6 नवंबर से बेसंगठन हैं कांग्रेस, जल्द होने हैं पंचायत चुनाव करीब एक साल पहले हिमाचल प्रदेश में उपचुनाव हुए और कांग्रेस ने शानदार जीत दर्ज की थी। पुरे प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष में माहौल दिखा। तब कई माहिरों ने कहा कि जो 1985 के बाद नहीं हुआ, मुमकिन है 2027 में हो। मुमकिन है सुखविंद्र सिंह सुक्खू , वीरभद्र सिंह के बाद रिपीट करने वाले पहले सीएम बन जाएं। पर अब उक्त तमाम माहिर चुप्पी ओढ़े है और इसका सबसे बड़ा कारण है कांग्रेस का संगठन, जो आठ महीने से है ही नहीं। चुनाव के नतीजे संगठन की मेहनत और सरकारों के कामकाज से तय होते है। अब सत्ता का करीब आधा रास्ता ही तय हुआ है और चुनावी चश्मे से मौजूदा सरकार के कामकाज का विशलेषण करना जल्दबाजी होगा। पर संगठन का क्या ? पार्टी के भीतर पनप रहे असंतोष का क्या ? झंडे उठाने वाले आम कार्यकर्ताओं से लेकर पीसीसी चीफ, कैबिनेट मंत्री और अब तो खुद मुख्यमंत्री भी संगठन में देरी को नुकसानदायक मान रहे है। फिर ये देरी क्यों , ये समझ से परे है। मान लेते है मसला पीसीसी चीफ पद अटका हैं, और खींचतान के चलते आलाकमान निर्णय नहीं ले पा रहा , लेकिन क्या ज़िलों अध्यक्षों और प्रदेश के महत्वपूर्ण पदों पर भी नियुक्तियां नहीं की जा सकती थी। इसी साल के अंत में पंचायत चुनाव होने हैं, नई गठित नगर निगमों के चुनाव भी अपेक्षित हैं। ऐसे में आठ महीने से पार्टी का बगैर संगठन होना समझ से परे हैं। इस बीच संगठन के गठन को लेकर अब भी कोई पुख्ता जानकारी नहीं हैं। कार्यकर्ताओं की हताशा लाजमी हैं और धैर्य धरे बड़े नेताओं के पास सिर्फ एक ही जवाब हैं, 'जल्द होगा'।
लम्बे समय तक हिमाचल में भाजपा की राजनीति का केंद्र रहे समीरपुर में खुद भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा पहुंचे, तो सियासी हलचल मचना तो लाजमी था। ये कोई आम औपचारिक मुलाकात होती तो बात न होती, लेकिन बंद कमरे में जेपी नड्डा और प्रेम कुमार धूमल के बीच लगभग 35 मिनट गुफ्तगू हुई, तो सियासी गलियारों में चर्चा तो होनी ही थी। इस बारे में कोई अधिकारिक जानकारी तो बाहर नहीं आई, लेकिन इस मंत्रणा को को आगामी संगठनात्मक बदलावों और प्रदेश भाजपा की आगामी रणनीति से जोड़कर देखा जा रहा है। दरअसल, हिमाचल प्रदेश में भाजपा को लगातार शिकस्त का सामना करना पड़ रहा है। 2021 के उपचुनाव से शुरू हुआ पराजय का रथ अब तक नहीं थमा। माहिर इसका एक बड़ा कारण धूमल कैंप की उपेक्षा मानते रहे है। वहीँ, बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष जो जेपी नड्डा दिल्ली तक फ़तेह कर गए, घर में उनके प्रभाव पर भी खूब सवाल उठे है। कभी धूमल कैबिनेट में मंत्री रहे नड्डा को भी इल्म है कि हिमाचल की राजनैतिक जमीन में धूमल के प्रभाव की जड़े बेहद गहरी है। धूमल पार्टी के सच्चे और अनुशासित सिपाही रहे है, कभी खुलकर नाराजगी नहीं जताई लेकिन उनके ख़ास माने जाने वाले कई नेता एक एक कर दरकिनार दीखते है। बलदेव शर्मा हो, रमेश चंद ध्वाला, राम लाल मार्कण्डेय या वीरेंदर कँवर; पिछले साल उपचुनाव में इन तमाम नेताओं के टिकट काटे गए। उक्त तमाम सीटें भाजपा हारी। वहीँ धूमल के गृह क्षेत्र की सीट सुजानपुर में तो उनके शागिर्द कैप्टेन रंजीत सिंह राणा कांग्रेस के टिकट पर जीतकर विधानसभा पहुंच गए। ये फेहरिस्त लम्बी है, और अब भी ऐसी कई सीटें ही जहाँ धूमल के निष्ठावान नेता दरकिनार दीखते है और बड़ा फर्क भी डाल सकते है। माहिर मानते है की नड्डा और धूमल की मुलकात में संभव है इसे लेकर भी चर्चा हुई हो। संभव है भाजपा मध्यम मार्ग अपनाती दिखे।
हिमाचल प्रदेश की राजनीति में निर्दलीय विधायकों का एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। निर्दलीयों को उन नेताओं के तौर पर देखा जाता रहा है जो न किसी पार्टी की छतरी में पले, न झंडे के सहारे जीते, सिर्फ जनसमर्थन के बल पर विधानसभा तक पहुंचे। साल 1967 के चुनाव में रिकॉर्ड 16 निर्दलीय विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। इसके बाद भी कई चुनाव ऐसे रहे जब निर्दलीयों ने बड़ी संख्या में जीत दर्ज की। 1957 में 12, 1952 में 8, 1972 और 1993 में 7-7, 1977, 1982 और 2003 में 6-6, 2012 में 5, 1962, 2007 और 2022 में 3-3, 1985 और 2017 में 2-2 तथा 1990 और 1998 में 1-1 निर्दलीय विधायक चुने गए। 1998 में रमेश धवाला जैसे नेता तो किंगमेकर बन गए थे, जिन्होंने सत्ता का पूरा समीकरण पलट दिया था। लेकिन वक्त के साथ तस्वीर बदल गई है। वर्ष 2022 में तीन निर्दलीय विधायक, होशियार सिंह, आशीष शर्मा और के एल ठाकुर जनता के समर्थन से जीते थे। लेकिन 2024 में इन नेताओं ने अपने एक फैसले से इस जनादेश को दरकिनार कर दिया। दरअसल 2024 में राज्यसभा चुनावों के दौरान इन नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी को समर्थन देने के बाद न जाने किन कारणों से इस्तीफा देने का अप्रत्याशित निर्णय लिया। तीन जून को उनके इस्तीफे स्वीकार हुए और दस जुलाई को उपचुनाव हुए। भाजपा ने तीनों को फिर से टिकट दिया और वे भाजपा उम्मीदवार बनकर चुनाव लड़े। इन चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवार भी मैदान में थे, लेकिन कोई भी निर्दलीय चुनाव नहीं जीत सका। नतीजन इन उपचुनावों के बाद विधानसभा से निर्दलीयों का पूरी तरह सफाया हो गया। हिमाचल के राजनीतिक इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि सदन में एक भी स्वतंत्र विधायक मौजूद नहीं है। आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि सदन में निर्दलीय विधायक न बैठे हों। मगर अब यही हिमाचल की राजनीति की नई तस्वीर है।
विद्या स्टोक्स। इस नाम के साथ यूं तो कई उपलब्धियां जुड़ी हैं, लेकिन इन तमाम उपलब्धियों में एक ऐसी उपलब्धि है जो उन्हें अद्वितीय बनाती है। विद्या स्टोक्स हिमाचल प्रदेश विधानसभा की इकलौती ऐसी महिला नेता हैं जो नेता प्रतिपक्ष के पद तक पहुंची हैं। जी हां, आज तक इस प्रदेश के इतिहास में नेता विपक्ष की कुर्सी पर कोई और महिला नहीं पहुंची। विद्या स्टोक्स इकलौती थीं जिन्होंने इस मुकाम तक का सफर तय किया। वर्ष 1990 में जब कांग्रेस विपक्ष में आई, पार्टी ने इस पद की जिम्मेदारी एक महिला को सौंपी। और तब से लेकर आज तक कोई दूसरी महिला उस स्तर तक नहीं पहुंच सकी। यह केवल एक पद नहीं था, यह उस सोच का प्रतीक था कि महिलाएं सिर्फ सत्ता की साथी नहीं, सच्ची विपक्ष की भी आवाज बन सकती हैं। फिर वर्ष 2008 में जब एक बार फिर कांग्रेस विपक्ष में आई, स्टोक्स को दोबारा वही जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्होंने दोनों बार इस भूमिका को पूरे आत्मविश्वास और गरिमा के साथ निभाया। आज जब हम हिमाचल की विधानसभा की ओर देखते हैं तो महिलाएं गिनी चुनी दिखाई देती हैं। हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री पद अब भी पुरुषों के अधीन है। सत्ता पक्ष और विपक्ष की कमान भी अधिकतर पुरुषों के ही हाथ में रही है। महिलाओं को लेकर बड़े बड़े दावे तो भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल करते हैं, मगर जब बात महिला नेतृत्व की आती है तो परिस्थिति कुछ और ही नजर आती है।
श्यामा शर्मा... हिमाचल की वह अकेली महिला नेता, जो आपातकाल के दौर में जेल गईं। जब पूरे देश में डर और चुप्पी का सन्नाटा था, तब श्यामा ने न सिर्फ आवाज़ उठाई, बल्कि जेपी आंदोलन की सक्रिय सिपाही बनकर सत्ता से टकराईं। वह कहती थीं, "मैं अपने हिस्से की लड़ाई स्वयं लड़ती हूं और हमेशा धारा के विरुद्ध लड़ने का सामर्थ्य रखती हूं।" वह न किसी राजनीतिक विरासत की मोहताज थीं, न किसी पहचान की। उन्होंने अपनी पहचान खुद बनाई, संघर्ष से, साहस से, संकल्प से। उनकी कहानी शुरू होती है वर्ष 1948 में, सिरमौर के छोटे से गांव सरोगा से। किसान और जमींदार पंडित दुर्गादत्त की बेटी श्यामा बचपन से ही अलहदा थीं। जब बाकी लड़कियां गुड़ियों से खेलती थीं, श्यामा कानून, समाज और राजनीति की किताबों में डूबी रहती थीं। पढ़ाई के लिए उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, फिर इलाहाबाद और आगरा तक का सफर तय किया। विधि स्नातक की डिग्री ली और जब घर लौटीं, तो सबने सोचा अब ये वकील बनेगी। लेकिन श्यामा की मंजिल कुछ और थी, क्रांति का रास्ता। साल 1975, देश में आपातकाल लग चुका था। लोकतंत्र की आवाज़ दबा दी गई थी, अखबारों की सुर्खियां सेंसर थीं और डर हर दिशा में फैला था। लेकिन श्यामा चुप नहीं बैठीं। वह जेपी आंदोलन से जुड़ीं और खोदरी माजरी यमुना हाइड्रो प्रोजेक्ट में हो रहे मजदूरों के शोषण के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। यहां छह महीने तक मजदूरों से बिना वेतन काम करवाया जा रहा था। श्यामा ने विरोध शुरू किया, भाषण दिए, लोगों को संगठित किया और सरकार की नजरों में आ गईं। जब पुलिस उन्हें पकड़ने खोदरी माजरी पहुंची, तो श्यामा उफनती टोंस नदी को तैर कर पार कर गईं। वह उत्तराखंड के जौनसार बाबर पहुंचीं, फिर दिल्ली और इलाहाबाद में छिप छिपकर आंदोलन चलाती रहीं। पूरे एक साल भूमिगत रहीं, लेकिन आवाज़ बंद नहीं हुई। पिता की मृत्यु पर जब वह घर लौटीं, तो सरकार ने उन पर मीसा और डीआईआर जैसी कठोर धाराएं लगा दीं। उन्हें गिरफ्तार कर कई दिन लॉकअप में रखा गया। फिर उन्हें भेजा गया सेंट्रल जेल नाहन, जहां वह शांता कुमार, जगत सिंह नेगी, महेंद्र नाथ सोफत और मुन्नीलाल वर्मा के साथ जेल में रहीं, लेकिन अकेली महिला आंदोलनकारी वही थीं। जेल में रहते हुए भी उन्होंने आवाज़ उठाना नहीं छोड़ा। वह जनता की नेता बनीं, इतिहास की मिसाल भी। वर्ष 1977 में देश को आपातकाल से मुक्ति मिली। श्यामा ने नाहन से चुनाव लड़ा और सिरमौर की पहली महिला विधायक बन गईं। शांता कुमार की सरकार में उन्हें राज्य मंत्री बनाया गया। बाद में 1980 और 1990 में वह दोबारा विधायक बनीं। वर्ष 1982 से 1984 तक लोक लेखा समिति की अध्यक्ष रहीं और वर्ष 2000 से 2003 तक योजना बोर्ड की उपाध्यक्ष रहीं।
वह 25 जून 1975 का दिन था। भारत के लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐसा दिन जब पूरी आबादी को चुप करा दिया गया था। देश में आपातकाल लागू हुआ और संविधान की आत्मा को एक सत्तालोभी निर्णय ने कुचल कर रख दिया। हिमाचल प्रदेश में भी इस तानाशाही की गूंज साफ सुनाई दी। और उसी दिन शांता कुमार को भी बिना किसी जुर्म, बिना किसी वारंट, बस रास्ते से उठाकर जेल में डाल दिया गया। 24 जून 1975 को शांता कुमार घर से शिमला के लिए निकले थे। पत्नी और बच्चों से बस इतना कहा कि "परसों लौट आऊंगा।" लेकिन अगले ही दिन, 25 जून की सुबह देश में आपातकाल की घोषणा हो गई। रास्ते में ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। किसी ने उन्हें कारण नहीं बताया, न कोई आदेश दिखाया। वह बार बार पूछते रहे, "मुझे क्यों गिरफ्तार कर रहे हो?" लेकिन पुलिस का केवल एक ही जवाब था, "ऊपर से आदेश है।" शिमला से उन्हें सीधे नाहन जेल भेज दिया गया और वहीं से शुरू हुई उनकी 19 महीने लंबी कैद। जेल में रहते हुए शांता कुमार ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की। उन्होंने कहा, "मुझे बिना कारण कैद में रखा गया है। क्या मुझे जीने का भी अधिकार नहीं?" सरकार की ओर से जवाब आया, "देश में इमरजेंसी लगी है, अब किसी को कोई अधिकार नहीं है।" उनकी याचिका खारिज कर दी गई। उनकी आवाज अदालतों में भी नहीं सुनी गई। उस समय सच में न अपील थी, न दलील, न वकील। शांता कुमार के अलावा और भी कई नेताओं को जेल में डाला गया था, जैसे डॉ राधा रमन शास्त्री, जिनकी पत्रिकाएं 'हिमबाला' और 'हिमयुवक' जब्त कर ली गईं। श्यामा शर्मा, जो इमरजेंसी के दौरान गिरफ्तार होने वाली हिमाचल की इकलौती महिला थीं। इसके अलावा स्वर्गीय जगत सिंह नेगी, महेंद्र नाथ सोफत, मुन्नीलाल वर्मा जैसे नेता भी नाहन जेल में एक ही छत के नीचे लोकतंत्र के लिए बंद थे। आज भी शांता कुमार कहते हैं, "देश में न बम फटा था, न कोई दंगा हुआ था, फिर भी पूरे देश को कैद कर दिया गया। सिर्फ इसलिए कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था।" उनके अनुसार इमरजेंसी एक राजनीतिक तानाशाही थी। वह कहते हैं कि इंदिरा गांधी की कुर्सी बचाने के लिए देश की आज़ादी को गिरवी रख दिया गया।
हिमाचल प्रदेश की राजनीति में एक किस्सा ऐसा भी है जो किसी भी विधायक के लिए बुरे सपने से कम नहीं होगा। यह वह किस्सा है जब हिमाचल के एक विधायक को अदालत ने हत्या के जुर्म में दोषी ठहराकर कठोर सजा सुनाई। विधायक को सजा भी हुई और विधायकी भी चली गई। यह कहानी है राकेश सिंघा की। मामला वर्ष 1978 का है, जब राकेश सिंघा हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के छात्र थे। शिमला के अल्फिन लॉज में एक विवाह समारोह के दौरान झड़प हुई, जो बाद में हिंसा में बदल गई। इस झगड़े में एक व्यक्ति की मौत हो गई और सिंघा समेत कुछ अन्य छात्रों पर हत्या और गंभीर रूप से घायल करने के आरोप लगे। मुकदमा अदालत में चला और वर्ष 1988 में सत्र न्यायालय ने सिंघा को भारतीय दंड संहिता की धारा 304 भाग दो, 325 और 452 के तहत दोषी करार देते हुए पांच वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई। हालांकि तब तक सिंघा राजनीति में सक्रिय हो चुके थे। वर्ष 1993 में उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी के टिकट पर शिमला से विधानसभा चुनाव जीता और विधायक बने। लेकिन यह कार्यकाल लंबा नहीं चला। मामले की सुनवाई उच्च न्यायालय में हुई और फिर वर्ष 1996 में सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंची, जहां उनकी सजा को बरकरार रखा गया। इस फैसले के बाद उन्हें विधायक पद से अयोग्य घोषित कर दिया गया। यह हिमाचल प्रदेश की राजनीति में एक दुर्लभ घटना थी जब कोई मौजूदा विधायक अदालत के आदेश के चलते विधानसभा से बाहर हुआ। इस घटना के बाद राकेश सिंघा की राजनीतिक यात्रा थमी नहीं, लेकिन उस पर एक स्थायी सवालिया निशान जरूर लग गया। उन्होंने लंबे समय तक प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी को जिंदा रखने की कोशिश की और जनहित से जुड़े आंदोलनों में सक्रिय रहे। अंततः वर्ष 2017 में वह ठियोग से दोबारा विधायक चुने गए। हालांकि वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में सिंघा को हार का सामना करना पड़ा और एक बार फिर वह मुख्य धारा की राजनीति से बाहर हो गए। लेकिन आज भी सिंघा हिमाचल के लोगों खासकर बागवानों की आवाज बने हुए हैं।
