकी है। जाहिर है हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद हिमाचल सरकार पर आधी आबादी से किया गया वादा पूरा करने का दबाव है, लेकिन खराब आर्थिक स्थीति इसमें रोड़ा है। भाजपा इसे जमकर भुना रही है और अब ये 1500 रुपये का वादा बड़ा मुद्दा बन चूका है। लोकसभा चुनाव दस्तक दे रहे है और ये गारंटी कांग्रेस के गले की फांस बन चुकी है। खाली खजाने के बीच सरकार धर्म संकट में है। कई अन्य गारंटियां भी अभी अधूरी है जिनमें 300 यूनिट मुफ्त बिजली और पांच लाख रोजगार प्रमुख है। कैबिनेट में असंतुलन..10 विधायक देने वाले कांगड़ा को एक मंत्री पद ! एक साल में विपक्ष द्वारा सुक्खू सरकार को घेरना इतना चर्चा में नहीं रहा जितनी चर्चा अपनों की नाराजगी की हुई। किसी ने नाराजगी खुलकर जाहिर की तो किसी ने सोशल मीडिया पर चेतावनी दी। बात पार्टी के भीतरी संतुलन की ही नहीं, बात कैबिनेट असन्तुलन की भी हुई। सीएम सहित 9 लोगों की कैबिनेट कई पैमानों पर असंतुलित है। कांगड़ा और मंडी संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक-एक मंत्री है। ज़िलों के हिसाब से बात करें तो सबसे बड़े जिला कांगड़ा से कांग्रेस के दस विधायक है, पर मंत्री सिर्फ एक। जबकि सात विधायक वाले शिमला से तीन मंत्री है। ये असंतुलन सिर्फ सियासी मसला नहीं है, जिस जनता ने कांग्रेस को वोट दिया वो भी अपेक्षा रखती है कि क्षेत्र में कोई मंत्री होगा तो विकास को रफ़्तार मिलेगी। इसी तरह हिमाचल कैबिनेट में अभी 9 में से 6 क्षत्रिय है, जबकि ब्राह्मण, एससी और ओबीसी सिर्फ एक-एक है। पांच साल के लिए सरकार चुनी गई है और एक साल बीत चुका है लेकिन अब तक कैबिनेट पूरी नहीं हुई है। ये ही हाल बोर्ड निगमों का है। अब सरकार का रुख जल्द विस्तार का दिख जरूर रहा है लेकिन इच्छा से ज्यादा शायद मजबूरी है। तीन राज्यों की हार ने कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है और संभवतः अब आलाकमान भी पार्टी के भीतरी संतुलन को सुनिश्चित करे। बहरहाल मुख्यमंत्री का ताजा बयान ये है कि नए मंत्री इसी साल में मिलेंगे। कोर्ट में गया सीपीएस नियुक्ति का मामला सुक्खू सरकार ने ने छह सीपीएस नियुक्त किए थे – अर्की विधानसभा क्षेत्र से संजय अवस्थी, कुल्लू से सुंदर सिंह, दून से राम कुमार, रोहड़ू से मोहन लाल बराकटा, पालमपुर से आशीष बुटेल और बैजनाथ से किशोरी लाल। इनके अलावा मुकेश अग्निहोत्री को उप मुख्यमंत्री बनाया गया है। भाजपा नेताओं ने इनकी नियुक्ति को कोर्ट में चुनौती दे दी है।मामले की सुनवाई जारी है और कोर्ट के फैसले का इंतजार है। इस मामले में अब 20 दिसंबर को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में अगली सुनवाई है। बीजेपी नेता सतपाल सिंह सत्ती और 11 अन्य बीजेपी विधायकों ने अदालत में याचिका दायर कर आरोप लगाया था कि सीपीएस और डिप्टी सीएम का ऐसा कोई पद संविधान के तहत या संसद द्वारा पारित किसी कानून या अधिनियम के तहत मौजूद नहीं है। उन्होंने याचिका में दलील दी कि सीपीएस के पदों पर नियुक्ति राज्य के खजाने पर बोझ है। याचिका के अनुसार, 91वें संशोधन में मंत्री पदों की संख्या सदन की कुल संख्या का 15 प्रतिशत कर दी गई और इस मानदंड के अनुसार राज्य में 12 मंत्री हो सकते हैं क्योंकि विधानसभा की सदस्य संख्या 68 है।आगे आरोप लगाया गया कि 6 सीपीएस की नियुक्तियां संविधान के विपरीत हैं। उन्हें सीपीएस के रूप में नियुक्त किया गया है, जो बिना बुलाए ही वास्तविक मंत्री हैं और मंत्रियों की सभी शक्तियों और सुविधाओं का आनंद लेते हैं। बहरहाल इस मामले में, विशेषकर सीपीएस की नियुक्ति को लेकर कोर्ट का क्या फैसला आता है, इस पर सबकी निगाह टिकी है। शिमला नगर निगम चुनाव जीते ...अब सोलन ने दिया झटका सुक्खू सरकार के एक साल के कार्यकाल में शिमला नगर निगम का चुनाव हुआ जहाँ कांग्रेस को शानदार जीत मिली। इसके बाद हालहीं में चार नगर निगमों में नए मेयर और डिप्टी मेयर चुनने की बारी थी। किस्मत की बदौलत कांग्रेस धर्मशाला नगर निगम में कब्ज़ा करने में कामयाब रही लेकिन सोलन में बहुमत होते हुए भी पार्टी की फजीहत हुई। कांग्रेस के दोनों अधिकृत उम्मीदवार हार गए। यहाँ मेयर पद कांग्रेस की बागी ने कब्जाया तो भाजपा को डिप्टी मेयर का पद मिल गया। वो फैसला जिसपर हुई विपक्ष ने जमकर घेरा सुक्खू सरकार ने आते ही सैकड़ों संस्थानों को डी नोटिफाई कर दिया। संस्थानों की डेनोटिफिकेशन पर भाजपा सरकार को जमकर घेरती रही है। भाजपा का आरोप है कि इस सरकार ने 10 महीने के कार्यकाल में ही हिमाचल के 1000 से अधिक चले हुए संस्थान बंद किए बंद कर दिए थे। कई शिक्षण स्थान भी बंद हुए और निसंदेह इससे कई छात्रों को कई दिक्क्तों कि खबरें भी सामने आई।
** आखिर किसके सर सजेगा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का ताज मध्यप्रदेश में लाडली लहर ऐसी चली की भाजपा ने प्रचंड बहुमत के साथ जोरदार जीत हासिल की। भाजपा को भारी बहुमत मिलने के बाद अब सबकी निगाहें मुख्यमंत्री कि कुर्सी पर टिकी हुई है। मध्यप्रदेश में इस वक़्त सबसे अहम् सवाल ये बना हुआ है कि इस बार मुख्यमंत्री कौन बनेगा ? क्या शिवराज सिंह चौहान को फिर मौका मिलेगा या कोई अन्य चेहरा सीएम की कुर्सी पर विराजमान होगा। सीएम पद के दावेदार अनेक है, लेकिन शिवराज के सामने कोई टिक पाएगा ऐसा मुश्किल लगता है। ये सच है कि इस बार चुनाव में शिवराज की योजनाओं ने मध्यप्रदेश के मतदाताओं पर खूब असर डाला, 'लाड़ली लहर' भी चली शिवराज को जनता का प्यार भी मिला, लेकिन एक सच ये भी है कि पार्टी ने इस बार शिवराज को सीएम प्रोजेक्ट नहीं किया। इस दफा पूरा चुनाव पीएम मोदी के फेस पर ही लड़ा गया है। 'मोदी के मन में एमपी, एमपी के मन में मोदी' ये नारा देकर ही भाजपा ने इस बार चुनाव लड़ा है। इससे ये जाहिर होता है कि अब सीएम फेस के लिए किसके नाम पर मोहर लगेगी ये भी मोदी ही तय करंगे, लेकिन इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि शिवराज सिंह के चुनाव प्रचार और उन्हीं की लाड़ली बहना योजना के कारण आज मध्यप्रदेश में भाजपा को जीत मिली है। लाडली बहाना योजना भाजपा के लिए गेमचेंजर साबित हुई है और इसका पूरा क्रेडिट शिव राज सिंह को जाता है। इस जीत से यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि मध्य प्रदेश में अभी भी सबसे लोकप्रिय नेताओं में शिवराज सिंह ही शामिल है। शिवराज के अलावा सीएम पद के दावेदारों में कई नाम चर्चा में बने हुए है इनमे ज्योतिरादित्य सिंधिया, कैलाश विजयवर्गीय,नरेंद्र सिंह तोमर और प्रह्लाद पटेल का नाम शामिल माना जा रहा है, लेकिन चुनाव के नतीजे देखने के बाद शिवराज कि लोकप्रियता को देखते हुए ऐसा लगता नहीं है कि पार्टी उन्हें सीएम पद से महरूम रखेगी। 