दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बड़ा ऐलान कर दिया है. उन्होंने अगले दो दिन में सीएम के पद से इस्तीफा देने की घोषणा की है. उन्होंने कहा कि अगले दो दिन में विधायक दल की बैठक होगी और नए मुख्यमंत्री का चयन किया जाएगा. अगला सीएम भी आम आदमी पार्टी से ही कोई होगा. सीएम अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं और जनता को संबोधित करते हुए कहा, "जब तक जनता की अदालत में जीत नहीं जाता हूं, तब तक मैं सीएम नहीं बनूंगा. मैं चाहता हूं कि दिल्ली का चुनाव नवंबर में हो. जनता वोट देकर जिताए, उसके बाद मैं सीएम की कुर्सी पर बैठूंगा." 'ना झुकेंगे ना रुकेंगे और ना बिकेंगे'- CM केजरीवाल आप कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा, "जनता के आशीर्वाद से बीजेपी के सारे षड्यंत्र का मुकाबला करने की ताकत रखते हैं. बीजेपी के आगे हम ना झुकेंगे, ना रुकेंगे और ना बिकेंगे. आज दिल्ली के लिए कितना कुछ कर पाए क्योंकि हम ईमानदार हैं. आज ये (बीजेपी) हमारी ईमानदारी से डरते हैं क्योंकि ये ईमानदार नहीं है." मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आगे कहा, "मैं 'पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा' इस खेल का हिस्सा बनने नहीं आया था. दो दिन बाद मैं CM पद से इस्तीफा दे दूंगा. कानून की अदालत से मुझे इंसाफ मिला, अब जनता की अदालत मुझे इंसाफ देगी." 'हमारे बड़े-बड़े दुश्मन हैं' सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा कि उन्हें वॉर्निंग दी गई कि अगर दूसरी बार लेटर लिखा तो जेल में फैमिली से मुलाकत बंद कर दी जाएगी. सीएम ने कहा, "हमारे बड़े-बड़े दुश्मन हैं. सत्येंद्र जैन और अमानतुल्ला खान भी जल्द बाहर आएंगे. हम लोगों के ऊपर भगवान भोलेनाथ का हाथ है, उनका आशीर्वाद साथ रहता है." अरविंद केजरीवाल ने कहा कि वे जनता के बीच जाएंगे औऱ जनता की अदालत उनके मुख्यमंत्री होने या न होने का फैसला करेगी। आम आदमी पार्टी की रैली को संबोधित करते हुए केजरीवाल ने कहा कि वे जनता के बीच जाएंगे। वे जनता से पूछेंगे कि आप मुझे ईमानदार मानते हो भ्रष्ट। जनता के फैसले के बाद ही वे आगे कोई निर्णय करेंगे।
**संशोधन कर सभी 6 पूर्व कांग्रेसी विधायकों की मौजूदा टर्म की पेंशन बंद करने की कवायद में जुटी सरकार **बगैर पेंशन रह जायेंगे एक बार के विधायक चैतन्य और देवेंद्र भुट्टो मुख़ालिफ़त से मिरी शख़्सियत सँवरती है मैं दुश्मनों का बड़ा एहतिराम करता हूँ 6 पूर्व कांग्रेसी विधायकों की मुखालफत के बावजूद सरकार बचाकर सीएम सुक्खू ने अपनी शख़्सियत तो संवार ली लेकिन इन नेताओं पर कोई एहतिराम करने का उनका इरादा नहीं है. तथाकथित मिशन लोटस के तहत सरकार गिराने की साजिश की जांच से तो उक्त सभी 6 और तीन पूर्व निर्दलीय विधयक गुजर ही रहे है, मगर अब सुक्खू सरकार ने कांग्रेस के 6 पूर्व विधयाकों की पेंशन बंदी की तैयारी भी कर ली है. दरअसल, मंगलवार को सदन में विधानसभा सदस्यों के भत्ते एवं पेंशन अधिनियम 1971 में संशोधन का प्रावधान लाया गया और आज संभवतः ये पास भी हो जाएगा. 68 सदस्यों वाली हिमाचल विधानसभा में कांग्रेस के 40 विधायक है, ऐसे में इस संशोधन बिल को पास करने में सत्तारूढ़ दल को कोई परेशानी नहीं होगी. फिर मंजूरी के लिए इसे राज्यपाल के पास भेजा जायेगा और उनकी मंजूरी मिलते ही ये कानून का रूप ले लेगा. अयोग्य घोषित विधायकों की पेंशन बंद करने का यह देश में ऐसा पहला कानून होगा. दरअसल, राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के 6 पूर्व विधायकों ने क्रॉस वोट किया था, जिसके चलते बहुमत होने के बावजूद सत्तारूढ़ कांग्रेस के प्रत्याशी अभिषेक मनु सिंघवी चुनाव हार गए थे. सुक्खू सरकार की जमकर किरकिरी तो हुई ही थी, सरकार पर भी संकट मंडराने लगा था. क्रॉस वोट के बाद इन 6 विधायकों पर पार्टी व्हिप के उल्लंघन के आरोप भी लगे और विधानसभा अध्यक्ष ने इन्हे संविधान की अनुसूची 10 के तहत अयोग्य घोषित कर दिया. उक्त सभी 6 विधायक फिर विधिवत रूप से भाजपाई हो गए और उपचुनाव में भाजपा का टिकट भी ले आएं. किन्तु इनमें से सिर्फ दो, सुधीर शर्मा और इंद्र दत्त लखनपाल ही वापस जीतकर विधानसभा पहुंचे. राजेंद्र राणा, रवि ठाकुर , देवन्द्र भुट्टो और चैतन्य शर्मा चुनाव हार गए. अब सुक्खू सरकार मन बना चुकी है कि विधानसभा सदस्यों के भत्ते एवं पेंशन अधिनियम में संशोधन कर इन सभी 6 विधायकों की मौजूदा टर्म की न सिर्फ पेंशन बंद कर दी जाएँ बल्कि इन के द्वारा अब तक ली गई रकम की रिकवरी भी हो. ऐसे में 2022 में पहली बारे चुने गए चैतन्य शर्मा और देवन्द्र भुट्टों की पेंशन बंद हो जाएगी, जबकि अन्य चार पूर्व कांग्रेसी विधायकों की मौजूदा टर्म की पेंशन बंद होगी. वहीँ, तीन अन्य पूर्व निर्दलीय विधायक इसके दायरे में नहीं आएंगे.
**विधानसभा अध्यक्ष ने तीनों के इस्तीफे किए स्वीकार हिमाचल प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष कुलदीप सिंह पठानिया ने तीन निर्दलीय विधायकों होशियार सिंह, केएल ठाकुर और आशीष शर्मा के इस्तीफे स्वीकार कर दिए हैं। सोमवार को पत्रकारों से बातचीत में विधानसभा अध्यक्ष ने इसकी जानकारी दी। पठानिया ने कहा कि होशियार सिंह, केएल ठाकुर और आशीष शर्मा से ने 22 मार्च को विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था। 23 मार्च को तीनों भाजपा में शामिल हो गए थे। इस संबंध में दल-बदल विरोधी कानून तहत जगत नेगी की याचिका मिली थी और विधानसभा ने भी अपनी ओर से जांच की। जांच के बाद अब तीनों के इस्तीफे स्वीकार कर दिए हैं और आज से तीनों विधानसभा के सदस्य नहीं रहे। पठानिया ने कहा कि हालांकि, दल-बदल विरोधी कानून के तहत मिली याचिका की अंतिम सुनवाई अभी होनी है। उधर, निर्दलियों के इस्तीफे स्वीकार होने के बाद खाली हुई देहरा, नालागढ़ और हमीरपुर विधानसभा सीटों पर उपचुनाव का रास्ता भी साफ हो गया है।
हिमाचल हाईकोर्ट में आज सरकार को गिराने के लिए षड़यंत्र रचने के केस में सुनवाई हुई। इस दौरान हाईकोर्ट ने गगरेट से कांग्रेस के बागी विधायक चैतन्य शर्मा के पिता राकेश शर्मा और हमीरपुर से इंडिपेंडेंट MLA आशीष शर्मा की अग्रिम जमानत 26 अप्रैल तक बढ़ा दी है। राकेश शर्मा और आशीष शर्मा ने केस को वापस लेने के लिए भी याचिका दायर की है। कोर्ट ने आशीष शर्मा और राकेश शर्मा की पिटीशन का सरकार से भी 26 अप्रैल तक जवाब मांगा है। बता दें कि कांग्रेस के बागी पूर्व MLA चैतन्य शर्मा के पिता उत्तराखंड सरकार से रिटायर मुख्य सचिव है। कांग्रेस विधायक संजय अवस्थी और भुवनेश्वर गौड़ ने बालूगंज थाना में एफआईआर कराई है। इसमें आशीष शर्मा और राकेश शर्मा पर सरकार गिराने के लिए षड़यंत्र रचने का आरोप है। इसी मामले में दोनों ने हिमाचल हाईकोर्ट से अग्रिम जमानत ले रखी है। आज इनकी अग्रिम जमानत 26 अप्रैल तक बढ़ाई गई है। इन पर आरोप है कि इन्होंने राज्यसभा चुनाव में सरकार गिरने के लिए षड्यंत्र रचा और विधायकों की खरीद-फरोख्त भी की। आशीष शर्मा और राकेश शर्मा पर करोड़ों रुपए के लेन-देन के आरोप लगाए हैं हालांकि अब तक ये आरोप साबित नहीं हो पाए है ।
कहा, 4 फरवरी तक होंगे 'गांव चलो अभियान' के तहत कार्यक्रम लोकसभा चुनावों को लेकर कार्यकर्ताओं को दिए चुनावी टिप्स प्रदेश भर के 7 हजार 990 पोलिंग बूथों पर पार्टी नेतृत्व पहुंचाने का काम करेगी बीजेपी प्रदेश में भाजपा ने लोकसभा चुनावों को लेकर तैयारियां करना शुरू कर दी हैं। इसी को लेकर पार्टी पदाधिकारियों को चुनावों के लिए टिप्स देने के लिए हमीरपुर में प्रदेश किसान मोर्चा पदाधिकारियों की बैठक का आयोजन किया गया। जिसमें भाजपा के द्वारा गांव चलो अभियान के तहत जनसंपर्क करने के लिए रणनीति बनाई गई। बैठक के दौरान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ. राजीव बिंदल ने शिरकत की। इस अवसर पर भाजपा पार्टी के मंडल अध्यक्ष, किसान मोर्चा के पदाधिकारी, पन्ना प्रमुखों के द्वारा ठोस रणनीति बनाई जा रही है। उक्त अभियान 4 फरवरी तक पूरे प्रदेश भर में पार्टी के द्वारा चलाया जा रहा है। बिंदल ने कहा कि प्रदेश भर के सभी बूथों पर पार्टी का नेतृत्व पहुंचे। इसी के चलते भाजपा गांव चलो अभियान शुरू किया है। जिसके तहत प्रदेश भर के सात हजार 990 पोलिंग बूथों पर पार्टी नेतृत्व पहुंचने के लिए काम किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि 4 फरवरी तक प्रदेश भर में अभियान के तहत बैठकों का आयोजन किया जा रहा है। बिंदल ने कांग्रेस सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि कांग्रेस के मंत्री झूठ बोलते हैं और प्रदेश में कांग्रेस सरकार का 13 माह का कार्यकाल पूरी तरह से विफल रहा है। उन्होंने कहा कि एक भी काम प्रदेश सरकार ने जनहितैषी नहीं किया है और अपनी नालायकी की ठीकरा केंद सरकार पर फोड़ने में लगे हुए हैं। बिंदल ने कहा कि कांग्रेस सरकार झूठों की सरकार है और केंद्र से पैसों को लेने का हिसाब तक नहीं देते हैं। बिंदल ने पूछा कि आपदा के दौरान कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व कहां रहा है, वहीं बीजेपी के कई बड़े नेता हिमाचल आए हैं और अरबों करोड़ रुपये हिमाचल को दिए हैं। बिंदल ने कहा कि जेडीयू भाजपा का नेचुरल एलायड है और नितीश कुमार भााजपा के साथ अटल के समय से जुड़े हुए हैं । उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी ही भविष्य में देश को संभाल सकते हैं, ऐसे दृष्टिकोण से नीतीश कुमार फिर से भाजपा के साथ हैं ।
अयोध्या के राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम से कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने दूरी बनाई है। कांग्रेस का राम मंदिर में न जाने को लेकर कहना है कि यह चुनावी, राजनीतिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस का कार्यक्रम है। कांग्रेस का कहना है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी ने 22 जनवरी के कार्यक्रम को पूरी तरह से राजनीतिक और 'नरेंद्र मोदी फंक्शन' बना दिया है। यह चुनावी कार्यक्रम है और इसके जरिए चुनावी माहौल तैयार किया जा रहा है। जाहिर है राजनैतिक चश्मे से देखे तो राम मंदिर निर्माण का श्रेय बीजेपी को जाता है और बीजेपी भी इस भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। उधर, कांग्रेस को कहीं न कहीं अंदाजा है कि लोगों में दिख रहा उत्साह अगर वोट में तब्दील हुआ तो उसकी राह मुश्किल होगी। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस के पास फिलहाल कोई चारा नहीं है। हालांकि माहिर मान रहे है कि 22 जनवरी के बाद विपक्ष के कई बड़े चेहरे अयोध्या में शीश नवाते दिखेंगे। विदित रहे कि कांग्रेस सांसद और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के साथ-साथ सोनिया गांधी को भी राम मंदिर आने का न्योता दिया गया था। इसके साथ-साथ लोकसभा सांसद अधीर रंजन चौधरी को भी बुलावा भेजा गया था। हालांकि, तीनों ने समारोह में नहीं जाने का फैसला लिया है। कांग्रेस ने भाजपा पर इस समारोह को राजनीतिक रंग देने के आरोप लगाए हैं। पार्टी ने मुहूर्त पर सवाल खड़ा करने वाले शंकराचार्य के बयान को आधार बनाकर 22 जनवरी को होने वाली प्राण प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े किए हैं। पार्टी का कहना है कि समारोह राष्ट्रीय एकजुटता के लिए होना चाहिए। अयोध्या न जाने का फैसला लेने वाले कद्दावर नेताओं में शरद पवार का नाम भी शामिल है। उन्होंने कहा है कि 22 जनवरी के समारोह में अयोध्या में काफी भीड़ होगी। ऐसे में वे मंदिर निर्माण पूरा होने के बाद रामलला के दर्शन करेंगे। सपा चीफ अखिलेश यादव और दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल भी आयोजन में शामिल नहीं हो आरहे हैं। पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव भी आयोजन में न जाने का निर्णय लिया हैं। इनके अलावा वाम दल के महासचिव सीताराम येचुरी सहित कई लेफ्ट के नेताओं ने भी आयोजन से दूरी बनाई है। बीजेपी का तंज, कहीं जनता फिर कांग्रेस का बहिष्कार न कर दें ! केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का कहना हैं कि, " कांग्रेस ने नए संसद भवन और प्रधानमंत्री के संबोधन का बहिष्कार किया और लोगों ने उनका बहिष्कार कर दिया। अब उन्हें लगता है कि वे प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार कर सकते हैं लेकिन हो सकता है कि लोग उनका फिर से बहिष्कार कर दें। कांग्रेस और उसके गठबंधन सहयोगियों ने भगवान राम के अस्तित्व को नकारने और हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। विपक्ष के नेता बयान दे रहे हैं और प्राण प्रतिष्ठा समारोह से दूरी बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें भगवान राम के सामने आखिरकार आत्मसमर्पण करना होगा। कई कांग्रेस नेता पूर्व पार्टी प्रमुख राहुल गांधी की बात नहीं मान रहे और अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल हो रहे हैं।"
2024 के चुनावी भवसागर को पार करने के लिए भाजपा राम नाम की नौका पर सवार दिख रही है। भाजपा के सियासी उदय में राम नाम सदा साहरा रहा है। राम नाम लेकर ही भारतीय जनता पार्टी फर्श से अर्श तक पहुंच गई। 1984 में भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा था और महज 2 सीटों पर सिमट गई थी। वहीँ भाजपा आज देश की 300 से ज्यादा लोकसभा सीटों पर राज करती है। अब लोकसभा चुनाव दस्तक दे चुके है और इस बीच अयोध्या में श्री राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठता के चलते देश में राम लहर चली है और माहिर मान रहे है भाजपा को इसका सियासी लाभ होना तय है। यूँ तो भाजपा 1986 में लालकृष्ण आडवाणी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद से ही हिन्दुत्त्व और राममंदिर के मुद्दे पर आक्रमक हो गई थी लेकिन औपचारिक तौर पर पार्टी ने राममंदिर बनाने का संकल्प लिया 1989 में हुई पालमपुर की राष्ट्रीय कार्यसमिति बैठक में। इन 35 सालों में भगवा दल ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सर्वविदित है कि भारतीय जनता पार्टी के अतीत का संघर्ष लंबा है, जिसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जनसंघ से लेकर अटल बिहारी वाजपाई और लालकृष्ण आडवाणी का संघर्ष रहा है। शून्य से शिखर तक पहुंचने वाली भाजपा का सियासी सफर काफी कठिनाइयों वाला रहा है, लेकिन हर बार भाजपा के लिए राम नाम एक सहारा बना है। जाहिर है मौजूदा वक्त में भी राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठता आयोजन ने देश का सियासी माहौल भी प्रभावित किया है। देश राम रंग में सराबोर हैं और राजनैतिक चश्मे से देखे तो भाजपा भी इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। दरअसल, ये गलत भी नहीं है क्यों कि राजनैतिक फ्रंट पर राम मंदिर निर्माण के संघर्ष की अगुआई भी भाजपा ने ही की है, सो श्रेय लेना राजनैतिक लिहाज से गलत भी नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा 'हिंदू नवजागरण काल' को एक बड़े मुद्दे के रूप में पेश करेगी और राम मंदिर इसका प्रतीक बनेगा। अब इसका कितना लाभ चुनाव में भाजपा को मिलेगा ये तो नतीजे तय करेंगे, पर निसंदेह राम मंदिर के जरिये बीजेपी ने देश के 80 प्रतिशत मतदाताओं को प्रभावित जरूर किया है। दो वादे पुरे, समान नागरिक सहिंता शेष भाजपा के तीन बड़े लक्ष्य रहे है, धारा 370 हटाना, राम मंदिर बनाना और समान नागरिक सहिंता लागू करना। ये कहना गलत नहीं होगा कि इन्हीं तीन वादों की बिसात पर भाजपा का काडर मजबूत हुआ। पार्टी ने हमेशा इन तीन विषयों पर खुलकर अपना पक्ष भी रखा और अपना वादा भी दोहराया। इनमें से भाजपा दो वादे पुरे कर चुकी है, कश्मीर से धारा 370 हटाई जा चुकी है और अब राम मंदिर का निर्माण भी हो गया है। अब सिर्फ समान नागरिक सहिंता लागू करने का भाजपा का वादा अधूरा है और पार्टी इसे लागू करने की प्रतिबद्धता दोहरा रही है। 400 सीट जीतने का लक्ष्य भाजपा को उम्मीद है कि राम लहर के बीच वो आगामी चुनाव में 400 सीट का लक्ष्य हासिल करेगी। पार्टी राम मंदिर के अलावा लाभार्थी वोट और महिला आरक्षण की बिसात पर ऐतिहासिक बहुमत हासिल करना चाहती है। हालहीं में हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा को हिंदुत्व एजेंडा का लाभ मिला है जिसके बाद पार्टी का जोश हाई है।
90 साल के शांता कुमार को याद है एक -एक बात बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद एक विधायक ले आया था ईंट का टुकड़ा ! अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए बीजेपी ने पोलिटिकल फ्रंट पर लम्बी लड़ाई लड़ी है। यूँ तो 1986 में लाल कृष्ण आडवाणी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद से ही बीजेपी राम मंदिर आंदोलन में कूद पड़ी थी लेकिन राम मंदिर बनाने का प्रस्ताव बीजेपी ने पास किया था जून 1989 में और जगह थी पालमपुर। उस वक्त बीजेपी राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक पालमपुर में हुई और मेजबानी की तब के प्रदेश अध्यक्ष शांता कुमार ने। इसके बाद राम मंदिर निर्माण भाजपा की प्रतिबद्धता बना गया और आंदोलन को राजनैतिक ताकत मिल गई। बीजेपी के इस संकल्प का पालमपुर साक्षी है और आज 35 साल बीत जाने के बाद भी 90 वर्षीय शांता कुमार को राम मंदिर निर्माण के इस अहम पड़ाव की हर बात बखूबी याद है। उस वक्त बीजेपी राष्ट्रीय कार्यसमिति में 100 से अधिक सदस्य थे, कांगड़ा में हवाई कनेक्टिविटी नहीं थी, पालमपुर भी आज की माफिक सुविधाएँ भी नहीं थी। नेताओं को पठानकोट से पालमपुर लाया गया, उनके रहने सहित अन्य सभी आवश्यक प्रबंध किये गए। आखिरकार कार्यसमिति की बैठक में राममंदिर बनाने का संकल्प लिया गया और पालमपुर बीजेपी के उस ऐतिहासिक निर्णय का साक्षी बना। दिलचस्प बात ये है कि तब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और सीएम थे वीरभद्र सिंह। शांता कुमार कहते है कि जब पार्टी आलाकमान ने पालमपुर में राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक आयोजित करने की बात कही तो एक बार तो उन्हें लगा कि ये कैसे होगा। पर फिर ठान लिया और हो गया। उन्होंने तब वीरभद्र सिंह से बात की और वीरभद्र सिंह ने पूर्ण सहयोग का वादा किया और निभाया भी। जून 1989 में पालमपुर में हुई बीजेपी राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में राममंदिर निर्माण का प्रस्ताव पास हुआ था। तब बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने बैठक में राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव रखा था। स्वाभाविक है बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं में इस विषय को लेकर पहले ही एकराय बन चुकी थी। उस बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी ने सबसे पहले आडवाणी एक प्रस्ताव का समर्थन किया था। शांता कुमार बताते है कि तब अटल बिहारी वाजपेयी खड़े हुए और सबके पहले आडवाणी के प्रस्ताव का समर्थन किया। इसके बाद अटल जी ने कहा " इससे बड़ा दुर्भाग्य कोई नहीं हो सकता कि प्रभु श्री राम का मंदिर 500 साल से नहीं बन सका। अब इस काम का जिम्मा भारतीय जनता पार्टी ने उठाया है और हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक मंदिर नहीं बन जाता। " 1989 में पालमपुर में बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा है। दरअसल बैठक में हिस्सा लेने ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया भी पहुंची थी। राजमाता तब पालमपुर के सेशंस हाउस में ठहरी थी। इस बीच 4 जून 1989 को रविवार था। राजमाता सिंधिया ने बीजेपी के एक कार्यकर्त्ता से पूछा कि क्या यहाँ टीवी नहीं है क्या ? जवाब मिला, "नहीं"? फिर उनका अगला सवाल था कि क्या शांता कुमार जी के घर होगा ? जवाब आया, "हाँ"। राजमाता ने कहा कि फिर चलो शांता कुमार जी के घर, मुझे महाभारत देखनी है। इसके बाद वे पैदल ही शांता कुमार के घर पहुंची और वहां महाभारत का एपिसोड देखा। तब शांता कुमार कुमार के घर में ही तमाम दिग्गज नेताओं के लिए कांगड़ी धाम का आयोजन किया गया था , वो भी कांगड़ी अंदाज में। 1990 के दशक की शुरुआत में देश में राम जन्मभूमि आंदोलन चरम पर था। लाखों कारसेवक अयोध्या पहुंचे थे। हिमाचल प्रदेश में शांता कुमार प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बना चुके थे और हिमाचल से भी काफी संख्या में कारसेवक अयोध्या पहुंचे। शांता कुमार कुमार बताते है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिमाचल के एक विधायक ईंटे का टुकड़ा लेकर आएं थे। बहरहाल , करोड़ों राम भक्तों का इन्तजार खतम हो गया है। श्री राम का वनवास खत्म हो गया है। राम जन्भूमि आंदोलन में पालमपुर में बीजेपी कार्यसमिति की बैठक एक अहम पड़ाव है। पालमपुर भी उत्सव के लिए तैयार है। 22 जनवरी के दिन पालमपुर नगरी भी अयोध्या होगी।
