पयर्टन की दृष्टि से हिमाचल प्रदेश देशभर के मुख्य स्थलों में सबसे ऊपर है। इसी के अन्तर्गत जिला बिलासपुर भी किसी से कम नहीं, जहाँ पर्यटन स्थलों की लम्बी सूची देखी जा सकती है। इस दृष्टि से बिलासपुर जिला में राजाओं के समय बनाये गए किले अपना विशेष महत्व रखते हैं जिनका पहाड़ी के शीर्ष पर पर्यावरणीय और प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण वातावरण में स्थापन किया गया है। जिला बिलासपुर की तहसील घुमारवीं के त्यून खास का किला उनमें से एक है। त्यून किले के अवशेष त्यून श्रेणी के नाम से जानी जाने वाली पहाड़ी जो सतरह किलोमीटर लम्बी है के शिखर पर स्थित है। घुमारवीं से इसकी दूरी लगभग दस किलोमीटर है और बिलासपुर मुख्यालय से लगभग पैंतालीस किलोमीटर है। खण्डहरनुमा यह किला अपने भीतर डरा देने वाली अनेक कहानियों/स्मृतियों को समेटे हुए हैं। यह आज भी उस प्राचीन युद्ध मय अशान्त समय की याद दिलाता है,जहाँ विशाल मालखाना था और वहाँ पर राजाओं के समय में बड़ी संख्या में हथियार जमा किये जाते थे।इस क्षेत्र में युद्ध एक नियमित विशेषता थी। राजा काहन चंद ने इस का निर्माण 1142 विक्रमी संवत में करवाया था। किले का क्षेत्रफल लगभग 14 हेक्टेयर है और आकार में यह आयताकार है। इसकी लम्बाई 400 मीटर और चौडा़ई 200 मीटर है । इस किले की दीवारों की ऊँचाई 2 से लेकर 10 मीटर तक लगभग है। किले के मुख्य द्वार की ऊँचाई 3 मीटर व चौड़ाई 5 या 5 1/2मीटर है। पानी की व्यवस्था हेतु दो टैंक और दो बड़े-बड़े अन्न भण्डार थे जिनमें लगभग 3000 कि0 ग्रा0 से भी अधिक अन्न रखा जा सकता था। आज इन ऐतिहासिक किलों को पयर्टन की दृष्टि से विकसित करने के लिए कार्य किया जा सकता है। फोरलेन से लगते गाँव पनोह से त्यून किले तक करीब 10किलोमीटर पैदल टरैक बनाया जा सकता है। ताकि पयर्टक इस पर ट्रैकिंग कर सकें। पनोह से किरतपुर -नेरचौक- कुल्लू मनाली फोरलेन गुजर रहा है। इसे जब ट्रैक से जोड़ा जायेगा तो देश विदेश से लोग इस किले के सौंदर्य को निहारने के लिए त्यून खास अवश्य पहुंचेंगे। इस प्रकार इन किलों को पयर्टन के लिए विकसित किया जियेगा तो जनता को सुविधाएं और सरकार को आय का साधन बनेगा।
*अमृता प्रीतम ने बटालवी को कहा था 'बिरह का सुल्तान' ' बिरहा बिरहा आखीए, बिरहा तू सुल्तान। जिस तन बिरहा ना उपजे, सो तन जाण मसान ...' प्रसिद्ध कवयित्री अमृता प्रीतम के शब्दों में वो ‘बिरह का सुल्तान’ था। पंजाब का एक ऐसा शायर जिसके जैसा न कोई था, न है और न कोई और होगा। वो हिंदुस्तान में भी खूब छाया और पाकिस्तान ने भी उसे जमकर चाहा. वो था पंजाब का पहला सुपरस्टार शायर शिव कुमार बटालवी। वो शायर जिसने शराब में डूबकर वो रच दिया जिसे होश वाले शायद कभी न उकेर पाते। वो शायर जो मरने की बहुत जल्दी में था। 'असां तां जोबन रुत्ते मरनां, जोबन रूत्ते जो भी मरदा फूल बने या तारा, जोबन रुत्ते आशिक़ मरदे या कोई करमा वाला'.. बटालवी का कहना था कि जवानी में जो मरता है वो या तो फूल बनता है या तारा। जवानी में या तो आशिक मरते हैं या वो जो बहुत करमों वाले होते हैं। जैसा वो कहते थे वैसा हुआ भी, महज 35 की उम्र में बटालवी दुनिया को अलविदा कह गए। पर जाने से पहले इतना खूबसूरत लिख गए कि शायरी का हर ज़िक्र उनके बगैर अधूरा है। शिव कुमार बटालवी 23 जुलाई 1936 को पंजाब के सियालकोट में पैदा हुए, जो बंटवारे के बाद से पाकिस्तान में है। उनके पिता एक तहसीलदार थे पर न जाने कैसे शिव शायर हो गए। आजादी के बाद जब देश का बंटवारा हुआ तो बटालवी का परिवार पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत में पंजाब के गुरदासपुर जिले के बटाला में आ गया। उस वक़्त शिव कुमार बटालवी की उम्र महज़ दस साल थी। नका कुछ बचपन और किशोरावस्था यहीं गुजरी। बटालवी ने इन दिनों में गांव की मिट्टी, खेतों की फसलों, त्योहारों और मेलों को भरपूर जिया, जो बाद में उनकी कविताओं में खुशबू बनकर महका। उन्होंने अपने नाम में भी बटालवी जोड़ा, जो बटाला गांव के प्रति उनका उन्मुक्त लगाव दर्शाता है। बटालवी जिंदगी के सफर में बटाला, कादियां, बैजनाथ होते हुए नाभा पहुंचे लेकिन अपने नाम में बटालवी जोड़ खुद को ताउम्र के लिए बटाला से जोड़े रखा। कुछ बड़े होने के बाद उन्हें गांव से बाहर पढ़ने भेजा गया। वो खुद तो गांव से आ गए मगर उनका दिल गांव की मिटटी पर ही अटका रहा। कहते है उनका गांव छूट जाना उन पर पहला प्रहार था, जिसका गहरा जख्म उन्हें सदैव पीड़ा देता रहा। गांव से निकलकर आगे की पढ़ाई के लिए शिव कादियां के एस. एन. कॉलेज के कला विभाग गए। पर दूसरे साल ही उन्होंने उसे बीच में छोड़ दिया। उसके बाद उन्हें हिमाचल प्रदेश के बैजनाथ के एक स्कूल में इंजीनियरिंग की पढ़ाई हेतु भेजा गया। पर पिछली बार की तरह ही उन्होंने उसे भी बीच में छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने नाभा के सरकारी कॉलेज में अध्ययन किया। उनका बार-बार बीच में ही अभ्यास छोड़ देना, उनके भीतर पल रही अराजकता और अनिश्चितता का बीजारोपण था। पिता शिव को कुछ बनता हुआ देखना चाहते थे। जो पिता शिव के लिए चाहते थे वो शिव ने अपने लिए कभी नहीं चाहा, इसीलिए पिता - पुत्र में कभी नहीं बनी। बटालवी की छोटी सी जीवन यात्रा तमाम उतार चढ़ाव समेटे हुए है, किसी खूबसूरत चलचित्र की तरह जिसमें स्टारडम है, विरह का तड़का है और जिसका अंत तमाम वेदना समेटे हुए है। शिव कुमार बटालवी के गीतों में ‘बिरह की पीड़ा’ इस कदर थी कि उस दौर की प्रसिद्ध कवयित्री अमृता प्रीतम ने उन्हें ‘बिरह का सुल्तान’ नाम दे दिया। शिव कुमार बटालवी यानी पंजाब का वह शायर जिसके गीत हिंदी में न आकर भी वह बहुत लोकप्रिय हो गया। कहते है उन्हें मेले में एक लड़की से मोहब्बत हो गयी थी। मेले के बाद जब लड़की नज़रों से ओझल हुई तो उसे ढूंढने के लिए एक गीत लिख डाला। गीत क्या मानो इश्तहार लिखा हो; ‘इक कुड़ी जिहदा नाम मुहब्बत ग़ुम है’ ओ साद मुरादी, सोहनी फब्बत गुम है, गुम है, गुम है ओ सूरत ओस दी, परियां वर्गी सीरत दी ओ मरियम लगदी हस्ती है तां फूल झडदे ने तुरदी है तां ग़ज़ल है लगदी... ये वहीँ गीत है जो फिल्म उड़ता पंजाब में इस्तेमाल हुआ और इस नए दौर में भी युवाओं की जुबा पर इस कदर चढ़ा कि मानो हर कोई बटालवी की महबूबा को ढूंढ़ते के लिए गा रहा हो। कहते है बटालवी का ये लड़कपन का प्यार अधूरा रहा क्यों कि एक बीमारी के चलते उस लड़की की मौत हो गयी। खैर ज़िंदगी बढ़ने का नाम है सो बटालवी भी अवसाद से निकलकर आगे बढ़ने लगे। फिर एक लड़की मिली और फिर शिव को उनसे मोहब्बत हो गई। पर इस मर्तबा भी अंजाम विरह ही था। दरअसल, जिसे शिव दिल ओ जान से मोहब्बत करते थे उसने किसी और का घर बसाया और शादी करके विदेश चली गयी। एक बार फिर शिव तनहा हुए और विरह के समुन्दर में गोते खाने लगे। तब शराब और अवसाद में डूबे शिव ने जो लिखा वो कालजयी हो गया ........... माए नी माए मैं इक शिकरा यार बनाया चूरी कुट्टाँ ताँ ओह खाओंदा नाहीं वे असाँ दिल दा मास खवाया इक उड़ारी ऐसी मारी इक उड़ारी ऐसी मारी ओह मुड़ वतनीं ना आया, ओ माये नी! मैं इक शिकरा यार बना शिकरा पक्षी दूर से अपने शिकार को देखकर सीधे उसका मांस नोंच कर फिर उड़ जाता है। शिव ने अपनी उस बेवफा प्रेमिका को शिकरा कहा। हालांकि वो लड़की कौन थी इसे लेकर तरह तरह की बातें प्रचलित है । पर इसके बारे में आधिकारिक रुप से आज तक कोई जानकारी नहीं है और ना वो ख़ुद ही कभी लोगों के सामने आई। शिव की उस बेवफा प्रेमिका के बारे में एक किस्सा अमृता प्रीतम ने भी बयां किया है। शिव एक दिन अमृता प्रीतम के घर पहुंचे और उन्हें बताया कि जो लड़की उनसे इतनी प्यार भरी बातें किया करती थी वो उन्हें छोड़कर चली गयी है। उसने विदेश जाकर शादी कर ली है। अमृता प्रीतम ने उन्हें जिंदगी की हकीकत और फ़साने का अंतर समझाने का प्रत्यन किया पर शिव का मासूम दिल टूट चूका था। कहते है शिव उसके बाद ताउम्र उसी लड़की के ग़म में लिखते रहे। सिर्फ 24 साल की उम्र में शिव कुमार बटालवी की कविताओं का पहला संकलन "पीड़ां दा परागा" प्रकाशित हुआ, जो उन दिनों काफी चर्चित रहा। उसी दौर में शिव ने लिखा ........ अज्ज दिन चढ़ेया तेरे रंग वरगा तेरे चुम्मण पिछली संग वरगा है किरणा दे विच नशा जिहा किसे चिम्मे सप्प दे दंग वरगा आखिरकार, 1967 में बटालवी ने अरुणा से शादी कर ली और उनके साथ दो बेटियां हुई। शिव शादी के बाद चंडीगढ़ चले गये। वहां वे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में कार्यरत रहे। पर कहते है बटालवी उस लड़की को नहीं भूल नहीं सके और उसकी याद में लिखते गए। की पुछ दे ओ हाल फ़कीरां दा साडा नदियों बिछड़े नीरां दा साडा हंज दी जूने आयां दा साडा दिल जलया दिलगीरां दा धीरे-धीरे, बटालवी शराब की दुसाध्य लत के चलते 7 मई 1973 को लीवर सिरोसिस के परिणामस्वरूप जग को अलविदा कह गए। कहते है कि जीवन के अंतिम दौर में उनकी माली हालत भी ठीक नहीं थी और अपने ससुर के घर उन्होंने अंतिम सांस ली। पर बटालवी जैसे शायर तो पुरानी शराब की तरह होते है, दौर भले बदले पर नशा वक्त के साथ गाढ़ा होता जाता है। ‘लूणा’ के लिए मिला साहित्य अकादमी पुरस्कार : ऐसा नहीं है कि शिव कुमार बटालवी सिर्फ विरह के शायर थे। बटालवी का नाम साहित्य के गलियारों में बड़े अदब के साथ लिया जाता है। ऐसा हो भी क्यों ना इस दुनिया को अलविदा कहने से पहले वे ‘लूणा’ जैसा महाकाव्य लिख गए। इसी के लिए उन्हें सबसे कम उम्र में यानी महज 31 वर्ष की उम्र में साहित्य अकादमी पुरूस्कार भी मिला। ये सम्मान प्राप्त करने वाले वे सबसे कम उम्र के साहित्यकार है। ‘लूणा’ को पंजाबी साहित्य में ‘मास्टरपीस’ का दर्ज़ा प्राप्त है और साहित्य जगत में इसकी आभा बरक़रार है। कहा जाता था कि कविता हिंदी में है और शायरी उर्दू में। पर शिव ने जब पंजाबी में अपनी जादूगरी दिखाई तो उस दौर के तमाम हिंदी और उर्दू के बड़े बड़े शायर कवि हैरान रह गए। नायाब गायकों ने गाये बटालवी के गीत : बटालवी की नज्मों को सबसे पहले नुसरत फतेह अली खान ने अपनी आवाज दी थी। उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान ने उनकी कविता 'मायें नी मायें मेरे गीतां दे नैणां विच' को गाया था । जगजीत सिंह ने उनका एक गीत 'मैंनू तेरा शबाब ले बैठा' गाया तो दुनिया को पता चला की शब्दों की जादूगरी क्या होती है। नुसरत साहब और जगजीत सिंह - चित्रा सिंह के अलावा रबी शेरगिल, हंस राज हंस, दीदार सिंह परदेसी सहित एक से बढ़कर एक नायाब गायकों ने बटालवी की कविताएं गाई। उनकी लिखी रचनाओं को गाकर न जाने कितने गायक शौहरत पा गए। बटालवी आज भी हर दिल अजीज है। बटालवी और विरह जुदा नहीं । बटालवी तो आखिर बटालवी है।
उत्तर प्रदेश का बदायूं जिला तीन चीजों के लिए मशहूर है- पीर, पेड़े और कवि। इसी बदायूं से ताल्लुख रखते हैं शकील बदायूनी। आप उर्दू के बड़े नामों में से एक हैं, साथ ही विख्यात फ़िल्म गीतकार भी है। चौदहवीं का चांद, प्यार किया तो डरना क्या, न जाओ सैंया छुड़ा के बैयां कसम तुम्हारी, हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं और सुहानी रात ढल चुकी जैसे न जाने कितने ही गाने हैं, जो शकील बदायूनी ने लिखे हैं। शकील बदायूनी की लिखी कई गजलें बेमिसाल हैं, सब एक से बढ़कर एक और नायाब। पेश हैं उनकी लिखी पांच खूबसूरत ग़ज़लें... चाँदनी में रुख़-ए-ज़ेबा नहीं देखा जाता चाँदनी में रुख़-ए-ज़ेबा नहीं देखा जाता माह ओ ख़ुर्शीद को यकजा नहीं देखा जाता यूँ तो उन आँखों से क्या क्या नहीं देखा जाता हाँ मगर अपना ही जल्वा नहीं देखा जाता दीदा-ओ-दिल की तबाही मुझे मंज़ूर मगर उन का उतरा हुआ चेहरा नहीं देखा जाता ज़ब्त-ए-ग़म हाँ वही अश्कों का तलातुम इक बार अब तो सूखा हुआ दरिया नहीं देखा जाता ज़िंदगी आ तुझे क़ातिल के हवाले कर दूँ मुझ से अब ख़ून-ए-तमन्ना नहीं देखा जाता अब तो झूटी भी तसल्ली ब-सर-ओ-चश्म क़ुबूल दिल का रह रह के तड़पना नहीं देखा जाता नज़र-नवाज़ नज़ारों में जी नहीं लगता नज़र-नवाज़ नज़ारों में जी नहीं लगता वो क्या गए कि बहारों में जी नहीं लगता शब-ए-फ़िराक़ को ऐ चाँद आ के चमका दे नज़र उदास है तारों में जी नहीं लगता ग़म-ए-हयात के मारे तो हम भी हैं लेकिन ग़म-ए-हयात के मारों में जी नहीं लगता न पूछ मुझ से तिरे ग़म में क्या गुज़रती है यही कहूँगा हज़ारों में जी नहीं लगता कुछ इस क़दर है ग़म-ए-ज़िंदगी से दिल मायूस ख़िज़ाँ गई तो बहारों में जी नहीं लगता फ़साना-ए-शब-ए-ग़म ख़त्म होने वाला है 'शकील' चाँद सितारों में जी नहीं लगता हुई हम से ये नादानी तिरी महफ़िल में आ बैठे हुई हम से ये नादानी तिरी महफ़िल में आ बैठे ज़मीं की ख़ाक हो कर आसमाँ से दिल लगा बैठे हुआ ख़ून-ए-तमन्ना उस का शिकवा क्या करें तुम से न कुछ सोचा न कुछ समझा जिगर पर तीर खा बैठे ख़बर की थी गुलिस्तान-ए-मोहब्बत में भी ख़तरे हैं जहाँ गिरती है बिजली हम उसी डाली पे जा बैठे न क्यूँ अंजाम-ए-उल्फ़त देख कर आँसू निकल आएँ जहाँ को लूटने वाले ख़ुद अपना घर लुटा बैठे कहीं हुस्न का तक़ाज़ा कहीं वक़्त के इशारे कहीं हुस्न का तक़ाज़ा कहीं वक़्त के इशारे न बचा सकेंगे दामन ग़म-ए-ज़िंदगी के मारे शब-ए-ग़म की तीरगी में मिरी आह के शरारे कभी बन गए हैं आँसू कभी बन गए हैं तारे न ख़लिश रही वो मुझ में न कशिश रही वो मुझ में जिसे ज़ो'म-ए-आशिक़ी हो वही अब तुझे पुकारे जिन्हें हो सका न हासिल कभी कैफ़-ए-क़ुर्ब-ए-मंज़िल वही दो-क़दम हैं मुझ को तिरी जुस्तुजू से प्यारे मैं 'शकील' उन का हो कर भी न पा सका हूँ उन को मिरी तरह ज़िंदगी में कोई जीत कर न हारे मेरी दीवानगी नहीं जाती मेरी दीवानगी नहीं जाती रो रहा हूँ हँसी नहीं जाती तेरे जल्वों से आश्कारा हूँ चाँद की चाँदनी नहीं जाती तर्क-ए-मय ही समझ ले ऐ नासेह इतनी पी है कि पी नहीं जाती जब से देखा है उन को बे-पर्दा नख़वत-ए-आगही नहीं जाती शोख़ी-ए-हुस्न-ए-बे-अमाँ की क़सम हुस्न की सादगी नहीं जाती उन की दरिया-दिली को क्या कहिए मेरी तिश्ना-लबी नहीं जाती
मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के वो महान शायर जिनकी शायरी के बगैर हर मोहब्बत अधूरी है। वो शायर जिन्हें उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना गया है। वो शायर जिसे फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी दिया जाता है। ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता आज जानिए मिरज़ा ग़ालिब के वो 15 शेर है जो आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए है। उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन मेहरबान होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक्त मैं गया वक्त नहीं हूँ की फिर आ भी न सकूँ कितना खौफ होता है रात के अंधेरों में पूछ उन परिंदो से जिनके घर नहीं होते इस सादगी पे कौन न मर जाये ऐ खुदा लड़ते है और हाथ में तलवार भी नहीं इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का उसी को देखकर जीते है जिस काफिर पे दम निकले हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं, अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो
प्रसिद्ध कवयित्री अमृता प्रीतम के शब्दों में वो ‘बिरह का सुल्तान’ था। पंजाब का एक ऐसा शायर जिसके जैसा न कोई था , न है और न कोई और होगा। वो हिंदुस्तान में भी खूब छाया और पाकिस्तान ने भी उसे जमकर चाहा। पंजाब का पहला सुपरस्टार शायर शिव कुमार बटालवी। वो शायर जिसने शराब में डूबकर वो रच दिया जिसे होश वाले शायद कभी न उकेर पाते। वो शायर जो मरने की बहुत जल्दी में था। असां तां जोबन रुत्ते मरनां जोबन रूत्ते जो भी मरदा फूल बने या तारा जोबन रुत्ते आशिक़ मरदे या कोई करमा वाला बटालवी का कहना था कि जवानी में जो मरता है वो या तो फूल बनता है या तारा। जवानी में या तो आशिक मरते हैं या वो जो बहुत करमों वाले होते हैं। जैसा वो कहते थे वैसा हुआ भी महज 35 की उम्र में बटालवी दुनिया को अलविदा कह गए। पर जाने से पहले इतना खूबसूरत लिख गए कि शायरी का हर ज़िक्र उनके बगैर अधूरा है। शिव कुमार बटालवी 23 जुलाई 1936 को पंजाब के सियालकोट में पैदा हुए, जो बंटवारे के बाद से पाकिस्तान में है। उनके पिता एक तहसीलदार थे पर न जाने कैसे शिव शायर हो गए। विभाजन के बाद शिव हिंदुस्तान आ गए, और गुरदासपुर में बस गए। जिंदगी के सफर में बटाला, कादियां, बैजनाथ होते हुए नाभा पहुंचे लेकिन अपने नाम में बटालवी जोड़ खुद को ताउम्र के लिए बटाला से जोड़ लिया। बटालवी की छोटी सी जीवन यात्रा तमाम उतार चढ़ाव समेटे हुए है , किसी खूबसूरत चलचित्र की तरह जिसमें स्टारडम है , विरह का तड़का है और जिसका अंत तमाम वेदना समेटे हुए है। कहते है उन्हें मेले में एक लड़की से मोहब्बत हो गयी। मेले के बाद जब लड़की नज़रों से ओझल हुई तो उसे ढूंढने के लिए एक गीत लिख डाला। गीत क्या मानो इश्तहार लिखा हो ‘इक कुड़ी जिहदा नाम मुहब्बत ग़ुम है’ ओ साद मुरादी, सोहनी फब्बत गुम है, गुम है, गुम है ओ सूरत ओस दी, परियां वर्गी सीरत दी ओ मरियम लगदी हस्ती है तां फूल झडदे ने तुरदी है तां ग़ज़ल है लगदी ये वहीँ गीत है जो फिल्म उड़ता पंजाब में इस्तेमाल हुआ और इस नए दौर में भी युवाओं की जुबा पर इस कदर चढ़ा कि मानो हर कोई बटालवी की महबूबा को ढूंढ़ते के लिए गा रहा हो। कहते है बटालवी का ये लड़कपन का प्यार अधूरा रहा क्यों कि एक बीमारी के चलते उस लड़की की मौत हो गयी। खैर ज़िंदगी बढ़ने का नाम है सो बटालवी भी अवसाद से निकलकर आगे बढ़ने लगे। फिर एक लड़की मिली और फिर शिव को उनसे मोहब्बत हो गई। पर इस मर्तबा भी अंजाम विरह ही था। दरअसल, जिसे शिव दिल ओ जान से मोहब्बत करते थे उसने किसी और का घर बसाया और शादी करके विदेश चली गयी। एक बार फिर शिव तनहा हुए और विरह के समुन्दर में गोते खाने लगे। तब शराब और अवसाद में डूबे शिव ने जो लिखा वो कालजयी हो गया ........... माए नी माए मैं इक शिकरा यार बनाया चूरी कुट्टाँ ताँ ओह खाओंदा नाहीं वे असाँ दिल दा मास खवाया इक उड़ारी ऐसी मारी इक उड़ारी ऐसी मारी ओह मुड़ वतनीं ना आया, ओ माये नी! मैं इक शिकरा यार बना शिकरा पक्षी दूर से अपने शिकार को देखकर सीधे उसका मांस नोंच कर फिर उड़ जाता है। शिव ने अपनी उस बेवफा प्रेमिका को शिकरा कहा। हालांकि वो लड़की कौन थी इसे लेकर तरह तरह की बातें प्रचलित है । पर इसके बारे में आधिकारिक रुप से आज तक कोई जानकारी नहीं है और ना वो ख़ुद ही कभी लोगों के सामने आई । शिव की उस बेवफा प्रेमिका के बारे में एक किस्सा अमृता प्रीतम ने भी बयां किया है। शिव एक दिन अमृता प्रीतम के घर पहुंचे और उन्हें बताया कि जो लड़की उनसे इतनी प्यार भरी बातें किया करती थी वो उन्हें छोड़कर चली गयी है। उसने विदेश जाकर शादी कर ली है। अमृता प्रीतम ने उन्हें जिंदगी की हकीकत और फ़साने का अंतर समझने का प्रत्यन किया पर शिव का मस्सों दिल टूट चूका था। कहते है शिव उसके बाद ताउम्र उसी लड़की के ग़म में लिखते रहे। उसी दौर में शिव ने लिखा ........ अज्ज दिन चढ़ेया तेरे रंग वरगा तेरे चुम्मण पिछली संग वरगा है किरणा दे विच नशा जिहा किसे चिम्मे सप्प दे दंग वरगा आखिरकार, 1967 में बटालवी ने अरुणा से शादी कर ली और उनके साथ दो बेटियां हुई। पर कहते है बटालवी उस लड़की को नहीं भूल नहीं सके और उसकी याद में लिखते गए। की पुछ दे ओ हाल फ़कीरां दा साडा नदियों बिछड़े नीरां दा साडा हंज दी जूने आयां दा साडा दिल जलया दिलगीरां दा धीरे-धीरे, बटालवी शराब की दुसाध्य लत के चलते 7 मई 1973 को लीवर सिरोसिस के परिणामस्वरूप जग को अलविदा कह गए। कहते है कि जीवन के अंतिम दौर में उनकी माली हालत भी ठीक नहीं थी और अपने ससुर के घर उन्होंने अंतिम सांस ली। पर बटालवी जैसे शायर तो पुरानी शराब की तरह होते है, दौर भले बदले पर नशा वक्त के साथ गाढ़ा होता जाता है। ऐसा नहीं है कि शिव कुमार बटालवी सिर्फ विरह के शायर थे। बटालवी का नाम साहित्य के गलियारों में बड़े अदब के साथ लिया जाता है। ऐसा हो भी क्यों ना। इस दुनिया को अलविदा कहने से पहले वे ‘लूणा’ जैसा महाकाव्य लिख गए। इसी के लिए उन्हें सबसे कम उम्र में यानी महज 31 वर्ष की उम्र में साहित्य अकादमी पुरूस्कार भी मिला। ‘लूणा’ को पंजाबी साहित्य में ‘मास्टरपीस’ का दर्ज़ा प्राप्त है और साहित्य जगत में इसकी आभा बरक़रार है। कहा जाता था कि कविता हिंदी में है और शायरी उर्दू में। पर शिव ने जब पंजाबी में अपनी जादूगरी दिखाई तो उस दौर के तमाम हिंदी और उर्दू के बड़े बड़े शायर कवि हैरान रह गए। बटालवी की नज्मों को सबसे पहले नुसरत फतेह अली खान ने अपनी आवाज दी थी। उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान ने उनकी कविता 'मायें नी मायें मेरे गीतां दे नैणां विच' को गाया था । जगजीत सिंह ने उनका एक गीत 'मैंनू तेरा शबाब ले बैठा' गाया तो दुनिया को पता चला की शब्दों की जादूगरी क्या होती है। मैंनू तेरा शबाब ले बैठा, रंग गोरा गुलाब ले बैठा। किन्नी-बीती ते किन्नी बाकी है, मैंनू एहो हिसाब ले बैठा। मैंनू जद वी तूसी तो याद आये, दिन दिहाड़े शराब ले बैठा। चन्गा हुन्दा सवाल ना करदा, मैंनू तेरा जवाब ले बैठा। नुसरत साहब और जगजीत सिंह - चित्रा सिंह के अलावा रबी शेरगिल, हंस राज हंस, दीदार सिंह परदेसी सहित एक से बढ़कर एक नायाब गायकों ने बटालवी की कविताएं गाई। बटालवी आज भी हर दिल अजीज है। बटालवी और विरह जुदा नहीं। बटालवी तो आखिर बटालवी है।
पूरा नाम सय्यद हुसैन जॉन असग़र । जॉन का जन्म 14 दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुआ। शुरूआती तालीम अमरोहा में ही ली और उर्दू, फ़ारसी, और अर्बी सीखते - सीखते अल्हड़ उम्र में ही शायर हो गए। मुल्क आज़ाद हुआ और आज़ादी अपने साथ बंटवारे बंटवारे का ज़लज़ला भी लाई। 1947 में तो सय्यद हुसैन जॉन असग़र ने हिंदुस्तान में रहना तय किया पर 1957 आते-आते समझौते के तौर पर पाकिस्तान चले गए और पूरी उम्र वहीँ गुजारी। जॉन एलिया के शेर आज की युवा पीढ़ी के सिर चढ़कर बोलते है। इनके श्यारी में दर्द भी है, व्यंग भी और दार्शनिकता भी। भाषा इतनी सरल कि हर आम और ख़ास के समझ आ जाएँ। पेश है जॉन एलिया के कुछ चुनिंदा शेर। जो गुज़ारी न जा सकी हम से हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता एक ही शख़्स था जहान में क्या ज़िंदगी किस तरह बसर होगी दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में बहुत नज़दीक आती जा रही हो बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या सारी दुनिया के ग़म हमारे हैं और सितम ये कि हम तुम्हारे हैं कौन इस घर की देख-भाल करे रोज़ इक चीज़ टूट जाती है क्या सितम है कि अब तिरी सूरत ग़ौर करने पे याद आती है किस लिए देखती हो आईना तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया मुस्तक़िल बोलता ही रहता हूँ कितना ख़ामोश हूँ मैं अंदर से इलाज ये है कि मजबूर कर दिया जाऊँ वगरना यूँ तो किसी की नहीं सुनी मैं ने मुझे अब तुम से डर लगने लगा है तुम्हें मुझ से मोहब्बत हो गई क्या उस गली ने ये सुन के सब्र किया जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं हम को यारों ने याद भी न रखा 'जौन' यारों के यार थे हम तो कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं क्या सितम है कि हम लोग मर जाएँगे क्या कहा इश्क़ जावेदानी है! आख़िरी बार मिल रही हो क्या और तो क्या था बेचने के लिए अपनी आँखों के ख़्वाब बेचे हैं तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर अब किसे रात भर जगाती है दिल की तकलीफ़ कम नहीं करते अब कोई शिकवा हम नहीं करते मेरी बाँहों में बहकने की सज़ा भी सुन ले अब बहुत देर में आज़ाद करूँगा तुझ को यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे ज़िंदगी एक फ़न है लम्हों को अपने अंदाज़ से गँवाने का बिन तुम्हारे कभी नहीं आई क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है मैं रहा उम्र भर जुदा ख़ुद से याद मैं ख़ुद को उम्र भर आया अब मिरी कोई ज़िंदगी ही नहीं अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या याद उसे इंतिहाई करते हैं सो हम उस की बुराई करते हैं अब नहीं कोई बात ख़तरे की अब सभी को सभी से ख़तरा है कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम यूँ जो तकता है आसमान को तू कोई रहता है आसमान में क्या जान-लेवा थीं ख़्वाहिशें वर्ना वस्ल से इंतिज़ार अच्छा था अब तो हर बात याद रहती है ग़ालिबन मैं किसी को भूल गया ऐ शख़्स मैं तेरी जुस्तुजू से बे-ज़ार नहीं हूँ थक गया हूँ इक अजब हाल है कि अब उस को याद करना भी बेवफ़ाई है मुझ को आदत है रूठ जाने की आप मुझ को मना लिया कीजे क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं काम की बात मैं ने की ही नहीं ये मिरा तौर-ए-ज़िंदगी ही नहीं वो जो न आने वाला है ना उस से मुझ को मतलब था आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे अपना रिश्ता ज़मीं से ही रक्खो कुछ नहीं आसमान में रक्खा अपने सब यार काम कर रहे हैं और हम हैं कि नाम कर रहे हैं कोई मुझ तक पहुँच नहीं पाता इतना आसान है पता मेरा मैं जो हूँ 'जौन-एलिया' हूँ जनाब इस का बेहद लिहाज़ कीजिएगा एक ही तो हवस रही है हमें अपनी हालत तबाह की जाए हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई आज मुझ को बहुत बुरा कह कर आप ने नाम तो लिया मेरा नहीं दुनिया को जब पर्वा हमारी तो फिर दुनिया की पर्वा क्यूँ करें हम जुर्म में हम कमी करें भी तो क्यूँ तुम सज़ा भी तो कम नहीं करते तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो अब जो रिश्तों में बँधा हूँ तो खुला है मुझ पर कब परिंद उड़ नहीं पाते हैं परों के होते गँवाई किस की तमन्ना में ज़िंदगी मैं ने वो कौन है जिसे देखा नहीं कभी मैं ने शौक़ है इस दिल-ए-दरिंदा को आप के होंट काट खाने का शब जो हम से हुआ मुआफ़ करो नहीं पी थी बहक गए होंगे जाते जाते आप इतना काम तो कीजे मिरा याद का सारा सर-ओ-सामाँ जलाते जाइए ज़िंदगी क्या है इक कहानी है ये कहानी नहीं सुनानी है हर शख़्स से बे-नियाज़ हो जा फिर सब से ये कह कि मैं ख़ुदा हूँ ये बहुत ग़म की बात हो शायद अब तो ग़म भी गँवा चुका हूँ मैं अपने सर इक बला तो लेनी थी मैं ने वो ज़ुल्फ़ अपने सर ली है एक ही हादसा तो है और वो ये कि आज तक बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई इतना ख़ाली था अंदरूँ मेरा कुछ दिनों तो ख़ुदा रहा मुझ में रोया हूँ तो अपने दोस्तों में पर तुझ से तो हँस के ही मिला हूँ मेरी हर बात बे-असर ही रही नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगर सोचता हूँ तिरी हिमायत में आज बहुत दिन ब'अद मैं अपने कमरे तक आ निकला था जूँ ही दरवाज़ा खोला है उस की ख़ुश्बू आई है उस के होंटों पे रख के होंट अपने बात ही हम तमाम कर रहे हैं हम कहाँ और तुम कहाँ जानाँ हैं कई हिज्र दरमियाँ जानाँ हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम जानिए उस से निभेगी किस तरह वो ख़ुदा है मैं तो बंदा भी नहीं मुझ से अब लोग कम ही मिलते हैं यूँ भी मैं हट गया हूँ मंज़र से अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो वो अंगड़ाई मेरे कमरे तक तो बड़ी रूहानी थी मिल रही हो बड़े तपाक के साथ मुझ को यकसर भुला चुकी हो क्या बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में आबले पड़ गए ज़बान में क्या मुझ को ख़्वाहिश ही ढूँडने की न थी मुझ में खोया रहा ख़ुदा मेरा ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम तेग़-बाज़ी का शौक़ अपनी जगह आप तो क़त्ल-ए-आम कर रहे हैं ख़र्च चलेगा अब मिरा किस के हिसाब में भला सब के लिए बहुत हूँ मैं अपने लिए ज़रा नहीं तो क्या सच-मुच जुदाई मुझ से कर ली तो ख़ुद अपने को आधा कर लिया क्या ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम क्या है जो बदल गई है दुनिया मैं भी तो बहुत बदल गया हूँ ये वार कर गया है पहलू से कौन मुझ पर था मैं ही दाएँ बाएँ और मैं ही दरमियाँ था सब मेरे बग़ैर मुतमइन हैं मैं सब के बग़ैर जी रहा हूँ हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं कि उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं अब तुम कभी न आओगे यानी कभी कभी रुख़्सत करो मुझे कोई वादा किए बग़ैर हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद देखने वाले हाथ मलते हैं आख़िरी बात तुम से कहना है याद रखना न तुम कहा मेरा आईनों को ज़ंग लगा अब मैं कैसा लगता हूँ कल का दिन हाए कल का दिन ऐ 'जौन' काश इस रात हम भी मर जाएँ ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र अब वो कपड़े बदल रही होगी जिस्म में आग लगा दूँ उस के और फिर ख़ुद ही बुझा दूँ उस को कौन से शौक़ किस हवस का नहीं दिल मिरी जान तेरे बस का नहीं क्या पूछते हो नाम-ओ-निशान-ए-मुसाफ़िराँ हिन्दोस्ताँ में आए हैं हिन्दोस्तान के थे ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी मैं भी बर्बाद हो गया तू भी हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब यही मुमकिन था इतनी उजलत में और क्या चाहती है गर्दिश-ए-अय्याम कि हम अपना घर भूल गए उन की गली भूल गए सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है आदमी आदमी को भूल गया वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम है वो बेचारगी का हाल कि हम हर किसी को सलाम कर रहे हैं मैं जुर्म का ए'तिराफ़ कर के कुछ और है जो छुपा गया हूँ पड़ी रहने दो इंसानों की लाशें ज़मीं का बोझ हल्का क्यूँ करें हम मुझे अब होश आता जा रहा है ख़ुदा तेरी ख़ुदाई जा रही है मिल कर तपाक से न हमें कीजिए उदास ख़ातिर न कीजिए कभी हम भी यहाँ के थे दाद-ओ-तहसीन का ये शोर है क्यूँ हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं भूल जाना नहीं गुनाह उसे याद करना उसे सवाब नहीं हम जो अब आदमी हैं पहले कभी जाम होंगे छलक गए होंगे तिरी क़ीमत घटाई जा रही है मुझे फ़ुर्क़त सिखाई जा रही है अपने अंदर हँसता हूँ मैं और बहुत शरमाता हूँ ख़ून भी थूका सच-मुच थूका और ये सब चालाकी थी मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं यही होता है ख़ानदान में क्या उस से हर-दम मोआ'मला है मगर दरमियाँ कोई सिलसिला ही नहीं फुलाँ से थी ग़ज़ल बेहतर फुलाँ की फुलाँ के ज़ख़्म अच्छे थे फुलाँ से उस ने गोया मुझी को याद रखा मैं भी गोया उसी को भूल गया सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था गो अपने हज़ार नाम रख लूँ पर अपने सिवा मैं और क्या हूँ हो कभी तो शराब-ए-वस्ल नसीब पिए जाऊँ मैं ख़ून ही कब तक मैं बिस्तर-ए-ख़याल पे लेटा हूँ उस के पास सुब्ह-ए-अज़ल से कोई तक़ाज़ा किए बग़ैर जम्अ' हम ने किया है ग़म दिल में इस का अब सूद खाए जाएँगे हम ने क्यूँ ख़ुद पे ए'तिबार किया सख़्त बे-ए'तिबार थे हम तो इक अजब आमद-ओ-शुद है कि न माज़ी है न हाल 'जौन' बरपा कई नस्लों का सफ़र है मुझ में जान-ए-मन तेरी बे-नक़ाबी ने आज कितने नक़ाब बेचे हैं हम हैं मसरूफ़-ए-इंतिज़ाम मगर जाने क्या इंतिज़ाम कर रहे हैं ख़ुदा से ले लिया जन्नत का व'अदे ये ज़ाहिद तो बड़े ही घाग निकले अब नहीं मिलेंगे हम कूचा-ए-तमन्ना में कूचा-ए-तमन्ना में अब नहीं मिलेंगे हम हमें शिकवा नहीं इक दूसरे से मनाना चाहिए इस पर ख़ुशी क्या अपने सभी गिले बजा पर है यही कि दिलरुबा मेरा तिरा मोआ'मला इश्क़ के बस का था नहीं याद आते हैं मोजज़े अपने और उस के बदन का जादू भी अब ख़ाक उड़ रही है यहाँ इंतिज़ार की ऐ दिल ये बाम-ओ-दर किसी जान-ए-जहाँ के थे हम यहाँ ख़ुद आए हैं लाया नहीं कोई हमें और ख़ुदा का हम ने अपने नाम पर रक्खा है नाम घर से हम घर तलक गए होंगे अपने ही आप तक गए होंगे शाम हुई है यार आए हैं यारों के हमराह चलें आज वहाँ क़व्वाली होगी 'जौन' चलो दरगाह चलें हमला है चार सू दर-ओ-दीवार-ए-शहर का सब जंगलों को शहर के अंदर समेट लो नई ख़्वाहिश रचाई जा रही है तिरी फ़ुर्क़त मनाई जा रही है मैं सहूँ कर्ब-ए-ज़िंदगी कब तक रहे आख़िर तिरी कमी कब तक फिर उस गली से अपना गुज़र चाहता है दिल अब उस गली को कौन सी बस्ती से लाऊँ मैं मुझ को ये होश ही न था तू मिरे बाज़ुओं में है यानी तुझे अभी तलक मैं ने रिहा नहीं किया अब कि जब जानाना तुम को है सभी पर ए'तिबार अब तुम्हें जानाना मुझ पर ए'तिबार आया तो क्या 'जौन' दुनिया की चाकरी कर के तू ने दिल की वो नौकरी क्या की हम को हरगिज़ नहीं ख़ुदा मंज़ूर या'नी हम बे-तरह ख़ुदा के हैं हम अजब हैं कि उस की बाहोँ में शिकवा-ए-नारसाई करते हैं मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था उतारे कौन अब दीवार पर से मैं कहूँ किस तरह ये बात उस से तुझ को जानम मुझी से ख़तरा है इन लबों का लहू न पी जाऊँ अपनी तिश्ना-लबी से ख़तरा है हुस्न कहता था छेड़ने वाले छेड़ना ही तो बस नहीं छू भी एक क़त्ताला चाहिए हम को हम ये एलान-ए-आम कर रहे हैं किया था अहद जब लम्हों में हम ने तो सारी उम्र ईफ़ा क्यूँ करें हम हाए वो उस का मौज-ख़ेज़ बदन मैं तो प्यासा रहा लब-ए-जू भी शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का मुझ को देखते ही जब उस की अंगड़ाई शर्माई है न रखा हम ने बेश-ओ-कम का ख़याल शौक़ को बे-हिसाब ही लिक्खा शीशे के इस तरफ़ से मैं सब को तक रहा हूँ मरने की भी किसी को फ़ुर्सत नहीं है मुझ में ज़माना था वो दिल की ज़िंदगी का तिरी फ़ुर्क़त के दिन लाऊँ कहाँ से
राहत इंदौरी वो शायर थे जिनका अंदाज सबसे अलहदा था। अपने झूमते हुए अंदाज में इशारों इशारों में वार करना राहत इन्दोरी को बखूबी आता था। व्यवस्था को आइना दिखाते उनके शेर लाजवाब है। पेश उनके कहे कुछ चुनिंदा शेर.... ज़ुबाँ तो खोल नज़र तो मिला जवाब तो दे मैं कितनी बार लूटा हूँ मुझे हिसाब तो दे। लोग हर मोड़ पे रुक रुक के संभलते क्यूँ है इतना डरते है तो घर से निकलते क्यूँ है। शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे आँखों में पानी रखो होठों पे चिंगारी रखो जिंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो। एक ही नदी के है यह दो किनारे दोस्तो दोस्ताना ज़िन्दगी से, मौत से यारी रखो। फूक़ डालूगा मैं किसी रोज़ दिल की दुनिया ये तेरा ख़त तो नहीं है की जला भी न सकूं। प्यास तो अपनी सात समन्दर जैसी थी, ना हक हमने बारिश का अहसान लिया। मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को समझ रही थी की ऐसे ही छोड़ दूंगा उसे। नये किरदार आते जा रहे है मगर नाटक पुराना चल रहा है। उस की याद आई है, साँसों ज़रा आहिस्ता चलो धड़कनो से भी इबादत में ख़लल पड़ता है। मैं वो दरिया हूँ की हर बूंद भँवर है जिसकी, तुमने अच्छा ही किया मुझसे किनारा करके। दो ग़ज सही ये मेरी मिल्कियत तो है ऐ मौत तूने मुझे जमींदार कर दिया। ना हम-सफ़र ना किसी हम-नशीं से निकलेगा हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा। बहुत गुरूर है दरिया को अपने होने पर जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाय। रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है चाँद पागल है अंन्धेरे में निकल पड़ता है।
महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ प्रबुद्ध छायावादी कवि थे। वे कविताओं के साथ-साथ निबंध, उपन्यास व कहानियाँ भी रचते थे। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म 21 फरवरी 1896 को पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर में हुआ था। पिता पंडित रामसहाय त्रिपाठी एक सरकारी नौकरी करते थे। सूर्यकान्त बहुत छोटे थे जब उनकी माता का देहांत हो गया था। माता के निधन उपरांत , निराला का प्रारंभिक जीवन कठिनाइयों में बीता। दिलचस्प बात ये है कि हिंदी के महान कवी निराला को ज्यादा हिंदी नहीं आती थी। निराला का विवाह मनोहरी देवी के साथ हुआ और मनोहरी की प्रेरणा से ही 20 वर्ष की आयु में निराला ने हिन्दी सीखी। निराला जब 22 वर्ष के थे तब उनकी पत्नी का देहांत हो गया। एक पुत्री थी, वह भी विधवा हो गयी और कुछ समय बाद उसका भी देहांत हो गया। पत्नी व पुत्री की मृत्यु के बाद, निराला का जीवन नीरस था। उन्होंने लेखन में अपना मन लगाया और लेखन ही उनका परिवार बन गया। वर दे वीणावादिनी वर दे ! वर दे, वीणावादिनि वर दे! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे! काट अंध-उर के बंधन-स्तर बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर; कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे! नव गति, नव लय, ताल-छंद नव नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव; नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे! वर दे, वीणावादिनि वर दे। चुम्बन लहर रही शशिकिरण चूम निर्मल यमुनाजल, चूम सरित की सलिल राशि खिल रहे कुमुद दल कुमुदों के स्मिति-मन्द खुले वे अधर चूम कर, बही वायु स्वछन्द, सकल पथ घूम घूम कर है चूम रही इस रात को वही तुम्हारे मधु अधर जिनमें हैं भाव भरे हुए सकल-शोक-सन्तापहर! तुम हमारे हो नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते। ताब बेताब हुई हठ भी हटी नाम अभिमान का भी छोड़ दिया। देखा तो थी माया की डोर कटी सुना वह कहते हैं, हाँ खूब किया। पर अहो पास छोड़ आते ही वह सब भूत फिर सवार हुए। मुझे गफलत में ज़रा पाते ही फिर वही पहले के से वार हुए। एक भी हाथ सँभाला न गया और कमज़ोरों का बस क्या है। कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया, मुझे दुख देने में जस क्या है। रात को सोते यह सपना देखा कि वह कहते हैं "तुम हमारे हो भला अब तो मुझे अपना देखा, कौन कहता है कि तुम हारे हो। अब अगर कोई भी सताये तुम्हें तो मेरी याद वहीं कर लेना नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें प्रेम के भाव तुरत भर लेना"। भेद कुल खुल जाए भेद कुल खुल जाए वह सूरत हमारे दिल में है । देश को मिल जाए जो पूँजी तुम्हारी मिल में है ।। हार होंगे हृदय के खुलकर तभी गाने नये, हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है । तरस है ये देर से आँखे गड़ी श्रृंगार में, और दिखलाई पड़ेगी जो गुराई तिल में है । पेड़ टूटेंगे, हिलेंगे, जोर से आँधी चली, हाथ मत डालो, हटाओ पैर, बिच्छू बिल में है। ताक पर है नमक मिर्च लोग बिगड़े या बनें, सीख क्या होगी पराई जब पसाई सिल में है। गीत गाने दो मुझे गीत गाने दो मुझे तो, वेदना को रोकने को। चोट खाकर राह चलते होश के भी होश छूटे, हाथ जो पाथेय थे, ठग- ठाकुरों ने रात लूटे, कंठ रूकता जा रहा है, आ रहा है काल देखो। भर गया है ज़हर से संसार जैसे हार खाकर, देखते हैं लोग लोगों को, सही परिचय न पाकर, बुझ गई है लौ पृथा की, जल उठो फिर सींचने को।