भाजपा और कांग्रेस से छिटक कर हिमाचल में कई नेताओं ने अपने राजनीतिक दल बनाने की कोशिश की। इनमें पंडित सुखराम, महेश्वर सिंह, महेंद्र सिंह ठाकुर जैसे नाम शामिल हैं। हालांकि, इनमें से पंडित सुखराम के अलावा कोई भी अपनी पार्टी को खास ऊंचाई पर ले जाने में सफल नहीं हो पाया। इन्हीं राजनीतिक असफलताओं में एक असफल प्रयास डॉ राजन सुशांत ने भी किया था। आज हम आपको बताएंगे उस पार्टी की कहानी, जो पूरी तरह बनने से पहले ही बिखर गई। हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी शायद आपने ये नाम न सुना हो या शायद आप ये नाम भूल गए हों, मगर यकीन मानिए हिमाचल में इस पार्टी का गठन किया गया था। और इस पार्टी का गठन करने वाले नेता थे डॉ राजन सुशांत। एक समय भाजपा के कद्दावर नेता रहे सुशांत, 1982 में सबसे कम उम्र के विधायक बने थे और बाद में प्रेम कुमार धूमल सरकार में राजस्व मंत्री भी रहे। वर्ष 2009 में वे भाजपा से कांगड़ा संसदीय सीट से सांसद चुने गए। लेकिन अपनी बेबाकी और पार्टी विरोधी रुख के चलते उन्हें 2011 में भाजपा से निलंबित कर दिया गया। फिर राजन सुशांत ने 2014 में आम आदमी पार्टी का दामन थामा और हिमाचल प्रदेश में पार्टी के राज्य संयोजक भी बने। हालांकि 2014 का लोकसभा चुनाव वे कांगड़ा से आप के टिकट पर हार गए। वहां भी राजनीतिक ऑक्सीजन की कमी महसूस हुई, तो 25 अक्टूबर 2020 में खुद की दुकान खोल ली और नाम रखा हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी। इस पार्टी के गठन का मकसद था हिमाचल प्रदेश में तीसरा राजनीतिक विकल्प खड़ा करना और स्थानीय मुद्दों पर आधारित राजनीति को बढ़ावा देना। स्वतंत्र लड़ाई के वादे तो और भी बहुत हुए, मगर ये वादे धरे के धरे रह गए। 2022 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले, सुशांत ने जनता से "न हमारी न तुम्हारी" कहकर अपनी ही बनाई पार्टी को दरकिनार कर दिया और 10 सितंबर 2022 को एक बार फिर आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए। इस बार उन्हें आप ने फतेहपुर विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया। लेकिन 2022 के चुनाव में राजन सुशांत को सिर्फ 1266 वोट मिले और वे बुरी तरह से चुनाव हार गए।
छोटे-छोटे जिलों से सत्ता के खेल की तैयारी; अंदरखाते मंथन की सुगबुगाहट ! कांगड़ा के नूरपुर, पालमपुर और देहरा नए जिलों की दौड़ में ! शिमला, मंडी और सोलन के बंटवारे पर भी मंथन संभव ! हिमाचल में नए जिलों के गठन की चर्चा बीते कई वर्षों होती आ रही है, खासतौर से चुनाव से पहले नए ज़िलों का जिन्न बाहर आ जाता है। छोटे-छोटे जिले बनाकर सियासत की पिच को मुफीद बनाने की योजना पर धूमल से लेकर जयराम तक ने मंथन किया, हालांकि अमलीजामा कोई न पहना सका। अब फिर सुगबुगाहट है कि मौजूदा सरकार नए जिले बनाने की योजना पर आगे बढ़ सकती है। यानी मौजूदा ज़िलों के सियासी कद में कांट-छांट के आसार बन रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक इस पर अंदरखाते मंथन चला हुआ है कि छोटे-छोटे जिलों के मैदान में साल 2027 के लिए कोई बड़ा खेल खेला जाए। इसी कड़ी में चार ज़िलों का बंटवारा मुमकिन है; कांगड़ा, मंडी, सोलन और शिमला। जिलों की मांग की सुगबुगाहट सबसे अधिक काँगड़ा में देखने को मिल रही है। यहां नूरपुर, पालमपुर और देहरा को जिला घोषित करने की मांग उठती रही है। नूरपुर से पूर्व विधायक व जयराम सरकार में मंत्री रहे राकेश पठानिया लम्बे वक्त से खुलकर इसके पक्ष में बोलते रहे है। वहीँ भाजपा सरकार के कार्यकाल में पालमपुर विधायक आशीष बुटेल भी पालमपुर को जिला घोषित करने की मांग करते रहे है। हालाँकि अब वे चुप है, लेकिन सम्भवतः इसके पक्ष में ही रहेंगे। वहीं मौजूदा स्थिति में देहरा का दावा भी नकारा नहीं जा सकता। वैसे भी देहरा पर सीएम सुक्खू की विशेष मेहरबानी है। यानी कांगड़ा को चार हिस्सों में बाँटने की मांग है। कांगड़ा, 15 विधानसभा क्षेत्रों वाला वो जिला है जो हिमाचल में सत्ता का रुख तय करता आया है। पर अगर नए जिलों का गठन होता है तो क्षेत्रफल के साथ -साथ कांगड़ा के सियासी बल का भी विभाजन होगा। कांगड़ा की तरह ही मंडी जिले के करसोग और सुंदरनगर क्षेत्र के लोग भी कठिन भौगौलिक परिस्थितियों का तर्क देकर इन दोनों क्षेत्रों को जिला बनाने की मांग करते रहे है। करसोग से जिला हेडक्वार्टर मंडी से कुल 120 किलोमीटर दूर है। छोटे बड़े कार्यों के लिए क्षेत्रवासियों को 120 किलोमीटर का लम्बा सफर तय करना पड़ता है। वहीं सुंदरनगर से मंडी की दूरी तो कम है मगर तर्क है की सुंदरनगर एकमात्र ऐसा स्थान है, जिसे जिला बनाने की सूरत में सरकार को कोई भी आर्थिक बोझ नहीं पड़ेगा। इसी तरह शिमला के रोहड़ू व रामपुर को भी जिला बनाने की मांग है। ये दोनों ही क्षेत्र भी जिला मुख्यालय से काफी दूर है। सोलन के बीबीएन क्षेत्र में भी लम्बे वक्त से अलग जिला बनाने की मांग उठती रही है। अगर नए जिलों का गठन होता है कि कुछ लोगों को नए जिले की ख़ुशी होगा,तो कुछ को जिले के छोटा हो जाने का मलाल भी होगा। ऐसे में ज़ाहिर है सरकार 'पोलिटिकल रिस्क एस्सेसमेंट' के बाद ही इस पर कोई फैसला लेगी। इस बीच सवाल ये भी है की क्या प्रदेश सरकार नए जिलों के वित्तीय व्यय का प्रबंधन करने में सक्षम है या नहीं ? मौजूदा आर्थिक हालात में ये निर्णय मुश्किल है। ऐसे में माहिर मानते है कि चुनावी वर्ष में ही सरकार किसी निष्कर्ष पर पपहुंचेगी। वहीँ इसके सियासी लाभ को लेकर भी माहिरों की राय बंटी हुई है।
हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंद्र सिंह सुक्खू क्षत्रिय है, उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री ब्राह्मण और अब कांग्रेस चाहती है कि एससी समुदाय से कोई प्रदेश अध्यक्ष हो। यानी कांग्रेस हिमाचल प्रदेश में परफेक्ट जातीय संतुलन चाह रही है, और इसीलिए सुगबुगाहट है कि किसी एससी चेहरे को ही प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाएगा। इस कड़ी में जिस नेता का नाम खूब चर्चा में है वो है विनय कुमार। श्री रेणुकाजी से तीन बार के विधायक, पूर्व वर्किंग प्रेसिडेंट, और मौजूदा विधानसभा उपाध्यक्ष विनय कुमार आज दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से मिल सकते हैं। पिछले तीन दिन से विनय दिल्ली में डटे हैं, इंतज़ार खड़गे की वापसी का था। आज खड़गे वापस दिल्ली लौटेंगे और मुमकिन है आज ही विनय कुमार कि उनसे मुलाकात हो। विनय कुमार को मुकेश अग्निहोत्री का करीबी माना जाता है और पीसीसी अध्यक्ष पद के लिए उन्हें मुकेश अग्निहोत्री के कैंडिडेट के तौर पर भी देखा जा रहा है। वहीँ होली लॉज चाह रहा है की प्रतिभा सिंह ही रिपीट करें, लेकिन अगर सहमति न बनी तो माहिर मानते है कि होली लॉज भी विनय को सपोर्ट कर सकता है। हालाँकि मुख्यमंत्री सुक्खू इस समीकरण से ज़्यादा खुश हों, ऐसा ज़रूरी नहीं। सूत्रों की मानें तो सीएम एससी चेहरों में से विनोद सुल्तानपुरी या सुरेश कुमार को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन सीनियर नेताओं की रज़ामंदी इन नामों पर नहीं बन पाई। दोनों पहली बार विधायक बने हैं, जबकि विनय तीसरी बार जीते हैं और पहले भी संगठनात्मक जिम्मेदारियाँ निभा चुके हैं। वैसे विधानसभा उपाध्यक्ष बनाकर खुद सीएम सुक्खू ने ही विनय को एक बड़ी जिम्मेदारी दी थी। ऐसे में उनकी दावेदारी को क्या सीएम सुक्खू का सपोर्ट मिलेगा, ये देखना रोचक होगा। बहरहाल फैसलाआख़िर में हाईकमान को ही लेना है, लेकिन माना जा रहा है कि इस मुलाक़ात के बाद तस्वीर कुछ हद तक साफ़ हो सकती है।
गुजरात मॉडल अपनाया तो हिमाचल पर नज़र- ए -करम में लग सकता हैं और वक्त ! 7 महीने बाद, कहाँ पहुंची हिमाचल में संगठन के गठन की बात ? हिमाचल के कांग्रेसियों के साथ बड़ी 'खप' न कर दे आलाकमान ! कांग्रेस आलाकमान इन दिनों कई राज्यों के संगठन सृजन अभियान में मशगूल हैं। दरअसल, कांग्रेस अपने गुजरात मॉडल की तर्ज पर मध्य प्रदेश और हरियाणा में संगठन की नियुक्तियां करने जा रही हैं। हिमाचल के भी तीन विधायक आब्जर्वर बनाये गए हैं, ताकि उक्त राज्यों में मजबूत संगठन बने। इनके बाद अन्य राज्यों का भी नंबर आएगा और शायद हिमाचल पर भी नज़र- ए -करम हो। पर सवाल ये हैं कि क्या हिमाचल में कांग्रेस अपने इस गुजरात मॉडल को नहीं अपनाएगी ? और अगर अपनाएगी तो अब तक की फीडबैक रिपोर्टों का क्या होगा, जिसमें सात महीने खप गए ? गुजरात मॉडल के लिहाज से तो मुमकिन हैं हिमाचल में नए सिरे से जिलावार आब्जर्वर नियुक्त हो। यानी ऐसा होता हैं तो संगठन के गठन में अभी और वक्त लगना तय हैं। ऐसे स्थिति में हिमाचल के आम बोल चाल में लोग कहते है 'खप हो गई'। कांग्रेसियों के साथ भी 'खप' होने की सम्भावना फिलहाल बनी हुई है। ठीक सात महीने पहले कांग्रेस आलाकमान ने एक फरमान जारी किया और हिमाचल में पार्टी संगठन भंग कर दिया गया। तब से हिमाचल कांग्रेस की इकलौती पदाधिकारी है पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह। हैरत हैं, देश के कई राज्यों में कांग्रेस संगठन सृजन अभियान चला रही हैं, लेकिन जिस हिमाचल में सत्ता पर काबिज हैं वहां संगठन की खैर खबर ही नहीं हैं। इन सात महीनों में कांग्रेस के भीतर बहुत कुछ घटा है। संगठन के गठन में हो रहे विलम्ब पर मंत्रियों / नेताओं / कार्यकर्ताओं ने खुलकर नाराजगी जताई हैं। प्रदेश प्रभारी बदले दिए गए। कई बार संगठन गठन की उम्मीदें जगी, लेकिन हर बार हाथ लगी सिर्फ मायूसी और नई तारीख। अब तो बेउम्मीदी इस कदर हावी हैं कि नई तारीख भी नहीं मिल रही। नवंबर में संगठन भंग होते ही जानकारी आई कि कांग्रेस नए फॉर्मूले से संगठन का गठन करेगी। आब्जर्वर तैनात हुए, प्रदेश भर में गए, ग्राउंड फीडबैक लिया और रिपोर्ट सौंपी। इन सब में करीब चार महीने बीत गए। फिर लगने लगा किसी भी वक्त अब संगठन की प्रस्तावित नियुक्तियों को आलाकमान की हरी झंडी मिल सकती हैं। पर इस बीच अचानक 15 फरवरी को प्रभारी राजीव शुक्ला ही बदल दिए गए और रजनी पाटिल की एंट्री हुई। पाटिल भी अपनी नियुक्ति के दो सप्ताह बाद जोश -खरोश के साथ हिमाचल पहुंची। बैठकें हुई , फीडबैक लिया गया, गिले-शिकवों की सुनवाई हुई और जाते -जाते वादा भी किया गया कि दो सप्ताह में संगठन बन जायेगा। अब तीन महीने से ज्यादा बीत चुके हैं, लेकिन पत्ता भी नहीं हिला। इस बीच रजनी पाटिल तीन बार हिमाचल आ चुकी हैं, लेकिन बात फीडबैक लेने और रिपोर्ट सौंपने से आगे बढ़ती नहीं दिखी। सात महीनों में एक परिवर्तन और हुआ हैं। पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह का कार्यकाल भी अब पूरा हो चुका हैं और उन्हें बदलने की अटकलें भी लग रही हैं। हिमाचल कांग्रेस के तमाम गुट अपने -अपने निष्ठावानों की तैनाती के लिए लॉबिंग में जुटे हैं। स्थिति ये हैं कि पीसीसी चीफ कौन होगा, ये सवाल इतना प्रबल हो गया कि इसके आगे जमीनी संगठन का दर्द छिप सा गया हैं। कांग्रेस की स्थिति समझनी हैं तो अंत में बात पीसीसी चीफ पद के दावेदारों की भी जरूरी हैं। प्रतिभा सिंह, मुकेश अग्निहोत्री, कुलदीप राठौर, आशा कुमारी, अनिरुद्ध सिंह , यादविंद्र गोमा, सुरेश कुमार, विनोद सुल्तानपुरी , चंद्रशेखर , संजय अवस्थी और विनय कुमार, कोई नाम रह गया हो तो हम क्षमा प्रार्थी हैं। ये तमाम वो नाम है जिन्हें पीसीसी चीफ की दौड़ में शामिल बताया जा रह है। हर गुजरते दिन के साथ कोई न कोई नया शिगूफा छिड़ जाता है, चौक -चौराहे से लेकर बंद कमरों तक सियासत के जानकार खूब चर्चा करते है। फिर यकायक नए राजनैतिक समीकरण सामने आते है, कुछ नया घटित होता है और फिर सियासी माहिर नए सिरे से अपने काम में जुट जाते है। गणित के क्रमपरिवर्तन और संयोजन सूत्र का बखूबी इस्तेमाल करते हुए माहिर फिर अपने कयासों के पिटारे से नई चर्चा को जन्म देते है और चर्चा में शामिल पुराने नाम सियासी हवा में गौते खाते रह जाते है। हिमाचल कांग्रेस पर विश्लेषण करने वालों की ये ही "मोडस ऑपरेंडी" बन गई हैं। दरअसल हकीकत ये हैं कि हिमाचल कांग्रेस को लेकर नेताओं या सूत्रों की किसी भी जानकारी में जान बची ही नहीं हैं। सो तमाम विश्लेषण भी 'बे जान' सिद्ध हो रहे हैं। इस बीच आलाकमान के कमान में रखे तीर किस-किस को घायल करेंगे, नए दौर की कांग्रेस में इसका अनुमान लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हैं। बहरहाल गुजरात मॉडल से 'संगठन सृजन' का डर जरूर कांग्रेसियों को सत्ता रहा होगा !
पिछले लंबे समय से हिमाचल भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति टलती जा रही है। हर बार कोई न कोई पेंच ऐसा फंसता है कि फैसला आगे खिसक जाता है। लेकिन अब एक बार फिर सुगबुगाहट है कि जल्द ही भाजपा को नया प्रदेश अध्यक्ष मिलेगा। हालाँकि इस बार की चर्चा में एक नया एंगल जुड़ गया है, और वो है महिला नेतृत्व को प्राथमिकता। माना जा रहा है कि भाजपा हाईकमान महिला आरक्षण के संभावित असर को देखते हुए पहले से तैयारी में जुट गया है। 2029 तक लोकसभा में 33% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो सकती हैं, और इसी रणनीति के तहत भाजपा संगठन में भी महिलाओं को अहम जिम्मेदारियां सौंपने की दिशा में सोच रही है। अगर ऐसा हुआ तो वो एक नाम जो प्रदेश अध्यक्ष पद की रेस में सबसे आगे होगा वो है राज्यसभा संसद इंदु गोस्वामी। इंदु न केवल एक प्रभावशाली महिला नेता हैं, बल्कि काँगड़ा जैसे राजनीतिक रूप से अहम ज़िले से आती हैं और पार्टी हाईकमान से भी उनका सीधा जुड़ाव माना जाता है। इंदु ब्राह्मण नेता है तो पार्टी उनके नाम पर जातीय संतुलन भी साध पाएगी। अपने करीब 45 साल के इतिहास में बीजेपी ने हिमाचल प्रदेश में अब तक 13 नेताओं को संगठन की कमान सौपी है, लेकिन इनमें एक भी महिला नहीं रही। ऐसे में इंदु गोस्वामी का नाम सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि रणनीतिक रूप से भी अहम हो सकता है। अब देखना ये होगा कि क्या भाजपा वाकई हिमाचल की कमान पहली बार किसी महिला को सौंपने जा रही है, या फिर ये चर्चा भी वक्त के साथ ठंडी पड़ जाएगी। जब इंदु को मिल गई थी अध्यक्ष बनने की बधाई इंदु गोस्वामी पार्टी आलाकमान के करीबी मानी जाती है और पहले भी प्रदेश अध्यक्ष की रेस में रही है। 2020 में तो भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्ज्ञ ने उन्हें बधाई भी दे दी थी,मगर न जाने कैसे परिस्थितियां बदली और अध्यक्ष सुरेश कश्यप बन गए। हालांकि इसके बाद इंदु को पार्टी ने राजयसभा भेजा। ऐसे में माहिर मान रहे है कि इंदु की दावेदारी को जरा भी हल्के में नहीं लिया जा सकता।
कांग्रेस के साथ -साथ लखनपाल ने हरी टोपी भी त्याग दी ! शांता कुमार, वीरभद्र सिंह और धूमल सभी ने बनाया टोपी को पहचान जयराम और सुक्खू राज में कुछ कमजोर हुआ सियासत और टोपियों के बीच का रिश्ता जब तक कांग्रेस में रहे हरी टोपी सर की शान रही, भाजपाई हुए तो टोपी का रंग भी बदल गया। बड़सर विधायक इंद्रदत्त लखनपाल सियासत का बेहद मजबूत चेहरा है। शिमला नगर निगम में पार्षद का चुनाव जीत अपनी चुनावी राजनीति शुरू की थी, और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 2012 से 2022 तक बड़सर से तीन विधानसभा चुनाव जीते और कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में गिनती रही। वीरभद्र सिंह के शगिर्द रहे और उन्हीं की तरह हरी टोपी इनकी पहचान रही। फिर 2024 में लखनपाल ने कांग्रेस से बगावत कर दी और भाजपाई हो गए। उपचुनाव जीतकर फिर विधायक भी बन गए। फिर कांग्रेस के साथ -साथ इन्होंने हरी टोपी भी त्याग दी। यानी इनके लिए टोपी का सियासी रंग भी है और सियासी निष्ठा भी। इनकी सोशल मीडिया प्रोफाइल भी इसकी तस्दीक करती है ,जब तक कांग्रेसी रहे सारी तस्वीरें हरी टोपी वाली। भाजपा का लाल होते ही लाल टोपी वाले बन गए। अतीत में झांके तो हिमाचल की सियासत में टोपियों का आगाज़ हुआ शांता कुमार के राजनैतिक आगमन के साथ। वर्ष 1977 में प्रदेश में पहली बार गैर-कांग्रेस सरकार का गठन हुआ और शांता कुमार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तब उनके सिर पर धारीदार कुल्लवी टोपी पहचान बनी। शांता की इस टोपी को खूब ख्याति मिलती रही और उनके समर्थक भी इसी टोपी के रंग में रंगते चले गए। जब तक शांता कुमार प्रदेश की राजनीति का केंद्र बिंदु रहे तब तक इस टोपी ने प्रदेश में अपना वर्चस्व बनाए रखा। फिर दौर आया वीरभद्र सिंह और बुशहरी टोपी का। वर्ष 1984 में वीरभद्र सिंह पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने और साथ ही उनकी हरे रंग की बुशहरी टोपी कांग्रेस की पहचान बन गई। आज भी काफी हद तक हरी टोपी को कांग्रेस से जोड़कर देखा जाता है। वर्ष 1998 में प्रेम कुमार धूमल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तब से मैरून रंग की टोपी ने अपनी पहचान बनाई। प्रो प्रेम कुमार धूमल के दौर में लाल टोपी का मतलब भाजपा बन गया। हालांकि जयराम ठाकुर और सुखविंद्र सिंह सुक्खू के दौर में ये रिश्ता कमजोर तो पड़ा, पर आईडी लखनपाल जैसे कई नेता अब भी टोपियों के सियासी रंगों के ध्वजवाहक बने हुए है।
77 सालों के इतिहास में अब तक कांग्रेस को हिमाचल में 32 प्रदेश अध्यक्ष मिले हैं और 24 नेताओं ने ये पद संभाला है। दिलचस्प बात ये है कि इस फेहरिस्त में पति-पत्नी की दो जोड़ियां भी है। ये जोड़ियां है डॉ यशवंत सिंह परमार व सत्यवती डांग, और वीरभद्र सिंह व प्रतिभा सिंह की। इन चारों नेताओं ने पीसीसी अध्यक्ष का दायित्व संभाला है। प्रथम मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार 28 जुलाई 1948 को हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पहले अध्यक्ष बने थे और कुल तीन मर्तबा इस पद पर रहे। वहीँ उनकी पत्नी सत्यवती डांग 18 जनवरी 1964 को पीसीसी अध्यक्ष बनी और 13 दिसंबर 1969 तक इस पद पर रही। हालांकि अध्यक्ष रहते वक्त उनका डॉ परमार के साथ विवाह नहीं हुआ था। राजनैतिक में साथ रहते दोनों के बीच प्रेम हुआ और साल 1974 में सत्यवती डांग, डॉक्टर परमार की दूसरी पत्नी बनी। वहीँ आपातकाल के बाद कांग्रेस के बुरे दौर में 4 अक्टूबर 1977 को वीरभद्र सिंह पहली बार हिमाचल पीसीसी चीफ बने और कुल चार बार उन्होंने ये पद संभाला। वे इस पद पर सबसे ज्यादा बार रहने वाले व्यक्ति भी है। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह भी 26 अप्रैल 2022 को पीसीसी चीफ बनी। इत्तेफ़ाक़ ये भी हैं कि प्रतिभा सिंह भी वीरभद्र सिंह की दूसरी पत्नी है। इस जोड़ियों के बीच एक समानता और है। डॉ वाईएस परमार और वीरभद्र सिंह, दोनों नेता हिमाचल के मुख्यमंत्री भी रहे है। वहीँ सत्यवती डांग जहाँ राज्यसभा से संसद पहुंची, तो प्रतिभा सिंह तीन बार लोकसभा सांसद रही है।
पंडित संतराम और उनके पुत्र सुधीर शर्मा, दोनों अलग -अलग दौर में वीरभद्र सरकार में रहे मंत्री सुधीरअब भाजपाई, लेकिन उनके गुरु आज भी वीरभद्र सिंह छ बार हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह की छत्रछाया में सैकड़ों नेताओं ने राजनीति के गुर सीखे। उनकी कैबिनेट में कई पीढ़ियों के नेता शामिल रहे है। दिलस्चप बात ये है कि इनमे एक पिता-पुत्र की जोड़ी भी शामिल है, पंडित संतराम और उनके बेटे सुधीर शर्मा। 8 अप्रैल 1983 को वीरभद्र सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने थे। तब पंडित संतराम ठाकुर रामलाल की कैबिनेट में बतौर शिक्षा मंत्री शामिल थे। वीरभद्र सरकार में भी उनका मंत्रिपद बरकरार रहा। फिर साल 1985 में वीरभद्र सरकार के रिपीट होने के बाद वे अगले पांच साल तक कृषि मंत्री रहे। 1993 में वीरभद्र सिंह जब वापस सत्ता में लौटे तो पंडित संतराम को वन मंत्री का दायित्व दिया गया। उस दौरे में हिमाचल प्रदेश की राजनीति में पंडित संत राम की तूती बोला करती थी और पंडित जी, वीरभद्र सिंह के बेहद करीबी थे। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की जब 30 जून 1998 को पंडित संतराम का निधन हुआ तो वीरभद्र सिंह ने कहा था कि संतराम का निधन ऐसा है, जैसे उनके शरीर से बाजू का अलग हो जाना। पंडित संत राम की गिनती वीरभद्र सिंह के खास सिपहसालारों में में होती थी। पंडित संतराम के निधन के बाद उनकी सीट बैजनाथ से किस्मत आजमाई उनके पुत्र सुधीर शर्मा ने। हालांकि शुरुआत हार से हुई लेकिन सुधीर ने इसके बाद पीछा मुड़ कर नहीं देखा। 2003 और 2007 में बैजनाथ से विधायक चुने गए और ये सीट आरक्षित होने के बाद 2012 के विधानसभा चुनाव में धर्मशाला जाकर चुनाव लड़ा और जीता भी। पिता पंडित संतराम की तरह ही सुधीर भी वीरभद्र सिंह के करीबी हो गए और 2012 में जब सरकार बनी तो कैबिनेट मंत्री भी बन गए। तब वीरभद्र सरकार में सुधीर को नंबर दो माना जाता था। हालांकि वीरभद्र सिंह के निधन के बाद कांग्रेस में बहुत कुछ बदला। इस बीच सुधीर भी अब निष्ठा बदल कर भाजपाई हो चुके है। हालांकि भाजपा में जाने के बावजूद सुधीर अब भी वीरभद्र सिंह को अपना राजनैतिक गुरु मानते है।
बीजेपी को अब भी पहली महिला अध्यक्ष का इन्तजार 28 जुलाई 1948 को डॉ. यशवंत सिंह परमार हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी (पीसीसी) के पहले अध्यक्ष बने थे। वर्तमान में प्रतिभा सिंह कांग्रेस की 32वीं प्रदेश अध्यक्ष हैं। पिछले 77 वर्षों में कुल 24 नेताओं ने प्रदेश कांग्रेस कमेटी का नेतृत्व किया है, जिनमें पांच महिलाएं शामिल हैं। कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष सत्यवती डांग 18 जनवरी 1964 से 13 दिसंबर 1969 तक इस पद पर रहीं। इसके बाद 7 जुलाई 1979 से 18 अप्रैल 1983 तक सरला शर्मा पीसीसी अध्यक्ष रहीं। तीसरी महिला अध्यक्ष विद्या स्टोक्स थीं, जिन्होंने 17 दिसंबर 2000 से 28 नवंबर 2004 तक पार्टी की कमान संभाली। इसके बाद 25 जुलाई 2005 से 7 जुलाई 2008 तक विप्लव ठाकुर प्रदेश अध्यक्ष रहीं। वर्तमान अध्यक्ष प्रतिभा सिंह 26 अप्रैल 2022 से पद पर हैं। हालांकि, अब चर्चा है कि उन्हें फिर से मौका मिलेगा या नया नेतृत्व आएगा। भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो करीब 45 साल के अपने इतिहास में पार्टी ने हिमाचल प्रदेश में अब तक 13 नेताओं को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। इनमें से कुछ एक बार, कुछ दो बार और कुछ तीन बार इस पद पर रहे हैं। लेकिन अब तक भाजपा ने किसी महिला को प्रदेश अध्यक्ष बनने का मौका नहीं दिया है। दिलचस्प बात यह है कि जल्द ही दोनों ही पार्टियों यानी कांग्रेस और भाजपा में नए प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त होने वाले हैं। कांग्रेस में मौजूदा अध्यक्ष प्रतिभा सिंह फिर से दावेदार हैं, जबकि भाजपा से इंदु गोस्वामी का नाम चर्चा में है। ऐसे में दोनों पार्टियों पर सबकी निगाहें टिकी हैं ।
सुधीर ने सोशल मीडिया को बनाया सियासी असला दागने का लांच पैड ! हर्ष महाजन कब ब्लफ करते है और कब हकीकत बयां, समझना मुश्किल ! हिमाचल में सत्तारूढ़ कांग्रेस पर भाजपा लगतार हमलावर है, पर 'अपनों' के वार कांग्रेस पर ज्यादा 'धारदार' दिख रहे है। दरअसल, मुद्दा कोई भी हो, जितना तीखे प्रहार कांग्रेस पर पुराने मूल भाजपाई नहीं करते, उसे कहीं ज्यादा वो नेता करते है जो कभी कांग्रेस के अपने थे। हर्ष महाजन और सुधीर शर्मा; खासतौर पर ये दो वो चेहरे है जो दशकों कांग्रेस में रहे, फिर भाजपाई हुए और अब ही अपनी पुरानी पार्टी के लिए सबसे बड़ा सरदर्द भी बन गए। भाजपा में अगर नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर को छोड़ दे, तो पुराने नेताओं में एकाध ही ऐसे चेहरे दीखते है जो हर मुद्दे पर और पूरी शिद्द्त से, कांग्रेस को घेरते भी है और असरदार भी दीखते है। बाकी तो मानो रस्म अदायगी चली हो। निसंदेह इसका कारण नेताओं की क्षमता नहीं, बल्कि भाजपा के भीतर के अपने कारण है। इस पर विस्तृत चर्चा फिर कभी। पर फिलहाल भाजपा के सियासी हमलो को जो धार 'पुराने वाले' भाजपाई नहीं दे पा रहे, उसकी कमी ये 'नए वाले' जरूर पूरी कर रहे है। यदा-कदा प्रदेश के मुद्दों पर बोलने वाले हर्ष महाजन, जब भी बोलते है सियासी पारा चरम पर होता है। हर बार नया दावा और वार में ज्यादा धार। दिलचस्प बात ये है की हर्ष महाजन कब ब्लफ कर रहे है और कब हकीकत बयां कर रहे है, इसे समझना मुश्किल है। खासतौर से असंभव दिख रहा राज्यसभा चुनाव जीतकर उन्होंने साबित किया है कि उन्हें जरा भी हल्के में लेना कितना भारी साबित हो सकता है। ये कहना गलत नहीं होगा कि हर्ष महाजन जब भी मीडिया से मुखातिब होते है, कांग्रेस को खज्जल (व्यथित ) करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। किसी भी नाम का जिक्र करते है और मानो कांग्रेस को काम पर लगा देते है। इसी तरह सुधीर शर्मा की बात करें तो सुक्खू सरकार के खिलाफ अमूमन हर मसले पर उनकी प्रतिक्रिया चर्चा में रहती है, कभी अंदाज के चलते तो कभी सटीक शब्द बाणों के चलते। सोशल मीडिया को एक किस्म से उन्होंने सियासी असला दागने का लांच पैड बना लिया है। सुधीर कोई मौका नहीं छोड़ते और लगभग हर बार, वार निशाने पर होता है। कब फिरकी लेनी है और कब आक्रमक होना है, इस सियासी अदा के वो माहिर है। इन दोनों नेताओं के अलावा राजेंद्र राणा भी लगातार कांग्रेस पर हमलावर दीखते है। हालाँकि राणा भाजपा से ही कांग्रेस में आये थे। उधर कांग्रेस से काउंटर अटैक एक जिम्मा मुख्य तौर पर खुद सीएम सुक्खू संभालते दीखते है। वे भाजपा के पांच गुट भी गिनाते है, और भाजपा में हावी पुराने कोंग्रेसियों का जिक्र कर पुराने भाजपाइयों से सियासी ठिठोली भी करते है।
कभी दोस्त थे, अब सियासत के दुश्मन नंबर -1 ▪️क्या हकीकत और क्या फसाना, हर्ष महाजन के बयानों को बुझ पाना मुश्किल ! ▪️सुक्खू भी हर सियासी कौशल से संपन्न, हर वार पर कर रहे जबरदस्त पलटवार दोनों पुराने दोस्त और अब हिमाचल की सियासत के दुश्मन नंबर 1 ; सुखविंद्र सिंह सुक्खू और हर्ष महाजन। एक दूजे के खिलाफ इन दोनों दिग्गज नेताओं के सियासी बाणों ने एक बार फिर सियासी पारा चढ़ा दिया है। पिछले साल राज्यसभा चुनाव में हर्ष महाजन ने सीएम सुखविंद्र सिंह सुक्खू और कांग्रेस को तगड़ा झटका देकर असंभव जीत को संभव में बदल दिया था। ये हर्ष महाजन ही थे जो कांग्रेस के बागियों और भाजपा के बीच की धूरी माने जाते है। हर्ष महाजन अब भी जब कोई ब्यान देते है, तो उसे हल्के में लेने की भूल शायद ही कोई करता हो। खासतौर से कांग्रेस और उनके पुराने मित्र। हर्ष महाजन और सुक्खू, दोनों युवा कांग्रेस से निकले है, पुराने साथी है। हालांकि दोनों अलग गुटों में रहे, लेकिन दोनों के रिश्तों कभी इस तरह तल्खियां नहीं दिखी, जैसी अब दिख रही है। ये भी सच है कि कोई भी मुद्दा हो, जितना दर्द कांग्रेस को पुराने भाजपाई नहीं देते, उसे कहीं ज्यादा वो नेता देते है जो कभी कांग्रेस के अपने थे, चाहे हर्ष महाजन हो, या सुधीर शर्मा। फिलहाल हर्ष महाजन की ही बात करते है। 'डूब मरना चाहिए, नेताओं को भी और अफसरों को भी' ; विमल नेगी प्रकरण को लेकर भी जितने तल्ख़ शब्दों में हर्ष महाजन ने सुक्खू सरकार पर वार किया, शायद ही ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किसी और नेता ने किया हो। वार पुराने दोस्त हर्ष महाजन ने किया था, तो ठेस भी गहरी पहुंची। नतीजन सीएम ने दिल्ली से लौटकर विमल नेगी मामले में जब पत्रकार वार्ता की, तो विशेष तौर पर हर्ष महाजन पर पलटवार भी किया। उन्हें MLA खरीद कर नया-नया बना MP बता दिया और भ्रष्टाचार में लिप्त भी। बुधवार को फिर हर्ष महाजन हमलावर हुए। पिछले ब्यान से बिल्कुल अलग अंदाज में। हंसते- हंसते हर्ष महाजन ने सीएम सुक्खू को दोस्त भी बताया, उनके सियासी दर्द को समझने की बात कह चुटकी भी ली, और अपने ही अंदाज में मूर्छित करने की सियासी चेतावनी भी दे गए। उधर कुल्लू पहुंचे CM सुक्खू ने भी जबरदस्त पलटवार किया। सीएम ने तंज कसते हुए कहा कि हर्ष महाजन ने भाजपा का अपहरण कर लिया है। जो पार्टी के नहीं हुए, अच्छा है आज भाजपा में है। बहरहाल, इन दोनों दिग्गजों के वार -पलटवार से सियासी पारा हाई है। हर्ष महाजन का कौन सा ब्यान फसाना है और कौन सा हकीकत, इस बुझ पाना मुश्किल है। तो सीएम सुक्खू भी हर सियासी कौशल से संपन्न है। दोनों सियासत के महारथी है, एक डाल -डाल तो दूजा पात -पात !
कुटलैहड़ भाजपा के भीतर के शीत युद्ध के ट्रेलर बराबर आ रहे सामने ! जिन देवेंद्र भुट्टों ने 2022 में अर्से बाद भाजपा का सबसे मजबूत किला माने जा रहे कुटलैहड़ को फ़तेह किया था, जो भाजपा की आँखों की किरकिरी थे, वो अब आँखों का नूर हो गए है। वहीँ जो वीरेंद्र कँवर अर्से तक पार्टी का फेस रहे, चार बार विधायक बने, मंत्री रहे, अब बदली स्थिति-परिस्तिथि में दरकिनार से दिख रहे है, या यूँ कहिये कटे -कटे से है। ये वहीँ वीरेंद्र कँवर है जिन्होंने 2017 में प्रो धूमल के चुनाव हारने पर अपनी सीट छोड़ने की पेशकश कर दी थी। जो आज भी धूमल के निष्ठावान है। तो क्या धूमल से इसी निष्ठा से कीमत उन्होंने चुकाई है, या कुटलैहड़ की इस सियासी फिल्म का क्लाइमेक्स कुछ और होगा, अभी से इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। पर कुटलैहड़ भाजपा के भीतर के शीत युद्ध के ट्रेलर जरूर बराबर सामने आ रहे है। बुधवार को कुटलैहड़ में भाजपा की तिरंगा यात्रा थी जिसमें त्रिलोक जम्वाल भी पहुंचे थे। भाजपा के वरिष्ठ नेता हो चुके, पूर्व विधायक देवेंद्र कुमार भुट्टो की अगुवाई में इस यात्रा का आयोजन हुआ। पर पुराने वाले वरिष्ठ नेता और पूर्व विधायक वीरेंद्र कंवर गैर हाजिर रहे। पर अगले ही दिन वीरेंद्र कंवर की ओर से भी तिरंगा यात्रा निकाल दी गई, दो सामाजिक संगठनो के बैनर तले। दरअसल इत्तेफ़ाक़ ये है कि कुटलैहड़ में भाजपा के दो मंडल है और ये सामाजिक संगठन भी इन दोनों क्षेत्रों से है। अब देखने वाले इस तिरंगा यात्रा को सियासी यात्रा के तौर पर भी देख रहे है। हम तो ये कहेंगे "जिन की रही भावना जैसी, तिरंगा यात्रा देखी तिन तैसी"।
पाटिल के संभावित दौरे के बीच फिर कयासों का सिलसिला तेज जय हिंद यात्रा को लेकर अगले सप्ताह हिमाचल आ सकती है रजनी पाटिल प्रदेश कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल अगले सप्ताह हिमाचल आ सकती है। ये दौरा कांग्रेस की प्रस्तावित 'जय हिंद' यात्रा को लेकर होगा, पाटिल के आने की ख़बरों के बीच एक बार फिर संगठन गठन को लेकर हलचल तेज है। माहिर मान रहे है कि पाटिल के दौरे से पहले अगर आलाकमान पीसीसी चीफ को लेकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है, तो संभव है जमीनी संगठन के गठन की प्रक्रिया भी पाटिल के दौरे के साथ शुरू हो। किन्तु अगर पीसीसी चीफ को लेकर पेंच अटका रहा, तो मुमकिन है अभी इन्तजार कायम रहे। आपको बता दें 6 नवंबर 2024 को कांग्रेस आलाकमान ने प्रदेश, जिला व सभी ब्लॉक इकाइयां भंग कर दी थी। तब से प्रतिभा सिंह ही संगठन की इकलौती पदाधिकारी है। हालांकि इस बीच उनका तीन साल का कार्यकाल भी पूर्ण हो गया है, ऐसे में उन्हें एक्सटेंशन मिलेगा या नए पीसीसी चीफ की ताजपोशी होगी, इसे लेकर भी कयासों का सिलसिला जारी है। कांग्रेस संगठन के गठन में हो रहे इस विलम्ब को लेकर आम कार्यकर्ताओं से लेकर मंत्रियों तक की हताशा दिखी है। बीते दिनों बिलासपुर में पीसीसी चीफ को कार्यकर्ताओं की नारजगी झेलनी पड़ी थी, तो मंत्री चौधरी चंद्र कुमार तो कांग्रेस संगठन को पेरालाइज़ड तक कह चुके है। खुद पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह भी इस विलम्ब को लेकर खुलकर निराशा व्यक्त करती रही है। बावजूद इसके अब तक आलाकमान ने संगठन के गठन को हरी झंडी नहीं दी है। बहरहाल प्रदेश प्रभारी पद सँभालने के बाद ये रजनी पाटिल का तीसरा दौरा होगा। फरवरी के अंत में हुए अपने पहले पहले दौरे में पाटिल ने 15 दिन में संगठन के गठन का वादा किया था,लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अब फिर रजनी पाटिल के दौरे को लेकर कयासों का बाजार गर्म है, और कांग्रेस के निष्ठावानों को उम्मीद है कि इन्तजार जल्द खत्म होगा।
सुक्खू-अग्नहोत्री की मुलाकात क्या बर्फ पिघलायेगी ! इन्तजार की इन्तेहाँ : साढ़े 6 महीने से संगठन नहीं, अब पीसीसी चीफ को लेकर अटकलें ! सीएम सुक्खू के सर पर आलाकमान का हाथ कांग्रेस का हाल तय करेगी अग्नहोत्री की सियासी चाल पीसीसी चीफ का पद गया, तो क्या रहेगा होलीलॉज का रुख ? अलबत्ता सियासत में मन के भेद तो तस्वीरों से जाहिर नहीं होते, लेकिन मतभेद की अटकलों को ख़ारिज करने के लिए नेता अक्सर तस्वीर का इस्तेमाल करते है। ऐसा ही आज सीएम सुखविंद्र सिंह सुक्खू और डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री ने भी किया है। दरअसल, कुछ वक्त से इन दोनों दिग्गज नेताओं के बीच तकरार की खबरें आ रही थी। खासतौर से अग्निहोत्री की एक सोशल मीडिया पोस्ट के बाद अटकलों का बाजार गर्म था। इस बीच डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री की चोटिल बेटी का कुशलक्षेम जाने सीएम सुखविंद्र सिंह सुक्खू उनके निवास पर पहुंचे। फिर बाहर निकल दोनों नेताओं ने एक साथ तस्वीर भी खिंचवाई। क्या ये मुलाकात बर्फ पिघलायेगी, ये तो वक्त बताएगा, लेकिन तरह -तरह की अटकलों के बीच सामने आई ये तस्वीर कांग्रेस के निष्ठावानों के लिए जरूर राहत भरी है। मौजूदा वक्त में हिमाचल में कांग्रेस बेहद चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रही है। दरअसल, अंतर्कलह के चलते आलाकमान के फैसले न ले पाने की अक्षमता खुलकर उजागर हुई है। प्रदेश में करीब साढ़े छ महीने से कांग्रेस बेसंगठन है, ढाई साल बीत जाने के बावजूद कैबिनेट में एक मंत्री पद रिक्त है, और कई अहम बोर्ड निगमों में अब तक नियुक्तियां नहीं हो पाई है। कारण है कांग्रेस में कई प्रभावी खेमों का होना। जगजाहिर है कांग्रेस मौटे तौर पर तीन गुटों में बंटी है, सीएम सुक्खू का खेमा, डिप्टी सीएम मुकेश अग्नहोत्री का खेमा और पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह का खेमा। इन तीनों के बीच संतुलन बनाना आलाकमान के सामने बड़ी चुनौती है और ये ही कारण है जरूरी फैसले लेने में भी इन्तजार की इन्तेहाँ हो गई है। वहीँ, बीत कुछ वक्त में पीसीसी चीफ को बदले जाने की भी सुगबुगाहट है। अटकलें थी कि सुक्खू खेमा डिप्टी सीएम को संगठन की कमान देकर सेटल करवाने की फ़िराक में था। इस बीच पहले हेलीकाप्टर लेकर मंत्री अनिरुद्ध सिंह का हरोली पहुंचना और फिर दिल्ली गए मुकेश अग्नहोत्री की सोशल मीडिया पोस्ट ने सियासी पारा हाई कर दिया। पाकिस्तान से हुई तकरार के चलते कुछ वक्त के लिए कांग्रेस के इस गृह युद्ध से लाइमलाइट हटी जरूर, मगर अब भी जमीन पर कुछ ख़ास बदला नहीं दिखता। हाँ, गुजरते वक्त के साथ पीसीसी चीफ और कैबिनेट की कुर्सी के दावेदारों की फेहरिस्त जरूर लम्बी होती जा रही है, पर हकीकत ये है कि आलाकमान के मन ठोह किसी को नहीं। बहरहाल, मान रहे है कि आलाकमान का हाथ पूरी तरह सीएम सुक्खू के सर पर है। पिछले वर्ष हुई बगावत के बाद हुए उपचुनाव में सुक्खू के नेतृत्व में पार्टी के शानदार प्रदर्शन के बाद आलाकमान के मन में उन्हें लेकर कोई संदेह नहीं है। सो कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ तो सीएम सुक्खू ही पार्टी का चेहरा रहेंगे। दूसरा, आने वाले वक्त में मुकेश अग्नहोत्री की सियासी चाल कांग्रेस का हाल तय करेगी। जब विपक्ष पर हावी होना हो तो निसंदेह अग्निहोत्री का कोई सानी नहीं। मजबूत जनाधार वाले कुछ विधायक भी खुलकर उनके साथ है। चर्चा ये भी है कि अग्निहोत्री को साधने के लिए दोहरी जिम्मेदारी दी जा सकती है, यानी वे डिप्टी सीएम भी बने रहेंगे और उन्हें पीसीसी चीफ भी बनाया जा सकता है। जिक्र होलीलॉज का भी जरूरी है। अगर प्रतिभा सिंह पीसीसी चीफ नहीं रहती, तो होलीलॉज का रुख क्या रहता है, ये देखना भी दिलचस्प होगा।
15 मई की दोपहर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का एक बयान आया, जिसमें उन्होंने एप्पल के CEO टिम कुक को भारत में iPhone का प्रोडक्शन बढ़ाने को लेकर हड़का दिया। कुछ ही देर में ट्रम्प के इस बयान पर प्रतिक्रिया आई एक्टर टर्न्ड पॉलिटिशियन कंगना रनौत से । कंगना ने अपनी X पोस्ट में ट्रम्प पर तंज कसा। हालाँकि समझ बस इतना आया कि 'ट्रम्प से महान हमारे पीएम मोदी है। बिना शक ट्रंप एक 'अल्फा मेल' हैं, लेकिन हमारे पीएम सबके बाप हैं। अभी माहिर कंगना के इस बयान को पूरी तरह डिकोड करने की जद्दोजहद में लगे हुए थे, इस बीच कंगना ने इस पोस्ट को डिलीट कर दिया। फिर कुछ देर बाद कंगना ने एक और पोस्ट लिख इसका कारण भी बता दिया। कंगना ने लिखा - "राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने मुझे फोन किया और कहा कि मैं वह ट्वीट डिलीट कर दूं जिसमें मैंने कहा था कि ट्रंप ने एप्पल के सीईओ टिम कुक से भारत में मैन्युफैक्चरिंग न करने को कहा था। मुझे खेद है कि मैंने अपनी एक निजी राय पोस्ट कर दी। निर्देश के अनुसार, मैंने तुरंत उसे इंस्टाग्राम से भी हटा दिया। " यानी कंगना की भाषा उनकी अपनी पार्टी को भी समझ नहीं आई और खुद बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को कंगना को फोन करना पड़ गया। वैसे यह पहला मामला नहीं है जब कंगना के बयानों पर काबू पाने के लिए आलाकमान को आगे आना पड़ा हो। इस बीच हिमाचल में कंगना के चिर प्रतिद्वंदी विक्रमादित्य सिंह ने भी इस मामले पर अपनी प्रतिक्रिया देकर फिरकी ली हैं। उन्होंने कह इस मामले पर वो उनकी बड़ी बहन यानी कंगना के साथ खड़े है। विक्रमादित्य सिंह ने लिखा - " डोनाल्ड ट्रम्प सीधे सीधे ऐपल के CEO टिम कुक को धमका रहें है की भारत मैं ऐपल की प्रोडक्शन नहीं होनी चाहिए, सवाल है की कोई कुछ बोल क्यों नहीं रहा ? हमारी बड़ी बहन ने कुछ बोलने की कोशिश की मगर उन्हें भी चुप करवा दिया गया, हम इस विषय पर उनके साथ खड़े हैं। हम तो उनके परम मित्र है ना ? "
हरियाणा में 12 साल से नहीं है जिला और ब्लॉक अध्यक्ष क्या हिमाचल में कांग्रेस हरियाणा की पुर्नावृति चाहती है ? वहीँ हरियाणा जहाँ सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ गजब की एंटी इंकम्बैंसी के बावजूद कांग्रेस बुरी तरह विधानसभा चुनाव हारी है। जहाँ लगातार तीन विधानसभा चुनाव पार्टी हार चुकी है और अब भी सबक लेती नहीं दिख रही। यदि ऐसा नहीं है तो हिमाचल में पार्टी हरियाणा की राह पर क्यों बढ़ती दिख रही है ? हरियाणा में लगभग 12 सालों से कांग्रेस के जिला और ब्लॉक अध्यक्षों की नियुक्ति नहीं हुई है। इस बीच देश में तीन आम और राज्य में तीन असेंबली चुनाव हो गए, कई प्रदेश कई प्रदेशाध्यक्ष व प्रभारी बदल गए, लेकिन कोई भी संगठन की नियुक्तियां नहीं करवा पाया। इसकी एक बड़ी वजह मानी जाती है कि प्रदेश के वजनदार नेताओं का होना और इन नेताओं के आपसी मतभेद। इसके चलते कभी संगठन पदाधिकारियों सर्वमान्य सूची बन ही नहीं पाई। अब हिमाचल कांग्रेस कार्यकारणी के गठन में देरी तो ये ही इशारा देती है कि कांग्रेस ने हरियाणा से कोई सबक नहीं लिया है। हिमाचल प्रदेश में 6 नवंबर से कांग्रेस संगठन भंग है। साढ़े पांच महीने में भी आलाकमान नए संगठन को हरी झंडी नहीं दे पाया है। दरअसल हिमाचल में भी कांग्रेस का मर्ज हरियाणा वाला ही है, गुटों में बंटे बड़े और वजनदार चेहरे। यहाँ भी अब तक आलाकमान फोई फैसला नहीं ले पाया। कांग्रेस के मंत्रियों सहित कई बड़े नेता सवाल उठा चुके है, आलाकमान को चेता चुके है, लेकिन अब तक नतीजा रहा है सिफर। हैरत है कि कांग्रेस में अब भी कोई जल्दबाजी नहीं दिखती, या यूँ कहे कि शायद आलाकमान इस स्थिति के आगे बेबस है। बहरहाल कारण जो भी इस स्थिति में हिमाचल कांग्रेस का आम कार्यकर्त्ता जरूर मायूस दिख रहा है। इस बीच दिलचस्प बात तो ये है बीते कुछ वक्त में कांग्रेस आलाकमान जिला अध्यक्षों को ताकतवर करने के संकेत देता रहा है। दिल्ली में बाकायदा राहुल गाँधी और खरगे सहित बड़े नेता जिला अध्यक्षों की वर्कशॉप ले चुके है। पर विडम्बना देखिये कि हरियाणा और हिमाचल जैसे राज्यों में जिला अध्यक्ष ही नहीं है।
क्या आलाकमान का फरमान भी लाएगी पाटिल ? अगर पीसीसी चीफ बदला जाना है तो और लम्बा खींच सकता है इन्तजार खबर आ रही है कि 23 अप्रैल यानी बुधवार को प्रदेश कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल शिमला आ सकती है। बताया जा रहा है कि इस दौरान वे नेशनल हेराल्ड मामले पर तो पार्टी को डिफेंड करेगी ही, लेकिन मुमकिन है उनके आगमन के साथ संगठन का इंतजार भी खत्म हो जाए। हिमाचल में कांग्रेस साढ़े पांच महीने से बगैर संगठन चल रही है। अब चर्चा है कि पाटिल कुछ ज़िलों में संगठन का ऐलान कर सकती है, जहाँ आम सहमति बन चुकी है। हालांकि इसे लेकर बड़े नेता आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं बोल रहे और ये महज कयास है। इस बीच कुछ माहिर ये भी मानते है कि जब तक पूर्ण सहमति नहीं बनती कार्यकारिणी की घोषणा नहीं होगी। ऐसे में संभव है पहले आलाकमान प्रदेश कार्यकारिणी की घोषणा करें और फिर जिला और ब्लॉक इकाइयों का गठन हो। वहीं यदि प्रदेश अध्यक्ष को बदला जाना है तो ये इन्तजार अभी और लम्बा खींच सकता है। बहरहाल प्रदेश प्रभारी बनने के बाद ये रजनी पाटिल का दूसरा दौरा होगा। इससे पहले दो मार्च को शिमला में पाटिल ने पंद्रह दिन में संगठन बनने का दावा किया था। अब डेढ़ महीने से ज्यादा बीत जाने के बाद भी कांग्रेस कोई निर्णय नहीं ले सकी है। ऐसे में पाटिल के दूसरे दौरे से फिर उम्मीदें जरूर जगी है।
अटकलें जारी, पर आसान नहीं सबसे बड़े एससी और ओबीसी चेहरे को ड्राप करना मुमकिन है तीन मंत्री ड्राप हो, कैबिनेट में दिखे चार नए चेहरे क्या अवस्थी की होगी कैबिनेट में एंट्री ? बुटेल, भवानी और संजय रतन भी कैबिनेट की कतार में बढ़ सकता है गोमा के पोर्टफोलियो का वजन क्या सुक्खू कैबिनेट से 80 पार वाले नेता बाहर होंगे, इसे लेकर अटकलों का बाजार गर्म है। दरअसल सरकार बने करीब 28 महीने बीत जाने के बाद भी कैबिनेट में एक स्थान खाली है। इस बीच चर्चा है कि अब विस्तार के साथ -साथ कैबिनेट में फेरबदल भी होगा। कुछ मंत्री ड्राप हो सकते है और नए चेहरों की एंट्री होगी। साथ ही मौजूदा कुछ मंत्रियों के पोर्टफोलियो भी बदले जा सकते है। बीते दिनों गुजरात में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में पार्टी ने नए और युवा चेहरों को तरजीह दी है। इसके बाद से ही कयास है कि हिमाचल कैबिनेट में भी इसका असर दिखेगा। 80 पार कर चुके दो मंत्री, कर्नल धनीराम शांडिल और चौधरी चंद्र कुमार को कैबिनेट से ड्राप कर नए चेहरों को जगह दी जा सकती है। हालांकि ये मजह कयास है, लेकिन इस सम्भावना को माहिर ख़ारिज नहीं कर रहे। साथ ही चर्चा है कि क्षेत्रीय संतुलन सुनिश्चित करने के लिए जिला शिमला से एक मंत्री भी ड्राप हो सकते है। ऐसे में कैबिनेट में कुल चार नए चेहरे दिख सकते है, जिनमें मुख्य तौर पर शिमला संसदीय हलके से संजय अवस्थी, मंडी संसदीय क्षेत्र से सूंदर सिंह ठाकुर या अनुराधा राणा और कांगड़ा संसदीय हलके से आशीष बुटेल, संजय रतन और भवानी पठानिया के नामों की चर्चा है। बात अस्सी पार कर चुके दोनों मंत्रियों की करें तो कर्नल धनीराम शांडिल एससी समुदाय से आते है और और हिमाचल कांग्रेस का सबसे बड़ा एससी चेहरा है। साथ ही दस जनपथ का हाथ भी उनके सर पर है। ऐसे में उन्हें ड्राप करना आसान नहीं होगा। इसी तरह चौधरी चंद्र कुमार सबसे बड़ा ओबीसी चेहरा है। हालाँकि कई मुद्दों पर उनका मुखर होना और पुत्र नीरज भारती की सरेआम नाराजगी के बाद कुछ भी मुमकिन है। बहरहाल ये महज कयास है, और सियासत में कुछ भी मुमकिन है। इस बीच चर्चा ये भी है की कुछ मंत्रियों के पोर्टफोलियो बदले जा सकते है। विशेषकर एससी समुदाय से आने वाले दूसरे मंत्री है यादविंद्र गोमा के पास कोई वजनदार महकमा नहीं है। माहिर मान रहे है कि कैबिनेट विस्तार के बाद गोमा के पोर्टफोलियो का वजन बढ़ सकता है।
या कुछ और मसला, चर्चाओं का बाजार गर्म 1 घंटे तक गुलमोहर में दोनों नेताओं में हुई बंद कमरे में वार्ता आखिर क्यों निजी हेलीकॉप्टर लेकर मुकेश के पास पहुंचे अनिरुद्ध सिंह, अहम सवाल हिमाचल प्रदेश की राजनीति में लगातार ऐसे घटनाक्रम हो रहे हैं जो चर्चाओं के बाजार को गर्म करते हैं ।वीरवार को ऊना में ऐसा ही राजनीतिक घटनाक्रम हुआ जिसकी और बरबस सबका ध्यान गया। राजनीतिक रूप से इस घटनाक्रम को कई नजरिए से देखा जा रहा है। हिमाचल प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री जब ऊना में सोनिया गांधी व राहुल गांधी के समर्थन में हो रही रैली को संबोधित कर रहे थे, तब इस समय निजी हेलीकॉप्टर में विशेष रूप से ग्रामीण विकास मंत्री अनिरुद्ध सिंह ऊना पहुंचे। क्या मुख्यमंत्री के संदेश वाहक या दूत बनकर आये थे अनिरुद्ध, या कोई और अहम मसला है ? फिलहाल अटकलों का बाजार गर्म है। मंत्री अनिरुद्ध सिंह के हेलीकॉप्टर की लैंडिंग पुलिस लाइन जलेडा में करवाई गई और फिर मंत्री को होटल गुलमोहर तक लाया गया। करीब एक घंटे तक गुलमोहर में प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री व ग्रामीण विकास मंत्री अनिरुद्ध सिंह के बीच वार्तालाप हुआ। यह गुप्त वार्तालाप बंद कमरे में हुआ। दोनों नेताओं के बीच क्या बात हुई यह तो पता नहीं, लेकिन कयास इस बात को लेकर लगाए जा रहे हैं कि आखिर ऐसी क्या इमरजेंसी थी कि अनिरुद्ध सिंह को हेलीकॉप्टर में ऊना पहुंचकर उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री से मुलाकात करनी पड़ी। क्या राजनीतिक मायने इस मुलाकात के हैं ? चर्चा होना लाजमी है कि आखिर हेलीकॉप्टर में ऊना पहुंचकर ऐसी क्या जरूरी मुलाकात हुई है। दोनों नेताओं के करीबियों से जब बात की गई तो उन्होंने कहा कि ये एक सामान्य मुलाकात थी। हालांकि दोनों ही नेताओं से इस मुलाकात को लेकर कोई बात नहीं हो पाई। बहरहाल कयासों का बाजार गर्म है। माना जा रहा है कि कुछ तो कांग्रेस व सरकार की राजनीति में पक रहा है जिसके चलते यह मुलाकात हुई है और इसके परिणाम आने वाले दिनों में देखे जा सकते हैं। क्या ये सरकार व संगठन में बदलाव का संकेत है, ये सवाल बना हुआ है। (ममता भनोट )
देहरा में भाजपा के डिसिप्लिन के दावों का खूब उड़ा है मखौल, आख़िरकार जागी पार्टी न एक्शन न संवाद : ध्वाला प्रकरण में क्यों बस देखता रहा प्रदेश नेतृत्व ! लगातार उठ रहे सवालों के बाद आखिरकार जारी किया 'कारण बताओ नोटिस' ध्वाला बोले, सोच-समझकर दिया जाएगा जवाब लगातार प्रदेश भाजपा आलाकमान की आँख की किरकिरी बने पूर्व मंत्री रमेश चंद ध्वाला को आखिरकार पार्टी ने कारण बताओ नोटिस जारी किया है। 12 अप्रैल को ध्वाला अपने समर्थकों के साथ 74 वां जन्म दिवस मना रहे थे, इसी बीच उन्हें ‘कारण बताओ नोटिस’ मिला है। पार्टी उनसे कई सवालों के जवाब मांगे हैं। आपको बता दें रमेश चंद ध्वाला लगातार हिमाचल भाजपा नेतृत्व के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है। ध्वाला ने खुद को असली भाजपा घोषित किया है। इतना ही नहीं देहरा में अपनी अलग कार्यकारिणी भी बना दी। कई महीनो से ध्वाला निरंतर हमलावर है , किन्तु पार्टी ने कोई डिसिप्लिनरी एक्शन नहीं लिया। ऐसे में भाजपा के डिसिप्लिन के दावों का भी मखौल उड़ रहा था। पर अब आखिरकार पार्टी ने उन्हें कारण बताओ नोटिस तो थमा ही दिया है। इस बारे में रमेश चंद ध्वाला ने कहा की पिछले अढ़ाई साल में उन्हें कोई चिट्ठी नहीं आई, न ही किसी कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया गया। पर अब जन्म दिवस पर बधाई की जगह कारण बताओ नोटिस भेजा गया है जिसका वह सोच समझकर जवाब देंगे। आपको बता दें कि देहरा उपचुनाव में टिकट न मिलने के बाद से ही रमेश चंद ध्वाला ने पार्टी के विरुद्ध मोर्चा खोला हुआ है। आयातित नौ नेताओं को वे खुलकर नौ ग्रह बोलते रहे है और लगातार निष्ठावान कार्यकर्तों की अनदेखी के आरोप लगा रहे है। हालांकि उनके शिकवे-शिकायत पार्टी से नहीं है बल्कि हिमाचल भाजपा के शीर्ष नेताओं से है। इस बीच पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं का समर्थन भी एक किस्म से ध्वाला को मिलता दिखा है। इन सबके बीच निगाह होशियार सिंह पर भी रहने वाली है, जो निर्दलीय विधायक रहते इस्तीफा देकर भाजपा में आये। पहले होशियार सिंह को इस्तीफा देने की होशयारी महंगी पड़ी और फिर ध्वाला के लगातार हमलावर होने के बावजूद पार्टी का कोई एक्शन न लेना, बड़ा सवाल खड़े करता है। हालांकि अब कारण बताओ नोटिस जारी होने के बाद उनके समर्थकों को उम्मीद है की पार्टी खुलकर अपना स्टैंड क्लियर करेगी। हालांकि माहिर अब भी मान रहे है कि भाजपा में ध्वाला के भविष्य को लेकर अब भी कुछ कहना जल्दबाजी होगा। संभव है कि अगर प्रदेश अध्यक्ष बदला जाता है तो सुलह का रास्ता भी निकल आएं।
'सम्मान की जगह कांग्रेस कार्यकर्ताओं को मिल रहे समन'......कुलदीप राठौर ने फिर सरकार को दिखाया आइना !
"मुकेश जी, हमारे कार्यकर्ताओं का भी कुछ ख्याल रखिए... इन्हें आज भी समन भेजे जा रहे हैं।" ये गुज़ारिश की है कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और मौजूदा विधायक कुलदीप सिंह राठौर ने—खुले मंच से, सबके सामने। कांग्रेस एकत्र तो खड़गे पर अनुराग ठाकुर के ब्यान की निंदा करने को लेकर हुई थी मगर इसी बहाने कांग्रेस के कार्यर्ताओं का असल दर्द भी सामने आ ही गया। वही दर्द जो कांग्रेस कार्यकर्ता पार्टी के सत्ता में आने से लेकर अब तक झेल रहे है, वही दर्द जिसका ज़िक्र प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह और अन्य वरिष्ठ नेता बार बार कर चुके है और व्ही दर्द जिससे सत्तासीन कांग्रेस नेताओं को बहुत फर्क पड़ता नहीं दीखता। ये टीस कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता और विधायक कुलदीप राठौर एक बार फिर सबके सामने ले आए। कुलदीप राठौर ने बिना लाग-लपेट कह दिया— कांग्रेस की असली ताक़त ये कार्यकर्ता हैं। सरकार बनाने में इन्हीं की मेहनत है। मगर आज भी इन्हें समन आ रहे हैं। इनकी भी सुनवाई होनी चाहिए। राठौर ने, एक तरह से, पार्टी को आईना दिखा दिया है। सत्ता में आने के बाद से ही इस सरकार पर कार्यकर्ताओं की उपेक्षा के आरोप लगते रहे हैं। एक ख़ास गुट को छोड़ दें, तो बाकी कार्यकर्ताओं में असंतोष खुलकर दिखता है। जिन्होंने विपक्ष में रहते पार्टी का झंडा उठाया, संघर्ष किया—आज वही कार्यकर्ता खुद को हाशिए पर महसूस कर रहे हैं। न बोर्ड-निगमों में एडजस्टमेंट हुए, न राजनीतिक नियुक्तियाँ मिलीं, और तो और, छोटे-छोटे काम भी नहीं हो रहे। अब तो राठौर ने खुद कह दिया—"बीजेपी राज में कार्यकर्ताओं पर जो मामले दर्ज हुए थे, वो तक वापस नहीं लिए जा रहे।" सवाल बड़ा है—जब जमीनी कार्यकर्ता ही निराश होंगे, तो संगठन कैसे मज़बूत होगा?
मंत्रिमंडल फेरबदल की चर्चा के बीच चौधरी चंद्र कुमार भी दिखा चुके है पार्टी को आईना ! नीरज भारती की लम्बे वक्त बाद टूटी चुप्पी, अपनी ही सरकार से खफा ! काफी वक्त चुप्पी साधने के बाद बीते दिनों पूर्व सीपीएस नीरज भारती फिर बोले है और अपनी ही सरकार के खिलाफ बोले है। उसी सरकार के खिलाफ जिसमें उनके पिता चौधरी खुद मंत्री है। हालाँकि माहिर मान रहे है कि असल खबर ये नहीं है कि नीरज फिर बोले, या कितना और क्या-क्या बोले है । खबर दरअसल ये है कि उनसे पहले चौधरी चंद्र कुमार खुद बोले और अब उनके बेटे नीरज बोल रहे है। अब जब पिता-पुत्र दोनों कांग्रेस के हालातों पर टिपण्णी कर रहे है, तो ज़ाहिर है की इसके सियासी मायने भी गहरे हैं। देखा जाए तो मंत्री चौधरी चंद्र कुमार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता है, उन्होंने पूरी जिंदगी कांग्रेस में खपाई है और बीते दिनों पार्टी की स्थिति को लेकर छलका उनका दर्द भी समझा जा सकता है। वहीँ उनके पुत्र भी अपनी ही पार्टी की सरकार से खफा है। एक मलाल ये है कि अपनी ही सरकार में कार्यकर्ताओं के काम नहीं हो रहे और दूसरा ये की मंत्री की बिना कंसेंट के उनके ही क्षेत्र में तबादले हो रहे है। वैसे इन दोनों ने जो भी कहा है वो निसंदेह कांग्रेस की वास्विकता है, पर वास्विकता तो ये भी है कि आईना दिखाने वाले कांग्रेस को रास कम ही आते है। बहरहाल मंत्रिमंडल फेरबदल की चर्चा के बीच पिता -पुत्र की ये नसीहत और नाराजगी क्या रंग लाएगी, ये देखना रोचक होगा। खासतौर से सरकार के दो मंत्री अस्सी पार है जिनमें से एक चंद्र कुमार भी है। हालांकि चौधरी चंद्र कुमार कांग्रेस का सबसे बड़ा ओबीसी चेहरा है, पर ये नए दौर की सियासत है, न जाने कब, क्या हो जाए।
क्या BJP को मिलेगी पहली महिला अध्यक्ष, चर्चा में वसुंधरा राजे का नाम ! बीजेपी को जल्द नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिलना है। नए अध्यक्ष को लेकर अटकलें जारी है। क्षेत्रीय और जातीय समीकरणों के लिहाज से तो कयास लग ही रहे है, लेकिन इस बीच बड़ा सवाल ये भी है कि क्या बीजेपी की कमान किसी महिला को भी मिल सकती है। बीजेपी के 45 साल के इतिहास में अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर जगत प्रकाश नड्डा तक 11 नेता अध्यक्ष पद की कुर्सी तक पहुंचे है, लेकिन इनमें एक भी महिला नहीं है। तो क्या इस बार ये इन्तजार खत्म होगा, इस पर निगाह टिकी हुई है। दरअसल अटकलें हैं कि 2029 में लोकसभा चुनावों से पहले संसद और राज्य विधानसभाओं में 33 फीसदी महिला आरक्षण कोटा लागू होने की संभावना के मद्देनजर किसी महिला को बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो यह पहली बार होगा जब किसी महिला को पार्टी की कमान सौंपी जाएगी। बीजेपी के नए अध्यक्ष के चुनाव को लेकर चल रही दौड़ में राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे की चर्चा सबसे तेज है। माना जा रहा है कि बीजेपी वसुंधरा राजे को पहली महिला अध्यक्ष बनाकर नया संदेश दे सकती है।दिल्ली में महिला सीएम के बाद महिला बीजेपी अध्यक्ष की चर्चा भी जमकर हो रही है। माहिर मानते है कि राजस्थान विधानसभा चुनाव और नए सीएम के तौर पर भजनलाल शर्मा की ताजपोशी के बाद से सियासी हलको में वसुंधरा राजे की नाराजगी की खबर सामने आ रही थी। किन्तु बीते कुछ समय में वसुंधरा राजे की राजनीतिक सक्रियता और लगातार पीएम मोदी की तारीफ से यह लग रहा है कि उनका केंद्रीय संगठन से तालमेल अब मजबूत है। साथ ही वसुंधरा राजे को आरएसएस की भी पसंद माना जाता है। ऐसे में यदि बीजेपी किसी महिला को अध्यक्ष बनाती है तो वसुंधरा राजे के नाम पर मुहर लग सकती है।
भाजपा अध्यक्ष पद की दौड़ में कांगड़ा के कई नेता अगर जयराम बने अध्यक्ष तो नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी आ सकती है हिस्से साल था 1986, जब कांगड़ा से कोई नेता आखिरी बार भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बना। वो नेता थे शांता कुमार जो 1990 तक इस पद पर रहे। इसके बाद 1990 में कांगड़ा से आखिरी मर्तबा मुख्यमंत्री भी शांता कुमार ही बने। अर्सा बीत गया लेकिन उसके बाद से कांगड़ा के किसी नेता पर भाजपा आलाकमान मेहरबान नहीं हुआ। जो कांगड़ा सत्ता के लिए जरूरी है, जो सियासी तौर पर सबसे वजनदार जिला है, उसी जिला पर भाजपा आलाकमान की इनायत नहीं हुई। अब फिर भाजपा को नया प्रदेश अध्यक्ष मिलना है और चर्चा है कि क्या 35 साल बाद अब संगठन की कमान कांगड़ा के किसी नेता को मिलेगी ? सुर्ख़ियों में कई नाम भी बने हुए है, मसलन सांसद राजीव भारद्वाज, विपिन सिंह परमार, बिक्रम ठाकुर और राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी। इस बीच एक नया फार्मूला भी सामने आया है। दरअसल अटकलें ये भी है कि जयराम ठाकुर का अगला प्रदेश अध्यक्ष बनना तय है और कांगड़ा के हिस्से आ सकती है नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी। ऐसा होता है तो विपिन सिंह परमार या बिक्रम ठाकुर में से किसी एक नेता को नेता प्रतिपक्ष बनाया जा सकता है। बहरहाल फिलहाल सब अटकलें है। वैसे भी आज के दौर की भाजपा में अक्सर आलाकमान की मंशा का इल्म किसी को नहीं होता। पर फिलवक्त कांगड़ा फिर उम्मीद से है। अब हिस्से में कुछ आता है या फिर कांगड़ा के हाथ खाली रहते है, इस पर निगाह रहने वाली है।
चर्चा आम, बिंदल की जगह अध्यक्ष होंगे जयराम खिलाफ : संगठन की कुंद धार, रुष्ट नेताओं की खुलकर ललकार पक्ष : पूरा कार्यकाल न मिलना, दोनों कार्यकाल में कुल ढाई साल भी नहीं मिले जल्द हिमाचल भाजपा को नया अध्यक्ष मिलना है और चर्चा आम है कि बतौर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल के रिपीट होने की संभावना अब बेहद कम है है। यदि ऐसा होता है तो ये व्यक्तिगत तौर बिंदल के लिए बड़ा सेट बैक होगा। रोलर कॉस्टर सा चल रहे बिंदल के राजनैतिक सफर में ये एक बड़ी ढलान होगा। दरअसल बिंदल 2022 का विधानसभा चुनाव भी हारे थे, ऐसे में जाहिर है सदन के भीतर भी उन्हें कोई ज़िम्मा नहीं मिलेगा। वहीं, माहिर मानते है कि यदि ऐसा हुआ तो मौटे तौर पर बिंदल फिर नाहन तक सिमित दिख सकते है। दरअसल बीजेपी अध्यक्ष पद की दौड़ में खुद नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर का नाम आने के बाद वर्तमान अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल की दावेदारी अब कमजोर मानी जा रही है। 2021 के उपचुनाव से ही भाजपा लगातार प्रदेश में हारती आ रही है और इसका बड़ा कारण संगठन की कुंद धार है। चुनाव दर चुनाव प्रदेश संगठन बगावत थामने में नाकाम रहा है, और ये ही हार का एक बड़ा कारण भी रहा है। हालांकि 2022 का चुनाव बिंदल के नेतृत्व में नहीं लड़ा गया था, उनकी ताजपोशी अप्रैल 2023 में हुई है। पर वर्तमान हालात की भी बात करें तो खफा नेता खुलकर पार्टी को ललकार रहे है, समानांतर संगठन बनाने की बात कह रहे है, पर इन पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं दिखती। भाजपा का संगठन एक किस्म से बेबस दिख रहा है। इसी तरह अगर प्रदेश सरकार को घेरने की बात करे तो फ्रंट फुट पर भी जयराम ही दिखते है और प्रभावी भी जयराम ही है। संगठन के अधिकांश आला नेता अधिकांश मौकों पर बेअसर से लगते है। इसमें कोई संशय नहीं है कि प्रदेश स्तर पर भी भाजपा संगठन की सर्जरी की जरुरत दिखती है। ऐसे में मुमकिन है कि आलाकमान जयराम को ही संगठन का सरदार बना दे और कमोबेश पूरी टीम बिंदल बदल दी जाए। हालाँकि एक पक्ष ये भी है कि बिंदल को दोनों कार्यकाल में कुल ढाई साल भी नहीं मिले है। अगर जयराम पर मुहर नहीं लगती है तो ये फैक्टर उनके पक्ष में जा सकता है। 2017 से उतार चढ़ाव भरा रहा बिंदल का सफर बिंदल के राजनैतिक करियर पर निगाह डाले तो लगातार पांचवी बार विधायक बनने के बाद वे 2017 में सीएम पद के दावेदार थे, लेकिन तब उन्हें कैबिनेट में भी जगह नहीं दी गई थी। बिंदल को विधानसभा अध्यक्ष बना कर एडजस्ट किया गया था, लेकिन करीब दो साल बाद वे भाजपा अध्यक्ष बनने में कामयाब रहे। फिर कोरोना काल में लगे आरोपों के बाद करीब पांच महीने बाद ही उन्हें इस्तीफा देने पड़ा। इस बीच पार्टी ने उन्हें अर्की उपचुनाव और सोलन नगर निगम चुनाव का जिम्मा तो दिया, लेकिन बिंदल पार्टी को जीत नहीं दिला सके। बिंदल को सबसे बड़ा सेट बैक 2022 के विधानसभा चुनाव में लगा जब वे खुद हार गए।पर इसके बाद अप्रत्याशित तौर पर अप्रैल 2023 में वे फिर अध्यक्ष पद पाने में कामयाब रहे। तब से अब तक उनके कार्यकाल में पार्टी ने नौ में से छ उपचुआव हारे है और लोकसभा चुनाव में भी पार्टी का वोट शेयर गिरा है। ऐसे में परफॉरमेंस के पैरामीटर पर भी बिंदल छाप नहीं छोड़ पाए है, हालांकि उन्हें ज्यादा समय नहीं मिला है। एक और बात बिंदल के विरुद्ध जाती है, वो है उन पर लगते रहे आरोप। हालांकि उन पर लगा कोई आरोप कभी सिद्ध नहीं हुआ, वे हमेशा बरी हुए है। किन्तु राजनैतिक विरोधी उन पर लगातार निशाना साधते रहे है। विशेषकर बीते कुछ वक्त में खुद सीएम सुखविंद्र सिंह सुक्खू ने बिंदल पर खूब चुटकी ली है।
प्रदेश अध्यक्ष पद को लेकर कांग्रेस में हलचल दिल्ली में कांग्रेस नेताओं की आलाकमान से लगातार बैठकें जारी हैं और हर बैठक के महत्व को सियासी माहिर अपने-अपने दृष्टिकोण से देख रहे हैं। फिलहाल मुख्यमंत्री के अलावा प्रियंका गांधी और कांग्रेस की नवनियुक्त प्रभारी रजनी पाटिल के साथ लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह की बैठक चर्चा का विषय बनी हुई है। कल शाम विक्रमादित्य प्रियंका गांधी से मिले और आज रजनी पाटिल से। अटकलें हैं कि उन्होंने प्रियंका से प्रदेश अध्यक्ष के कार्यकाल को बढ़ाने की मांग की। वक्त की नज़ाकत को समझा जाए तो शायद इस वक्त यह होली लॉज के लिए बेहद ज़रूरी भी है। दरअसल, अप्रैल 2025 में प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह का तीन साल का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। जाहिर है, प्रदेश कांग्रेस के अन्य गुट इस पद पर अपने करीबियों को बैठाने की जद्दोजहद में हैं। सूत्रों की माने तो सीएम के करीबी संजय अवस्थी भी प्रदेश अध्यक्ष पद कि दौड़ में है। हालाँकि अगर अवस्थी कि ताजपोशी होती है सत्ता और संगठन एक ही हाथ में होंगे, और इसे लेकर पार्टी आलाकमान राज़ी होगा या नहीं, यह बड़ा सवाल है। खैर, इनके अलावा मंडी से कांग्रेस के एकमात्र विधायक चंद्रशेखर का नाम भी चर्चा में है। जाहिर है, इस सियासी परिप्रेक्ष्य में आज से दो साल पहले मुख्यमंत्री का पद छोड़कर प्रदेश अध्यक्ष और मंत्री पद पर संतुष्ट हो जाने वाला होली लॉज अब शायद प्रदेश अध्यक्ष पद भी छोड़ने को तैयार नहीं है। होली लॉज स्थिति यथावत बनाए रखना चाहता है। हालांकि, अंतिम निर्णय कांग्रेस आलाकमान को ही लेना है, और यह देखने वाली बात होगी कि वे कैसे संतुलन सुनिश्चित करता हैं। तो कुल मिलाकर बात यह है कि आने वाले कुछ दिनों में कांग्रेस के भीतर वर्चस्व की जंग एक बार फिर सार्वजनिक हो सकती है।
वीरभद्र सिंह की चेतावनी के आगे कांग्रेस आलाकमान को झुकना पड़ा ! 2012 के चुनाव में कांग्रेस आलाकमान को दी स्पष्ट चेतावनी ! 'मैं ढोलक बजाऊंगा और मेरी सेना नृत्य करेगी' – शिमला की प्रेस कॉन्फ्रेंस में इन्हीं शब्दों के साथ वीरभद्र सिंह ने दिल्ली दरबार को स्पष्ट चेतावनी दे डाली थी कि सीएम तो वे ही होंगे, चाहे पार्टी कोई भी हो। फिर आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया, और वे छठी बार सीएम बने। दरअसल, 2012 विधानसभा चुनाव के वक्त वीरभद्र सिंह की आयु 78 के पार थी। केंद्र सरकार में मंत्री बनने के बाद कांग्रेस में भी कई नेता सीएम की कुर्सी पर नजर गड़ाए बैठे थे। पर वीरभद्र सिंह ने चुनाव से पहले मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और हिमाचल लौट आए। हालांकि, तब आलाकमान वीरभद्र के हाथ कांग्रेस की कमान सौंपने के लिए राजी नहीं था। पिछले कई वर्षों से प्रदेश में कांग्रेस की जड़ें मजबूत कर रहे कौल सिंह ठाकुर और आलाकमान के करीबी सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। मगर फिर वीरभद्र सिंह ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी। आलाकमान झुका, कांग्रेस ने उन्हीं के चेहरे पर चुनाव लड़ा और जीत भी हासिल की।
1990 से 2007 तक हर चुनाव में बदली निष्ठा, पर कभी नहीं हारे 1990 की शांता लहर में हिमाचल प्रदेश की इस विधानसभा सीट से एक निर्दलीय उम्मीदवार जीता। फिर 1993 में कांग्रेस जीती, 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस, 2003 में लोकतांत्रिक मोर्चा और 2007 में भाजपा। यह विधानसभा सीट है जिला मंडी की धर्मपुर निर्वाचन और पांच अलग-अलग सिंबल से चुनाव जीतने वाले नेता थे महेंद्र सिंह ठाकुर। हालांकि, इसके बाद ठाकुर बीजेपी में टिके रहे और 2012 और 2017 में भी चुनाव जीते। शायद ही कोई और नेता ऐसा हो, जिसने अपने राजनीतिक जीवन के सात चुनाव में से पांच चुनाव लगातार अलग-अलग सिंबल पर लड़ा और जीता हो। 1990 से 2003 तक हर बार महेंद्र सिंह ठाकुर की राजनीतिक निष्ठा बदली, पर बावजूद इसके वे जीतते रहे। दल बेशक बदलते रहे, लेकिन जनता का भरोसा महेंद्र सिंह पर बरकरार रहा। जो प्यार धर्मपुर की जनता ने महेंद्र सिंह ठाकुर को दिया, वह पिछले चुनाव में उनके पुत्र रजत ठाकुर को नहीं मिला। महेंद्र सिंह ठाकुर के चुनावी राजनीति छोड़ने के बाद बीजेपी ने उनकी इच्छा मुताबिक 2022 में उनके बेटे रजत को टिकट दिया था, लेकिन वे चुनाव हार गए। दिलचस्प बात यह है कि 2022 में मंडी की सिर्फ धर्मपुर सीट पर ही बीजेपी को शिकस्त मिली।
एक के पिता सांसद रहे, तो एक के दादा सीएम एक विधायक का बेटा भी विधायक रहा मौजूदा सीएम सहित पांच मुख्यमंत्रियों के परिवार राजनीति में परिवारवाद से निकले कई नेता चुनाव हारे, वरना आंकड़ा और ज्यादा होता हिमाचल प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डा. वाईएस परमार से लेकर मौजूदा मुख्यमंत्री सुखविंद्र सिंह सुक्खू तक, हिमाचल की सियासत के कई ऐसे बड़े नाम है जिनके परिवारजन राजनीति में सक्रीय है। फेहरिस्त बहुत लम्बी है; ठाकुर रामलाल, वीरभद्र सिंह, प्रो प्रेम कुमार धूमल, पंडित सुखराम, पंडित संतराम, सत महाजन, केडी सुल्तानपुरी जैसे कई दिग्गजों के परिवार सियासत में है। कोई केंद्र में मंत्री है तो कोई प्रदेश में, इसमें भाजपाई भी है और कांग्रेसी भी। दिलचस्प बात ये है की अब तक सात व्यक्ति ही हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर पहुंचे है। इन सात में से पांच के परिवार भी सियासत में है। प्रथम मुख्यमंत्री रहे डा. वाईएस परमार के बेटे कुश परमार नाहन से विधायक रहे है। अब तीसरी पीढ़ी भी सियासत में है। प्रदेश के दूसरे मुख्यमंत्री रहे ठाकुर रामलाल के पोते रोहित ठाकुर वर्तमान सरकार में कैबिनेट मंत्री है। 6 बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह का परिवार भी सियासत में सक्रीय है। उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह तीन बार सांसद रही हैं और पीसीसी चीफ भी। वहीँ उनके पुत्र विक्रमादित्य सिंह वर्तमान सरकार में मंत्री भी है। इसी तरह दो बार प्रदेश में मुख्यमंत्री रहे प्रो प्रेम कुमार धूमल के पुत्र अनुराग ठाकुर पांचवी बार सांसद है और मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रह चुके है। वहीँ मौजूदा मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू की पत्नी भी देहरा से विधायक है। मौजूदा विधानसभा में 40 विधायक कांग्रेस के है और 28 भाजपा के। इनमें से भाजपा के दो विधायक अनिल शर्मा और सुधीर शर्मा ही ऐसे है, जिनके पिता भी विधायक रहे है। हालांकि भाजपा के टिकट वितरण में परिवारवाद से कोई परहेज नहीं रहा है, चाहे वो 2022 का चुनाव हो या उपचुनाव, लेकिन उनमे से अधिकांश प्रत्याशी उम्मीदवार चुनाव हार गए। इस फेहरिस्त में रजत ठाकुर, गोविन्द सिंह ठाकुर, रवि ठाकुर जैसे नाम है जो वंशवाद से निकले है। बात कांग्रेस की करें तो मौजूदा 40 में से 11 विधायकों के पिता भी विधायक रहे है। इनमे नीरज नैयर, भवानी पठानिया, यादविंद्र गोमा, आरएस बाली, आशीष बुटेल, भुवनेश्वर गौर, विवेक शर्मा , विनय कुमार , हर्षवर्धन सिंह , विक्रमादित्य सिंह और जगत सिंह नेगी शामिल है। वहीँ मंत्री रोहित ठाकुर के दादा ठाकुर राम लाल प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके है। इसी तरह वर्तमान में देहरा से विधायक कमलेश ठाकुर के तो पति ही मुख्यमंत्री है। कसौली विधायक विनोद सुल्तानपुरी के पिता केडी सुल्तानपुरी भी 6 बार सांसद रहे है। तो मंत्री चौधरी चंद्र कुमार के बेटे नीरज भारती भी विधायक रह चुके है।
बिना जनसभा किए ही कोटली से लौट आए थे तत्कालीन सीएम वीरभद्र सिंह साल था 1997, प्रदेश की सत्ता पर वीरभद्र सिंह काबिज थे और पंडित सुखराम हिमाचल विकास कांग्रेस बना चुके थे। उस दौर में वीरभद्र सिंह और पंडित सुखराम के बीच टकराव चरम पर था। बताया जाता है कि विधानसभा चुनावों से कुछ दिन पहले ही मंडी के कोटली में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के काफिले को रोक लिया गया था। दरअसल, कोटली में पंडित सुखराम समर्थकों का जमावड़ा था। स्थानीय लोग गुस्से और रोष से भरे हुए थे। कहा जाता है कि कुछ लोगों ने मुख्यमंत्री की कार को निशाना तक बनाने की कोशिश की थी। पंडित सुखराम के पक्ष में लोग सड़कों पर थे, जिसके बाद माहौल देखकर वीरभद्र सिंह कोटली से लौट आए। इस वाकये को याद करते हुए अनिल शर्मा बताते हैं कि— "उस वक्त पंडित सुखराम और हम नई पार्टी बना रहे थे और कोटली में हमारी नई पार्टी का कार्यक्रम था। मुख्यमंत्री का वहां कोई आयोजन नहीं था, बल्कि वह तो बस वहां से होते हुए कहीं और किसी अन्य कार्यक्रम में जा रहे थे। जैसे ही हमारे समर्थकों को मालूम पड़ा कि वीरभद्र सिंह आए हैं, तो हमारे समर्थकों ने उनका घेराव कर उन्हें रोक दिया। फिर मैं खुद वहां पहुंचा, अपने समर्थकों को समझाया और उन्हें वहां से जाने दिया।" अनिल कहते हैं कि, "वीरभद्र सिंह हमारे क्षेत्र में थे, हमारे मेहमान थे, उन्हें नहीं रोका जाना चाहिए था, मगर समर्थकों ने ऐसा किया।"
हिमाचल में विधायकों की पेंशन को लेकर अक्सर चर्चाएं होती रहती हैं। आज प्रदेश में पूर्व विधायकों को करीब 85 हजार रुपये पेंशन मिलती है, मगर जब यह व्यवस्था शुरू हुई थी, तब पेंशन की रकम सिर्फ 300 रुपये थी। लेकिन क्या आप जानते हैं, इस पेंशन की शुरुआत कैसे हुई ? इसके पीछे की कहानी बेहद दिलचस्प है— बात साल 1974 की है। हिमाचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार हमीरपुर में एक मेले के उद्घाटन के लिए पहुंचे थे। गर्मियों की चटक धूप के बीच मेला अपने रंग में था—दुकानों पर भीड़ थी। मुख्यमंत्री परमार, अन्य गणमान्य व्यक्तियों के साथ दुकानों का अवलोकन कर रहे थे। तभी, उनकी नज़र एक चूड़ियों की दुकान पर पड़ी। दुकान में बैठे व्यक्ति को देखते ही वह ठिठक गए। यह कोई आम दुकानदार नहीं था, यह अमर सिंह चौधरी थे, जो 1967 से 1972 तक जनसंघ के टिकट पर मेवा (अब भोरंज) विधानसभा क्षेत्र के विधायक रह चुके थे। मुख्यमंत्री परमार ने चौंकते हुए पूछा, "अमर सिंह जी, आप यहां? यह दुकान?" अमर सिंह चौधरी हल्के से मुस्कुराए, फिर बोले, "क्या करें डॉक्टर साहब, अब विधायक नहीं हूं, तो गुजारा करने के लिए कुछ तो करना होगा। परिवार पालना है, इसलिए मेलों में दुकानदारी करता हूं।" यह सुनते ही परमार साहब का चेहरा गंभीर हो गया। हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने प्रदेश को खड़ा करने में अपना जीवन लगा दिया था, और अब उनके सामने एक पूर्व विधायक, जिसने जनता की सेवा की थी, आर्थिक तंगी में चूड़ियां बेचने को मजबूर था। मेला खत्म हुआ, पर यह दृश्य डॉ. परमार के दिलो-दिमाग में घर कर गया। शिमला लौटते ही उन्होंने अगली कैबिनेट बैठक में यह मुद्दा उठाया। चर्चा के बाद फैसला हुआ, अब प्रदेश के पूर्व विधायकों को 300 रुपये मासिक पेंशन दी जाएगी, ताकि वे सम्मानजनक जीवन जी सकें। इस एक फैसले से हिमाचल में विधायकों की पेंशन की नींव पड़ गई, और धीरे-धीरे समय के साथ यह व्यवस्था मजबूत होती चली गई। खास बात यह है कि अमर सिंह चौधरी का राजनीतिक सफर यहीं खत्म नहीं हुआ। इस घटना के कुछ सालों बाद, वह 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर फिर से विधायक बने और 1980 तक हिमाचल विधानसभा में रहे। हालांकि, अब विधायकों को कोई ऐसी समस्या नहीं है l पेंशन तो मिलती ही है, साथ ही विधायकों का टेलीफोन भत्ता भी 15 हजार रुपये है।
6 नवम्बर से न प्रदेश कार्यकारिणी और न जिला व ब्लॉक अध्यक्ष ! दिग्गज नेताओं को भी खल रही आलाकमान की लेट लतीफी, उठने लगी आवाजें ! दिन-ब-दिन आक्रामक होती दिख रही बीजेपी और कांग्रेस बेसंगठन ! अलबत्ता, सन्नाटा चौधरी चंद्र कुमार ने भंग कर दिया हो, लेकिन कांग्रेस आलाकमान की निद्रा अभी भी नहीं टूटी। सौ दिन से ज्यादा हो गए हैं हिमाचल में कांग्रेस के संगठन को भंग हुए, मगर आलाकमान अब भी किसी जल्दबाजी में नहीं दिख रहा। शायद हिमाचल में सरकार होने की तसल्ली के आगे संगठन की गैरमौजूदगी पार्टी को खल ही नहीं रही। कांग्रेस की इस हाल-ए-हालत पर गोपाल दास नीरज की कुछ पंक्तियाँ मौजूं हैं ....हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे ...कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे ...... आलाकमान का यही सुस्त रवैया बरकरार रहा तो डर है हिमाचल में भी कांग्रेस के हिस्से रह जाएगा सिर्फ गुबार। करीब 140 साल पुरानी कांग्रेस आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। ताजा दौर की बात करें तो महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली में पार्टी को शर्मनाक हार मिली है। 16 साल से केंद्र की सत्ता से पार्टी दूर है और अब ले-देकर महज तीन राज्यों में पार्टी की सरकार है, जिनमें से एक हिमाचल प्रदेश है। हैरत की बात यह है कि इस हिमाचल प्रदेश में भी पिछले सौ दिन से पार्टी का संगठन नहीं है। 6 नवंबर को पार्टी आलाकमान ने पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह के अलावा समस्त प्रदेश कार्यकारिणी तथा सभी जिला और ब्लॉक इकाइयाँ भंग कर दी थीं और तब से नई कार्यकारिणी का इंतजार बना हुआ है। पार्टी मुख्यालय में सन्नाटा पसरा है और पार्टी के बड़े चेहरे भी अब इस लेट-लतीफी पर आवाज बुलंद करने लगे हैं। कांग्रेस हिमाचल में संगठन की नियुक्तियों के लिए नया फार्मूला इस्तेमाल कर रही है। इसके मुताबिक अब प्रदेश अध्यक्ष को मर्जी की टीम नहीं मिलेगी, बल्कि ऑब्जर्वर की रिपोर्ट के आधार पर संगठन में ताजपोशी होगी। संगठन भंग करने के बाद आलाकमान ने सभी 12 जिलों और चारों संसदीय क्षेत्रों में पर्यवेक्षक नियुक्त किए हैं, ताकि जमीनी फीडबैक मिल सके। ये पर्यवेक्षक अपनी रिपोर्ट आलाकमान को सौंप चुके हैं, बावजूद इसके नई कार्यकारिणी का गठन नहीं हुआ है। अब आलाकमान की इस लेट-लतीफी से पार्टी का आम वर्कर जरूर मायूस दिख रहा है। अब बात करते हैं कांग्रेस के असल मर्ज की। सर्वविदित है कि हिमाचल कांग्रेस में कई गुट हैं, लेकिन मोटे तौर पर सुक्खू गुट और होली लॉज कैंप के अलावा मुकेश अग्निहोत्री की अपनी एक अलग लॉबी दिखती है। हालांकि, अग्निहोत्री बेहद संतुलित ढंग से सियासत करते दिखे हैं, लेकिन जाहिर है वे भी अपने समर्थकों को संगठन के अहम ओहदों पर एडजस्ट करना चाहेंगे। आलाकमान भी इससे अवगत है और पार्टी के जहन में हरियाणा भी होगा, जहाँ गुटबाजी कांग्रेस को ले बैठी। हरियाणा में अर्से से पार्टी संगठन तक नहीं बना पा रही है। ऐसे में लाजमी है आलाकमान भी फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाए और संतुलन सुनिश्चित करे। वहीं दूसरी ओर, प्रदेश भाजपा ने 18 लाख नए सदस्य बनाने के साथ-साथ नए ब्लॉक और जिला अध्यक्ष चुन लिए हैं। नई ऊर्जा से लबरेज बीजेपी, कांग्रेस सरकार को हर मुद्दे पर जोरदार ढंग से घेर रही है। मगर सरकार को डिफेंड करने के लिए कांग्रेस के पास कोई पदाधिकारी नहीं बचा। संगठन की मजबूती किसी भी राजनीतिक दल की असली ताकत होती है, और अगर कांग्रेस इसे नजरअंदाज करती रही, तो हिमाचल में उसकी पकड़ और भी कमजोर होगी।
चौधरी चंद्र कुमार को हरियाणा के नेताओं से संयम सीखना होगा ! इस तरह निस्तनाबूद होना भी किसी ऐरे गैरे के बस की बात नहीं ! आर्यभट्ट की शून्य की खोज को बेवजह महिमामंडित करके बताया जाता रहा है। कांग्रेस ने तो दिल्ली में तीन बार शून्य खोज लिया, वो भी लगातार। ये कोई छोटी उपलब्धि नहीं है, वो भी तब जब किसी पार्टी ने लगातार पंद्रह साल दिल्ली की सत्ता कब्जाई हो। माना, बनाने में बहुत मेहनत लगती है लेकिन इस तरह निस्तनाबूद होना भी किसी ऐरे गैरे के बस की बात नहीं है। अपने 140 वें साल में कांग्रेस ने एक और नया मुकाम हासिल किया है ! इधर, हिमाचल में बेवजह का हल्ला मचा है। मंत्री चंद्र कुमार कांग्रेस संगठन को पैरालाइज़्ड कह रहे है। इसका अभिप्राय है कि कांग्रेस को लकवा मार चूका है। ये तो सरासर अति प्रतिक्रिया है। अभी तो हिमाचल में सिर्फ 97 दिन हुए है कांग्रेस को बगैर संगठन के, पड़ोसी राज्य हरियाणा में सालों तक जिला और ब्लॉक अध्यक्ष नहीं बनाये गए। चंद्र कुमार जी को हरियाणा के नेताओं से संयम सीखने की जरुरत है। करीब साढ़े चार दशक का राजनैतिक अनुभव है चौधरी साहब का, उन्हें समझना चाहिए पार्टी आलाकमान अभी दिल्ली चुनाव की थकान मिटा रहा होगा। उनके इस तरह के ब्यान आलाकमान के आराम में खलल बन सकते है। चौधरी साहब, आपसे ये उम्मीद नहीं थी !
जां निसार अख्तर का एक शेर दिल्ली में कांग्रेस का हाल बखूबी बयां करता है " दिल्ली कहाँ गई तिरे कूचों की रौनकें गलियों से सर झुका के गुजरने लगा हूँ मैं " दिल्ली में कांग्रेस के हिस्से एक और शर्मनाक हार आई है। देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी लगातार तीसरे चुनाव में अपना खाता नहीं खोल सकी। सियासी गलियों में कांग्रेस का सर फिर झुक गया, पर कांग्रेस की इस ऐतिहासिक हार के ग़म पर भारी दिखा है आम आदमी पार्टी की हार से मिला सुकून। दिल्ली की हार के बाद टीवी चैनलों पर दिखे कांग्रेस के अधिकांश नेता इस बात से उत्साहित दिखे कि आम आदमी पार्टी हार गई है। देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी के नेताओं की ये मनोदशा बताती है कि पार्टी ने किस संजीदगी से ये चुनाव लड़ा था। जाहिर है पार्टी को कोई उम्मीद ही नहीं थी। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि करीब 15 सीटों पर आम आदमी पार्टी का खेल बिगाड़ना भी अब कांग्रेस को उपलब्धि लगता है। दशकों सत्ता भोगने वाली कांग्रेस अब वोट कटवा बनकर भी तसस्ली में दिख रही है। दरअसल, ये ही कांग्रेस का असल मर्ज है। हालांकि राजनैतिक नजरिये से देखे तो आम आदमी पार्टी की हार कांग्रेस के जरूरी थी, वरना इंडिया गठबंधन में भी कांग्रेस के पर कतर दिए जाते। दूसरा कांग्रेस के पतन से ही आप का उभार हुआ है। पर यदि आप से पुराना वोट छिटक कर वापस कांग्रेस के पास आता, तो बात कुछ और होती। आम आदमी पार्टी का वोट करीब दस फीसदी कम हुआ है, जबकि कांग्रेस के वोट में सिर्फ दो फीसदी का उछाल है। वहीँ, बीजेपी और आप के बीच का फासला सिर्फ दो फीसदी वोटों का है, हालांकि बीजेपी के माइक्रो मैनेजमेंट और कई सीटों पर बीजेपी विरोधी वोट बंटने से सीटों का अंतर 26 हो गया। बहरहाल, आप चुनाव हारी जरूर है लेकिन उसका सफाया नहीं हुआ है और न ही कांग्रेस का अधिकांश वोटर वापस उसके पास लौटा। यानी चर्चा चाहे आम आदमी पार्टी की हार की ज्यादा हो, लेकिन असल दुर्दशा फिर कांग्रेस की ही हुई है। कांग्रेस के प्रदर्शन पर निगाह डाले तो 70 में 67 सीटों पर कांग्रेस की जमानत जब्त हुई है। तीन सीटों पर तो पार्टी चौथे स्थान पर रही है। सिर्फ कस्तूरबा नगर सीट पर पार्टी दूसरे नंबर पर रही और वहां भी हार का अंतर 11 हजार से ज्यादा रहा। दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष देवन्द्र यादव जिनके साथ राहुल गाँधी दिल्ली की गलियों की बदलाली के वीडियो दिखा रहे थे, वो खुद 20 हज़ार से ज्यादा के अंतर से चुनाव हारे है। संदीप दीक्षित, अलका लाम्बा और कृष्णा तीरथ जैसे नेताओं की जमानत तक नहीं बची। वैसे आधे मन से लड़ रही कांग्रेस से ज्यादा उम्मीद किसी को नहीं थी। पर इतना जरूर माना जा रहा था कि कांग्रेस का वोट शेयर डबल डिजिट के आसपास पहुंच सकता है। पर ऐसा हुआ नहीं। आम आदमी पार्टी से छिटका अधिकांश वोट बीजेपी के पास गया। एक दिलचस्प तथ्य और भी है, जिस मुस्लिम वोट के कांग्रेस को वापस लौटने की उम्मीद थी, उसने भी दूरी बनाये रखी। जिन दो सीटों पर ओवैसी की पार्टी ने चुनाव लड़ा उन दोनों सीटों पर कांग्रेस चौथे नंबर पर रही। ले देकर कांग्रेस के हाथ खाली रहे। अलबत्ता कुछ माहिर मानते है कि आप की हार से कांग्रेस के लिए फिर पांव जमाना आसान होगा, अब कांग्रेस क्या और कितना कर पाती है, ये देखन रोचक होगा। इस बीच कांग्रेस समर्थकों के लिए एक खुशखबरी भी है। जयराम रमेश ने ऐलान किया है कि 2030 में दिल्ली में कांग्रेस की सरकार होगी।
मंडी में कांग्रेस 'ठंडी' ...क्या है कांग्रेस का रिकवरी प्लान ? चंद्रशेखर इकलौते विधायक, तो ठाकुर कौल सिंह अब भी सबसे बड़ा चेहरा क्या दोनों का सियासी बल बढ़ाकर पटरी पर लौटेगी कांग्रेस ? 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले मंडी में कांग्रेस के हालत-ए-हाल पर फर्स्ट वर्डिक्ट मीडिया ने एक विश्लेषण किया था, शीर्षक था "ख़ाक होने का अंदेशा है ख़ुदा ख़ैर करें" तब कांग्रेस के कई नेताओं को ये शीर्षक खूब चुभा, जाहिर है वे इससे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते थे। फिर नतीजे आएं तो शीर्षक पर जनता की मुहर लग गई। दरअसल, विपक्ष में रहते कांग्रेस खुद ढोल पिटती रही कि जयराम ठाकुर तो सिर्फ मंडी के मुख्यमंत्री है, सारा विकास सिर्फ मंडी में हो रहा है। यानी एक किस्म से पांच साल कांग्रेस के नेताओं ने मंडी में भाजपा के काम का जमकर प्रचार किया, जयराम ठाकुर को मंडी में ब्रांड बना दिया। इस पर हिमाचल कांग्रेस की मासूमियत देखिये, 2022 में वही कांग्रेस उम्मीद कर रही थी कि मंडी की जनता उन्हें वोट देगी। तब कांग्रेसी नेताओं ने बात समझते-समझते बहुत देर कर दी। चलो, जो बीत गई गई सो बात गई। बरहहाल बात करते है मंडी में कांग्रेस के लिए आगे क्या सम्भावना है। क्या मंडी में कांग्रेस के लिए कुछ तुरुस्त हुआ है ? क्या अब मंडी के मर्ज को कांग्रेस समझ पाई है ? क्या भविष्य के लिए कांग्रेस तैयार है ? हकीकत ये है कि अब भी दस सीटों वाला जिला मंडी हिमाचल कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी दिखता है। इसके दो कारण है, पहला है जयराम ठाकुर जो बीजेपी का प्राइम फेस है और इसका एडवांटेज बीजेपी को मंडी में मिल रहा है। दूसरा कारण है कांग्रेस में कोई मजबूत फेस का न होना। दरअसल सियासत में ताकत पद से मिलती है। जिला में पार्टी के इकलौते विधायक है चंद्रशेखर, जिनकी क्षमता पर भी कोई संदेह नहीं। विधायक महोदय को पार्टी ने सरकार में तो कोई अहम् पद नहीं दिया, लेकिन संगठन में कार्यकारी अध्यक्ष जरूर बनाया था। अब कांग्रेस संगठन में कार्यकारी अध्यक्ष पद का औचित्य क्या और कितना रहा है, ये अलग से विवेचना का विषय है। पर लब्बोलुआब ये है कि इसका ख़ास जमीनी असर मंडी में नहीं दिखा। वहीँ ,अब भी मंडी में कांग्रेस के सबसे बड़े चेहरे की बात करें तो बगैर किसी संकोच के ठाकुर कौल सिंह का नाम जुबां पर आता है, लगातार दो चुनाव हारने के बावजूद। वे भी एक किस्म से साइडलाइन है। माहिर मानते है कि मंडी में कांग्रेस अपने इकलौते विधायक चंद्रशेखर और धरोहर नेता ठाकुर कौल सिंह की ताकत बढ़ा कर रिकवरी का ब्लू प्रिंट तैयार कर सकती है। अगर अप्रैल के बाद पीसीसी चीफ को बदला जाता है तो मुमकिन है चंद्रशेखर के नाम पर गंभीरता से विचार हो। यानी मंडी को कांग्रेस संगठन की कमान दी जा सकती है। जहाँ तक सवाल कैबिनेट में चंद्रशेखर की एंट्री का है, इसकी सम्भावना फिलहाल कम है। अगर मंडी संसदीय हलके से किसी की एंट्री के लिए पार्टी गुंजाईश बनती भी है तो संभव है कुल्लू विधायक सूंदर ठाकुर ही पहली पसंद हो। फिर भी इस सम्भावना को पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता। इसी तरह वरिष्ठ नेता ठाकुर कौल सिंह को भी किसी महत्वपूर्ण बोर्ड निगम में एडजस्ट करने की चर्चा काफी वक्त से है। बहरहाल सरकार और संगठन में मंडी को कितना अधिमान मिलेगा, इसी पर निर्भर करेगा भविष्य में मंडी कांग्रेस पर कितनी मेहरबान रहती है।
बीजेपी आलकमान क्या करेगा, इल्म किसी को नहीं ! अध्यक्ष पद को लेकर करीब एक दर्जन नेताओं के नामो को लेकर कयासबाजी भाजपा ने दो बार अध्यक्ष को ही बनाया है सीएम ! नेता प्रतिपक्ष के ही सीएम बनने का रिवाज भाजपा में नहीं ! हिमाचल बीजेपी अध्यक्ष की ताजपोशी को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है। करीब -करीब एक दर्जन नाम दावेदारों की फेहरिस्त में है और हकीकत ये है कि बीजेपी आलाकमान क्या करेगा, इसका इल्म किसी को नहीं। पर तमाम माहिर कयास लगाकर दस्तूर जरूर पूरा कर रहे है। अब चर्चा में नया नाम है नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर का। कहा जा रहा है, बीजेपी का एक गुट चाहता है कि जयराम को संगठन की कमान सौप दी जाए और नेता प्रतिपक्ष का पद नई ताजपोशी हो, ताकि सीएम पद पर से जयराम की दावेदारी हल्की पड़ जाए। अब इसमें कितनी हकीकत है ये तो पता नहीं लेकिन आज की भाजपा में नेता प्रतिपक्ष ही सीएम बने, ऐसा रिवाज नहीं है। छत्तीसगढ़ हो या राजस्थान , भाजपा ने ऐसे चहेरों को आगे बढ़ाया जो न तीन में गिने जाते थे और न तेरह में। यानी बीजेपी में नेता प्रतिपक्ष होना सीएम पद की गारंटी कदा भी नहीं है। आज की बीजेपी में कब किसके दिन फिर जाए, कोई अनुमान नहीं लगा सकता। अगर इतिहास की बात करें तो हिमाचल में अब तक भाजपा के तीन सीएम बने है। इनमें से दो बार पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष को ही सीएम बनाया है। 1990 में शांता कुमार और 1998 में प्रो प्रेम कुमार धूमल। सिर्फ जयराम ही अपवाद है। ऐसे में किसी नेता को अध्यक्ष बनाकर उसे सीएम पद से दूर रखा जा सकता है, इतिहास तो इसकी तस्दीक नहीं करता। बहरहाल दो लोकसभा सांसद राज भारद्वाज और अनुराग ठाकुर, दो राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी और सिकंदर कुमार, वर्तमान अध्यक्ष डॉ राजीव बिन्दल, एक पूर्व अध्यक्ष यानी सतपाल सिंह सत्ती, दो पूर्व मंत्री बिक्रम ठाकुर और विपिन सिंह परमार, और दो अन्य मौजूदा विधायक त्रिलोक जम्वाल और रणधीर शर्मा के बाद अब नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर भी दौड़ में शामिल बताये जा रहे है। अब आलाकमान किस पर मेहरबान होता है, ये तो वक्त बताएगा।
दिल्ली से आगाज़, दिल्ली से अंत...जीत के साथ विदाई चाहेंगे नड्डा ! बंगाल में दीदी के आगे बीजेपी जीरो साबित हुई तो अपने ही होम स्टेट हिमाचल में नड्डा बीजेपी को गुटबाजी और बगावत से बचाने में फेल साबित दिखे। ठीक पांच साल पहले साल 2020 का दिल्ली विधानसभा चुनाव बीजेपी सुप्रीमो जेपी नड्डा का पहला इम्तिहान था। तब भाजपा को करारी हार मिली थी और तमाम दावे हवा हवाई सिद्ध हुए थे। दिल्ली की 70 में से सिर्फ आठ सीटें ही बीजेपी के खाते में आई थी। अब वक्त घूमकर फिर वहीं लौट आया, फिर दिल्ली में चुनाव है और फिर बीजेपी की साख दांव पर। फर्क सिर्फ इतना है कि बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष ये जेपी नड्डा का अंतिम इम्तिहान है। ऐसे में जाहिर है नड्डा भी चाहेंगे कि जाते-जाते उनकी सियासी बैलेंस शीट में दिल्ली की जीत भी जुड़ जाएं। बहरहाल बीजेपी ने इस बार दिल्ली में पूरा जोर लगाया है, पार्टी की माइक्रो मैनेजमेंट जमीन पर दिखी भी है। इस पर मोदी के मिडिल क्लास वाला बजट भी बीजेपी को लाभ पहुंचा सकता है। बावजूद इसके बीजेपी दिल्ली फतेह करेगी या दिल्ली अभी दूर रहेगी, ये कहना जल्दबाजी होगा। वैसे नड्डा के पांच साल के कार्यकाल में बीजेपी ने केंद्र की सत्ता में तो वापसी की ही, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे मुश्किल माने जा रहे राज्यों में भी कमाल दिखाया। कुल मिलाकर नड्डा के कार्यकाल में बीजेपी ने बेहतर किया। पर तीन राज्य ऐसे है जहां पूरी ताकत झोंकने के बावजूद बीजेपी ने मुंह की खाई, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और नड्डा का होम स्टेट हिमाचल प्रदेश। यूँ तो फेहरिस्त में झारखंड, कर्नाटक और तेलंगाना जैसे कई अन्य राज्य भी है, लेकिन जितनी ताकत भाजपा ने बंगाल और दिल्ली ने झोंकी, उतनी शायद अन्य राज्यों में नहीं। वहीँ हिमाचल तो नड्डा का गृह राज्य है, बावजूद इसके हिमाचल में भाजपा दिशाहीन दिखी है। बंगाल में दीदी के आगे बीजेपी जीरो साबित हुई तो अपने ही होम स्टेट हिमाचल में नड्डा बीजेपी को गुटबाजी और बगावत से बचाने में फेल साबित दिखे। यहां न सिर्फ बीजेपी ने सत्ता गंवाई, बल्कि आज भी जमीन पर सहज नहीं दिखती। हिमाचल को मिशन लोटस के फेल होने के लिए भी याद किया जाता रहेगा। वहीं दिल्ली में भी केजरीवाल के आगे बीते दो चुनाव में बीजेपी का हर दांव पीटा है। ऐसे में नड्डा चाहेंगे कि बेशक हिमाचल और पश्चिम बंगाल की विफलता उनके साथ जुड़ी रहेगी, लेकिन जाते-जाते कम से कम दिल्ली ही मिल जाए।
उपचुनाव के मैंडेट से पार्टी में सीएम सुक्खू की पोजीशन बेहद मजबूत प्रतिभा को हटाने का मतलब एक किस्म से वीरभद्र सिंह की विरासत को चुनौती देना ! मौजूदा पोलिटिकल गणित का असर होली लोज की पोलिटिकल केमिस्ट्री में भी दिखता है |आगामी 25 अप्रैल को पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह का कार्यकाल पूरा हो रहा है। इसके बाद उन्हें एक्सटेंशन मिलेगा या हटा दिया जायेगा, इसे लेकर अटकलों का बाजार गर्म है। हालांकि एक वर्ग मानता है कि प्रतिभा सिंह को हटाने का मतलब होगा एक किस्म से वीरभद्र सिंह की विरासत को चुनौती देना। इसमें कोई संशय नहीं कि प्रतिभा सिंह की ताजपोशी की मुख्य वजह भी वीरभद्र सिंह की विरासत को भुनाना ही था। तो क्या अब हिमाचल में कांग्रेस का गुजारा बगैर वीरभद्र नाम के मुमकिन है, ये अहम सवाल है ? हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि अब हिमाचल में कांग्रेस का सबसे बड़ा और मजबूत चेहरा सुखविंद्र सिंह सुक्खू ही है और पार्टी में अधिकांश बदलाव उनकी रज़ा अनुसार होने है। विशेषकर उपचुनाव में मिले मैंडेट ने सुक्खू की पोजीशन बेहद मजबूत कर दी है। उधर होली लॉज भी अब पहली जितना मजबूत नहीं दीखता लेकिन इतना कमजोर भी नहीं हुआ कि उसे दरकिनार किया जा सके। ये ही कारण है की प्रतिभा सिंह संगठन की मुख्या है तो उनके पुत्र विक्रमादित्य सिंह कैबिनेट मंत्री। जो विधायक खुलकर होली लॉज के साथ है, उन्हें भी एडजस्ट करने की कोशिश भी दिखती है। पर होली लॉज के साथ असल मसला ये ही है कि खुलकर साथ दिखने वाले एकाध ही बचे है। कोई निष्ठा बदल चूका है, तो कोई भाजपाई हो गया। यानी मौजूदा पोलिटिकल गणित में होली लॉज कमजोर है और इसका सीधा असर पोलिटिकल केमिस्ट्री में भी साफ दिखता है। पर जनता के बीच वीरभद्र परिवार के असर पर अब भी कोई सवाल नहीं है। गौर करने लायक बात ये भी है कि हिमाचल में कांग्रेस संगठन का नए सिरे से गठन कर रही है और इसमें पीसीसी चीफ को फ्रीहैण्ड नहीं मिला है। कांग्रेस ने इस बार नया फार्मूला इजादा किया है। माहिर मानते है कि अगर प्रतिभा सिंह को बदलना होता तो संगठन भंग करते वक्त ही उन्हें भी हटा दिया जाता , पर आलाकमान ने ऐसा नहीं किया। आगे भी मुमकिन है कि आलाकमान सन्तुलन सुनिश्चित करने के लिए प्रतिभा सिंह को ही एक्सटेंशन दे। वैसे भी कांग्रेस में अक्सर सरकार और संगठन में विरोधी गुटों की ताजपोशी का रिवाज सा है, ताकि दबाव दोतरफा बना रहे। फिलवक्त सब अटकलें है और निगाहें आलाकमान पर टिकी है। भविष्य में प्रदेश अध्यक्ष बदलता है या नहीं, इससे बड़ा सवाल फिलहाल ये है कि करीब तीन महीने से बगैर संगठन चल रही कांग्रेस को नए पदाधिकारी कब मिलते है। इन नामों को लेकर अटकलें पूर्व अध्यक्ष कुलदीप राठौर आलाकमान के नजदीक है और सीएम सुक्खू के विरोधी भी। उनके होली लॉज के साथ भी बेहतर सम्बन्ध है और इस नाते उनकी दावेदार मजबूत है। इसका अलावा चर्चा में संजय अवस्थी का नाम भी है जो सीएम सुक्खू के करीबी है। जिला मंडी से इकलौते विधायक चंद्रशेखर की दावेदारी भी खारिज नहीं की जा सकती। मंडी में लगातार दो चुनावों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुआ है, इस लिहाज से चंद्रशेखर को ताकतवर कर पार्टी मंडी पर विशेष फोकस कर सकेगी। वहीँ जिला शिमला से तीन मंत्री है। ऐसे में अगर एक मंत्री को ड्राप कर संगठन की कमान दी जाती है तो कैबिनेट में भी संतुलन बनाया जा सकेगा। चर्चा में रोहित ठाकुर और अनिरुद्ध सिंह के नाम है। बहरहाल, ये सब कयास है और अब भी एक बड़ा तबका मानता है कि प्रतिभा सिंह को एक्टेंशन मिलना लगभग तय है।
45 साल के इतिहास में बीजेपी ने मंडी , हमीरपुर और शिमला से बनाया चार -चार नेताओं को अध्यक्ष 35 साल से अध्यक्ष पद की कुर्सी कांगड़ा से दूर है अपने करीब 45 साल के इतिहास में बीजेपी ने हिमाचल प्रदेश में अब तक 13 नेताओं को संगठन की कमान सौपी है। कोई एक बार प्रदेश अध्यक्ष बना, कोई दो बार तो कोई तीन बार। इन 13 चेहरों में से चार -चार मंडी , हमीरपुर और शिमला संसदीय हलके से है, लेकिन कांगड़ा से केवल शांता कुमार ही अब तक प्रदेश संगठन के मुखिया बन पाए है। यानी भाजपा ने अपने संगठन में कांगड़ा-चम्बा हलके को वो तवज्जो नहीं दी , जो अन्य तीन संसदीय हलकों को मिलती आई है। आंकड़े तो ये ही इशारा करते है। ये ही कारण है कि अब जब फिर भाजपा को नया प्रदेश अध्यक्ष मिलना है तो कांगड़ा उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा है। इन 45 सालों में हमीरपुर के पास लगभग 20 साल तक अध्यक्ष पद रहा, शिमला के पास लगभग 11 वर्ष, मंडी के पास लगभग 10 वर्ष और कांगड़ा के हिस्से आये सिर्फ साल चार। 35 साल से अध्यक्ष पद की कुर्सी कांगड़ा से दूर है। हर बार अटकलों में कांगड़ा के नेताओं का जिक्र तो होता है, लेकिन आलाकमान की मेहरबानी नहीं होती। 2020 में तो पार्टी के एक राष्ट्रीय महसचिव ने इंदु गोस्वामी को बधाई तक दे डाली थी, फिर वो बधाई और उम्मीदें, दोनों डिलीट कर दिए गए। बहरहाल इस मर्तबा फिर कांगड़ा से कई नेता दौड़ में है। इनमें ज्यादा चर्चा विपिन सिंह परमार, राजीव भारद्वाज, इंदु गोस्वामी और बिक्रम ठाकुर के नाम की है। यानी मौटे तौर कांगड़ा से दो सांसद और विधायक दौड़ में है। अब ये दौड़ कुर्सी तक पहुँचती है या नहीं, ये देखना रोचक होगा। सत्ती दस साल, सबसे छोटा कार्यकाल बिंदल के नाम 1980 में भाजपा के गठन के बाद पहले प्रदेश अध्यक्ष बने ठाकुर गंगाराम जो मंडी से ताल्लुख रखते थे। वे 1984 तक अध्यक्ष रहे। इसके बाद शिमला संसदीय हलके के अर्की से सम्बन्ध रखने वाले नगीन चंद पाल भाजपा के अध्यक्ष बने, और 1986 तक पद पर रहे। 1986 में शांता कुमार हिमाचल भाजपा के अध्यक्ष बने और 1990 का विधानसभा चुनाव भी उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया। शांता कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद कुल्लू के महेश्वर सिंह प्रदेश अध्यक्ष बने और 1993 तक इस पद पर रहे। पर 1993 में भाजपा की शर्मनाक हार के बाद महेश्वर की विदाई हो गई और एंट्री हुई प्रो प्रेम कुमार धूमल की। उनके नेतृत्व में ही भाजपा ने 1998 के विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनाई और धूमल सीएम बने। फिर सुरेश चंदेल दो साल तक प्रदेश अध्यक्ष रहे और साल 2000 से लेकर 2003 तक जयकिशन शर्मा ने प्रदेश अध्यक्ष का पद संभाला। धूमल, सुरेश चंदेल और जयकिशन शर्मा, तीनों ही हमीरपुर संसदीय हलके से थे। साल 2003 में सुरेश भारद्वाज भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बने और 2007 तक इस पद पर रहे। भारद्वाज के बाद दो साल एक लिए जयराम ठाकुर और फिर 2009 से 2010 खीमीराम शर्मा ने पार्टी की कमान संभाली। 2010 में भाजपा अध्यक्ष पद पर सतपाल सिंह सत्ती की ताजपोशी हुई और वे दस साल लगातार अध्यक्ष रहे। सबसे अधिक वक्त तक अध्यक्ष रहने का रिकॉर्ड अब भी सत्ती के नाम है। सत्ती की विदाई के बाद डॉ राजीव बिंदल की ताजपोशी हुई लेकिन कोरोना काल में घोटाले के आरोप के बाद बिंदल को महज 186 दिन बाद ही नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देना पड़ा। ये हिमाचल में किसी भी भाजपा अध्यक्ष का सबसे छोटा कार्यकाल है। बिंदल के बाद सुरेश कश्यप को कमान सौपी गई और अप्रैल 2023 तक कश्यप पार्टी अध्यक्ष रहे। इसके बाद बिंदल की दोबारा बतौर अध्यक्ष एंट्री हुई। अब बिंदल को पार्टी फिर मौका देती है या नहीं, ये सवाल बना हुआ है। भाजपा के तीनों सीएम रहे है प्रदेश अध्यक्ष हिमाचल में भाजपा के अब तक तीन मुख्यमंत्री बने है और तीनों ही नेता प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद सीएम की कुर्सी तक पहुंचे। 1986 से 1990 तक प्रदेश अध्यक्ष रहे शांता कुमार 1990 में सीएम बने। हालांकि इससे पहले भी शांता सीएम रहे थे लेकिन तब भाजपा अस्तित्व में नहीं थी। इसके बाद 1993 से 1998 तक का कठिन दौर में पार्टी की कमान संभालने वाले प्रो प्रेम कुमार धूमल 1998 में सीएम बने। धूमल 2007 से 2012 तक भी सीएम रहे। वहीँ जयराम ठाकुर 2007 से 2009 तक प्रदेश अध्यक्ष रहे। 2017 में जब पार्टी सत्ता में लौटी तो जयराम को सीएम बनाया गया।
क्या 2027 में घर में ही होगी सीटों की अदला बदली ? क्या दूसरी राजधानी धर्मशाला में शिफ्ट हो सकते है कई महकमे ? क्या खत्म होने जा रहा है मंत्रिपद का इन्तजार ? अलबत्ता एक और कैबिनेट सीट के लिए कांगड़ा का इन्तजार जारी हो, लेकिन मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू अपने 'कांगड़ा प्लान' के साथ एक नियोजित तरह से मिशन कांगड़ा में जुटे दिख रहे है। सियासी बिसात पर हर चाल नपी-तुली है और इसकी मार दूर तक दिख सकती है। सरकार का शीतकालीन प्रवास हो, बैजनाथ में पूर्ण राज्यत्व दिवस का आयोजन या कांगड़ा को टूरिज्म कैपिटल बनाने की प्रतिबद्धता को दोहराना, इन तमाम कदमों में माहिर भविष्य की सियासी कदमताल भी देख रहे है। हालांकि ये पहली बार नहीं हो रहा, ये सिलसिला पुराना है। हुकुमरानों द्वारा कांगड़ा के मान-मनौव्वल और अधिमान का पूरा ख्याल रखने की प्रतिबद्धता भी पुरानी है। कारण है इस जिले का सियासी वजन। काफी हद तक कांगड़ा की 15 विधानसभा सीटें शिमला की कुर्सी का फैसला करती है। 1985 से चुनाव दर चुनाव ऐसा होता आ रहा है। कांगड़ा के साथ मसला ये है कि शांता कुमार के बाद जिला कांगड़ा को सीएम पद नहीं मिला। वहीँ वर्तमान कैबिनेट में सिर्फ दो बर्थ कांगड़ा को मिली है, जबकि सत्तारूढ़ कांग्रेस के दस विधायक है। ये उम्मीद से कम से कम एक कम है। जमीनी स्तर पर कांगड़ा की ये टीस दिखती भी है। दरअसल कांगड़ा के लोग हिमाचल के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले राजनैतिक तौर पर ज्यादा मुखर है। सीएम पद न मिलने का मलाल हो या कम मंत्री पद दिए जाने की टीस, जमीन पर इसकी झलक दिखती है। तो क्या सीएम सुक्खू के तथाकथित 'कांगड़ा प्लान' में इसकी काट है, ये बड़ा सवाल है। दरअसल सीएम सुखविंद्र सिंह सुक्खू अपने 'कांगड़ा प्लान' के साथ एक भावनात्मक रिश्ता जोड़ने की मुहीम में दिख रहे है। ये प्लान हवा हवाई नहीं बल्कि एक ठोस रणनीति दिखता है। मसलन कांगड़ा के देहरा हलके में पहले मुख्यमंत्री ऐलान करते है कि 'देहरा अब मेरा', और फिर उसी देहरा उपचुनाव में अपनी पत्नी को मैदान में उतार देते है। नतीजन, अब कांगड़ा से सीएम का सीधा सियासी सम्बन्ध बन गया। देहरा में सीएम कार्यालय भी खोल दिया गया। कांगड़ा को अपने परिवार का चुनाव क्षेत्र बना लेने को माहिर एक लाजवाब सियासी चाल की तरह देखते है और इस सम्भावना से भी इंकार नहीं करते कि 2027 में परिवार में ही सीटों की अदला बदली भी मुमकिन है। वहीँ, सूत्रों की माने तो प्रदेश की दूसरी राजधानी धर्मशाला को लेकर भी सुक्खू सरकार विशेष एक्शन प्लान तैयार कर रही है। अब तक दूसरी राजधानी की उपयोगिता शीतकालीन सत्र तक सिमट कर रहती दिखी है, लेकिन शीतकालीन प्रवास से सीएम ने संकेत दिए है कि सरकार का ईरादा इससे अधिक है। बताया जा रहा है कि शिमला से कई महत्वपूर्ण महकमे धर्मशाला स्थान्तरित किये जाने की योजना पर सरकार आगे बढ़ सकती है। इससे जहाँ शिमला से भार कम होगा, वहीँ धर्मशाला में प्रशासनिक गतिविधियां बढ़ेगी। हालांकि प्रतिकूल वित्तीय हालात इसमें बड़ा रोड़ा है। मंत्रिमंडल की बात करें तो वर्तमान में कांगड़ा से दो मंत्री है, चौधरी चंद्र कुमार जो ओबीसी वर्ग से आते है और यादविंद्र गोमा जो एससी समुदाय से आते है। ऐसे में ये लगभग तय माना जा रहा है कि जल्द सवर्ण समाज से ताल्लुख रखने वाले किसी विधायक की ताजपोशी होगी। यानी मंत्रिपद का इंतजार खत्म होगा। इसके अलावा संगठन में कांगड़ा से एक कार्यकारी अध्यक्ष की नियुक्ति के फॉर्मूले को भी पार्टी दोहरा सकती है। क्या कांगड़ा से अध्यक्ष बनाएगी भाजपा ? बात विपक्ष में बैठी भाजपा की करें तो जल्द पार्टी को नया प्रदेश अध्यक्ष मिलना है और कांगड़ा वालों को उम्मीद है कि अर्से बाद भाजपा आलाकमान कांगड़ा पर करम फरमाएगा। हालाँकि आम जनता को इससे खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अगर अध्यक्ष पद आया तो भविष्य में सीएम पद की उम्मीद भी जगेगी। वहीँ, पार्टी विचारधारा से जुड़े लोगों के लिए भी ये बूस्टर डोज़ का काम कर सकता है। अब ऐसा हो पाता है या नहीं, ये देखना दिलचस्प होगा।
पौने तीन महीने से हिमाचल में बगैर संगठन के है कांग्रेस आलाकमान की लेट-लतीफी से आम वर्कर मायूस कांग्रेस का संगठन न हुआ बीरबल की खिचड़ी हो गई। हिमाचल में कांग्रेस करीब पौने तीन महीने से बगैर संगठन के है। इस दौरान कांग्रेस संगठन में कोई गतविधि नहीं हुई और पार्टी मुख्यालय में सन्नाटा पसरा है। हिमाचल में 6 नवंबर से कांग्रेस का संगठन भंग है, न प्रदेश कार्यकारिणी है और न जिला और ब्लॉक इकाइयां। संगठन में बची है सिर्फ पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह। राज्य , जिला और ब्लॉक इकाइयों के अलावा आलाकमान ने महिला कांग्रेस और युवा कांग्रेस कार्यकारिणी भी भंग कर रखी है। दिलचस्प बात ये है कि फिलहाल संगठन पुर्नगठन को लेकर कोई हलचल नहीं दिख रही। माना जा रहा है की संभवतः दिल्ली चुनाव के बाद ही अब आलाकमान कोई खैर खबर लेगा। दरअसल, कांग्रेस हिमाचल में संगठन की नियुक्तियों के लिए नया फार्मूला इस्तेमाल कर रही है। अब प्रदेश अध्यक्ष को मर्जी की टीम नहीं मिलेगी बल्कि आब्जर्वर की रिपोर्ट के आधार पर संगठन में ताजपोशी होगी। आलाकमान ने सभी 12 जिलों और चारों संसदीय क्षेत्रों में पर्येवेशक नियुक्त किये है, ताकि जमीनी फीडबैक मिल सके। नवंबर के तीसरे सप्ताह में इनकी नियुक्ति हुई थी जिसके बाद फीडबैक लेने ये प्रदेश के अलग अलग हिस्सों में पहुंचे। बताया जा रहा है की ये पर्येवेशक अपनी रिपोर्ट आलाकमान को सौंप चुके है, बावजूद इसके नई कार्यकारणी का गठन नहीं हुआ है। उधर, आलाकमान की इस लेट लतीफी से पार्टी का वर्कर जरूर मायूस दिख रहा है। वैसे जहन में ये भी रखना होगा की इस बीच सरकार के दो साल का जश्न का आयोजन भी बिना संगठन के हुआ है। इसकी कमान खुद सीएम सुक्खू ने संभाली थी और भीड़ की कसौटी पर देखे तो ये आयोजन हिट साबित हुआ। सियासी माहिर इसे भी एक बड़े फैक्टर की तरह देख रहे है। हर गुट चाहेगा उनके निष्ठावान एडजस्ट हो बहरहाल संगठन में जो नियुक्तियां होनी है उसे लेकर भी खींचतान जारी है। सर्वविदित है कि हिमाचल कांग्रेस में कई गुट है लेकिन मौटे तौर पर सुक्खू गुट और हौली लॉज कैंप के अलावा अग्निहोत्री की अपनी एक अलग लॉबी दिखती है। हालांकि अग्नहोत्री बेहद संतुलित ढंग से सियासत करते दिखे है लेकिन जाहिर है वे भी अपने समर्थकों को संगठन के अहम् ओहदों पर एडजस्ट करना चाहेंगे। आलाकमान भी इससे अवगत है और पार्टी के जहन में हरियाणा भी होगा जहाँ गुटबाजी कांग्रेस को ले बैठी। हरियाणा में अर्से से पार्टी संगठन तक नहीं बना पा रही है। ऐसे में लाजमी है आलाकमान भी फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाये और संतुलन सुनिश्चित करें। क्या दिग्गजों को किया जायेगा एडजस्ट ठाकुर कौल सिंह , राम लाल ठाकुर, आशा कुमारी, ठाकुर सिंह भरमौरी जैसे कई दिग्गज विधानसभा चुनाव हारने के बाद से ही हाशिये पर दिखे है। इनमें से कई ने खुलकर शिकवे शिकायत भी किये है। विशेषकर हौली लॉज के कई निष्ठावान साइड लाइन दिखे है। इन्हें सरकार ने बोर्ड निगमों में एडजस्ट नहीं किया है लेकिन क्या इन्हें संगठन में अहम् ओहदे मिलेंगे, ये देखना रोचक होगा। गौर करने लायक बात ये भी है की इनमें से कई नेताओं का विकल्प अब भी कांग्रेस के पास नहीं दिख रहा। प्रतिभा सिंह का कार्यकाल भी खत्म होने को आगामी अप्रैल में पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह का तीन साल का कार्यकाल पूरा होगा। संगठन में अगर प्रतिभा सिंह के मन मुताबिक नियतुक्तियाँ नहीं होती है, तो ये उनके लिए बड़ा झटका होगा। ये देखना भी दिलचस्प होगा कि क्या अप्रैल के बाद प्रतिभा सिंह पीसीसी चीफ बनी रहेगी या उन्हें भी बदल दिया जायेगा। हालांकि माहिर मानते है की कांग्रेस के आंतरिक संतुलन के लिहाज से प्रतिभा सिंह को एक्सटेंशन लगभग तय है।
कहा , मित्रों को इक्कठा करके बताएँगे राजनीति क्या होती है तो कांगड़ा में बढ़ सकती है भाजपा की मुश्किलें भाजपा से खफा पूर्व मंत्री एवं विधायक रमेश चंद ध्वाला कांगड़ा में गरजने की हुंकार भर रहे है। ध्वाला तीसरे मोर्चे का या यूँ कहे भाजपा विरोधी मोर्चे का संकेत दे रहे है। भाजपा को खुली चुनौती दे रहे है की मित्रों को इक्कठा करके बताएँगे, राजनीति क्या होती है। दरअसल, कांगड़ा में भाजपा के नाराज नेताओं में अकेले ध्वाला नहीं है, और भी कई नेता है जो हाशिये पर है। ये फहरिस्त लम्बी है। कुछ समय पूर्व भी इन नेताओं के एक होने की चर्चा थी, और अब फिर ध्वाला ने इन कयासों को हवा दे दी है। सूत्रों की माने तो इस फेहरिस्त में ध्वाला के अलावा कई वरिष्ठ नेता और पूर्व विधायक बताये जा रहे है। यदि ऐसा होता है तो कांगड़ा में भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती है। एक दौर था जब रमेश चंद ध्वाला हिमाचल भाजपा के लिए नायक थे। 1998 में धूमल सरकार बनाने में उनकी भूमिका भला कौन भूल सकता है। पर ये ही ध्वाला बीते करीब सात साल से भाजपा से खफा- खफा है। दरअसल जयराम ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने के बाद ध्वाला को कैबिनेट में एंट्री नहीं मिली थी। इसके बाद से ही ध्वाला की टीस दिखने लगी थी। फिर पूर्व में संगठन मंत्री रहे पवन राणा के साथ उनकी सियासी खींचतान भी खूब सुर्खियों में रही। हालांकि धूमल गुट के असर के चलते 2022 में उन्हें टिकट तो मिल गया, लेकिन चुनाव हारने के बाद भाजपा में ध्वाला साइडलाइन ही दिखे है। विशेषकर होशियार सिंह की भाजपा में एंट्री और फिर उपचुनाव में होशियार को ही टिकट दिए जाने के बाद ये खाई बढ़ती दिखी है। इस बीच भाजपा संगठन में भी नई नियुक्तियां हुई है और पार्टी ने ज्वालामुखी और देहरा, दोनों ही हलकों में उनके समर्थकों को तरजीह नहीं दी है। बहरहाल, रमेश चंद ध्वाला भाजपा पर भड़ास भी निकाल रहे है और अपनी ही पार्टी को चुनौती भी दे रहे है। निशाने पर कौन कौन है, ये सब जानते है। ध्वाला राजनीति के माहिर खिलाड़ी है और सियासी शतरंज के सभी दांव पेंचों से भली भांति वाकिफ भी। सियासत का उनका अपना अलग सलीका है, बेबाक सलीका। इसलिए, वो बगैर नापे तोले उपेक्षा का दर्द भी बयां कर रहे है, अपना योगदान भी स्मरण करवा रहे है, पार्टी को आइना भी दिखा रहे है और अपनी जमीनी कुव्वत का अहसास भी करवा रहे है। आप ध्वाला को पसंद करें या नापसंद करे लेकिन खारिज नहीं कर सकते। आज भी ध्वाला हिमाचल की राजनीति में बड़ा ओबीसी चेहरा है विशेषकर कांगड़ा में और कई सीटों पर प्रभाव रखते है।देहरा और ज्वालामुखी में तो उनका सीधा असर दीखता है। ऐसे में उनकी टीस भाजपा के लिए जरा भी मुफीद नहीं है। हालांकि संगठन की नई नियुक्तियों में भाजपा का जातीय डैमेज कण्ट्रोल दीखता है, फिर भी उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। सवा तीन साल में भाजपा को मिली हार पर हार हिमाचल में भाजपा के लिए बीते तीन साल में कुछ भी अच्छा नहीं घटा है। विधानसभा चुनाव हो या उपचुनाव, पार्टी को मिली है सिर्फ हार पर हार। बीते तीन सवा तीन साल में पार्टी ने सत्ता तो गवाईं ही है, पार्टी विधानसभा के एक बारह में से सिर्फ तीन उपचुनाव ही जीत सकी है। इस पर पूर्व कांग्रेसी और निर्दलीयों के पार्टी में आने के बाद एक और खेमा बनने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में कार्यकर्त्ता का मनोबल टूटना लाजमी है। अब अगर अगर कांगड़ा में भाजपा से रूठे नेताओं का अलग मोर्चा बनता है तो तय मानिये इसकी भरपाई भाजपा के मुश्किल होगी।
** क्या लखविंदर की होगी घर वापसी ? **या हारे हुए बावा पर फिर दांव खेलेगी कांग्रेस ..... जो गगरेट में हुआ क्या वो नालागढ़ में भी होगा ? क्या कालिया की तरह ही लखविंदर की भी होगी घर वापसी ? क्या गगरेट की रणनीति पर नालागढ़ में सियासी व्यूह रचेगी कांग्रेस ? ये तमाम सवाल उठना लाज़मी है क्योंकि अब नालागढ़ में उपचुनाव होने वाला है। जो निर्दलीय थे उनकी घर वापसी हो गई है और जो भाजपाई है उनकी घर वापसी हो सकती है और जो अब अपने घर में बैठे है उनका क्या होगा कोई पता नहीं ..बस कुछ इसी तरह घूम रही है नालागढ़ की सियासत। हाल ही में 6 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में से 4 सीटें कांग्रेस ने जीती है और राजनीतिक विश्लेषक मानते है कि कांग्रेस की इस जीत का बड़ा कारण सही टिकट आवंटन रहा है। गहन चिंतन-मंथन के बाद कांग्रेस ने प्रत्याशियों कि घोषणा की थी। बागियों के भाजपा में जाने से कई भाजपाई ऐसे थे जो कांग्रेस में आना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस ने टिकट दिया केवल 2 सीटों पर, सुजानपुर और गगरेट। अब सुजानपुर में जो भाजपा से कांग्रेस में आए वो कभी कांग्रेसी थे ही नहीं, लेकिन राकेश कालिया की तो घर वापसी हुई है। राकेश कालिया तो पहले भी कांग्रेस से विधायक रहे है। वैसे गगरेट में कांग्रेस के पास कोई मजबूत चेहरा भी नहीं था तो कालिया की घर वापसी कांग्रेस के मुनाफ़े का सौदा ही रही। अब नालागढ़ में भी समीकरण कुछ ऐसे ही बनते दिख रहे है। निर्दलीय केएल ठाकुर की 15 महीने बाद ही घर वापसी हो गई है और 2022 में कांग्रेस से भाजपा में गए लखविंदर राणा भी अब घर वापसी की उम्मीद में ही होंगे। राणा तो अपना दर्द खुले मंच से बयान भी कर चुके है कि अगर दल न बदला होता तो आज विधायक भी होते और सरकार में अहम पद भी मिलता। अब लखविंदर की घर वापसी होती है या नहीं ये तो वही जाने मगर कांग्रेस इस बारे सोच विचार ज़रूर कर सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि लखविंदर पहले भी 2 दफा नालागढ़ सीट कांग्रेस की झोली में डाल चुके है। 2011 के उपचुनाव और 2017 के आम चुनावो में लखविंदर कांग्रेस पार्टी की टिकट पर चुनाव जीते थे। जबकि पिछली दफा कांग्रेस के प्रत्याशी रहे हरदीप सिंह बावा 2 चुनाव हार चुके है 2017 में एक बार निर्दलीय और 2022 में दूसरी दफा कांग्रेस टिकट पर भी बावा को हार ही नसीब हुई है। अब हारे हुए मोहरों पर कांग्रेस फिर दांव खेलेगी ऐसा तो मुश्किल ही लगता है। अब नज़रे टिकी है लखविंदर राणा पर। लखविंदर अगर घर वापसी करते है और पार्टी उन्हें टिकट देती है तो नालागढ़ का ये चुनाव बेहद रोचक होना तय मानिए..ठीक उसी तरह जिस तरह गगरेट में चुनाव ग्रेट बना था।