तीनों दिग्गजों को नहीं मिला है कोई अहम जिम्मा तीनों का रुख साफ, सभी को कद के मुताबिक मिले पद सुधीर शर्मा, राजेंद्र राणा और कुलदीप राठौर...हिमाचल प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस के तीन विधायक, तीनों दिग्गज और तीनों हाशिये पर। सत्ता मिलने से पहले तीनों का मंत्रिपद मानो तय था, पर सियासत की फितरत ही कुछ ऐसी होती है, जो लगता है वो होता नहीं। सत्ता तो आई पर समीकरण कुछ यूँ बने और उलझे कि ये तीनों दिग्गज भी उलझ कर रह गए। इन तीनों का असंतोष भी सामने आता रहा है, किसी का मीडिया बयानों में, किसी का सोशल मीडिया पर तो किसी का इशारों-इशारों में। दिलचस्प बात ये है कि इनका असंतोष तो कांग्रेस के लिए चिंता का सबब है ही, इनकी खमोशी भी पार्टी को असहज करने वाली है। इनके कदम सुक्खू सरकार की चाल से नहीं मिले तो लोकसभा चुनाव में भी इसका खामियाजा तय मानिये। बहरहाल अंदर की खबर ये है कि इन तीनों नेताओं को साधने के लिए दिल्ली में विशेष रूप से मंथन हुआ है। हालांकि तीनों का रुख साफ है, कद के मुताबिक पद मिले। बहरहाल इन तीनों ही नेताओं को भले ही अब तक सत्ता में कोई अहम जिम्मा या भागीदारी न मिली हो, लेकिन सच ये है कि इन्हें दरकिनार भी नहीं किया जा सकता। कम से कम पार्टी आलाकमान ये जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं दीखता। माहिर मानते है कि ऐसे में मुमकिन है कि बीच का कोई रास्ता निकाल कर पार्टी आलाकमान संभावित डैमेज को कण्ट्रोल करने हेतु हस्तक्षेप करें। चार बार के विधायक और पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा जिला कांगड़ा में पार्टी का बड़ा चेहरा है। पूर्व की वीरभद्र सरकार में सुधीर मंत्री थे और उन्हें वीरभद्र सिंह का सबसे करीबी माना जाता था। कहते है तब उनकी रज़ा में ही वीरभद्र सिंह की रज़ा होती थी। ये सुधीर का ही सियासी बल था कि तब चाहे नगर निगम की लड़ाई हो, स्मार्ट सिटी या फिर धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने का निर्णय, धर्मशाला हर जगह बाजी मार गया। तब कुछ माहिर तो उन्हें कांग्रेस में वीरभद्र सिंह का उत्तराधिकारी भी कहने लगे थे। फिर सियासी गृह चाल कुछ यूँ बदली कि पंडित जी अलग थलग से हो गए। बीते दिनों देर रात सीएम सुक्खू, सुधीर से मिलने उनके घर पहुंचे थे, जिसके बाद कयास लग रहे है कि उन्हें कोई अहम ज़िम्मा मिल सकता है। इसमें पीसीसी चीफ का पद भी शामिल है। हालांकि एक खबर ये भी है कि आलाकमान के दरबार में उन्हें लोकसभा चुनाव लड़वाने की पैरवी की जा रही है। कहा जा रहा है की सुधीर ही सबसे मजबूत चेहरा है। अब आलाकमान सुधीर को चुनाव लड़ने का फरमान सुनाता है या प्रदेश में सुधीर के कद मुताबिक भूमिका उनके लिए तैयार की जाती है, ये देखना रोचक होगा। राजेंद्र राणा वो नेता है जिन्होंने 2017 में भाजपा के सीएम कैंडिडेट को हराया था। 2022 में भी धूमल परिवार ने पूरी ताकत झोंकी लेकिन राणा जीतने में कामयाब रहे। बावजूद इसके राणा को अब तक उचित सियासी अधिमान नहीं मिला है। कहने को वे कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष भी है लेकिन संगठन में भी उनकी भूमिका क्या और कितनी है, ये सर्वविदित है। हालांकि वे हौली लॉज के करीबी है और वो ही पहले ऐसे बड़े नेता थे जिन्होंने खुलकर प्रतिभा सिंह को सीएम बनाने की वकालत की थी। बहरहाल अब राणा की कैबिनेट में एंट्री की सम्भावना न के बराबर है। हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से सीएम, डिप्टी सीएम और एक मंत्री राजेश धर्माणी है और यहाँ से एक और एंट्री मुश्किल होगी। ऐसे में राणा को कहाँ और कैसे एडजस्ट किया जाता है, ये देखना दिलचस्प होगा। वहीँ खबर ये है कि आलकमान के समक्ष सुधीर की तरह ही राणा को भी लोकसभा चुनाव के लिए दमदार बताया जा रहा है। हालांकि राणा की रूचि इसमें नहीं दिखती। कुलदीप राठौर पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष है और आलाकमान के करीबी भी है। राठौर वो नेता है जो खुलकर कहते रहे है कि सत्ता दिलवाने वालों की उपेक्षा हो रही है। जिला शिमला से ही तीन मंत्री है, ऐसे में राठौर का ठौर भी जाहिर है कैबिनेट में नहीं होगा। पर राठौर की बेबाकी और स्पष्टवादिता प्रदेश सरकार को असजह जरूर करती रही है। बताया जा रहा है की राठौर भी आलाकमान के समक्ष अपनी बात रख चुके है और अब निर्णय आलाकमान को लेना है। सिर्फ एक रिक्त पद, ठाकुर भी दावेदार ! सुक्खू कैबिनेट में एक पद खाली है और इन तीन नेताओं के साथ -साथ कुल्लू विधायक सूंदर सिंह ठाकुर भी दावेदार है। मंडी संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक मंत्री है और ऐसे में क्षेत्रीय संतुलन के लिहाज से सूंदर ठाकुर का दावा भी मजबूत है। हालांकि सूंदर ठाकुर को सीपीएस बनाया गया था लेकिन ये पद कब तक रहेगा, ये कोर्ट ने तय करना है। वहीँ सूंदर ठाकुर भी सीपीएस को मिली गाड़ी लौटकर चुप रहकर भी काफी कुछ कह चुके है।
आम तौर पर एकमुश्त पड़ने वाला गद्दी वोट कांगड़ा संसदीय क्षेत्र की सियासत में निर्णायक भूमिका निभाता है। गद्दी समुदाय की एकता इनकी सियासी ताकत का असल कारण है और ये ही वजह है कि कोई भी दल इन्हें नजर अंदाज़ नहीं करता। विशेषकर भाजपा गद्दी चेहरों पर दांव खेलती आई है और सीटिंग सांसद किशन कपूर लम्बे वक्त से प्रोमिनेन्ट गद्दी फेस है। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में जिला चम्बा के चार और जिला कांगड़ा के 13 विधानसभा क्षेत्र आते है। इस संसदीय क्षेत्र की 17 में से कम से कम 11 सीटों पर गद्दी फैक्टर हावी रहता है। इनमें चम्बा सदर, डलहौज़ी, चुराह, भटियात, धर्मशाला, बैजनाथ, पालमपुर, शाहपुर, ज्वाली, नूरपुर और इंदौरा शामिल है। माना जाता है कि गद्दी समुदाय का वोट मौटे तौर पर विभाजित नहीं होता। ऐसे में सियासी गणित के लिहाज से राजनैतिक दल गद्दी चेहरे को सेफ बेट मानते है, विशेषकर भाजपा। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने धर्मशाला के विधायक और तब की जयराम सरकार में मंत्री किशन कपूर को कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया था और कपूर ने रिकॉर्ड जीत दर्ज कर इतिहास रच दिया था। अब फिर लोकसभा चुनाव का काउंट डाउन शुरू हो चुका है और टिकट की कयासबाजी भी। किशन कपूर टिकट के मिशन पर है लेकिन उन्हें टिकट मिलता है या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। पर माहिर मान रहे है कि संभव है भाजपा यदि किशन कपूर का टिकट काटती है तो अगला उम्मीदवार भी गद्दी समुदाय से ही हो। दावेदारों की फेहरिस्त में जो नाम प्रमुख है उनमें एक है त्रिलोक कपूर जो भाजपा प्रदेश महामंत्री भी है और दूसरे नेता है विशाल नेहरिया। इस सूची में एक तीसरे नाम का जिक्र भी जरूरी है और वो है चुराह विधायक हंसराज। बतौर भाजपा प्रदेश महामंत्री त्रिलोक कपूर का ये दूसरा टर्म है। पर साथ ही त्रिलोक कपूर के खाते में पालमपुर विधानसभा सीट की हार भी दर्ज है। विधानसभा चुनाव में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को 17 में से सिर्फ 5 सीट पर जीत मिली थी। यानी त्रिलोक कपूर के सियासी खाते में जमा से ज्यादा घटाव है। पर कपूर का लम्बा अनुभव और आलाकमान की गुड बुक्स में उनकी उपस्थिति उनका दावा मजबूत करते है। चुराह विधायक और पूर्व विधानसभा स्पीकर हंसराज की बात करें तो वे निसंदेह तेजतर्रार नेता तो है ही, पर उनका चम्बा से होना उनके लिए फायदे का सौदा भी हो सकता है तो रुकावट भी। जनजातीय क्षेत्र से उम्मीदवार देकर भाजपा बड़ा सन्देश भी दे सकती है, तो जिला कांगड़ा की नाराजगी का डर चम्बा की उम्मीदवारी में रोड़ा भी है। साथ ही यदि हंसराज उम्मीदवार होते है और जीत जाते है तो भाजपा को विधानसभा उपचुनाव का सामना भी करना पड़ेगा। ऐसे में उनकी उम्मीदवारी पर पार्टी को काफी सियासी गणित लगनी पड़ेगी। तीसरा नाम है विशाल नेहरिया का। 2019 के धर्मशाला उपचुनाव में भाजपा ने उनको उम्मीदवार बनाया और नेहरिया ने शानदार जीत दर्ज की। इसके बाद 2022 में उनका टिकट काट दिया गया लेकिन नेहरिया समर्थकों की नाराजगी के बावजूद पार्टी लाइन से बाहर नहीं गए। ये फैक्टर उनके पक्ष में जा सकता है। नेहरिया युवा नेता है और माहिर मान रहे है कि भाजपा अधिक से अधिक युवाओं को टिकट देने की नीति पर आगे बढ़ेंगी। ऐसे में इस मापदंड पर भी नेहरिया फिट बैठते है। बहरहाल ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या सीटिंग सांसद किशन कपूर फिर टिकट लाने में कामयाब होंगे ? और किशन कपूर नहीं तो क्या भाजपा गद्दी समुदाय से ही प्रत्याशी देती है या नहीं। फिलवक्त सब सियासी अटकलें है और अटकलों का क्या। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से भाजपा में कम से कम एक दर्जन टिकट के चाहवान है।
भाजपा में टिकट चाहवानों की कतार, कांग्रेस में नेता कतरा रहे ! उम्मीदवार का चयन कांग्रेस के लिए चुनौती, भाजपा को भी बरतनी होगी सावधानी एक तरफ कतार लगी है और एक ओर मानो सब कतरा से रहे है। लोकसभा चुनाव की रुत में ये ही मिजाज -ए-कांगड़ा है। भाजपा में टिकट के चाहवानों की लम्बी कतार है, उधर कांग्रेस में टालमटाल की स्थिति बनती दिख रही है। हालांकि सन्नाटा दोनों ही खेमो में है, भाजपा में चाहवानों की वाणी पर अनुशासन का ताला है तो कांग्रेस में एक किस्म से चाहवान ही नहीं दिख रहे। विशेषकर हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद से ही स्थिति बदल सी गई है। इस पर राम मंदिर फैक्टर का भी असर दिखने लगा है। हालांकि सियासी मौसम भी पहाड़ों के मौसम की तरह ही होता है, कब बदल जाएँ पता नहीं लगता। पर फिलहाल कांगड़ा में कांग्रेस की मुश्किलें निसंदेह भाजपा से अधिक है। यूँ तो चुनाव लोकसभा का है और राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाना है। पर प्रदेश के सियासी मसलों को इससे पूरी तरह इतर नहीं किया जा सकता। प्रदेश में कांग्रेस सत्तासीन है और कांगड़ा संसदीय क्षेत्र को एक साल बाद प्रदेश कैबिनेट में दूसरा मंत्री पद मिला है। अब भी एक मंत्री पद की कमी कांगड़ा को खल रही है। ये कांग्रेस के सियासी सुकून में बड़ा खलल भी डाल रही है। इस पर कांगड़ा में कांग्रेस खेमो में बंटी है, ये भी सर्वविदित है। हालांकि खेमेबाजी भाजपा में भी बेशुमार है। कभी तस्वीरों के जरिये तो भी सांझी पत्रकार वार्ताओं में इसकी झलक दिखती रही है। विधानसभा चुनाव में भाजपा की शिकस्त का एक बड़ा कारण भी इसी गुटबाजी को माना जाता है। पर लोकसभा चुनाव पीएम मोदी के चेहरे पर होगा और ये कहना गलत नहीं है कि पीएम मोदी के चेहरे के आगे बाकी सभी फैक्टर बौने हो जाते है। फिर भी भाजपा के पास यहाँ चूक की कोई गुंजाईश नहीं दिखती। इतिहाज गवाह है कि इसी कांगड़ा से सीटिंग सीएम भी विधानसभा चुनाव हारे है, सो जाहिर है कांगड़ा को 'फॉर ग्रांटेड' नहीं लिया जा सकता। माहिर मान रहे है कि भाजपा को भी चेहरे के चयन में सावधानी बरतनी होगी। भाजपा का गढ़ रहा है कांगड़ा भाजपा के गठन के बाद से दस लोकसभा चुनाव हुए है जिनमें से सात बार कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को जीत मिली है। यूँ तो भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव 1984 में लड़ा था लेकिन पार्टी की जड़े जमी 1989 में। तब राम मंदिर आंदोलन प्रखर था और आंदोलन की तरह ही भाजपा भी तेजी से बढ़ती जा रही थी। इसी बीच 1989 में शांता कुमार पहली बार संसद की दहलीज लांघने में कामयाब हुए। तब से कांगड़ा में भाजपा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। कांग्रेस सिर्फ दो मर्तबा जीती, 1996 में सत महाजन और 2004 में चौधरी चंद्र कुमार ही कांग्रेस को जीत दिला सके। उम्मीदवार बदला, वोट शेयर बढ़ा ! कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा लगतार तीन चुनाव जीत चुकी है। दिलचस्प बात ये है कि पिछले तीन चुनाव में भाजपा ने हर बार चेहरा बदला है और हर बार जीती है। इससे भी दिलचस्प तथ्य ये है कि हर बार भाजपा के वोट प्रतिशत में भारी बढ़ोतरी हुई है। 2009 में भाजपा के उम्मीदवार थे डॉ राजन सुशांत और उन्हें 48.69 प्रतिशत वोट मिले थे। फिर 2014 में शांता कुमार ने चुनाव लड़ा और उन्हें लगभग 57 प्रतिशत वोट मिले। वहीँ 2019 में भाजपा ने किशन कपूर को उम्मीदवार बनाया और उन्होंने रिकॉर्ड 72 प्रतिशत वोट बटोरे। किशन कपूर ने रचा था इतिहास 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र पर किशन कपूर ने 72.02 प्रतिशत मत हासिल कर इतिहास बना दिया था। तब कपूर को 7,25,218 वोट पड़े थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी पवन काजल को 2,47,595 मतों पर ही सिमटना पड़ा था। कांगड़ा हलके की दिलचस्प बात यह रही थी कि प्रदेश में सबसे अधिक नोटा का इस्तेमाल भी यहीं हुआ। तब 11,327 मतदाताओं ने नोटा दबाया था। वहीँ बहुजन समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी डॉ. केहर सिंह को 0.88 प्रतिशत वोट हासिल हुए, जबकि नोटा 1.12 % था। 2004 के बाद नहीं जीती कांग्रेस कांग्रेस को आखिरी बार 2004 में कांगड़ा संसदीय सीट पर जीत मिली थी और तब उम्मीदवार थे चौधरी चंद्र कुमार। इसके बाद से कांग्रेस लगातार तीन चुनाव हार चुकी है। आगामी लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की राह आसान नहीं दिखती। सही उम्मीदवार का चयन और अंतर्कलह और असंतोष पर लगाम ही कांग्रेस को टक्कर में ला सकता है। बहरहाल कांग्रेस के सामने सबसे पहली चुनौती असंतोष को साधना है। । विधानसभा चुनाव में लगा था भाजपा को झटका कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में जिला चम्बा के 4 और जिला कांगड़ा के 13 विधानसभा क्षेत्र आते है। जिला चम्बा के चम्बा सदर, भटियात, चुराह और डलहौज़ी कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में आते है, जबकि भरमौर मंडी संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। वहीँ जिला कांगड़ा के फतेहपुर, नूरपुर, इंदोरा, ज्वाली, धर्मशाला, शाहपुर, कांगड़ा, नगरोटा, पालमपुर, सुलह, जयसिंहपुर, बैजनाथ और ज्वालामुखी विधानसभा हलके कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के अधीन आते है । 2022 में हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को झटका लगा था। भाजपा को 17 में से सिर्फ पांच सीटों पर ही जीत मिली थी। हारने वालों में दो कैबिनेट मंत्री और प्रदेश महामंत्री भी शामिल थे। तब असंतोष और गलत टिकट आवंटन हार के कारण बने थे और जाहिर है भाजपा को लोकसभा चुनाव इसे साधना होगा। श्री राम मंदिर का पालमपुर कनेक्शन 1989 के पालमपुर अधिवेशन के बाद बीजेपी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा श्री राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी को की जाएगी। हिंदुस्तान के कई राजनैतिक दलों ने राम मंदिर निर्माण की लम्बी लड़ाई लड़ी है, जिनमें भारतीय जनता पार्टी प्रमुख है। वो बीजेपी का राम मंदिर आंदोलन ही था जिसने देश की राजनीति की धारा को ही पलट दिया। राम मंदिर आंदोलन की बिसात पर मजबूत हुई। बीजेपी आज केंद्र में सत्तासीन है और मंदिर आंदोलन से निकले कई नेता संसद में बैठकर देश की नीतियां निर्धारित कर रहे हैं। राम मंदिर बनाने का संघर्ष लम्बा है, और इस संघर्ष में हिमाचल प्रदेश का पालमपुर भी बेहद ख़ास स्थान रखता है। 1989 में जिला कांगड़ा के पालमपुर में बीजेपी का अधिवेशन हुआ था। इस अधिवेशन में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, विजयाराजे सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी समेत पार्टी के तमाम बड़े नेता पालमपुर में थे। इसी अधिवेशन में अयोध्या में भगवान् श्री राम के भव्य मंदिर निर्माण के साथ साथ भारतीय जनता पार्टी के स्वर्णिम भविष्य की पटकथा लिखी गई और भाजपा ने मंदिर निर्माण का प्रस्ताव पास किया। इस तरह इस ऐतिहासिक घटनाक्रम का पालमपुर साक्षी बना। इस तीन दिवसीय अधिवेशन में राम मंदिर निर्माण को लेकर पार्टी ने मंथन किया और तय हुआ कि अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा। 11 जून, 1989 को राम मंदिर के निर्माण का प्रस्ताव तैयार किया गया। इसी दिन लालकृष्ण आडवाणी ने सबकी सहमति से राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव रखा था। पालमपुर में हुई इस बैठक के सूत्रधार थे पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार जो उस समय प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष थे और उन्हें ही उस ऐतिहासिक बैठक की पूरी व्यवस्था करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वह राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य भी थे, इसलिए उस ऐतिहासिक प्रस्ताव के पारित होने और सारी व्यवस्था के वह भी साक्षी हैं। क्या होगी सुधीर की भूमिका ? जिला कांगड़ा में सुधीर शर्मा कांग्रेस का बड़ा नाम है। सुधीर धर्मशाला से विधायक है और पूर्व की वीरभद्र सरकार में मंत्री रह चुके है। इस बार भी उन्हें मंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था लेकिन अब तक ऐसा नहीं हुआ। चार बार के विधायक सुधीर शर्मा सुक्खू राज में मंत्री पद से महरूम है, पर पंडित जी का सियासी रसूख कुछ ऐसा है कि उन्हें किनारे करके भी दरकिनार नहीं किया जा सकता। हाल ही में सीएम सुक्खू उनसे मिलने देर रात उनके आवास पर पहुंचे थे, तो अंतर्कलह की स्थिति को भांप आलाकमान ने उन्हें तमाम मंत्रियों सहित बैठक के लिए दिल्ली से बुलावा भेजा । इस बैठक का निष्कर्ष क्या निकला ये तो अब तक स्पष्ट नहीं है लेकिन माहिर मान रहे है कि सुधीर के लिए कोई भूमिका तय कर ली गई है। एक कयास है कि सुधीर कांगड़ा से कांग्रेस के उम्मीदवार होंगे और दिल्ली में इसी को लेकर चर्चा हुई है। वहीँ अटकले ये भी है कि सुधीर शर्मा को संगठन की कमान देकर साधा जा सकता है। यदि ऐसा हुआ तो सुधीर के साथ -साथ कांगड़ा का सियासी वजन भी बढ़ेगा। बहरहाल सब अटकलें है और सुधीर के हिस्से में क्या आता है और कब आता है, ये देखना रोचक होगा।
शिमला संसदीय क्षेत्र में कार्यकर्ताओं में जान फूंक गए नड्डा हिमाचल में कोई चूक नहीं चाहेंगे नड्डा : भारतीय जनता पार्टी का आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर उन प्रदेशों में ज्यादा फोकस है, जहां गैर भाजपा दलों की सरकार है। हिमाचल की सत्ता पर कांग्रेस काबिज है, ऐसे में भाजपा लोकसभा चुनाव को लेकर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहेगी। भाजपा ने हिमाचल में लोकसभा चुनाव का उद्घोष कर दिया है। भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के दौरे के साथ ही लोकसभा चुनाव का शंखनाद हो गया है। इसके आरंभ के लिए नड्डा ने शिमला संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले सोलन को चुना। दरअसल 2022 के विधानसभा चुनाव में शिमला संसदीय क्षेत्र में ही भाजपा सबसे कमजोर साबित हुई थी। विधानसभा चुनाव में संसदीय क्षेत्र की 17 में से महज तीन सीट पर पार्टी को जीत मिली थी। जाहिर है ऐसे में पार्टी अब कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। खुद नड्डा ने सोलन में रोड शो किया और फिर जनसभा को सम्बोधित कर चुनावी हुंकार भरी। इसके उपरांत शिमला पहुंचे नड्डा ने भाजपा कोर ग्रुप की बैठक भी ली। सोलन में हुए नड्डा के रोड शो में विशेषकर सोलन और सिरमौर से भारी भीड़ उमड़ी। सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का भी भरपूर जलवा दिखा। हाटी फैक्टर का असर भी इस आयोजन में दिखा। विशेषकर हाटी बेल्ट से काफी संख्या में लोग नड्डा के इस्तेकबाल को पहुंचे। जाहिर है भाजपा ने बेहद रणनीतिक तरीके से हाटी फैक्टर को भुनाने की तैयारी की है और इसका चुनावी लाभ भी पार्टी को मिल सकता है। सम्भवतः बेवजह टिकट न बदले भाजपा ! लोकसभा चुनाव के लिए दावेदारी का सिलसिला भी शुरू हो गया है। शिमला संसदीय क्षेत्र से सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का दावा एक बार फिर मजबूत है। नड्डा के दौर में भी कश्यप की पकड़ की झलक दिखी। कश्यप के अलावा पच्छाद विधायक रीना कश्यप का नाम भी चर्चा में है। हालांकि माहिर मान रहे है कि अगर तमाम सर्वे ठीक आते है तो भाजपा बेवजह टिकट नहीं बदलेगी। शिमला संसदीय क्षेत्र में हाटी फैक्टर से भी भाजपा को बड़ी उम्मीद है और वोटर्स के बीच इसका श्रेय भी काफी हद तक सुरेश कश्यप को जाता दिख रहा है।