महादेवी वर्मा छायावाद के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्हें 'आधुनिक युग की मीरा' भी कहा जाता है। महादेवी वर्मा को ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। पढ़ें महादेवी वर्मा की लिखी कुछ श्रेष्ठ रचनाएं। मैं नीर भरी मैं नीर भरी दु:ख की बदली! स्पंदन में चिर निस्पंद बसा; क्रंदन में आहत विश्व हँसा, नयनों में दीपक-से जलते पलकों में निर्झरिणी मचली! मेरा पग-पग संगीत-भरा, श्वासों से स्वप्न-पराग झरा, नभ के नव रँग बुनते दुकूल, छाया में मलय-बयार पली! मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल, चिंता का भार, बनी अविरल, रज-कण पर जल-कण हो बरसी नवजीवन-अंकुर बन निकली! पथ को न मलिन करता आना, पद-चिह्न न दे जाता जाना, सुधि मेरे आगम की जग में सुख की सिहरन हो अंत खिली! विस्तृत नभ का कोई कोना; मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी कल थी मिट आज चली! मैं नीर भरी दु:ख की बदली! स्रोत : पुस्तक : संधिनी (पृष्ठ 93) रचनाकार : महादेवी वर्मा प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन संस्करण : 2012 झिलमिलाती रात झिलमिलाती रात मेरी! साँझ के अंतिम सुनहले हास-सी चुपचाप आकर, मूक चितवन की विभा— तेरी अचानक छू गई भर; बन गई दीपावली तब आँसुओं की पाँत मेरी! अश्रु घन के बन रहे स्मित— सुप्त वसुधा के अधर पर कंज में साकार होते वीचियों के स्वप्न सुंदर, मुस्कुरा दी दामिनी में साँवली बरसात मेरी! क्यों इसे अंबर न निज सूने हृदय में आज भर ले? क्यों न यह जड़ में पुलक का, प्राण का संचार कर ले? है तुम्हारी श्वास के मधु-भार-मंथर वात मेरी! स्रोत : पुस्तक : आत्मिका (पृष्ठ 48) रचनाकार : महादेवी वर्मा प्रकाशन : राजपाल प्रकाशन संस्करण : 2015 क्यों अश्रु न हों शृंगार मुझे! क्यों अश्रु न हों शृंगार मुझे! रंगों के बादल निस्तरंग, रूपों के शत-शत वीचि-भंग, किरणों की रेखाओं में भर, अपने अनंत मानस पट पर, तुम देते रहते हो प्रतिपल, जाने कितने आकार मुझे! हर छवि में कर साकार मुझे! लघु हृदय तुम्हारा अमर छंद, स्पंदन में स्वर-लहरी अमंद, हर स्वप्न स्नेह का चिर निबंध, हर पुलक तुम्हारा भाव-बंध, निज साँस तुम्हारी रचना का लगती अखंड विस्तार मुझे! हर पल रस का संसार मुझे! मेरी मृदु पलकें मूँद-मूँद, छलका आँसू की बूँद-बूँद, लघुतम कलियों में नाप प्राण, सौरभ पर मेरे तोल गान, बिन माँगे तुमने दे डाला, करुणा का पारावार मुझे! चिर सुख-दुख के दो पार मुझे! मैं चली कथा का क्षण लेकर, मैं मिली व्यथा का कण देकर, इसको नभ ने अवकाश दिया, भू ने इसको इतिहास किया, अब अणु-अणु सौंपे देता है युग-युग का संचित प्यार मुझे! कहकर पाहुन सुकुमार मुझे! रोके मुझको जीवन अधीर, दृग-ओट न करती सजग पीर, नूपुर से शत-शत मिलन-पाश, मुखरित, चरणों के आस-पास, हर पग पर स्वर्ग बसा देती धरती की नव मनुहार मुझे! लय में अविराम पुकार मुझे क्यों अश्रु न हों शृंगार मुझे! स्रोत : पुस्तक : संधिनी (पृष्ठ 128) रचनाकार : महादेवी वर्मा प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन संस्करण : २०१२ फिर विकल हैं प्राण मेरे! फिर विकल हैं प्राण मेरे! तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूँ उस ओर क्या है! जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है? क्यों मुझे प्राचीन बनकर आज मेरे श्वास घेरे? सिंधु की निःसीमता पर लघु लहर का लास कैसा? दीप लघु शिर पर धरे आलोक का आकाश कैसा? दे रही मेरी चिरंतनता क्षणों के साथ फेरे! बिंबग्राहकता कणों को शलभ को चिर साधना दी, पुलक से नभ भर धरा को कल्पनामय वेदना दी; मत कहो हे विश्व 'झूठे हैं अतुल वरदान तेरे!' नभ डुबा पाया न अपनी बाढ़ में भी क्षुद्र तारे, ढूँढ़ने करुणा मृदुल घन चीर कर तूफान हारे; अंत के तम में बुझे क्यों आदि के अरमान मेरे! स्रोत : पुस्तक : संधिनी (पृष्ठ 95) रचनाकार : महादेवी वर्मा प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन संस्करण : २०१२ इन आँखों ने देखी न राह कहीं इन आँखों ने देखी न राह कहीं इन्हें धो गया नेह का नीर नहीं, करती मिट जाने की साध कभी, इन प्राणों को मूक अधीर नहीं, अलि छोड़ो न जीवन की तरणी, उस सागर में जहाँ तीर नहीं! कभी देखा नहीं वह देश जहाँ, प्रिय से कम मादक पीर नहीं! जिसको मरुभूमि समुद्र हुआ उस मेघव्रती की प्रतीति नहीं, जो हुआ जल दीपकमय उससे कभी पूछी निबाह की रीति नहीं, मतवाले चकोर ने सीखी कभी; उस प्रेम के राज्य की नीति नहीं, तूं अकिंचन भिक्षुक है मधु का, अलि तृप्ति कहाँ जब प्रीति नहीं! पथ में नित स्वर्णपराग बिछा, तुझे देख जो फूली समाती नहीं, पलकों से दलों में घुला मकरंद, पिलाती कभी अनखाती नहीं, किरणों में गुँथी मुक्तावलियाँ, पहनाती रही सकुचाती नहीं, अब फूल गुलाब में पंकज की, अलि कैसे तुझे सुधि आती नहीं! करते करुणा-घन छाँह वहाँ, झुलसाता निदाध-सा दाह नहीं मिलती शुचि आँसुओं की सरिता, मृगवारि का सिंधु अथाह नहीं, हँसता अनुराग का इंदु सदा, छलना की कुहू का निबाह नहीं, फिरता अलि भूल कहाँ भटका, यह प्रेम के देश की राह नहीं! स्रोत : पुस्तक : संधिनी (पृष्ठ 48) रचनाकार : महादेवी वर्मा प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन संस्करण : 2012
पद्मभूषण से सम्मानित गीतकार और महाकवि गोपालदास नीरज कभी कचहरी में टाइपिस्ट थे। 4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरावली गांव में जन्में और छह साल की उम्र में उनके पिता बाबू बृजकिशोर सक्सेना का निधन हो गया। स्कूली पढ़ाई के बाद नीरज ने इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया। फिर रोजी रोटी दिल्ली ले गई जहाँ अलग-अलग जगह टाइपिस्ट या क्लर्क की नौकरी की। पर नौकरी के साथ ही नीरज ने पढ़ाई जारी रखी और हिन्दी साहित्य पढ़ते रहे। वे मेरठ कॉलेज में हिन्दी के व्याख्याता रहे। बाद में अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग में पढ़ाने लगे। इस बीच साहित्य से सम्बन्ध गहरा होता गया और उनकी काव्य प्रतिभा की लोकप्रियता फैलती गई। गोपालदास नीरज ने फिल्मों में भी गीत लिखे। फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिए उन्हें लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। 1970 में फिल्म चन्दा और बिजली के गीत ‘काल का पहिया घूमे रे भइया!’, 1971 में फिल्म पहचान के गीत ‘बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं’ और 1972 में फिल्म मेरा नाम जोकर के गीत ‘ए भाई! जरा देख के चलो’ के लिए उन्हें पुरस्कार मिला। गोपालदास नीरज के ढेरों काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें 'दर्द दिया', 'प्राण गीत', 'आसावरी', 'बादर बरस गयो', 'दो गीत', 'नदी किनारे', 'नीरज की गीतिकाएं', 'संघर्ष', 'विभावरी', 'नीरज की पाती' प्रमुख हैं। गोपालदास नीरज की कुछ रचनाएं: मुझको याद किया जाएगा आंसू जब सम्मानित होंगे मुझको याद किया जाएगा जहां प्रेम का चर्चा होगा मेरा नाम लिया जाएगा। मान-पत्र मैं नहीं लिख सका राजभवन के सम्मानों का मैं तो आशिक रहा जनम से सुंदरता के दीवानों का लेकिन था मालूम नहीं ये केवल इस गलती के कारण सारी उम्र भटकने वाला, मुझको शाप दिया जाएगा मुझको याद किया जाएगा। आज की रात तुझे आखिरी खत और लिख दूं आज की रात तुझे आखिरी खत और लिख दूं कौन जाने यह दिया सुबह तक जले न जले? बम-बारुद के इस दौर में मालूम नहीं ऐसी रंगीन हवा फिर कभी चले न चले। जीवन कटना था, कट गया जीवन कटना था, कट गया अच्छा कटा, बुरा कटा यह तुम जानो मैं तो यह समझता हूं कपड़ा पुराना एक फटना था, फट गया जीवन कटना था कट गया है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए रोज़ जो चेहरे बदलते है लिबासों की तरह अब जनाज़ा ज़ोर से उनका निकलना चाहिए अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए फूल बन कर जो जिया वो यहाँ मसला गया जीस्त को फ़ौलाद के साँचे में ढलना चाहिए छिनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो आँख से आँसू नहीं शोला निकलना चाहिए दिल जवां, सपने जवाँ, मौसम जवाँ, शब् भी जवाँ तुझको मुझसे इस समय सूने में मिलना चाहिए हम तेरी चाह में, ऐ यार ! वहाँ तक पहुँचे हम तेरी चाह में, ऐ यार ! वहाँ तक पहुँचे । होश ये भी न जहाँ है कि कहाँ तक पहुँचे । इतना मालूम है, ख़ामोश है सारी महफ़िल, पर न मालूम, ये ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे । वो न ज्ञानी ,न वो ध्यानी, न बिरहमन, न वो शेख, वो कोई और थे जो तेरे मकाँ तक पहुँचे । एक इस आस पे अब तक है मेरी बन्द जुबाँ, कल को शायद मेरी आवाज़ वहाँ तक पहुँचे । चाँद को छूके चले आए हैं विज्ञान के पंख, देखना ये है कि इन्सान कहाँ तक पहुँचे ।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय। अर्थ: जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है। थी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय। अर्थ: बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा। साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय। अर्थ: इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे। तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय, कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय। अर्थ: कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है ! माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर, कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर। अर्थ: कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो। जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान। अर्थ: सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का–उसे ढकने वाले खोल का। दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त, अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत। अर्थ: यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत। जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ। अर्थ: जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते। बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि, हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि। अर्थ: यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
हम अब मकान में ताला लगाने वाले हैं पता चला है के मेहमान आने वाले हैं आँखों में पानी रखों, होंठो पे चिंगारी रखो जिंदा रहना है तो तरकीबे बहुत सारी रखो तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है ऐसी सर्दी है कि सूरज भी दुहाई मांगे जो हो परदेस में वो किससे रज़ाई मांगे घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है दोस्ती जब किसी से की जाए दुश्मनों की भी राय ली जाए अपने हाकिम की फकीरी पर तरस आता है जो गरीबों से पसीने की कमाई मांगे फैसला जो कुछ भी हो, हमें मंजूर होना चाहिए जंग हो या इश्क हो, भरपूर होना चाहिए हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते
हिंदुस्तान में जब भी गजल गायकी का जिक्र होता है तो बात अमूमन जगजीत सिंह के नाम से शुरू होती है और उन्हीं पर खत्म हो जाती है। दरअसल हिंदुस्तान में गजल गायक तो बहुत हुए लेकिन ऐसे गायक बेहद कम है जिन्होंने सिर्फ ग़ज़ल ही गाई हो। जगजीत सिंह ऐसा ही नाम है। वो जगजीत सिंह ही थे जिन्होंने गजल से आम आदमी का तार्रुफ़ करवाया या यूँ कहे कि हर आम और ख़ास वर्ग को गजल के आगोश में लिया। जिस सादगी के साथ जगजीत सिंह ने गजल गाई, वैसा न तो उनसे पहले कभी हुआ था और उनके जाने के बाद होता दिखा। एक से बढ़कर एक अजीम शायरों की गजलों को जगजीत आवाज देते गए और जग को अपना दीवाना बनाते गए। जगजीत बेहद ख़ास थे, नायाब थे और ये ही कारण है कि उनके इंतकाल को बेशक ग्यारह साल बीत गए हो लेकिन संगीत जगत में उनकी कमी कोई पूरी नहीं कर पाया। साल था 1941 और फरवरी महीने की आठ तारीख थी जब राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले में सरदार अमर सिंह धमानी और बच्चन कौर के यहां भारतीय संगीत जगत को जीतने वाले जगजीत सिंह का जन्म हुआ। पिता चाहते थे कि जगजीत पढ़-लिखकर प्रशासनिक सेवा में जाए, मगर जगजीत की मंजिल तो कुछ और ही थी। शुरू से ही मन स्वर, लय और ताल में लगता था। संगीत की प्रारंभिक शिक्षा गंगानगर में ही पंडित छगन लाल शर्मा से मिली। फिर उस्ताद जमाल खान से भी उन्होंने संगीत के गुर सीखे। उस अल्हड़ उम्र में ही जगजीत ने संगीत को अपनी जिंदगी बना लिया था। कहते है जगजीत पैसे चुराकर फिल्में देखने जाते थे, क्योंकि फिल्मों में अच्छा संगीत सुनने को मिलता था। एकबार तो सिनेमा हॉल में पिता ने पकड़ लिया और पीटते हुए घर ले गए, मगर संगीत के जूनून में कोई कमी नहीं आई। पढ़ाई-लिखाई के इस दौर में ही पहली मोहब्बत भी हुई, लेकिन अंजाम तक नहीं पहुंच सकी। कई साक्षात्कारों में जगजीत सिंह ने खुद बताया था कि साल 1965 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में पढ़ाई के नाम पर वे समय काट रहे थे। जब परीक्षाओं का समय आया, तब उन्होंने सोचा कि पढ़ाई कुछ की नहीं है तो परीक्षा में बैठने का क्या फायदा ? सो परीक्षा में बैठे ही नहीं। जगजीत ने अपना सामान उठाया और अपनी किस्मत आजमाने के लिए मायानगरी मुंबई का रास्ता पकड़ लिया। पर मंजिल आसां नहीं थी। मुंबई पहुंचकर जगजीत का संघर्ष शुरू हुआ। शुरुआत में उन्होंने छोटी-छोटी पार्टियों में थोड़े से पैसों के लिए गाना शुरू किया और एक मौके की तलाश करते रहे। मुंबई में जगजीत सिंह का संघर्ष इसलिए भी ज्यादा था क्यों कि उनके गाने का अंदाज बिलकुल जुदा था। उनका संघर्ष रंग लाया 1965 में जब उनका पहला रिकॉर्ड निकला और इसके दो वर्ष बाद एक और रिकॉर्ड आया। पर इन दोनों से उन्हें ज्यादा पहचान नहीं मिली। फिर साल 1967 में जगजीत सिंह के जीवन में चित्रा सिंह आई, जिन्हें बाद में जगजीत ने गजल गायकी की शिक्षा दी और फिर 1969 में दोनों ने शादी कर ली। चित्रा पहले से ही शादीशुदा थी और कहते है उनके तलाक के बाद जगजीत ने उनके पहले पति से इजाजत लेकर उनसे शादी की थी। जगजीत सिंह को असली पहचान 1976 में मिली जब उनका पहला लॉन्ग प्ले एल्बम ‘‘द अनफॉरगेटेबल्स’’ आया, जिसमें उनके साथ पत्नी चित्रा की आवाज भी शामिल थी। इस नायाब एल्बम में फिराक गोरखपुरी, जिगर मुरादाबादी, अमीर मिनाई, तारिक बदायुनी, सुदर्शन फाकिर जैसे बड़े गजलकारों की गजलों को जगजीत-चित्रा की आवाज ने अलहदा अंदाज में गाया इस एल्बम की सफलता के बाद जगजीत सिंह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसके साथ ही जगजीत -चित्रा की जोड़ी भी हिट हो गई और इस जोड़ी ने एक के बाद एक कई हिट गीत-गजल दिए |सनं 1981 में आया जगजीत सिंह का गीत "होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो " फिल्म ‘प्रेम गीत’ का ये गीत सच में अमर हो गया। 1982 में ‘साथ-साथ’ फिल्म में जगजीत सिंह और चित्रा के कई गीत हिट हुए। 'ये तेरा घर ये मेरा घर हो' या 'तुमको देखा तो ये खयाल आया' इस फिल्म के गीत आज भी हरदिल अजीज है। फिर 1983 में आई महेश भट्ट की फिल्म ‘अर्थ’। फिल्म में कुल पांच गाने थे, जिनमें से तीन थी कैफी आजमी की गजले। 'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो', 'झुकी झुकी सी नजर', 'कोई ये कैसे बताए', कैफ़ी साहब की इन ग़ज़लों ने जगजीत सिंह को लोकप्रियता के क्षितिज पर पंहुचा दिया। । जगजीत ने सन् 1987 में ‘बियोंड टाइम’ रिकॉर्ड किया, यह किसी भी भारतीय संगीतकार की पहली डिजिटल सीडी थी। 10 अक्टूबर 2011 को जगजीत सिंह का निधन हुआ और तब तक वे लगातार अपनी नायाब गायकी से संगीत जगत को गुलजार करते रहे। जब तक जगजीत रहे बुलंदियों पर रहे और आज अपने निधन के इतने वर्ष बीत जाने पर भी जगजीत ही गजल सम्राट है। आम आदमी की प्ले लिस्ट में गजल को शामिल करवाया : जगजीत सिंह ने गजल गायकी को बेहद सरल किया और गजल को आम आदमी की प्ले लिस्ट में शामिल करवाया। उनके गायन में शास्त्रीय संगीत की बुनियाद तो रही, लेकिन उसके अनावश्यक बोझ से गजल को मुक्त कर उसे सहज बनाया। वे वायलिन जैसे आधुनिक उपकरणों को प्रयोग में लाए। वो जगजीत ही थे जिन्होंने गजल में भी कोरस की का इस्तेमाल किया। कई गज़लकारों की ग़ज़लों को उन्होंने अपनी आवाज देकर अमर किया। उनका गजल गाने का तरीके बेशक अन्य प्रबुद्ध गजल गायकों जैसा नहीं था और कई लोगों ने उनकी आलोचना भी की, लेकिन न तो उन्होंने अपना तरीका बदला और न ही उनकी लोकप्रियता में कमी आई। फिर कभी स्टेज पर नहीं लौटी चित्रा : जगजीत सिंह और चित्रा की जोड़ी बुलंदियों को छू ही रहे थी कि उनकी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी त्रासदी हो गई। 1990 में उनका 18 वर्षीय बेटा विवेक एक दुर्घटना में मारा गया। इस सदमे ने उनकी जिंदगी पर विराम लगा दिया । चित्रा इसके बाद फिर कभी दोबारा स्टेज पर नहीं लौटी। जगजीत सिंह ने भी कई महीनों तक बोलना बंद कर दिया। वक्त गुजरने के बाद जगजीत सिंह वापस लौटे और संगीत के जरिये अपने दर्द को भुलाने में जुट गए। फिल्म दुश्मन में शामिल हुई उनकी गजल 'चिट्ठी न कोई सन्देश' जिस दर्द को बयां करती है उसे उनकी बेटे के निधन से जोड़कर देखा जाता है। कई सम्मान मिले : सन 1998 में जगजीत सिंह को मध्य प्रदेश सरकार ने लता मंगेशकर सम्मान से नवाजा था। भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में सन 2003 में जगजीत सिंह को पद्म भूषण सम्मान से पुरस्कृत किया गया था। वही सन 2005 में दिल्ली सरकार द्वारा गालिब अकादमी पुरस्कार भी दिया गया था।इसके अलावा राजस्थान सरकार ने मरणोपरांत जगजीत सिंह को अपना उच्चतम नागरिक पुरस्कार यानी राजस्थान रत्न पुरस्कार प्रदान किया। जगजीत सिंह के सम्मान में भारत सरकार द्वारा 2014 में उनकी तस्वीर लगी एक डाक टिकट भी जारी की थी ।