15 सालों से प्रदेश में सत्ता पर काबिज शिवराज को एक बार फिर सीएम बनाया जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
न किसी को उम्मीद थी न अंदेशा, और छत्तीसगढ़ में खेला हो गया। नतीजों के लिए गिनती जारी थी, रुझान आने शुरू हुए तो लगा कि इस बार भी कांग्रेस कि सरकार बनेगी और चर्चाएं होने लगी कि क्या सीएम भूपेश बघेल ही रहेंगे ? इस बार मंत्रिमंडल में किन किन नेताओं को जगह मिलेगी ऐसे तमाम सवाल थे जो राजनीतिक गलियारों में घूम रहे थे, लेकिन देखते ही देखते कब वक़्त बदल गया, कब जज्बात बदल गए पता ही नहीं चला। स्कोरबोर्ड पर भाजपा को लीड मिलती देख हर कोई दंग रह गया। 90 सीटों वाले छत्तीसगढ़ में भाजपा का अर्धशतक देख सभी सर्वे फेल हो गए और सभी एग्जिट पोल कि पोल खुल गयी और भाजपा ने छत्तीसगढ़ में खेला कर दिया। चुनाव से पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की लहर थी। तमाम राजनीतिक विश्लेषक सियासी गुणा भाग कर ये आकलन कर बैठे थे कि इस बार छत्तीसगढ़ में बघेल सरकार रिपीट कर रही है। उधर बघेल सरकार भी ओवर कॉंफिडेंट थी। चुनाव बेहद नजदीक आ चुका था कि उसी समय छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक धमाका हुआ। नवंबर में ED ने सनसनीखेज आरोप लगाते हुए कहा कि महादेव बेटिंग एप में एक ई-मेल से खुलासा हुआ है कि महादेव एप के प्रमोटर्स ने छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल को 508 करोड़ रुपये की रिश्वत दी है। ये पैसे कांग्रेस पार्टी को चुनावी खर्चे के लिए दिए जा रहे हैं। हालांकि भूपेश बघेल ने इन सभी आरोपों से इनकार किया और इन्हें राजनीति से प्रेरित बताया, भाजपा ने भी मौके का फायदा उठाया और इस मुद्दे को ऐसा भुनाया कि बघेल सरकार के लिए महादेव एप घोटाला गले कि फांस बन गया। हर रैली हर जनसभा में मोदी ने महादेव का नाम जपा। नतीज़न 3 दिसम्बर को छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के होश उड़ गए। बघेल पाटन को पाटने में तो कामयाब रहे पर अपनी सरकार नहीं बचा पाए। छत्तीसगढ़ में डिप्टी सीएम समेत 9 मंत्रियों को करारी शिस्कत्त मिली। माहिर मान रहे है कि मोदी के नाम पर छत्तीसगढ़ में भाजपा को फायदा मिला है और ओवरकॉन्फिडेन्स ने कांग्रेस का खेल बिगाड़ा है। दूसरा महादेव कि कृपा भी बघेल सरकार पर नहीं बरसी और भाजपा ने बघेल सरकार का काम तमाम कर दिया।
** वसुंधरा ने शुभ मुहूर्त पर ही ली थी मुख्यमंत्री की शपथ राजपूतों की बेटी, जाटों की बहू और गुज्जरों की समधन, हम बात कर रहे है राजस्थान की महारानी वसुंधरा राजे की। वो महारानी जिसने राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री बन कर इतिहास रचा। वसुंधरा दो बार राजस्थान की सीएम बनीं, चार बार विधायक और पांच बार सांसद। राजनीति में मिली हर सफलता पर वसुंधरा पूजा-पाठ ज़रूर करती है और उनके पूजा-पाठ और शुभ मुहूर्त पर काम करने के कई किस्से भी काफी चर्चित हैं। कहा जाता है कि वसुंधरा राजे किसी भी काम से पहले विधिवत पूजा करती हैं और शुभ मुहूर्त पर ही अहम फैसले लेती हैं। पहली बार सीएम बनने के दौरान का एक ऐसा ही किस्सा बेहद चर्चित है। वो किस्सा है वसुंधरा राजे का शपथ समारोह। पहली बार राजभवन के बाहर नवनिर्मित विधानसभा भवन के सामने जनपथ पर राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री को शपथ दिलाई जा रही थी। शपथ दिलाने के लिए पहुंचे राज्यपाल और सीएम के साथ शपथ लेने वाले मनोनीत मंत्री मंच पर खड़े वसुंधरा राजे का इंतजार कर रहे थे, लेकिन वसुंधरा राजे को शपथ ग्रहण से पहले पंडित ने शुभ मुहूर्त दिन में 12:15 का बताया था। राज्यपाल शपथ दिलाने के लिए वसुंधरा की राह देख रहे थे। ठीक 12:15 बजे गले में केसरिया पटका पहने वसुंधरा राजे मंच पर पहुंचीं। ''मैं वसुंधरा राजे ईश्वर की शपथ लेती हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगी...'' वैदिक मंत्रोच्चार, पूजा-अर्चना के साथ शुभ मुहूर्त में मुख्यमंत्री का शपथ समारोह संपन्न हुआ और 8 दिसंबर, 2003 को राजस्थान को पहली महिला मुख्यमंत्री मिली। शपथ ग्रहण के तुरंत बाद सचिवालय में मंत्रिमंडल की बैठक होनी तय मानी जा रही थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्योंकि शुभ मुहूर्त के अनुसार मंत्रिमंडल की बैठक तीसरे पहर में की जानी थी। ऐसा पहली दफा ही हुआ होगा कि शपथ ग्रहण के तुरंत बाद सचिवालय में मंत्रिमंडल की बैठक नहीं हुई थी। आमतौर पर शपथ ग्रहण के बाद मंत्रिमंडल की बैठक होती है, लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ था। दूसरा बैठक से पहले सीएम की कुर्सी की पूजा की गई और फिर उस पर मुहूर्त के अनुसार वसुंधरा राजे बैठीं। कहते हैं कि वसुंधरा राजे जब भी झालावाड़ आती है तो यहाँ के प्रसिद्ध मंदिर परिसर में पहुंचकर बालाजी के दर्शन व् पूजा अर्चना करती है। यहां तक कि वसुंधरा राजे अपने चुनावी अभियान की शुरुआत भी मंदिर के पूजा अर्चना के बाद ही करती है। नामांकन भरने से पहले बालाजी के मंदिर पर पूजा अर्चना कर आशीर्वाद लेती है और यहां पर अखंड ज्योत जलती है जो अनवरत जलती रहती है।
बात 1985 की है, मध्यप्रदेश में चुनाव चल रहे थे। उस समय भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर के कारण मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता वापसी की। 320 विधानसभा सीटों में से 250 सीटों पर कांग्रेस विजयी रही। 1980 से 1985 अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे और ये चुनाव भी उन्ही के नेतृत्व में लड़ा गया था। अब सत्ता बरकरार रखने के बाद लाज़मी था कि अर्जुन सिंह फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठेंगे। औपचारिकता पूरी करने के लिए कांग्रेस विधानमंडल दल की बैठक अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री चुनने के लिए बुलाई गई। 11 मार्च 1985 को अर्जुन सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन अगले दिन ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। दरअसल, मुख्यमंत्री बनने के अगले दिन ही अर्जुन सिंह को पंजाब का राजयपाल नियुक्त कर दिया गया था। सवाल उठने लगे कि अगर राज्यपाल ही बनाना था तो अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री चुना ही क्यों गया? खुद अर्जुन सिंह भी इस फैसले से दंग थे और नाखुश भी और हो भी क्यों न, एक दिन के लिए मुख्यमंत्री पद मिलना और अगले दिन ही छीन जाना। ये अपने आप में आश्चर्यचकित कर देने वाली बात थी।