14 जनवरी को मणिपुर से शुरू होगी भारत जोड़ो न्याय यात्रा 15 राज्य, 357 लोकसभा सीटें और कांग्रेस के सिर्फ 14 सांसद। सत्ता और कांग्रेस के बीच ये ही बड़ा फर्क है। ये ही जहन में रखते हुए कांग्रेस ने राहुल गाँधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा का रूट तय किया है। हालांकि यात्रा उक्त 15 राज्यों की सिर्फ 100 लोकसभा सीटों से गुजरेगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में इन 357 में से कांग्रेस के खाते में सिर्फ 14 सीटें आई थी। जहाँ गठबंधन था वहां सहयोगी भी कुछ ख़ास नहीं कर सके थे। दरअसल कांग्रेस का मानना है कि भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल गाँधी की छवि को बदला, राहुल गाँधी की लोकप्रियता में इजाफा हुआ है और कांग्रेस की कर्णाटक और तेलंगाना में जीत के पीछे भी भारत जोड़ो यात्रा एक अहम वजह है। ये ही कारण है कि लोकसभा चुनाव से पहले अब कांग्रेस फिर एक यात्रा निकालने जा रही है। मकसद साफ है, राहुल सड़क पर उतरेंगे, 100 लोकसभा सीटें और 337 विधानसभा सीटों को पैदल नापेंगे, जनसंवाद भी होगा और कार्यकर्ताओं में जोश भी आएगा। बहरहाल क्या और कितना होगा, ये लोकसभा चुनाव के नतीजे तय करेंगे पर कांग्रेस आगामी चुनाव में सब कुछ झोंकने को तैयार है। यात्रा 14 जनवरी को मणिपुर की राजधानी इंफाल से शुरू होकर 20 मार्च को मुंबई में समाप्त होगी। राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के तहत 67 दिनों में 6713 किमी का सफर तय करेंगे। यह यात्रा 15 राज्यों के 110 जिले से होकर गुजरेगी और इसके अन्तर्गत 100 लोकसभा सीटें और 337 विधानसभा सीटें आएगी। यात्रा का सबसे लंबा चरण उत्तर प्रदेश में होगा जहां राज्य के 20 जिलों को कवर करने के लिए 11 दिन आवंटित किए गए हैं। 80 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों वाले उत्तर प्रदेश में, सबसे पुरानी पार्टी को पिछले चुनावों में कांग्रेस के एक लोकसभा सांसद के साथ कोई सीट नहीं मिली थी। सोनिया गांधी यूपी की रायबरेली सीट से एकमात्र कांग्रेस सांसद हैं। वहीँ यात्रा बिहार के सात जिलों और झारखंड के 13 जिलों से भी गुजरेगी, राहुल गांधी की यात्रा बिहार और झारखण्ड में क्रमशः 425 किमी और 804 किमी की दूरी तय करेगी। भारत जोड़ो न्याय यात्रा मणिपुर, नागालैंड, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और अंत में महाराष्ट्र राज्यों से होकर गुजरेगी। विदित रहे कि इससे पहले राहुल गांधी ने 7 सितंबर 2022 से 30 जनवरी 2023 तक भारत जोड़ो यात्रा की थी। 145 दिनों की यात्रा तमिलनाडु के कन्याकुमारी से शुरू होकर जम्मू-कश्मीर में खत्म हुई थी। तब राहुल ने 3570 किलोमीटर की यात्रा में 12 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों को कवर किया था। जहाँ सत्ता में, वहां यात्रा नहीं दिलचस्प बात ये है कि जिन तीन राज्यों में कांग्रेस के सीएम है वहां ये यात्रा नहीं पहुंचेगी। यात्रा कर्णाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश से नहीं गुजरेगी। संभवतः यहाँ कांग्रेस ने पूरी तरह लोकसभा चुनाव का जिम्मा स्थानीय नेतृत्व को देने का निर्णय ले लिया है। शायद पार्टी को लगता है कि इन तीन राज्यों में पार्टी की स्थिति बेहतर है।
'येन-केन-प्रकारेण'..जैसे भी हो कांग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव में बेहतर करना होगा। 138 साल पुरानी देश की सबसे बुजुर्ग राजनैतिक पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है और इसलिए पार्टी अब अपने सबसे बड़े योद्धाओं को भी चुनावी मैदान में उतार सकती है। बीत दिनों हुई एआईसीसी की बैठक में पार्टी ने सबसे दमदार नेताओं को चुनाव लड़वाने का निर्णय लिया है। ऐसे में कई पूर्व मुख्यमंत्री तो चुनाव लड़ते दिख ही सकते है, संभव है कई राज्यों में सीटिंग विधायक और मंत्री भी लोकसभा चुनाव के मैदान में उतार दिए जाएँ। कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ तो अशोक गहलोत, भूपेश बघेल, कमलनाथ सहित कई दिग्गज मैदान में होंगे। वहीँ सूत्रों की माने तो पार्टी विभिन्न क्षेत्रों से सम्बंधित कई लोकप्रिय चेहरों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति पर भी आगे बढ़ रही है। योजना परवान चढ़ी तो कई सेलब्रिटी भी कांग्रेस से चुनाव लड़ते दिख सकते है। सूत्रों की माने तो कांग्रेस की रणनीति जल्द से जल्द कई सीटों पर उम्मीदवार घोषित करने की है, ठीक वैसे ही जैसा भाजपा ने मध्य प्रदेश में किया था। मुमकिन है जो चेहर तय है उनकी घोषणा पार्टी फरवरी में ही कर दें। अशोक गहलोत सहित कई नेता पार्टी पटल पर ये सुझाव रख चुके है ताकि प्रत्याशियों को ज्यादा से ज्यादा समय मिल सके। हिमाचल में मंत्री लड़ेंगे चुनाव ? कांग्रेस 'करो या मरो' के जज्बे के साथ चुनावी मैदान में उतरना चाहती है और ऐसे में मुमकिन है कि हिमाचल में भी कई बड़े चेहरे चुनावी मैदान में हो। सिर्फ विधायक ही नहीं मंत्री भी चुनावी मैदान में उतारे जा सकते है। इसे लेकर कयासबाजी का सिलसिला जारी है। कांगड़ा से चौधरी चंद्र कुमार और शिमला से कर्नल धनीराम शांडिल के नाम की अटकलें तो है ही, हमीरपुर से उप मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री का नाम भी सियासी गलियारों में चर्चा का विषय है। हालांकि फिलहाल ये सब अटकलें है।
दस में से आठ मौकों पर भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्षों ने लड़ा है चुनाव मंडी, हमीरपुर, कांगड़ा सभी विकल्प भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा क्या लोकसभा चुनाव लड़ेंगे और लड़े तो सीट कौन सी होगी, सियासी गलियारों में ये चर्चा का विषय बना हुआ है। जगत प्रकाश नड्डा के सियासी कद को लेकर कोई सवाल नहीं है और उनके लिए मैदान खुला है। ये भी संभव है कि अगर वे चुनाव लड़े तो हिमाचल प्रदेश की ही किसी सीट को चुन सकते है। वर्तमान में नड्डा राज्यसभा सांसद है और उनका कार्यकाल आगामी अप्रैल में पूरा होगा। लगभग इसी दौरान लोकसभा चुनाव है, इसलिए भी उनके चुनाव लड़ने की अटकलें तेज है। हिमाचल प्रदेश में चार लोकसभा सीटें है में से सिर्फ शिमला सीट ही आरक्षित है। ऐसे में अन्य तीन सीटें नड्डा के लिए खुली है। उनके गृह क्षेत्र हमीरपुर की बात करें तो वहां से अनुराग ठाकुर सांसद है और अनुराग एक बार फिर हमीरपुर से चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके है। हालांकि भाजपा में अंतिम फैसला आलाकमान का होता है और नड्डा तो खुद ही आलाकमान है। यदि नड्डा हमीरपुर से मैदान में होते है तो अनुराग तो कांगड़ा से चुनाव लड़वाया जा सकता है। वहीँ ये भी मुमकिन है कि खुद नड्डा ही कांगड़ा से चुनाव लड़े। वहीँ मंडी की बात की जाएँ तो उपचुनाव में भाजपा ने ये सीट गवां दी थी। ऐसे में प्रतिभा सिंह के सामने भी खुद नड्डा उतर सकते है। बहरहाल ये सब अटकलें है और मूल सवाल ये ही है कि क्या नड्डा हिमाचल की किसी सीट से चुनाव लड़ेंगे या नहीं। नड्डा के सामने तीनों सीटों के विकल्प खुले है और माहिर मानते है कि अगर नड्डा को पार्टी मैदान में उतारती है तो हिमाचल प्रदेश की सभी सीटों पर इसका प्रभाव पड़ेगा। बता दें भाजपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष के खुद लोकसभा चुनाव लड़ने का रिवाज पुराना है। 1984 में अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर 2019 में अमित शाह तक अगर एकाध मौकों को छोड़ दिया जाएँ तो पार्टी के सभी अध्यक्ष अपने कार्यकाल में खुद लोकसभा चुनाव लड़े है। 1999 में कुशाभाऊ ठाकरे और 2004 के लोकसभा चुनाव में वैंकया नायडू ही अपवाद है। ऐसे में अब मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के भी चुनाव लड़ने की अटकलें है।
-कहा, सरकार कर रही पारदर्शिता से काम, विपक्ष के पास नहीं मुद्दा -प्रदेश भाजपा ने केंद्र से मदद दिलाने के लिए नहीं किया कोई प्रयास हिमाचल विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दूसरे दिन विपक्ष ने स्टोन क्रशर को बंद करने को लेकर सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए, जिसको लेकर मुख्यमंत्री ने कहा कि 100 करोड़ का स्टोन क्रशर घोटाला, जो कि पूर्व सरकार के समय में हुआ है, जिसको लेकर वर्तमान सरकार ने पर्दाफाश किया। उसी का दर्द भाजपा को हो रहा है। मुख्यमंत्री ने कहा कि पहले नियमों को ताक पर रखकर स्टोन क्रशर चल रहे थे, अब नियमों के अनुसार ही चलेंगे। सरकार पारदर्शिता से काम कर रही है। सीएम ने कहा कि भाजपा विधायकों ने आपदा के समय हिमाचल को किसी भी तरह की मदद दिलाने के लिए प्रयास नहीं किया उल्टा रोड़े अटकाने का काम ही किया है।
हिमाचल प्रदेश शीतकालीन सत्र के दूसरे दिन कि शुरुआत के साथ ही विपक्ष ने धमाकेदार एंट्री की। विपक्ष लगातार कांग्रेस सरकार को चुनाव से पहले दी गई गारंटियों को लेकर घेर रहा है। सत्र के दूसरे दिन भी विपक्ष के सभी विधायक गोबर के साथ विधानसभा परिसर पहुंचे और सरकार के खिलाफ नारेबाजी की। इस दौरान नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर ने कहा कि हम सरकार को उनकी गारंटियां याद दिला रहे हैं। एक-एक कर सभी गारंटियां याद दिलाई जाएगी। उन्होंने कहा कि किसानों ने एक साल से खेत में गोबर डालना बंद कर दिया, इस उम्मीद के साथ के सुक्खू भाई आएंगे और गोबर खरीदेंगे, लेकिन सरकार अब गारंटियां भूल गई है। सेशन के पहले दिन भी विपक्ष ने कांग्रेस की गारंटियों का चोला पहनकर तपोवन धर्मशाला में प्रदर्शन किया था।
-मुख्यमंत्री सुक्खू और नेता प्रतिपक्ष जयराम में हुई तीखी बहस धर्मशाला। कांगड़ा जिले के धर्मशाला के तपोवन में हिमाचल प्रदेश विधानसभा का शीतकालीन सत्र आज सुबह 11 बजे शुरू हुआ। यह शीतकालीन सत्र पहले दिन ही सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तीखी नोकझोंक के साथ काफी गर्मा गया। सत्र शुरू होने से पहले विपक्ष के विधायक विधानसभा परिसर में पोस्टर्स पहने हुए कांग्रेस सरकार की गारंटियों को लागू न करने के विरोध में नारेबाजी करने लगे। हालांकि सुरक्षा कारणों के चलते उन्हें पोस्टर पहनकर विधानसभा सत्र में जाने नहीं दिया गया। वहीं, 11 बजे बैठक शुरू हुई तो भाजपा दोपहर तक शांत नजर आई। लेकिन जब सवा दो बजे मुख्यमंत्री सुक्खू ने वाटर सेस पर केंद्र सरकार को कोसा तो इस पर विपक्ष भड़क उठा और सदन में हंगामा शुरू हो गया। मुख्यमंत्री ने भाजपा पर निशाना साधा कि पिछली भाजपा सरकार ने प्रदेश के हित बेचने का काम किया। भाजपा सरकार की ओर से एसजेवीएन को दी तीन बिजली परियोजनाओं के समझौते को वर्तमान सरकार को इसी वजह से रद्द करना पड़ा। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में जहां पर भाजपा की सरकारें हैं, वहां वाटरसेस लिया जा रहा है, जबकि प्रदेश में इसे लागू नहीं होने दिया जा रहा है। इसके लिए केंद्र कोर्ट चला गया है। इस पर नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर और विपक्ष के अन्य विधायकों ने कहा कि सच यह नहीं है। केंद्र सरकार की सभी राज्यों के लिए वाटरसेस पर एक ही नीति है। इस पर मुख्यमंत्री सुक्खू और नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर आमने-सामने हो गए और सदन में खूब हंगामा हुआ।
संसद के शीतकालीन सत्र के 12वें दिन लोकसभा से विपक्ष के 49 सांसदों को निलंबित कर दिया गया। अब तक कुल 141 सांसदों को सत्र से सस्पेंड किया जा चुका है। मंगलवार यानी आज विपक्ष ने सांसदों के निलंबन को लेकर दोनों सदनों में हंगामा किया। विपक्षी सांसद ने सदन से लेकर सदन के गेट और परिसर में नारेबाजी और प्रदर्शन किया। लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही सुबह से 3 बार स्थगित की गई। इसके बाद लोकसभा से विपक्ष के 49 सांसदों को निलंबित कर दिया गया। इस तरह अब कुल 141 सांसद सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। यही नहीं, लोकसभा की प्रश्नसूची से 27 सवाल भी हटा दिए गए हैं। ये सवाल निलंबित सांसदों की तरफ से पूछे गए थे। आजादी के बाद पहली बार इतने सांसदों को किया गया निलंबित सोमवार को कुल 78 सांसदों (लोकसभा-33, राज्यसभा-45) को निलंबित किया गया था। आजादी के बाद पहली बार एक ही दिन में इतने सांसद निलंबित किए गए है। इससे पहले 1989 में राजीव सरकार में 63 सांसद निलंबित किए गए थे। पिछले हफ्ते भी 14 सांसदों को निलंबित किया गया था।
- अब तक कुल 92 सांसदों को किया गया निलंबित संसद के शीतकालीन सत्र के 11वें दिन दोनों सदनों से कुल 78 सांसद सस्पेंड कर दिए गए। असल में संसद में सुरक्षा चूक के मसले पर लोकसभा में लगातार चौथे दिन हंगामा हुआ। इस पर लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला ने 33 सांसदों को सस्पेंड कर दिया। इनमें नेता अधीर रंजन चौधरी समेत कांग्रेस के 11 सांसद, तृणमूल कांग्रेस के 9, डीएमके के 9 और 4 अन्य दलों के सांसद शामिल हैं। इसके बाद राज्यसभा में भी हंगामा हुआ। इसके चलते सभापति जगदीप धनखड़ ने 45 विपक्षी सांसदों को पूरे सत्र के लिए (22 दिसंबर तक) निलंबित कर दिया। इससे पहले 14 दिसंबर को लोकसभा से 13 सांसद निलंबित किए गए थे। इनके अलावा राज्यसभा सांसद डेरेक ओब्रायन को भी 14 दिसंबर को सस्पेंड किया गया था। शीतकालीन सत्र से अब तक कुल मिलाकर 92 सांसदों को सस्पेंड किया जा चुका है।
आज नई दिल्ली के जंतर मंतर पर अखिल भारतीय महिला कांग्रेस के आह्वान पर आयोजित संसद घेराव के दौरान प्रदेश महिला कांग्रेस अध्यक्ष जैनब चंदेल के नेतृत्व में प्रदेश महिला कांग्रेस ने भी भाग लिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष एवं सांसद प्रतिभा सिंह ने भी इस धरना प्रदर्शन में विशेष तौर पर भाग लिया। प्रतिभा सिंह ने अपने संबोधन में केंद्र की भाजपा सरकार की महिला विरोधी नीतियों की आलोचना करते हुए कहा कि देश की आधी आबादी को अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर लड़ना होगा।
-14 दिसंबर को 13 सांसद किए थे सस्पेंड -अब तक कुल 44 सांसद निलंबित संसद के शीतकालीन सत्र के 11वां दिन संसद में सुरक्षा चूक के मसले पर आज भी खूब हंगामा हुआ। लोकसभा में खराब व्यवहार के चलते विपक्षी नेता अधीर रंजन चौधरी समेत 31 सांसद को पूरे शीतकालीन सत्र के लिए निलंबित कर दिए गए। इससे पहले 14 दिसंबर को लोकसभा से 13 सांसद निलंबित किए गए थे। ऐसे में अब तक कुल 44 सांसद पूरे शीतकालीन सत्र के लिए निलंबित हो चुके हैं। सदन में आज लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला ने कार्यवाही शुरू होते ही 15 मिनट की स्पीच दी। उन्होंने कहा कि संसद में सुरक्षा चूक को लेकर राजनीति होना दुर्भाग्यपूर्ण है। हंगामा बढ़ा तो सदन की कार्यवाही 12 बजे तक स्थगित हो गई। 12 बजे लोकसभा की कार्यवाही शुरू हुई। आसंदी पर राजेंद्र अग्रवाल थे। इसी बीच कम्युनिकेशन मिनिस्टर अश्विनी ने कम्युनिकेशंस बिल 2023 पेश किया। इस दौरान विपक्षी सांसदों ने फिर नारेबाजी की और तख्तियां लहराईं। अग्रवाल ने विपक्षी सांसदों से जगह पर बैठने को कहा। वे नहीं माने तो सदन की कार्यवाही 2 बजे तक स्थगित कर दी गई। वहीं, राज्यसभा में भी लोकसभा में घुसपैठ मुद्दे पर हंगामा हुआ। सदन की कार्यवाही पहले 11.30 बजे तक स्थगित कर दी गई। इसके बाद जब कार्यवाही शुरू हुई तो विपक्षी सांसदों ने नारेबाजी की और गृह मंत्री अमित शाह से बयान देने की मांग की।
- मुख्यमंत्री बेबस, मुझे उन पर आ रहा तरस हिमाचल विधानसभा का शीतकालीन सत्र 19 दिसंबर से धर्मशाला के तपोवन में शुरू हो रहा है। वहीं, सत्र के ठीक एक दिन पहले धर्मशाला में माहौल गरमाया हुआ है। भाजपा ने धर्मशाला के पुलिस ग्राउंड से लेकर कचहरी चौक तक आक्रोश रैली निकाली। इस रैली में कांगड़ा जिला की 15 विधानसभा क्षेत्र के लोग शामिल हुए। इस रैली में भाजपा के हिमाचल प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना, प्रदेश अध्यक्ष राजीव बिंदल, नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर सहित कांगड़ा के सभी वरिष्ठ नेता शामिल हुए। कचहरी चौक में रैली को संबोधित करते हुए पूर्व सीएम और नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर ने कहा कि प्रदेश की कांग्रेस सरकार मंडी और कांगड़ा के साथ भेदभाव कर रही है। ये दोनों जिले विधानसभा क्षेत्रों की संख्या के मामले में सबसे बड़े जिले हैं, लेकिन प्रदेश की सुक्खू सरकार इनकी अनदेखी कर रही है। एक साल तक कांगड़ा को केवल एक ही मंत्री मिला। अब हाल ही में एक साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद ही जिले से दूसरा मंत्री चुना गया। जयराम ठाकुर ने कहा कि कांगे्रस विधानसभा चुनाव में जनता से झूठे वादे और झूठी गारंटियां देकर सत्ता में तो काबिज हो गई, लेकिन अब यही 10 गारंटियां उसके गले की फांस बन गई हैं। जयराम ठाकुर ने कहा, 'प्रदेश के मुख्यमंत्री बेबस हो गए हैं और मुझे उन पर तरस आता है। चुनाव से पहले कहा था कि सरकार बनते ही पहली कैबिनेट बैठक में 10 गारंटियों को पूरा किया जाएगा। प्रदेश की जनता सरकार से चुनावी गारंटियां पूरी करने को लेकर टकटकी लगाए बैठी है। लेकिन सरकार गारंटियां पूरी नहीं कर पा रही है।Ó
-भाजपा ने आक्रोश रैली निकाल सरकार के खिलाफ बोला हल्ला हिमाचल विधानसभा का शीतकालीन सत्र 19 दिसंबर से धर्मशाला के तपोवन में शुरू हो रहा है। वहीं, सत्र के ठीक एक दिन पहले धर्मशाला में माहौल गरमाया हुआ है। भाजपा ने धर्मशाला के पुलिस ग्राउंड से लेकर कचहरी चौक तक आक्रोश रैली निकाली। इस रैली में कांगड़ा जिला की 15 विधानसभा क्षेत्र के लोग शामिल हुए। रैली में पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने 'सुक्खू भाई, सुक्खू भाई दस गारंटियां किथे पाई, सुक्खू चाचा सुक्खू चाचा 1500 रुपये कब दिंगा, निक्कमों की सरकार को भेजो हरिद्वार को' आदि नारे लगाकर कांग्रेस सरकार के खिलाफ हल्ला बोला। इस रैली में भाजपा के हिमाचल प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना, प्रदेश अध्यक्ष राजीव बिंदल, नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर सहित कांगड़ा के सभी वरिष्ठ नेता शामिल हुए। कचहरी चौक में बीजेपी के नेता रैली को संबोधित कर रहे हैं।
-नड्डा के कुल्लू स्थित निवास पर दोनों में करीब एक घंटा हुई चर्चा बॉलीवुड क्विन कंगना रनौत ने रविवार को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकात की। यह मुलाकात राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के घर शास्त्री नगर कुल्लू में हुई। दोनों के बीच करीब एक घंटे तक चर्चा हुई। अब अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की सरगर्मियां भी लगभग शुरू हो गई हैं, ऐसे में दोनों के बीच हुई इस मुलाकात ने हिमाचल की राजनीति में हलचल बढ़ा दी है। माना जा रहा है कि भाजपा कंगना को मंडी संसदीय क्षेत्र से चुनावी मैदान में उतार सकती है। गौरतलब है कि कंगना रनौत बीते दिनों बिलासपुर में विश्व संवाद केंद्र द्वारा आयोजित सोशल मीडिया मीट में भी पहुंची थीं। उसके बाद कंगना रनौत अपने मनाली घर पर वापस लौट गई थीं। जैसे ही उन्हें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के आने की जानकारी मिली तो वह उनसे मिलने उनके निवास स्थान शास्त्री नगर पहुंच गईं। काबिले गौर है कि कुछ समय से कंगना रनौत के मंडी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने की खबरें सामने आ रही हैं। ऐसे में कंगना भी लगातार भाजपा के तमाम बड़े नेताओं से अपना संपर्क बनाए हुए हैं। आज कुल्लू में जेपी नड्डा से हुई इस मुलाकात के बाद रानीतिक चर्चाओं का माहौल और गर्म हो गया है।
हिमाचल प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेता एवं धर्मशाला से विधायक सुधीर शर्मा की फेसबुक पोस्ट ने एक बार फिर प्रदेश का सियासी पारा गरमा दिया है। कांग्रेस सरकार के दूसरे कैबिनेट विस्तार में भी जगह नहीं पाने के बाद सुधीर शर्मा ने फेसबुक पर लिखा- 'युद्धं निरंतर भवति, दैवेन सह, कालेन सह, अस्माभि: सह' पोस्ट डाला है। इसका अर्थ लड़ाई जारी है, भाग्य से, वक्त से, अपने आप से है। बता दें कि पिछले साल 11 दिसंबर को मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने 7 कैबिनेट मंत्रियों सहित शपथ ली थी। उस समय भी सुधीर शर्मा को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया था। इसके बाद सरकार के करीब एक साल के कार्यकाल के बाद हुए मंत्रिमंडल विस्तार में सुधीर को फिर से नजरअंदाज किया गया। हालांकि उन्होंने नवनियुक्त दोनों मंत्रियों को मंत्री बनने पर बधाई तो दी है, लेकिन वीरवार देर रात डाली फेसबुक पोस्ट ने सर्द मौसम में प्रदेश की सियासत को एक बार फिर गरमा दिया है।
भजन लाल शर्मा ने आज जयपुर के अल्बर्ट हॉल में राजस्थान के मुख्यमंत्री की शपथ ली। इस शपथ ग्रहण समारोह में पीएम मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा समेत कई बड़े नेता मौजूद रहे। भजन लाल के अलावा दीया कुमारी सिंह और प्रेमचंद बैरवा ने भी शपथ ली। दीया कुमार और प्रेमचंद बैरवा को राज्य का उप मुख्यमंत्री बनाया गया है। भजन लाल शर्मा इस बार चुनाव जीतकर पहली बार विधायक बने हैं। ऐसे में उनपर भरोसा जताकर भाजपा ने भविष्य की राजनीति को साधने का काम किया है। बता दें कि बीते मंगलवार को हुई विधायक दल की बैठक भजन लाल शर्मा को विधायक दल का नेता चुना गया था। राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भजन लाल शर्मा के नाम का प्रस्ताव रखा था। भजन लाल शर्मा सांगानेर से विधायक हैं।