बशीर बद्र शायरी के उन पैमानों को उजागर करते हैं जहां आसान शब्दों में गहरी बात कह दी जाती है। ऐसे शायर ही लोगों के दिलों तक का सफ़र कर पाते हैं। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि बशीर बद्र भी लोगों के शायर हैं जिन्हें आम से ख़ास तक हर कोई पसंद करता है। इनका पूरा नाम सैयद मोहम्मद बशीर है। भोपाल से ताल्लुकात रखने वाले बशीर बद्र का जन्म कानपुर में हुआ था। न जाने कितनी बार अपनी बात कहने के लिए बशीर साहब को संसद में भी पढ़ा जा चुका है। आइए पढ़ते हैं बशीर साहब के लिखे ऐसे ही कुछ ख़ास शेर दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिन्दा न हों हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा जिस दिन से चला हूं मेरी मंज़िल पे नज़र है आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा शौहरत की बुलन्दी भी पल भर का तमाशा है जिस डाल पर बैठे हो, वो टूट भी सकती है मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला उसे किसी की मुहब्बत का एतिबार नहीं उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है गुलाबों की तरह शबनम में अपना दिल भिगोते हैं मुहब्बत करने वाले ख़ूबसूरत लोग होते हैं चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं से ज़मीं ग़ज़ल के शेर कहां रोज़-रोज़ होते हैं अबके आंसू आंखों से दिल में उतरे रुख़ बदला दरिया ने कैसा बहने का ज़हीन सांप सदा आस्तीन में रहते हैं ज़बां से कहते हैं दिल से मुआफ़ करते नहीं सात सन्दूकों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें आज इन्सां को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत खुले से लॉन में सब लोग बैठें चाय पियें दुआ करो कि ख़ुदा हमको आदमी कर दे लहजा कि जैसे सुब्ह की ख़ुशबू अज़ान दे जी चाहता है मैं तेरी आवाज़ चूम लूं इतनी मिलती है मेरी ग़ज़लों से सूरत तेरी लोग तुझको मेरा महबूब समझते होंगे मुझको शाम बता देती है तुम कैसे कपड़े पहने हो इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे ऐसे मिलो कि अपना समझता रहे सदा जिस शख़्स से तुम्हारा दिली इख़्तिलाफ़ है सच सियासत से अदालत तक बहुत मसरूफ़ है झूट बोलो, झूट में अब भी मोहब्बत है बहुत किताबें, रिसाले न अख़़बार पढना मगर दिल को हर रात इक बार पढ़ना मुख़ालिफ़त से मेरी शख़्सियत संवरती है मैं दुश्मनों का बड़ा एहतेराम करता हूं
भारत का एक ऐसा कवि जिसे स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि की ख्याति प्राप्त हुई। ऐसा कवि जिसकी कविताओं में एक ओर ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति। एक ऐसा कवि जो साहित्य का वह सशक्त हस्ताक्षर हैं जिसकी कलम में दिनकर यानी सूर्य के समान चमक थी। हम बात कर रहे है रामधारी सिंह दिनकर की। उनकी ही लिखी कविता 'परिचय' की इन पंक्तियों से बेहतर भला उनका परिचय क्या हो सकता है ' मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का,चिता का धूलिकण हूँ , शार हूँ मैं ,पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी, समा जिसमें चूका सौ बार हूँ मैं ' 23 सितम्बर को राष्ट्रकवि दिनकर की जयंती होती है। पूरा देश अपने राष्ट्रकवि को याद करता है, नमन करता है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' वो कवि है जिनकी रचनाओं में ओज, शौर्य, प्रेम और सौंदर्य सब एक साथ आकार पाते हैं। वे आंदोलित भी करते हैं और आह्लादित भी। वे 'परशुराम की प्रतीक्षा' भी लिखते है और 'उर्वशी' भी। दिनकर द्वंद्वात्मक ऐक्य के कवि हैं। उन्हें समय को साधने वाला कवि गया। पर दिनकर ‘राष्ट्रकवि’ ही नहीं 'जनकवि' भी थे। वे उन चंद कवियों में शुमार रहे है जिनके द्वारा लिखी गई पंक्तियाँ आज भी आम जनमानस द्वारा पढ़ी और दोहराई जाती है। दिनकर वो कवि थे जिन्होंने देश के क्रांतिकारी आंदोलन को अपनी कविता से स्वर दिया। दिनकर वो कवि थे जिनके द्वारा लिखी गई पंक्तियाँ 'सिंहासन खाली करो की जनता आती है' आज भी देश के जान आंदोलनों की आवाज है। रामधारी सिंह दिनकर जितने सुगढ़ कवि थे, उतने ही सचेत गद्य लेखक भी रहे। आज़ादी के बाद वे पंडित नेहरू और सत्ता के क़रीब भी रहे, कांग्रेस ने उन्हे राज्यसभा भी भेजा लेकिन राष्ट्रकवि का दायित्व उन्होंने हमेशा निभाया। दिनकर सारी उम्र सियासत से लोहा लेते रहे। उन्होंने कभी किसी नेता की जय-जयकार नहीं की, हमेशा उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि रहा। एक वाकिया ऐसा ही है जब लालकिले की सीढ़ियों से उतरते हुए नेहरू लड़खड़ा गए..तभी दिनकर ने उनको सहारा दिया। इसपर नेहरू ने कहा- शुक्रिया.., दिनकर तुरंत बोले-''जब-जब राजनीति लड़खड़ाएगी, तब-तब साहित्य उसे सहारा देगा।'' उनके ये तेवर ताउम्र बरकरार रहे। 11 वर्षों की नौकरी में 23 बार हुआ था स्थानांतरण राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की राष्ट्रभक्ति ब्रिटिश हुकूमत को रास नहीं आती थी। 11 वर्षों की नौकरी में उनका 23 बार स्थानांतरण किया गया, पर उन्होंने अंग्रेजी अत्याचार के विरूद्ध लिखना नहीं छोड़ा। 23 सितंबर,1908 को बेगूसराय के सिमरिया गांव में जन्मे रामधारी सिंह दिनकर जब दो वर्ष के थे तब उनके पिता रवि सिंह का देहांत हो गया था। मां मनरूप देवी ने ही उनका पालन-पोषण किया। पटना कॉलेज से हिन्दी में स्नातक की डिग्री लेने के बाद 1928 में साइमन कमीशन के भारत आगमन के विरोध में गांधी मैदान में हुए आंदोलन में वे शामिल हो गए। इसके उपरांत वर्ष 1934 में उन्होंने पटना निबंधन कार्यालय में सब रजिस्ट्रार के पद पर सरकारी नौकरी शुरू कर दी।1945 तक उन्होंने यह नौकरी की। फिर 1945 में उन्हें प्रचार निदेशालय में उप निदेशक बना दिया गया। 1947 में देश की आजादी मिलने तक उन्होंने नौकरी की। इस बीच दिनकर ने जब वर्ष 1935 में जब 'रेणुका' नामक कविता संग्रह की रचना की तो उनका तबादला पटना निबंधन कार्यालय से बाढ़ कार्यालय कर दिया गया। फिर वर्ष 1938 आया और उनका कविता संग्रह 'हुंकार' प्रकाशित हुआ, तब फिर उनपर ब्रिटिश सरकार विरोधी होने के आरोप लगे और उनका तबादला नरकटियागंज कर दिया गया। जब-जब उनकी कोई नई पुस्तक प्रकाशित होती, उनका तबादला भी साथ-साथ होता रहता। पर दिनकर की कलम की धार कम नहीं हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होते ही ब्रिटिश हुकूमत की आँखों में दिनकर और ज्यादा अखरने लगे और उन्हें नौकरी छोड़ने को बाध्य किया जाने लगा। तब ब्रिटिश हुकूमत ने उनका तबादला 1945 में प्रचार विभाग में उप निदेशक के पद पर कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत को उनसे शिकायत रहती थी कि उनकी रचनाओं से क्रांतिकारी आंदोलन को हवा मिलती थी, और ये सच भी था। 'उर्वशी' के लिए मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार दिनकर ने 'रेणुका', 'हुंकार', 'रसवंती', 'द्वंद्व गीत', 'कुरुक्षेत्र', 'धूपछांह', 'समधनी', 'बापू' आदि महत्वपूर्ण कविता संग्रहों की रचना की थी। दिनकर को उनकी रचना 'उर्वशी' के लिए 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार, 1959 में भारत सरकार की ओर से पद्मभूषण सम्मान एवं 1959 में ही 'संस्कृति के चार अध्याय' पुस्तक के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। ये उनकी तठस्तता ही थी कि उनको सत्ता का विरोध करने के बावजूद साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्मविभूषण आदि तमाम बड़े पुरस्कारों से नवाजा गया। "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है " सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो सिंहासन खाली करो कि जनता आती है जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" "सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?" 'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?" मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो सिंहासन खाली करो कि जनता आती है हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ? वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ? देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं धूसरता सोने से शृँगार सजाती है दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो सिंहासन खाली करो कि जनता आती है "कलम, आज उनकी जय बोल " जला अस्थियाँ बारी-बारी चिटकाई जिनमें चिंगारी, जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल कलम, आज उनकी जय बोल। जो अगणित लघु दीप हमारे तूफानों में एक किनारे, जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल कलम, आज उनकी जय बोल। पीकर जिनकी लाल शिखाएँ उगल रही सौ लपट दिशाएं, जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल कलम, आज उनकी जय बोल। अंधा चकाचौंध का मारा क्या जाने इतिहास बेचारा, साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल कलम, आज उनकी जय बोल " कृष्ण की चेतावनी " वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर। सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है। मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को, दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को, भगवान् हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। ‘दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम। हम वहीं खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे! दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की ले न सका, उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला। जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया, डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले- ‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे। यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है, मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल। अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार झूलता है मुझमें। ‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल, भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं। दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर, सब हैं मेरे मुख के अन्दर। ‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख, चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर, नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर। शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र, शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र। ‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश, शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, शत कोटि दण्डधर लोकपाल। जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें, हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें। ‘भूलोक, अतल, पाताल देख, गत और अनागत काल देख, यह देख जगत का आदि-सृजन, यह देख, महाभारत का रण, मृतकों से पटी हुई भू है, पहचान, इसमें कहाँ तू है। ‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख, पद के नीचे पाताल देख, मुट्ठी में तीनों काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख। सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं। ‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन, साँसों में पाता जन्म पवन, पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, हँसने लगती है सृष्टि उधर! मैं जभी मूँदता हूँ लोचन, छा जाता चारों ओर मरण। ‘बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है? यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन। सूने को साध न सकता है, वह मुझे बाँध कब सकता है? ‘हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना, तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ। याचना नहीं, अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा। ‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर, फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा। दुर्योधन! रण ऐसा होगा। फिर कभी नहीं जैसा होगा। ‘भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बूँद-से छूटेंगे, वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे। आखिर तू भूशायी होगा, हिंसा का पर, दायी होगा।’ थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े। केवल दो नर ना अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे। कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’! ” परशुराम की प्रतीक्षा ” गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ? उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था, तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था; सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे, निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे; गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं, तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं; शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का, शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का; सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को, प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे, (अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।) हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं, शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं। ” हमारे कृषक ” जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आँसू पीना चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना विवश देखती माँ आँचल से नन्ही तड़प उड़ जाती अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है दूध-दूध औ वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहाँ है दूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे दूध-दूध दुनिया सोती है लाऊँ दूध कहाँ किस घर से दूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूँदें टपका अम्बर से हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं ” समर शेष है ” ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो , किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से, भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान । फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले ! ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले! सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है, दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है । मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार, ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार । वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है। पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज? अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में । समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा । समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं। कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे। समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो, शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो, पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे, समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे। समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर, खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर। समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं, गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं, समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है, वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है। समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल, विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल, तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना, सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना, बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे, मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे। समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।
मौसम-ए-इश्क़ है तू एक कहानी बन के आ, मेरे रूह को भिगो दें जो तू वो पानी बन के आ! ? ए बादल इतना बरस की नफ़रतें धुल जायें, इंसानियत तरस गयी है प्यार पाने के लिये..!! सुना है बहुत बारिश है तुम्हारे शहर में, ज्यादा भीगना मत, अगर धूल गई सारी ग़लतफहमियां, तो फिर बहुत याद आएंगे हम!! कल उसकी याद पूरी रात आती रही, हम जागे पूरी दुनिया सोती रही, आसमान में बिजली पूरी रात होती रही, बस एक बारिश थी जो मेरे साथ रोती रही! खुद भी रोता है, मुझे भी रुला के जाता है, ये बारिश का मौसम, उसकी याद दिला के जाता है। आज मौसम कितना खुश गंवार हो गया, खत्म सभी का इंतज़ार हो गया, बारिश की बूंदे गिरी कुछ इस तरह से, लगा जैसे आसमान को ज़मीन से प्यार हो गया! बादलों से कह दो, जरा सोच समझ के बरसे, अगर हमें उसकी याद आ गई, तो मुकाबला बराबरी का होगा! याद आई वो पहली बारिश, जब तुझे एक नज़र देखा था!
