**हिंदी बेल्ट में अकेले दम पर सिर्फ हिमाचल में बची कांग्रेस की सरकार **2019 में हिंदी पट्टी की 251 में से सिर्फ 7 पर जीता था कांग्रेस गठबंधन 2018 में जब कांग्रेस जब तीन राज्यों में जीती थी, तब भी 2019 में पीएम मोदी के चेहरे के सामने कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया था। इस बार तो हिंदी पट्टी के इन तीन राज्यों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हुआ है। ये 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी के लिए बड़ा झटका है। कांग्रेस के तमाम दावे हवा हवाई हो गए और हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली है। यहाँ कांग्रेस का हर दांव उल्टा पड़ा। ऐसे में 2024 में केंद्र की सत्ता तक पहुंचने का कांग्रेस का ख्वाब फिलहाल पूरा होना मुश्किल होगा। इन तीन राज्यों में ही 65 लोकसभा सीटें है। आपको याद दिला दें कि 2018 में तीनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी थी, बावजूद इसके 2019 में कांग्रेस के हिस्से आई थी महज 3 सीटें। वहीँ इस बार भाजपा ने मोदी के चेहरे पर विधानसभा चुनाव लड़ा तो तीनों राज्यों में कांग्रेस साफ़ हो गई और ऐसे में 2024 में कांग्रेस का टिकना बेहद मुश्किल होगा। इन तीन राज्यों में कांग्रेस को बड़ा झटका लगा है, उसका ओपीएस कार्ड भी फेल हो गया और गारंटी मॉडल भी। वहीँ राहुल गाँधी की जिस बढ़ती लोकप्रियता का दावा कांग्रेस कर रही थी वो दक्षिण में तो दिखी लेकिन हिंदी पट्टी में वैसा नहीं दिखा। नतीजे तो ये ही बताते है। बगैर हिंन्दी पट्टी में खुद को मजबूत किये कांग्रेस किस आधार पर 2024 में जीत का स्वपन देख रही है, ये पार्टी के रणनीतिकार ही जानते है। इन तीन राज्यों को छोड़े भी दे तो उत्तरप्रदेश, बिहार, गुजरात और दिल्ली में भी पार्टी वेंटिलेटर पर दिखती है। इन राज्यों में 153 लोकसभा सीटें है और राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को जोड़कर ये आंकड़ा 218 हो जाता है। इसके अलावा 10 सीटों वाले हरियाणा और 5 सीटों वाले उत्तराखंड में भी न कांग्रेस सत्ता में है और न कोई बड़ा तिलिस्म करने की स्थिति में दिखती है। वहीँ 14 सीटों वाले झारखण्ड में कांग्रेस गठबंधन सरकार का हिस्सा है लेकिन अकेले दम पार्टी की हैसियत किसी से छिपी नहीं है। हिंदी पट्टी में हिमाचल प्रदेश इकलौता राज्य है जहाँ कांग्रेस की सरकार है, लेकिन चार सीटों वाले इस छोटे प्रदेश में भी पार्टी बहुत सहज नहीं दिखती। कुल मिलाकर हिन्द्दी पट्टी में 251 लोकसभा सीटें है। 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपीए को इनमें से सिर्फ 7 पर जीत मिली थी। हालांकि तब बिहार में जेडीयू एनडीए का हिस्सा था और यूपी में सपा और बसपा मिलकर लड़े थे और यूपीए गठबंधन का हिस्सा नहीं थे। अब यूपीए गठबंधन खत्म हो चूका है और विपक्ष ने इंडिया गठबंधन बनाया है लेकिन ये नए पैकेट में पुराने सामान की तरह ही दिख रहा है। सपा और कांग्रेस के बीच मध्य प्रदेश में तल्खियों का ट्रेलर दिख चूका है और नतीजा भी अब सबके सामने है। वहीँ जेडीयू भी कांग्रेस के रवैये से नाखुश है। कांग्रेस और आप भी आमने -सामने है। ऐसे में हिंदी पट्टी में विपक्ष कैसे भाजपा से लड़ पायेगा, ये तो माहिरों की भी समझ से परे है। कांग्रेस विपक्ष की धुरी है और हिंदी पट्टी में जीत दिल्ली का रास्ता प्रशस्त करती है। ऐसे में हिंदी पट्टी में कमजोर होकर कांग्रेस न तो विपक्ष की अगुवाई कर सकती है और न ही भाजपा से मुकाबला। मोदी की टक्कर में चेहरा नहीं ! इस हार ने कांग्रेस की पुरानी कमी को फिर उजागर कर दिया। हिंदी पट्टी में प्रधानमंत्री मोदी सबसे लोकप्रिय नेता है और कांग्रेस के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं जो टक्कर दे सके। भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गाँधी को दक्षिण में तो लोकप्रियता मिली है लेकिन हिंदी पट्टी में अब भी राहुल की लोकप्रियता में कोई ख़ास बदलाव नहीं दिखता। जो दीवानगी पीएम मोदी के लिए इन तीन राज्यों में दिखी वो भाजपा की जीत का बड़ा कारण है। तीन राज्यों के चुनावों की बात करें तो सिर्फ राजस्थान में अशोक गहलोत ऐसा चेहरा दिखे जो भाजपा को मुद्दों पर घेरते दिखे और टक्कर में भी लगे, ये ही कारण है भाजपा को राजस्थान में पूरी ताकत झोंकनी पड़ी। इसके अलावा पूरी कांग्रेस में हिन्द्दी पट्टी का एक भी ऐसा चेहरा नहीं दिखता जो मुकाबले में खड़ा भी दिखे। हालांकि प्रियंका गाँधी भी भीड़ जुटाने में कामयाब दिखी लेकिन भीड़ वोटों मे नहीं बदल पाई। राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे दक्षिण से आते है और उसका लाभ पार्टी को कर्णाटक और तेलंगाना में मिला भी है, लेकिन वे हिंदी पट्टी से वैसे कनेक्ट नहीं कर पाते जिस तरह पीएम मोदी करते है। ऐसे में कांग्रेस को नीति रणनीति में बदलाव की सख्त जरुरत है।
तीन राज्यों में कांग्रेस के लिए गेम चैंजेर हो सकता हैं OPS कांग्रेस को उम्मीद, भाजपा को पस्त करेगा ओपीएस अस्त्र तीन राज्यों में चला ओपीएस फैक्टर तो क्या भाजपा बदलेगी स्टैंड ? देश के सियासी पटल पर कांग्रेस की चमक बीते एक दशक में लगातार फीकी पड़ी है। कुछ राज्यों में मिली जीत छोड़ दी जाएँ तो देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी का ग्राफ साल दर साल गिरता रहा है। इस दरमियान पार्टी मौटे तौर पर किसी भी मुद्दे पर भाजपा को घेर नहीं पाई। पर बीत कुछ वक्त में पार्टी के हाथ एक मुद्दा लगा भी हैं और पार्टी ने उसका असर देखा भी हैं। ये मुद्दा है पुरानी पेंशन बहाली का जो मौजूदा समय में कांग्रेस के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकता है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा मिला है और अब निगाहें टिकी हैं राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों पर। इन तीन राज्यों के नतीजे न सिर्फ कांग्रेस की दशा सुधार सकते हैं, बल्कि पार्टी को दिशा भी दे सकते हैं। नतीजे मनमाफिक आएं तो केंद्रीय राजनीति में भी कांग्रेस ओपीएस की पिच पर खेलती दिख सकती हैं। बता दें कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस ओपीएस लागू करने के बाद मैदान में हैं, तो मध्य प्रदेश में पार्टी ने सत्ता आने पर ओपीएस का वादा किया हैं। कांग्रेस को उम्मीद हैं कि ओपीएस का मुद्दा इन तीन राज्यों में गेम चैंजेर सिद्ध होगा। फिलवक्त कांग्रेस के लिए ओपीएस का मुद्दा आस हैं, तो भाजपा के लिए गले की फांस हैं। माहिर भी मानते हैं कि ओपीएस का विरोध कर भाजपा एक बड़ा सियासी जोखिम ले रही है। भाजपा या तो ओपीएस पर एक शब्द नहीं बोलती या फिर इसका विरोध करती हैं, जहाँ जैसी सियासी जरुरत हो। पर इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि ओपीएस वो मुद्दा हैं जो न भाजपा से निगलते बन रहा हैं और न उगलते। खासतौर से पिछले दो ढाई साल से देश के विभिन्न राज्यों में ओपीएस बहाली का मुद्दा एक आंदोलन का रूप लेता जा रहा हैं। हिमाचल में भाजपा इसका खमियाजा भुगत चुकी हैं और अब तीन राज्यों के चुनाव नतीजों पर निगाह हैं। अगर कांग्रेस का ये मुद्दा चल गया तो भाजपा के पास फिलहाल इसकी कोई काट नहीं दिखती। हालांकि ये भी सच हैं कि राज्य सरकारें बिना केंद्र के सहयोग से लंबे समय तक आगे नहीं चल सकती हैं। एनपीएस का पैसा पीएफआरडीए में जमा है, जो केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। केंद्र की मर्जी के बिना, एनपीएस का पैसा राज्यों को नहीं दिया जा सकता। ऐसे में केंद्र पेंच फँसायें रख सकता हैं। पर ये भी तय हैं कि यदि राज्यों में कांग्रेस को अनुकूल परिणाम मिले तो कांग्रेस लोकसभा चुनाव में इसे जोर शोर से भाजपा के खिलाफ भुनाएगी। आखिरी सियासी जंग राज्यों की नहीं, बल्कि केंद्र की सत्ता के लिए ही होनी हैं। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश, इन तीनों ही राज्यों में मतदान हो चूका हैं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस पहले से सत्ता में हैं तो मध्य प्रदेश में पार्टी को सत्ता वापस चाहिए। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार में रहते ओपीएस बहाल कर चुकी हैं, वहीँ मध्य प्रदेश में ओपीएस बहाली कांग्रेस की गारंटी हैं। सिलसिलेवार बात करें तो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता वापसी को आश्वस्त दिख रही हैं, पर इसका कारण सिर्फ ओपीएस बहाली नहीं हैं। दरअसल छत्तीसगढ़ में वोटर साइलेंट रहा हैं और प्रत्यक्ष एंटी इंकम्बैंसी नहीं दिखी हैं। ऐसे में वोटिंग परसेंटेज में इजाफे को कांग्रेस प्रो इंकम्बैंसी मान कर चल रही हैं। पार्टी का मानना हैं कि बघेल सरकार के कई फैसले और योजनाओं के नाम पर जनता ने वोट दिया हैं जिनमें से ओपीएस भी एक हैं। वहीं मध्य प्रदेश में कांग्रेस को उम्मीद हैं कि लोगों को बदलाव चाहिए और बदलाव के लिए मतदान हुआ हैं। पर जानकार मान रहे हैं कि यहाँ मुकाबला नजदीकी हैं, ठीक 2018 की तरह। मध्य प्रदेश में निसंदेह ओपीएस बड़ा फैक्टर हैं। ऐसे में नजदीकी मुकाबले में यदि कांग्रेस बाजी मार जाती हैं तो ओपीएस को क्रेडिट देना पूरी तरह सही होगा। जानकारों की माने तो ये संभव हैं कि नजदीकी मुकाबले में ओपीएस ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस के लिए विक्ट्री शॉट लगा दिया हो। हालांकि इसकी तस्दीक काफी हद तक पोस्टल बैलट की गिनती से ही हो जाएगी। अब बात करते हैं उस राज्य की जहाँ ओपीएस को कांग्रेस ने सबसे बड़े सियासी अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया हैं। राजस्थान ओपीएस बहाल करने वाला देश का पहला राज्य था और इसका सेहरा बंधा सीएम अशोक गहलोत के सर। राजस्थान में आखिरी बार 1993 में सरकार रिपीट हुई थी, तब से हर बार बदलाव होता आया हैं। अधिकांश जानकार मानते हैं कि ये रिवाज बरकरार रह सकता हैं, लेकिन शायद ही कोई ऐसा हैं जो पूरी तरह रिपीट की सम्भावना को खारिज कर रहा हैं। ये ही कारण हैं कि मतदान से पहले एक सप्ताह में भाजपा ने राजस्थान में पूरी ताकत झोंक दी। पीएम मोदी ने इतनी जनसभाएं शायद ही इससे पहले किसी राज्य के विधानसभा चुनाव में की हो। उधर कांग्रेस को पता तो हैं कि 'मिशन रिपीट' डिफीट हो सकता हैं, लेकिन कर्मचारी वोट के बुते पार्टी को इतिहास रचने का भरोसा हैं। कांग्रेस को भरोसा हैं कि ओपीएस के चलते कर्मचारी वोट उसे मिला हैं और नतीजे चौंकाने वाले होंगे। क्या गहलोत का दांव मास्टर स्ट्रोक सिद्ध होगा ! सियासत में मुद्दे बनाये जाते है, बढ़ाये जाते है और उनका इस्तेमाल कर सत्ता की राह प्रशस्त की जाती हैं। राजस्थान में अशोक गहलोत ओपीएस बहाल तो पहले ही कर चुके थे, ऐसे में ओपीएस को भुनाने के लिए गहलोत ने अब नया पासा फेंका। कांग्रेस ने गारंटी दी है कि दूसरी बार सरकार बनते ही कर्मचारियों के लिए 'ओपीएस' को कानून के जरिए पक्का कर दिया जाएगा। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा, 'तो वेट नहीं, वोट कीजिए और पोस्टल बैलेट से ओपीएस को लॉक कीजिए'। सात चुनावी गारंटियों में पुरानी पेंशन स्कीम को कानूनी गारंटी का दर्जा देना भी शामिल हैं और इसे पहले नंबर पर रखा गया है। हालांकि गहलोत के इस दांव में पेंच भी है। ओपीएस को अगर राज्य में कानूनी दर्जा मिल भी गया तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि किसी दूसरे दल की सरकार उस कानून को निरस्त नहीं करेगी। ऐसे में कानूनी दर्जे की अहमियत पर सवाल उठना लाजमी हैं। फिर भी गहलोत को भरोसा हैं कि इससे वे कर्मचारियों का भरोसा जीतने में कामयाब रहे हैं। बहरहाल कर्मचारी अपना फैसला ले चुके हैं और नतीजे के लिए 3 दिसंबर का इन्तजार करना होगा। तो भाजपा को भी बदलना पड़ेगा स्टैंड ! माहिर मान रहे हैं कि अब तक ओपीएस फैक्टर का इस्तेमाल विधानसभा चुनावों में ही हुआ हैं। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का ये दांव सही पड़ा था और अब निगाह राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश पर हैं। विशेषकर अगर राजस्थान में सबको चौंकाते हुए कांग्रेस रिपीट कर जाती हैं तो ओपीएस की गूंज पुरे देश में सुनने को मिल सकती हैं। राजस्थान में सरकारी कर्मचारी अगर ओपीएस के समर्थन में मतदान करते हैं, तो चुनावी नतीजे चौंका सकते हैं। राजस्थान में करीब दस लाख सर्विंग और रिटायर्ड कर्मचारी हैं। इनके परिवारों को मिला लिया जाएँ तो ये संख्या विधानसभा चुनाव में समीकरण पूरी तरह बदल सकती हैं। यदि ऐसा होता हैं तो मुमकिन हैं भाजपा के रुख में भी ओपीएस को लेकर परिवर्तन देखने को मिले। राज्य कर रहे ओपीएस बहाल, पर फंसा हैं पेंच ! राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पंजाब और हिमाचल प्रदेश; ये वो राज्य हैं जो बीत कुछ वक्त में पुरानी पेंशन योजना को लागू करने का एलान कर चुके हैं। पर इसमें कोई दो राय नहीं हैं की इन राज्यों को आने वाले वक्त में आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। दरअसल, एनपीएस के तहत राज्य सरकारें, अपना और कर्मचारी की सैलरी का एक तय हिस्सा पेंशन फंडिंग रेगुलेटरी डेवलेपमेंट अथॉरिटी को देती हैं। इसे बाद में कर्मचारी को पेंशन के रूप में दिया जाता है। इसके तहत पेंशन फंडिंग एडजस्टमेंट के तहत राज्य सरकारें, केंद्र से अतिरिक्त कर्ज ले सकती हैं। यह अतिरिक्त कर्ज राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का तीन फीसदी तक हो सकता है। अब केंद्र ने नियमो में बदलाव किया हैं जिसके बाद संभव हैं कि ओपीएस लागु करने वाले राज्यों को कम कर्ज मिले। दूसरा, जिन राज्यों ने अपने कर्मियों को पुरानी पेंशन के दायरे में लाने की घोषणा की है, उन्हें एनपीएस में जमा कर्मियों का पैसा वापस नहीं मिलेगा, ये केंद्र ने एक किस्म से साफ कर दिया है। यह पैसा पेंशन फंड एंड रेगुलेटरी अथारिटी (पीएफआरडीए) के पास जमा है। नई पेंशन योजना यानी एनपीएस के अंतर्गत केंद्रीय मद में जमा यह पैसा राज्यों को नहीं दिया जा सकता, बल्कि ये पैसा केवल उन कर्मचारियों के पास ही जाएगा, जो इसका योगदान कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकार ने पीएफआरडीए से पैसा वापस लेने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह किया था, पर कोई सकरात्मक नतीजा नहीं निकला। ऐसा ही हिमाचल प्रदेश में भी हुआ हैं। एक तरह से कहा जा सकता हैं कि एनपीएस के तहत जमा अंशदान केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। अगर यह पैसा वापस नहीं आता है, तो राज्य सरकारों के खजाने पर इसका अतिरिक्त भार पड़ेगा। पर ये भी समझना होगा कि इसे वापस देना केंद्र के लिए भी आसान नहीं हैं क्यूंकि एनपीएस में जमा पैसा मार्केट में लगा है। इसमें उतार चढ़ाव आता हैं और जाहिर हैं इसे निकालना इतना सहज नहीं हैं। केंद्र सरकार एनपीएस का पैसा अगर देती भी हैं तो भी इसके लिए पीएफआरडीए एक्ट में संशोधन करना पड़ेगा। यानी ओपीएस में फंसा ये पेंच, संभव हैं आगे भी फंसा रहे। सक्रीय हुए कर्मचारी संगठन : पुरानी पेंशन बहाली के लिए केंद्र पर भी लगातार दबाव बढ़ रहा हैं। हालहीं में दिल्ली के रामलीला मैदान में सरकारी कर्मियों ने चेतावनी रैली आयोजित की थी। कॉन्फेडरेशन ऑफ सेंट्रल गवर्नमेंट एम्प्लाइज एंड वर्कर्स के बैनर तले आयोजित हुई इस रैली में ऑल इंडिया स्टेट गवर्नमेंट एम्प्लाइज फेडरेशन सहित करीब 50 कर्मचारी संगठन शामिल थे। जाहिर हैं ऐसे में केंद्र पर भी ओपीएस बहाली का दबाव हैं। कर्मचारियों की मुख्य मांगों में पीएफआरडीए एक्ट में संशोधन करना या उसे पूरी तरह खत्म करना भी शामिल हैं। ये चाहते हैं कि सरकार, पीएफआरडीए को वापस ले। जाहिर हैं जब तक इस एक्ट को खत्म नहीं किया जाता, तब तक विभिन्न राज्यों में लागू हो रही ओपीएस की राह मुश्किल ही बनी रहेगी।
अभिनेत्री कंगना रनौत का नाम सियासी गलियारों में फिर चर्चा में है। दरअसल लोकसभा चुनाव से पहले सियासी कयासबाजी का सिलसिला आरम्भ हो चूका है। इसी क्रम में फिर कंगना के भाजपा से चुनाव लड़ने की अटकलें लग रही है और सीट है मंडी। वहीँ मंडी संसदीय सीट जो 2021 के उपचुनाव में भाजपा के हाथ से निकल गई थी। वर्तमान में पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह मंडी से सांसद है और एक दमदार चेहरा भी। ऐसे में यदि मोदी लहर प्रचंड नहीं हुई तो भाजपा के लिए मंडी जीतना टेढ़ी खीर है। यहाँ से भाजपा उम्मीदवार कौन होगा, ये बड़ा सवाल है। हिमाचल भाजपा का एक बड़ा गुट मंडी से जयराम ठाकुर को चुनाव लड़वाने की वकालत कर रहा है। दरअसल ये वो खेमा है जो जयराम ठाकुर की हिमाचल से दिल्ली रवानगी चाहता है। वहीँ भाजपा में अंतिम निर्णय तो आलाकमान का ही होता है लेकिन बताया ये जा रहा है कि ठाकुर साहब की रूचि ढीली में नहीं, बल्कि हिमाचल में ही है। ऐसे में सवाल ये है कि अगर जयराम ठाकुर नहीं, तो फिर कौन ? अनिल शर्मा, महेश्वर सिंह और राकेश जम्वाल के नाम भी चर्चा में है लेकिन सूत्रों की माने तो अभिनेत्री कंगना रनौत यदि रूचि दिखाती है तो उन्हें मंडी से भाजपा प्रत्याशी बनाया जा सकता है। कंगना का भाजपा की तरफ झुकाव को जगजाहिर है ही, उनकी लोकप्रियता भी किसी से छुपी नहीं है। हाल फिलहाल कंगना के नाम को हवा इसलिए भी मिली है क्यों कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा अधिक से अधिक महिला उम्मदवारो को टिकट देना चाहेगी। महिला आरक्षण आगामी लोकसभा चुनाव में बेशक लागू नहीं होगा लेकिन भाजपा महिलाओं को अधिक टिकट देकर इसका राजनैतिक लाभ उठाने की रणनीति पर आगे बढ़ सकती है। इस लिहाज से भी कंगना एक मुफीद विकल्प है। शांता ने भेजी चिट्ठी, जवाब