आपदा प्रबंधन को सलाम, महिलाओं को 1500 का इंतजार **पुरानी पेंशन बहाल कर सरकार ने निभाया बड़ा वादा ** सुखाश्रय योजना से सुक्खू सरकार ने जीता दिल ** सियासी संतुलन बनाने में असफल रही सरकार "...सत्ता परिवर्तन का जो सियासी रिवाज हिमाचल प्रदेश में 1990 से चला आ रहा था उसे जनता ने 2022 में भी बरकरार रखा। 8 दिसंबर 2022 को विधानसभा चुनाव के नतीजे आएं और कयासों के मुताबिक ही कांग्रेस सत्तासीन हुई। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के दो मुख्य कारण अगर देखे जाएँ, तो सम्भवतः पहला कारण रहा भाजपा का कमजोर चुनाव लड़ना। एक तिहाई सीटों पर भाजपा के बागी मैदान में थे और ये उसकी हार का बड़ा कारण बना। दोनों पार्टियों के वोट शेयर में अंतर एक प्रतिशत से भी कम रहा, जबकि निर्दलीयों के खाते में करीब दस प्रतिशत वोट गए। इनमें अधिकांश भाजपा के बागी थे। दूसरा कारण था, कांग्रेस की गारंटियां। कांग्रेस ने भाजपा से बेहतर चुनाव लड़ा और उसका गारंटी कार्ड चल गया। ये ही कारण है कि सिमटते कैडर के बावजूद कांग्रेस ने दमदार वापसी की। कांग्रेस के खाते में 40 सीटें आई, लेकिन भाजपा भी तमाम गलतियों के बावजूद 25 का आंकड़ा छू गई। यानी सरकार बेशक कांग्रेस ने बना ली हो लेकिन पहले दिन से उस पर परफॉरमेंस प्रेशर है। फिर तारीख आई 11 दिसंबर 2022, जगह थी हिमाचल की राजधानी शिमला का रिज मैदान, सर्दी का मौसम मगर तेज़ धूप और उस धूप में उबाल खाता हज़ारों कांग्रेस कार्यकर्ताओं का उत्साह। अर्से बाद वीरभद्र सिंह की जगह कोई और कांग्रेसी चेहरा सीएम पद की शपथ ले रहा था। जो सुखविंदर सिंह सुक्खू सालों वीरभद्र सिंह के सामने एक किस्म से अपने सियासी रसूख को बचाये रखने की लड़ाई लड़ते रहे थे, वे अब उनके बाद मुख्यमंत्री बन चुके थे। पार्टी के 40 विधायक जीत कर आए थे और इन 40 विधायकों में से सबसे ज्यादा सुक्खू के पक्ष में थे। होली लॉज खेमे के विधायक प्रतिभा सिंह और मुकेश अग्निहोत्री के बीच बंटे हुए थे। ये ही सुक्खू के पक्ष में गया था। राजधानी कांग्रेसमय दिख रही थी, मैदान खचाखच भरा था और नारे लग रहे थे 'प्रदेश का मुख्यमंत्री कैसा हो, सुक्खू भाई जैसा हो। कांग्रेस में ये नए दौर की शुरुआत थी। शपथ ग्रहण मंच पर पूर्व मुख्यमंत्री स्व राजा वीरभद्र सिंह की तस्वीर भी रखी गई थी, उन्हें शपथ से पहले श्रद्धांजलि दी गई और फिर मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री ने शपथ ली। धुआंधार लॉबिंग और मैराथन बैठकों के बाद सुक्खू मुख्यमंत्री तो बन गए थे लेकिन ये ताज काँटों भरा ताज है। सुक्खू सरकार के सामने पहले दिन से न सिर्फ परफॉर्म करने की चुनौती है बल्कि पार्टी के भीतर भी सामंजस्य बैठाना है। एक साल बीत गया है और कई मोर्चों पर सरकार हिट साबित हुई है, तो कई पैमानों पर अब सरकार का असल इम्तिहान होना है। " सुक्खू सरकार एक साल की हो गई है ...सत्ता पक्ष इसे 'सुख की सरकार' कह रहा है तो विरोधी 'दुख की सरकार', कांग्रेस उपलब्धियों की बुकलेट बाँट रही है तो भाजपा नाकामी के पर्चे। ये तो सियासत के रस्म-ओ-रिवाज है जो सत्ता पक्ष को भी निभाने है और विपक्ष को भी। बहरहाल एक साल की सुक्खू सरकार को लेकर भी सबका अपना-अपना विश्लेषण है। सरकार का कामकाज उसकी गारंटियों की कसौटी पर भी आँका जा रहा है, आपदा प्रबंधन पर भी और सरकार की जमीनी पकड़ भी इसका मापदंड है। कहीं शांता कुमार जैसे दिग्गज सरकार की तारीफ कर रहे है, तो कहीं पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष ही सीएम को पत्र लिखकर वादे याद दिला रहे है। इस बीच सुक्खू सरकार जनता के बीच सुछवि गढ़ने के प्रयास में लगी है, तो भाजपा छवि बिगाड़ने का कोई मौका नहीं चूक रही। खेर, बनती बिगड़ती सियासी इक्वेशन अपनी जगह, लेकिन कामकाज की कसौटी पर आंके तो सुक्खू सरकार ने कई ऐसे काम किये है जो अपनी छाप छोड़ गए। पुरानी पेंशन बहाली का वादा भी सरकार ने पूरा किया और सुख आश्रय योजना से सरकार का मानवीय चेहरा भी दिखा। वहीँ आपदा में सुक्खू सरकार के कामकाज पर तो वर्ल्ड बैंक और नीति आयोग ने भी ताली बजाई। हालांकि, सरकार के लिए सब हरा हरा नहीं है, महिलाओं को 1500 रुपये देने की गारंटी भी अभी अधूरी है और सियासी संतुलन बनाने में भी सरकार असफल दिखती है। पुरानी पेंशन के अलावा भी कर्मचारियों के मसले है जो अनसुलझे है। युवा एक साल में ही सड़कों पर उतर आए थे, कोई रिजल्ट मांग रहा है तो कोई नौकरी। प्रयास तो जारी है मगर फिलहाल खाली खजाना सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। सरकार के बड़े काम ... अनाथ बच्चे अब 'चिल्ड्रन ऑफ़ स्टेट' हिमाचल प्रदेश के सभी अनाथ बच्चे अब 'चिल्ड्रन ऑफ स्टेट' है। ये सुक्खू सरकार का वो फैसला है जिसने सबका दिल छुआ। अनाथ बच्चों का पालन पोषण, शिक्षा, आवास, विवाह आदि का खर्चा सरकार ने उठाने का निर्णय लिया है। सुक्खू सरकार की इस मानवीय पहल को चौतरफा तारीफ मिली है। सुख आश्रय योजना निसंदेह सुक्खू सरकार का वो काम है जो सदा याद रखा जायेगा। राज्य में अब तक 4000 अनाथ बच्चों को पात्रता प्रमाण पत्र जारी कर दिए गए हैं, जिससे अब वह मुख्यमंत्री सुखाश्रय योजना का लाभ उठा सकेंगे। इस योजना के तहत 27 वर्ष की आयु तक अनाथ बच्चे की देखभाल का ज़िम्मा राज्य सरकार का है। इसके साथ ही अनाथ बच्चों को क्लोथ अलाउंस व त्यौहार मनाने के लिए भत्ता प्रदान किया जा रहा है। उनकी उच्च शिक्षा, रहने का खर्च, 4000 रुपए पॉकेट मनी राज्य सरकार की ओर से प्रदान की जाएगी। राज्य सरकार अनाथ बच्चों को नामी स्कूलों में दाख़िला दिलाने के लिए भी प्रयास कर रही है। इसके साथ ही उन्हें आत्मनिर्भर बनाने तथा घर बनाने के लिए 3 बिस्वा भूमि तथा 2 लाख रुपए की आर्थिक सहायता प्रदान की जा रही है। पुरानी पेंशन बहाल करके दिखाई वादे के मुताबिक सुक्खू सरकार ने कर्मचारियों को पुरानी पेंशन बहाली का तोहफा दिया है। प्रदेश की ख़राब आर्थिक स्थिति के बावजूद सरकार ने कर्मचारियों से वादा निभाया है। प्रदेश सरकार द्वारा चौथी कैबिनेट की बैठक में ही पुरानी पेंशन बहाली की एसओपी को मंज़ूरी दे दी गई थी और 1 अप्रैल, 2023 से पुरानी पेंशन लागू कर दिया गया । चुनाव से पहले कांग्रेस द्वारा जनता को दी गई गारंटियों में से पुरानी पेंशन बहाली पहली गारंटी थी। प्रदेश की नई सरकार ने कर्मचारियों की पेंशन की सबसे बड़ी टेंशन को खत्म कर दिया। हिमाचल में करीब सवा लाख कर्मचारी इस समय एनपीएस के दायरे में आते थे जिन्हे इसका लाभ मिला । इस फैसले से प्रदेश सरकार पर सालाना करीब 1,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त वित्तीय बोझ बढ़ गया मगर सरकार अपने वादे से पीछे नहीं हटी। अब इसका सियासी लाभ कांग्रेस को होगा या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा लेकिन ये सुक्खू सरकार का बड़ा फैसला है। ग्रीन हिमाचल मुहीम हरित राज्य प्रदेश सरकार ने राज्य को 31 मार्च, 2026 तक हरित ऊर्जा राज्य के रूप में विकसित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रदेश सरकार ने राज्य के प्रत्येक जिले में दो-दो ग्राम पंचायतों को पायलट आधार पर हरित पंचायत के रूप में विकसित करने की रूपरेखा तैयार की है। इन पंचायतों में 500 किलोवाट से एक मेगावाट विद्युत उत्पादन क्षमता की सौर ऊर्जा परियोजनाएं स्थापित की जाएंगी। हिमाचल प्रदेश ऊर्जा क्षेत्र विकास कार्यक्रम के तहत इन परियोजनाओं की स्थापना के लिए 50 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। सुक्खू सरकार ने 100 किलोवाट से लेकर एक मेगावाट तक की सौर ऊर्जा परियोजनाओं की स्थापना पर युवाओं को 40 प्रतिशत सब्सिडी देने की भी घोषणा की है। इन परियोजनाओं से उत्पन्न बिजली की खरीद राज्य विद्युत बोर्ड करेगा। सरकार सार्वजनिक परिवहन को विद्युत परिवहन के रूप में विकसित करने के लिए भी प्रयास कर रही है। इसके लिए इलेक्ट्रिक वाहनों को सरकारी महकमों में भी इस्तेमाल किया जा रहा है और इलेक्ट्रिक टैक्सी की खरीद पर सरकार सब्सिडी भी दे रही है। हिमाचल को ग्रीन राज्य बनाने में सुक्खू सरकार जुटी है, और ये सरकार की बेहतरीन पहल है। दशकों से लंबित इंतकाल के मामलों का निबटारा इंतकाल और तकसीम के दशकों पुराने मामलों को लेकर सुक्खू सरकार एक्शन मोड में है। सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू ने अधिकारियों को 24 जनवरी तक इंतकाल और तकसीम के मामलों को सुलझाने के निर्देश दिए हैं। इससे सालों से लंबित मामलों का निपटारा हो सकेगा। राजस्व लोक अदालतों का आयोजन कर सरकार हाज़ों मामले निबटा चुकी है। अब तक इंतकाल के लम्बित कुल 45 हजार 055 मामलों का निपटारा किया जा चुका है। किलो के हिसाब से सेब, अगले सीजन से यूनिवर्सल कार्टन किलो के हिसाब से सेब बेचने का फैसला हो या अगले सीजन से यूनिवर्सल कार्टन लागू करने का निर्णय, सुक्खू सरकार ने सेब बागवानों के हितों को महफूस रखने की दिशा में इच्छाशक्ति भी दिखाई है और फैसले भी लिए है। बागवानी मंत्री जगत सिंह नेगी हर मसले पर एक्टिव दिखे है और उनकी कार्यशैली की असर साफ दिख रहा है। एचपीएमसी को लेकर भी सरकार ने बड़े बदलाव लाने की दिशा में काम शुरू किया है और उम्मीद है इसके अच्छे नतीजे सामने आएंगे। अब 40 साल तक ही लीज पर जमीन सुक्खू सरकार ने लीज पर जमीन लेने की अवधि को 99 वर्ष से घटाकर अब अधिकतम 40 साल कर दिया है। हालांकि पुरानी लीज की अवधि नहीं बदलेगी। उद्योग लगाने और अन्य विकास परियोजनाओं को स्थापित करने के लिए अब 40 साल के लिए ही लीज पर जमीन का प्रावधान है। सरकार का कहना है कि अब धौलासिद्ध, लुहरी फेज-1 तथा सुन्नी जल विद्युत परियोजनाओं को 40 वर्ष के बाद हिमाचल प्रदेश को वापिस सौंपना होगा। वाईल्ड फ्लावर हॉल होटल को वापिस पाने के लिए राज्य सरकार कानूनी लड़ाई लड़ रही है। शानन प्रोजेक्ट को वापस लेने के लिए भी हिमाचल सरकार एक्शन मोड में दिखी है। आपदा प्रबंधन पर सुक्खू सरकार हिट... एक साल के कार्यकाल में सुक्खू सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी आपदा। आपदा में खुद सीएम सुक्खू दिन रात मैदान में डेट दिखे और हिमाचल सरकार ने बेहतरीन काम किया। वर्ल्ड बैंक और नीति आयोग ने भी सरकार के काम की तरफ की। सुक्खू सरकार 4500 करोड़ का बड़ा आपदा राहत पैकेज लेकर आई और मुआवजे की राशि में भारी वृद्धि कर पीड़ितों को राहत पहुँचाने का काम किया। राजनीति से इतर कई दूसरी विचारधारा के लोगों ने भी सरकार के कामकाज को सराहा। वहीँ केंद्र से मिलने वाली मदद को लेकर भी खूब सियासत हुई। भाजपा कहती है कि केंद्र से भरपूर मदद मिली और सीएम सुक्खू खुलकर कहते है कि अगर मदद मिली है तो भाजपा बताएं। इसमें कोई संशय नहीं है कि केंद्र ने हिमाचल को कोई विशेष आपदा राहत पैकेज नहीं दिया है। वहीँ प्रदेश की आर्थिक स्थीति भी खराब है। बावजूद इसके सुक्खू सरकार ने साहस भी दिखाया और बड़ा दिल भी। बहरहाल, सीमित संसाधनों के बीच सरकार के सामने अब चुनौती बड़ी है और सुक्खू सरकार का असल इम्तिहान अभी बाकी है। बढ़ता कर्ज सबसे बड़ी चुनौती .... हिमाचल प्रदेश पर 78,430 करोड़ रुपए कर्ज है। राज्य सरकार पर डीए और एरियर के रूप में करीब 12 हजार करोड़ रुपए के करीब देनदारियां हैं। यदि इसी रफ्तार से कर्ज लिया जाता रहा तो अगले साल हिमाचल पर कर्ज का बोझ एक लाख करोड़ रुपए को पार कर जाएगा। कर्ज को लेकर सियासत भी खूब हुई है। सुक्खू सरकार विधानसभा में श्वेत पत्र लेकर इसका ठीकरा पूर्व की जयराम सरकार पर फोड़ चुकी है तो भाजपा का कहना है कि सुक्खू सरकार प्रतिमाह एक हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज ले रही है। बहरहाल, प्रदेश की आर्थिक हालत पतली है, केंद्र ऋण लेने की सीमा कम कर चुका है, ओपीएस का बोझ भी सरकार पर अभी पड़ना है और आपदा ने भी कमर तोड़ दी है। ऐसे में सुक्खू सरकार के लिए आने वाला समय बेहद कठिन होने वाला है। राजस्व बढ़ाने के हुए प्रयास, पर इतना काफी नहीं .... इस वर्ष हिमाचल प्रदेश सरकार के राजस्व में 1100 करोड़ रुपये की वृद्धि का अनुमान है। वर्तमान राज्य सरकार ने राजस्व बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए हैं, जिनके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। शराब के ठेकों की नीलामी से राज्य सरकार को 500 करोड़ रुपये का अतिरिक्त राजस्व मिलेगा। इसके अलावा कई छोटे छोटे फैसलों से सरकार को राजस्व बढ़ोतरी हो रही है, हालंकि ये नाकाफी है। फिर भी सरकार के प्रयास जरूर दिखे है। हिमाचल सरकार ने प्रदेश की आर्थिकी को पटरी पर लाने के लिए ऊर्जा उत्पादकों पर वॉटर सेस लगाने का निर्णय लिया था। वॉटर सेस की दर 0.06 से लेकर 0.30 रुपये प्रति घन मीटर तय की गई थी। राज्य जल उपकर आयोग ने सितंबर में कई ऊर्जा उत्पादकों को वाटर सेस के बिल जारी कर दिए थे। बीबीएमबी,एनटीपीसी,एनएचपीसी समेत कई अन्य ऊर्जा उत्पादकों ने प्रदेश सरकार के इस निर्णय को हाई कोर्ट में चुनौती दे रखी है। वहीँ केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय ने 25 अक्टूबर को सभी राज्यों को एक पत्र लिख वॉटर सेस को अवैध व असंवैधानिक बताते हुए इसे शीघ्र बंद करने के निर्देश दिए हैं। सुक्खू सरकार की तरफ से पर्यटन को बढ़ावा देने के कुछ प्रयास भी दिखते है और इच्छाशक्ति भी। हालांकि आपदा ने सरकार को बड़ा झटका जरूर दिया है। अलबत्ता पर्यटन आधारभूत या पॉलिसी सुधार की दिशा में अब तक कोई बड़ी कामयाबी सरकार को नहीं मिली है, लेकिन उम्मीद जरूर जगी है कि जल्द सरकार एक्शन मोड में दिखेगी। एडवेंचर टूरिज्म, धार्मिक पर्यटन की दिशा में सरकार के थोड़े प्रयास दिखे है, लेकिन सरकार से अपेक्षा किसी बड़ी योजना है। माहिर भी मानते है कि पर्यटन की दिशा में कोई बड़ा कदम उठाकर ही सरकार आत्मनिर्भर हिमाचल के लक्ष्य की तरफ बढ़ सकती है। धर्म संकट...खाली खजाना और 1500 देने का अधूरा वादा हिमाचल में कांग्रेस पर गारंटियां पूरी करने का दबाव है। जिन दस गारंटियों के बुते कांग्रेस सत्ता में आई उनमे से एक मुख्य गारंटी थी महिलाओं को हर माह पंद्रह सौ रुपये देना। बढ़ते कर्ज के बीच सुक्खू सरकार कैसे इसे पूरा करती है , इस पर निगाह टिकी है। जाहिर है हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद हिमाचल सरकार पर आधी आबादी से किया गया वादा पूरा करने का दबाव है, लेकिन खराब आर्थिक स्थीति इसमें रोड़ा है। भाजपा इसे जमकर भुना रही है और अब ये 1500 रुपये का वादा बड़ा मुद्दा बन चूका है। लोकसभा चुनाव दस्तक दे रहे है और ये गारंटी कांग्रेस के गले की फांस बन चुकी है। खाली खजाने के बीच सरकार धर्म संकट में है। कई अन्य गारंटियां भी अभी अधूरी है जिनमें 300 यूनिट मुफ्त बिजली और पांच लाख रोजगार प्रमुख है। कैबिनेट में असंतुलन..10 विधायक देने वाले कांगड़ा को एक मंत्री पद ! एक साल में विपक्ष द्वारा सुक्खू सरकार को घेरना इतना चर्चा में नहीं रहा जितनी चर्चा अपनों की नाराजगी की हुई। किसी ने नाराजगी खुलकर जाहिर की तो किसी ने सोशल मीडिया पर चेतावनी दी। बात पार्टी के भीतरी संतुलन की ही नहीं, बात कैबिनेट असन्तुलन की भी हुई। सीएम सहित 9 लोगों की कैबिनेट कई पैमानों पर असंतुलित है। कांगड़ा और मंडी संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक-एक मंत्री है। ज़िलों के हिसाब से बात करें तो सबसे बड़े जिला कांगड़ा से कांग्रेस के दस विधायक है, पर मंत्री सिर्फ एक। जबकि सात विधायक वाले शिमला से तीन मंत्री है। ये असंतुलन सिर्फ सियासी मसला नहीं है, जिस जनता ने कांग्रेस को वोट दिया वो भी अपेक्षा रखती है कि क्षेत्र में कोई मंत्री होगा तो विकास को रफ़्तार मिलेगी। इसी तरह हिमाचल कैबिनेट में अभी 9 में से 6 क्षत्रिय है, जबकि ब्राह्मण, एससी और ओबीसी सिर्फ एक-एक है। पांच साल के लिए सरकार चुनी गई है और एक साल बीत चुका है लेकिन अब तक कैबिनेट पूरी नहीं हुई है। ये ही हाल बोर्ड निगमों का है। अब सरकार का रुख जल्द विस्तार का दिख जरूर रहा है लेकिन इच्छा से ज्यादा शायद मजबूरी है। तीन राज्यों की हार ने कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है और संभवतः अब आलाकमान भी पार्टी के भीतरी संतुलन को सुनिश्चित करे। बहरहाल मुख्यमंत्री का ताजा बयान ये है कि नए मंत्री इसी साल में मिलेंगे। कोर्ट में गया सीपीएस नियुक्ति का मामला सुक्खू सरकार ने ने छह सीपीएस नियुक्त किए थे – अर्की विधानसभा क्षेत्र से संजय अवस्थी, कुल्लू से सुंदर सिंह, दून से राम कुमार, रोहड़ू से मोहन लाल बराकटा, पालमपुर से आशीष बुटेल और बैजनाथ से किशोरी लाल। इनके अलावा मुकेश अग्निहोत्री को उप मुख्यमंत्री बनाया गया है। भाजपा नेताओं ने इनकी नियुक्ति को कोर्ट में चुनौती दे दी है।मामले की सुनवाई जारी है और कोर्ट के फैसले का इंतजार है। इस मामले में अब 20 दिसंबर को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में अगली सुनवाई है। बीजेपी नेता सतपाल सिंह सत्ती और 11 अन्य बीजेपी विधायकों ने अदालत में याचिका दायर कर आरोप लगाया था कि सीपीएस और डिप्टी सीएम का ऐसा कोई पद संविधान के तहत या संसद द्वारा पारित किसी कानून या अधिनियम के तहत मौजूद नहीं है। उन्होंने याचिका में दलील दी कि सीपीएस के पदों पर नियुक्ति राज्य के खजाने पर बोझ है। याचिका के अनुसार, 91वें संशोधन में मंत्री पदों की संख्या सदन की कुल संख्या का 15 प्रतिशत कर दी गई और इस मानदंड के अनुसार राज्य में 12 मंत्री हो सकते हैं क्योंकि विधानसभा की सदस्य संख्या 68 है।आगे आरोप लगाया गया कि 6 सीपीएस की नियुक्तियां संविधान के विपरीत हैं। उन्हें सीपीएस के रूप में नियुक्त किया गया है, जो बिना बुलाए ही वास्तविक मंत्री हैं और मंत्रियों की सभी शक्तियों और सुविधाओं का आनंद लेते हैं। बहरहाल इस मामले में, विशेषकर सीपीएस की नियुक्ति को लेकर कोर्ट का क्या फैसला आता है, इस पर सबकी निगाह टिकी है। शिमला नगर निगम चुनाव जीते ...अब सोलन ने दिया झटका सुक्खू सरकार के एक साल के कार्यकाल में शिमला नगर निगम का चुनाव हुआ जहाँ कांग्रेस को शानदार जीत मिली। इसके बाद हालहीं में चार नगर निगमों में नए मेयर और डिप्टी मेयर चुनने की बारी थी। किस्मत की बदौलत कांग्रेस धर्मशाला नगर निगम में कब्ज़ा करने में कामयाब रही लेकिन सोलन में बहुमत होते हुए भी पार्टी की फजीहत हुई। कांग्रेस के दोनों अधिकृत उम्मीदवार हार गए। यहाँ मेयर पद कांग्रेस की बागी ने कब्जाया तो भाजपा को डिप्टी मेयर का पद मिल गया। वो फैसला जिसपर हुई विपक्ष ने जमकर घेरा सुक्खू सरकार ने आते ही सैकड़ों संस्थानों को डी नोटिफाई कर दिया। संस्थानों की डेनोटिफिकेशन पर भाजपा सरकार को जमकर घेरती रही है। भाजपा का आरोप है कि इस सरकार ने 10 महीने के कार्यकाल में ही हिमाचल के 1000 से अधिक चले हुए संस्थान बंद किए बंद कर दिए थे। कई शिक्षण स्थान भी बंद हुए और निसंदेह इससे कई छात्रों को कई दिक्क्तों कि खबरें भी सामने आई।
**कांग्रेस ने 1500 का वादा किया, शिवराज ने 1250 प्रतिमाह दिया **हिमाचल के अधूरे वादे को भाजपा ने जमकर भुनाया लाडली बहना योजना ...ये शिवराज सिंह चौहान की वो योजना है जो मध्य प्रदेश चुनाव में गेम चैंजेर सिद्ध हुई। इस योजना के तहत सरकार प्रदेश में हर महिला के खाते में 1,250 रुपए हर महीने ट्रांसफर करती है, यानी सालाना महिलाओं को 15,000 रुपये की आर्थिक सहायता दी जाती है। इसके जवाब में मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने नारी सम्मान योजना के तहत महिलाओं को 1500 रुपये महीना देने की गारण्टी दी थी, यानी ढाई सौ रुपये ज्यादा। ये कांग्रेस की 11 गारंटियों में से एक थी। पर मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की लाड़ली बहना योजना कांग्रेस की हर गारंटी पर भारी पड़ी। दरअसल कांग्रेस तो सिर्फ वादा कर रही थी और भाजपा इस योजना का लाभ दे रही थी। ऐसे में महिलाओं ने वादे पर ऐतिबार नहीं किया बल्कि लाडली बहन योजना को जहन में रखा। ठीक ऐसी ही योजना का वादा कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में किया था जहाँ महिलाओं को 1500 रुपये प्रतिमाह देने की गारंटी दी थी। पर अब तक महिलाओं को इसका इंतजार है। भाजपा ने इसे मध्य प्रदेश में जमकर भुनाया। हिमाचल प्रदेश के भी सैकड़ों भाजपा नेता-कार्यकर्ता मध्य प्रदेश में प्रचार के लिए पहुंचे और सभी ने खुले मंचों से कहा की हिमाचल में कांग्रेस ने अब तक महिलाओं को दी गारंटी पूरी नहीं की है। अब तक महिलाएं इन्तजार में है। ये सच भी है। ऐसे में जाहिर है मध्य प्रदेश में महिलाओं ने कांग्रेस के वादे पर नहीं शिवराज सरकार के काम पर भरोसा जताया। बहरहाल मध्य प्रदेश में भाजपा की जीत हिमाचल की कांग्रेस सरकार के लिए भी एक सीख जरूर हैं। आधी आबादी को साधकर सत्ता की राह आसानी से प्रशस्त की जा सकती हैं, यदि वादे पुरे किये हो। निसंदेह प्रदेश की ख़राब आर्थिक स्थिति कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी बाधा हैं, लेकिन जब कर्मचारियों को ओपीएस मिल सकती हैं तो आधी आबादी 1500 रुपये प्रतिमाह क्यों नहीं ? बहरहाल ये कांग्रेस को तय करना हैं कि किस तरह वो गारंटियों को पूरा करती हैं, यदि पार्टी खानापूर्ति करती हैं तो वोटर भी खानापूर्ति ही करेगा
The BJP secured victories in Madhya Pradesh, Rajasthan, and Chhattisgarh without projecting a chief ministerial face, relying primarily on the appeal of Prime Minister Narendra Modi. Despite the absence of local leaders, the party emerged triumphant, reclaiming control after setbacks in Karnataka. The central leadership now has the flexibility to choose new chief ministers and foster regional leadership. While potential leaders like Shivraj Singh Chouhan and Vasundhara Raje remain popular in their states, their distance from the central leadership poses a challenge. Party insiders acknowledge their influence but stress the need for stability in the long term. Lessons from Karnataka and other states highlight the importance of aligning leadership choices with sustained electoral success. In the aftermath of the victories, BJP leaders credited Prime Minister Modi for the triumph. The party's shift towards central leadership echoes a similar trend a decade ago when Modi emerged as the prime leader, sidelining other prominent figures. The fate of several familiar BJP faces in Madhya Pradesh, Chhattisgarh, and Rajasthan now hangs in uncertainty amid this evolving political landscape.
** आखिर किसके सर सजेगा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का ताज मध्यप्रदेश में लाडली लहर ऐसी चली की भाजपा ने प्रचंड बहुमत के साथ जोरदार जीत हासिल की। भाजपा को भारी बहुमत मिलने के बाद अब सबकी निगाहें मुख्यमंत्री कि कुर्सी पर टिकी हुई है। मध्यप्रदेश में इस वक़्त सबसे अहम् सवाल ये बना हुआ है कि इस बार मुख्यमंत्री कौन बनेगा ? क्या शिवराज सिंह चौहान को फिर मौका मिलेगा या कोई अन्य चेहरा सीएम की कुर्सी पर विराजमान होगा। सीएम पद के दावेदार अनेक है, लेकिन शिवराज के सामने कोई टिक पाएगा ऐसा मुश्किल लगता है। ये सच है कि इस बार चुनाव में शिवराज की योजनाओं ने मध्यप्रदेश के मतदाताओं पर खूब असर डाला, 'लाड़ली लहर' भी चली शिवराज को जनता का प्यार भी मिला, लेकिन एक सच ये भी है कि पार्टी ने इस बार शिवराज को सीएम प्रोजेक्ट नहीं किया। इस दफा पूरा चुनाव पीएम मोदी के फेस पर ही लड़ा गया है। 'मोदी के मन में एमपी, एमपी के मन में मोदी' ये नारा देकर ही भाजपा ने इस बार चुनाव लड़ा है। इससे ये जाहिर होता है कि अब सीएम फेस के लिए किसके नाम पर मोहर लगेगी ये भी मोदी ही तय करंगे, लेकिन इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि शिवराज सिंह के चुनाव प्रचार और उन्हीं की लाड़ली बहना योजना के कारण आज मध्यप्रदेश में भाजपा को जीत मिली है। लाडली बहाना योजना भाजपा के लिए गेमचेंजर साबित हुई है और इसका पूरा क्रेडिट शिव राज सिंह को जाता है। इस जीत से यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि मध्य प्रदेश में अभी भी सबसे लोकप्रिय नेताओं में शिवराज सिंह ही शामिल है। शिवराज के अलावा सीएम पद के दावेदारों में कई नाम चर्चा में बने हुए है इनमे ज्योतिरादित्य सिंधिया, कैलाश विजयवर्गीय,नरेंद्र सिंह तोमर और प्रह्लाद पटेल का नाम शामिल माना जा रहा है, लेकिन चुनाव के नतीजे देखने के बाद शिवराज कि लोकप्रियता को देखते हुए ऐसा लगता नहीं है कि पार्टी उन्हें सीएम पद से महरूम रखेगी। 15 सालों से प्रदेश में सत्ता पर काबिज शिवराज को एक बार फिर सीएम बनाया जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
न किसी को उम्मीद थी न अंदेशा, और छत्तीसगढ़ में खेला हो गया। नतीजों के लिए गिनती जारी थी, रुझान आने शुरू हुए तो लगा कि इस बार भी कांग्रेस कि सरकार बनेगी और चर्चाएं होने लगी कि क्या सीएम भूपेश बघेल ही रहेंगे ? इस बार मंत्रिमंडल में किन किन नेताओं को जगह मिलेगी ऐसे तमाम सवाल थे जो राजनीतिक गलियारों में घूम रहे थे, लेकिन देखते ही देखते कब वक़्त बदल गया, कब जज्बात बदल गए पता ही नहीं चला। स्कोरबोर्ड पर भाजपा को लीड मिलती देख हर कोई दंग रह गया। 90 सीटों वाले छत्तीसगढ़ में भाजपा का अर्धशतक देख सभी सर्वे फेल हो गए और सभी एग्जिट पोल कि पोल खुल गयी और भाजपा ने छत्तीसगढ़ में खेला कर दिया। चुनाव से पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की लहर थी। तमाम राजनीतिक विश्लेषक सियासी गुणा भाग कर ये आकलन कर बैठे थे कि इस बार छत्तीसगढ़ में बघेल सरकार रिपीट कर रही है। उधर बघेल सरकार भी ओवर कॉंफिडेंट थी। चुनाव बेहद नजदीक आ चुका था कि उसी समय छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक धमाका हुआ। नवंबर में ED ने सनसनीखेज आरोप लगाते हुए कहा कि महादेव बेटिंग एप में एक ई-मेल से खुलासा हुआ है कि महादेव एप के प्रमोटर्स ने छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल को 508 करोड़ रुपये की रिश्वत दी है। ये पैसे कांग्रेस पार्टी को चुनावी खर्चे के लिए दिए जा रहे हैं। हालांकि भूपेश बघेल ने इन सभी आरोपों से इनकार किया और इन्हें राजनीति से प्रेरित बताया, भाजपा ने भी मौके का फायदा उठाया और इस मुद्दे को ऐसा भुनाया कि बघेल सरकार के लिए महादेव एप घोटाला गले कि फांस बन गया। हर रैली हर जनसभा में मोदी ने महादेव का नाम जपा। नतीज़न 3 दिसम्बर को छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के होश उड़ गए। बघेल पाटन को पाटने में तो कामयाब रहे पर अपनी सरकार नहीं बचा पाए। छत्तीसगढ़ में डिप्टी सीएम समेत 9 मंत्रियों को करारी शिस्कत्त मिली। माहिर मान रहे है कि मोदी के नाम पर छत्तीसगढ़ में भाजपा को फायदा मिला है और ओवरकॉन्फिडेन्स ने कांग्रेस का खेल बिगाड़ा है। दूसरा महादेव कि कृपा भी बघेल सरकार पर नहीं बरसी और भाजपा ने बघेल सरकार का काम तमाम कर दिया।
** वसुंधरा ने शुभ मुहूर्त पर ही ली थी मुख्यमंत्री की शपथ राजपूतों की बेटी, जाटों की बहू और गुज्जरों की समधन, हम बात कर रहे है राजस्थान की महारानी वसुंधरा राजे की। वो महारानी जिसने राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री बन कर इतिहास रचा। वसुंधरा दो बार राजस्थान की सीएम बनीं, चार बार विधायक और पांच बार सांसद। राजनीति में मिली हर सफलता पर वसुंधरा पूजा-पाठ ज़रूर करती है और उनके पूजा-पाठ और शुभ मुहूर्त पर काम करने के कई किस्से भी काफी चर्चित हैं। कहा जाता है कि वसुंधरा राजे किसी भी काम से पहले विधिवत पूजा करती हैं और शुभ मुहूर्त पर ही अहम फैसले लेती हैं। पहली बार सीएम बनने के दौरान का एक ऐसा ही किस्सा बेहद चर्चित है। वो किस्सा है वसुंधरा राजे का शपथ समारोह। पहली बार राजभवन के बाहर नवनिर्मित विधानसभा भवन के सामने जनपथ पर राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री को शपथ दिलाई जा रही थी। शपथ दिलाने के लिए पहुंचे राज्यपाल और सीएम के साथ शपथ लेने वाले मनोनीत मंत्री मंच पर खड़े वसुंधरा राजे का इंतजार कर रहे थे, लेकिन वसुंधरा राजे को शपथ ग्रहण से पहले पंडित ने शुभ मुहूर्त दिन में 12:15 का बताया था। राज्यपाल शपथ दिलाने के लिए वसुंधरा की राह देख रहे थे। ठीक 12:15 बजे गले में केसरिया पटका पहने वसुंधरा राजे मंच पर पहुंचीं। ''मैं वसुंधरा राजे ईश्वर की शपथ लेती हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगी...'' वैदिक मंत्रोच्चार, पूजा-अर्चना के साथ शुभ मुहूर्त में मुख्यमंत्री का शपथ समारोह संपन्न हुआ और 8 दिसंबर, 2003 को राजस्थान को पहली महिला मुख्यमंत्री मिली। शपथ ग्रहण के तुरंत बाद सचिवालय में मंत्रिमंडल की बैठक होनी तय मानी जा रही थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्योंकि शुभ मुहूर्त के अनुसार मंत्रिमंडल की बैठक तीसरे पहर में की जानी थी। ऐसा पहली दफा ही हुआ होगा कि शपथ ग्रहण के तुरंत बाद सचिवालय में मंत्रिमंडल की बैठक नहीं हुई थी। आमतौर पर शपथ ग्रहण के बाद मंत्रिमंडल की बैठक होती है, लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ था। दूसरा बैठक से पहले सीएम की कुर्सी की पूजा की गई और फिर उस पर मुहूर्त के अनुसार वसुंधरा राजे बैठीं। कहते हैं कि वसुंधरा राजे जब भी झालावाड़ आती है तो यहाँ के प्रसिद्ध मंदिर परिसर में पहुंचकर बालाजी के दर्शन व् पूजा अर्चना करती है। यहां तक कि वसुंधरा राजे अपने चुनावी अभियान की शुरुआत भी मंदिर के पूजा अर्चना के बाद ही करती है। नामांकन भरने से पहले बालाजी के मंदिर पर पूजा अर्चना कर आशीर्वाद लेती है और यहां पर अखंड ज्योत जलती है जो अनवरत जलती रहती है।
बात 1985 की है, मध्यप्रदेश में चुनाव चल रहे थे। उस समय भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर के कारण मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता वापसी की। 320 विधानसभा सीटों में से 250 सीटों पर कांग्रेस विजयी रही। 1980 से 1985 अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे और ये चुनाव भी उन्ही के नेतृत्व में लड़ा गया था। अब सत्ता बरकरार रखने के बाद लाज़मी था कि अर्जुन सिंह फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठेंगे। औपचारिकता पूरी करने के लिए कांग्रेस विधानमंडल दल की बैठक अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री चुनने के लिए बुलाई गई। 11 मार्च 1985 को अर्जुन सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन अगले दिन ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। दरअसल, मुख्यमंत्री बनने के अगले दिन ही अर्जुन सिंह को पंजाब का राजयपाल नियुक्त कर दिया गया था। सवाल उठने लगे कि अगर राज्यपाल ही बनाना था तो अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री चुना ही क्यों गया? खुद अर्जुन सिंह भी इस फैसले से दंग थे और नाखुश भी और हो भी क्यों न, एक दिन के लिए मुख्यमंत्री पद मिलना और अगले दिन ही छीन जाना। ये अपने आप में आश्चर्यचकित कर देने वाली बात थी।सियासी गलियारों में चर्चाएं होने लगी कि आखिर इस घटनाक्रम की क्या वजह रही होगी। माहिरों का मानना था कि अर्जुन सिंह कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति का शिकार हो गए। लगातार दूसरी बार सीएम बनने से उनका बढ़ा राजनीतिक कद कांग्रेस के इनर सर्किल में पसंद नहीं था। उधर अर्जुन सिंह के पंजाब जाने के बाद मध्यप्रदेश कि सत्ता के सरदार बने मोतीलाल वोरा। अर्जुन सिंह के बाद मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। मोतीलाल सरकार के तीन साल का समय पूरा होने चला था, उधर अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश में वापसी को बेताब थे। अर्जुन सिंह का इंतज़ार खत्म हुआ और वे मध्यप्रदेश लौटने में कामयाब रहे। तब कांग्रेस लीडरशिप ने मोतीलाल वोरा को केंद्र बुला लिया और 14 फरवरी 1988 को अर्जुन सिंह एक बार फिर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। अर्जुन सिंह और मुख्यमंत्री की कुर्सी का नाता ज़्यादा समय नहीं टिक पाया और ये कार्यकाल एक साल भी नहीं चला। एक चर्चित घोटाले में नाम आने के बाद अर्जुन सिंह को फिर इस्तीफा देना पड़ गया। मुख्यमंत्री की कुर्सी फिर खाली हो गई और मोतीलाल वोरा को एक बार फिर सीएम बनाया गया। कांग्रेस की उठापटक इस हद तक बढ़ी कि अगले चुनाव से पहले मोतीलाल वोरा को फिर हटाना पड़ा और उनकी जगह श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने। इस तरह मध्य प्रदेश की आठवीं विधानसभा में पांच साल में पांच मुख्यमंत्री बने थे।
वीरेंद्र भट्ट मेयर और माधुरी कपूर बनी डिप्टी मेयर हिमाचल प्रदेश के मंडी नगर निगम पर फिर से भाजपा ने कब्जा कर लिया है। भारतीय जनता पार्टी के पार्षदों ने शनिवार को सर्वसम्मति से नया मेयर व डिप्टी मेयर चुन लिया है। पूर्व डिप्टी मेयर वीरेंद्र भट्ट को नया महापौर और माधुरी कपूर को उप महापौर बनाया गया है। मंडी में मेयर और डिप्टी मेयर के लिए वोटिंग की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि 15 में से 11 पार्षद भाजपा के पास पहले से थे। वहीँ तीन दिन पहले ही राज्य सरकार ने विधायकों को भी मेयर व डिप्टी मेयर के चुनाव में वोटिंग राइट दिया है। मंडी नगर निगम की परिधि में तीन विधानसभा क्षेत्र पड़ते है। तीनों विधानसभा पर भाजपा का कब्जा है। ऐसे में तीन भाजपा विधायकों के वोट को मिलाकर भाजपा के पास 14 का बहुमत था। वहीँ कांग्रेस ने मंडी में मेयर व डिप्टी बनाने की कोशिश भी नहीं की। वहीँ पालमपुर नगर निगम में एक बार फिर कांग्रेस के मेयर व डिप्टी मेयर बने है। गोपाल सूद महापौर, जबकि उप महापौर के तौर पर राजकुमार की ताजपोशी हुई है। नगर निगम पालमपुर में 15 वार्ड हैं और इन 15 वार्डों में कांग्रेस के पास 11, दो भाजपा व दो निर्दलीय पार्षद हैं। दो निर्दलीय पार्षदों ने भी कांग्रेस का दामन थाम लिया है। ऐसे में ढाई साल के बाद हुए महापौर उप महापौर के चुनाव में भाजपा के पास कोई मौका हीनहीं था। यह पहले से ही तय था कि महापौर व उप महापौर कांग्रेस का ही बनेगा। दो नगर निगमों के बाद अब सोलन और धर्मशाला नगर निगम में मेयर व डिप्टी मेयर का चयन होना है। सोलन नगर निगम पर अभी कांग्रेस का कब्जा है। यहां कांग्रेस पहले ही पूर्ण बहुमत की स्थिति में है। विधायक के वोटिंग राइट से एक ओर वोट बढ़ा है। मगर, धर्मशाला में विधायक को वोटिंग राइट मिलने से मुकाबला रोचक हो गया है। धर्मशाला नगर निगम में उलटफेर की सम्भावना बन सकती है। 17 में से कांग्रेस के पास 5 पार्षद और भाजपा के पास 8 पार्षद है। यहां दो निर्दलीय पार्षद भाजपा समर्थित और दो कांग्रेस समर्थित जीते हुए हैं। यानी चार निर्दलीय है। यहां विधायक कांग्रेस का है। ऐसे में कांग्रेस विधायक और चार निर्दलीय का मेयर-डिप्टी मेयर चुनने में निर्णायक भूमिका रहने वाली है। उधर सोलन में कांग्रेस की कलह में उम्मीद देख रही भाजपा की आस पूरी होती है या नहीं, ये देखना रोचक होगा। माना जा रहा है कि कांग्रेस यहाँ दोनों गुटों के बीच सहमति बननाने के प्रयास में है और मुमकिन है पार्टी को इसमें कामयाबी भी मिल जाएँ।
क्या कभी वापस मजबूत हो पाएंगे उद्धव ठाकरे ? 60 के दशक में मुंबई में बड़े कारोबार पर गुजरातियों का कब्जा था, जबकि छोटे कारोबार में दक्षिण भारतीयों और मुस्लिमों की धाक थी। मुंबई में ज्यादातर मराठी, गुजराती और दक्षिण भारतियों के यहाँ काम करते थे। उसी दौर में मुंबई की सियासत में एंट्री हुई एक कार्टूनिस्ट की। 'मराठी मानुस' का नारा बुलंद हुआ और देखते ही देखते 1966 में शिवसेना का गठन हो गया। मुंबई में मराठी बोलने वाले स्थानीय लोगों को नौकरियों में तरजीह दिए जाने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हो गया। दक्षिण भारतीयों के खिलाफ बाकायदा ‘पुंगी बजाओ और लुंगी हटाओ' अभियान चलाया गया। धीरे-धीरे मुंबई के हर इलाके में स्थानीय दबंग युवा शिवसेना में शामिल होने लगे। मुंबई को एक गॉडफादर मिल चुका था। ये किसी फिल्म की पटकथा नहीं है, ये कहानी है बालसाहेब ठाकरे की। मुंबई में दंगों के बाद बाला साहेब ठाकरे का जिक्र हर तरफ था। 1995 में इसी पर मशहूर फिल्मकार मणिरत्नम ने ‘बॉम्बे’ नाम की फिल्म बनाई। फिल्म में शिव सैनिकों को मुसलमानों को मारते और लूटते हुए दिखाया था। फिल्म के अंत में बाल ठाकरे से मिलता एक कैरेक्टर इस हिंसा पर दुख प्रकट करते हुए दिखाई देता है। बाल ठाकरे ने इस फिल्म का विरोध किया और मुंबई में इसे रिलीज नहीं होने देने का एलान कर दिया। फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर अमिताभ बच्चन थे जो बालासाहेब ठाकरे के दोस्त थे। कहते है इस विषय पर ठाकरे को मनाने के लिए अमिताभ उनके पास गए। अमिताभ ने उनसे पूछा कि क्या शिव सैनिकों को दंगाइयों के रूप में दिखाना उन्हें बुरा लगा। ठाकरे का जवाब था, " बिल्कुल भी नहीं। मुझे जो बात बुरी लगी वो था दंगों पर ठाकरे के कैरेक्टर का दुख प्रकट करना। मैं कभी किसी चीज पर दुख नहीं प्रकट करता।" ये ही बालासाहेब का तरीका था और ऐसा ये ही उनका मिजाज। एक दौर में बालासाहेब का हर शब्द शिवसैनिकों के लिए ईश्वर के आदेश से कम नहीं होता था। कभी महाराष्ट्र की राजनीति में वही होता था जो ठाकरे कहते थे। 9 भाई-बहनों में सबसे बड़े बाला साहेब ठाकरे के पिता केशव सीताराम ठाकरे मुंबई को भारत की राजधानी बनवाना चाहते थे। बालासाहेब पैदा तो पुणे में हुए थे लेकिन उन्हें भी मुंबई से बेहद प्यार था। बालासाहेब ने अपने करियर की शुरुआत एक कार्टूनिस्ट के तौर पर की थी। फिर 1960 के दशक में बालासाहेब पूरी तरह से राजनीति में एक्टिव हो गए। इसी समय उन्होंने मार्मिक नाम से साप्ताहिक अखबार भी निकाला। फिर मराठी मानुस का नारा बुलंद कर मुंबई की सियासत में छा गए। मुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनाव में शिवसेना लगातार छाप छोड़ती रही। 1980 आते आते मुंबई में शिवसेना की धाक थी और महाराष्ट्र में भी पार्टी को पहचान मिल चुकी थी, हालांकि अब तक पार्टी को कोई बड़ी चुनावी सफलता नहीं मिली थी। इसके बाद ठाकरे ने कट्टर हिंदुत्व की आइडियोलॉजी अपनाई और शिवसेना को खूब समर्थन मिला। मुंबई के विलेपार्ले विधानसभा सीट के लिए दिसंबर 1987 में हुए उप-चुनाव में पहली बार शिवसेना ने हिंदुत्व का आक्रामक प्रचार किया था। इस चुनाव में एक्टर मिथुन चक्रवर्ती और नाना पाटेकर ने शिवसेना के उम्मीदवार का प्रचार किया था। बालासाहेब ठाकरे ने हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगे और नतीजन चुनाव आयोग ने ठाकरे से 6 साल के लिए मतदान का अधिकार छीन लिया था। पर इसके बाद ठाकरे ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पार्टी राम जन्मभूमि आंदोलन में भी कूद गई और पुरे देश में शिवसेना का ग्राफ बढ़ा। इसी दौर में भाजपा भी मजबूत हो रही थी और शिवसेना और भाजपा साथ आ गए। 1990 के दशक में महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार बनी। बालासाहेब ठाकरे अपने विवादित बयानों के लिए हमेशा चर्चा में रहे। कभी डेमोक्रेसी के खिलाफ बोले तो 2006 में शिवसेना के 40वें स्थापना दिवस पर बाल ठाकरे ने मुसलमानों को एंटी नेशनल बता दिया। कभी ठाकरे के इशारे पर कोई फिल्म रिलीज़ नहीं हुई तो कभी पाकिस्तान से मैच के विरोध में पिच खोद दी गई। ठाकरे अपनी शर्तों पर अपनी तरह की राजनीति करते रहे। और पता चल गया रिमोट उनके हाथ में रहेगा ... साल 1995 में महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा गठबंधन की सरकार बनी और मुख्यमंत्री बने मनोहर जोशी। जीत के जश्न में कुछ दिन बाद एक पार्टी हुई जिसमे चंद ही मेहमान बुलाए गए थे। पार्टी बिलकुल शांति से चल रही थी, तभी पार्टी में बाल ठाकरे पहुंचे। ठाकरे ने देखा, खाने का तो अच्छा ख़ासा इंतज़ाम है, लेकिन पीने को कुछ नहीं है और बिफरते हुए कारण पूछा तो पता चला कि सीएम की मौजूदगी में शराब पीना ठीक नहीं। ठाकरे तो ठाकरे थे, उन्होंने तुरंत एक शैम्पेन की बोतल मंगाई और सीएम कैमरामैन की नज़र से बचने के लिए वो एक कोने में जाकर बैठ गए। ये ठाकरे का तरीका था। उसी दिन से सबको पता चल गया, सत्ता पर चाहे कोई बैठे, रिमोट कंट्रोल बाल ठाकरे के हाथ में रहेगा। इंदिरा गांधी थीं पसंदीदा काटूर्न कैरेक्टर बतौर कार्टूनिस्ट बालासाहेब ठाकरे ने देश के कई दिग्गजों पर कार्टून बनाकर कई बड़े मुद्दे उठाए और सवाल भी किए, लेकिन राजनीति जगत में सबसे ज्यादा निशाना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर साधा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कामों पर सवाल उठाने में पीछे वो नहीं रहे। वे कांग्रेस की करनी और कथनी में कितना फर्क समझते थे, इसी बात को लेकर उन्होंने इंदिरा गांधी पर कई कार्टून बनाए। 1971 में कांग्रेस ने गरीबी हटाओ का नारा दिया तो उन्होंने कार्टून बनाया और लिखा इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया है, लेकिन उनका दौरा शाही था। 1975 में जब कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी से कांग्रेस का गठबंधन हुआ था तब बालासाहेब ने कार्टून के जरिए टिप्पणी की थी कि कश्मीरी गुलाब के कांटे लहूलुहान कर रहे है। भतीजे को नहीं बेटे को सौपी विरासत बालासाहेब ठाकरे के तीन बेटे है,बिंदुमाधव ठाकरे, जयदेव ठाकरे और उद्धव ठाकरे। बिंदुमाधव ठाकरे बालासाहेब के सबसे बड़े बेटे थे और उनका 1996 में पत्नी माधवी के साथ एक एक्सीडेंट में निधन हो गया था। वे राजनीति से दूर ही थे। इसी तरह जयदेव ठाकरे भी लाइमलाइट और सियासत दोनों से दूर ही रहे। जबकि सबसे छोटे उद्धव ठाकरे उनके राजनैतिक वारिस है। पर एक दौर में उनका सियासी कामकाज सँभालते थे उनके भतीजे राज ठाकरे। कहते है शिवसेना में बालासाहेब के बाद राज का ही रुतबा था और कार्यकर्त्ता भी उन्ही से जुड़े थे। पर बालसाहेब ने अपना राजनैतिक वारिस चुना उद्धव ठाकरे को और इसे से आहात होकर राज ठाकरे ने अपनी अलग पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली। और कांग्रेस के साथ आ गए उद्धव ठाकरे... 17 नवंबर 2012 को बालासाहेब ठाकरे का निधन हो गया और पार्टी की कमान पूरी तरह उद्धव ठाकरे के हाथ में आ गई। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव और इसी साल के अंत में हुए विधानसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा गठबंधन ने चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। महाराष्ट्र में देवन्द्र फडणवीस सीएम बने और शिवसेना सरकार में शामिल रही। पर 2019 आते आते उद्धव ठाकरे के अरमान पंख फ़ैलाने लगे थे। एक वक्त पर बालासाहेब ठाकरे चाहते तो सीएम बन सकते थे लेकिन उन्होंने कभी ऐसा किया नहीं। 1995 में बाल ठाकरे ने जब बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई तो अपने करीबी नेता मनोहर जोशी को सीएम बनाया। इस दौरान बाल ठाकरे ने कहा था कि इस सरकार का रिमोट कंट्रोल मेरे हाथ में रहेगा। कहा जाता है कि बाला साहेब ठाकरे के समय महाराष्ट्र की राजनीति में वही होता था जो वह कहते थे। यदि सत्ता में बैठा व्यक्ति बाल ठाकरे की बात नहीं भी मानता था तो शिवसैनिक अपने तरीके से मनवा लेते थे, इसलिए वो कभी खुद सत्ता आसन पर नहीं बैठे। पर उद्धव ठाकरे की राय जुदा थी। नतीजन भाजपा से अलगाव के बाद शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली, उसी कांग्रेस के साथ जिसकी बालसाहेब ने ताउम्र आलोचना की। बाला साहेब ठाकरे ने साल 2004 में एक टीवी इंटरव्यू के दौरान कहा था, "मैं शिवसेना को कांग्रेस नहीं बनने दूंगा और अगर मुझे मालूम होगा कि ऐसा हो रहा है तो मैं अपनी दुकान बंद कर दूंगा।" पर उद्धव को कांग्रेस का साथ मंजूर था और आज भी है। कांग्रेस से हाथ मिलकर उद्धव ठाकरे सीएम तो बन गए लेकिन शिवसेना के भीतर भी कुछ नेता इससे खुश नहीं थे। ढाई साल के बाद शिवसेना को इस फैसले का खामियाजा भुगतना पड़ा और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पार्टी के बड़े गुट ने विद्रोह कर दिया। उद्धव की सरकार गई, साथ ही शिवसेना भी दो फाड़ हो गई। शिंदे भाजपा के सहयोग से सीएम बने और आज बालासाहेब की बनी पार्टी का सिंबल भी उनके पास है। कांग्रेस के साथ जाना उद्धव की क्या सबसे बड़ी भूल थी, इसे लेकर सबके अपने मत हो सकते है लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि बालासाहेब होते तो शायद ऐसा कभी न करते, न करने देते। कौन सी शिवसेना है बालासाहेब की शिवसेना ? अब बालासाहेब की शिवसेना दो हिस्सों में बंटी है, पार्टी का सिंबल शिंदे गुट के पास है और वे ही असली शिवसेना होने का दावा करते है। उद्धव कमजोर दीखते है और उन्हें उम्मीद है की जनता उन्हें अगले चुनाव में फिर ताकत देगी। दिलचस्प बात ये है की जिस एनसीपी का उन्हें सहारा था वो खुद बंट चुकी है। अजित पवार अपने समर्थक विधायकों के साथ शिंदे सरकार में शामिल है और डिप्टी सीएम है। उनके चाचा शरद पवार, उद्धव ठाकरे की तरह ही पार्टी पर अधिकार की लड़ाई लड़ रहे है। अब कौन सी शिवसेना असली है और कौन सी नकली, ये जनता तय करेगी। इस बीच राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के साथ आने के कयास भी लगते रहे है। अब शिवसेना की सियासत क्या मोड़ लेती है ये 2024 के विधानसभा चुनाव के बाद ही सम्भवतः स्पष्ट होगा। उलझे समीकरणों में उद्धव ठाकरे का इम्तिहान ! महाराष्ट्र की मौजूदा राजनैतिक स्थिति बेहद पेचीदा है। शिवसेना और एनसीपी जहाँ दो फाड़ हो चुके है, तो कांग्रेस की भूमिका सहयोगियों को आश्वासन देने से ज्यादा नहीं दिखती। शिवसेना का शिंदे गुट और एनसीपी का अजित पवार गुट भाजपा के साथ आ चुका है और तीनों मिलकर सरकार चला रहे है। शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट कमजोर दिख रहा है, तो शरद पवार के साथ भी अब पहले सी ताकत नहीं दिखती। अजित पवार के साथ कई दिग्गज भी उनका साथ छोड़ चुके है। वहीँ कई माहिर तो अब भी ये मैच फिक्स मानते है। ऐसी स्थिति में भाजपा निसंदेह अकेले दम पर भी सबसे मजबूत है। उधर कांग्रेस अभी भी मानो तमाशा देख रही है। करीब एक साल बाद राज्य में विधानसभा चुनाव होने है और कांग्रेस में चेहरा अशोक चव्हाण होंगे, पृथ्वीराज चव्हाण होंगे या कोई तीसरा, ये तय नहीं है। कांग्रेस, उद्धव ठाकरे और शरद पवार मिलकर चुनाव लड़ते भी है या नहीं, फिलहाल तो ये कहना भी जल्दबाजी है। वहीँ भाजपा के साथ शिवसेना के शिंदे गुट और अजित पवार किस तरह सीटों का समझौता करते है, ये देखना भी दिलचस्प होगा। फिलवक्त भाजपा 'मेजर' होकर भी 'माइनर' भूमिका में है, पर क्या ये बलिदान भाजपा आगे भी देगी ? बहरहाल महाराष्ट्र के राजनैतिक समीकरण बेहद उलझे हुए है और इनमें सबसे ज्यादा किसी की स्थिति नाजुक है तो वो है शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट। बालासाहेब की राजनैतिक विरासत को बचाये रखना उद्धव गुट के लिए बड़ी चुनौती है।
तीन राज्यों में कांग्रेस के लिए गेम चैंजेर हो सकता हैं OPS कांग्रेस को उम्मीद, भाजपा को पस्त करेगा ओपीएस अस्त्र तीन राज्यों में चला ओपीएस फैक्टर तो क्या भाजपा बदलेगी स्टैंड ? देश के सियासी पटल पर कांग्रेस की चमक बीते एक दशक में लगातार फीकी पड़ी है। कुछ राज्यों में मिली जीत छोड़ दी जाएँ तो देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी का ग्राफ साल दर साल गिरता रहा है। इस दरमियान पार्टी मौटे तौर पर किसी भी मुद्दे पर भाजपा को घेर नहीं पाई। पर बीत कुछ वक्त में पार्टी के हाथ एक मुद्दा लगा भी हैं और पार्टी ने उसका असर देखा भी हैं। ये मुद्दा है पुरानी पेंशन बहाली का जो मौजूदा समय में कांग्रेस के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकता है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा मिला है और अब निगाहें टिकी हैं राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों पर। इन तीन राज्यों के नतीजे न सिर्फ कांग्रेस की दशा सुधार सकते हैं, बल्कि पार्टी को दिशा भी दे सकते हैं। नतीजे मनमाफिक आएं तो केंद्रीय राजनीति में भी कांग्रेस ओपीएस की पिच पर खेलती दिख सकती हैं। बता दें कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस ओपीएस लागू करने के बाद मैदान में हैं, तो मध्य प्रदेश में पार्टी ने सत्ता आने पर ओपीएस का वादा किया हैं। कांग्रेस को उम्मीद हैं कि ओपीएस का मुद्दा इन तीन राज्यों में गेम चैंजेर सिद्ध होगा। फिलवक्त कांग्रेस के लिए ओपीएस का मुद्दा आस हैं, तो भाजपा के लिए गले की फांस हैं। माहिर भी मानते हैं कि ओपीएस का विरोध कर भाजपा एक बड़ा सियासी जोखिम ले रही है। भाजपा या तो ओपीएस पर एक शब्द नहीं बोलती या फिर इसका विरोध करती हैं, जहाँ जैसी सियासी जरुरत हो। पर इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि ओपीएस वो मुद्दा हैं जो न भाजपा से निगलते बन रहा हैं और न उगलते। खासतौर से पिछले दो ढाई साल से देश के विभिन्न राज्यों में ओपीएस बहाली का मुद्दा एक आंदोलन का रूप लेता जा रहा हैं। हिमाचल में भाजपा इसका खमियाजा भुगत चुकी हैं और अब तीन राज्यों के चुनाव नतीजों पर निगाह हैं। अगर कांग्रेस का ये मुद्दा चल गया तो भाजपा के पास फिलहाल इसकी कोई काट नहीं दिखती। हालांकि ये भी सच हैं कि राज्य सरकारें बिना केंद्र के सहयोग से लंबे समय तक आगे नहीं चल सकती हैं। एनपीएस का पैसा पीएफआरडीए में जमा है, जो केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। केंद्र की मर्जी के बिना, एनपीएस का पैसा राज्यों को नहीं दिया जा सकता। ऐसे में केंद्र पेंच फँसायें रख सकता हैं। पर ये भी तय हैं कि यदि राज्यों में कांग्रेस को अनुकूल परिणाम मिले तो कांग्रेस लोकसभा चुनाव में इसे जोर शोर से भाजपा के खिलाफ भुनाएगी। आखिरी सियासी जंग राज्यों की नहीं, बल्कि केंद्र की सत्ता के लिए ही होनी हैं। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश, इन तीनों ही राज्यों में मतदान हो चूका हैं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस पहले से सत्ता में हैं तो मध्य प्रदेश में पार्टी को सत्ता वापस चाहिए। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार में रहते ओपीएस बहाल कर चुकी हैं, वहीँ मध्य प्रदेश में ओपीएस बहाली कांग्रेस की गारंटी हैं। सिलसिलेवार बात करें तो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता वापसी को आश्वस्त दिख रही हैं, पर इसका कारण सिर्फ ओपीएस बहाली नहीं हैं। दरअसल छत्तीसगढ़ में वोटर साइलेंट रहा हैं और प्रत्यक्ष एंटी इंकम्बैंसी नहीं दिखी हैं। ऐसे में वोटिंग परसेंटेज में इजाफे को कांग्रेस प्रो इंकम्बैंसी मान कर चल रही हैं। पार्टी का मानना हैं कि बघेल सरकार के कई फैसले और योजनाओं के नाम पर जनता ने वोट दिया हैं जिनमें से ओपीएस भी एक हैं। वहीं मध्य प्रदेश में कांग्रेस को उम्मीद हैं कि लोगों को बदलाव चाहिए और बदलाव के लिए मतदान हुआ हैं। पर जानकार मान रहे हैं कि यहाँ मुकाबला नजदीकी हैं, ठीक 2018 की तरह। मध्य प्रदेश में निसंदेह ओपीएस बड़ा फैक्टर हैं। ऐसे में नजदीकी मुकाबले में यदि कांग्रेस बाजी मार जाती हैं तो ओपीएस को क्रेडिट देना पूरी तरह सही होगा। जानकारों की माने तो ये संभव हैं कि नजदीकी मुकाबले में ओपीएस ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस के लिए विक्ट्री शॉट लगा दिया हो। हालांकि इसकी तस्दीक काफी हद तक पोस्टल बैलट की गिनती से ही हो जाएगी। अब बात करते हैं उस राज्य की जहाँ ओपीएस को कांग्रेस ने सबसे बड़े सियासी अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया हैं। राजस्थान ओपीएस बहाल करने वाला देश का पहला राज्य था और इसका सेहरा बंधा सीएम अशोक गहलोत के सर। राजस्थान में आखिरी बार 1993 में सरकार रिपीट हुई थी, तब से हर बार बदलाव होता आया हैं। अधिकांश जानकार मानते हैं कि ये रिवाज बरकरार रह सकता हैं, लेकिन शायद ही कोई ऐसा हैं जो पूरी तरह रिपीट की सम्भावना को खारिज कर रहा हैं। ये ही कारण हैं कि मतदान से पहले एक सप्ताह में भाजपा ने राजस्थान में पूरी ताकत झोंक दी। पीएम मोदी ने इतनी जनसभाएं शायद ही इससे पहले किसी राज्य के विधानसभा चुनाव में की हो। उधर कांग्रेस को पता तो हैं कि 'मिशन रिपीट' डिफीट हो सकता हैं, लेकिन कर्मचारी वोट के बुते पार्टी को इतिहास रचने का भरोसा हैं। कांग्रेस को भरोसा हैं कि ओपीएस के चलते कर्मचारी वोट उसे मिला हैं और नतीजे चौंकाने वाले होंगे। क्या गहलोत का दांव मास्टर स्ट्रोक सिद्ध होगा ! सियासत में मुद्दे बनाये जाते है, बढ़ाये जाते है और उनका इस्तेमाल कर सत्ता की राह प्रशस्त की जाती हैं। राजस्थान में अशोक गहलोत ओपीएस बहाल तो पहले ही कर चुके थे, ऐसे में ओपीएस को भुनाने के लिए गहलोत ने अब नया पासा फेंका। कांग्रेस ने गारंटी दी है कि दूसरी बार सरकार बनते ही कर्मचारियों के लिए 'ओपीएस' को कानून के जरिए पक्का कर दिया जाएगा। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा, 'तो वेट नहीं, वोट कीजिए और पोस्टल बैलेट से ओपीएस को लॉक कीजिए'। सात चुनावी गारंटियों में पुरानी पेंशन स्कीम को कानूनी गारंटी का दर्जा देना भी शामिल हैं और इसे पहले नंबर पर रखा गया है। हालांकि गहलोत के इस दांव में पेंच भी है। ओपीएस को अगर राज्य में कानूनी दर्जा मिल भी गया तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि किसी दूसरे दल की सरकार उस कानून को निरस्त नहीं करेगी। ऐसे में कानूनी दर्जे की अहमियत पर सवाल उठना लाजमी हैं। फिर भी गहलोत को भरोसा हैं कि इससे वे कर्मचारियों का भरोसा जीतने में कामयाब रहे हैं। बहरहाल कर्मचारी अपना फैसला ले चुके हैं और नतीजे के लिए 3 दिसंबर का इन्तजार करना होगा। तो भाजपा को भी बदलना पड़ेगा स्टैंड ! माहिर मान रहे हैं कि अब तक ओपीएस फैक्टर का इस्तेमाल विधानसभा चुनावों में ही हुआ हैं। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का ये दांव सही पड़ा था और अब निगाह राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश पर हैं। विशेषकर अगर राजस्थान में सबको चौंकाते हुए कांग्रेस रिपीट कर जाती हैं तो ओपीएस की गूंज पुरे देश में सुनने को मिल सकती हैं। राजस्थान में सरकारी कर्मचारी अगर ओपीएस के समर्थन में मतदान करते हैं, तो चुनावी नतीजे चौंका सकते हैं। राजस्थान में करीब दस लाख सर्विंग और रिटायर्ड कर्मचारी हैं। इनके परिवारों को मिला लिया जाएँ तो ये संख्या विधानसभा चुनाव में समीकरण पूरी तरह बदल सकती हैं। यदि ऐसा होता हैं तो मुमकिन हैं भाजपा के रुख में भी ओपीएस को लेकर परिवर्तन देखने को मिले। राज्य कर रहे ओपीएस बहाल, पर फंसा हैं पेंच ! राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पंजाब और हिमाचल प्रदेश; ये वो राज्य हैं जो बीत कुछ वक्त में पुरानी पेंशन योजना को लागू करने का एलान कर चुके हैं। पर इसमें कोई दो राय नहीं हैं की इन राज्यों को आने वाले वक्त में आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। दरअसल, एनपीएस के तहत राज्य सरकारें, अपना और कर्मचारी की सैलरी का एक तय हिस्सा पेंशन फंडिंग रेगुलेटरी डेवलेपमेंट अथॉरिटी को देती हैं। इसे बाद में कर्मचारी को पेंशन के रूप में दिया जाता है। इसके तहत पेंशन फंडिंग एडजस्टमेंट के तहत राज्य सरकारें, केंद्र से अतिरिक्त कर्ज ले सकती हैं। यह अतिरिक्त कर्ज राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का तीन फीसदी तक हो सकता है। अब केंद्र ने नियमो में बदलाव किया हैं जिसके बाद संभव हैं कि ओपीएस लागु करने वाले राज्यों को कम कर्ज मिले। दूसरा, जिन राज्यों ने अपने कर्मियों को पुरानी पेंशन के दायरे में लाने की घोषणा की है, उन्हें एनपीएस में जमा कर्मियों का पैसा वापस नहीं मिलेगा, ये केंद्र ने एक किस्म से साफ कर दिया है। यह पैसा पेंशन फंड एंड रेगुलेटरी अथारिटी (पीएफआरडीए) के पास जमा है। नई पेंशन योजना यानी एनपीएस के अंतर्गत केंद्रीय मद में जमा यह पैसा राज्यों को नहीं दिया जा सकता, बल्कि ये पैसा केवल उन कर्मचारियों के पास ही जाएगा, जो इसका योगदान कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकार ने पीएफआरडीए से पैसा वापस लेने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह किया था, पर कोई सकरात्मक नतीजा नहीं निकला। ऐसा ही हिमाचल प्रदेश में भी हुआ हैं। एक तरह से कहा जा सकता हैं कि एनपीएस के तहत जमा अंशदान केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। अगर यह पैसा वापस नहीं आता है, तो राज्य सरकारों के खजाने पर इसका अतिरिक्त भार पड़ेगा। पर ये भी समझना होगा कि इसे वापस देना केंद्र के लिए भी आसान नहीं हैं क्यूंकि एनपीएस में जमा पैसा मार्केट में लगा है। इसमें उतार चढ़ाव आता हैं और जाहिर हैं इसे निकालना इतना सहज नहीं हैं। केंद्र सरकार एनपीएस का पैसा अगर देती भी हैं तो भी इसके लिए पीएफआरडीए एक्ट में संशोधन करना पड़ेगा। यानी ओपीएस में फंसा ये पेंच, संभव हैं आगे भी फंसा रहे। सक्रीय हुए कर्मचारी संगठन : पुरानी पेंशन बहाली के लिए केंद्र पर भी लगातार दबाव बढ़ रहा हैं। हालहीं में दिल्ली के रामलीला मैदान में सरकारी कर्मियों ने चेतावनी रैली आयोजित की थी। कॉन्फेडरेशन ऑफ सेंट्रल गवर्नमेंट एम्प्लाइज एंड वर्कर्स के बैनर तले आयोजित हुई इस रैली में ऑल इंडिया स्टेट गवर्नमेंट एम्प्लाइज फेडरेशन सहित करीब 50 कर्मचारी संगठन शामिल थे। जाहिर हैं ऐसे में केंद्र पर भी ओपीएस बहाली का दबाव हैं। कर्मचारियों की मुख्य मांगों में पीएफआरडीए एक्ट में संशोधन करना या उसे पूरी तरह खत्म करना भी शामिल हैं। ये चाहते हैं कि सरकार, पीएफआरडीए को वापस ले। जाहिर हैं जब तक इस एक्ट को खत्म नहीं किया जाता, तब तक विभिन्न राज्यों में लागू हो रही ओपीएस की राह मुश्किल ही बनी रहेगी।
यहाँ विधानसभा चुनावों से लेकर अमेरिका के चुनावों तक पर लगता हैं सट्टा ! चुनावों में सट्टे के लिए विख्यात है फलोदी फलोदी ; ताजा पहचान ये है कि ये कस्बा नया -या जिला बना है, पहले जोधपुर जिला का भाग हुआ करता था। हालांकि अब भी ये कस्बे की तरह ही है, एक ऐसा जीवंत कस्बा जहाँ पुरानी इमारतों की वास्तुकला उसके समृद्ध इतिहास की आज भी गवाही देती है। सर्दी के दिनों में यहां से नज़दीक खिचन नाम के एक गांव में प्रवासी पक्षी मौसम का मज़ा लेने आते हैं। पर ये फलोदी की असल पहचान नहीं है। पहचान ये है कि फलोदी का सट्टा बाजार के लिए पूरे देश में नाम है, या बदनाम है; ये सब अपने हिसाब से तय करते है। दरअसल ये ही फलोदी की पहचान है। यहां नुक्कड़ से लेकर घरों तक सट्टा खेला जाता है। कहते है फलोदी में सट्टे का काम बीते 500 साल से चल रहा है। बड़े से लेकर बच्चे तक फलोदी सट्टा बाजार में एक्टिव हैं। सट्टा यहां के लोगों का जूनून है। अगर कुछ नहीं होता है तो हवा में चप्पल उछालकर दांव लगा लेते हैं कि चप्पल उल्टी गिरेगी या सीधे। फलोदी में चार तरह का सट्टा लगता है। इनमें बारिश, क्रिकेट, चुनाव और अंकों का सट्टा शामिल है। पर जिसने इसे अलग पहचान दिलाई वो है चुनाव का सट्टा। विधानसभा और लोकसभा चुनव में ही नहीं, अमेरिका का राष्ट्रपति कौन बनेगा, ये भी यहाँ का सट्टा बाज़ार बता देता है। कहते है यहां चुनावी सट्टा देश में पहले चुनावों के साथ ही शुरू हो गया था। चुनाव के दौरान फलोदी के मुख्य बाज़ार में बने चौक में सुबह 11 बजे से लोग जमा होने शुरू होते हैं और देर रात तक जमावड़ा लगा रहता है। दृश्य कुछ ऐसा होता है मानो चुनावी विश्लेषकों का कोई समूह समीक्षा कर रहा हो। तथ्यों पर आधारित तर्क वितर्क होता है। इसके लिए सट्टेबाज ख़बरों पर पैनी नजर रखते हैं। साथ ही अलग-अलग इलाक़ों में बात कर लोगों की नब्ज़ टटोलते हैं, यानी उनका अपना सर्वे होता है। ये राजनीतिक दलों के आंतरिक समीकरणों को देखकर भी अपना आंकलन करते हैं। कहते है हवा का रुख भांपने में ये कोई गलती नहीं करते। इस सट्टे के कारोबार में दलाल, लगाइवाल और खाइवाल, तीन कड़ियां होती हैं। जानकार कहते हैं कि सट्टा बाज़ार का चुनावी आंकलन अधिकांश मौकों पर सही साबित होता है। सट्टा ग़ैर-क़ानूनी है, ऐसे में स्वाभाविक है इस बाजार में सब कुछ ज़ुबानी और एक दूसरे के भरोसे पर चलता है। राजस्थान में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हो चुका है और लाजमी है जब चुनाव राजस्थान का हो तो निगाह फलोदी सट्टा बाजार पर भी टिकी है। बताया जा रहा हैं कि राजस्थान में फलोदी का सट्टा बाजार भाजपा की सरकार बनने का दावा कर रहा है, वहीं इनके अनुसार मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ही होगी। इनकी मानें तो प्रचार के अंतिम सप्ताह में पीएम मोदी के धुआँधार प्रचार का लाभ राजस्थान में भाजपा को मिला है। फलोदी में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव नतीजों की भी भविष्यवाणी हो रही है। इनके अनुसार छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस रिपीट कर सकती है, तो वहीं मध्य प्रदेश में 2018 की तरह ही कांटे का मुकाबला है जहाँ कांग्रेस को चंद सीटें ज्यादा मिल सकती है। आपको बता दें कि फलोदी सट्टा बाजार का आंकलन हिमाचल, कर्नाटक और गुजरात विधानसभा में करीब-करीब ठीक था। हालांकि, पश्चिम बंगाल में फलौदी सट्टा बाजार भाजपा को जीता रहा था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बहरहाल मतदान की गणना 3 दिसंबर को की जाएगी तभी साफ हो पाएगा कि कहाँ किसकी सरकार बनेगी। नोट : सट्टा बाजार के दावों का हम समर्थन नहीं करते है। इस खबर का मकसद केवल सट्टा बाजार में चल रहे तथाकथित रुझानों को दिखाना है। सट्टा खेलना गैर-कानूनी है, कृपया इससे दूरी बनाए रखें। ........................................
सवाल : कांग्रेस को महागठबंधन से हासिल क्या होगा ? कैसे साथ आएंगे आप और कांग्रेस ? पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में ही विपक्ष के महागठबंधन की गांठें खुलती दिखी हैं। महागठबंधन में न दिल मिल रहे हैं और न हाथ। मध्य प्रदेश में सपा और कांग्रेस के बीच जो हुआ उसे तो माहिर सिर्फ ट्रेलर मान रहे हैं। वहीं आम आदमी पार्टी हर राज्य में टांग फंसाए हुए हैं। जाहिर हैं 'आप' का अंजाम 'आप' को भी पता हैं, यानी महागठबंधन के बड़े गटक दलों में न ताल हैं और न मेल, सबकी अपनी अपनी डफली और अपना अपना राग। ऐसे में ये महागठबंधन कब तक 'हम साथ साथ हैं' वाली तस्वीरें खींचवाता हैं, ये देखना रोचक होगा। फिलवक्त महागठबंधन बन चुका हैं और सवाल इसके टिकने पर हैं। इसमें शामिल एक राज्य तक सीमित कई नेता भी इसी प्रयास में दिख रहे हैं कि 'बिल्ली के भाग का छीका टूटे' और वो पीएम बन जाएँ। पर कांग्रेस के अलावा इस महागठबंधन में कोई ऐसी पार्टी नहीं हैं जो धुरी का काम कर सके। ज्यादातर अन्य पार्टियां जब एक राज्य से बाहर हैं ही नहीं, तो सीट शेयरिंग कैसी ? जो हैं उनकी सीट शेयरिंग भी कांग्रेस से होनी हैं, तो क्या कांग्रेस के लिए क्षेत्रीय गठबंधन मुफीद नहीं होता, ये पार्टी को सोचना होगा। महागठबंधन में कांग्रेस के अलावा सिर्फ आम आदमी पार्टी ही ऐसा दल हैं जिसकी सरकार एक से ज्यादा राज्य में हैं, पर कांग्रेस और आप के बीच सीट शेयरिंग की सम्भावना को तो खुद कांग्रेस के स्थानीय नेता अभी से खारिज कर रहे हैं। बहरहाल कांग्रेस इस महागठबंधन का हिस्सा बन चुकी हैं और जाहिर हैं अब पार्टी को सोच समझकर कर आगे बढ़ना होगा। देश के 5 राज्यों की 161 लोकसभा सीटें ऐसी है जहाँ कांग्रेस का या तो पहले से गठबंधन है या कांग्रेस अकेले क्षेत्रीय स्तर पर गठबंधन कर सकती है। महाराष्ट्र में 48 सीटें है और यहाँ एनसीपी का शरद पवार गुट -कांग्रेस और उद्धव ठाकरे पहले ही साथ है। बिहार में 40 सीटें है और यहाँ कांग्रेस -आरजेडी और जेडीयू पहले ही साथ है। तमिलनाडु में 39 सीटें है और यहाँ भी डीएमके और कांग्रेस पहले से साथ है। झारखंड में 14 सीटें है और यहाँ पहले से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस का गठबंधन है। केरल में 20 सीटें है और यहाँ भी लेफ्ट और कांग्रेस का गठबंधन एक किस्म से पहले से ही है। ऐसे में कांग्रेस का इस महागठबंधन में शामिल होने का औचित्य क्या था और इससे कांग्रेस को मिलेगा क्या ? वहीँ पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 सीटें है। वर्तमान में ममता बनर्जी बंगाल की सबसे ताकतवर नेता है। कांग्रेस और लेफ्ट मिलकर ममता के सामने लड़ते रहे है। अपेक्षित हैं कि ममता लेफ्ट के लिए एक भी नहीं छोड़ेगी, ऐसे में क्या कांग्रेस वक्त की नजाकत को समझते हुए लेफ्ट पर ममता को वरीयता देगी, ये बड़ा सवाल है। क्या ममता भी कांग्रेस को लेकर लचीला रुख अपनाती है, ये भी देखना होगा। इसी तरह दिल्ली की 7 और पंजाब की 13 सीटों पर कांग्रेस और आप के बीच सीट शेयरिंग होना बेहद मुश्किल है। ये दोनों राज्य आप ने कांग्रेस से छीने हैं, यहाँ आप से गठबंधन करना कांग्रेस के लिए भूल सिद्ध हो सकता हैं। कांग्रेस क्या खोयेगी,सपा को होगा नुक्सान ! उतर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटें है और पिछले चुनाव भी कांग्रेस और सपा ने मिलकर लड़ा था। तब बसपा भी साथ थी। यहाँ सपा और कांग्रेस के बीच तल्खी बढ़ती दिख रही हैं। कांग्रेस की कोशिश खोये हुए मुस्लिम वोट को फिर अपने साथ जोड़ने की हैं और ये ही सपा और कांग्रेस के बीच खटास का कारण बन रहा हैं। अगर कांग्रेस मुस्लिम वोट में सेंध लगा पाती हैं तो नुकसान सपा का ही होगा। कांग्रेस के पास यहाँ खोने को ज्यादा कुछ नहीं हैं और ऐसे में यहाँ जरुरत सपा को ज्यादा होगी। सपा का जनाधार उत्तर प्रदेश के बाहर न के बराबर हैं, ऐसे में कांग्रेस के लिए यहाँ क्षेत्रीय गठबंधन ज्यादा तर्कसंगत हैं। 130 सीटों पर भाजपा से सीधा मुकाबला छत्तीसगढ़ की 11, गुजरात की 26, हरियाणा की 10, हिमाचल की 4 , मध्य प्रदेश 29, राजस्थान की 25 और उत्तराखंड की 5 सीटों सहित देश की करीब 130 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है। यहाँ कांग्रेस को गठबंधन की जरुरत ही नहीं है।
**कांग्रेस रच गई इतिहास तो गहलोत को जाएगा क्रेडिट रियासतों के प्रदेश राजस्थान पर इस वक्त तमाम सियासी निगाहें टिकी है। विधानसभा चुनाव तो पांच राज्यों में है लेकिन जो महासंग्राम राजस्थान में छिड़ा, वैसा कहीं और नहीं दिखा। यूँ तो हर जगह भाजपा ने पीएम मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा है लेकिन जितनी जनसभाएं और रैलियां उन्होंने राजस्थान में की, उतनी कहीं और नहीं। संभवतः किसी भी प्रधानमंत्री ने किसी राज्य के चुनाव में इससे पहले इतनी ताकत न झोंकी हो। इसका कारण भी था, राजस्थान में ये तीस साल बाद पहला ऐसा चुनाव है जहाँ कोई माहिर दावे के साथ सत्ता पक्ष की वापसी की सम्भावना को ख़ारिज नहीं कर रहा। गहलोत सरकार की ओपीएस बहाली और अब इस पर कानून बनाने की गारंटी ने उस कर्मचारी वोट पर सस्पेंस बना कर रखा है जो पांच साल बाद शर्तिया तौर पर परिवर्तन के लिए मतदान करता था। परिवार की महिला मुखिया को दस हज़ार देने की गारंटी हो या गहलोत सरकार की अन्य योजनाएं, मौटे तौर पर कांग्रेस माहौल बनाने में कामयाब दिखी है। वहीँ वसुंधरा राजे इस बार भाजपा की सीएम फेस नहीं है, इसके चलते अंतिम एक सप्ताह तक भाजपा का प्रचार वो तेजी पकड़ ही नहीं पाया जैसा होता रहा है। ये ही कारण है आखिरी एक सप्ताह में पीएम मोदी ने राजस्थान में पूरी ताकत झोंकी जिसके बाद भाजपा का प्रचार रंग में आया। सत्ता परिवर्तन का सियासी रिवाज बरकरार रहे ये मुमकिन दिख रहा है, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है तो इसका असर राष्ट्रीय सियासत पर भी तय मानिए। इस सम्भावना को भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि 'मोदी बनाम गहलोत' की लड़ाई राजस्थान की सीमा तोड़ राष्ट्रीय पटल पर भी दिख सकती है। अशोक गहलोत ने राजस्थान की सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद एक तरह से ठुकरा दिया था। अब भी सत्ता वापसी हुई तो गहलोत की मंशा ऐसी ही लगती है। पर यदि रिपीट हो पाया तो गहलोत मौजूदा समय में वो इकलौते नेता बन जायेंगे जो भाजपा पर भारी पड़ते रहे है। राजस्थान में हुए सियासी ड्रामा में गहलोत अपनी सरकार बचाकर पहले ही काबिलियत दर्शा चुके है। इससे पहले पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहते हुए 2017 में उन्होंने पीएम मोदी के घर गुजरात में अपनी छाप छोड़ी थी। अब गहलोत रिपीट कर इतिहास रच गए तो संभवतः मौजूदा दौर में कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता कहलायेंगे। बेशक राहुल, प्रियंका और खड़गे ने जनसभाएं की हो, लेकिन जीत का चटक लाल साफा उन्हीं के सर सजेगा। पेचीदा गठबंधन में गहलोत कारगर ! कांग्रेस अकेले दम पर 2024 में भाजपा से लोहा ले सकती है, इसकी सम्भावना ज्यादा नहीं दिखती। चाहे राष्ट्रीय गठबंधन हो या क्षेत्रीय दलों से गठबंधन, लेकिन उपयुक्त गठबंधन से ही विपक्ष की नैया पार हो सकती है। गठबंधन में कई चेहरे पीएम पद की आस में होंगे और ऐसे में संभव है कांग्रेस खुलकर राहुल गाँधी को आगे न रखे। गठबंधन की स्थिति पेचीदा होने पर गहलोत कारगर चेहरा हो सकते हैं। यदि राजस्थान में गहलोत का जादू चल जाता है तो राष्ट्रीय राजनीति में भी उनका कद निसंदेह तौर पर बढ़ेगा।
केंद्र को लेकर न प्रो इंकम्बेंसी और न ज्यादा नाराजगी पीएम मोदी के चेहरे पर भाजपा को मिली थी एकतरफा जीत सही टिकट आवंटन होगा निर्णायक फैक्टर उम्मीदवार कोई भी रहा हो लेकिन चेहरा तो मोदी ही थे। पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन का सार ये ही हैं। देश के अधिकांश हिस्सों की तरह ही हिमाचल की चार लोकसभा सीटों पर भी भाजपा को पीएम मोदी के चेहरे पर एकतरफा जीत मिली। 2019 में तो हवा ऐसी चली कि कांग्रेस ने भी रिकॉर्ड बना दिए, हार के अंतर के रिकॉर्ड। जब राहुल गाँधी पूर्वजों की सीट अमेठी नहीं बचा पाएं तो हिमाचल में कांग्रेस के नेता भला क्या और कितना ही कर लेते। विधानसभा हलकों के लिहाज से देखे तो सभी 68 क्षेत्रों में कांग्रेस पिछड़ी। उस रामपुर में भी जहाँ विधानसभा चुनाव में कभी कमल नहीं खिला। बहरहाल पांच साल होने को आएं और फिर अब नेताओं को जनता के दरबार में हाजिरी लगानी हैं। अलबत्ता अभी चुनाव में चंद महीने शेष हैं लेकिन फिलवक्त जमीनी स्तर पर वैसी प्रो इंकमबैंसी नहीं दिख रही जैसी 2019 में थी। सियासी फिजा में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया तो सम्भवतः इस दफा जनता सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी का नहीं बल्कि उम्मीदवार का चेहरा भी देखेगी। यानी हिमाचल में मुकाबला खुला हैं। हिमाचल प्रदेश में 2019 से अब तक बहुत कुछ बदल गया हैं। जयराम पूर्व हो चुके हैं और सुक्खू वर्तमान हैं। 2021 में हुए उपचुनावों से भाजपा लगातार हारती आ रही हैं तो कांग्रेस के लिए सब बेहतर घटा हैं। बावजूद इसके जब मुकाबला लोकसभा का होगा तो भाजपा जरा भी उन्नीस नहीं हैं। लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जायेगा, प्रदेश में दोनों दलों की स्थिति कुछ असर तो डालेगी लेकिन नतीजे पूरी तरह प्रभावित नहीं कर सकती। पर केंद्र सरकार को लेकर भी न तो इस मर्तबा प्रो इंकम्बैंसी दिख रही हैं और न ही ज्यादा नाराजगी, ऐसे में दोनों ही दलों के लिए उम्मीदवारों का चयन बेहद महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। मंडी संसदीय सीट भाजपा ने 2021 के उपचुनाव में गवां दी थी, लेकिन अन्य तीन सीटों पर भाजपा के सांसद हैं। हमीरपुर सांसद अनुराग ठाकुर केंद्र सरकार में मंत्री हैं और खुद सियासत में एक बड़ा नाम हैं। ऐसे में संभव हैं यहाँ भाजपा कोई छेड़छाड़ न करें। हालांकि अनुराग प्रदेश के बाहर भी लोकप्रिय हैं और यदि उन्हें भाजपा कहीं और से उतारती हैं तो हमीरपुर से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा संभवतः दूसरा मुफीद विकल्प हैं। इसी संसदीय क्षेत्र से सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू और डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री भी आते हैं तो स्वाभविक हैं यहाँ भाजपा कोई रिस्क नहीं लेना चाहेगी। वहीं शिमला और कांगड़ा में जाहिर हैं भाजपा सियासी परफॉरमेंस का बही-खाता देखकर टिकट पर निर्णय लें। दोनों सांसदों, किशन कपूर और सुरेश कश्यप के टिकट कटते हैं या नहीं, ये पार्टी के आंतरिक सर्वे पर भी निर्भर करेगा। आपको बता दें की इन तीनों संसदीय क्षेत्रों में भाजपा को विधानसभा चुनाव में झटका लगा था और पार्टी की सबसे ज्यादा पतली हालत शिमला संसदीय क्षेत्र में हुई थी जहाँ के सांसद सुरेश कश्यप तब प्रदेश अध्यक्ष भी थे। बहरहाल किशन कपूर और सुरेश कश्यप दोनों लगातार जनता के बीच जरूर दिख रहे हैं, पर टिकट पर फैसला लेने से पहले जाहिर हैं पार्टी सियासी गणित के हर समीकरण पर हिसाब लगाएगी। वहीं मंडी में पूर्व सीएम जयराम ठाकुर इस वक्त निर्विवाद तौर पर सबसे वजनदार चेहरा हैं। पर यदि जयराम को पार्टी प्रदेश से दिल्ली नहीं बुलाती हैं तो यहाँ चेहरे का चुनाव टेढ़ी खीर होगा। यहाँ से संभवतः पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह फिर मैदान में होगी और ऐसे में भाजपा प्रत्याशी का चयन काफी महत्वपूर्ण होने वाला हैं। कांग्रेस के सामने दोगुनी चुनौती ! कांग्रेस की बात करें तो यहाँ चुनौती दोगुनी हैं। पीएम मोदी के सामने पार्टी चेहरा कौन होगा, ये ही अभी तय नहीं हैं। पार्टी राहुल गाँधी को खुलकर प्रोजेक्ट करेगी, इसकी सम्भावना कम ही लगती हैं। ऐसे में भाजपा के पास एक स्वाभाविक एडवांटेज होगा। इस स्थिति में दमदार प्रत्याशी देना कांग्रेस के सामने इकलौता विकल्प हैं। मंडी में पार्टी के पास प्रतिभा सिंह के रूप में चेहरा है, लेकिन अन्य तीन संसदीय क्षेत्रों में चेहरे पर अब भी पेंच फंसा हैं। कहीं मंत्री को चुनाव लड़वाने की तैयारी बताई जा रही हैं, तो कहीं मंत्री पद के चाहवान को। कोई तैयार हैं, तो कोई तैयार ही नहीं। कांग्रेस के लिए जरूरी हैं कि स्थिति जल्द स्पष्ट हो ताकि संभावित प्रत्याशियों को फील्ड में अधिक समय मिले। पार्टी के पास जरा सी चूक की भी गुंजाईश नहीं हैं।
अधूरी गारंटियों पर विपक्ष सवाल भी कर रहा हैं और बवाल भी जल्द कुछ और गारंटियां पूरी कर सकती हैं सरकार सबसे बड़ी चुनौती हैं महिलाओं को 1500 रुपये देना हिमाचल के 'ट्राइड एंड टेस्टेड' गारंटी मॉडल पर अन्य राज्यों में लड़ रही कांग्रेस 'तुझ को देखा तेरे वादे देखे, ऊँची दीवार के लम्बे साए'...सियासत में सत्ता के लिए बड़े - बड़े वादे कर देना पुराना रिवाज रहा है। सत्ता के लिए राजनैतिक दल तरह-तरह के वादे करते आएं है। रोटी-कपड़ा-मकान से लेकर पंद्रह लाख तक के वादे। वक्त बदला और जनता जागरूक होती रही, तो सियासी दलों ने भी वादों का तौर तरीका बदल दिया। यानी सामान तक़रीबन वो ही पुराना लेकिन पैकिंग नई। हाल-फिलहाल के दिनों में कांग्रेस ने भी अपने चुनावी वादों को 'गारंटी' का नाम दे दिया है। इसकी शुरुआत हुई थी पिछले साल हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव से और आज कांग्रेस प्रदेश की सत्ता पर काबिज हैं। फिर कर्नाटक चुनाव में भी जनता ने कांग्रेस की गारंटियों पर एतबार किया और अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस अपने इसी 'ट्राइड एंड टेस्टेड' गारंटी मॉडल पर मैदान में हैं। ये तो बात हुई कांग्रेस के नए चुनावी अस्त्र की, पर गारंटी देना अलग बात हैं और उसे पूरी करना अलग बात। हिमाचल प्रदेश में सरकार की अधूरी गारंटियों पर विपक्ष सवाल भी कर रहा हैं और बवाल भी। जाहिर हैं कुछ सवाल जनता के मन में भी हैं, तो सरकार ने भी पुरानी पेंशन बहाल कर अपनी मंशा जरूर दर्शाई हैं। हालांकि सरकार के अनुसार तो तीन गारंटियां पूरी हो चुकी है। सुक्खू सरकार का साल होने को हैं। सरकार अपनी उपलब्धियों का बखान कर रही है, तो इस सियासी मौके और दस्तूर के मद्देनजर विपक्ष उन गारंटियों का लेखा-जोखा मांग रहा हैं जिनके बुते कांग्रेस सत्ता में लौटी। एक साल बीत चुका हैं तो अब सवालों का स्वर बुलंद होना लाजमी हैं। भाजपा महिलाओं के खाते में 1500 रुपये से लेकर, 300 यूनिट मुफ्त बिजली, दूध और गोबर की खरीद सहित उन गारंटियों पर सरकार को घेर रही हैं, जो अधूरी हैं। उधर, सरकार पुरानी पेंशन बहाल कर चुकी हैं, साथ ही दावा कर रही है कि तीन गारंटियां पूरी हो चुकी है। 680 करोड़ रुपये की राजीव गांधी स्वरोजगार स्टार्ट-अप योजना को शुरू करना दूसरी और अगले शैक्षणिक सत्र से पहली कक्षा से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल आरम्भ करना तीसरी गारंटी है। अब क्या पूरा और क्या अधूरा, इसे राजनैतिक दल अपनी सहूलियत से तय कर रहे है। बहरहाल, चंद महीने में लोकसभा चुनाव होने हैं और वहां जवाब विपक्ष नहीं, बल्कि जनता मांगेगी। ये ही कारण हैं कि सरकार एक्शन मोड में दिखने लगी हैं और मुमकिन हैं जल्द कुछ और गारंटियां पूरी कर दी जाएँ। बताया जा रहा हैं कि जल्द हिमाचल सरकार किसानों से गोबर खरीद करने की तैयारी में है। कृषि मंत्री चंद्र कुमार ने विभाग के अधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि वे गोबर खरीद से पहले ब्लॉक स्तर पर क्लस्टर तैयार करें, जिसके बाद विभाग संबंधित ब्लॉक से किसानों से गोबर खरीदना शुरू करेगा। इसके अलावा मोबाइल क्लिनिक और पशु पालकों से हर दिन दस लीटर दूध खरीद की गारंटी को भी जल्द पूरा किया जा सकता हैं। जाहिर हैं कांग्रेस भी लोकसभा चुनाव से पहले पूरी हुई गारंटियों की संख्या बढ़ाना चाहेगी। इन 3 गारंटियों ने बनाई थी कांग्रेस की हवा ! बहरहाल आपको याद दिलाते कांग्रेस की दस गारंटियों में से वो तीन गारंटियां जिसने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में माहौल बना दिया था। पहली गारंटी ओपीएस हिमाचल के कर्मचारियों से जुड़ी थी जिसे पार्टी ने पूरा भी कर दिया। दूसरी गारंटी थी मुफ्त बिजली की यूनिट्स बढ़ाकर प्रतिमाह 300 करना। इससे प्रदेश का हर व्यक्ति प्रभावित होता हैं और ये गारंटी अब भी अधूरी हैं। अब सर्दी के दिनों में बिजली की खपत और बिल दोनों बढ़ेंगे, और आम लोगों को ये गारंटी जरूर याद आएगी। वहीँ आधी आबादी यानी महिलाओं को 1500 रुपये प्रतिमाह देने की गारंटी भी अधूरी हैं। माना जाता हैं कि महिलाओं ने कांग्रेस को बढ़चढ़ कर वोट दिया था ,लेकिन अब तक 1500 रुपये नहीं मिले। अब नाराजगी की झलक दिखने लगी हैं और इसे भांपते हुए भाजपा भी इसी पर कांग्रेस को ज्यादा घेर रही हैं। प्रदेश की खराब आर्थिक स्थिति में सरकार इसे कैसे पूरा करती हैं, इस पर सबकी निगाहें टिकी हैं। ऐसे में इसे पूरा करना कांग्रेस के लिए गले की फांस हैं। लोस चुनाव में बड़ा फैक्टर : हिमाचल प्रदेश की चारों लोकसभा सीटों पर 2014 और 2019 में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हुआ था। 2019 में तो हार का अंतर इतना रहा कि रिकॉर्ड बन गए। पर 2021 के उपचुनावों से प्रदेश में कांग्रेस के लिए सब कुछ अच्छा घटा हैं। ऐसे में कांग्रेस को अब 2024 में सम्भावना दिखना स्वाभाविक हैं। लाजमी हैं ऐसे में पार्टी कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेगी और अधिक से अधिक गारंटियां पूरी कर चुनाव में उतरने की कोशिश में होगी। ज्यादा अधूरी गारंटियां पार्टी की सम्भावनों पर भारी पड़ सकती हैं।
कैबिनेट में रिक्त स्थान कहीं कांग्रेस की संभावनाओं को रिक्त न कर दे ! अब सियासी माहिरों के भी गले नहीं उतर रही 'वेट एंड वॉच' की नीति सुक्खू कैबिनेट में क्षेत्रीय और जातीय असंतुलन ! अब सोचने की नहीं, बल्कि कुछ करने की जरुरत ! इसी ख्याल में हर शाम-ए-इंतज़ार कटी वो आ रहे हैं वो आए वो आए जाते हैं न आलाकमान का फरमान आया और न राजभवन से संदेश। सरकार गठन को एक साल होने को आया पर सुक्खू कैबिनेट में एंट्री की राह देख रहे कई चाहवानों का इन्तजार अब भी जारी है। आस टूटती नहीं और बात बनती नहीं। असंतोष को खारिज नहीं किया जा सकता, पर कैबिनेट विस्तार तय होकर भी तय नहीं। थोड़ा सा असंतोष जाहिर हो रहा है, तो बहुत घुट रहा है। पब्लिक मीटर पर सरकार की रेटिंग 'अप' सही लेकिन पॉलिटिकल मीटर पर मामला फंसा है। अब तो राजनैतिक माहिरों की कयासबाजी पर भी लगभग विराम लग चुका है। 'सुख की सरकार' में मंत्री पद किसको मिलेगा, इससे भी बड़ा सवाल ये है कि आखिर कब मिलेगा। सुक्खू कैबिनेट में रिक्त स्थान कहीं कांग्रेस की संभावनाओं को भी रिक्त न कर दे, ये डर अब कांग्रेस के चाहवानों को भी सताने लगा है। लोकसभा चुनाव का माहौल आहिस्ता-आहिस्ता बन रहा है और कैबिनेट में क्षेत्रीय और जातीय असंतुलन पर लगातार सवाल उठ रहे है। अब सरकार को एक साल भी होने को आया, लेकिन सुक्खू कैबिनेट में तीन पद अब भी रिक्त है। ये 'फिल इन दी ब्लैंक्स' का सियासी सवाल अब भी अनसुलझा है और जल्द माकूल जवाब न मिला तो बवाल भी तय मानिये। सीएम सुक्खू सहित कई मंत्रियों के पास अतिरिक्त कार्यभार है, इसमें कोई दो राय नहीं है। इस पर सीएम का स्वास्थ्य भी नासाज है। फिर आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी है कि कैबिनेट विस्तार टलता रहा है। आखिर कब तक खाली रहेंगे ये पद और इस विलम्ब से कांग्रेस को हासिल क्या हो रहा है, ये सवाल बना हुआ है। अब तक कांगड़ा के खाते में एक मंत्री पद है, मंडी संसदीय क्षेत्र से भी सिर्फ एक मंत्री है, सीएम-डिप्टी सीएम के संसदीय क्षेत्र हमीरपुर में भी कई नेता टकटकी लगाए बैठे है। यहाँ 25 साल से कांग्रेस लोकसभा चुनाव हार रही है। पद और कद के मामले में शिमला जरूर संतुष्ट भी दिखता है और संपन्न भी, पर बाकी तीन संसदीय क्षेत्रों में पार्टी को अब सोचने की नहीं, बल्कि कुछ करने की जरुरत है। अब सोचने का वक्त सम्भवतः जा चुका है। तीन मंत्री पदों के अलावा विधानसभा उपाध्यक्ष सहित कई अहम बोर्ड निगमों के पद भी अभी खाली है। 'वेट एंड वॉच' की पार्टी की नीति अब सियासी माहिरों के गले नहीं उतर रही। खीच-खीच की आवाज आने लगी है और अब मीठी गोली से नहीं बल्कि मुकम्मल दवा से ही काम चलेगा। अब तक कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक मंत्री पद दिया गया है। यहाँ सुधीर शर्मा और यादविंदर गोमा सहित कई दावेदार है। कांगड़ा जब भी बिगड़ा है इसने सियासतगारों के अरमानों का कबाड़ ही किया है, फिर भी कांग्रेस यहाँ जल्दबाजी में नहीं दिखी। मंडी संसदीय क्षेत्र का भी कमोबेश ये ही हाल है। यहाँ से जगत सिंह नेगी ही इकलौते मंत्री है। यहाँ कांग्रेस के गिने चुने विधायक है, लेकिन बोर्ड - निगमों में तो समय पर तैनाती दी ही जा सकती है। विशेषकर जिला मंडी में कांग्रेस 6 साल से लगातार हारी है। 2017 में स्कोरकार्ड 10 -0 था, तो 2022 में कांग्रेस को मिली महज एक सीट। बावजूद इसके यहाँ पार्टी में कोई बड़ा जमीनी बदलाव नहीं दिखता। पार्टी का कोई बड़ा चेहरा सरकार में किसी अहम पद पर नहीं है। वहीँ हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से बेशक सीएम और डिप्टी सीएम दोनों आते है, पर यहाँ चुनौती भी बड़ी है। ये भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का क्षेत्र है, ये केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का भी क्षेत्र है और ये प्रो प्रेम कुमार धूमल का भी क्षेत्र है। साथ ही वर्तमान में यहाँ से भाजपा के तीन सांसद है। इस पर लगातार आठ चुनाव में कांग्रेस यहाँ से हार चुकी है। ऐसे में जाहिर है यहाँ कांग्रेस को अतिरिक्त प्रयास करना होगा। माना जा रहा है कि कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ तो घुमारवीं को मंत्री पद मिलना तय है, पर फिर विलम्ब क्यों ? जो अधिमान पांच साल के लिए मिल सकता था वो चार के लिए मिले तो इसमें कांग्रेस को क्या हासिल होगा ? क्या कांग्रेस में अंदरूनी राजनीति हावी है, बहरहाल ये यक्ष प्रश्न है। सिर्फ क्षेत्रीय लिहाज से ही नहीं सुक्खू कैबिनेट में जातीय पैमाने से भी असंतुलन दिखता है। देश में जातिगत जनगणना की पैरवी कर रही कांग्रेस के सामने ये वो गूगली है जिस पर पार्टी खुद हिट विकेट न हो जाएँ। फिलहाल प्रदेश में सीएम सहित कुल 9 मंत्री है जिनमें से 6 राजपूत है, सिर्फ एक ब्राह्मण, एक एससी और एक ओबीसी है। लोकसभा चुनाव में पार्टी को इस पर भी जवाब देना होगा। स्वाभाविक है भाजपा इस लिहाज से सियासी मोर्चाबंदी कर कांग्रेस को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाली। बहरहाल पार्टी आलाकमान पांच राज्यों के चुनाव में व्यस्त है और इस बीच कैबिनेट विस्तार थोड़ा मुश्किल जरूर लगता है। हालांकि माहिर मान रहे है कि सीएम सुक्खू, सरकार की पहली वर्षगांठ पूरी कैबिनेट के साथ मना सकते है। ऐसे में थोड़ा इन्तजार और सही। तरकश से निकलने को तैयार असंतोष के बाण ! कांग्रेस के भीतर से असंतोष से स्वर फूटते रहे है। पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह खुद भी बोर्ड निगमों में तैनाती में हो रहे विलम्ब पर बोलती रही है। पूर्व पीसीसी चीफ कुलदीप राठौर कार्यकर्ताओं के मान -सम्मान की बात कह सवाल उठाते रहे है, तो कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष राजेंद्र राणा कभी 'कृष्ण की चेतावनी' की पंक्तियां सोशल मीडिया पर डालते है, तो कभी सीएम को पत्र लिख अधूरे वादे याद दिलाते है। असंतुष्टों की फेहरिस्त लंबी है। हालांकि पहले आपदा के चलते शायद कई नेताओं ने असंतोष पूर्ण शब्द बाणों को तरकश में रखा और फिर संभवतः सीएम के खराब स्वास्थ्य ने इन्हें थामे रखा। पर माहिर मानते हैं कि सरकार का एक साल इन सन्तुष्टों के लिए मौका भी लाएगा और दस्तूर भी। बहरहाल माहिर ये भी तय मान रहे है कि जल्द या तो कैबिनेट विस्तार होगा या असंतोष प्रखर।
**क्या मेयर पद पर सहमति बना पायेगा कांग्रेस आलाकमान ? **कांग्रेस की रार में, भाजपा मौके की तलाश में ! **संतुलन बनाने के लिए एक गुट से मेयर तो दूसरे से डिप्टी मेयर सम्भव किसी को 'सरदार' के तौर पर 'सरदार' मंजूर नहीं, तो कोई सरदार पर ही अड़ा है। ये ही सोलन नगर निगम में कांग्रेस की सियासत का मौजूदा हाल है। दो गुटों में बंटे पार्षद आमने सामने है और इनको एक पाले में लाना आलाकमान के लिए पापड़ बेलने से कम नहीं। सरदार सिंह को मेयर बनाने का जो वादा 2021 में नगर निगम चुनाव नतीजों के बाद हुआ था वो पूरा होगा, या पार्टी मेयर -डिप्टी मेयर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ेगा, ये सवाल बना हुआ है। कांग्रेस के पास कुल नौ पार्षद है और नगर निगम पर कब्ज़ा बरकरार रखने के लिए इतने ही उसे चाहिए, न एक कम न एक ज्यादा। पर ये होगा कैसे, यहीं पेंच अटका है। पार्टी के बड़े नेताओं को क्रॉस वोटिंग का डर खाये जा रहा है और भाजपा मौके की तलाश में है। 17 वार्डों वाली सोलन नगर निगम में 9 पार्षद कांग्रेस के है, 7 भाजपा के और एक निर्दलीय। 2021 में चुनाव के बाद कांग्रेस के मेयर और डिप्टी मेयर बने थे। कहते है तब ढाई साल के लिए पूनम ग्रोवर मेयर बनी तो अगले ढाई साल का वादा सरदार सिंह से हुआ। वहीँ डिप्टी मेयर पद के लिए चार लोगों में 15 -15 महीने का कार्यकाल बांटने की बात हुई। पहला नंबर राजीव कोड़ा का था और अब तक पुरे ढाई साल वो ही डिप्टी मेयर रहे। कहते है इसी बात को लेकर कुछ पार्षदों में नाराजगी थी। ऐसे ही चार पार्षद 2022 विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा पार्षदों के साथ मिलकर अविश्वास प्रस्ताव ले आएं। इनमे सरदार सिंह, ईशा, संगीता और पूजा शामिल है। तब कांग्रेस के इन चार और भाजपा के पार्षदों के बीच तय हुआ था कि पूजा मेयर बनेगी और भाजपा के कुलभूषण गुप्ता डिप्टी मेयर। पर तकीनीकी कारणों से इनका अविश्वास प्रस्ताव गिर गया और सारे अरमान धरे रह गए। इसके बाद पूनम ग्रोवर और राजीव कोड़ा अपने पदों पर बने रहे। पर कांग्रेस के पार्षदों के बीच की तल्खियों की झलक अक्सर जनरल हाउस में दिखती रही। अब अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले उन्हीं चार में से एक पार्षद सरदार सिंह मेयर पद के दावेदार है। अविश्वास प्रस्ताव में शामिल होने के चलते लाजमी है उनके नाम पर कुछ लोगों को अप्पत्ति हो। वहीँ वार्ड 12 पार्षद उषा शर्मा का नाम भी चर्चा में है। बहरहाल आलाकमान के सामने सभी नौ पार्षदों को एक नाम पर राजी करने की चुनौती है। माना जा रहा है कि संतुलन सुनिश्चित करने के लिए मेयर और डिप्टी मेयर अलग अलग गुट से हो सकते है। सियासत में जो दीखता है, जरूरी नहीं वैसा ही हो। 9 पार्षद होने के बाद भी मेयर डिप्टी मेयर कांग्रेस के हो, ऐसा जरूरी नहीं है। हालांकि कांग्रेस की ही तरह भाजपा भी दो गुटो में बंटी हुई है, लेकिन निर्दलीय को जोड़ लिया जाएँ तो कांग्रेस से संख्या में सिर्फ एक कम है। अगर भाजपा ने कैंडिडेट दिया तो कुलभूषण गुप्ता पार्टी उम्मीदवार हो सकते है। 6 बार की पार्षद मीरा आनंद भी रेस में है। पर क्रॉस वोटिंग की सम्भावना तो यहाँ भी है। हालांकि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल सोलन नगर परिषद् के अध्यक्ष रह चुके है और यहाँ की हर सियासी नब्ज से वाकिफ भी। ऐसे में बिंदल के रहते भीतरखाते बहुत कुछ पक सकता है। बहरहाल कांग्रेस के नौ पार्षद क्या किसी एक नाम पर साथ आएंगे या नहीं, इसी पर निगाह टिकी है।
**कब मिलेंगे चार नगर निगमों को मेयर और डिप्टी मेयर ? **भाजपा का आरोप, जानबूझकर विलम्ब कर रही सरकार **क्या सोलन की वजह से बाकी चुनावों में भी हो रहा विलम्ब ? एक माह से ज्यादा वक्त बीत गया पर प्रदेश के चार नगर निगमों को मेयर और डिप्टी मेयर नहीं मिल पाए है। नगर निगम मंडी, पालमपुर, सोलन और धर्मशाला में न मेयर है और न डिप्टी मेयर। जाहिर है इससे कार्य प्रभावित हो रहे है। उधर भाजपा इसे लेकर सरकार पर हमलावर है। अभी तक चुनाव की नोटिफिकेशन नहीं आई है और ऐसे में अब सरकार की देरी पर सवाल उठना तो लाजमी है। आखिर क्यों हो रहा है ये विलम्ब, इसे लेकर कयासबाजी जारी है। आपको बता दें कि नगर निगम पालमपुर और सोलन में जहाँ कांग्रेस का कब्ज़ा है तो वहीँ मंडी और धर्मशाला में भाजपा के पास संखयाबल है। यूँ तो ये चुनाव पार्टी सिंबल पर हुए थे पर हिमाचल प्रदेश के स्थानीय निकायों में एंटी डिफेक्शन कानून लागू नहीं होता, ऐसे में क्रॉस वोटिंग से इंकार नहीं किया जा सकता। पेंच दरअसल यहीं फंसा है। माना जा रहा है कि मंडी में भाजपा और पालमपुर में कांग्रेस के मेयर डिप्टी मेयर तो लगभग तय है, पर धर्मशाला और सोलन में ट्विस्ट मुमकिन है। धर्मशाला में कांग्रेस जहाँ सम्भावना तलाश रही है तो सोलन में कांग्रेस को डर होना लाजमी है। सोलन में कांग्रेस के ही पार्षद अपने मेयर डिप्टी मेयर के खिलाफ 2022 में विश्वास प्रस्ताव ला चुके है और यहाँ पार्षदों में मतभेद नहीं बल्कि मनभेद की स्थिति दिखती है। इसी में भाजपा को संभावना दिख रही है। ऐसे में कांग्रेस फूंक फूंक कर कदम बढ़ाना चाहती है। सोलन से विधायक कर्नल धनीराम शांडिल कैबिनेट मंत्री है, सीपीएस संजय अवस्थी कभी इसी निकाय में पार्षद थे, ऐसे में यहाँ चूक हुई तो इन दिग्गजों पर भी सवाल उठेगा। बहरहाल चर्चा आम है कि सोलन में कांग्रेस अपने पार्षदों को एकसाथ लाने में अब तक कामयाब नहीं हुई है। पार्टी को क्रॉस वोटिंग का डर है और ये ही कारण है की मेयर और डिप्टी मेयर चुनाव को लम्बा खींचा जा रहा है। वहीँ धर्मशाला में पार्टी जोड़ तोड़ कर सभावना देख रही है। इसी के चलते अन्य दो नगर निगमों में भी विलम्ब हुआ है। हालांकि आपको बता दें कि मेयर डिप्टी मेयर चुनाव में विधायक के वोट को लेकर पहले स्थिति स्पष्ट नहीं थी, जो विलम्ब का एक कारण बना है। उधर भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस सरकार इसे जानबूझकर खींच रही है। अब विधायकों के वोटों को लेकर स्थिति साफ हो गई है, फिर भी सरकार ये चुनाव नहीं करा रही है। आपदा के दौर में मेयर डिप्टी मेयर न होने से विकास कार्य बुरी तरह प्रभावित हुए है। बहरहाल सियासी वार पलटवार के बीच सियासी जोड़ तोड़ भी जारी है। कांग्रेस सत्ता में है और यदि पार्टी कहीं भी चुकी तो सवाल तो उठेंगे ही। वहीँ 2021 के उपचुनावों से हिमाचल में लगातार हार का सामना कर रही भाजपा भी मुफीद मौके की तलाश में है। अगर भाजपा मेयर-डिप्टी मेयर चुनाव में कांग्रेस को पटकनी दे पाई तो लोकसभा चुनाव से पहले ये पार्टी के लिए बूस्टर डोज होगा।
**भाजपा घोषणा पत्र में OPS जिक्र नहीं, ERCP और गोबर खरीद को जगह राजस्थान के लिए भाजपा का घोषणा पत्र वीरवार को आ गया।'आपणो अग्रणी राजस्थान' संकल्प पत्र के नाम से जारी किए गए 80 पेज के घोषणा पत्र में गहलोत सरकार की लोकलुभावन योजनाओं की काट के तौर पर कई वादे किए गए हैं। पर इसमें ओल्ड पेंशन स्कीम या इसके विकल्प पर कुछ नहीं लिखा गया है। कर्मचारी वोट राजस्थान में बड़ी भूमिका निभाता है और गहलोत सरकार इन्हे ओल्ड पेंशन स्कीम की सौगात दे चुकी है। वहीँ भाजपा के लिए ओपीएस जी का जंजाल बन चुकी है। न भाजपा के उगलते बनता है और न निगलते। न भाजपा ओपीएस देने का वादा कर रही है और न भाजपा के पास इसकी काट दिखती है। ऐसे में राजस्थान का कर्मचारी इस बार किस ओर जायेगा ये बड़ा सवाल है। दरअसल माना जाता है कि राजस्थान में कर्मचारी हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन के लिए मतदान करता है। पर इस बार क्या कर्मचारी ओपीएस के बदले रिवाज बदलेगा, ये देखना रोचक होगा। वहीँ भाजपा के घोषणा पत्र की बात करें तो चुनावी मुद्दा बनी ईस्टर्न राजस्थान कैनाल प्रोजेक्ट यानी (ERCP) को पूरा करने का वादा भी इसमें शामिल है। राजस्थान के 13 ज़िले इससे प्रभावित होते है। वहीँ गहलोत सरकार भी इस योजना पर बजट अलॉट कर चुकी है और खुद सीएम गहलोत इस मुद्दे पर भाजपा पर लगातार हमलावर है। भाजपा के वादों में एक दिलचस्प वादा और है। कांग्रेस की सात गारंटियों में शामिल गोबर खरीदने की घोषणा को भी इसमें जगह मिली है। बहरहाल राजस्थान में सत्ता की जंग में दो बड़े फैक्टर निर्णायक हो सकते है, ओपीएस और ERCP ...गहलोत को भरोसा है कि कर्मचारी उन्हें रिटर्न गिफ्ट देंगे और इसी बिसात पर उन्हें इतिहास रचने का भरोसा है। वहीँ भाजपा चाहेगी की कर्मचारी सत्ता परिवर्तन का रिवाज जारी रखे। इसी तरह ERCP फैक्टर के असर से भाजपा वाकिफ है और इसे घोषणा पत्र में जगह दी गई है। जबकि गहलोत को ERCP पर 13 ज़िलों के साथ का भरोसा हैं।
**कांग्रेस में चेहरा भी कमलनाथ, चाल भी उनकी और चली भी उनकी **भाजपा को मिला राज तो आधा दर्जन दावेदार **एमपी में सॉफ्ट हिन्दुस्त्व और गारण्टी मॉडल पर आगे बढ़ी कांग्रेस पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इस बार रणनीति भी बदली है और सियासी तौर तरीका भी। इनमें से तीन राज्यों यानी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच है। 2018 में ये तीनों राज्य कांग्रेस ने भाजपा से छीन लिए थे। इसके बाद 2020 में मध्य प्रदेश कांग्रेस में हुई बगावत के बाद भाजपा की सत्ता वापसी हुई लेकिन राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा विपक्ष में ही है। अब भाजपा इन तीनों ही राज्यों में सत्ता हासिल करने को जोर लगा रही है। इस बार भाजपा ने तीनों ही राज्यों में सीएम फेस नहीं घोषित किया है। साथ ही कई सांसदों को मैदान में उतार सियासी चौसर को रोचक कर दिया है। अब इसका नतीजा क्या होगा ये तो तीन दिसंबर को पता चलेगा लेकिन मुकाबला कड़ा जरूर दिख रहा है। विशेषकर मध्य प्रदेश में बीते दो दशक में अधिकांश वक्त भाजपा का राज रहा है, ऐसे में भाजपा के इस प्रयोग का असल टेस्ट मध्य प्रदेश में ही होना है। आज सियासतनामा में बात मध्य प्रदेश के राजनैतिक परिदृश्य की। मध्य प्रदेश के मौजूदा सियासी हाल और चाल को समझने के लिए बात बीस साल पीछे से शुरू करनी होगी। दिग्विजय सिंह के दस साल के शासन के बाद साल 2003 में मध्य प्रदेश में भाजपा की वापसी हुई थी। तब एंटी इंकमबैंसी इस कदर हावी थी कि भाजपा 173 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। तब मुख्यमंत्री बनी थी उमा भारती, फिर बाबू लाल गौर कुछ समय सीएम रहे और फिर आया शिवराज का राज। देखते ही देखते शिवराज सिंह चौहान एमपी में भाजपा का चेहरा हो गए। शिवराज अपनी लोकप्रिय योजनों से एमपी की सियासत के मामा बन गए, सबसे लोकप्रिय सियासी चेहरा और कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा रोड़ा। 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा शिवराज का चेहरा आगे रखकर ही मैदान में उतरी और जीती भी। दिलचस्प बात ये है कि इन दो चुनावों में भाजपा ने शिवराज के काम तो गिनाये ही, दिग्विजय का राज भी याद दिलवाया। यानी ये कहना गलत नहीं होगा कि 2003 की दिग्विजय सरकार की एंटी इंकमबैंसी को भाजपा अगले दो चुनाव में भी भुनाती रही। वहीँ कांग्रेस में दिग्गी राजा के साथ साथ अब 'महाराज' सिंधिया भी बड़ा नाम और चेहरा थे। दोनों की तकरार और रार भी कांग्रेस की हार का कारण बनी रही। 2013 के बाद कांग्रेस को समझ आने लगा था कि दिग्विजय सिंह के चेहरे पर मध्य प्रदेश में वापसी बेहद मुश्किल है। पार्टी की तलाश रुकी कमलनाथ पर जो अर्से से केंद्र की केंद्र की सियासत में बड़ा नाम रहे और उनका कर्म क्षेत्र रहा मध्य प्रदेश का छिंदवाड़ा। 'महाराज' तो दिग्गी राजा को नामंजूर थे लेकिन कमलनाथ वो नाम था जो उन्हें भी स्वीकार्य था। चेहरा बदला तो कांग्रेस की किस्मत भी बदली और 2018 में पार्टी नजदीकी मुकाबल में सरकार भी बना गई। तब सीएम बने कमलनाथ और ज्योतिरादित्य बन दिए गए डिप्टी सीएम। पर 15 महीने में ही 'ऑपरेशन लोटस' ने कमलनाथ को सत्ता से बाहर किया और शिवराज लौट आएं। तब समर्थकों के साथ कांग्रेस में बगावत करने वाले सिंधियाँ अब भाजपा में है और केंद्रीय मंत्री बना दिए गए है। उधर कांग्रेस में अब कमलनाथ ही इकलौता चेहरा है। दिग्विजय सिंह अब पीछे पीछे ही दीखते हैं। मौजूदा विधानसभा चुनाव में चेहरा भी कमलनाथ है, चाल भी उनकी है और चली भी उनकी ही है। वहीँ भाजपा में अब शिवराज का चेहरा धुंधला पड़ गया है। फिर सत्ता मिली तो शिवराज ही सीएम होंगे ,ये कहना मुश्किल है। दौड़ में कई केंद्रीय मंत्री और सांसद तो है ही, सिंधियाँ भी वेटिंग लिस्ट में है। कैल्श विजयवर्गीय भी रेस में है। पर इसके लिए पहले जरूरी है पार्टी की सत्ता वापसी। पिछले बीस में से करीब 19 साल भाजपा का शासन रहा है और ऐसे में एंटी इंकम्बैंसी होना भी स्वाभविक है। पर कांग्रेस की बगावत में जरूर पार्टी को उम्मीद दिख रही होगी। उम्मीद केंद्रीय राजनीति के उन दिग्गजों से भी होगी जिन्हे आलाकमान ने विधानसभा चुनाव में उतार दिया है। अब पार्टी का फार्मूला कितना हिट होता है, ये तो तीन दिसंबर को ही तय होगा। उधर कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में सॉफ्ट हिन्दुस्त्व की राह भी पकड़ी है और हिमाचल -कर्णाटक में सफल रहा गारंटी फार्मूला भी। कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस निसंदेह दमदार विपक्ष की भूमिका में दिखी है। हालांकि असंतोष और बगावत में जरूर रंग में भंग डाला है, बाकि स्थिति नतीजे आने के बाद ही स्पष्ट होगी। पर ये तय है कि अगर सत्ता मिली तो सीएम कमलनाथ ही होंगे।
**सरकार रिपीट हुई तो क्या गहलोत को हटा पायेगा आलाकमान ? **समर्थक विधायकों का संख्याबल तय करेगा गहलोत और पायलट की दावेदारी ! राजस्थान में मचे सियासी घमासान में इस बार मुकाबला कांग्रेस भाजपा में ही नहीं है, एक मुकाबला कांग्रेस और कांग्रेस के बीच है, तो एक भाजपा और भाजपा के बीच। ये है मुख्यमंत्री की कुर्सी का मुकाबला। हालांकि सबकुछ पहले जनता ने तय करना है और जनता 25 नवंबर को तय भी कर देगी। तीन दिसंबर को नतीजा आएगा और उसके बाद सीएम पद की दावेदारी की जंग होगी या हार का ठीकरा फोड़ने की जद्दोजहद, ये देखना रोचक होने वाला है। 2013 में कांग्रेस की हार के बाद अशोक गहलोत केंद्रीय संगठन का रुख कर गए और राजस्थान में मोर्चा संभाला सचिन पायलट ने। पर 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले गहलोत न सिर्फ वापस आएं बल्कि सीएम पद के दावेदार बनकर आएं। खेर कांग्रेस ने बगैर चेहरे के चुनाव लड़ा और सत्ता में भी आ गई पर सीटें उतनी नहीं मिली जितनी उम्मीद थी। आलाकमान ने इस पेचीदा स्थीति में गहलोत को सीएम और पायलट को डिप्टी सीएम बना दिया। यानी सत्ता के जहाज के पायलट गहलोत बने और सचिन पायलट कोपायलट हो गए। सरकार में गहलोत की ही चली और जल्द ही तल्खियां सामने आने लगी। फिर पायलट ने साथी विधायकों के साथ बगावत कर दी लेकिन गहलोत ने सरकार बचाकर अपनी जादूगरी भी दिखाई और पायलट को हाशिये पर भी ला दिया। पायलट न डिप्टी सीएम रहे और न प्रदेश अध्यक्ष। हालांकि आलाकमान के हस्तक्षेप से पायलट पार्टी में बने रहे लेकिन राजस्थान की सत्ता में उनकी एक न चली। सितम्बर 2022 में जब गाँधी परिवार गहलोत को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर पायलट को सीएम बनाना चाहता था तब भी गहलोत समर्थकों के आगे आलाकमान फेल हो गया और पायलट फिर खाली हाथ रह गए। इसके बाद आलाकमान ने पायलट को सीडब्लूसी में शामिल किया ,लेकिन पायलट ने राजस्थान नहीं छोड़ा। विधानसभा चुनाव से पहले अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। अपनी ही सरकार को घेरने पायलट सड़क पर उतर गए। जैसे तैसे आलाकमान ने गहलोत पायलट की सुलह तो करवाई, लेकिन जिस रस्सी में इतनी गाठें हो वो समतल कैसी होगी ? बहरहाल माना जा रहा है कि पायलट को आलाकमान से आश्वासन मिला है, लेकिन राजस्थान में फेस भी गहलोत है और चुनाव अभियान भी उनके मन मुताबिक ही चला है। ऐसे में अगर रिपीट करके गहलोत इतिहास रच देते है तो क्या आलाकमान पायलट को एडजस्ट भी कर पायेगा, ये बड़ा सवाल है। चुनाव की घोषणा के बाद से राजस्थान में प्रत्यक्ष तौर पर गहलोत और पायलट आमने सामने नहीं हुए। कहा जाने लगा की आलकमान ने सब ठीक कर दिया है और नतीजों के बाद ही अगला फैसला होगा। पर गहलोत शायद अपने स्तर पर सबकुछ स्पष्ट कर देने चाहते थे और उन्होंने एक किस्म से कर भी दिया। "मैं कुर्सी को छोड़ना चाहता हूँ पर कुर्सी मुझे नहीं छोड़ती और छोड़ेगी भी नहीं ".....शब्द कुछ, मतलब कुछ, ये ही अशोक गहलोत की जादूगरी है और ये ही उनका सियासी अंदाज। इसीलिए उन्हें सियासत का जादूगर कहा जाता है। कुछ दिन पहले मौका दिल्ली में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस का था और निशाना भाजपा। पर घूमते घूमते बात कहाँ से कहाँ पहुंच गई और शायद जहाँ पहुंचानी थी वहां पहुंच गई। गहलोत अपने समर्थकों को कुछ न कहकर भी कह गए की जनता मेहरबान रही तो वे ही अगले सीएम होंगे। साथ ही विरोधियों को भी सन्देश दे गए की कुर्सी उन्हें नहीं छोड़ने वाली। सन्देश शायद आलाकमान के लिए भी था कि वो क्यों जादूगर कहलाते है। बहरहाल बात निकली तो पायलट तक भी पहुंची और जवाब भी आया। नपेतुले शब्दों में बिलकुल उनके सियासी तौर तरीके की तरह, "सीएम तो विधायक और आलाकमान तय करेंगे।" टिकट आवंटन की बात करें तो दोनों के समर्थकों को टिकट मिले भी है और कटे भी है। 'कौन आलाकमान' कहने वाले शांति धारीवाल को टिकट दिलवाकर गहलोत ने साबित कर दिया कि उनके सियासी पिटारे में कई तरकीबें है। बहरहाल खुलकर कोई कुछ नहीं बोल रहा, लेकिन दोनों ही नेताओं के समर्थक भीतरखाते प्रो एक्टिव है। किसके ज्यादा समर्थक विधानसभा की दहलीज लांघते है इस पर काफी कुछ निर्भर करने वाला है।
लोकसभा चुनाव लड़ी तो क्या मंडी होगी सीट ? कंगना ने दिए चुनावी राजनीति में एंट्री के संकेत पार्टी तो बीजेपी तय, सीट पर असमंझस जयराम न लड़े तो क्या कंगना होगी प्रत्याशी ! आगामी लोकसभा चुनाव में कंगना रनौत की चुनावी राजनीति में एंट्री हो सकती है। द्वारिका नगरी पहुंची कंगना का एक ब्यान सामने आया है जिसमे उन्होंने कहा है कि 'श्री कृष्ण की कृपा रही तो वे लोकसभा चुनाव लड़ेंगी । ' कंगना के चुनाव लड़ने की अटकलें पहले भी लगती रही है लेकिन पहली बार कंगना ने इस मुद्दे पर खुलकर संकेत दिए है। यानी अब कंगना 2024 लोकसभा चुनाव के दंगल में बतौर प्रत्याशी दिख सकती है। बहरहाल इसमें कोई संशय नहीं है कि अगर कंगना चुनाव लड़ती है तो पार्टी बीजेपी होगी, सवाल दरअसल ये है कि सीट कौन सी होगी ? पॉलिटिक्स में कंगना की एंट्री के सिग्नल ने हिमाचल की मंडी संसदीय क्षेत्र में सियासी पारा एक बार फिर हाई कर दिया है। सांसद रामस्वरूप शर्मा के निधन के बाद 2021 के अंत में हुए उपचुनाव में भाजपा ने ये सीट गवां दी थी और वर्तमान में पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह यहाँ से सांसद है। तब प्रदेश में जयराम ठाकुर की सरकार थी और जिला मंडी भाजपा के साथ गया था, बावजूद इसके उपचुनाव में ये सीट भाजपा के हाथ से निकल गई थी। कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तो ये लगभग तय है कि प्रतिभा सिंह ही फिर मंडी से मैदान में होगी। स्व वीरभद्र सिंह की पोलिटिकल लिगेसी के कवच और प्रतिभा सिंह के अपने सियासी रसूख के बुते निसंदेह वे यहाँ एक मजबूत चेहरा है और भाजपा को अगर मंडी फिर चाहिए तो सामने दमदार चेहरा चाहिए होगा। पर चेहरा कौन होगा, ये ही बड़ा सवाल है। हिमाचल भाजपा का एक बड़ा गुट मंडी से जयराम ठाकुर को चुनाव लड़वाने की वकालत कर रहा है। निसंदेह जयराम ठाकुर मंडी में विशेषकर जिला मंडी में इस वक्त सबसे दमदार चेहरा है। संसदीय क्षेत्र के 17 में से 9 हलके जिला मंडी में आते है। वहीँ उपचुनाव और फिर विधानसभा चुनाव में जयराम ठाकुर अपनी ताकत सिद्ध भी कर चुके है। पर क्या जयराम प्रदेश की सियासत छोड़ कर दिल्ली जाना चाहेंगे ? भाजपा में अंतिम निर्णय तो आलाकमान का ही होता है लेकिन सवाल ये है कि अगर जयराम ठाकुर नहीं, तो फिर कौन ? ये कयास काफी वक्त से लग रहे है और हर बार कंगना का नाम चर्चा में आता है। अब कंगना के ताजा बयान के बाद सियासी अटकलों का सिलसिला फिर आरम्भ हो चूका है। अगर जयराम ठाकुर लोकसभा चुनाव नहीं लड़ते है तो कंगना निसंदेह पार्टी की पसंद हो सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कंगना बेहद लोकप्रिय है और अक्सर फिल्म स्टार्स को सियासत में जनता का वोट रुपी प्यार मिलता रहा है। कंगना मंडी से ही ताल्लुख रखती है और इसलिए भी वे मंडी संसदीय क्षेत्र से बेहतर विकल्प हो सकती है। आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा अधिक से अधिक महिला उम्मदवारो को टिकट देना चाहेगी। महिला आरक्षण आगामी लोकसभा चुनाव में बेशक लागू नहीं होगा लेकिन भाजपा महिलाओं को अधिक टिकट देकर इसका राजनैतिक लाभ उठाने की रणनीति पर आगे बढ़ सकती है। इस लिहाज से भी कंगना एक मुफीद विकल्प है। बहरहाल कंगना के बयान ने सियासी टेम्परेचर जरूर बढ़ा दिया है लेकिन वो चुनाव लड़ती है या नहीं, या किस सीट से उन्हें मैदान में उतारा जाता है, ये तो वक्त ही बताएगा। पर मंडी में अगर हिमाचल की सियासत में 'रानी' कहे जाने वाली प्रतिभा सिंह के सामने बॉलीवुड की 'क्वीन' कंगना उतरती है, तो निसंदेह इस घमासान की चर्चा पुरे देश में होगी।
हिमाचल प्रदेश के डीजीपी संजय कुंडू ने पालमपुर के एक व्यक्ति के खिलाफ छोटा शिमला थाने में मामला दर्ज कराया है। डीजीपी द्वारा पुलिस को दी गई शिकायत के मुताबिक पालमपुर में रहने वाले व्यक्ति ने उन्हें मेल की है, जिसमें अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया गया है। बताया जा रहा हैं कि लंबे समय से दोनों के बीच में बातचीत और मेल का सिलसिला चल रहा था। पहले पुलिस अधिकारी की ओर से उन्हें समझाने का प्रयास किया गया ,लेकिन जब इस पर कोई असर नहीं हुआ तो मामले की गंभीरता को समझते हुए डीजीपी संजय कुंडू की ओर से यह मामला छोटा शिमला थाने में दर्ज कराया गया है।