आज महान संत कबीर दास की जयंती है। हर साल प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास में पूर्णिमा तिथि को उनकी जयंती मनाई जाती है। संत कबीरदास भक्तिकाल के महान कवि रहे हैं, जो जीवन समाज को सुधारने के लिए समर्पित रहे हैं। माना जाता है कि कबीर दास का जन्म सन् 1398 में हुआ था और इनकी मृत्यु सन् 1518 में मगहर में हुई। कबीर दास ने समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में अपना जीवन लोगों के लिए समर्पित कर दिया। कबीरदास जी के दोहे बहुत सुंदर और सजीव हैं, उनकी रचनाएं जीवन के सत्य को प्रदर्शित करती हैं। कबीर दास ने समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में अपना जीवन लोगों के लिए समर्पित कर दिया। भक्तिकाल के कवि संत कबीरदास की रचनाओं में भगवान की भक्ति का रस मिलता है। पढ़िए कबीर दास के दोहे सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज । सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ।। ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।। बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय । जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।। नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।। हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना। आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना। माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।। कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन। कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।। अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
हिंदी और उर्दू साहित्य में बड़े से बड़े कवियों और शायरों ने इश्क, दुनिया, दोस्ती, असबाब, गम, बेवफाई, रुसवाई सहित कई पहलुओं पर अपनी कविताएं और शायरी लिखी हैं। पेश है 20 बड़े शायरों के 20 बड़े शेर । 1.दर्द को दिल में जगह दो अकबर इल्म से शायरी नहीं होती -अकबर इलाहाबादी 2. नाजुकी उन लबों की क्या कहिए पंखुड़ी एक गुलाब की सी है मीर उन नीमबाज आंखों में सारी मस्ती शराब की सी है -मीर 3. कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में -जफर 4. ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं -नासिख लखनवी 5. लोग टूट जाते हैं एक घर के बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में. -बशीर बद्र 6. कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊंगा मैं तो दरिया हूं समन्दर में उतर जाऊंगा -अहमद नदीम क़ासमी 7. ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले, ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है. -अल्लामा इकबाल 8. ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजै इक आग का दरिया है और डूब के जाना है -जिगर मुरादाबादी 9. यहां लिबास की कीमत है आदमी की नहीं मुझे गिलास बड़ा दे, शराब कम कर दे -बशीर बद्र 10. हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले -मिर्ज़ा गालिब 11. और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 12. हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है -मिर्ज़ा ग़ालिब 13. हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती -अकबर इलाहाबादी 14. मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया -मजरूह सुल्तानपुरी 15. कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता -निदा फ़ाज़ली 16. ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई -मुज़फ़्फ़र रज़्मी 17. अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मय-ख़ाने में जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में -दिवाकर राही 18. बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता -निदा फाजली 19. कहां तो तै था चिरागां हरेक घर के लिए कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए -दुष्यंत कुमार 20. वसीम सदियों की आंखों से देखिए मुझको वो लफ्ज हूं जो कभी दास्तां नहीं होता -वसीम बरेलवी
हिंदुस्तान की स्वतंत्रता को करीब 74 वर्ष बीत चुके है और इतना ही वक्त बीत चुका है देश के बंटवारे को। बंटवारे की टीस वक़्त के साथ धुंधली ज़रूर हो सकती हैं, मगर इसे दबा पाना मुमकिन नहीं। देश की हवा में मिट्टी की खुशबू के साथ एक गंध भी उठती है, उन सभी शवों की जिन्हें कोई जलाने, दफ़नाने वाला भी नहीं मिला था। अंग्रेज़ों की कूटनीति ने हमारे मुल्क़ को दो हिस्सों में बाँट कर रख दिया। बंटवारे की त्रासदी में कितने ही लोग बेघर हुए और कितने ही परिवारों के चिराग बुझ गए। उस दर्द की कल्पना भी कर पाना भी मुश्किल है। मगर इसे बेहद करीब से छुआ जा सकता है, उस समय का दर्द बयां करते कुछ साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ कर। अमृता प्रीतम ने 'पिंजर' में उकेरा है विभाजन का दर्द जहां बेहतरीन लेखन और स्वतंत्रता की बात हो, वहां अमृता प्रीतम का नाम आना भी लाज़मी है। विद्रोही समझ वाली अमृता, न केवल महिलाओं के लिए बोला करती थी, बल्क़ि बेहतरीन, स्वतंत्र समझ का उदाहरण भी थी। अमृता के कई उपन्यासों में विभाजन का दर्द दिखाई देता है, जिनमें से एक है 'पिंजर '। यूँ तो विभाजन पर कई उपन्यास लिखे गए हैं, परन्तु आज तक लिखे गए सभी उपन्यासों में पिंजर का अपना विशिष्ठ स्थान है। 1947 में हुए विभाजन का दर्द, अमृता ने अपने इस उपन्यास के ज़रिये 1950 के आसपास लिखा। अमृता के इस उपन्यास का अहम किरदार है 'पुरो' जो एक हिन्दू परिवार में जन्म लेती है, परन्तु पारिवारिक रंजिश के चलते, एक मुस्लमान शेख द्वारा, ज़बरदस्ती विवाह सम्बन्ध में बांधी जाती है। इस उपन्यास में अमृता बात करती हैं एक ऐसे गांव की जहां मुसलमानों की आबादी हिन्दू आबादी से कहीं ज़्यादा है और दंगों के चलते सभी हिन्दू एक हवेली में छुप गए, जो भी हिन्दू बाहर आता वह मार दिया जाता था। अमृता लिखती हैं एक रात जब हिन्दू मिलिट्री के ट्रक गाँव में आए तो लोगों ने हवेली में आग लगा दी। मिलिट्री ने आग बुझा कर लोगों को बाहर निकाला। आधे जले हुए तीन आदमी भी निकाले गए, जिनके शरीर से चर्बी बह रही थी, जिनका मांस जलकर हड्डियों से अलग-अलग लटक गया था। कोहनियों और घुटनों पर से जिनका पिंजर बाहर निकल आया था। लोगों के लारियों में बैठते-बैठते उन तीनों ने जान निकाल दी। उन तीनों की लाशों को वही फेंककर लारियाँ चल दीं। उनके घर वाले चीखते-चिल्लाते रह गए, पर मिलिट्री के पास उन्हें जलाने-फूंकने का समय नहीं था। इस सिक्के के दूसरे पहलू पर भी रोशनी डालते हुए अमृता लिखती हैं कि कुछ शहरों में सीमाएं बना दी गई थी जिनकी एक ओर हिन्दू और दूसरी ओर सभी मुसलमान थे। दूसरी ओर से मुसलमान मरते कटते चले आ रहे थे, कुछ वहीँ मार दिए गए और कुछ रास्ते में मारे गए। मोहन राकेश ने सुनाई बिछड़े अपनों की दास्ताँ साहित्यकार मोहन राकेश अपने उपन्यास 'मलबे का मालिक' में भी ऐसा ही कुछ दर्द बयां करते नज़र आए जिसमें कहानी के मुख्य किरदार 'गनी मियां' दंगों के समय पाकिस्तान चले जाते हैं और उनके बेटे बहु और दो पोतियां यहीं हिंदुस्तान में रह जाते हैं। विभाजन के 7 साल बाद, जब दोनों देशों में आवाजाही के साधन खुलते हैं, तो हॉकी का मैच देखने के बहाने गनी मियां अमृतसर (भारत) आते हैं, इस आस में कि अपने पुराने घर परिवार को फिर देख सकेंगे, परन्तु यहां आ कर उन्हें पता चलता है कि उनके परिवार की 7 साल पहले ही हत्या हो चुकी है। पियूष मिश्रा ने 'हुस्ना' (नाटक) में किया अधूरी मोहब्बत का ज़िक्र बंटवारे के समय हुई ऐसी कई घटनाओं का, कई परिवारों का दर्द साहित्य आज भी ज़िंदा रखे हुए है। पियूष मिश्रा ने एक नाटक किआ है, 'हुस्ना'। पियूष मिश्रा ने न केवल इसे लिखा, बल्क़ि मंच पर बखूबी इसे निभाया भी। इस नाटक में दो मुल्क़ों के बंटवारे में कभी न बँट पाने वाली मोहब्बत की कहानी है। इसमें हिंदुस्तान में रहने वाले प्रेमी का खत है, जो की उसकी विभाजन के बाद सेपाकिस्तान में रह रही प्रेमिका के नाम है। खत को गाने के रूप में पेश किया गया है जिसके बोल हैं, "लाहौर के उस जिले के दो परांगना में पहुंचे , रेशमी गली के दूजे कूचे के चौथे मकां में पहुंचे, और कहते हैं जिसको दूजा मुल्क़ उस पाकिस्तान में पहुंचे," गाने की इन पंक्तियों में लेखक खुद के पाकिस्तान में होने की कल्पना करते हैं व कहते हैं "मुझे लगता है में लाहौर के पहले जिले के दुसरे राज्य में हूँ।" इसी गाने में पियूष मिश्रा ने दोनों मुल्क़ों की समानताओं की ओर इशारा करते हुए यह भी लिखा की "पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्तान में, वैसे ही जैसे झड़ते हैं यहाँ ओ हुस्ना, होता क्या उजाला वहां वैसा ही, जैसा होता है हिन्दोस्तान में हाँ ओ हुस्ना।" जॉन ऐलिया का फ़ारेहा के नाम संदेश सवाल है जो दर्द इधर हिन्दुस्तान में है क्या वही दर्द वहां दूसरी ओर भी उठता है? इसे समझने के लिए पाकिस्तानी लेखकों की रचनाओं पर भी रोशनी डालना ज़रूरी है। पाकिस्तान के मशहूर लेखक जॉन ऐलिया की ही बात करें तो, जॉन का जन्म 1931 में अमरोहा (भारत) में हुआ और विभाजन के समय वह पाकिस्तान चले गए। जॉन की कई ग़ज़लें उनकी बचपन की मोहब्बत 'फ़ारेहा' के नाम हैं। फ़ारेहा हिंदुस्तान में रहा करती थीं और कहा जाता है विभाजन के बाद जॉन का फ़ारेहा से मिलना कभी नहीं हुआ। मगर जॉन की लिखी एक ग़ज़ल 'फ़ारेहा' में उनका दर्द पढ़ा जा सकता है। " सारी बातें भूल जाना फ़ारेहा, था सब कुछ वो इक फ़साना फ़ारेहा, हाँ मोहब्बत एक धोखा ही तो थी, अब कभी धोखा न खाना फ़ारेहा " इन पंक्तियों में जॉन अपनी बचपन की मोहब्बत फ़ारेहा से, सब कुछ भूल जाने को कहते हैं, क्योंकि वह जानते हैं के दो मुल्क़ों के बीच खिंच चुकी इस लकीर को मिटा पाना, और इस मोहब्बत को अनजाम देना भी अब मुमकिन नही। विभाजन से किसी का घर टूटा तो किसी का दिल, किसी के अपने बिछड़े तो किसी के अपने ही पराए हो गए। इस नुकसान की भरपाई तो अब की नहीं जा सकती, पर इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता कि नुकसान दोनों ओर बराबर रहा होगा।
बस तेरा नाम ही मुकम्ल है , इससे बेहतर भी नज़म क्या होगी। ऐसे शब्दों की जादूगरी सिर्फ गुलज़ार ही कर सकते है। गुलज़ार का जन्म 18 अगस्त 1936 को भारत के झेलम जिला पंजाब के दीना गाँव में हुआ, जो अब पाकिस्तान में है। जिसे ये बटवारे के बाद छोर आए। बंटवारे के बाद उनका परिवार अमृतसर में आकर बस गया। वहीं से गुलज़ार साहब मुंबई चले गए। वर्ली के एक गेरेज में वे बतौर मेकेनिक काम करने लगे और खाली समय में कविताएं लिखने लगे। फ़िल्म इंडस्ट्री में उन्होंने बिमल राय, हृषिकेश मुख़र्जी और हेमंत कुमार के सहायक के तौर पर काम शुरू किया। बिमल राय की फ़िल्म बन्दिनी के लिए गुलज़ार ने अपना पहला गीत लिखा। गुलज़ार एक ऐसे लेखक है जिन्होंने हर पीढ़ी से अपना नाता जोड़ा है। गुलज़ार साहब के हर फ़न ने सभी का दिल जीता है, चाहे वो बड़ा पर्दा हो या छोटा, या फिर मन का असीम पर्दा। हर पर्दे पर इनकी दास्ताँ लोगों के दिलों में घर कर गई। पढ़िए गुलज़ार साहब की एक खास नज़्म....... किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से बड़ी हसरत से तकती है महीनों अब मुलाकातें नहीं होती जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है जो कदरें वो सुनाती थी कि जिनके जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं कोई सफा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है कई लफ्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं बिना पत्तों के सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फ़ाज़ जिनपर अब कोई मानी नहीं उगते जबां पर जो ज़ायका आता था जो सफ़ा पलटने का अब ऊँगली क्लिक करने से बस झपकी गुजरती है किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, वो कट गया है कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे कभी गोदी में लेते थे कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल और महके हुए रुक्के किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे उनका क्या होगा वो शायद अब नही होंगे!!