सियासी गलियारों में चर्चाएं होने लगी कि आखिर इस घटनाक्रम की क्या वजह रही होगी। माहिरों का मानना था कि अर्जुन सिंह कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति का शिकार हो गए। लगातार दूसरी बार सीएम बनने से उनका बढ़ा राजनीतिक कद कांग्रेस के इनर सर्किल में पसंद नहीं था। उधर अर्जुन सिंह के पंजाब जाने के बाद मध्यप्रदेश कि सत्ता के सरदार बने मोतीलाल वोरा। अर्जुन सिंह के बाद मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। मोतीलाल सरकार के तीन साल का समय पूरा होने चला था, उधर अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश में वापसी को बेताब थे। अर्जुन सिंह का इंतज़ार खत्म हुआ और वे मध्यप्रदेश लौटने में कामयाब रहे। तब कांग्रेस लीडरशिप ने मोतीलाल वोरा को केंद्र बुला लिया और 14 फरवरी 1988 को अर्जुन सिंह एक बार फिर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। अर्जुन सिंह और मुख्यमंत्री की कुर्सी का नाता ज़्यादा समय नहीं टिक पाया और ये कार्यकाल एक साल भी नहीं चला। एक चर्चित घोटाले में नाम आने के बाद अर्जुन सिंह को फिर इस्तीफा देना पड़ गया। मुख्यमंत्री की कुर्सी फिर खाली हो गई और मोतीलाल वोरा को एक बार फिर सीएम बनाया गया। कांग्रेस की उठापटक इस हद तक बढ़ी कि अगले चुनाव से पहले मोतीलाल वोरा को फिर हटाना पड़ा और उनकी जगह श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने। इस तरह मध्य प्रदेश की आठवीं विधानसभा में पांच साल में पांच मुख्यमंत्री बने थे।
नड्डा के हमीरपुर से चुनाव लड़ने की अटकलों पर भी फिलहाल विराम कांग्रेस के सामने चेहरे की चुनौती, सीएम-डिप्टी सीएम की साख होगी दांव पर तमाम सियासी रागों पर विराम लगाते हुए अनुराग ठाकुर ने ऐलान कर दिया है कि वो हमीरपुर लोकसभा क्षेत्र से ही चुनाव लड़ेंगे। हालांकि राजनीति में कभी भी कुछ भी संभव है, लेकिन फिलहाल अनुराग के इस बयान से उन तमाम कयासों पर विराम लग गया जिनमें उनके किसी और क्षेत्र से चुनाव लड़ने की सम्भावना जताई जा रही थी। अनुराग ठाकुर ने साफ कर दिया कि "हमीरपुर लोकसभा से मुझे अपार प्यार मिला है, 2024 में चुनाव यहीं से लडूंगा "। अनुराग के इस ऐलान के बाद कांग्रेस को भी यहाँ अपनी कमर कस लेनी चाहिए। दरअसल हमीरपुर संसदीय क्षेत्र वो संसदीय क्षेत्र है कांग्रेस अर्से से जीत के लिए तरस रही है। 1998 से पार्टी पिछले दो उपचुनाव और 6 आम चुनाव हार चुकी है। इस संसदीय क्षेत्र की जनता लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को पिछले 25 सालों से नकारती आ रही है। ऐसे में पार्टी की राह यहाँ कठिन है। अगर अनुराग की जगह कोई और चेहरा मैदान में होता है तो शायद कांग्रेस को ज्यादा आस दिखे, पर सामना अनुराग से होगा तो चुनौती भी बड़ी होगी। हालाँकि इस बार इस क्षेत्र से कांग्रेस की उम्मीदें भी कम नहीं है। दरअसल हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री यानि सरकार के मुखिया और उपमुखिया दोनों इसी संसदीय क्षेत्र से है। ऐसे में पार्टी को उम्मीद ज़रूर होगी की शायद इस बार इन दोनों का तिलिस्म चुनाव के नतीजों को पलट कर रख देगा। यानी कांग्रेस के दो दिग्गजों की साख यहाँ दांव पर होगी और दोनों कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेंगे। दूसरा, विधानसभा चुनाव में भी इस संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस ने अच्छा किया है जिससे कार्यकर्ताओं का हौंसला भी बढ़ा हुआ है। पर चुनावी रणभूमि में भाजपा के इस अभेद किले को भेदने वाला चेहरा कौन होगा, ये अब तक स्पष्ट नहीं है। पेंच भी दरअसल यहीं अटका है। कहा जा रहा है कि जिस चेहरे पर निगाह टिकी है, उसकी निगाह तो मंत्री पद पर टिकी है। उधर भाजपा में भी दिग्गजों की सांख दांव पर है। लगातार चार चुनाव जीत चुके केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर खुद भी एक बड़ा नाम है, तो उनके पिता और पूर्व सीएम प्रो प्रेमकुमार धूमल भी इसी सीट से सांसद रह चुके है। ख़ास बात ये है कि ये भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा का भी गृह क्षेत्र है, जो राज्यसभा सांसद भी है। वहीं भाजपा के एक और राज्यसभा सांसद सिकंदर कुमार भी इसी क्षेत्र से आते है। बहरहाल अब अनुराग के ब्यान के बाद स्पष्ट हो गया है कि अगर कोई बड़ा सियासी फेरबदल न हुआ तो एक बार फिर इस संसदीय क्षेत्र से मैदान में होंगे। आपको बता दें कि अटकलें लगती रही है कि 2024 में जगत प्रकाश नड्डा हमीरपुर से चुनाव लड़ सकते है, जबकि अनुराग ठाकुर को कांगड़ा या चंडीगढ़ सीट से उतारा जा सकता है। पर अब अनुराग ने स्पष्ट कर दिया है कि वे हमीरपुर में ही बने रहेंगे।
केंद्र को लेकर न प्रो इंकम्बेंसी और न ज्यादा नाराजगी पीएम मोदी के चेहरे पर भाजपा को मिली थी एकतरफा जीत सही टिकट आवंटन होगा निर्णायक फैक्टर उम्मीदवार कोई भी रहा हो लेकिन चेहरा तो मोदी ही थे। पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन का सार ये ही हैं। देश के अधिकांश हिस्सों की तरह ही हिमाचल की चार लोकसभा सीटों पर भी भाजपा को पीएम मोदी के चेहरे पर एकतरफा जीत मिली। 2019 में तो हवा ऐसी चली कि कांग्रेस ने भी रिकॉर्ड बना दिए, हार के अंतर के रिकॉर्ड। जब राहुल गाँधी पूर्वजों की सीट अमेठी नहीं बचा पाएं तो हिमाचल में कांग्रेस के नेता भला क्या और कितना ही कर लेते। विधानसभा हलकों के लिहाज से देखे तो सभी 68 क्षेत्रों में कांग्रेस पिछड़ी। उस रामपुर में भी जहाँ विधानसभा चुनाव में कभी कमल नहीं खिला। बहरहाल पांच साल होने को आएं और फिर अब नेताओं को जनता के दरबार में हाजिरी लगानी हैं। अलबत्ता अभी चुनाव में चंद महीने शेष हैं लेकिन फिलवक्त जमीनी स्तर पर वैसी प्रो इंकमबैंसी नहीं दिख रही जैसी 2019 में थी। सियासी फिजा में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया तो सम्भवतः इस दफा जनता सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी का नहीं बल्कि उम्मीदवार का चेहरा भी देखेगी। यानी हिमाचल में मुकाबला खुला हैं। हिमाचल प्रदेश में 2019 से अब तक बहुत कुछ बदल गया हैं। जयराम पूर्व हो चुके हैं और सुक्खू वर्तमान हैं। 2021 में हुए उपचुनावों से भाजपा लगातार हारती आ रही हैं तो कांग्रेस के लिए सब बेहतर घटा हैं। बावजूद इसके जब मुकाबला लोकसभा का होगा तो भाजपा जरा भी उन्नीस नहीं हैं। लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जायेगा, प्रदेश में दोनों दलों की स्थिति कुछ असर तो डालेगी लेकिन नतीजे पूरी तरह प्रभावित नहीं कर सकती। पर केंद्र सरकार को लेकर भी न तो इस मर्तबा प्रो इंकम्बैंसी दिख रही हैं और न ही ज्यादा नाराजगी, ऐसे में दोनों ही दलों के लिए उम्मीदवारों का चयन बेहद महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। मंडी संसदीय सीट भाजपा ने 2021 के उपचुनाव में गवां दी थी, लेकिन अन्य तीन सीटों पर भाजपा के सांसद हैं। हमीरपुर सांसद अनुराग ठाकुर केंद्र सरकार में मंत्री हैं और खुद सियासत में एक बड़ा नाम हैं। ऐसे में संभव हैं यहाँ भाजपा कोई छेड़छाड़ न करें। हालांकि अनुराग प्रदेश के बाहर भी लोकप्रिय हैं और यदि उन्हें भाजपा कहीं और से उतारती हैं तो हमीरपुर से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा संभवतः दूसरा मुफीद विकल्प हैं। इसी संसदीय क्षेत्र से सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू और डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री भी आते हैं तो स्वाभविक हैं यहाँ भाजपा कोई रिस्क नहीं लेना चाहेगी। वहीं शिमला और कांगड़ा में जाहिर हैं भाजपा सियासी परफॉरमेंस का बही-खाता देखकर टिकट पर निर्णय लें। दोनों सांसदों, किशन कपूर और सुरेश कश्यप के टिकट कटते हैं या नहीं, ये पार्टी के आंतरिक सर्वे पर भी निर्भर करेगा। आपको बता दें की इन तीनों संसदीय क्षेत्रों में भाजपा को विधानसभा चुनाव में झटका लगा था और पार्टी की सबसे ज्यादा पतली हालत शिमला संसदीय क्षेत्र में हुई थी जहाँ के सांसद सुरेश कश्यप तब प्रदेश अध्यक्ष भी थे। बहरहाल किशन कपूर और सुरेश कश्यप दोनों लगातार जनता के बीच जरूर दिख रहे हैं, पर टिकट पर फैसला लेने से पहले जाहिर हैं पार्टी सियासी गणित के हर समीकरण पर हिसाब लगाएगी। वहीं मंडी में पूर्व सीएम जयराम ठाकुर इस वक्त निर्विवाद तौर पर सबसे वजनदार चेहरा हैं। पर यदि जयराम को पार्टी प्रदेश से दिल्ली नहीं बुलाती हैं तो यहाँ चेहरे का चुनाव टेढ़ी खीर होगा। यहाँ से संभवतः पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह फिर मैदान में होगी और ऐसे में भाजपा प्रत्याशी का चयन काफी महत्वपूर्ण होने वाला हैं। कांग्रेस के सामने दोगुनी चुनौती ! कांग्रेस की बात करें तो यहाँ चुनौती दोगुनी हैं। पीएम मोदी के सामने पार्टी चेहरा कौन होगा, ये ही अभी तय नहीं हैं। पार्टी राहुल गाँधी को खुलकर प्रोजेक्ट करेगी, इसकी सम्भावना कम ही लगती हैं। ऐसे में भाजपा के पास एक स्वाभाविक एडवांटेज होगा। इस स्थिति में दमदार प्रत्याशी देना कांग्रेस के सामने इकलौता विकल्प हैं। मंडी में पार्टी के पास प्रतिभा सिंह के रूप में चेहरा है, लेकिन अन्य तीन संसदीय क्षेत्रों में चेहरे पर अब भी पेंच फंसा हैं। कहीं मंत्री को चुनाव लड़वाने की तैयारी बताई जा रही हैं, तो कहीं मंत्री पद के चाहवान को। कोई तैयार हैं, तो कोई तैयार ही नहीं। कांग्रेस के लिए जरूरी हैं कि स्थिति जल्द स्पष्ट हो ताकि संभावित प्रत्याशियों को फील्ड में अधिक समय मिले। पार्टी के पास जरा सी चूक की भी गुंजाईश नहीं हैं।
अधूरी गारंटियों पर विपक्ष सवाल भी कर रहा हैं और बवाल भी जल्द कुछ और गारंटियां पूरी कर सकती हैं सरकार सबसे बड़ी चुनौती हैं महिलाओं को 1500 रुपये देना हिमाचल के 'ट्राइड एंड टेस्टेड' गारंटी मॉडल पर अन्य राज्यों में लड़ रही कांग्रेस 'तुझ को देखा तेरे वादे देखे, ऊँची दीवार के लम्बे साए'...सियासत में सत्ता के लिए बड़े - बड़े वादे कर देना पुराना रिवाज रहा है। सत्ता के लिए राजनैतिक दल तरह-तरह के वादे करते आएं है। रोटी-कपड़ा-मकान से लेकर पंद्रह लाख तक के वादे। वक्त बदला और जनता जागरूक होती रही, तो सियासी दलों ने भी वादों का तौर तरीका बदल दिया। यानी सामान तक़रीबन वो ही पुराना लेकिन पैकिंग नई। हाल-फिलहाल के दिनों में कांग्रेस ने भी अपने चुनावी वादों को 'गारंटी' का नाम दे दिया है। इसकी शुरुआत हुई थी पिछले साल हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव से और आज कांग्रेस प्रदेश की सत्ता पर काबिज हैं। फिर कर्नाटक चुनाव में भी जनता ने कांग्रेस की गारंटियों पर एतबार किया और अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस अपने इसी 'ट्राइड एंड टेस्टेड' गारंटी मॉडल पर मैदान में हैं। ये तो बात हुई कांग्रेस के नए चुनावी अस्त्र की, पर गारंटी देना अलग बात हैं और उसे पूरी करना अलग बात। हिमाचल प्रदेश में सरकार की अधूरी गारंटियों पर विपक्ष सवाल भी कर रहा हैं और बवाल भी। जाहिर हैं कुछ सवाल जनता के मन में भी हैं, तो सरकार ने भी पुरानी पेंशन बहाल कर अपनी मंशा जरूर दर्शाई हैं। हालांकि सरकार के अनुसार तो तीन गारंटियां पूरी हो चुकी है। सुक्खू सरकार का साल होने को हैं। सरकार अपनी उपलब्धियों का बखान कर रही है, तो इस सियासी मौके और दस्तूर के मद्देनजर विपक्ष उन गारंटियों का लेखा-जोखा मांग रहा हैं जिनके बुते कांग्रेस सत्ता में लौटी। एक साल बीत चुका हैं तो अब सवालों का स्वर बुलंद होना लाजमी हैं। भाजपा महिलाओं के खाते में 1500 रुपये से लेकर, 300 यूनिट मुफ्त बिजली, दूध और गोबर की खरीद सहित उन गारंटियों पर सरकार को घेर रही हैं, जो अधूरी हैं। उधर, सरकार पुरानी पेंशन बहाल कर चुकी हैं, साथ ही दावा कर रही है कि तीन गारंटियां पूरी हो चुकी है। 680 करोड़ रुपये की राजीव गांधी स्वरोजगार स्टार्ट-अप योजना को शुरू करना दूसरी और अगले शैक्षणिक सत्र से पहली कक्षा से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल आरम्भ करना तीसरी गारंटी है। अब क्या पूरा और क्या अधूरा, इसे राजनैतिक दल अपनी सहूलियत से तय कर रहे है। बहरहाल, चंद महीने में लोकसभा चुनाव होने हैं और वहां जवाब विपक्ष नहीं, बल्कि जनता मांगेगी। ये ही कारण हैं कि सरकार एक्शन मोड में दिखने लगी हैं और मुमकिन हैं जल्द कुछ और गारंटियां पूरी कर दी जाएँ। बताया जा रहा हैं कि जल्द हिमाचल सरकार किसानों से गोबर खरीद करने की तैयारी में है। कृषि मंत्री चंद्र कुमार ने विभाग के अधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि वे गोबर खरीद से पहले ब्लॉक स्तर पर क्लस्टर तैयार करें, जिसके बाद विभाग संबंधित ब्लॉक से किसानों से गोबर खरीदना शुरू करेगा। इसके अलावा मोबाइल क्लिनिक और पशु पालकों से हर दिन दस लीटर दूध खरीद की गारंटी को भी जल्द पूरा किया जा सकता हैं। जाहिर हैं कांग्रेस भी लोकसभा चुनाव से पहले पूरी हुई गारंटियों की संख्या बढ़ाना चाहेगी। इन 3 गारंटियों ने बनाई थी कांग्रेस की हवा ! बहरहाल आपको याद दिलाते कांग्रेस की दस गारंटियों में से वो तीन गारंटियां जिसने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में माहौल बना दिया था। पहली गारंटी ओपीएस हिमाचल के कर्मचारियों से जुड़ी थी जिसे पार्टी ने पूरा भी कर दिया। दूसरी गारंटी थी मुफ्त बिजली की यूनिट्स बढ़ाकर प्रतिमाह 300 करना। इससे प्रदेश का हर व्यक्ति प्रभावित होता हैं और ये गारंटी अब भी अधूरी हैं। अब सर्दी के दिनों में बिजली की खपत और बिल दोनों बढ़ेंगे, और आम लोगों को ये गारंटी जरूर याद आएगी। वहीँ आधी आबादी यानी महिलाओं को 1500 रुपये प्रतिमाह देने की गारंटी भी अधूरी हैं। माना जाता हैं कि महिलाओं ने कांग्रेस को बढ़चढ़ कर वोट दिया था ,लेकिन अब तक 1500 रुपये नहीं मिले। अब नाराजगी की झलक दिखने लगी हैं और इसे भांपते हुए भाजपा भी इसी पर कांग्रेस को ज्यादा घेर रही हैं। प्रदेश की खराब आर्थिक स्थिति में सरकार इसे कैसे पूरा करती हैं, इस पर सबकी निगाहें टिकी हैं। ऐसे में इसे पूरा करना कांग्रेस के लिए गले की फांस हैं। लोस चुनाव में बड़ा फैक्टर : हिमाचल प्रदेश की चारों लोकसभा सीटों पर 2014 और 2019 में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हुआ था। 2019 में तो हार का अंतर इतना रहा कि रिकॉर्ड बन गए। पर 2021 के उपचुनावों से प्रदेश में कांग्रेस के लिए सब कुछ अच्छा घटा हैं। ऐसे में कांग्रेस को अब 2024 में सम्भावना दिखना स्वाभाविक हैं। लाजमी हैं ऐसे में पार्टी कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेगी और अधिक से अधिक गारंटियां पूरी कर चुनाव में उतरने की कोशिश में होगी। ज्यादा अधूरी गारंटियां पार्टी की सम्भावनों पर भारी पड़ सकती हैं।
कैबिनेट में रिक्त स्थान कहीं कांग्रेस की संभावनाओं को रिक्त न कर दे ! अब सियासी माहिरों के भी गले नहीं उतर रही 'वेट एंड वॉच' की नीति सुक्खू कैबिनेट में क्षेत्रीय और जातीय असंतुलन ! अब सोचने की नहीं, बल्कि कुछ करने की जरुरत ! इसी ख्याल में हर शाम-ए-इंतज़ार कटी वो आ रहे हैं वो आए वो आए जाते हैं न आलाकमान का फरमान आया और न राजभवन से संदेश। सरकार गठन को एक साल होने को आया पर सुक्खू कैबिनेट में एंट्री की राह देख रहे कई चाहवानों का इन्तजार अब भी जारी है। आस टूटती नहीं और बात बनती नहीं। असंतोष को खारिज नहीं किया जा सकता, पर कैबिनेट विस्तार तय होकर भी तय नहीं। थोड़ा सा असंतोष जाहिर हो रहा है, तो बहुत घुट रहा है। पब्लिक मीटर पर सरकार की रेटिंग 'अप' सही लेकिन पॉलिटिकल मीटर पर मामला फंसा है। अब तो राजनैतिक माहिरों की कयासबाजी पर भी लगभग विराम लग चुका है। 'सुख की सरकार' में मंत्री पद किसको मिलेगा, इससे भी बड़ा सवाल ये है कि आखिर कब मिलेगा। सुक्खू कैबिनेट में रिक्त स्थान कहीं कांग्रेस की संभावनाओं को भी रिक्त न कर दे, ये डर अब कांग्रेस के चाहवानों को भी सताने लगा है। लोकसभा चुनाव का माहौल आहिस्ता-आहिस्ता बन रहा है और कैबिनेट में क्षेत्रीय और जातीय असंतुलन पर लगातार सवाल उठ रहे है। अब सरकार को एक साल भी होने को आया, लेकिन सुक्खू कैबिनेट में तीन पद अब भी रिक्त है। ये 'फिल इन दी ब्लैंक्स' का सियासी सवाल अब भी अनसुलझा है और जल्द माकूल जवाब न मिला तो बवाल भी तय मानिये। सीएम सुक्खू सहित कई मंत्रियों के पास अतिरिक्त कार्यभार है, इसमें कोई दो राय नहीं है। इस पर सीएम का स्वास्थ्य भी नासाज है। फिर आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी है कि कैबिनेट विस्तार टलता रहा है। आखिर कब तक खाली रहेंगे ये पद और इस विलम्ब से कांग्रेस को हासिल क्या हो रहा है, ये सवाल बना हुआ है। अब तक कांगड़ा के खाते में एक मंत्री पद है, मंडी संसदीय क्षेत्र से भी सिर्फ एक मंत्री है, सीएम-डिप्टी सीएम के संसदीय क्षेत्र हमीरपुर में भी कई नेता टकटकी लगाए बैठे है। यहाँ 25 साल से कांग्रेस लोकसभा चुनाव हार रही है। पद और कद के मामले में शिमला जरूर संतुष्ट भी दिखता है और संपन्न भी, पर बाकी तीन संसदीय क्षेत्रों में पार्टी को अब सोचने की नहीं, बल्कि कुछ करने की जरुरत है। अब सोचने का वक्त सम्भवतः जा चुका है। तीन मंत्री पदों के अलावा विधानसभा उपाध्यक्ष सहित कई अहम बोर्ड निगमों के पद भी अभी खाली है। 'वेट एंड वॉच' की पार्टी की नीति अब सियासी माहिरों के गले नहीं उतर रही। खीच-खीच की आवाज आने लगी है और अब मीठी गोली से नहीं बल्कि मुकम्मल दवा से ही काम चलेगा। अब तक कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक मंत्री पद दिया गया है। यहाँ सुधीर शर्मा और यादविंदर गोमा सहित कई दावेदार है। कांगड़ा जब भी बिगड़ा है इसने सियासतगारों के अरमानों का कबाड़ ही किया है, फिर भी कांग्रेस यहाँ जल्दबाजी में नहीं दिखी। मंडी संसदीय क्षेत्र का भी कमोबेश ये ही हाल है। यहाँ से जगत सिंह नेगी ही इकलौते मंत्री है। यहाँ कांग्रेस के गिने चुने विधायक है, लेकिन बोर्ड - निगमों में तो समय पर तैनाती दी ही जा सकती है। विशेषकर जिला मंडी में कांग्रेस 6 साल से लगातार हारी है। 2017 में स्कोरकार्ड 10 -0 था, तो 2022 में कांग्रेस को मिली महज एक सीट। बावजूद इसके यहाँ पार्टी में कोई बड़ा जमीनी बदलाव नहीं दिखता। पार्टी का कोई बड़ा चेहरा सरकार में किसी अहम पद पर नहीं है। वहीँ हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से बेशक सीएम और डिप्टी सीएम दोनों आते है, पर यहाँ चुनौती भी बड़ी है। ये भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का क्षेत्र है, ये केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का भी क्षेत्र है और ये प्रो प्रेम कुमार धूमल का भी क्षेत्र है। साथ ही वर्तमान में यहाँ से भाजपा के तीन सांसद है। इस पर लगातार आठ चुनाव में कांग्रेस यहाँ से हार चुकी है। ऐसे में जाहिर है यहाँ कांग्रेस को अतिरिक्त प्रयास करना होगा। माना जा रहा है कि कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ तो घुमारवीं को मंत्री पद मिलना तय है, पर फिर विलम्ब क्यों ? जो अधिमान पांच साल के लिए मिल सकता था वो चार के लिए मिले तो इसमें कांग्रेस को क्या हासिल होगा ? क्या कांग्रेस में अंदरूनी राजनीति हावी है, बहरहाल ये यक्ष प्रश्न है। सिर्फ क्षेत्रीय लिहाज से ही नहीं सुक्खू कैबिनेट में जातीय पैमाने से भी असंतुलन दिखता है। देश में जातिगत जनगणना की पैरवी कर रही कांग्रेस के सामने ये वो गूगली है जिस पर पार्टी खुद हिट विकेट न हो जाएँ। फिलहाल प्रदेश में सीएम सहित कुल 9 मंत्री है जिनमें से 6 राजपूत है, सिर्फ एक ब्राह्मण, एक एससी और एक ओबीसी है। लोकसभा चुनाव में पार्टी को इस पर भी जवाब देना होगा। स्वाभाविक है भाजपा इस लिहाज से सियासी मोर्चाबंदी कर कांग्रेस को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाली। बहरहाल पार्टी आलाकमान पांच राज्यों के चुनाव में व्यस्त है और इस बीच कैबिनेट विस्तार थोड़ा मुश्किल जरूर लगता है। हालांकि माहिर मान रहे है कि सीएम सुक्खू, सरकार की पहली वर्षगांठ पूरी कैबिनेट के साथ मना सकते है। ऐसे में थोड़ा इन्तजार और सही। तरकश से निकलने को तैयार असंतोष के बाण ! कांग्रेस के भीतर से असंतोष से स्वर फूटते रहे है। पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह खुद भी बोर्ड निगमों में तैनाती में हो रहे विलम्ब पर बोलती रही है। पूर्व पीसीसी चीफ कुलदीप राठौर कार्यकर्ताओं के मान -सम्मान की बात कह सवाल उठाते रहे है, तो कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष राजेंद्र राणा कभी 'कृष्ण की चेतावनी' की पंक्तियां सोशल मीडिया पर डालते है, तो कभी सीएम को पत्र लिख अधूरे वादे याद दिलाते है। असंतुष्टों की फेहरिस्त लंबी है। हालांकि पहले आपदा के चलते शायद कई नेताओं ने असंतोष पूर्ण शब्द बाणों को तरकश में रखा और फिर संभवतः सीएम के खराब स्वास्थ्य ने इन्हें थामे रखा। पर माहिर मानते हैं कि सरकार का एक साल इन सन्तुष्टों के लिए मौका भी लाएगा और दस्तूर भी। बहरहाल माहिर ये भी तय मान रहे है कि जल्द या तो कैबिनेट विस्तार होगा या असंतोष प्रखर।
**क्या मेयर पद पर सहमति बना पायेगा कांग्रेस आलाकमान ? **कांग्रेस की रार में, भाजपा मौके की तलाश में ! **संतुलन बनाने के लिए एक गुट से मेयर तो दूसरे से डिप्टी मेयर सम्भव किसी को 'सरदार' के तौर पर 'सरदार' मंजूर नहीं, तो कोई सरदार पर ही अड़ा है। ये ही सोलन नगर निगम में कांग्रेस की सियासत का मौजूदा हाल है। दो गुटों में बंटे पार्षद आमने सामने है और इनको एक पाले में लाना आलाकमान के लिए पापड़ बेलने से कम नहीं। सरदार सिंह को मेयर बनाने का जो वादा 2021 में नगर निगम चुनाव नतीजों के बाद हुआ था वो पूरा होगा, या पार्टी मेयर -डिप्टी मेयर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ेगा, ये सवाल बना हुआ है। कांग्रेस के पास कुल नौ पार्षद है और नगर निगम पर कब्ज़ा बरकरार रखने के लिए इतने ही उसे चाहिए, न एक कम न एक ज्यादा। पर ये होगा कैसे, यहीं पेंच अटका है। पार्टी के बड़े नेताओं को क्रॉस वोटिंग का डर खाये जा रहा है और भाजपा मौके की तलाश में है। 17 वार्डों वाली सोलन नगर निगम में 9 पार्षद कांग्रेस के है, 7 भाजपा के और एक निर्दलीय। 2021 में चुनाव के बाद कांग्रेस के मेयर और डिप्टी मेयर बने थे। कहते है तब ढाई साल के लिए पूनम ग्रोवर मेयर बनी तो अगले ढाई साल का वादा सरदार सिंह से हुआ। वहीँ डिप्टी मेयर पद के लिए चार लोगों में 15 -15 महीने का कार्यकाल बांटने की बात हुई। पहला नंबर राजीव कोड़ा का था और अब तक पुरे ढाई साल वो ही डिप्टी मेयर रहे। कहते है इसी बात को लेकर कुछ पार्षदों में नाराजगी थी। ऐसे ही चार पार्षद 2022 विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा पार्षदों के साथ मिलकर अविश्वास प्रस्ताव ले आएं। इनमे सरदार सिंह, ईशा, संगीता और पूजा शामिल है। तब कांग्रेस के इन चार और भाजपा के पार्षदों के बीच तय हुआ था कि पूजा मेयर बनेगी और भाजपा के कुलभूषण गुप्ता डिप्टी मेयर। पर तकीनीकी कारणों से इनका अविश्वास प्रस्ताव गिर गया और सारे अरमान धरे रह गए। इसके बाद पूनम ग्रोवर और राजीव कोड़ा अपने पदों पर बने रहे। पर कांग्रेस के पार्षदों के बीच की तल्खियों की झलक अक्सर जनरल हाउस में दिखती रही। अब अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले उन्हीं चार में से एक पार्षद सरदार सिंह मेयर पद के दावेदार है। अविश्वास प्रस्ताव में शामिल होने के चलते लाजमी है उनके नाम पर कुछ लोगों को अप्पत्ति हो। वहीँ वार्ड 12 पार्षद उषा शर्मा का नाम भी चर्चा में है। बहरहाल आलाकमान के सामने सभी नौ पार्षदों को एक नाम पर राजी करने की चुनौती है। माना जा रहा है कि संतुलन सुनिश्चित करने के लिए मेयर और डिप्टी मेयर अलग अलग गुट से हो सकते है। सियासत में जो दीखता है, जरूरी नहीं वैसा ही हो। 9 पार्षद होने के बाद भी मेयर डिप्टी मेयर कांग्रेस के हो, ऐसा जरूरी नहीं है। हालांकि कांग्रेस की ही तरह भाजपा भी दो गुटो में बंटी हुई है, लेकिन निर्दलीय को जोड़ लिया जाएँ तो कांग्रेस से संख्या में सिर्फ एक कम है। अगर भाजपा ने कैंडिडेट दिया तो कुलभूषण गुप्ता पार्टी उम्मीदवार हो सकते है। 6 बार की पार्षद मीरा आनंद भी रेस में है। पर क्रॉस वोटिंग की सम्भावना तो यहाँ भी है। हालांकि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल सोलन नगर परिषद् के अध्यक्ष रह चुके है और यहाँ की हर सियासी नब्ज से वाकिफ भी। ऐसे में बिंदल के रहते भीतरखाते बहुत कुछ पक सकता है। बहरहाल कांग्रेस के नौ पार्षद क्या किसी एक नाम पर साथ आएंगे या नहीं, इसी पर निगाह टिकी है।
**कब मिलेंगे चार नगर निगमों को मेयर और डिप्टी मेयर ? **भाजपा का आरोप, जानबूझकर विलम्ब कर रही सरकार **क्या सोलन की वजह से बाकी चुनावों में भी हो रहा विलम्ब ? एक माह से ज्यादा वक्त बीत गया पर प्रदेश के चार नगर निगमों को मेयर और डिप्टी मेयर नहीं मिल पाए है। नगर निगम मंडी, पालमपुर, सोलन और धर्मशाला में न मेयर है और न डिप्टी मेयर। जाहिर है इससे कार्य प्रभावित हो रहे है। उधर भाजपा इसे लेकर सरकार पर हमलावर है। अभी तक चुनाव की नोटिफिकेशन नहीं आई है और ऐसे में अब सरकार की देरी पर सवाल उठना तो लाजमी है। आखिर क्यों हो रहा है ये विलम्ब, इसे लेकर कयासबाजी जारी है। आपको बता दें कि नगर निगम पालमपुर और सोलन में जहाँ कांग्रेस का कब्ज़ा है तो वहीँ मंडी और धर्मशाला में भाजपा के पास संखयाबल है। यूँ तो ये चुनाव पार्टी सिंबल पर हुए थे पर हिमाचल प्रदेश के स्थानीय निकायों में एंटी डिफेक्शन कानून लागू नहीं होता, ऐसे में क्रॉस वोटिंग से इंकार नहीं किया जा सकता। पेंच दरअसल यहीं फंसा है। माना जा रहा है कि मंडी में भाजपा और पालमपुर में कांग्रेस के मेयर डिप्टी मेयर तो लगभग तय है, पर धर्मशाला और सोलन में ट्विस्ट मुमकिन है। धर्मशाला में कांग्रेस जहाँ सम्भावना तलाश रही है तो सोलन में कांग्रेस को डर होना लाजमी है। सोलन में कांग्रेस के ही पार्षद अपने मेयर डिप्टी मेयर के खिलाफ 2022 में विश्वास प्रस्ताव ला चुके है और यहाँ पार्षदों में मतभेद नहीं बल्कि मनभेद की स्थिति दिखती है। इसी में भाजपा को संभावना दिख रही है। ऐसे में कांग्रेस फूंक फूंक कर कदम बढ़ाना चाहती है। सोलन से विधायक कर्नल धनीराम शांडिल कैबिनेट मंत्री है, सीपीएस संजय अवस्थी कभी इसी निकाय में पार्षद थे, ऐसे में यहाँ चूक हुई तो इन दिग्गजों पर भी सवाल उठेगा। बहरहाल चर्चा आम है कि सोलन में कांग्रेस अपने पार्षदों को एकसाथ लाने में अब तक कामयाब नहीं हुई है। पार्टी को क्रॉस वोटिंग का डर है और ये ही कारण है की मेयर और डिप्टी मेयर चुनाव को लम्बा खींचा जा रहा है। वहीँ धर्मशाला में पार्टी जोड़ तोड़ कर सभावना देख रही है। इसी के चलते अन्य दो नगर निगमों में भी विलम्ब हुआ है। हालांकि आपको बता दें कि मेयर डिप्टी मेयर चुनाव में विधायक के वोट को लेकर पहले स्थिति स्पष्ट नहीं थी, जो विलम्ब का एक कारण बना है। उधर भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस सरकार इसे जानबूझकर खींच रही है। अब विधायकों के वोटों को लेकर स्थिति साफ हो गई है, फिर भी सरकार ये चुनाव नहीं करा रही है। आपदा के दौर में मेयर डिप्टी मेयर न होने से विकास कार्य बुरी तरह प्रभावित हुए है। बहरहाल सियासी वार पलटवार के बीच सियासी जोड़ तोड़ भी जारी है। कांग्रेस सत्ता में है और यदि पार्टी कहीं भी चुकी तो सवाल तो उठेंगे ही। वहीँ 2021 के उपचुनावों से हिमाचल में लगातार हार का सामना कर रही भाजपा भी मुफीद मौके की तलाश में है। अगर भाजपा मेयर-डिप्टी मेयर चुनाव में कांग्रेस को पटकनी दे पाई तो लोकसभा चुनाव से पहले ये पार्टी के लिए बूस्टर डोज होगा।
**भाजपा घोषणा पत्र में OPS जिक्र नहीं, ERCP और गोबर खरीद को जगह राजस्थान के लिए भाजपा का घोषणा पत्र वीरवार को आ गया।'आपणो अग्रणी राजस्थान' संकल्प पत्र के नाम से जारी किए गए 80 पेज के घोषणा पत्र में गहलोत सरकार की लोकलुभावन योजनाओं की काट के तौर पर कई वादे किए गए हैं। पर इसमें ओल्ड पेंशन स्कीम या इसके विकल्प पर कुछ नहीं लिखा गया है। कर्मचारी वोट राजस्थान में बड़ी भूमिका निभाता है और गहलोत सरकार इन्हे ओल्ड पेंशन स्कीम की सौगात दे चुकी है। वहीँ भाजपा के लिए ओपीएस जी का जंजाल बन चुकी है। न भाजपा के उगलते बनता है और न निगलते। न भाजपा ओपीएस देने का वादा कर रही है और न भाजपा के पास इसकी काट दिखती है। ऐसे में राजस्थान का कर्मचारी इस बार किस ओर जायेगा ये बड़ा सवाल है। दरअसल माना जाता है कि राजस्थान में कर्मचारी हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन के लिए मतदान करता है। पर इस बार क्या कर्मचारी ओपीएस के बदले रिवाज बदलेगा, ये देखना रोचक होगा। वहीँ भाजपा के घोषणा पत्र की बात करें तो चुनावी मुद्दा बनी ईस्टर्न राजस्थान कैनाल प्रोजेक्ट यानी (ERCP) को पूरा करने का वादा भी इसमें शामिल है। राजस्थान के 13 ज़िले इससे प्रभावित होते है। वहीँ गहलोत सरकार भी इस योजना पर बजट अलॉट कर चुकी है और खुद सीएम गहलोत इस मुद्दे पर भाजपा पर लगातार हमलावर है। भाजपा के वादों में एक दिलचस्प वादा और है। कांग्रेस की सात गारंटियों में शामिल गोबर खरीदने की घोषणा को भी इसमें जगह मिली है। बहरहाल राजस्थान में सत्ता की जंग में दो बड़े फैक्टर निर्णायक हो सकते है, ओपीएस और ERCP ...गहलोत को भरोसा है कि कर्मचारी उन्हें रिटर्न गिफ्ट देंगे और इसी बिसात पर उन्हें इतिहास रचने का भरोसा है। वहीँ भाजपा चाहेगी की कर्मचारी सत्ता परिवर्तन का रिवाज जारी रखे। इसी तरह ERCP फैक्टर के असर से भाजपा वाकिफ है और इसे घोषणा पत्र में जगह दी गई है। जबकि गहलोत को ERCP पर 13 ज़िलों के साथ का भरोसा हैं।
**कांग्रेस में चेहरा भी कमलनाथ, चाल भी उनकी और चली भी उनकी **भाजपा को मिला राज तो आधा दर्जन दावेदार **एमपी में सॉफ्ट हिन्दुस्त्व और गारण्टी मॉडल पर आगे बढ़ी कांग्रेस पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इस बार रणनीति भी बदली है और सियासी तौर तरीका भी। इनमें से तीन राज्यों यानी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच है। 2018 में ये तीनों राज्य कांग्रेस ने भाजपा से छीन लिए थे। इसके बाद 2020 में मध्य प्रदेश कांग्रेस में हुई बगावत के बाद भाजपा की सत्ता वापसी हुई लेकिन राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा विपक्ष में ही है। अब भाजपा इन तीनों ही राज्यों में सत्ता हासिल करने को जोर लगा रही है। इस बार भाजपा ने तीनों ही राज्यों में सीएम फेस नहीं घोषित किया है। साथ ही कई सांसदों को मैदान में उतार सियासी चौसर को रोचक कर दिया है। अब इसका नतीजा क्या होगा ये तो तीन दिसंबर को पता चलेगा लेकिन मुकाबला कड़ा जरूर दिख रहा है। विशेषकर मध्य प्रदेश में बीते दो दशक में अधिकांश वक्त भाजपा का राज रहा है, ऐसे में भाजपा के इस प्रयोग का असल टेस्ट मध्य प्रदेश में ही होना है। आज सियासतनामा में बात मध्य प्रदेश के राजनैतिक परिदृश्य की। मध्य प्रदेश के मौजूदा सियासी हाल और चाल को समझने के लिए बात बीस साल पीछे से शुरू करनी होगी। दिग्विजय सिंह के दस साल के शासन के बाद साल 2003 में मध्य प्रदेश में भाजपा की वापसी हुई थी। तब एंटी इंकमबैंसी इस कदर हावी थी कि भाजपा 173 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। तब मुख्यमंत्री बनी थी उमा भारती, फिर बाबू लाल गौर कुछ समय सीएम रहे और फिर आया शिवराज का राज। देखते ही देखते शिवराज सिंह चौहान एमपी में भाजपा का चेहरा हो गए। शिवराज अपनी लोकप्रिय योजनों से एमपी की सियासत के मामा बन गए, सबसे लोकप्रिय सियासी चेहरा और कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा रोड़ा। 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा शिवराज का चेहरा आगे रखकर ही मैदान में उतरी और जीती भी। दिलचस्प बात ये है कि इन दो चुनावों में भाजपा ने शिवराज के काम तो गिनाये ही, दिग्विजय का राज भी याद दिलवाया। यानी ये कहना गलत नहीं होगा कि 2003 की दिग्विजय सरकार की एंटी इंकमबैंसी को भाजपा अगले दो चुनाव में भी भुनाती रही। वहीँ कांग्रेस में दिग्गी राजा के साथ साथ अब 'महाराज' सिंधिया भी बड़ा नाम और चेहरा थे। दोनों की तकरार और रार भी कांग्रेस की हार का कारण बनी रही। 2013 के बाद कांग्रेस को समझ आने लगा था कि दिग्विजय सिंह के चेहरे पर मध्य प्रदेश में वापसी बेहद मुश्किल है। पार्टी की तलाश रुकी कमलनाथ पर जो अर्से से केंद्र की केंद्र की सियासत में बड़ा नाम रहे और उनका कर्म क्षेत्र रहा मध्य प्रदेश का छिंदवाड़ा। 'महाराज' तो दिग्गी राजा को नामंजूर थे लेकिन कमलनाथ वो नाम था जो उन्हें भी स्वीकार्य था। चेहरा बदला तो कांग्रेस की किस्मत भी बदली और 2018 में पार्टी नजदीकी मुकाबल में सरकार भी बना गई। तब सीएम बने कमलनाथ और ज्योतिरादित्य बन दिए गए डिप्टी सीएम। पर 15 महीने में ही 'ऑपरेशन लोटस' ने कमलनाथ को सत्ता से बाहर किया और शिवराज लौट आएं। तब समर्थकों के साथ कांग्रेस में बगावत करने वाले सिंधियाँ अब भाजपा में है और केंद्रीय मंत्री बना दिए गए है। उधर कांग्रेस में अब कमलनाथ ही इकलौता चेहरा है। दिग्विजय सिंह अब पीछे पीछे ही दीखते हैं। मौजूदा विधानसभा चुनाव में चेहरा भी कमलनाथ है, चाल भी उनकी है और चली भी उनकी ही है। वहीँ भाजपा में अब शिवराज का चेहरा धुंधला पड़ गया है। फिर सत्ता मिली तो शिवराज ही सीएम होंगे ,ये कहना मुश्किल है। दौड़ में कई केंद्रीय मंत्री और सांसद तो है ही, सिंधियाँ भी वेटिंग लिस्ट में है। कैल्श विजयवर्गीय भी रेस में है। पर इसके लिए पहले जरूरी है पार्टी की सत्ता वापसी। पिछले बीस में से करीब 19 साल भाजपा का शासन रहा है और ऐसे में एंटी इंकम्बैंसी होना भी स्वाभविक है। पर कांग्रेस की बगावत में जरूर पार्टी को उम्मीद दिख रही होगी। उम्मीद केंद्रीय राजनीति के उन दिग्गजों से भी होगी जिन्हे आलाकमान ने विधानसभा चुनाव में उतार दिया है। अब पार्टी का फार्मूला कितना हिट होता है, ये तो तीन दिसंबर को ही तय होगा। उधर कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में सॉफ्ट हिन्दुस्त्व की राह भी पकड़ी है और हिमाचल -कर्णाटक में सफल रहा गारंटी फार्मूला भी। कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस निसंदेह दमदार विपक्ष की भूमिका में दिखी है। हालांकि असंतोष और बगावत में जरूर रंग में भंग डाला है, बाकि स्थिति नतीजे आने के बाद ही स्पष्ट होगी। पर ये तय है कि अगर सत्ता मिली तो सीएम कमलनाथ ही होंगे।
**सरकार रिपीट हुई तो क्या गहलोत को हटा पायेगा आलाकमान ? **समर्थक विधायकों का संख्याबल तय करेगा गहलोत और पायलट की दावेदारी ! राजस्थान में मचे सियासी घमासान में इस बार मुकाबला कांग्रेस भाजपा में ही नहीं है, एक मुकाबला कांग्रेस और कांग्रेस के बीच है, तो एक भाजपा और भाजपा के बीच। ये है मुख्यमंत्री की कुर्सी का मुकाबला। हालांकि सबकुछ पहले जनता ने तय करना है और जनता 25 नवंबर को तय भी कर देगी। तीन दिसंबर को नतीजा आएगा और उसके बाद सीएम पद की दावेदारी की जंग होगी या हार का ठीकरा फोड़ने की जद्दोजहद, ये देखना रोचक होने वाला है। 2013 में कांग्रेस की हार के बाद अशोक गहलोत केंद्रीय संगठन का रुख कर गए और राजस्थान में मोर्चा संभाला सचिन पायलट ने। पर 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले गहलोत न सिर्फ वापस आएं बल्कि सीएम पद के दावेदार बनकर आएं। खेर कांग्रेस ने बगैर चेहरे के चुनाव लड़ा और सत्ता में भी आ गई पर सीटें उतनी नहीं मिली जितनी उम्मीद थी। आलाकमान ने इस पेचीदा स्थीति में गहलोत को सीएम और पायलट को डिप्टी सीएम बना दिया। यानी सत्ता के जहाज के पायलट गहलोत बने और सचिन पायलट कोपायलट हो गए। सरकार में गहलोत की ही चली और जल्द ही तल्खियां सामने आने लगी। फिर पायलट ने साथी विधायकों के साथ बगावत कर दी लेकिन गहलोत ने सरकार बचाकर अपनी जादूगरी भी दिखाई और पायलट को हाशिये पर भी ला दिया। पायलट न डिप्टी सीएम रहे और न प्रदेश अध्यक्ष। हालांकि आलाकमान के हस्तक्षेप से पायलट पार्टी में बने रहे लेकिन राजस्थान की सत्ता में उनकी एक न चली। सितम्बर 2022 में जब गाँधी परिवार गहलोत को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर पायलट को सीएम बनाना चाहता था तब भी गहलोत समर्थकों के आगे आलाकमान फेल हो गया और पायलट फिर खाली हाथ रह गए। इसके बाद आलाकमान ने पायलट को सीडब्लूसी में शामिल किया ,लेकिन पायलट ने राजस्थान नहीं छोड़ा। विधानसभा चुनाव से पहले अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। अपनी ही सरकार को घेरने पायलट सड़क पर उतर गए। जैसे तैसे आलाकमान ने गहलोत पायलट की सुलह तो करवाई, लेकिन जिस रस्सी में इतनी गाठें हो वो समतल कैसी होगी ? बहरहाल माना जा रहा है कि पायलट को आलाकमान से आश्वासन मिला है, लेकिन राजस्थान में फेस भी गहलोत है और चुनाव अभियान भी उनके मन मुताबिक ही चला है। ऐसे में अगर रिपीट करके गहलोत इतिहास रच देते है तो क्या आलाकमान पायलट को एडजस्ट भी कर पायेगा, ये बड़ा सवाल है। चुनाव की घोषणा के बाद से राजस्थान में प्रत्यक्ष तौर पर गहलोत और पायलट आमने सामने नहीं हुए। कहा जाने लगा की आलकमान ने सब ठीक कर दिया है और नतीजों के बाद ही अगला फैसला होगा। पर गहलोत शायद अपने स्तर पर सबकुछ स्पष्ट कर देने चाहते थे और उन्होंने एक किस्म से कर भी दिया। "मैं कुर्सी को छोड़ना चाहता हूँ पर कुर्सी मुझे नहीं छोड़ती और छोड़ेगी भी नहीं ".....शब्द कुछ, मतलब कुछ, ये ही अशोक गहलोत की जादूगरी है और ये ही उनका सियासी अंदाज। इसीलिए उन्हें सियासत का जादूगर कहा जाता है। कुछ दिन पहले मौका दिल्ली में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस का था और निशाना भाजपा। पर घूमते घूमते बात कहाँ से कहाँ पहुंच गई और शायद जहाँ पहुंचानी थी वहां पहुंच गई। गहलोत अपने समर्थकों को कुछ न कहकर भी कह गए की जनता मेहरबान रही तो वे ही अगले सीएम होंगे। साथ ही विरोधियों को भी सन्देश दे गए की कुर्सी उन्हें नहीं छोड़ने वाली। सन्देश शायद आलाकमान के लिए भी था कि वो क्यों जादूगर कहलाते है। बहरहाल बात निकली तो पायलट तक भी पहुंची और जवाब भी आया। नपेतुले शब्दों में बिलकुल उनके सियासी तौर तरीके की तरह, "सीएम तो विधायक और आलाकमान तय करेंगे।" टिकट आवंटन की बात करें तो दोनों के समर्थकों को टिकट मिले भी है और कटे भी है। 'कौन आलाकमान' कहने वाले शांति धारीवाल को टिकट दिलवाकर गहलोत ने साबित कर दिया कि उनके सियासी पिटारे में कई तरकीबें है। बहरहाल खुलकर कोई कुछ नहीं बोल रहा, लेकिन दोनों ही नेताओं के समर्थक भीतरखाते प्रो एक्टिव है। किसके ज्यादा समर्थक विधानसभा की दहलीज लांघते है इस पर काफी कुछ निर्भर करने वाला है।
राजस्थान में कांग्रेस ने 200 में से अब तक 76 सीटों पर अपने उम्मीदवारों का एलान कर दिया है। कांग्रेस ने अपनी पहली सूची में 33 उम्मीदवारों के नाम की घोषणा की थी। इसमें सीएम अशोक गहलोत, पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट, प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा और राजस्थान विधानसभा स्पीकर सीपी जोशी का नाम शामिल था। वहीँ रविवार को 43 प्रत्याशियों की दूसरी सूची जारी हुई। इस सूची में 15 मंत्री भी शामिल है। पार्टी ने अब तक दो सूची में 20 मंत्रियों को टिकट दिया है, लेकिन गहलोत के खास तीन चेहरे अब तक टिकट से वंचित हैं। इनमें मंत्री शांति धारीवाल और महेश जोशी भी शामिल हैं। दरअसल, बताया जा रहा हैं कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी पिछले साल 25 सितंबर की घटना को नहीं भूले हैं। तब राजस्थान में पार्टी विधायकों के एक गुट की बगावत के कारण पार्टी के पर्यवेक्षकों को कांग्रेस विधायक दल की बैठक किए बिना राष्ट्रीय राजधानी लौटना पड़ा था। तब मोर्चा सँभालने वालो में आगे गहलोत के ये ही ख़ास मंत्री थे। तब शांति धारीवाल ने पार्टी आलाकमान के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था। उस दौरान सोनिया गांधी, जो उस समय पार्टी की अंतरिम प्रमुख थीं, ने खरगे और अजय माकन को पर्यवेक्षकों के रूप में राजस्थान में कांग्रेस विधायकों की बैठक आयोजित करने के लिए भेजा था, इन खबरों के बीच कि गहलोत को उनके पद से हटाकर पार्टी प्रमुख बनाया जा सकता है। हालांकि, पार्टी विधायकों की बैठक नहीं हो पाने के बाद पर्यवेक्षक दिल्ली लौट गए। बैठक से पहले, गहलोत के करीबी माने जाने वाले विधायकों ने धारीवाल के नेतृत्व में मुलाकात की, जिसे गहलोत के वफादार को उनके उत्तराधिकारी के रूप में चुनने के लिए आलाकमान को एक संदेश के रूप में देखा गया। सूत्रों की माने तो बीते दिनों हुई कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में टिकट वितरण के समय जैसे ही शांति धारीवाल का नाम चर्चा में आया, वैसे ही सोनिया गांधी ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। सोनिया ने कहा कि "ये वही व्यक्ति हैं न..इनका नाम सूची में कैसे है। इनपर तो भ्रष्टाचार के आरोप हैं न?" कहते हैं मैडम सोनिया के इस सवाल पर बैठक रूम में कुछ देर तक सन्नाटा पसर गया। सीएम अशोक गहलोत ने सफाई दी लेकिन तभी राहुल गांधी ने कहा भारत जोड़ो यात्रा के दौरान इनके खिलाफ कई शिकायतें मिली थीं। राहुल गांधी ने 25 सितंबर की वह बात भी याद दिला दी और सूत्रों की मानें तो उन्होंने कहा- "ये वही शांति धारीवाल हैं न जिन्होंने कहा था...कौन आलाकमान?" इसके बाद एक बार फिर उस मीटिंग रूम में सन्नाटा पसर गया। बहरहाल मंत्री शांति धारीवाल और महेश जोशी को अब तक टिकट नहीं मिला हैं, हालाँकि इनके टिकट अब ट्रक कटे भी नहीं हैं। अब गहलोत अपने इन ख़ास सिपहसलहारों को टिकट दिलवा पाते हैं या आलाकमान के मन में टीस बरक़रार रहती हैं, ये देखना रोचक होगा।