पर निगाह ! वहीँ चुनाव से अलग एक और कारण के चलते इन दिनों कंगना का जिक्र हो रहा है। दरअसल बीते दिनों आमिर खान ने हिमाचल आपदा कोष में 25 लाख का योगदान दिया था। इसके बाद पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने अभिनेत्री कंगना रनौत को पत्र लिखकर उनसे भी योगदान देने की अपील करने की बात कही थी। अब शांता जी की चिट्ठी कंगना तक पहुंची या नहीं, और अभिनेत्री मदद करती है या नहीं, ये देखना रोचक होगा। वैसे उम्मीद है की चिट्ठी से पहले शांता जी की सोशल मेडी पोस्ट कंगना तक पहुंच गई होगी।
क्या आरक्षण लागू होने से पहले ही दोनों दलों में महिलाओं को मिलेगी टिकट में तवज्जो ? कांग्रेस के पास प्रतिभा, भाजपा से रीना कश्यप, कंगना के नाम चर्चा में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने का बिल दोनों सदनों में पास हो गया है। भाजपा -कांग्रेस दोनों में इसका श्रेय लेने की होड़ लगी है और इस पर सियासत भी जमकर हो रही है। दरअसल लोकसभा और विधानसभा चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था लागू होने में अभी कुछ साल का वक्त लगेगा। पहले जनगणना होगी, फिर परिसीमन होगा और फिर मिलेगा महिलाओं को आरक्षण। बहरहाल कांग्रेस कह रही है कि तुरंत आरक्षण मिले और भाजपा तकनीकी तर्क दे रही है। इस बीच संभव है की आगामी लोकसभा चुनाव में दोनों दलों से ज्यादा महिला उम्मीदवार मैदान में दिखे। जाहिर है श्रेय की इस जंग में कानून लागू होने से पहले कौन कितनी महिलाओं को टिकट देता है, ये चुनावी मुद्दा निश्चित तौर पर बनेगा। अगर हिमाचल प्रदेश की बात करें तो यहाँ भी चार में से कम से कम एक -एक सीट पर महिला उम्मीवार दिख सकती है। जाहिर है कांग्रेस के पास प्रतिभा सिंह के रूप में एक मजबूत चेहरा है जो सीटिंग सांसद भी है। वहीँ भाजपा में अभी से कयासबाजी का सिलसिला शुरू हो चूका है। माना जा रहा है कि हिमाचल प्रदेश में पार्टी कम से कम एक महिला को तो टिकट देगी। बहरहाल फिलवक्त शिमला संसदीय क्षेत्र से पच्छाद विधायक रीना कश्यप का नाम चर्चा में है। शिमला संसदीय क्षेत्र में पार्टी को विधानसभा चुनाव में बुरी तरह शिकस्त मिली जिसके चलते भी सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का टिकट काटे जाने की अटकलें है। यदि यहाँ टिकट बदला जाता है तो रीना कश्यप एक मजबूत विकल्प हो सकती है। दोनों ही दलों से अन्य महिला दावेदारों की बात करें तो जिला कांगड़ा में यदि भाजपा किसी ओबीसी पर दांव खेलती है तो पूर्व मंत्री सरवीन भी चौधरी एक विकल्प हो सकती है। इसी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के पास भी आशा कुमारी के रूप में एक विकल्प जरूर है लेकिन आशा जातीय समीकरणों की कसौटी पर शायद फिट न बैठे। वहीँ मंडी संसदीय क्षेत्र में भाजपा सेअभिनेत्री कंगना रनौत का नाम फिर चर्चा में है। बहरहाल चुनाव नजदीक आते -आते इस फेहरिस्त में कई और नाम जुड़ सकते है।
* हिमाचल में दोनों दलों के पास गलती की गुंजाईश नहीं चुनावी रुत है और देश में सियासी जोड़ तोड़, गुणा भाग आरंभ हो चूका है। हिमाचल प्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। बेशक हिमाचल में सिर्फ चार लोकसभा सीटें हो लेकिन यहाँ मतदाता को अपने पाले में लाने को सियासी रस्साकशी भी खूब होगी और घोषणाएं भी। आदतन वादे भी होंगे और आदतन एतिबार भी। अपना काम को गिनाया ही जायेगा, पर ज्यादा जोर विरोधी की नाकामी पर होगा। लोकसभा चुनाव दस्तक दे चुके है और इस बार प्रदेश में मोदी फैक्टर का कितना असर होगा, इस पर सबकी निगाह रहेगी। क्या भाजपा एक बार फिर इतिहास रचेगी या कांग्रेस को जनता का समर्थन मिलेगा, इसका पूर्वानुमान सियासी पंडितों के लिए भी फिलवक्त मुश्किल है। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को चारों खाने चित किया था। 2019 में तो भाजपा का क्लीन स्वीप ऐतिहासिक था और कई कीर्तिमान स्थापित हुए थे। तब मोदी लहर ऐसी चली कि चारों संसदीय क्षेत्रों के सभी 68 विधानसभा हलकों में भाजपा को लीड मिली थी। मोदी मैजिक के चलते करीब 4 लाख 77 हजार 623 मतों के अंतर से कांगड़ा से प्रत्याशी किशन कपूर ने अब तक की सबसे बड़ी जीत दर्ज की थी। पर 2019 में तमाम रिकॉर्ड ध्वस्त करने वाली भाजपा का इसके बाद से ही हिमाचल में सियासी डाउनफॉल शुरू हो गया। हालांकि 2019 के अंत में हुए पच्छाद और धर्मशाला विधानसभा उपचुनाव तो भाजपा शानदार तरीके से जीती, लेकिन 2019 समाप्त होने के बाद भाजपा को हिमाचल में कोई बड़ी जीत नसीब नहीं हुई। पहले पार्टी सिंबल पर हुए चार नगर निगमों चुनाव में पार्टी का जादू फीका दिखा और दो नगर निगम कांग्रेस के खाते में चल गए। फिर 2021 के अंत में हुए तीन विधानसभा और एक लोकसभा चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया। इसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में सत्ता भी हाथ के निकल गई और 2023 में हुआ शिमला नगर निगम चुनाव भी भाजपा बुरी तरह हारी। अब 2024 लोकसभा चुनाव का काउंटडाउन शुरू हो चूका है और मोदी मैजिक के सहारे भाजपा एक बार फिर वापसी करने को जतन कर रही है। निसंदेह ये चुनाव पीएम मोदी के फेस पर होगा और ऐसे में भाजपा को एज मिल सकता है लेकिन बावजूद इसके ये तय है कि भाजपा की राह 2019 की तरह आसान नहीं होने वाली। नतीजा जो भी रहे पर इस बार कड़ी टक्कर देखने को मिलेगी। हिमाचल प्रदेश की चार सीटों पर लोकसभा चुनाव के नतीजे पांच महत्वपूर्ण फैक्टर पर निर्भर करेंगे। इसी से तय होगा कि भाजपा क्लीन स्वीप की हैट्रिक लगाएगी या कांग्रेस वापसी करेगी। हालांकि अभी चुनाव में काफी वक्त शेष है और ऐसे में कई नए समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे, किन्तु कई मसले ऐसे है जो चुनाव नतीजों को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करेंगे। 1. मोदी फैक्टर : कायम या बेअसर ? 2019 में सभी 68 विधानसभा हलकों में लीड लेने वाली भाजपा 2022 के विधानसभा चुनाव में 25 सीट ही जीत पाई थी। ऐसा नहीं है कि विधानसभा चुनाव अकेले प्रदेश नेतृत्व ने लड़ा हो, तब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और योगी आदित्यनाथ जैसे बड़े नेताओं ने कई रैलियां की थी। केंद्र ने पूरी ताकत झोंकी थी पर नतीजा भाजपा के पक्ष में नहीं रहा। सोलन, सुजानपुर और शाहपुर में भाजपा पीएम की रैली के बावजूद हारी। ऐसे में सवाल है कि क्या अब मोदी मैजिक नहीं रहा ? तथ्यों पर निगाह डाले तो ऐसा कहना गलत होगा। दरअसल हिमाचल की अधिकांश आबादी पढ़ी लिखी है और यहाँ आम मतदाता समझता कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अंतर होता है और लोग बहुत सोच समझकर अपने मताधिकार का प्रयोग करते है। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी पीएम मोदी ने पालमपुर सहित कई स्थानों प्रचार किया था जहाँ भाजपा हारी, लेकिन जब 2019 में केंद्र सरकार चुनने का मौका आया तो हिमाचल के लोगों ने भरमौर से किन्नौर तक हर निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा के पक्ष में मतदान किया। ऐसे में 2024 में मोदी फैक्टर कितना असरदार होता है, ये काफी हद तक इस बात पर भी निर्भर करेगा कि कांग्रेस या इंडिया गठबंधन का चेहरा कौन होगा। 2 . आपदा राहत पर सियासत ! आपदा में केंद्र से हिमाचल को क्या मिला, ये फिलवक्त हिमाचल प्रदेश की सबसे बड़ी सियासी जिरह है। पीएम मोदी ने हिमाचल आपदा पर कुछ नहीं कहा और न ही हिमाचल को स्पेशल पैकेज मिला है, इस मुद्दे पर कांग्रेस हमलावर है। हालंकि ये मौजूदा स्थिति है और लोकसभा चुनाव में अभी वक्त है। ऐसे में संभव है तब तक स्थिति परिस्थिति बदल जाएगी। पर बहरहाल आपदा राहत पर सियासी संग्राम प्रखर है और निसंदेह अगर आज चुनाव होता है तो मतदाता के लिए ये भी एक बड़ा फैक्टर हो सकता है। 3 . महिला आरक्षण फैक्टर : मोदी सरकार ने महिला आरक्षण बिल पास किया है। 2024 में महिलाओं को इसका लाभ नहीं होगा लेकिन भाजपा इसका पूरा लाभ लेने की कोशिश में है। जाहिर सी बात है की आधी आबादी को साधने में इसका भरपूर इस्तेमाल होगा। हालांकि कांग्रेस इसे तुरंत लागू करने की वकालत कर भाजपा को घेर रही है। ऐसे में ये फैक्टर कितन असरदार होगा, ये देखना रोचक होगा। यदि महिला वोटर्स का झुकाव भाजपा की तरफ रहा तो नतीजे निसंदेह व्यापक तौर पर प्रभावित होंगे। 4. सुक्खू सरकार का कामकाज : प्रदेश की सुक्खू सरकार का कामकाज भी लोकसभा चुनाव में मतदाता का निर्णय प्रभावित करेगा। हालांकि मोटे तौर पर हिमाचल का मतदाता लोकसभा और विधानसभा चुनाव का फर्क भी समझता है और वोट भी उस आधार पर करता है। फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सुक्खू सरकार को लेकर यदि एंटी इंकम्बैंसी या प्रो इंकम्बैंसी, जैसा भी माहौल बनता है इसका असर लोकसभा के नतीजों पर भी होगा। यहाँ ध्यान में ये भी रखना होगा कि अब तक जमीनी स्तर पर मोदी सरकार को लेकर पहले जैसी प्रो इंकम्बैंसी नहीं दिख रही है, ऐसे में प्रदेश सरकार और स्थानीय चेहरे ही संभवतः 2024 में नतीजे तय करेंगे। वहीँ ओपीएस बहाल करने का कांग्रेस को कितना लाभ होता है, ये देखना भी रोचक होने वाला है। 5 . चेहरे तय करेंगे नतीजा ! ये कहना गलत नहीं होगा कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में जनता ने पीएम मोदी के नाम पर मतदान किया था। पर माहिर मान रहे है कि 2024 की जंग में पीएम मोदी तो चेहरा होंगे ही, लेकिन कैंडिडेट पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा। दस साल से भाजपा केंद्र की सत्ता में है और ऐसे में प्रो इंकम्बैंसी संभवतः पहले की तरह न दिखे। ऐसी स्थिति में सही टिकट वितरण जरूरी हो जाता है। विधानसभा चुनाव में भाजपा को प्रदेश की करीब एक तिहाही सीटों पर बगावत झेली पड़ी थी, जिसका खामियाजा पार्टी ने भुगता। लोकसभा चुनाव में ऐसी किसी गलती की गुंजाईश नहीं होगी। वहीँ 2019 में चारों सीटें जीतने के बाद भाजपा 2021 में मंडी संसदीय उपचुनाव भी हार चुकी है। ऐसे में मंडी में तो पार्टी को कोई मजबूत चेहरा देना ही होगा, साथ ही अन्य तीन में से दो सांसदों के टिकट कटने की भी अटकलें लग रही है। ऐसी ही स्थिति कांग्रेस में है। मंडी से बेशक प्रतिभा सिंह दमदार चेहरा है लेकिन अन्य तीन संसदीय क्षेत्रों में पार्टी के पास कोई तय चेहरा नहीं दिखता। दिलचस्प बात ये है की तीनो संसदीय क्षेत्रों में सीटिंग विधायकों के चुनाव लड़ने की अटकलें है। पर माहिर भी मानते है कि यदि कांग्रेस मजबूत चेहरे उतारती है तो मुकाबला कड़ा होगा और भाजपा की राह मुश्किल जरूर हो सकती है।