साहिर लुधियानवी एक प्रसिद्ध शायर तथा गीतकार थे। उनका जन्म 8 मार्च 1921 को लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था। जब साहिर का जन्म हुआ तो उनका नाम अब्दुल हयी साहिर रखा गया। लेकिन हर शायर की तरह साहिर ने भी बड़े होकर अपना खुद का नाम चुना, और वो नाम है साहिर लुधियानवी। साहिर की माने तो जादूगर और सही मायनों में साहिर शब्दों के जादूगर थे। इनका जन्म लुधियाना में हुआ था। हालांकि इनके पिता बहुत धनी थे पर माता-पिता में अलगाव होने के कारण उन्हें माता के साथ रहना पड़ा और अपना बचपन गरीबी में गुज़ारना पड़ा। शुरू से ही उनके दिल में बहुत दर्द और जोश था। उस दर्द को इन्होने अपने पहली किताब में शामिल भी किया। साहिर लुधियानवी की शायरी का फ़लक बहुत ऊंचा है। उन्होंने मोहब्बत से लेकर समाज तक सभी पर लिखा और बहुत गहराई से लिखा। पढ़िए साहिर लुधियानवी के वो शेर जिनमें जीवन का दर्शन छुपा है, तो मुहब्बत को हिज्र-ओ-विसाल भी हैं, इंक़लाब है तो ग़म भी है... ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा इस रात की तक़दीर सँवर जाए तो अच्छा आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें हम मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देते हैं साँसों में घुल रही है किसी साँस की महक दामन को छू रहा है कोई हाथ क्या करें कभी मिलेंगे जो रास्ते में तो मुँह फिरा कर पलट पड़ेंगे कहीं सुनेंगे जो नाम तेरा तो चुप रहेंगे नज़र झुका के तुझ को ख़बर नहीं मगर इक सादा-लौह को बरबाद कर दिया तिरे दो दिन के प्यार ने अरे ओ आसमाँ वाले बता इस में बुरा क्या है ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएँ अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत ऐ मुतरिब अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया
मोहब्बत और बगावत की शायरी से युवाओं के दिल को जीतने वाले मशहूर शायर राहत इंदौरी अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी लिखे कई शेर महफिलों की शान बनते है। राहत इंदौरी उन शायरों में से थे जो हुक्मरानों पर तंज कसने से ज़रा भी नहीं हिचकिचाते थे। उन्होंने बॉलीवुड की कई फिल्मों के लिए गाने भी लिखे हैं। राहत का जन्म 1 जनवरी 1950 को इंदौर में रफ्तुल्लाह कुरैशी और मकबूल उन निशा बेगम के यहाँ हुआ था। इनके पिता वस्त्र कारख़ाने के कर्मचारी थे। पढ़िए उनके लिखे कुछ बेहतरीन शेर........ 1. ज़ुबाँ तो खोल नज़र तो मिला जवाब तो दे, मैं कितनी बार लूटा हूँ मुझे हिसाब तो दे। 2. सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है। 3. बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए, मैं पीना चाहता हूं पिला देनी चाहिए। 4. अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए, कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए। 5. दो गज सही मगर ये मेरी मिल्कियत तो है, ऐ मौत तूने मुझको जमींदार कर दिया। 6. दो ग़ज सही ये मेरी मिल्कियत तो है ऐ मौत तूने मुझे जमींदार कर दिया। 7. अब ना मैं हूँ ना बाक़ी हैं ज़माने मेरे , फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे। 8. लोग हर मोड़ पे रुक रुक के सँभलते क्यूं हैं, इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यूं हैं। 9. एक ही नदी के है यह दो किनारे दोस्तो, दोस्ताना ज़िन्दगी से, मौत से यारी रखो। 10.उस की याद आई है, साँसों ज़रा आहिस्ता चलो, धड़कनो से भी इबादत में ख़लल पड़ता है।
मैं जो हूँ जॉन एलिया हूँ साहब इस बात का बे-हद लिहाज़ कीजिएगा पूरा नाम सय्यद हुसैन जॉन असग़र। जॉन का जन्म 14 दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुआ। शुरूआती तालीम अमरोहा में ही ली और उर्दू, फ़ारसी और अर्बी सीखते-सीखते अल्हड़ उम्र में ही शायर हो गए। 1947 में मुल्क आज़ाद हुआ और आज़ादी अपने साथ बंटवारे का ज़लज़ला भी लाई। तब सय्यद हुसैन जॉन असग़र ने हिंदुस्तान में रहना तय किया पर 1957 आते-आते समझौते के तौर पर पाकिस्तान चले गए और पूरी उम्र वहीं गुज़ारी। जॉन पाकिस्तान चले तो गए मगर यूँ समझिए के जॉन का दिल अमरोहा में ही रह गया। अमरोहा से चले जाने का अफ़सोस उन्हें ता-उम्र ही रहा, जॉन ने लिखा। जॉन को बे-हद दुःख था अमरोहा छोड़ के कराची जाने का और दोनों मुल्क़ों के दो हिस्से होने का। मत पूछो कितना ग़मगीन हूँ, गंगा जी और जमना जी में जो था अब मैं वो नहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी मैं जो बगुला बनके बिखरा,वक़्त की पागल आंधी में क्या मैं तुम्हारी लहर नहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी बाण नदी के पास अमरोही में जो लड़का रहता था अब वो कहाँ है, मैं तो वहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी दंगों के दौरान, जॉन पकिस्तान तो आ गए मगर जॉन इसे एक समझौता ही समझा करते थे। जॉन की नज़्मों और ग़ज़लों से अमरोहा और हिन्दुस्तान की मिटटी की खुशबू अक्सर आती रही। 1947 के सियासी माहौल को बयां करते हुए उन्होंने लिखा- हरमो-दैर की सियासत है और सब फैसले हैं नफरत के यार कल सुबह आए हमको नज़र आदमी कुछ अजीब सूरत के इन दिनों हाल शहर का है अजीब लोग मारे हुए हैं दहशत के 08 नवंबर 2002 को पाकिस्तान के कराची में ही इंतकाल हुआ पर तब तलक सय्यद हुसैन जॉन असग़र दुनिया के लिए जॉन एलिया बन चुके थे। लाखों दिलों के महबूब शायर बन चुके थे। जॉन वो शायर हो चुके थे जो हर मर्तबा जदीद लगे। जॉन वो शायर हो चुके थे जिसकी बेफिक्र शायरी में हर शख्श को अपना अक्स दिखे। पर जॉन के असल दौर का आगाज़ तो अभी बाकी था। इस दुनिया में रहते हुए जो जॉन एक रस्मी शायर थे, दुनिया को अलविदा कहने के बाद सरताज़ हो गए। उनके इंतेक़ाल के बाद उन्हें बेशुमार नाम-ओ-शोहरत नसीब हुआ। कहते है एक बार जॉन ने कहा था आज किसी शायर का है, कल किसी और शायर का होगा और परसों मेरा होगा। उनकी जुबां मुबारक हुई और आज सोशल मीडिया के इस दौर में उनकी शायरी युवाओं को खुदरंग सी लगती है। 8 साल की उम्र से शायरी से दिल लगाने वाले जॉन ने बहुत कम उम्र से ही अपनी एक अलग ज़ेहनी दुनिया बसा ली थी शायद इसलिए भी फिर वक़्त के साथ ज़िन्दगी की हकीकत उन्हें न-पसंद रही। जो देखता हूँ वो कहने का आदि हूँ मैं अपने शहर का सबसे बड़ा फसादी हूँ बातों को पहेलियों की शक्ल में पेश करने वालों में जॉन नहीं थे, वे जो कहते साफ़ कहते। एक शायर के लिए अपने जिए और लिखे के बीच का फ़र्क़ कम करना ही उसकी मुसलसल कोशिश रहती हैं। मगर जॉन इस काम में माहिर थे, जॉन सच कहते थे, वे झूठ भी कहते तो खुद को "झूठा कह कर सच्चे बन जाते। खुद के सिवा जॉन को किसी से भी, कोई शिकायत न थी, ज़िन्दगी जीनी तो थी मगर, ज़िन्दगी से भी मोहब्बत न थी। हैं बतौर ये लोग तमाम इनके सांचे में क्यों ढलें मैं भी यहाँ से भाग चलूँ तुम भी यहाँ से भाग चलो दुनियादारी के रस्मों रिवाज़ों से ऊब चुके जॉन ने कुछ इस अंदाज़ से, दुनियादारी की परवाह छोड़ कर, अपनी शरीक-ए-मोहब्बत से दूसरी किसी दुनिया में चलने की बात कही। जॉन पकिस्तान के बड़े शायर थे और कहा जाता है कि जॉन की मोहब्बत "फ़ारेहा" हिन्दुस्तान में रहा करती थी। दो मुल्क़ों के बीच जॉन का उनसे मिलना तो मुमकिन नहीं हुआ मगर अपनी ग़ज़लों में फ़ारेहा का ज़िक्र, जॉन अक्सर किया करते थे। पाकिस्तान के मशहूर शायर "जॉन" की मोहब्बत की दास्ताँ एक अधूरा क़िस्सा ही रही, मगर वे ता-उम्र जॉन फ़ारेहा का नाम दोहराते रहे। अब जॉन की ये मोहब्बत एक-तरफ़ा थी या दो-तरफ़ा ये बात तो बस जॉन ही जानते थे। फ़ारेहा के अलावा जॉन की ज़िन्दगी में तीन और भी नाम शामिल रहे जिसमें से एक थी सुरैय्या, जो अपने आप में एक पहेली है। उनकी ज़िन्दगी में बनावटी गम की इन्तेहाई उन्होंने खुद मानी और बयां की - जाने-निगाहो-रूहे-तमन्ना चली गई ऐ नज़दे आरज़ू, मेरी लैला चली गई बर्बाद हो गई मेरी दुनिया-ए-जुस्तजू दुनिया-ए-जुस्तजू मेरी दुनिया चली गई ज़ोहरा मीरा सितारा-ए-क़िस्मत खराब है नाहीद!आज मेरी "सुरैय्या" चली गई किस्से कहूं कि एक सरापा वफ़ा मुझे तन्हाइयों में छोड़ के चली गई हालाँकि, कहा जाता है जॉन कि ये सुरैय्या और ये दुनिया ये गम ये तन्हाई की बातें सब मन घडन्त कहानियां थी, बिलकुल वैसे ही जैसे कोई परियों के देश कि कहानी होती है। 1970 में जॉन का निकाह 'ज़ाहिदा' हिना से हुआ जो जॉन कि तरह 1947 में हिंदुस्तान से पाकिस्तान , कराची आयी थी। जॉन और ज़ाहिदा का निकाह उनका अपना फैसला था, बहर-हाल दोनों का ये फैसला गलत साबित हुआ। जॉन कि एहल-ए-ज़िंदगी ज़ाहिदा ता-उम्र तक साथ न रह सकी और दोनों कुछ सालों बाद अलग हो गए। कहा जाता है कि जॉन चाहते थे ज़ाहिदा घर संभालें और ज़ाहिदा एक पत्रकार थी, सारी घर की ज़िम्मेदारी उठाना उन्हें मुमकिन न लगा और ये बात दोनों के अलग होने का सबब बनी । जाहिदा से अलग होने के बाद जॉन ने लिखा हम तो जी भी नहीं सके एक साथ हमको तो एक साथ मरना था अलग होने के बाद वे ज़ाहिदा को अक्सर खत लिखा करते थे जिन्हे उर्दू भाषा के एहम दस्तावेज़ों की शक्ल में भी देखा गया। जॉन ने ज़ाहिदा के लिए अपनी फ़िक्र और उनसे सभी गिले माफ़ करने का ज़िक्र भी अक्सर किया - नया एक रिश्ता पैदा क्यों करें हम बिछड़ना है तो झगड़ा क्यों करें हम ख़ामोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी कोई हंगामा बरपा क्यों करें हम ये क़ाफ़ी है के दुश्मन नहीं हैं हम वफादारी का दावा क्यों करें हम नहीं दुनिया को जब परवाह हमारी तो दुनिया कि परवाह क्यों करें हम ज़ाहिदा से अलैदगी के बाद जॉन ने 10 साल तक कुछ नहीं लिखा। हुई नहीं मुझे कभी मोहब्बत किसी से मगर यक़ीं सबको दिलाता रहा हूँ मैं जॉन की ज़िन्दगी का एक फसलफा एक गुमनाम शख्सियत के नाम भी रहा। इस शख्सियत का नाम तो कोई नहीं जानता मगर कहा जाता है जॉन की ज़िन्दगी के आखिर पलों में जॉन ने इनके लिए लिखा, ज़ाहिदा से अलग होने के बाद वे जॉन के साथ थी मगर कभी उनकी शरीक-ए-मोहब्बत न बन सकी। जॉन उनसे झूठा प्यार जताने के बोझ में दब रहे थे। जॉन ने बनावटी दुःख और झूठी तकलीफ प्यार की बात करते हुए लिखा- तुम मेरा दुःख बाँट रही हो , मैं खुद से शर्मिंदा हूँ अपने झूठे दुःख से तुमको कब तक दुःख पहुंचाऊंगा एहद-ए-रफ़ाक़त ठीक है लेकिन मुझको ऐसा लगता है तुम तो मेरे साथ रहोगी मैं तन्हा रह जाऊंगा। ये गुमनाम हसीना जॉन से बे-इंतेहा मोहब्बत करने का दावा करती थी और जॉन उन्हें झूठे दिलासे दे दिया करते थे। दोनों एक दूसरे को खत भी लिखा करते थे। कहा जाता है उस लड़की का इंतेक़ाल टी-बी की बीमारी से हुआ, जिसको जॉन ने शायरी में लिखा और जॉन का इंतेक़ाल भी लम्बे अरसे तक टी-बी की बीमारी से लड़ने के बाद हुआ। - आ गई दरमियाँ रूह की बात ज़िक्र था जिस्म की ज़रुरत का थूक कर खून रंग में रहना में हुनरमंद हूँ अज़ीयत का जॉन दोबारा कभी हिंदुस्तान नहीं आए और न ही फ़ारेहा से कभी मिले मगर फ़ारेहा का नाम जॉन से आज भी हमेशा जोड़ा जाता रहा है । जॉन ने फ़ारेहा के नाम कई बेहतरीन ग़ज़लें लिखी। फ़ारेहा जॉन की ज़िन्दगी का एक ज़रूरी हिस्सा थी और जॉन उन्हें शायद किसी मर्ज़ की दवा की तरह वक़्त वक़्त पर याद करते रहे। फ़ारेहा के नाम जॉन की एक ग़ज़ल - सारी बातें भूल जाना फ़ारेहा था वो सब कुछ एक फ़साना फ़ारेहा हाँ मोहब्बत एक धोखा ही तो थी अब कभी धोखा न खाना फ़ारेहा छेड़ दे अगर कोई मेरा तज़्कीरा सुन के तंज़न मुस्कुराना फ़ारेहा था फ़क़त रूहों के नालों की शिकस्त वो तरन्नुम वो तराना फ़ारेहा बेहेस क्या करना भला हालात से हारना है हार जाना फ़ारेहा
प्रधानमंत्री मोदी ने आज दुनिया के सबसे बड़े वैक्सीनेशन अभियान का शुभारंभ किया। पीएम ने सुबह 10.30 बजे देश को संबोधित किया और इसके साथ ही पहले चरण में 3 करोड़ लोगों को कोरोना के टीके लगाने का काम शुरू हो गया। इस मौके पर उन्होंने देशवासियों के हौसले बढ़ाते हुए राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता का जिक्र किया। कविता का शीर्ष है 'मानव जब जोर लगाता है, पत्थर भी पानी बन जाता है।' प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया कि महामारी कोविड-19 के लिए वैक्सीन लाने की राह कितनी कठिनाईयों से भरी थी जिसे हमारे वैज्ञानिक और वैक्सीन के रिसर्च से जुड़े लोगों के प्रयासों ने आसान और सरल बना दिया। प्रधानमंत्री ने कहा, 'आज वो वैज्ञानिक, वैक्सीन रिसर्च से जुड़े अनेकों लोग विशेष प्रशंसा के हकदार हैं, जो बीते कई महीनों से कोरोना के खिलाफ वैक्सीन बनाने में जुटे थे। आमतौर पर एक वैक्सीन बनाने में बरसों लग जाते हैं। लेकिन इतने कम समय में एक नहीं, दो मेड इन इंडिया वैक्सीन तैयार हुई हैं।' पढ़िए रामधारी सिंह दिनकर की पूरी कविता जिसका जिक्र पीएम मोदी ने किया। हो गया पूर्ण अज्ञात वास, पाडंव लौटे वन से सहास, पावक में कनक-सदृश तप कर, वीरत्व लिए कुछ और प्रखर, नस-नस में तेज-प्रवाह लिये, कुछ और नया उत्साह लिये। सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं। मुख से न कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं, जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं, शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को। है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़। मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है। गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर, मेंहदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो। बत्ती जो नहीं जलाता है रोशनी नहीं वह पाता है। पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड, मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार। जब फूल पिरोये जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं। वसुधा का नेता कौन हुआ? भूखण्ड-विजेता कौन हुआ? अतुलित यश क्रेता कौन हुआ? नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ? जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया। जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हमें जगाते हैं, मन को मरोड़ते हैं पल-पल, तन को झँझोरते हैं पल-पल। सत्पथ की ओर लगाकर ही, जाते हैं हमें जगाकर ही। वाटिका और वन एक नहीं, आराम और रण एक नहीं। वर्षा, अंधड़, आतप अखंड, पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड। वन में प्रसून तो खिलते हैं, बागों में शाल न मिलते हैं। कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर, छाया देता केवल अम्बर, विपदाएँ दूध पिलाती हैं, लोरी आँधियाँ सुनाती हैं। जो लाक्षा-गृह में जलते हैं, वे ही शूरमा निकलते हैं। बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, मेरे किशोर! मेरे ताजा! जीवन का रस छन जाने दे, तन को पत्थर बन जाने दे। तू स्वयं तेज भयकारी है, क्या कर सकती चिनगारी है? वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर। सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है। मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को, दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को, भगवान् हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। 'दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम। हम वहीं खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे! दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशिष समाज की ले न सका, उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला। जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया, डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले- 'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे। यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है, मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल। अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार झूलता है मुझमें। 'उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल, भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं। दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर, सब हैं मेरे मुख के अन्दर। 'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख, चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर, नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर। शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र, शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र। 'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश, शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, शत कोटि दण्डधर लोकपाल। जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें, हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें। 'भूलोक, अतल, पाताल देख, गत और अनागत काल देख, यह देख जगत का आदि-सृजन, यह देख, महाभारत का रण, मृतकों से पटी हुई भू है, पहचान, कहाँ इसमें तू है। 'अम्बर में कुन्तल-जाल देख, पद के नीचे पाताल देख, मुट्ठी में तीनों काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख। सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं। 'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन, साँसों में पाता जन्म पवन, पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, हँसने लगती है सृष्टि उधर! मैं जभी मूँदता हूँ लोचन, छा जाता चारों ओर मरण। 'बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है? यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन। सूने को साध न सकता है, वह मुझे बाँध कब सकता है? 'हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना, तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ। याचना नहीं, अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा। 'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर, फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा। दुर्योधन! रण ऐसा होगा। फिर कभी नहीं जैसा होगा। 'भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बूँद-से छूटेंगे, वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे। आखिर तू भूशायी होगा, हिंसा का पर, दायी होगा।' थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े। केवल दो नर ना अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे। कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!
