2024 के चुनावी भवसागर को पार करने के लिए भाजपा राम नाम की नौका पर सवार दिख रही है। भाजपा के सियासी उदय में राम नाम सदा साहरा रहा है। राम नाम लेकर ही भारतीय जनता पार्टी फर्श से अर्श तक पहुंच गई। 1984 में भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा था और महज 2 सीटों पर सिमट गई थी। वहीँ भाजपा आज देश की 300 से ज्यादा लोकसभा सीटों पर राज करती है। अब लोकसभा चुनाव दस्तक दे चुके है और इस बीच अयोध्या में श्री राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठता के चलते देश में राम लहर चली है और माहिर मान रहे है भाजपा को इसका सियासी लाभ होना तय है। यूँ तो भाजपा 1986 में लालकृष्ण आडवाणी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद से ही हिन्दुत्त्व और राममंदिर के मुद्दे पर आक्रमक हो गई थी लेकिन औपचारिक तौर पर पार्टी ने राममंदिर बनाने का संकल्प लिया 1989 में हुई पालमपुर की राष्ट्रीय कार्यसमिति बैठक में। इन 35 सालों में भगवा दल ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सर्वविदित है कि भारतीय जनता पार्टी के अतीत का संघर्ष लंबा है, जिसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जनसंघ से लेकर अटल बिहारी वाजपाई और लालकृष्ण आडवाणी का संघर्ष रहा है। शून्य से शिखर तक पहुंचने वाली भाजपा का सियासी सफर काफी कठिनाइयों वाला रहा है, लेकिन हर बार भाजपा के लिए राम नाम एक सहारा बना है। जाहिर है मौजूदा वक्त में भी राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठता आयोजन ने देश का सियासी माहौल भी प्रभावित किया है। देश राम रंग में सराबोर हैं और राजनैतिक चश्मे से देखे तो भाजपा भी इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। दरअसल, ये गलत भी नहीं है क्यों कि राजनैतिक फ्रंट पर राम मंदिर निर्माण के संघर्ष की अगुआई भी भाजपा ने ही की है, सो श्रेय लेना राजनैतिक लिहाज से गलत भी नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा 'हिंदू नवजागरण काल' को एक बड़े मुद्दे के रूप में पेश करेगी और राम मंदिर इसका प्रतीक बनेगा। अब इसका कितना लाभ चुनाव में भाजपा को मिलेगा ये तो नतीजे तय करेंगे, पर निसंदेह राम मंदिर के जरिये बीजेपी ने देश के 80 प्रतिशत मतदाताओं को प्रभावित जरूर किया है। दो वादे पुरे, समान नागरिक सहिंता शेष भाजपा के तीन बड़े लक्ष्य रहे है, धारा 370 हटाना, राम मंदिर बनाना और समान नागरिक सहिंता लागू करना। ये कहना गलत नहीं होगा कि इन्हीं तीन वादों की बिसात पर भाजपा का काडर मजबूत हुआ। पार्टी ने हमेशा इन तीन विषयों पर खुलकर अपना पक्ष भी रखा और अपना वादा भी दोहराया। इनमें से भाजपा दो वादे पुरे कर चुकी है, कश्मीर से धारा 370 हटाई जा चुकी है और अब राम मंदिर का निर्माण भी हो गया है। अब सिर्फ समान नागरिक सहिंता लागू करने का भाजपा का वादा अधूरा है और पार्टी इसे लागू करने की प्रतिबद्धता दोहरा रही है। 400 सीट जीतने का लक्ष्य भाजपा को उम्मीद है कि राम लहर के बीच वो आगामी चुनाव में 400 सीट का लक्ष्य हासिल करेगी। पार्टी राम मंदिर के अलावा लाभार्थी वोट और महिला आरक्षण की बिसात पर ऐतिहासिक बहुमत हासिल करना चाहती है। हालहीं में हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा को हिंदुत्व एजेंडा का लाभ मिला है जिसके बाद पार्टी का जोश हाई है।
कांग्रेस के दो लोकसभा प्रत्याशी अब भाजपा में हो चुके हैं शामिल लोकसभा चुनाव का मंच सज चूका हैं और हिमाचल प्रदेश में भी दोनों तरफ से उम्मीदवारों को लेकर कयासबाजी जारी हैं। हर सीट पर कई चेहरे हैं, विशेषकर भाजपा में दावेदारों की कतार लम्बी हैं। 31 जनवरी तक भाजपा में उम्मीदवारों का पैनल तैयार होना हैं और पार्टी में अंदरखाते सियासी सरगर्मियां प्रखर हैं। पर भाजपा के दो चेहरे ऐसे हैं जिन पर विशेष तौर से राजनैतिक माहिरों की निगाहें टिकी हैं। ये चेहरे हैं पवन काजल और आश्रय शर्मा। ये दोनों वो नेता हैं जो 2019 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं और अब भाजपा में हैं। तब दोनों ही हारे थे और रिकॉर्ड अंतर से हारे थे, पर अब दोनों ही अपनी राजनैतिक निष्ठा बदलकर भाजपा का दामन थाम चुके हैं। ऐसे में क्या भाजपा इन्हें टिकट देती हैं, ये चर्चा का विषय हैं। विशेषकर पवन काजल को लेकर अटकलों का बाजार गर्म हैं। 2019 लोकसभा चुनाव में हिमाचल प्रदेश भी हवा के रुख के साथ ही चला था। तब प्रदेश की जनता का ब्रांड मोदी पर भरोसा बरकरार रहा और भाजपा ने क्लीन स्वीप किया। प्रदेश की चारों सीटें कांग्रेस हारी और वो भी रिकॉर्ड मार्जिन से। अब पांच साल में बहुत कुछ बदल गया हैं। तब प्रदेश में विपक्ष में बैठी कांग्रेस अब सत्ता के रथ पर सवार हैं। पर दिलचस्प बात ये हैं कि तब कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले चार प्रत्याशियों में से दो अब भाजपाई बन चुके हैं। कांगड़ा से चुनाव लड़ने वाले पवन काजल और मंडी से प्रतयाशी रहे आश्रय शर्मा। 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से भाजपा किशन कपूर ने 72.02 प्रतिशत मत हासिल कर इतिहास बना दिया था। तब कपूर को 7,25,218 वोट पड़े थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी पवन काजल को 2,47,595 मतों पर ही सिमटना पड़ा था। अब पवन काजल बीजेपी में शामिल हो चुके हैं और टिकट को लकर भी उनका नाम चर्चा में हैं। पर सवाल ये ही हैं की क्या भाजपा उन पर दांव खेलेगी या काजल प्रदेश की राजनीति में ही सिमित रहेंगे। वहीँ, मंडी संसदीय हलके से 2019 में पंडित सुखराम के पोते आश्रय शर्मा भाजपा से टिकट मांग रहे थे, लेकिन जब बात नहीं बनी तो पंडितजी पोते सहित कांग्रेस में चले गए और दिल्ली से टिकट भी ले आएं। हालांकि आश्रय के पिता अनिल शर्मा भाजपा में ही बने रहे। लोकसभा चुनाव में हार के बाद आश्रय कांग्रेस में भी साइडलाइन दिखे और पंडित सुखराम के निधन के बाद भाजपा में लौट गए। बहरहाल ये देखना रोचक होगा कि क्या भाजपा आश्रय के नाम पर विचार करेगी। दल न बदलते तो शायद मंत्री होते काजल ! पवन काजल यूँ तो भाजपा पृष्टभूमि से रहे हैं लेकिन भाजपा ने जब काजल की कद्र नहीं की तो 2012 में काजल ने कांगड़ा विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव जीतकर अपनी सियासी कुव्वत का अहसास करवा दिया। फिर वीरभद्र सिंह के कहने पर कांग्रेस में शामिल हो गए और 2017 का चुनाव कांग्रेस से लड़ा और जीते। वीरभद्र सिंह के निधन के बाद काजल कांग्रेस के कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष बना दिए गए। पर फिर 2022 के चुनाव के कुछ समय पहले भाजपा में शामिल हो गए। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी और माहिर मानते हैं कि अगर काजल कांग्रेस में रहते तो कैबिनेट मंत्री होते। बहरहाल, काजल बड़ा ओबीसी चेहरा हैं और इसी बुनियाद पर लोकसभा टिकट के दावेदारों में उनका नाम भी शामिल हैं।
तीनों दिग्गजों को नहीं मिला है कोई अहम जिम्मा तीनों का रुख साफ, सभी को कद के मुताबिक मिले पद सुधीर शर्मा, राजेंद्र राणा और कुलदीप राठौर...हिमाचल प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस के तीन विधायक, तीनों दिग्गज और तीनों हाशिये पर। सत्ता मिलने से पहले तीनों का मंत्रिपद मानो तय था, पर सियासत की फितरत ही कुछ ऐसी होती है, जो लगता है वो होता नहीं। सत्ता तो आई पर समीकरण कुछ यूँ बने और उलझे कि ये तीनों दिग्गज भी उलझ कर रह गए। इन तीनों का असंतोष भी सामने आता रहा है, किसी का मीडिया बयानों में, किसी का सोशल मीडिया पर तो किसी का इशारों-इशारों में। दिलचस्प बात ये है कि इनका असंतोष तो कांग्रेस के लिए चिंता का सबब है ही, इनकी खमोशी भी पार्टी को असहज करने वाली है। इनके कदम सुक्खू सरकार की चाल से नहीं मिले तो लोकसभा चुनाव में भी इसका खामियाजा तय मानिये। बहरहाल अंदर की खबर ये है कि इन तीनों नेताओं को साधने के लिए दिल्ली में विशेष रूप से मंथन हुआ है। हालांकि तीनों का रुख साफ है, कद के मुताबिक पद मिले। बहरहाल इन तीनों ही नेताओं को भले ही अब तक सत्ता में कोई अहम जिम्मा या भागीदारी न मिली हो, लेकिन सच ये है कि इन्हें दरकिनार भी नहीं किया जा सकता। कम से कम पार्टी आलाकमान ये जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं दीखता। माहिर मानते है कि ऐसे में मुमकिन है कि बीच का कोई रास्ता निकाल कर पार्टी आलाकमान संभावित डैमेज को कण्ट्रोल करने हेतु हस्तक्षेप करें। चार बार के विधायक और पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा जिला कांगड़ा में पार्टी का बड़ा चेहरा है। पूर्व की वीरभद्र सरकार में सुधीर मंत्री थे और उन्हें वीरभद्र सिंह का सबसे करीबी माना जाता था। कहते है तब उनकी रज़ा में ही वीरभद्र सिंह की रज़ा होती थी। ये सुधीर का ही सियासी बल था कि तब चाहे नगर निगम की लड़ाई हो, स्मार्ट सिटी या फिर धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने का निर्णय, धर्मशाला हर जगह बाजी मार गया। तब कुछ माहिर तो उन्हें कांग्रेस में वीरभद्र सिंह का उत्तराधिकारी भी कहने लगे थे। फिर सियासी गृह चाल कुछ यूँ बदली कि पंडित जी अलग थलग से हो गए। बीते दिनों देर रात सीएम सुक्खू, सुधीर से मिलने उनके घर पहुंचे थे, जिसके बाद कयास लग रहे है कि उन्हें कोई अहम ज़िम्मा मिल सकता है। इसमें पीसीसी चीफ का पद भी शामिल है। हालांकि एक खबर ये भी है कि आलाकमान के दरबार में उन्हें लोकसभा चुनाव लड़वाने की पैरवी की जा रही है। कहा जा रहा है की सुधीर ही सबसे मजबूत चेहरा है। अब आलाकमान सुधीर को चुनाव लड़ने का फरमान सुनाता है या प्रदेश में सुधीर के कद मुताबिक भूमिका उनके लिए तैयार की जाती है, ये देखना रोचक होगा। राजेंद्र राणा वो नेता है जिन्होंने 2017 में भाजपा के सीएम कैंडिडेट को हराया था। 2022 में भी धूमल परिवार ने पूरी ताकत झोंकी लेकिन राणा जीतने में कामयाब रहे। बावजूद इसके राणा को अब तक उचित सियासी अधिमान नहीं मिला है। कहने को वे कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष भी है लेकिन संगठन में भी उनकी भूमिका क्या और कितनी है, ये सर्वविदित है। हालांकि वे हौली लॉज के करीबी है और वो ही पहले ऐसे बड़े नेता थे जिन्होंने खुलकर प्रतिभा सिंह को सीएम बनाने की वकालत की थी। बहरहाल अब राणा की कैबिनेट में एंट्री की सम्भावना न के बराबर है। हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से सीएम, डिप्टी सीएम और एक मंत्री राजेश धर्माणी है और यहाँ से एक और एंट्री मुश्किल होगी। ऐसे में राणा को कहाँ और कैसे एडजस्ट किया जाता है, ये देखना दिलचस्प होगा। वहीँ खबर ये है कि आलकमान के समक्ष सुधीर की तरह ही राणा को भी लोकसभा चुनाव के लिए दमदार बताया जा रहा है। हालांकि राणा की रूचि इसमें नहीं दिखती। कुलदीप राठौर पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष है और आलाकमान के करीबी भी है। राठौर वो नेता है जो खुलकर कहते रहे है कि सत्ता दिलवाने वालों की उपेक्षा हो रही है। जिला शिमला से ही तीन मंत्री है, ऐसे में राठौर का ठौर भी जाहिर है कैबिनेट में नहीं होगा। पर राठौर की बेबाकी और स्पष्टवादिता प्रदेश सरकार को असजह जरूर करती रही है। बताया जा रहा है की राठौर भी आलाकमान के समक्ष अपनी बात रख चुके है और अब निर्णय आलाकमान को लेना है। सिर्फ एक रिक्त पद, ठाकुर भी दावेदार ! सुक्खू कैबिनेट में एक पद खाली है और इन तीन नेताओं के साथ -साथ कुल्लू विधायक सूंदर सिंह ठाकुर भी दावेदार है। मंडी संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक मंत्री है और ऐसे में क्षेत्रीय संतुलन के लिहाज से सूंदर ठाकुर का दावा भी मजबूत है। हालांकि सूंदर ठाकुर को सीपीएस बनाया गया था लेकिन ये पद कब तक रहेगा, ये कोर्ट ने तय करना है। वहीँ सूंदर ठाकुर भी सीपीएस को मिली गाड़ी लौटकर चुप रहकर भी काफी कुछ कह चुके है।
आम तौर पर एकमुश्त पड़ने वाला गद्दी वोट कांगड़ा संसदीय क्षेत्र की सियासत में निर्णायक भूमिका निभाता है। गद्दी समुदाय की एकता इनकी सियासी ताकत का असल कारण है और ये ही वजह है कि कोई भी दल इन्हें नजर अंदाज़ नहीं करता। विशेषकर भाजपा गद्दी चेहरों पर दांव खेलती आई है और सीटिंग सांसद किशन कपूर लम्बे वक्त से प्रोमिनेन्ट गद्दी फेस है। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में जिला चम्बा के चार और जिला कांगड़ा के 13 विधानसभा क्षेत्र आते है। इस संसदीय क्षेत्र की 17 में से कम से कम 11 सीटों पर गद्दी फैक्टर हावी रहता है। इनमें चम्बा सदर, डलहौज़ी, चुराह, भटियात, धर्मशाला, बैजनाथ, पालमपुर, शाहपुर, ज्वाली, नूरपुर और इंदौरा शामिल है। माना जाता है कि गद्दी समुदाय का वोट मौटे तौर पर विभाजित नहीं होता। ऐसे में सियासी गणित के लिहाज से राजनैतिक दल गद्दी चेहरे को सेफ बेट मानते है, विशेषकर भाजपा। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने धर्मशाला के विधायक और तब की जयराम सरकार में मंत्री किशन कपूर को कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया था और कपूर ने रिकॉर्ड जीत दर्ज कर इतिहास रच दिया था। अब फिर लोकसभा चुनाव का काउंट डाउन शुरू हो चुका है और टिकट की कयासबाजी भी। किशन कपूर टिकट के मिशन पर है लेकिन उन्हें टिकट मिलता है या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। पर माहिर मान रहे है कि संभव है भाजपा यदि किशन कपूर का टिकट काटती है तो अगला उम्मीदवार भी गद्दी समुदाय से ही हो। दावेदारों की फेहरिस्त में जो नाम प्रमुख है उनमें एक है त्रिलोक कपूर जो भाजपा प्रदेश महामंत्री भी है और दूसरे नेता है विशाल नेहरिया। इस सूची में एक तीसरे नाम का जिक्र भी जरूरी है और वो है चुराह विधायक हंसराज। बतौर भाजपा प्रदेश महामंत्री त्रिलोक कपूर का ये दूसरा टर्म है। पर साथ ही त्रिलोक कपूर के खाते में पालमपुर विधानसभा सीट की हार भी दर्ज है। विधानसभा चुनाव में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को 17 में से सिर्फ 5 सीट पर जीत मिली थी। यानी त्रिलोक कपूर के सियासी खाते में जमा से ज्यादा घटाव है। पर कपूर का लम्बा अनुभव और आलाकमान की गुड बुक्स में उनकी उपस्थिति उनका दावा मजबूत करते है। चुराह विधायक और पूर्व विधानसभा स्पीकर हंसराज की बात करें तो वे निसंदेह तेजतर्रार नेता तो है ही, पर उनका चम्बा से होना उनके लिए फायदे का सौदा भी हो सकता है तो रुकावट भी। जनजातीय क्षेत्र से उम्मीदवार देकर भाजपा बड़ा सन्देश भी दे सकती है, तो जिला कांगड़ा की नाराजगी का डर चम्बा की उम्मीदवारी में रोड़ा भी है। साथ ही यदि हंसराज उम्मीदवार होते है और जीत जाते है तो भाजपा को विधानसभा उपचुनाव का सामना भी करना पड़ेगा। ऐसे में उनकी उम्मीदवारी पर पार्टी को काफी सियासी गणित लगनी पड़ेगी। तीसरा नाम है विशाल नेहरिया का। 2019 के धर्मशाला उपचुनाव में भाजपा ने उनको उम्मीदवार बनाया और नेहरिया ने शानदार जीत दर्ज की। इसके बाद 2022 में उनका टिकट काट दिया गया लेकिन नेहरिया समर्थकों की नाराजगी के बावजूद पार्टी लाइन से बाहर नहीं गए। ये फैक्टर उनके पक्ष में जा सकता है। नेहरिया युवा नेता है और माहिर मान रहे है कि भाजपा अधिक से अधिक युवाओं को टिकट देने की नीति पर आगे बढ़ेंगी। ऐसे में इस मापदंड पर भी नेहरिया फिट बैठते है। बहरहाल ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या सीटिंग सांसद किशन कपूर फिर टिकट लाने में कामयाब होंगे ? और किशन कपूर नहीं तो क्या भाजपा गद्दी समुदाय से ही प्रत्याशी देती है या नहीं। फिलवक्त सब सियासी अटकलें है और अटकलों का क्या। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से भाजपा में कम से कम एक दर्जन टिकट के चाहवान है।
भाजपा में टिकट चाहवानों की कतार, कांग्रेस में नेता कतरा रहे ! उम्मीदवार का चयन कांग्रेस के लिए चुनौती, भाजपा को भी बरतनी होगी सावधानी एक तरफ कतार लगी है और एक ओर मानो सब कतरा से रहे है। लोकसभा चुनाव की रुत में ये ही मिजाज -ए-कांगड़ा है। भाजपा में टिकट के चाहवानों की लम्बी कतार है, उधर कांग्रेस में टालमटाल की स्थिति बनती दिख रही है। हालांकि सन्नाटा दोनों ही खेमो में है, भाजपा में चाहवानों की वाणी पर अनुशासन का ताला है तो कांग्रेस में एक किस्म से चाहवान ही नहीं दिख रहे। विशेषकर हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद से ही स्थिति बदल सी गई है। इस पर राम मंदिर फैक्टर का भी असर दिखने लगा है। हालांकि सियासी मौसम भी पहाड़ों के मौसम की तरह ही होता है, कब बदल जाएँ पता नहीं लगता। पर फिलहाल कांगड़ा में कांग्रेस की मुश्किलें निसंदेह भाजपा से अधिक है। यूँ तो चुनाव लोकसभा का है और राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाना है। पर प्रदेश के सियासी मसलों को इससे पूरी तरह इतर नहीं किया जा सकता। प्रदेश में कांग्रेस सत्तासीन है और कांगड़ा संसदीय क्षेत्र को एक साल बाद प्रदेश कैबिनेट में दूसरा मंत्री पद मिला है। अब भी एक मंत्री पद की कमी कांगड़ा को खल रही है। ये कांग्रेस के सियासी सुकून में बड़ा खलल भी डाल रही है। इस पर कांगड़ा में कांग्रेस खेमो में बंटी है, ये भी सर्वविदित है। हालांकि खेमेबाजी भाजपा में भी बेशुमार है। कभी तस्वीरों के जरिये तो भी सांझी पत्रकार वार्ताओं में इसकी झलक दिखती रही है। विधानसभा चुनाव में भाजपा की शिकस्त का एक बड़ा कारण भी इसी गुटबाजी को माना जाता है। पर लोकसभा चुनाव पीएम मोदी के चेहरे पर होगा और ये कहना गलत नहीं है कि पीएम मोदी के चेहरे के आगे बाकी सभी फैक्टर बौने हो जाते है। फिर भी भाजपा के पास यहाँ चूक की कोई गुंजाईश नहीं दिखती। इतिहाज गवाह है कि इसी कांगड़ा से सीटिंग सीएम भी विधानसभा चुनाव हारे है, सो जाहिर है कांगड़ा को 'फॉर ग्रांटेड' नहीं लिया जा सकता। माहिर मान रहे है कि भाजपा को भी चेहरे के चयन में सावधानी बरतनी होगी। भाजपा का गढ़ रहा है कांगड़ा भाजपा के गठन के बाद से दस लोकसभा चुनाव हुए है जिनमें से सात बार कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को जीत मिली है। यूँ तो भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव 1984 में लड़ा था लेकिन पार्टी की जड़े जमी 1989 में। तब राम मंदिर आंदोलन प्रखर था और आंदोलन की तरह ही भाजपा भी तेजी से बढ़ती जा रही थी। इसी बीच 1989 में शांता कुमार पहली बार संसद की दहलीज लांघने में कामयाब हुए। तब से कांगड़ा में भाजपा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। कांग्रेस सिर्फ दो मर्तबा जीती, 1996 में सत महाजन और 2004 में चौधरी चंद्र कुमार ही कांग्रेस को जीत दिला सके। उम्मीदवार बदला, वोट शेयर बढ़ा ! कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा लगतार तीन चुनाव जीत चुकी है। दिलचस्प बात ये है कि पिछले तीन चुनाव में भाजपा ने हर बार चेहरा बदला है और हर बार जीती है। इससे भी दिलचस्प तथ्य ये है कि हर बार भाजपा के वोट प्रतिशत में भारी बढ़ोतरी हुई है। 2009 में भाजपा के उम्मीदवार थे डॉ राजन सुशांत और उन्हें 48.69 प्रतिशत वोट मिले थे। फिर 2014 में शांता कुमार ने चुनाव लड़ा और उन्हें लगभग 57 प्रतिशत वोट मिले। वहीँ 2019 में भाजपा ने किशन कपूर को उम्मीदवार बनाया और उन्होंने रिकॉर्ड 72 प्रतिशत वोट बटोरे। किशन कपूर ने रचा था इतिहास 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र पर किशन कपूर ने 72.02 प्रतिशत मत हासिल कर इतिहास बना दिया था। तब कपूर को 7,25,218 वोट पड़े थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी पवन काजल को 2,47,595 मतों पर ही सिमटना पड़ा था। कांगड़ा हलके की दिलचस्प बात यह रही थी कि प्रदेश में सबसे अधिक नोटा का इस्तेमाल भी यहीं हुआ। तब 11,327 मतदाताओं ने नोटा दबाया था। वहीँ बहुजन समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी डॉ. केहर सिंह को 0.88 प्रतिशत वोट हासिल हुए, जबकि नोटा 1.12 % था। 2004 के बाद नहीं जीती कांग्रेस कांग्रेस को आखिरी बार 2004 में कांगड़ा संसदीय सीट पर जीत मिली थी और तब उम्मीदवार थे चौधरी चंद्र कुमार। इसके बाद से कांग्रेस लगातार तीन चुनाव हार चुकी है। आगामी लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की राह आसान नहीं दिखती। सही उम्मीदवार का चयन और अंतर्कलह और असंतोष पर लगाम ही कांग्रेस को टक्कर में ला सकता है। बहरहाल कांग्रेस के सामने सबसे पहली चुनौती असंतोष को साधना है। । विधानसभा चुनाव में लगा था भाजपा को झटका कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में जिला चम्बा के 4 और जिला कांगड़ा के 13 विधानसभा क्षेत्र आते है। जिला चम्बा के चम्बा सदर, भटियात, चुराह और डलहौज़ी कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में आते है, जबकि भरमौर मंडी संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। वहीँ जिला कांगड़ा के फतेहपुर, नूरपुर, इंदोरा, ज्वाली, धर्मशाला, शाहपुर, कांगड़ा, नगरोटा, पालमपुर, सुलह, जयसिंहपुर, बैजनाथ और ज्वालामुखी विधानसभा हलके कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के अधीन आते है । 2022 में हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को झटका लगा था। भाजपा को 17 में से सिर्फ पांच सीटों पर ही जीत मिली थी। हारने वालों में दो कैबिनेट मंत्री और प्रदेश महामंत्री भी शामिल थे। तब असंतोष और गलत टिकट आवंटन हार के कारण बने थे और जाहिर है भाजपा को लोकसभा चुनाव इसे साधना होगा। श्री राम मंदिर का पालमपुर कनेक्शन 1989 के पालमपुर अधिवेशन के बाद बीजेपी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा श्री राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी को की जाएगी। हिंदुस्तान के कई राजनैतिक दलों ने राम मंदिर निर्माण की लम्बी लड़ाई लड़ी है, जिनमें भारतीय जनता पार्टी प्रमुख है। वो बीजेपी का राम मंदिर आंदोलन ही था जिसने देश की राजनीति की धारा को ही पलट दिया। राम मंदिर आंदोलन की बिसात पर मजबूत हुई। बीजेपी आज केंद्र में सत्तासीन है और मंदिर आंदोलन से निकले कई नेता संसद में बैठकर देश की नीतियां निर्धारित कर रहे हैं। राम मंदिर बनाने का संघर्ष लम्बा है, और इस संघर्ष में हिमाचल प्रदेश का पालमपुर भी बेहद ख़ास स्थान रखता है। 1989 में जिला कांगड़ा के पालमपुर में बीजेपी का अधिवेशन हुआ था। इस अधिवेशन में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, विजयाराजे सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी समेत पार्टी के तमाम बड़े नेता पालमपुर में थे। इसी अधिवेशन में अयोध्या में भगवान् श्री राम के भव्य मंदिर निर्माण के साथ साथ भारतीय जनता पार्टी के स्वर्णिम भविष्य की पटकथा लिखी गई और भाजपा ने मंदिर निर्माण का प्रस्ताव पास किया। इस तरह इस ऐतिहासिक घटनाक्रम का पालमपुर साक्षी बना। इस तीन दिवसीय अधिवेशन में राम मंदिर निर्माण को लेकर पार्टी ने मंथन किया और तय हुआ कि अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा। 11 जून, 1989 को राम मंदिर के निर्माण का प्रस्ताव तैयार किया गया। इसी दिन लालकृष्ण आडवाणी ने सबकी सहमति से राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव रखा था। पालमपुर में हुई इस बैठक के सूत्रधार थे पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार जो उस समय प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष थे और उन्हें ही उस ऐतिहासिक बैठक की पूरी व्यवस्था करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वह राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य भी थे, इसलिए उस ऐतिहासिक प्रस्ताव के पारित होने और सारी व्यवस्था के वह भी साक्षी हैं। क्या होगी सुधीर की भूमिका ? जिला कांगड़ा में सुधीर शर्मा कांग्रेस का बड़ा नाम है। सुधीर धर्मशाला से विधायक है और पूर्व की वीरभद्र सरकार में मंत्री रह चुके है। इस बार भी उन्हें मंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था लेकिन अब तक ऐसा नहीं हुआ। चार बार के विधायक सुधीर शर्मा सुक्खू राज में मंत्री पद से महरूम है, पर पंडित जी का सियासी रसूख कुछ ऐसा है कि उन्हें किनारे करके भी दरकिनार नहीं किया जा सकता। हाल ही में सीएम सुक्खू उनसे मिलने देर रात उनके आवास पर पहुंचे थे, तो अंतर्कलह की स्थिति को भांप आलाकमान ने उन्हें तमाम मंत्रियों सहित बैठक के लिए दिल्ली से बुलावा भेजा । इस बैठक का निष्कर्ष क्या निकला ये तो अब तक स्पष्ट नहीं है लेकिन माहिर मान रहे है कि सुधीर के लिए कोई भूमिका तय कर ली गई है। एक कयास है कि सुधीर कांगड़ा से कांग्रेस के उम्मीदवार होंगे और दिल्ली में इसी को लेकर चर्चा हुई है। वहीँ अटकले ये भी है कि सुधीर शर्मा को संगठन की कमान देकर साधा जा सकता है। यदि ऐसा हुआ तो सुधीर के साथ -साथ कांगड़ा का सियासी वजन भी बढ़ेगा। बहरहाल सब अटकलें है और सुधीर के हिस्से में क्या आता है और कब आता है, ये देखना रोचक होगा।
शिमला संसदीय क्षेत्र में कार्यकर्ताओं में जान फूंक गए नड्डा हिमाचल में कोई चूक नहीं चाहेंगे नड्डा : भारतीय जनता पार्टी का आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर उन प्रदेशों में ज्यादा फोकस है, जहां गैर भाजपा दलों की सरकार है। हिमाचल की सत्ता पर कांग्रेस काबिज है, ऐसे में भाजपा लोकसभा चुनाव को लेकर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहेगी। भाजपा ने हिमाचल में लोकसभा चुनाव का उद्घोष कर दिया है। भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के दौरे के साथ ही लोकसभा चुनाव का शंखनाद हो गया है। इसके आरंभ के लिए नड्डा ने शिमला संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले सोलन को चुना। दरअसल 2022 के विधानसभा चुनाव में शिमला संसदीय क्षेत्र में ही भाजपा सबसे कमजोर साबित हुई थी। विधानसभा चुनाव में संसदीय क्षेत्र की 17 में से महज तीन सीट पर पार्टी को जीत मिली थी। जाहिर है ऐसे में पार्टी अब कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। खुद नड्डा ने सोलन में रोड शो किया और फिर जनसभा को सम्बोधित कर चुनावी हुंकार भरी। इसके उपरांत शिमला पहुंचे नड्डा ने भाजपा कोर ग्रुप की बैठक भी ली। सोलन में हुए नड्डा के रोड शो में विशेषकर सोलन और सिरमौर से भारी भीड़ उमड़ी। सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का भी भरपूर जलवा दिखा। हाटी फैक्टर का असर भी इस आयोजन में दिखा। विशेषकर हाटी बेल्ट से काफी संख्या में लोग नड्डा के इस्तेकबाल को पहुंचे। जाहिर है भाजपा ने बेहद रणनीतिक तरीके से हाटी फैक्टर को भुनाने की तैयारी की है और इसका चुनावी लाभ भी पार्टी को मिल सकता है। सम्भवतः बेवजह टिकट न बदले भाजपा ! लोकसभा चुनाव के लिए दावेदारी का सिलसिला भी शुरू हो गया है। शिमला संसदीय क्षेत्र से सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का दावा एक बार फिर मजबूत है। नड्डा के दौर में भी कश्यप की पकड़ की झलक दिखी। कश्यप के अलावा पच्छाद विधायक रीना कश्यप का नाम भी चर्चा में है। हालांकि माहिर मान रहे है कि अगर तमाम सर्वे ठीक आते है तो भाजपा बेवजह टिकट नहीं बदलेगी। शिमला संसदीय क्षेत्र में हाटी फैक्टर से भी भाजपा को बड़ी उम्मीद है और वोटर्स के बीच इसका श्रेय भी काफी हद तक सुरेश कश्यप को जाता दिख रहा है।
14 जनवरी को मणिपुर से शुरू होगी भारत जोड़ो न्याय यात्रा 15 राज्य, 357 लोकसभा सीटें और कांग्रेस के सिर्फ 14 सांसद। सत्ता और कांग्रेस के बीच ये ही बड़ा फर्क है। ये ही जहन में रखते हुए कांग्रेस ने राहुल गाँधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा का रूट तय किया है। हालांकि यात्रा उक्त 15 राज्यों की सिर्फ 100 लोकसभा सीटों से गुजरेगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में इन 357 में से कांग्रेस के खाते में सिर्फ 14 सीटें आई थी। जहाँ गठबंधन था वहां सहयोगी भी कुछ ख़ास नहीं कर सके थे। दरअसल कांग्रेस का मानना है कि भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल गाँधी की छवि को बदला, राहुल गाँधी की लोकप्रियता में इजाफा हुआ है और कांग्रेस की कर्णाटक और तेलंगाना में जीत के पीछे भी भारत जोड़ो यात्रा एक अहम वजह है। ये ही कारण है कि लोकसभा चुनाव से पहले अब कांग्रेस फिर एक यात्रा निकालने जा रही है। मकसद साफ है, राहुल सड़क पर उतरेंगे, 100 लोकसभा सीटें और 337 विधानसभा सीटों को पैदल नापेंगे, जनसंवाद भी होगा और कार्यकर्ताओं में जोश भी आएगा। बहरहाल क्या और कितना होगा, ये लोकसभा चुनाव के नतीजे तय करेंगे पर कांग्रेस आगामी चुनाव में सब कुछ झोंकने को तैयार है। यात्रा 14 जनवरी को मणिपुर की राजधानी इंफाल से शुरू होकर 20 मार्च को मुंबई में समाप्त होगी। राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के तहत 67 दिनों में 6713 किमी का सफर तय करेंगे। यह यात्रा 15 राज्यों के 110 जिले से होकर गुजरेगी और इसके अन्तर्गत 100 लोकसभा सीटें और 337 विधानसभा सीटें आएगी। यात्रा का सबसे लंबा चरण उत्तर प्रदेश में होगा जहां राज्य के 20 जिलों को कवर करने के लिए 11 दिन आवंटित किए गए हैं। 80 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों वाले उत्तर प्रदेश में, सबसे पुरानी पार्टी को पिछले चुनावों में कांग्रेस के एक लोकसभा सांसद के साथ कोई सीट नहीं मिली थी। सोनिया गांधी यूपी की रायबरेली सीट से एकमात्र कांग्रेस सांसद हैं। वहीँ यात्रा बिहार के सात जिलों और झारखंड के 13 जिलों से भी गुजरेगी, राहुल गांधी की यात्रा बिहार और झारखण्ड में क्रमशः 425 किमी और 804 किमी की दूरी तय करेगी। भारत जोड़ो न्याय यात्रा मणिपुर, नागालैंड, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और अंत में महाराष्ट्र राज्यों से होकर गुजरेगी। विदित रहे कि इससे पहले राहुल गांधी ने 7 सितंबर 2022 से 30 जनवरी 2023 तक भारत जोड़ो यात्रा की थी। 145 दिनों की यात्रा तमिलनाडु के कन्याकुमारी से शुरू होकर जम्मू-कश्मीर में खत्म हुई थी। तब राहुल ने 3570 किलोमीटर की यात्रा में 12 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों को कवर किया था। जहाँ सत्ता में, वहां यात्रा नहीं दिलचस्प बात ये है कि जिन तीन राज्यों में कांग्रेस के सीएम है वहां ये यात्रा नहीं पहुंचेगी। यात्रा कर्णाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश से नहीं गुजरेगी। संभवतः यहाँ कांग्रेस ने पूरी तरह लोकसभा चुनाव का जिम्मा स्थानीय नेतृत्व को देने का निर्णय ले लिया है। शायद पार्टी को लगता है कि इन तीन राज्यों में पार्टी की स्थिति बेहतर है।
**हिंदी बेल्ट में अकेले दम पर सिर्फ हिमाचल में बची कांग्रेस की सरकार **2019 में हिंदी पट्टी की 251 में से सिर्फ 7 पर जीता था कांग्रेस गठबंधन 2018 में जब कांग्रेस जब तीन राज्यों में जीती थी, तब भी 2019 में पीएम मोदी के चेहरे के सामने कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया था। इस बार तो हिंदी पट्टी के इन तीन राज्यों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हुआ है। ये 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी के लिए बड़ा झटका है। कांग्रेस के तमाम दावे हवा हवाई हो गए और हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली है। यहाँ कांग्रेस का हर दांव उल्टा पड़ा। ऐसे में 2024 में केंद्र की सत्ता तक पहुंचने का कांग्रेस का ख्वाब फिलहाल पूरा होना मुश्किल होगा। इन तीन राज्यों में ही 65 लोकसभा सीटें है। आपको याद दिला दें कि 2018 में तीनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी थी, बावजूद इसके 2019 में कांग्रेस के हिस्से आई थी महज 3 सीटें। वहीँ इस बार भाजपा ने मोदी के चेहरे पर विधानसभा चुनाव लड़ा तो तीनों राज्यों में कांग्रेस साफ़ हो गई और ऐसे में 2024 में कांग्रेस का टिकना बेहद मुश्किल होगा। इन तीन राज्यों में कांग्रेस को बड़ा झटका लगा है, उसका ओपीएस कार्ड भी फेल हो गया और गारंटी मॉडल भी। वहीँ राहुल गाँधी की जिस बढ़ती लोकप्रियता का दावा कांग्रेस कर रही थी वो दक्षिण में तो दिखी लेकिन हिंदी पट्टी में वैसा नहीं दिखा। नतीजे तो ये ही बताते है। बगैर हिंन्दी पट्टी में खुद को मजबूत किये कांग्रेस किस आधार पर 2024 में जीत का स्वपन देख रही है, ये पार्टी के रणनीतिकार ही जानते है। इन तीन राज्यों को छोड़े भी दे तो उत्तरप्रदेश, बिहार, गुजरात और दिल्ली में भी पार्टी वेंटिलेटर पर दिखती है। इन राज्यों में 153 लोकसभा सीटें है और राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को जोड़कर ये आंकड़ा 218 हो जाता है। इसके अलावा 10 सीटों वाले हरियाणा और 5 सीटों वाले उत्तराखंड में भी न कांग्रेस सत्ता में है और न कोई बड़ा तिलिस्म करने की स्थिति में दिखती है। वहीँ 14 सीटों वाले झारखण्ड में कांग्रेस गठबंधन सरकार का हिस्सा है लेकिन अकेले दम पार्टी की हैसियत किसी से छिपी नहीं है। हिंदी पट्टी में हिमाचल प्रदेश इकलौता राज्य है जहाँ कांग्रेस की सरकार है, लेकिन चार सीटों वाले इस छोटे प्रदेश में भी पार्टी बहुत सहज नहीं दिखती। कुल मिलाकर हिन्द्दी पट्टी में 251 लोकसभा सीटें है। 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपीए को इनमें से सिर्फ 7 पर जीत मिली थी। हालांकि तब बिहार में जेडीयू एनडीए का हिस्सा था और यूपी में सपा और बसपा मिलकर लड़े थे और यूपीए गठबंधन का हिस्सा नहीं थे। अब यूपीए गठबंधन खत्म हो चूका है और विपक्ष ने इंडिया गठबंधन बनाया है लेकिन ये नए पैकेट में पुराने सामान की तरह ही दिख रहा है। सपा और कांग्रेस के बीच मध्य प्रदेश में तल्खियों का ट्रेलर दिख चूका है और नतीजा भी अब सबके सामने है। वहीँ जेडीयू भी कांग्रेस के रवैये से नाखुश है। कांग्रेस और आप भी आमने -सामने है। ऐसे में हिंदी पट्टी में विपक्ष कैसे भाजपा से लड़ पायेगा, ये तो माहिरों की भी समझ से परे है। कांग्रेस विपक्ष की धुरी है और हिंदी पट्टी में जीत दिल्ली का रास्ता प्रशस्त करती है। ऐसे में हिंदी पट्टी में कमजोर होकर कांग्रेस न तो विपक्ष की अगुवाई कर सकती है और न ही भाजपा से मुकाबला। मोदी की टक्कर में चेहरा नहीं ! इस हार ने कांग्रेस की पुरानी कमी को फिर उजागर कर दिया। हिंदी पट्टी में प्रधानमंत्री मोदी सबसे लोकप्रिय नेता है और कांग्रेस के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं जो टक्कर दे सके। भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गाँधी को दक्षिण में तो लोकप्रियता मिली है लेकिन हिंदी पट्टी में अब भी राहुल की लोकप्रियता में कोई ख़ास बदलाव नहीं दिखता। जो दीवानगी पीएम मोदी के लिए इन तीन राज्यों में दिखी वो भाजपा की जीत का बड़ा कारण है। तीन राज्यों के चुनावों की बात करें तो सिर्फ राजस्थान में अशोक गहलोत ऐसा चेहरा दिखे जो भाजपा को मुद्दों पर घेरते दिखे और टक्कर में भी लगे, ये ही कारण है भाजपा को राजस्थान में पूरी ताकत झोंकनी पड़ी। इसके अलावा पूरी कांग्रेस में हिन्द्दी पट्टी का एक भी ऐसा चेहरा नहीं दिखता जो मुकाबले में खड़ा भी दिखे। हालांकि प्रियंका गाँधी भी भीड़ जुटाने में कामयाब दिखी लेकिन भीड़ वोटों मे नहीं बदल पाई। राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे दक्षिण से आते है और उसका लाभ पार्टी को कर्णाटक और तेलंगाना में मिला भी है, लेकिन वे हिंदी पट्टी से वैसे कनेक्ट नहीं कर पाते जिस तरह पीएम मोदी करते है। ऐसे में कांग्रेस को नीति रणनीति में बदलाव की सख्त जरुरत है।
तीन राज्यों में कांग्रेस के लिए गेम चैंजेर हो सकता हैं OPS कांग्रेस को उम्मीद, भाजपा को पस्त करेगा ओपीएस अस्त्र तीन राज्यों में चला ओपीएस फैक्टर तो क्या भाजपा बदलेगी स्टैंड ? देश के सियासी पटल पर कांग्रेस की चमक बीते एक दशक में लगातार फीकी पड़ी है। कुछ राज्यों में मिली जीत छोड़ दी जाएँ तो देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी का ग्राफ साल दर साल गिरता रहा है। इस दरमियान पार्टी मौटे तौर पर किसी भी मुद्दे पर भाजपा को घेर नहीं पाई। पर बीत कुछ वक्त में पार्टी के हाथ एक मुद्दा लगा भी हैं और पार्टी ने उसका असर देखा भी हैं। ये मुद्दा है पुरानी पेंशन बहाली का जो मौजूदा समय में कांग्रेस के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकता है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा मिला है और अब निगाहें टिकी हैं राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों पर। इन तीन राज्यों के नतीजे न सिर्फ कांग्रेस की दशा सुधार सकते हैं, बल्कि पार्टी को दिशा भी दे सकते हैं। नतीजे मनमाफिक आएं तो केंद्रीय राजनीति में भी कांग्रेस ओपीएस की पिच पर खेलती दिख सकती हैं। बता दें कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस ओपीएस लागू करने के बाद मैदान में हैं, तो मध्य प्रदेश में पार्टी ने सत्ता आने पर ओपीएस का वादा किया हैं। कांग्रेस को उम्मीद हैं कि ओपीएस का मुद्दा इन तीन राज्यों में गेम चैंजेर सिद्ध होगा। फिलवक्त कांग्रेस के लिए ओपीएस का मुद्दा आस हैं, तो भाजपा के लिए गले की फांस हैं। माहिर भी मानते हैं कि ओपीएस का विरोध कर भाजपा एक बड़ा सियासी जोखिम ले रही है। भाजपा या तो ओपीएस पर एक शब्द नहीं बोलती या फिर इसका विरोध करती हैं, जहाँ जैसी सियासी जरुरत हो। पर इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि ओपीएस वो मुद्दा हैं जो न भाजपा से निगलते बन रहा हैं और न उगलते। खासतौर से पिछले दो ढाई साल से देश के विभिन्न राज्यों में ओपीएस बहाली का मुद्दा एक आंदोलन का रूप लेता जा रहा हैं। हिमाचल में भाजपा इसका खमियाजा भुगत चुकी हैं और अब तीन राज्यों के चुनाव नतीजों पर निगाह हैं। अगर कांग्रेस का ये मुद्दा चल गया तो भाजपा के पास फिलहाल इसकी कोई काट नहीं दिखती। हालांकि ये भी सच हैं कि राज्य सरकारें बिना केंद्र के सहयोग से लंबे समय तक आगे नहीं चल सकती हैं। एनपीएस का पैसा पीएफआरडीए में जमा है, जो केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। केंद्र की मर्जी के बिना, एनपीएस का पैसा राज्यों को नहीं दिया जा सकता। ऐसे में केंद्र पेंच फँसायें रख सकता हैं। पर ये भी तय हैं कि यदि राज्यों में कांग्रेस को अनुकूल परिणाम मिले तो कांग्रेस लोकसभा चुनाव में इसे जोर शोर से भाजपा के खिलाफ भुनाएगी। आखिरी सियासी जंग राज्यों की नहीं, बल्कि केंद्र की सत्ता के लिए ही होनी हैं। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश, इन तीनों ही राज्यों में मतदान हो चूका हैं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस पहले से सत्ता में हैं तो मध्य प्रदेश में पार्टी को सत्ता वापस चाहिए। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार में रहते ओपीएस बहाल कर चुकी हैं, वहीँ मध्य प्रदेश में ओपीएस बहाली कांग्रेस की गारंटी हैं। सिलसिलेवार बात करें तो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता वापसी को आश्वस्त दिख रही हैं, पर इसका कारण सिर्फ ओपीएस बहाली नहीं हैं। दरअसल छत्तीसगढ़ में वोटर साइलेंट रहा हैं और प्रत्यक्ष एंटी इंकम्बैंसी नहीं दिखी हैं। ऐसे में वोटिंग परसेंटेज में इजाफे को कांग्रेस प्रो इंकम्बैंसी मान कर चल रही हैं। पार्टी का मानना हैं कि बघेल सरकार के कई फैसले और योजनाओं के नाम पर जनता ने वोट दिया हैं जिनमें से ओपीएस भी एक हैं। वहीं मध्य प्रदेश में कांग्रेस को उम्मीद हैं कि लोगों को बदलाव चाहिए और बदलाव के लिए मतदान हुआ हैं। पर जानकार मान रहे हैं कि यहाँ मुकाबला नजदीकी हैं, ठीक 2018 की तरह। मध्य प्रदेश में निसंदेह ओपीएस बड़ा फैक्टर हैं। ऐसे में नजदीकी मुकाबले में यदि कांग्रेस बाजी मार जाती हैं तो ओपीएस को क्रेडिट देना पूरी तरह सही होगा। जानकारों की माने तो ये संभव हैं कि नजदीकी मुकाबले में ओपीएस ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस के लिए विक्ट्री शॉट लगा दिया हो। हालांकि इसकी तस्दीक काफी हद तक पोस्टल बैलट की गिनती से ही हो जाएगी। अब बात करते हैं उस राज्य की जहाँ ओपीएस को कांग्रेस ने सबसे बड़े सियासी अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया हैं। राजस्थान ओपीएस बहाल करने वाला देश का पहला राज्य था और इसका सेहरा बंधा सीएम अशोक गहलोत के सर। राजस्थान में आखिरी बार 1993 में सरकार रिपीट हुई थी, तब से हर बार बदलाव होता आया हैं। अधिकांश जानकार मानते हैं कि ये रिवाज बरकरार रह सकता हैं, लेकिन शायद ही कोई ऐसा हैं जो पूरी तरह रिपीट की सम्भावना को खारिज कर रहा हैं। ये ही कारण हैं कि मतदान से पहले एक सप्ताह में भाजपा ने राजस्थान में पूरी ताकत झोंक दी। पीएम मोदी ने इतनी जनसभाएं शायद ही इससे पहले किसी राज्य के विधानसभा चुनाव में की हो। उधर कांग्रेस को पता तो हैं कि 'मिशन रिपीट' डिफीट हो सकता हैं, लेकिन कर्मचारी वोट के बुते पार्टी को इतिहास रचने का भरोसा हैं। कांग्रेस को भरोसा हैं कि ओपीएस के चलते कर्मचारी वोट उसे मिला हैं और नतीजे चौंकाने वाले होंगे। क्या गहलोत का दांव मास्टर स्ट्रोक सिद्ध होगा ! सियासत में मुद्दे बनाये जाते है, बढ़ाये जाते है और उनका इस्तेमाल कर सत्ता की राह प्रशस्त की जाती हैं। राजस्थान में अशोक गहलोत ओपीएस बहाल तो पहले ही कर चुके थे, ऐसे में ओपीएस को भुनाने के लिए गहलोत ने अब नया पासा फेंका। कांग्रेस ने गारंटी दी है कि दूसरी बार सरकार बनते ही कर्मचारियों के लिए 'ओपीएस' को कानून के जरिए पक्का कर दिया जाएगा। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा, 'तो वेट नहीं, वोट कीजिए और पोस्टल बैलेट से ओपीएस को लॉक कीजिए'। सात चुनावी गारंटियों में पुरानी पेंशन स्कीम को कानूनी गारंटी का दर्जा देना भी शामिल हैं और इसे पहले नंबर पर रखा गया है। हालांकि गहलोत के इस दांव में पेंच भी है। ओपीएस को अगर राज्य में कानूनी दर्जा मिल भी गया तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि किसी दूसरे दल की सरकार उस कानून को निरस्त नहीं करेगी। ऐसे में कानूनी दर्जे की अहमियत पर सवाल उठना लाजमी हैं। फिर भी गहलोत को भरोसा हैं कि इससे वे कर्मचारियों का भरोसा जीतने में कामयाब रहे हैं। बहरहाल कर्मचारी अपना फैसला ले चुके हैं और नतीजे के लिए 3 दिसंबर का इन्तजार करना होगा। तो भाजपा को भी बदलना पड़ेगा स्टैंड ! माहिर मान रहे हैं कि अब तक ओपीएस फैक्टर का इस्तेमाल विधानसभा चुनावों में ही हुआ हैं। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का ये दांव सही पड़ा था और अब निगाह राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश पर हैं। विशेषकर अगर राजस्थान में सबको चौंकाते हुए कांग्रेस रिपीट कर जाती हैं तो ओपीएस की गूंज पुरे देश में सुनने को मिल सकती हैं। राजस्थान में सरकारी कर्मचारी अगर ओपीएस के समर्थन में मतदान करते हैं, तो चुनावी नतीजे चौंका सकते हैं। राजस्थान में करीब दस लाख सर्विंग और रिटायर्ड कर्मचारी हैं। इनके परिवारों को मिला लिया जाएँ तो ये संख्या विधानसभा चुनाव में समीकरण पूरी तरह बदल सकती हैं। यदि ऐसा होता हैं तो मुमकिन हैं भाजपा के रुख में भी ओपीएस को लेकर परिवर्तन देखने को मिले। राज्य कर रहे ओपीएस बहाल, पर फंसा हैं पेंच ! राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पंजाब और हिमाचल प्रदेश; ये वो राज्य हैं जो बीत कुछ वक्त में पुरानी पेंशन योजना को लागू करने का एलान कर चुके हैं। पर इसमें कोई दो राय नहीं हैं की इन राज्यों को आने वाले वक्त में आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। दरअसल, एनपीएस के तहत राज्य सरकारें, अपना और कर्मचारी की सैलरी का एक तय हिस्सा पेंशन फंडिंग रेगुलेटरी डेवलेपमेंट अथॉरिटी को देती हैं। इसे बाद में कर्मचारी को पेंशन के रूप में दिया जाता है। इसके तहत पेंशन फंडिंग एडजस्टमेंट के तहत राज्य सरकारें, केंद्र से अतिरिक्त कर्ज ले सकती हैं। यह अतिरिक्त कर्ज राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का तीन फीसदी तक हो सकता है। अब केंद्र ने नियमो में बदलाव किया हैं जिसके बाद संभव हैं कि ओपीएस लागु करने वाले राज्यों को कम कर्ज मिले। दूसरा, जिन राज्यों ने अपने कर्मियों को पुरानी पेंशन के दायरे में लाने की घोषणा की है, उन्हें एनपीएस में जमा कर्मियों का पैसा वापस नहीं मिलेगा, ये केंद्र ने एक किस्म से साफ कर दिया है। यह पैसा पेंशन फंड एंड रेगुलेटरी अथारिटी (पीएफआरडीए) के पास जमा है। नई पेंशन योजना यानी एनपीएस के अंतर्गत केंद्रीय मद में जमा यह पैसा राज्यों को नहीं दिया जा सकता, बल्कि ये पैसा केवल उन कर्मचारियों के पास ही जाएगा, जो इसका योगदान कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकार ने पीएफआरडीए से पैसा वापस लेने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह किया था, पर कोई सकरात्मक नतीजा नहीं निकला। ऐसा ही हिमाचल प्रदेश में भी हुआ हैं। एक तरह से कहा जा सकता हैं कि एनपीएस के तहत जमा अंशदान केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। अगर यह पैसा वापस नहीं आता है, तो राज्य सरकारों के खजाने पर इसका अतिरिक्त भार पड़ेगा। पर ये भी समझना होगा कि इसे वापस देना केंद्र के लिए भी आसान नहीं हैं क्यूंकि एनपीएस में जमा पैसा मार्केट में लगा है। इसमें उतार चढ़ाव आता हैं और जाहिर हैं इसे निकालना इतना सहज नहीं हैं। केंद्र सरकार एनपीएस का पैसा अगर देती भी हैं तो भी इसके लिए पीएफआरडीए एक्ट में संशोधन करना पड़ेगा। यानी ओपीएस में फंसा ये पेंच, संभव हैं आगे भी फंसा रहे। सक्रीय हुए कर्मचारी संगठन : पुरानी पेंशन बहाली के लिए केंद्र पर भी लगातार दबाव बढ़ रहा हैं। हालहीं में दिल्ली के रामलीला मैदान में सरकारी कर्मियों ने चेतावनी रैली आयोजित की थी। कॉन्फेडरेशन ऑफ सेंट्रल गवर्नमेंट एम्प्लाइज एंड वर्कर्स के बैनर तले आयोजित हुई इस रैली में ऑल इंडिया स्टेट गवर्नमेंट एम्प्लाइज फेडरेशन सहित करीब 50 कर्मचारी संगठन शामिल थे। जाहिर हैं ऐसे में केंद्र पर भी ओपीएस बहाली का दबाव हैं। कर्मचारियों की मुख्य मांगों में पीएफआरडीए एक्ट में संशोधन करना या उसे पूरी तरह खत्म करना भी शामिल हैं। ये चाहते हैं कि सरकार, पीएफआरडीए को वापस ले। जाहिर हैं जब तक इस एक्ट को खत्म नहीं किया जाता, तब तक विभिन्न राज्यों में लागू हो रही ओपीएस की राह मुश्किल ही बनी रहेगी।
अभिनेत्री कंगना रनौत का नाम सियासी गलियारों में फिर चर्चा में है। दरअसल लोकसभा चुनाव से पहले सियासी कयासबाजी का सिलसिला आरम्भ हो चूका है। इसी क्रम में फिर कंगना के भाजपा से चुनाव लड़ने की अटकलें लग रही है और सीट है मंडी। वहीँ मंडी संसदीय सीट जो 2021 के उपचुनाव में भाजपा के हाथ से निकल गई थी। वर्तमान में पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह मंडी से सांसद है और एक दमदार चेहरा भी। ऐसे में यदि मोदी लहर प्रचंड नहीं हुई तो भाजपा के लिए मंडी जीतना टेढ़ी खीर है। यहाँ से भाजपा उम्मीदवार कौन होगा, ये बड़ा सवाल है। हिमाचल भाजपा का एक बड़ा गुट मंडी से जयराम ठाकुर को चुनाव लड़वाने की वकालत कर रहा है। दरअसल ये वो खेमा है जो जयराम ठाकुर की हिमाचल से दिल्ली रवानगी चाहता है। वहीँ भाजपा में अंतिम निर्णय तो आलाकमान का ही होता है लेकिन बताया ये जा रहा है कि ठाकुर साहब की रूचि ढीली में नहीं, बल्कि हिमाचल में ही है। ऐसे में सवाल ये है कि अगर जयराम ठाकुर नहीं, तो फिर कौन ? अनिल शर्मा, महेश्वर सिंह और राकेश जम्वाल के नाम भी चर्चा में है लेकिन सूत्रों की माने तो अभिनेत्री कंगना रनौत यदि रूचि दिखाती है तो उन्हें मंडी से भाजपा प्रत्याशी बनाया जा सकता है। कंगना का भाजपा की तरफ झुकाव को जगजाहिर है ही, उनकी लोकप्रियता भी किसी से छुपी नहीं है। हाल फिलहाल कंगना के नाम को हवा इसलिए भी मिली है क्यों कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा अधिक से अधिक महिला उम्मदवारो को टिकट देना चाहेगी। महिला आरक्षण आगामी लोकसभा चुनाव में बेशक लागू नहीं होगा लेकिन भाजपा महिलाओं को अधिक टिकट देकर इसका राजनैतिक लाभ उठाने की रणनीति पर आगे बढ़ सकती है। इस लिहाज से भी कंगना एक मुफीद विकल्प है। शांता ने भेजी चिट्ठी, जवाब पर निगाह ! वहीँ चुनाव से अलग एक और कारण के चलते इन दिनों कंगना का जिक्र हो रहा है। दरअसल बीते दिनों आमिर खान ने हिमाचल आपदा कोष में 25 लाख का योगदान दिया था। इसके बाद पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने अभिनेत्री कंगना रनौत को पत्र लिखकर उनसे भी योगदान देने की अपील करने की बात कही थी। अब शांता जी की चिट्ठी कंगना तक पहुंची या नहीं, और अभिनेत्री मदद करती है या नहीं, ये देखना रोचक होगा। वैसे उम्मीद है की चिट्ठी से पहले शांता जी की सोशल मेडी पोस्ट कंगना तक पहुंच गई होगी।
क्या आरक्षण लागू होने से पहले ही दोनों दलों में महिलाओं को मिलेगी टिकट में तवज्जो ? कांग्रेस के पास प्रतिभा, भाजपा से रीना कश्यप, कंगना के नाम चर्चा में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने का बिल दोनों सदनों में पास हो गया है। भाजपा -कांग्रेस दोनों में इसका श्रेय लेने की होड़ लगी है और इस पर सियासत भी जमकर हो रही है। दरअसल लोकसभा और विधानसभा चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था लागू होने में अभी कुछ साल का वक्त लगेगा। पहले जनगणना होगी, फिर परिसीमन होगा और फिर मिलेगा महिलाओं को आरक्षण। बहरहाल कांग्रेस कह रही है कि तुरंत आरक्षण मिले और भाजपा तकनीकी तर्क दे रही है। इस बीच संभव है की आगामी लोकसभा चुनाव में दोनों दलों से ज्यादा महिला उम्मीदवार मैदान में दिखे। जाहिर है श्रेय की इस जंग में कानून लागू होने से पहले कौन कितनी महिलाओं को टिकट देता है, ये चुनावी मुद्दा निश्चित तौर पर बनेगा। अगर हिमाचल प्रदेश की बात करें तो यहाँ भी चार में से कम से कम एक -एक सीट पर महिला उम्मीवार दिख सकती है। जाहिर है कांग्रेस के पास प्रतिभा सिंह के रूप में एक मजबूत चेहरा है जो सीटिंग सांसद भी है। वहीँ भाजपा में अभी से कयासबाजी का सिलसिला शुरू हो चूका है। माना जा रहा है कि हिमाचल प्रदेश में पार्टी कम से कम एक महिला को तो टिकट देगी। बहरहाल फिलवक्त शिमला संसदीय क्षेत्र से पच्छाद विधायक रीना कश्यप का नाम चर्चा में है। शिमला संसदीय क्षेत्र में पार्टी को विधानसभा चुनाव में बुरी तरह शिकस्त मिली जिसके चलते भी सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का टिकट काटे जाने की अटकलें है। यदि यहाँ टिकट बदला जाता है तो रीना कश्यप एक मजबूत विकल्प हो सकती है। दोनों ही दलों से अन्य महिला दावेदारों की बात करें तो जिला कांगड़ा में यदि भाजपा किसी ओबीसी पर दांव खेलती है तो पूर्व मंत्री सरवीन भी चौधरी एक विकल्प हो सकती है। इसी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के पास भी आशा कुमारी के रूप में एक विकल्प जरूर है लेकिन आशा जातीय समीकरणों की कसौटी पर शायद फिट न बैठे। वहीँ मंडी संसदीय क्षेत्र में भाजपा सेअभिनेत्री कंगना रनौत का नाम फिर चर्चा में है। बहरहाल चुनाव नजदीक आते -आते इस फेहरिस्त में कई और नाम जुड़ सकते है।
* हिमाचल में दोनों दलों के पास गलती की गुंजाईश नहीं चुनावी रुत है और देश में सियासी जोड़ तोड़, गुणा भाग आरंभ हो चूका है। हिमाचल प्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। बेशक हिमाचल में सिर्फ चार लोकसभा सीटें हो लेकिन यहाँ मतदाता को अपने पाले में लाने को सियासी रस्साकशी भी खूब होगी और घोषणाएं भी। आदतन वादे भी होंगे और आदतन एतिबार भी। अपना काम को गिनाया ही जायेगा, पर ज्यादा जोर विरोधी की नाकामी पर होगा। लोकसभा चुनाव दस्तक दे चुके है और इस बार प्रदेश में मोदी फैक्टर का कितना असर होगा, इस पर सबकी निगाह रहेगी। क्या भाजपा एक बार फिर इतिहास रचेगी या कांग्रेस को जनता का समर्थन मिलेगा, इसका पूर्वानुमान सियासी पंडितों के लिए भी फिलवक्त मुश्किल है। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को चारों खाने चित किया था। 2019 में तो भाजपा का क्लीन स्वीप ऐतिहासिक था और कई कीर्तिमान स्थापित हुए थे। तब मोदी लहर ऐसी चली कि चारों संसदीय क्षेत्रों के सभी 68 विधानसभा हलकों में भाजपा को लीड मिली थी। मोदी मैजिक के चलते करीब 4 लाख 77 हजार 623 मतों के अंतर से कांगड़ा से प्रत्याशी किशन कपूर ने अब तक की सबसे बड़ी जीत दर्ज की थी। पर 2019 में तमाम रिकॉर्ड ध्वस्त करने वाली भाजपा का इसके बाद से ही हिमाचल में सियासी डाउनफॉल शुरू हो गया। हालांकि 2019 के अंत में हुए पच्छाद और धर्मशाला विधानसभा उपचुनाव तो भाजपा शानदार तरीके से जीती, लेकिन 2019 समाप्त होने के बाद भाजपा को हिमाचल में कोई बड़ी जीत नसीब नहीं हुई। पहले पार्टी सिंबल पर हुए चार नगर निगमों चुनाव में पार्टी का जादू फीका दिखा और दो नगर निगम कांग्रेस के खाते में चल गए। फिर 2021 के अंत में हुए तीन विधानसभा और एक लोकसभा चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया। इसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में सत्ता भी हाथ के निकल गई और 2023 में हुआ शिमला नगर निगम चुनाव भी भाजपा बुरी तरह हारी। अब 2024 लोकसभा चुनाव का काउंटडाउन शुरू हो चूका है और मोदी मैजिक के सहारे भाजपा एक बार फिर वापसी करने को जतन कर रही है। निसंदेह ये चुनाव पीएम मोदी के फेस पर होगा और ऐसे में भाजपा को एज मिल सकता है लेकिन बावजूद इसके ये तय है कि भाजपा की राह 2019 की तरह आसान नहीं होने वाली। नतीजा जो भी रहे पर इस बार कड़ी टक्कर देखने को मिलेगी। हिमाचल प्रदेश की चार सीटों पर लोकसभा चुनाव के नतीजे पांच महत्वपूर्ण फैक्टर पर निर्भर करेंगे। इसी से तय होगा कि भाजपा क्लीन स्वीप की हैट्रिक लगाएगी या कांग्रेस वापसी करेगी। हालांकि अभी चुनाव में काफी वक्त शेष है और ऐसे में कई नए समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे, किन्तु कई मसले ऐसे है जो चुनाव नतीजों को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करेंगे। 1. मोदी फैक्टर : कायम या बेअसर ? 2019 में सभी 68 विधानसभा हलकों में लीड लेने वाली भाजपा 2022 के विधानसभा चुनाव में 25 सीट ही जीत पाई थी। ऐसा नहीं है कि विधानसभा चुनाव अकेले प्रदेश नेतृत्व ने लड़ा हो, तब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और योगी आदित्यनाथ जैसे बड़े नेताओं ने कई रैलियां की थी। केंद्र ने पूरी ताकत झोंकी थी पर नतीजा भाजपा के पक्ष में नहीं रहा। सोलन, सुजानपुर और शाहपुर में भाजपा पीएम की रैली के बावजूद हारी। ऐसे में सवाल है कि क्या अब मोदी मैजिक नहीं रहा ? तथ्यों पर निगाह डाले तो ऐसा कहना गलत होगा। दरअसल हिमाचल की अधिकांश आबादी पढ़ी लिखी है और यहाँ आम मतदाता समझता कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अंतर होता है और लोग बहुत सोच समझकर अपने मताधिकार का प्रयोग करते है। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी पीएम मोदी ने पालमपुर सहित कई स्थानों प्रचार किया था जहाँ भाजपा हारी, लेकिन जब 2019 में केंद्र सरकार चुनने का मौका आया तो हिमाचल के लोगों ने भरमौर से किन्नौर तक हर निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा के पक्ष में मतदान किया। ऐसे में 2024 में मोदी फैक्टर कितना असरदार होता है, ये काफी हद तक इस बात पर भी निर्भर करेगा कि कांग्रेस या इंडिया गठबंधन का चेहरा कौन होगा। 2 . आपदा राहत पर सियासत ! आपदा में केंद्र से हिमाचल को क्या मिला, ये फिलवक्त हिमाचल प्रदेश की सबसे बड़ी सियासी जिरह है। पीएम मोदी ने हिमाचल आपदा पर कुछ नहीं कहा और न ही हिमाचल को स्पेशल पैकेज मिला है, इस मुद्दे पर कांग्रेस हमलावर है। हालंकि ये मौजूदा स्थिति है और लोकसभा चुनाव में अभी वक्त है। ऐसे में संभव है तब तक स्थिति परिस्थिति बदल जाएगी। पर बहरहाल आपदा राहत पर सियासी संग्राम प्रखर है और निसंदेह अगर आज चुनाव होता है तो मतदाता के लिए ये भी एक बड़ा फैक्टर हो सकता है। 3 . महिला आरक्षण फैक्टर : मोदी सरकार ने महिला आरक्षण बिल पास किया है। 2024 में महिलाओं को इसका लाभ नहीं होगा लेकिन भाजपा इसका पूरा लाभ लेने की कोशिश में है। जाहिर सी बात है की आधी आबादी को साधने में इसका भरपूर इस्तेमाल होगा। हालांकि कांग्रेस इसे तुरंत लागू करने की वकालत कर भाजपा को घेर रही है। ऐसे में ये फैक्टर कितन असरदार होगा, ये देखना रोचक होगा। यदि महिला वोटर्स का झुकाव भाजपा की तरफ रहा तो नतीजे निसंदेह व्यापक तौर पर प्रभावित होंगे। 4. सुक्खू सरकार का कामकाज : प्रदेश की सुक्खू सरकार का कामकाज भी लोकसभा चुनाव में मतदाता का निर्णय प्रभावित करेगा। हालांकि मोटे तौर पर हिमाचल का मतदाता लोकसभा और विधानसभा चुनाव का फर्क भी समझता है और वोट भी उस आधार पर करता है। फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सुक्खू सरकार को लेकर यदि एंटी इंकम्बैंसी या प्रो इंकम्बैंसी, जैसा भी माहौल बनता है इसका असर लोकसभा के नतीजों पर भी होगा। यहाँ ध्यान में ये भी रखना होगा कि अब तक जमीनी स्तर पर मोदी सरकार को लेकर पहले जैसी प्रो इंकम्बैंसी नहीं दिख रही है, ऐसे में प्रदेश सरकार और स्थानीय चेहरे ही संभवतः 2024 में नतीजे तय करेंगे। वहीँ ओपीएस बहाल करने का कांग्रेस को कितना लाभ होता है, ये देखना भी रोचक होने वाला है। 5 . चेहरे तय करेंगे नतीजा ! ये कहना गलत नहीं होगा कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में जनता ने पीएम मोदी के नाम पर मतदान किया था। पर माहिर मान रहे है कि 2024 की जंग में पीएम मोदी तो चेहरा होंगे ही, लेकिन कैंडिडेट पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा। दस साल से भाजपा केंद्र की सत्ता में है और ऐसे में प्रो इंकम्बैंसी संभवतः पहले की तरह न दिखे। ऐसी स्थिति में सही टिकट वितरण जरूरी हो जाता है। विधानसभा चुनाव में भाजपा को प्रदेश की करीब एक तिहाही सीटों पर बगावत झेली पड़ी थी, जिसका खामियाजा पार्टी ने भुगता। लोकसभा चुनाव में ऐसी किसी गलती की गुंजाईश नहीं होगी। वहीँ 2019 में चारों सीटें जीतने के बाद भाजपा 2021 में मंडी संसदीय उपचुनाव भी हार चुकी है। ऐसे में मंडी में तो पार्टी को कोई मजबूत चेहरा देना ही होगा, साथ ही अन्य तीन में से दो सांसदों के टिकट कटने की भी अटकलें लग रही है। ऐसी ही स्थिति कांग्रेस में है। मंडी से बेशक प्रतिभा सिंह दमदार चेहरा है लेकिन अन्य तीन संसदीय क्षेत्रों में पार्टी के पास कोई तय चेहरा नहीं दिखता। दिलचस्प बात ये है की तीनो संसदीय क्षेत्रों में सीटिंग विधायकों के चुनाव लड़ने की अटकलें है। पर माहिर भी मानते है कि यदि कांग्रेस मजबूत चेहरे उतारती है तो मुकाबला कड़ा होगा और भाजपा की राह मुश्किल जरूर हो सकती है।