मीर तक़ी मीर साहब उर्दू अदब के वो नयाब हीरे थे जिनके बारे में अकबर इलाहाबादी साहब ने कहा था "मैं हूँ क्या चीज़ जो इस तर्ज़ पे जाऊं "अकबर " मसिखो-ज़ौक़ भी चल न सके मीर के साथ।" उर्दू के सर्वकालिक महान शायरों में शुमार मीर तकी मीर इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर चुके है। मीर को शायरी का ख़ुदा कहा जाता है। यह तक की उर्दू के बेताज बादशाह कहे जाने वाले ग़ालिब ने जब एक फकीर से मीर की एक नज्म सुनी तो उनके मुंह से बेसाख्ता निकला, 'रेख्ते के तुम ही नहीं हो उस्ताद ग़ालिब, कहते हैं पिछले ज़माने में कोई मीर भी था।' मीर को उर्दू के उस प्रचलन के लिए याद किया जाता है जिसमें फ़ारसी और हिन्दुस्तानी के शब्दों का अच्छा मिश्रण और सामंजस्य हो। उनके कूछ लाजवाब शेर हम आपके लिए लाए है- राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या आगे आगे देखिए होता है क्या पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर' फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए पंखुड़ी इक गुलाब की सी है बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है
जब-जब किसी शायर ने अपनी क़लम उठाई है, तब-तब ज़िंदगी के किसी न किसी पहलू को शेर के रूप में हमारे सामने पेश किया है। ऐसे ही एक शायर हैं अल्लामा इक़बाल, जिन्होंने सिर्फ़ प्यार ही नहीं, बल्कि जीवन के हर एक भाव को अपने शेर में ढाला है। अल्लामा इकबाल का जन्म पंजाब, पाकिस्तान में 9 नवंबर 1877 को हुआ था और उनका देहांत 21 अप्रैल 1938 में हुआ था। इकबाल की रचनाएं उम्मीदों के साथ जिंदगी में हमेशा नए रास्तों की ईजाद करती रहीं। उर्दू और फ़ारसी में इनकी शायरी को आधुनिक काल की सर्वश्रेष्ठ शायरी में गिना जाता है। उनके उन्हीं शेर में से कुछ आज हम आपके लिए लेकर आए हैं। 1. सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा। 2. लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी ज़िंदगी शमा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी! 3. मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहिए, कि दाना खाक में मिलकर, गुले-गुलजार होता है। 4. ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले, ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है। 5. जफा जो इश्क में होती है वह जफा ही नहीं, सितम न हो तो मुहब्बत में कुछ मजा ही नहीं। 6. सितारों से आगे जहाँ और भी हैं अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं, तही ज़िंदगी से नहीं ये फ़ज़ाएँ यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं। 7. माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं, तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख। 8. नशा पिला के गिराना तो सब को आता है, मज़ा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी। 9. ज़ाहिद-ए-तंग-नज़र ने मुझे काफ़िर जाना, और काफ़िर ये समझता है मुसलमान हूँ मैं। 10. अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल, लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे। 11. दिल से जो बात निकलती है असर रखती है, पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है। 12. तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ, मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ। 13. जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी, उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो। 14. कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है, बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है। 15. जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में, बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते।
फैज़ अहमद फैज़ मशहूर नगमानिगार फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ एक बेमिसाल शायर थे। उनकी शायरी में अहसास, बदलाव, प्रेम और सुकुन सब कुछ था। वो भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात पंजाबी शायर थे, जिन्हें अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव के मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्में और ग़ज़लें लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी दौर की रचनाओं को सबल किया। पढ़िए उनकी लिखी एक ख़ूबसूरत नज़्म : कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया वो लोग बोहत खुश-किस्मत थे जो इश्क़ को काम समझते थे या काम से आशिकी करते थे हम जीते जी मसरूफ रहे कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया काम इश्क के आड़े आता रहा और इश्क से काम उलझता रहा फिर आखिर तंग आ कर हमने दोनों को अधूरा छोड दिया
सियासत और शायरी का रिश्ता बहुत पुराना है। कभी कुछ लफ्ज़ आवाम कि आवाज़ बन जाते हैं, तो कभी कुछ हुकूमत के उज़्र। बड़े आंदोलनों के नारों से लेकर संसद के इशारों तक, सियासत का शायराना मिजाज़ हर किसी को लुभाता है। प्रस्तुत है सियासत पर लिखे कुछ उम्दा शेर- 1 जंग में कत़्ल सिपाही होंगे सुर्खरु ज़िल्ले इलाही होंगे मौज रामपुरी 2 दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों बशीर बद्र 3 ऐ क़ाफ़िले वालों, तुम इतना भी नहीं समझे लूटा है तुम्हे रहज़न ने, रहबर के इशारे पर तरन्नुम कानपुरी 4 कच्चे मकान जिनके जले थे फ़साद में अफ़सोस उनका नाम ही बलवाइयों में था नईम जज़्बी 5 औरों के ख़यालात की लेते हैं तलाशी और अपने गरेबान में झाँका नहीं जाता मुज़फ्फर वारसी 6 एक आँसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है तुम ने देखा नहीं आँखों का समुंदर होना मुन्नवर राना 7 काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर फूलों की सियासत से मैं बेगाना नहीं हूँ. शकील बदायुनी 8 तूफ़ान में हो नाव तो कुछ सब्र भी आ जाए साहिल पे खड़े हो के तो डूबा नहीं जाता मुज़फ़्फ़र वारसी 9 हुकूमत से एजाज़ अगर चाहते हो अंधेरा है लेकिन लिखो रोशनी है अशरफ़ मालवी 10 तबाह कर दिया अहबाब को सियासत ने मगर मकान से झंडा नहीं उतरता है शकील जमाली 11 कितने चेहरे लगे हैं चेहरों पर क्या हक़ीक़त है और सियासत क्या सागर ख़य्यामी 12 हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी जिस को भी देखना हो कई बार देखना निदा फ़ाज़ली 13 नए किरदार आते जा रहे हैं मगर नाटक पुराना चल रहा है राहत इंदौरी 14 कुर्सी है तुम्हारा ये जनाज़ा तो नहीं है कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते अज्ञात 15 देखोगे तो हर मोड़ पे मिल जाएँगी लाशें ढूँडोगे तो इस शहर में क़ातिल न मिलेगा मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद 16 धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा है न पूरे शहर पर छाए तो कहना जावेद अख़्तर 17 इन से उम्मीद न रख हैं ये सियासत वाले ये किसी से भी मोहब्बत नहीं करने वाले नादिम नदीम 18 ये सच है रंग बदलता था वो हर इक लम्हा मगर वही तो बहुत कामयाब चेहरा था अम्बर बहराईची 19 सियासत की दुकानों में रोशनी के लिए, जरूरी है कि मुल्क मेरा जलता रहे। अज्ञात 20 कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये, कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये। दुष्यंत कुमार
मशहूर नगमानिगार फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ एक बेमिसाल शायर थे। उनकी शायरी में अहसास, बदलाव, प्रेम और सुकुन सब कुछ था। वो भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात पंजाबी शायर थे, जिन्हें अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव के मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्में और ग़ज़लें लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था। फ़ैज़ पर कई बार कम्यूनिस्ट होने और इस्लाम से इतर रहने के आरोप लगे थे पर उनकी रचनाओं में ग़ैर-इस्लामी रंग नहीं मिलते। जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता 'ज़िन्दान-नामा' को बहुत पसंद किया गया था। उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत-पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं, जैसे कि 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा'। पढ़िए उनके लिखे एक ख़ूबसूरत शेर : 1 और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 2 दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है 3 उतरे थे कभी 'फ़ैज़' वो आईना-ए-दिल में आलम है वही आज भी हैरानी-ए-दिल का 4 कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब आज तुम याद बे-हिसाब आए 5 इक गुल के मुरझाने पर क्या गुलशन में कोहराम मचा इक चेहरा कुम्हला जाने से कितने दिल नाशाद हुए 6 अब जो कोई पूछे भी तो उस से क्या शरह-ए-हालात करें दिल ठहरे तो दर्द सुनाएँ दर्द थमे तो बात करें 7 आए कुछ अब्र कुछ शराब आए इस के बाद आए जो अज़ाब आए 8 और क्या देखने को बाक़ी है आप से दिल लगा के देख लिया 9 दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के 10 तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं 11 वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है 12 नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही 13 गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले 14 आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबान भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे 15 ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं 16 इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे 17 न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं 18 मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले 19 हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे 20 दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के 21 ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं 22 इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के 23 तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले अपने कुछ और भी सहारे थे 24 न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है 25 दोनों जहां तेरी मोहब्बत में हार के वो जा रहा है कोई शब-ए-गम गुज़ार के
मशहूर नगमानिगार फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ एक बेमिसाल शायर थे। उनकी शायरी में अहसास, बदलाव, प्रेम और सुकुन सब कुछ था। वो भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात पंजाबी शायर थे, जिन्हें अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव के मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्में और ग़ज़लें लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था। फ़ैज़ पर कई बार कम्यूनिस्ट होने और इस्लाम से इतर रहने के आरोप लगे थे पर उनकी रचनाओं में ग़ैर-इस्लामी रंग नहीं मिलते। जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता 'ज़िन्दान-नामा' को बहुत पसंद किया गया था। उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत-पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं, जैसे कि 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा'। पढ़िए उनकी लिखी एक ख़ूबसूरत रचना " मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे मेहबूब न मांग " मुझसे पहली-सी मुहब्बत मिरे महबूब न मांग मैनें समझा था कि तू है तो दरख़शां है हयात तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात तेरी आखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है तू जो मिल जाये तो तकदीर नगूं हो जाये यूं न था, मैनें फ़कत चाहा था यूं हो जाये और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वसल की राहत के सिवा अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिसम रेशमो-अतलसो-किमख्वाब में बुनवाए हुए जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म ख़ाक में लिबड़े हुए, ख़ून में नहलाये हुए जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से पीप बहती हुयी गलते हुए नासूरों से लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वसल की राहत के सिवा मुझसे पहली-सी मुहब्बत मिरे महबूब न मांग
अटल बिहारी वाजपेयी वो महान हस्ती जिन्हें एक बार नहीं बल्कि तीन बार भारत के प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त हुआ। अटल का साहित्य से लगाव जग ज़ाहिर था, वे उन विरले नेताओं में से थे, जिनका महज साहित्य में झुकाव भर नहीं था, बल्कि वे खुद लिखते भी थे। उनकी कविताएं आज भी पढ़ी जाती है। अटल विविध मंचों से और यहां तक कि संसद में भी अपनी कविताओं का सस्वर पाठ करते थे। एक बार जब अटल अपने मनाली वाले घर में छुट्टियां मनाने आए तो ख़राब सड़कें देख उन्हें बहुत निराशा हुई। उन्हें मनाली पहुँचने में खासी दिक्क्तों का सामना भी करना पड़ा, साथ ही मनाली में उस समय बिजली और नेटवर्क को लेकर भी बहुत सी समस्याएं थी। उस समय हिमाचल प्रदेश में वीरभद्र सिंह की सरकार थी। तो मनाली के खस्ता हालात को देख अटल ने वीरभद्र पर तंज कस्ते हुए बड़े हलके फुल्के अंदाज़ में एक कविता लिख डाली और इसी कविता के माध्यम से खालिस्तानियों का ज़िक्र भी कर डाला। पढ़िए वो कविता : मनाली मत जइयो मनाली मत जइयो, गोरी राजा के राज में। जइयो तो जइयो, उड़िके मत जइयो, अधर में लटकीहौ, वायुदूत के जहाज़ में। जइयो तो जइयो, सन्देसा न पइयो, टेलिफोन बिगड़े हैं, मिर्धा महाराज में। जइयो तो जइयो, मशाल ले के जइयो, बिजुरी भइ बैरिन अंधेरिया रात में। जइयो तो जइयो, त्रिशूल बांध जइयो, मिलेंगे ख़ालिस्तानी, राजीव के राज में। मनाली तो जइहो। सुरग सुख पइहों। दुख नीको लागे, मोहे राजा के राज में।
अटल बिहारी वाजपेयी वो महान हस्ती जिन्हें एक बार नहीं बल्कि तीन बार भारत के प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त हुआ।अटल बिहारी वाजपेयी उन नेताओं में से है जिन्हें सरहद के दोनों तरफ पसंद किया जाता था। अटल का साहित्य से लगाव जग ज़ाहिर था, वे उन विरले नेताओं में से थे, जिनका महज साहित्य में झुकाव भर नहीं था, बल्कि वे खुद लिखते भी थे। उनकी कविताएं आज भी पढ़ी जाती है। अटल विविध मंचों से और यहां तक कि संसद में भी अपनी कविताओं का सस्वर पाठ करते थे। पढ़िए अटल की वो कविताएं जिन्हें आज भी याद किया जाता है। स्वतंत्रता दिवस की पुकार पन्द्रह अगस्त का दिन कहता- आज़ादी अभी अधूरी है सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥ जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥ कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥ हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥ इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥ भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥ लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥ बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥ दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥ उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥ क़दम मिला कर चलना होगा बाधाएँ आती हैं आएँ घिरें प्रलय की घोर घटाएँ, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ, निज हाथों में हँसते-हँसते, आग लगाकर जलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में, अगर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में, उन्नत मस्तक, उभरा सीना, पीड़ाओं में पलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। उजियारे में, अंधकार में, कल कहार में, बीच धार में, घोर घृणा में, पूत प्यार में, क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में, जीवन के शत-शत आकर्षक, अरमानों को ढलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ, प्रगति चिरंतन कैसा इति अब, सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ, असफल, सफल समान मनोरथ, सब कुछ देकर कुछ न मांगते, पावस बनकर ढलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। मैंने जन्म नहीं मांगा था मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु मरण की मांग करुँगा। जाने कितनी बार जिया हूँ, जाने कितनी बार मरा हूँ। जन्म मरण के फेरे से मैं, इतना पहले नहीं डरा हूँ। अन्तहीन अंधियार ज्योति की, कब तक और तलाश करूँगा। मैंने जन्म नहीं माँगा था, किन्तु मरण की मांग करूँगा। बचपन, यौवन और बुढ़ापा, कुछ दशकों में ख़त्म कहानी। फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना, यह मजबूरी या मनमानी? पूर्व जन्म के पूर्व बसी— दुनिया का द्वारचार करूँगा। मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु मरण की मांग करूँगा। दूध में दरार पड़ गई ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया? भेद में अभेद खो गया। बँट गये शहीद, गीत कट गए, कलेजे में कटार दड़ गई। दूध में दरार पड़ गई। खेतों में बारूदी गंध, टूट गये नानक के छंद सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है। वसंत से बहार झड़ गई दूध में दरार पड़ गई। अपनी ही छाया से बैर, गले लगने लगे हैं ग़ैर, ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता। बात बनाएँ, बिगड़ गई। दूध में दरार पड़ गई। मौत से ठन गई ठन गई मौत से ठन गई जूझने का मेरा इरादा न था मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ सामने वार कर फिर मुझे आज़मा
वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा साहिर लुधियानवी का ये शेर न जाने कितनी ही अधूरी प्रेम कहानियों का दर्द बयां करता है, ख़ामोशी के नीचे दबे उस मशहर की दास्ताँ बयां करता है जो हर आशिक़ ने हिज्र के बाद महसूस की। अधूरे इश्क़ का हश्र दर्शाता ये शेर कहीं न कहीं खुद इसके लिखने वाले की कहानी को भी बयां करता है। एक ऐसी कहानी जो शुरू तो हुई मगर मंजिल तक न पहुंची, एक ऐसी कहानी जो ज़माने की खींची गई लकीरों से अलहदा थी, एक ऐसी कहानी जो आधी जली सिगरेट और चाय के झूठे प्याले तक सिमट कर रह गई । ये कहानी है उर्दू के मशहूर शायर साहिर लुधियानवी और पंजाब की पहली बाघी कवियत्री अमृता प्रीतम की। अधूरी मोहब्बत का ये वो मुक्कमल फ़साना है जिसके जैसा दूसरा ढूंढ पाना मुश्किल है, वो फ़साना जो मुकाम तक पहुँचने से पहले लड़खड़ाया ज़रूर मगर इसका तास्सुर फीका नहीं पड़ा । 16 साल की उम्र में अमृता की करवा दी गयी शादी अमृता एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखती थी जहां धर्म के धागे इंसान की किस्मत तय किया करते थे। जहां उनकी नानी मां अन्य समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों के बर्तन भी अलग रखती थी, जहां शादी का मतलब जिंदगी भर का साथ होता था। ऐसे परिवार में जन्मी थी वो बेख़ौफ़ कवियत्री जिसने अपनी जिंदगी में दो लोगों से प्यार किया जिनमे से एक मुस्लमान था। ज़ाहिर है की अमृता प्रीतम वो महिला थी जो अपने दौर से बहुत आगे थी। अमृता जब 16 साल की थीं, तो उनकी शादी प्रीतम सिंह से करवा दी गई। शादी के बाद वे अमृता कौर से अमृता प्रीतम बन गई। अमृता ने अपने पति का नाम तो अपनाया लेकिन वो उनकी अभिन्न अंग नहीं बन पाई। शायरी बनीं साहिर से मिलने की वजह वो बात 1944 की है जब इस कहानी के किरदार एक दूसरे से पहली बार मिले, जगह थी लाहौर और दिल्ली के बीच स्थित प्रीत नगर। साहिर जुनुनी और आदर्शवादी थे, अमृता बेहद दिलकश अपनी खूबसूरती में भी और अपनी लेखनी में भी। दोनों एक मुशायरे में शिरकत के लिए प्रीत नगर पहुंचे थे। मद्धम रोशनी वाले एक कमरे में दोनों मिले और बस प्यार हो गया। साहिर से मिलने के बाद अमृता ने उनके लिए एक कविता भी लिखी। 'अब रात गिरने लगी तो तू मिला है, तू भी उदास, चुप, शांत और अडोल। मैं भी उदास, चुप, शांत और अडोल। सिर्फ- दूर बहते समुद्र में तूफान है…' शायद उस समय की मोहब्बत ख़ामोशी से शुरू हुआ करती होगी, वैसे भी जहां इश्क़ ब्यां करने के लिए लफ़्ज़ों की ज़रूरत पड़े वो मोहब्बत कैसी। अमृता ने लिखा, "मुझे नहीं मालूम की वो साहिर के लफ्जो की जादूगरी थी, या उनकी खामोश नज़र का कमाल था, लेकिन कुछ तो था जिसने मुझे अपनी तरफ खींच लिया, आज जब उस रात को आँखें मूंद कर देखती हूँ तो ऐसा समझ आता है कि तकदीर ने मेरे दिल में इश्क़ का बीज डाला जिसे बारिश की फुहारों ने बढ़ा दिया, उस दिन बारिश हुई थी। आत्मकथाओं में लिखे मोहब्बत के किस्से साहिर और अमृता की प्रेम कहानी के अंश इन दोनों की आत्मकथाओं में मिलते है, अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में अमृता प्रीतम ने साहिर के साथ हुई मुलाकातों का जिक्र किया है। वो लिखती है कि, "वो खामोशी से सिगरेट जलाता और फिर आधी सिगरेट ही बुझा देता, फिर एक नई सिगरेट जला लेता। जब तक वो विदा लेता, कमरा सिगरेट की महक से भर जाता। मैं इन सिगरेटों को हिफाजत से उठाकर अलमारी में रख देती और जब कमरे में अकेली होती तो उन सिगरेटों को एक-एक करके पीती। मेरी उंगलियों में फंसी सिगरेट, ऐसा लगता कि मैं उसकी उंगलियों को छू रही हूं। मुझे धुएं में उसकी शक्ल दिखाई पड़ती। ऐसे मुझे सिगरेट पीने की लत पड़ी।" अमृता लिखती है यह आग की बात है तूने यह बात सुनाई है यही ज़िन्दगी की वहीं सिगरेट है जो तूने कभी सुलगायी थी चिंगारी तूने दी थी ये दिल सदा जलता रहा वक्त कलम पकड़ कर कोई हिसाब लिखता रहा ज़िन्दगी का अब गम नहीं इस आग को संभाल ले तेरे हाथ की खेर मांगती हूँ अब और सिगरेट जला ले। वैसे साहिर भी कुछ कम नहीं थे, साहिर की जिंदगी से जुड़ा एक किस्सा है। जब साहिर और संगीतकार जयदेव एक गाने पर काम कर रहे थे तो साहिर के घर पर एक जूठा कप उन्हें दिखा। उस कप को साफ करने की बात जब जयदेव ने कही तो साहिर ने कहा कि इसे छूना भी मत, अमृता जब आखिरी बार यहां आई थी तो इसी कप में चाय पी थी। अमृता प्रीतम और साहिर की मोहब्बत की राह में कई रोड़े थे, जिस समय अमृता साहिर से मिली वे विवाहित थी हालाँकि वे उस रिश्ते में कभी भी खुश नहीं रही और दूसरी तरफ साहिर लुधियानवी में किसी नए रिश्ते की चाह नहीं थी, लेकिन वो अमृता ही थीं जिसने साहिर के दिल में जगह बनाई। साहिर की जीवनी, साहिर: ए पीपुल्स पोइट, लिखने वाले अक्षय मानवानी कहते हैं कि अमृता वो इकलौती महिला थीं, जो साहिर को शादी के लिए मना सकती थीं। एक बार अमृता साहिर की माँ से मिलने दिल्ली आई थी, जब वे गई तो साहिर ने अपनी माँ से कहा था, 'वो अमृता प्रीतम थी वो आप की बहू बन सकती थी।' मगर साहिर ने ये बात कभी अमृता से नहीं की और शायद साहिर की ये चुप्पी ही थी जिसने अमृता के दिल में इमरोज़ के लिए जगह बनाई। कैसे मिले इमरोज़ अमृता इमरोज़ से 1958 में मिले, मिलते ही इमरोज़ को अमृता से इश्क़ हो गया। इमरोज़ एक चित्रकार थे साहिर और अमृता की मुलाकात तो यूं हीं संयोग से हो गई थी, लेकिन इमरोज़ से तो अमृता की मुलाकात करवाई गई थी। एक दोस्त ने दोनों को मिलवाया था। इमरोज़ ने तब अमृता का साथ दिया जब साहिर को कोई और मिल गया था। इमरोज़ के साथ अमृता ने अपनी जिंदगी के आखिरी 40 साल गुजारे, इमरोज़ अमृता की पेंटिंग भी बनाते और उनकी किताबों के कवर भी डिजाइन करते। इमरोज़ और अमृता एक छत के नीचे ज़रूर रहे मगर एक दूसरे के साथ नहीं। उनकी जिंदगी के ऊपर एक किताब भी है 'अमृता इमरोज़: एक प्रेम कहानी। एक ही छत के नीचे दो अलग कमरे इन दोनों का बसेरा बना। अपने एक लेख "मुझे फिर मिलेगी अमृता" में इमरोज़ लिखते है की कोई रिश्ता बांधने से नहीं बंधता न तो मैंने कभी अमृता से कहा कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ न कभी अमृता ने मुझसे। मैं तुम्हे फिर मिलूंगी कविता में शायद अमृता ने इमरोज़ के लिए यही लिखा था मैं तुझे फिर मिलूंगी कहां, कैसे पता नहीं शायद तेरी कल्पनाओं की प्रेरणा बन तेरे कैनवास पर उतरूंगी या तेरे कैनवस पर एक रहस्यमयी लकीर बन खामोश तुझे देखती रहूंगी मैं तुझे फिर मिलूंगी कहाँ, कैसे पता नहीं मैं तुझे फिर मिलूंगी। इमरोज़ अमृता से बेइन्तिहाँ मोहब्बत करते थे मगर अमृता के दिलो दिमाग पर साहिर का राज था। किस्सा तो यह भी है कि इमरोज के पीछे स्कूटर पर बैठी अमृता सफर के दौरान ख्यालों में गुम होतीं तो इमरोज की पीठ पर अंगुलियां फेरकर 'साहिर' लिख दिया करती थीं। ये मोहब्बत अधूरी रही और इस मोहब्बत के गवाह बने आधी जली सिगरेट के टुकड़े, चाय का झूठा प्याला और ढेर सारे खुतूत।
मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली या मात्र निदा फ़ाज़ली हिन्दी और उर्दू के अज़ीम शायर हैं। उन्होंने सीधी ज़ुबान के ज़रिए लोगों तक अपने कलाम पहुंचाए। न सिर्फ़ ग़ज़लें, नज़्में हीं बल्कि दोहे भी लिखे। हिंदी-उर्दू काव्य प्रेमियों के बीच अति लोकप्रिय और सम्मानित निदा फ़ाज़ली समकालीन उर्दू साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। उन्होंने बॉलीवुड को कभी न भूलने वाले ऐसे गाने और गज़ले दी जो आज भी लोग गुनगया करते है। उनके तमाम कलामों में से पेश हैं उनकी लिखी कुछ मशहूर गज़ले कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता इन्सान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी (पाकिस्तान से लौटने के बाद ) इन्सान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहाँ भी | खूँख्वार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं शहरों में बयाबान यहाँ भी है वहाँ भी | रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी | हिन्दू भी मज़े में हैमुसलमाँ भी मज़े में इन्सान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी | उठता* है दिलो-जाँ से धुआँ दोनों तरफ़ ही ये 'मीर' का दीवान यहाँ भी है वहाँ भी | दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है अच्छा-सा कोई मौसम तन्हा-सा कोई आलम हर वक़्त का रोना तो बेकार का रोना है बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है ये वक्त जो तेरा है, ये वक्त जो मेरा हर गाम पर पहरा है, फिर भी इसे खोना है आवारा मिज़ाजी ने फैला दिया आंगन को आकाश की चादर है धरती का बिछौना है अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं बेनाम-सा ये दर्द बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता सब कुछ तो है क्या ढूँढ़ती रहती हैं निगाहें क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता होश वालों को ख़बर क्या बेखुदी क्या चीज़ है होश वालों को ख़बर क्या बेखुदी क्या चीज़ है इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है उनसे नज़रें क्या मिलीं रोशन फ़िज़ाएं हो गईं आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है खुलती ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शायरी झुकती आँखों ने बताया मैकशी क्या चीज़ है हम लबों से कह न पाए उनसे हाल-ए-दिल कभी और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है
मुनव्वर राणा, उर्दू भाषा के मशहूर साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक कविता शाहदाबा के लिये उन्हें सन् 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय उनके बहुत से नजदीकी रिश्तेदार और पारिवारिक सदस्य देश छोड़कर पाकिस्तान चले गए। लेकिन साम्प्रदायिक तनाव के बावजूद मुनव्वर राना के पिता ने अपने देश में रहने को ही अपना कर्तव्य माना। राना ने ग़ज़लों के अलावा संस्मरण भी लिखे हैं। उनके लेखन की लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी रचनाओं का ऊर्दू के अलावा अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। प्रस्तुत है मुन्नवर राणा के लिखे कुछ बेहतरीन शेर : 1 तुम्हारी आँखों की तौहीन है ज़रा सोचो तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है 2 आप को चेहरे से भी बीमार होना चाहिए इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए 3 अपनी फजा से अपने जमानों से कट गया पत्थर खुदा हुआ तो चट्टानों से कट गया 4 बदन चुरा के न चल ऐ कयामते गुजरां किसी-किसी को तो हम आंख उठा के देखते हैं 5 झुक के मिलते हैं बुजुर्गों से हमारे बच्चे फूल पर बाग की मिट्टी का असर होता है 6 कोई दुख हो, कभी कहना नहीं पड़ता उससे वो जरूरत हो तलबगार से पहचानता है 7 एक क़िस्से की तरह वो तो मुझे भूल गया इक कहानी की तरह वो है मगर याद मुझे 8 भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है मोहब्बत करने वाला इस लिए बरबाद रहता है 9 हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं 10 अँधेरे और उजाले की कहानी सिर्फ़ इतनी है जहाँ महबूब रहता है वहीं महताब रहता है 11 किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई 12 मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता अब इस से ज़यादा मैं तेरा हो नहीं सकता 13 वो बिछड़ कर भी कहाँ मुझ से जुदा होता है रेत पर ओस से इक नाम लिखा होता है 14 मैं भुलाना भी नहीं चाहता इस को लेकिन मुस्तक़िल ज़ख़्म का रहना भी बुरा होता है 15 ये हिज्र का रस्ता है ढलानें नहीं होतीं सहरा में चराग़ों की दुकानें नहीं होतीं 16 नये कमरों में अब चीजें पुरानी कौन रखता है परिंदों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है 17 मोहाजिरो यही तारीख है मकानों की बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा 18 तुझसे बिछड़ा तो पसंद आ गयी बे-तरतीबी इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था 19 तुझे अकेले पढूँ कोई हम-सबक न रहे मैं चाहता हूँ कि तुझ पर किसी का हक न रहे 20 सिरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जां कहते हैं हम तो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं
भारत का एक ऐसा कवि जिसे सवतंत्रता के बाद राष्ट्र कवि की ख्याती प्राप्त हुई , ऐसा कवि जिसकी कविताओं में एक ओर ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति,एक ऐसा कवि जो साहित्य का वह सशक्त हस्ताक्षर हैं जिसकी कलम में दिनकर यानी सूर्य के समान चमक थी। हम बात कर रहे है राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की। दिनकर ने कुछ ऐसी कविताएं लिखी है जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे। रामधारी सिंह दिनकर केवल राष्ट्रकवि ही नहीं बल्कि जनकवि है। उनकी कविताएं हर वर्ग के व्यक्ति को मंत्रमुग्ध कर देती है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के बारे में एक कहानी है जिसका पुख्ता प्रमाण तो नहीं मिलता लेकिन ये कहानी अक्सर आपके कानों में कहीं न कहीं से आ ही जाती होगी। लाल किले पर एक कवि सम्मेलन हुआ था जिसकी अध्यक्षता ‘दिनकर’ कर रहे थे। इस सम्मेलन में उस वक़्त के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे। पंडित नेहरू सीढ़ियों से ऊपर चढ़ कर मंच की ओर बढ़ रहे थे कि तभी उनका पैर लड़खड़ा गया। देर होती इससे पहले दिनकर ने उन्हें पकड़ लिया। जब नेहरू मंच पर बैठने लगे तो उन्होंने दिनकर का शुक्रिया अदा किया। दिनकर ने हंसते हुए कहा कि “इसमें शुक्रिया की क्या बात है जब जब राजनीति लड़खड़ाई है उसे कविताओं ने ही सम्भाला है।” प्रस्तुत है उनकी लिखी एक ऐसी कविता जो भारत के सबसे बड़े आंदोलनों में से एक जे पी आंदोलन की आवाज़ बनी । सिंहासन खाली करो कि जनता आती है सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। जनता? हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम, "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" "सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?" 'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?" मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह,समय में ताव कहां? वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं। सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है, तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो। आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख, मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में? देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में। फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
भारत का एक ऐसा कवि जिसे सवतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि की ख्याती प्राप्त हुई , ऐसा कवि जिसकी कविताओं में एक ओर ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति, एक ऐसा कवि जो साहित्य का वह सशक्त हस्ताक्षर हैं जिसकी कलम में दिनकर यानी सूर्य के समान चमक थी। हम बात कर रहे है राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की। दिनकर ने कुछ ऐसी कविताएं लिखी है जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे। रामधारी सिंह दिनकर केवल राष्ट्रकवि ही नहीं बल्कि जनकवि है। उनकी कविताएं हर वर्ग के व्यक्ति को मंत्रमुग्ध कर देती है। प्रस्तुत है उनकी लिखी कुछ मशहूर कविताएं : समर शेष है ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो , किसने कहा, युद्ध की बेला चली गयी, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्रि के शर से, भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान। फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले! ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले! सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है, दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है। मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार, ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार। वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज? अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं गाँधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना सावधान! हो खड़ी देश भर में गाँधी की सेना बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध कलम आज उनकी जय बोलो जला अस्थियाँ बारी-बारी चिटकाई जिनमें चिंगारी, जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल कलम, आज उनकी जय बोल। जो अगणित लघु दीप हमारे तूफानों में एक किनारे, जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल कलम, आज उनकी जय बोल। पीकर जिनकी लाल शिखाएँ उगल रही सौ लपट दिशाएं, जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल कलम, आज उनकी जय बोल। अंधा चकाचौंध का मारा क्या जाने इतिहास बेचारा, साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल कलम, आज उनकी जय बोल। सिंहासन खाली करो की जनता आती है सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली । जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम, "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" "सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?" 'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?" मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में । लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ? वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है । अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं; यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं । सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है, तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो । आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख, मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ? देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में । फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, धूसरता सोने से शृँगार सजाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । कलम या कि तलवार दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली, दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे, और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे एक भेद है और वहां निर्भय होते नर -नारी, कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले, बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार, क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार रोटी और स्वाधीनता (1) आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ? मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ? आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं, पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं। (2) हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले, पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले। इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ? है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ? (3) झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ? आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ? है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी, बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।
मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के वो महान शायर जिनकी शायरी के बगैर हर मोहब्बत अधूरी है , वो शायर जिन्हे उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना गया है, वो शायर जिसे फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी दिया जाता है। ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता आज। पेश है मिर्ज़ा ग़ालिब की लिखी सबसे ज़ादा ख़ूबसूरत पंक्तियाँ : ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के हम रहें यूं तिश्ना-लब पैग़ाम के ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये हथकण्डे हैं चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम के ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के दिल को आंखों ने फंसाया क्या मगर ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेह्हत की ख़बर देखिए कब दिन फिरें हम्माम के इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के
अहमद फ़राज़, असली नाम सैयद अहमद शाह, एक ऐसे शायर जिनका जन्म पाकिस्तान के नौशेरां शहर में हुआ , एक ऐसे शायर जो आधुनिक उर्दू के सर्वश्रेष्ठ रचनाकारों में गिने जाते हैं, एक ऐसे शायर जिन्होंने मोहब्बत में छिपे दर्द को अपने शब्दों में कुछ ऐसे उकेरा की उनकी नज़्में ,उनकी गज़ले हर आशिक के हम सोहबत हो गए। आइये आपको पढ़ते है उनके लिखे कुछ उम्दा शेर : 1 सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं 2 रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ 3 अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो आँसू की जगह आँख से हसरत निकल आए 4 अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें 5 आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा 6 आज एक और बरस बीत गया उस के बग़ैर जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे 7 आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो 8 एक नफरत ही नहीं दुनिया में दर्द का सबब फ़राज़ मोहब्बत भी सकूँ वालों को बड़ी तकलीफ़ देती है 9 माना कि तुम गुफ़्तगू के फन में माहिर हो फ़राज़ वफ़ा के लफ्ज़ पे अटको तो हमें याद कर लेना 10 अपने ही होते हैं जो दिल पे वार करते हैं फ़राज़ वरना गैरों को क्या ख़बर की दिल की जगह कौन सी है. 11 उस शख्स से बस इतना सा ताल्लुक़ है फ़राज़ वो परेशां हो तो हमें नींद नहीं आती 12 बच न सका ख़ुदा भी मुहब्बत के तकाज़ों से फ़राज़ एक महबूब की खातिर सारा जहाँ बना डाला 13 इस तरह गौर से मत देख मेरा हाथ ऐ फ़राज़ इन लकीरों में हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं 14 वो रोज़ देखता है डूबे हुए सूरज को फ़राज़ काश मैं भी किसी शाम का मंज़र होता 15 वो बारिश में कोई सहारा ढूँढता है फ़राज़ ऐ बादल आज इतना बरस की मेरी बाँहों को वो सहारा बना ले 16 दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की फ़राज़ लोगों ने मेरे घर से रास्ते बना लिए 17 दोस्ती अपनी भी असर रखती है फ़राज़ बहुत याद आएँगे ज़रा भूल कर तो देखो 18 फुर्सत मिले तो कभी हमें भी याद कर लेना फ़राज़ बड़ी पुर रौनक होती हैं यादें हम फकीरों की 19 कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते 20 मोहब्बत के अंदाज़ जुदा होते हैं फ़राज़ किसी ने टूट के चाहा और कोई चाह के टूट गया 21 किस किस से मुहब्बत के वादे किये हैं तूने फ़राज़ हर रोज़ एक नया शख्स तेरा नाम पूछता है 22 मैं अपने दिल को ये बात कैसे समझाऊँ फ़राज़ कि किसी को चाहने से कोई अपना नहीं होता 23 कांच की तरह होते हैं गरीबों के दिल फ़राज़ कभी टूट जाते हैं तो कभी तोड़ दिए जाते हैं 24 मुझको मालूम नहीं हुस्न की तारीफ फ़राज़ मेरी नज़रों में हसीन वो है जो तुझ जैसा हो 25 ज़माने के सवालों को मैं हंस के टाल दूं फ़राज़ लेकिन नमी आंखों की कहती है 'मुझे तुम याद आते हो' 26 वहाँ से एक पानी की बूँद ना निकल सकी “फ़राज़” तमाम उम्र जिन आँखों को हम झील लिखते रहे 27 वो शख्स जो कहता था तू न मिला तो मर जाऊंगा “फ़राज़” वो आज भी जिंदा है यही बात किसी और से कहने के लिए 28 और 'फ़राज़' चाहिए कितनी मोहब्बतें तुझे मांओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया 29 वो बात बात पे देता है परिंदों की मिसाल साफ़ साफ़ नहीं कहता मेरा शहर ही छोड़ दो 30 तुम्हारी एक निगाह से कतल होते हैं लोग फ़राज़ एक नज़र हम को भी देख लो के तुम बिन ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर ख़ुसरो, खड़ी बोली हिंदी के वो पहले कवि जिन्होंने अपनी लेखनी से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया । वे दिल्ली के रहने वाले एक प्रमुख कवि, शायर, गायक और संगीतकार थे, जिनके लिखे सूफियाना दोहे आज तक गुनगुनाए जाते है । अमीर खुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है I वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फारसी में एक साथ लिखा I वे अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए भी जाने जाते हैं। वे फारसी के कवि भी थे। उनको दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला हुआ था। उनके ग्रंथो की सूची लम्बी है। साथ ही इनका इतिहास स्रोत रूप में महत्त्व है। अमीर खुसरो को हिन्द का तोता कहा जाता है। पढ़िए अमीर खुसरो के वो दोहे जिन्हे आज भी याद किआ जाता है खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग। तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग।। खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग। जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।। खीर पकायी जतन से, चरखा दिया जला। आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा।। गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस। चल खुसरो घर आपने, सांझ भयी चहु देस।। अंगना तो परबत भयो, देहरी भई विदेस। जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस।। खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार। जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।। साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन। दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन।। खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन। कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन।। संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत। वे नर ऐसे जाऐंगे, जैसे रणरेही का खेत।। खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय। वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।। अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई। जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।। रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन। तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।। नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय। पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।। रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ। जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।। उज्जवल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान। देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।। खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय। पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।। चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय। ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।। देख मैं अपने हाल को रोऊं, ज़ार-ओ-ज़ार। वै गुनवन्ता बहुत है, हम हैं औगुन हार।। वो गए बालम वो गए नदिया पार। आपे पार उतर गए, हम तो रहे मझधार।।
अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर ख़ुसरो, खड़ी बोली हिंदी के वो पहले कवि जिन्होंने अपनी लेखनी से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया । वे दिल्ली के निकट रहने वाले एक प्रमुख कवि, शायर, गायक और संगीतकार थे, जिनके लिखे सूफियाना दोहे आज तक गुनगुनाए जाते है । अमीर खुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है I "छाप तिलक सब छीनी" उनकी सबसे प्रसिद्द कविताओं में से एक कविता है जो ब्रजभाषा में लिखी गई थी। इसे अक्सर क़व्वाली की तरह गाया जाता है। भारतीय उपमहाद्वीप के मशहूर गायकों ने ये गाना गाया जैसे नुसरत फ़तेह अली ख़ान, फ़रीद अयाज़, नाहीद अख़्तर, मेहनाज़ बेग़म, आबिदा परवीन इक़बाल हुसैन ख़ान, उस्ताद विलायत ख़ान, उस्तान शुजात ख़ान, ज़िला ख़ान, हदीक़ा कियानी और उस्ताद राहत फ़तेह अली खान। छाप तिलक सब छीनी रे, मोसे नैना मिलाइके प्रेम भटी का मदवा पिलाइके मतवारी कर लीन्ही रे, मोसे नैना मिलाइके गोरी गोरी बइयां, हरी हरी चूड़ियां बईयां पकड़ धर लीन्ही रे, मोसे नैना मिलाइके बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रेजवा अपनी सी रंग दीन्ही रे, मोसे नैना मिलाइके ख़ुसरो निजाम के बल-बल जाए मोहे सुहागन कीन्ही रे, मोसे नैना मिलाइके छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के वो महान शायर जिनकी शायरी के बगैर हर मोहब्बत अधूरी है , वो शायर जिन्हे उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना गया है, वो शायर जिसे फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी दिया जाता है। ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता आज। जानिए मिरज़ा ग़ालिब के वो कोनसे 15 शेर है जो आज भी लोगों के दिलों में बेस हुए है। 1 उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है 2 वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं 3 हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले 4 रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है 5 इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना 6 आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक 7 बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे 8 क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन 9 मेहरबान होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक्त में गया वक्त नहीं हूँ की फिर आ भी न सकूँ 10 कितना खौफ होता है रात के अंधेरों में पूछ उन परिंदो से जिनके घर नहीं होते 11 इस सादगी पे कौन न मर जाये ऐ खुदा लड़ते है और हाथ में तलवार भी नहीं 12 इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के 13 मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का उसी को देखकर जीते है जिस काफिर पे दम निकले 14 हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है 15 यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं, अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो