**कांग्रेस ने 1500 का वादा किया, शिवराज ने 1250 प्रतिमाह दिया **हिमाचल के अधूरे वादे को भाजपा ने जमकर भुनाया लाडली बहना योजना ...ये शिवराज सिंह चौहान की वो योजना है जो मध्य प्रदेश चुनाव में गेम चैंजेर सिद्ध हुई। इस योजना के तहत सरकार प्रदेश में हर महिला के खाते में 1,250 रुपए हर महीने ट्रांसफर करती है, यानी सालाना महिलाओं को 15,000 रुपये की आर्थिक सहायता दी जाती है। इसके जवाब में मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने नारी सम्मान योजना के तहत महिलाओं को 1500 रुपये महीना देने की गारण्टी दी थी, यानी ढाई सौ रुपये ज्यादा। ये कांग्रेस की 11 गारंटियों में से एक थी। पर मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की लाड़ली बहना योजना कांग्रेस की हर गारंटी पर भारी पड़ी। दरअसल कांग्रेस तो सिर्फ वादा कर रही थी और भाजपा इस योजना का लाभ दे रही थी। ऐसे में महिलाओं ने वादे पर ऐतिबार नहीं किया बल्कि लाडली बहन योजना को जहन में रखा। ठीक ऐसी ही योजना का वादा कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में किया था जहाँ महिलाओं को 1500 रुपये प्रतिमाह देने की गारंटी दी थी। पर अब तक महिलाओं को इसका इंतजार है। भाजपा ने इसे मध्य प्रदेश में जमकर भुनाया। हिमाचल प्रदेश के भी सैकड़ों भाजपा नेता-कार्यकर्ता मध्य प्रदेश में प्रचार के लिए पहुंचे और सभी ने खुले मंचों से कहा की हिमाचल में कांग्रेस ने अब तक महिलाओं को दी गारंटी पूरी नहीं की है। अब तक महिलाएं इन्तजार में है। ये सच भी है। ऐसे में जाहिर है मध्य प्रदेश में महिलाओं ने कांग्रेस के वादे पर नहीं शिवराज सरकार के काम पर भरोसा जताया। बहरहाल मध्य प्रदेश में भाजपा की जीत हिमाचल की कांग्रेस सरकार के लिए भी एक सीख जरूर हैं। आधी आबादी को साधकर सत्ता की राह आसानी से प्रशस्त की जा सकती हैं, यदि वादे पुरे किये हो। निसंदेह प्रदेश की ख़राब आर्थिक स्थिति कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी बाधा हैं, लेकिन जब कर्मचारियों को ओपीएस मिल सकती हैं तो आधी आबादी 1500 रुपये प्रतिमाह क्यों नहीं ? बहरहाल ये कांग्रेस को तय करना हैं कि किस तरह वो गारंटियों को पूरा करती हैं, यदि पार्टी खानापूर्ति करती हैं तो वोटर भी खानापूर्ति ही करेगा
The BJP secured victories in Madhya Pradesh, Rajasthan, and Chhattisgarh without projecting a chief ministerial face, relying primarily on the appeal of Prime Minister Narendra Modi. Despite the absence of local leaders, the party emerged triumphant, reclaiming control after setbacks in Karnataka. The central leadership now has the flexibility to choose new chief ministers and foster regional leadership. While potential leaders like Shivraj Singh Chouhan and Vasundhara Raje remain popular in their states, their distance from the central leadership poses a challenge. Party insiders acknowledge their influence but stress the need for stability in the long term. Lessons from Karnataka and other states highlight the importance of aligning leadership choices with sustained electoral success. In the aftermath of the victories, BJP leaders credited Prime Minister Modi for the triumph. The party's shift towards central leadership echoes a similar trend a decade ago when Modi emerged as the prime leader, sidelining other prominent figures. The fate of several familiar BJP faces in Madhya Pradesh, Chhattisgarh, and Rajasthan now hangs in uncertainty amid this evolving political landscape.
** आखिर किसके सर सजेगा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का ताज मध्यप्रदेश में लाडली लहर ऐसी चली की भाजपा ने प्रचंड बहुमत के साथ जोरदार जीत हासिल की। भाजपा को भारी बहुमत मिलने के बाद अब सबकी निगाहें मुख्यमंत्री कि कुर्सी पर टिकी हुई है। मध्यप्रदेश में इस वक़्त सबसे अहम् सवाल ये बना हुआ है कि इस बार मुख्यमंत्री कौन बनेगा ? क्या शिवराज सिंह चौहान को फिर मौका मिलेगा या कोई अन्य चेहरा सीएम की कुर्सी पर विराजमान होगा। सीएम पद के दावेदार अनेक है, लेकिन शिवराज के सामने कोई टिक पाएगा ऐसा मुश्किल लगता है। ये सच है कि इस बार चुनाव में शिवराज की योजनाओं ने मध्यप्रदेश के मतदाताओं पर खूब असर डाला, 'लाड़ली लहर' भी चली शिवराज को जनता का प्यार भी मिला, लेकिन एक सच ये भी है कि पार्टी ने इस बार शिवराज को सीएम प्रोजेक्ट नहीं किया। इस दफा पूरा चुनाव पीएम मोदी के फेस पर ही लड़ा गया है। 'मोदी के मन में एमपी, एमपी के मन में मोदी' ये नारा देकर ही भाजपा ने इस बार चुनाव लड़ा है। इससे ये जाहिर होता है कि अब सीएम फेस के लिए किसके नाम पर मोहर लगेगी ये भी मोदी ही तय करंगे, लेकिन इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि शिवराज सिंह के चुनाव प्रचार और उन्हीं की लाड़ली बहना योजना के कारण आज मध्यप्रदेश में भाजपा को जीत मिली है। लाडली बहाना योजना भाजपा के लिए गेमचेंजर साबित हुई है और इसका पूरा क्रेडिट शिव राज सिंह को जाता है। इस जीत से यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि मध्य प्रदेश में अभी भी सबसे लोकप्रिय नेताओं में शिवराज सिंह ही शामिल है। शिवराज के अलावा सीएम पद के दावेदारों में कई नाम चर्चा में बने हुए है इनमे ज्योतिरादित्य सिंधिया, कैलाश विजयवर्गीय,नरेंद्र सिंह तोमर और प्रह्लाद पटेल का नाम शामिल माना जा रहा है, लेकिन चुनाव के नतीजे देखने के बाद शिवराज कि लोकप्रियता को देखते हुए ऐसा लगता नहीं है कि पार्टी उन्हें सीएम पद से महरूम रखेगी। 15 सालों से प्रदेश में सत्ता पर काबिज शिवराज को एक बार फिर सीएम बनाया जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
न किसी को उम्मीद थी न अंदेशा, और छत्तीसगढ़ में खेला हो गया। नतीजों के लिए गिनती जारी थी, रुझान आने शुरू हुए तो लगा कि इस बार भी कांग्रेस कि सरकार बनेगी और चर्चाएं होने लगी कि क्या सीएम भूपेश बघेल ही रहेंगे ? इस बार मंत्रिमंडल में किन किन नेताओं को जगह मिलेगी ऐसे तमाम सवाल थे जो राजनीतिक गलियारों में घूम रहे थे, लेकिन देखते ही देखते कब वक़्त बदल गया, कब जज्बात बदल गए पता ही नहीं चला। स्कोरबोर्ड पर भाजपा को लीड मिलती देख हर कोई दंग रह गया। 90 सीटों वाले छत्तीसगढ़ में भाजपा का अर्धशतक देख सभी सर्वे फेल हो गए और सभी एग्जिट पोल कि पोल खुल गयी और भाजपा ने छत्तीसगढ़ में खेला कर दिया। चुनाव से पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की लहर थी। तमाम राजनीतिक विश्लेषक सियासी गुणा भाग कर ये आकलन कर बैठे थे कि इस बार छत्तीसगढ़ में बघेल सरकार रिपीट कर रही है। उधर बघेल सरकार भी ओवर कॉंफिडेंट थी। चुनाव बेहद नजदीक आ चुका था कि उसी समय छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक धमाका हुआ। नवंबर में ED ने सनसनीखेज आरोप लगाते हुए कहा कि महादेव बेटिंग एप में एक ई-मेल से खुलासा हुआ है कि महादेव एप के प्रमोटर्स ने छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल को 508 करोड़ रुपये की रिश्वत दी है। ये पैसे कांग्रेस पार्टी को चुनावी खर्चे के लिए दिए जा रहे हैं। हालांकि भूपेश बघेल ने इन सभी आरोपों से इनकार किया और इन्हें राजनीति से प्रेरित बताया, भाजपा ने भी मौके का फायदा उठाया और इस मुद्दे को ऐसा भुनाया कि बघेल सरकार के लिए महादेव एप घोटाला गले कि फांस बन गया। हर रैली हर जनसभा में मोदी ने महादेव का नाम जपा। नतीज़न 3 दिसम्बर को छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के होश उड़ गए। बघेल पाटन को पाटने में तो कामयाब रहे पर अपनी सरकार नहीं बचा पाए। छत्तीसगढ़ में डिप्टी सीएम समेत 9 मंत्रियों को करारी शिस्कत्त मिली। माहिर मान रहे है कि मोदी के नाम पर छत्तीसगढ़ में भाजपा को फायदा मिला है और ओवरकॉन्फिडेन्स ने कांग्रेस का खेल बिगाड़ा है। दूसरा महादेव कि कृपा भी बघेल सरकार पर नहीं बरसी और भाजपा ने बघेल सरकार का काम तमाम कर दिया।
** वसुंधरा ने शुभ मुहूर्त पर ही ली थी मुख्यमंत्री की शपथ राजपूतों की बेटी, जाटों की बहू और गुज्जरों की समधन, हम बात कर रहे है राजस्थान की महारानी वसुंधरा राजे की। वो महारानी जिसने राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री बन कर इतिहास रचा। वसुंधरा दो बार राजस्थान की सीएम बनीं, चार बार विधायक और पांच बार सांसद। राजनीति में मिली हर सफलता पर वसुंधरा पूजा-पाठ ज़रूर करती है और उनके पूजा-पाठ और शुभ मुहूर्त पर काम करने के कई किस्से भी काफी चर्चित हैं। कहा जाता है कि वसुंधरा राजे किसी भी काम से पहले विधिवत पूजा करती हैं और शुभ मुहूर्त पर ही अहम फैसले लेती हैं। पहली बार सीएम बनने के दौरान का एक ऐसा ही किस्सा बेहद चर्चित है। वो किस्सा है वसुंधरा राजे का शपथ समारोह। पहली बार राजभवन के बाहर नवनिर्मित विधानसभा भवन के सामने जनपथ पर राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री को शपथ दिलाई जा रही थी। शपथ दिलाने के लिए पहुंचे राज्यपाल और सीएम के साथ शपथ लेने वाले मनोनीत मंत्री मंच पर खड़े वसुंधरा राजे का इंतजार कर रहे थे, लेकिन वसुंधरा राजे को शपथ ग्रहण से पहले पंडित ने शुभ मुहूर्त दिन में 12:15 का बताया था। राज्यपाल शपथ दिलाने के लिए वसुंधरा की राह देख रहे थे। ठीक 12:15 बजे गले में केसरिया पटका पहने वसुंधरा राजे मंच पर पहुंचीं। ''मैं वसुंधरा राजे ईश्वर की शपथ लेती हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगी...'' वैदिक मंत्रोच्चार, पूजा-अर्चना के साथ शुभ मुहूर्त में मुख्यमंत्री का शपथ समारोह संपन्न हुआ और 8 दिसंबर, 2003 को राजस्थान को पहली महिला मुख्यमंत्री मिली। शपथ ग्रहण के तुरंत बाद सचिवालय में मंत्रिमंडल की बैठक होनी तय मानी जा रही थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्योंकि शुभ मुहूर्त के अनुसार मंत्रिमंडल की बैठक तीसरे पहर में की जानी थी। ऐसा पहली दफा ही हुआ होगा कि शपथ ग्रहण के तुरंत बाद सचिवालय में मंत्रिमंडल की बैठक नहीं हुई थी। आमतौर पर शपथ ग्रहण के बाद मंत्रिमंडल की बैठक होती है, लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ था। दूसरा बैठक से पहले सीएम की कुर्सी की पूजा की गई और फिर उस पर मुहूर्त के अनुसार वसुंधरा राजे बैठीं। कहते हैं कि वसुंधरा राजे जब भी झालावाड़ आती है तो यहाँ के प्रसिद्ध मंदिर परिसर में पहुंचकर बालाजी के दर्शन व् पूजा अर्चना करती है। यहां तक कि वसुंधरा राजे अपने चुनावी अभियान की शुरुआत भी मंदिर के पूजा अर्चना के बाद ही करती है। नामांकन भरने से पहले बालाजी के मंदिर पर पूजा अर्चना कर आशीर्वाद लेती है और यहां पर अखंड ज्योत जलती है जो अनवरत जलती रहती है।
बात 1985 की है, मध्यप्रदेश में चुनाव चल रहे थे। उस समय भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर के कारण मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता वापसी की। 320 विधानसभा सीटों में से 250 सीटों पर कांग्रेस विजयी रही। 1980 से 1985 अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे और ये चुनाव भी उन्ही के नेतृत्व में लड़ा गया था। अब सत्ता बरकरार रखने के बाद लाज़मी था कि अर्जुन सिंह फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठेंगे। औपचारिकता पूरी करने के लिए कांग्रेस विधानमंडल दल की बैठक अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री चुनने के लिए बुलाई गई। 11 मार्च 1985 को अर्जुन सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन अगले दिन ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। दरअसल, मुख्यमंत्री बनने के अगले दिन ही अर्जुन सिंह को पंजाब का राजयपाल नियुक्त कर दिया गया था। सवाल उठने लगे कि अगर राज्यपाल ही बनाना था तो अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री चुना ही क्यों गया? खुद अर्जुन सिंह भी इस फैसले से दंग थे और नाखुश भी और हो भी क्यों न, एक दिन के लिए मुख्यमंत्री पद मिलना और अगले दिन ही छीन जाना। ये अपने आप में आश्चर्यचकित कर देने वाली बात थी।सियासी गलियारों में चर्चाएं होने लगी कि आखिर इस घटनाक्रम की क्या वजह रही होगी। माहिरों का मानना था कि अर्जुन सिंह कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति का शिकार हो गए। लगातार दूसरी बार सीएम बनने से उनका बढ़ा राजनीतिक कद कांग्रेस के इनर सर्किल में पसंद नहीं था। उधर अर्जुन सिंह के पंजाब जाने के बाद मध्यप्रदेश कि सत्ता के सरदार बने मोतीलाल वोरा। अर्जुन सिंह के बाद मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। मोतीलाल सरकार के तीन साल का समय पूरा होने चला था, उधर अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश में वापसी को बेताब थे। अर्जुन सिंह का इंतज़ार खत्म हुआ और वे मध्यप्रदेश लौटने में कामयाब रहे। तब कांग्रेस लीडरशिप ने मोतीलाल वोरा को केंद्र बुला लिया और 14 फरवरी 1988 को अर्जुन सिंह एक बार फिर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। अर्जुन सिंह और मुख्यमंत्री की कुर्सी का नाता ज़्यादा समय नहीं टिक पाया और ये कार्यकाल एक साल भी नहीं चला। एक चर्चित घोटाले में नाम आने के बाद अर्जुन सिंह को फिर इस्तीफा देना पड़ गया। मुख्यमंत्री की कुर्सी फिर खाली हो गई और मोतीलाल वोरा को एक बार फिर सीएम बनाया गया। कांग्रेस की उठापटक इस हद तक बढ़ी कि अगले चुनाव से पहले मोतीलाल वोरा को फिर हटाना पड़ा और उनकी जगह श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने। इस तरह मध्य प्रदेश की आठवीं विधानसभा में पांच साल में पांच मुख्यमंत्री बने थे।
वीरेंद्र भट्ट मेयर और माधुरी कपूर बनी डिप्टी मेयर हिमाचल प्रदेश के मंडी नगर निगम पर फिर से भाजपा ने कब्जा कर लिया है। भारतीय जनता पार्टी के पार्षदों ने शनिवार को सर्वसम्मति से नया मेयर व डिप्टी मेयर चुन लिया है। पूर्व डिप्टी मेयर वीरेंद्र भट्ट को नया महापौर और माधुरी कपूर को उप महापौर बनाया गया है। मंडी में मेयर और डिप्टी मेयर के लिए वोटिंग की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि 15 में से 11 पार्षद भाजपा के पास पहले से थे। वहीँ तीन दिन पहले ही राज्य सरकार ने विधायकों को भी मेयर व डिप्टी मेयर के चुनाव में वोटिंग राइट दिया है। मंडी नगर निगम की परिधि में तीन विधानसभा क्षेत्र पड़ते है। तीनों विधानसभा पर भाजपा का कब्जा है। ऐसे में तीन भाजपा विधायकों के वोट को मिलाकर भाजपा के पास 14 का बहुमत था। वहीँ कांग्रेस ने मंडी में मेयर व डिप्टी बनाने की कोशिश भी नहीं की। वहीँ पालमपुर नगर निगम में एक बार फिर कांग्रेस के मेयर व डिप्टी मेयर बने है। गोपाल सूद महापौर, जबकि उप महापौर के तौर पर राजकुमार की ताजपोशी हुई है। नगर निगम पालमपुर में 15 वार्ड हैं और इन 15 वार्डों में कांग्रेस के पास 11, दो भाजपा व दो निर्दलीय पार्षद हैं। दो निर्दलीय पार्षदों ने भी कांग्रेस का दामन थाम लिया है। ऐसे में ढाई साल के बाद हुए महापौर उप महापौर के चुनाव में भाजपा के पास कोई मौका हीनहीं था। यह पहले से ही तय था कि महापौर व उप महापौर कांग्रेस का ही बनेगा। दो नगर निगमों के बाद अब सोलन और धर्मशाला नगर निगम में मेयर व डिप्टी मेयर का चयन होना है। सोलन नगर निगम पर अभी कांग्रेस का कब्जा है। यहां कांग्रेस पहले ही पूर्ण बहुमत की स्थिति में है। विधायक के वोटिंग राइट से एक ओर वोट बढ़ा है। मगर, धर्मशाला में विधायक को वोटिंग राइट मिलने से मुकाबला रोचक हो गया है। धर्मशाला नगर निगम में उलटफेर की सम्भावना बन सकती है। 17 में से कांग्रेस के पास 5 पार्षद और भाजपा के पास 8 पार्षद है। यहां दो निर्दलीय पार्षद भाजपा समर्थित और दो कांग्रेस समर्थित जीते हुए हैं। यानी चार निर्दलीय है। यहां विधायक कांग्रेस का है। ऐसे में कांग्रेस विधायक और चार निर्दलीय का मेयर-डिप्टी मेयर चुनने में निर्णायक भूमिका रहने वाली है। उधर सोलन में कांग्रेस की कलह में उम्मीद देख रही भाजपा की आस पूरी होती है या नहीं, ये देखना रोचक होगा। माना जा रहा है कि कांग्रेस यहाँ दोनों गुटों के बीच सहमति बननाने के प्रयास में है और मुमकिन है पार्टी को इसमें कामयाबी भी मिल जाएँ।
क्या कभी वापस मजबूत हो पाएंगे उद्धव ठाकरे ? 60 के दशक में मुंबई में बड़े कारोबार पर गुजरातियों का कब्जा था, जबकि छोटे कारोबार में दक्षिण भारतीयों और मुस्लिमों की धाक थी। मुंबई में ज्यादातर मराठी, गुजराती और दक्षिण भारतियों के यहाँ काम करते थे। उसी दौर में मुंबई की सियासत में एंट्री हुई एक कार्टूनिस्ट की। 'मराठी मानुस' का नारा बुलंद हुआ और देखते ही देखते 1966 में शिवसेना का गठन हो गया। मुंबई में मराठी बोलने वाले स्थानीय लोगों को नौकरियों में तरजीह दिए जाने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हो गया। दक्षिण भारतीयों के खिलाफ बाकायदा ‘पुंगी बजाओ और लुंगी हटाओ' अभियान चलाया गया। धीरे-धीरे मुंबई के हर इलाके में स्थानीय दबंग युवा शिवसेना में शामिल होने लगे। मुंबई को एक गॉडफादर मिल चुका था। ये किसी फिल्म की पटकथा नहीं है, ये कहानी है बालसाहेब ठाकरे की। मुंबई में दंगों के बाद बाला साहेब ठाकरे का जिक्र हर तरफ था। 1995 में इसी पर मशहूर फिल्मकार मणिरत्नम ने ‘बॉम्बे’ नाम की फिल्म बनाई। फिल्म में शिव सैनिकों को मुसलमानों को मारते और लूटते हुए दिखाया था। फिल्म के अंत में बाल ठाकरे से मिलता एक कैरेक्टर इस हिंसा पर दुख प्रकट करते हुए दिखाई देता है। बाल ठाकरे ने इस फिल्म का विरोध किया और मुंबई में इसे रिलीज नहीं होने देने का एलान कर दिया। फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर अमिताभ बच्चन थे जो बालासाहेब ठाकरे के दोस्त थे। कहते है इस विषय पर ठाकरे को मनाने के लिए अमिताभ उनके पास गए। अमिताभ ने उनसे पूछा कि क्या शिव सैनिकों को दंगाइयों के रूप में दिखाना उन्हें बुरा लगा। ठाकरे का जवाब था, " बिल्कुल भी नहीं। मुझे जो बात बुरी लगी वो था दंगों पर ठाकरे के कैरेक्टर का दुख प्रकट करना। मैं कभी किसी चीज पर दुख नहीं प्रकट करता।" ये ही बालासाहेब का तरीका था और ऐसा ये ही उनका मिजाज। एक दौर में बालासाहेब का हर शब्द शिवसैनिकों के लिए ईश्वर के आदेश से कम नहीं होता था। कभी महाराष्ट्र की राजनीति में वही होता था जो ठाकरे कहते थे। 9 भाई-बहनों में सबसे बड़े बाला साहेब ठाकरे के पिता केशव सीताराम ठाकरे मुंबई को भारत की राजधानी बनवाना चाहते थे। बालासाहेब पैदा तो पुणे में हुए थे लेकिन उन्हें भी मुंबई से बेहद प्यार था। बालासाहेब ने अपने करियर की शुरुआत एक कार्टूनिस्ट के तौर पर की थी। फिर 1960 के दशक में बालासाहेब पूरी तरह से राजनीति में एक्टिव हो गए। इसी समय उन्होंने मार्मिक नाम से साप्ताहिक अखबार भी निकाला। फिर मराठी मानुस का नारा बुलंद कर मुंबई की सियासत में छा गए। मुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनाव में शिवसेना लगातार छाप छोड़ती रही। 1980 आते आते मुंबई में शिवसेना की धाक थी और महाराष्ट्र में भी पार्टी को पहचान मिल चुकी थी, हालांकि अब तक पार्टी को कोई बड़ी चुनावी सफलता नहीं मिली थी। इसके बाद ठाकरे ने कट्टर हिंदुत्व की आइडियोलॉजी अपनाई और शिवसेना को खूब समर्थन मिला। मुंबई के विलेपार्ले विधानसभा सीट के लिए दिसंबर 1987 में हुए उप-चुनाव में पहली बार शिवसेना ने हिंदुत्व का आक्रामक प्रचार किया था। इस चुनाव में एक्टर मिथुन चक्रवर्ती और नाना पाटेकर ने शिवसेना के उम्मीदवार का प्रचार किया था। बालासाहेब ठाकरे ने हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगे और नतीजन चुनाव आयोग ने ठाकरे से 6 साल के लिए मतदान का अधिकार छीन लिया था। पर इसके बाद ठाकरे ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पार्टी राम जन्मभूमि आंदोलन में भी कूद गई और पुरे देश में शिवसेना का ग्राफ बढ़ा। इसी दौर में भाजपा भी मजबूत हो रही थी और शिवसेना और भाजपा साथ आ गए। 1990 के दशक में महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार बनी। बालासाहेब ठाकरे अपने विवादित बयानों के लिए हमेशा चर्चा में रहे। कभी डेमोक्रेसी के खिलाफ बोले तो 2006 में शिवसेना के 40वें स्थापना दिवस पर बाल ठाकरे ने मुसलमानों को एंटी नेशनल बता दिया। कभी ठाकरे के इशारे पर कोई फिल्म रिलीज़ नहीं हुई तो कभी पाकिस्तान से मैच के विरोध में पिच खोद दी गई। ठाकरे अपनी शर्तों पर अपनी तरह की राजनीति करते रहे। और पता चल गया रिमोट उनके हाथ में रहेगा ... साल 1995 में महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा गठबंधन की सरकार बनी और मुख्यमंत्री बने मनोहर जोशी। जीत के जश्न में कुछ दिन बाद एक पार्टी हुई जिसमे चंद ही मेहमान बुलाए गए थे। पार्टी बिलकुल शांति से चल रही थी, तभी पार्टी में बाल ठाकरे पहुंचे। ठाकरे ने देखा, खाने का तो अच्छा ख़ासा इंतज़ाम है, लेकिन पीने को कुछ नहीं है और बिफरते हुए कारण पूछा तो पता चला कि सीएम की मौजूदगी में शराब पीना ठीक नहीं। ठाकरे तो ठाकरे थे, उन्होंने तुरंत एक शैम्पेन की बोतल मंगाई और सीएम कैमरामैन की नज़र से बचने के लिए वो एक कोने में जाकर बैठ गए। ये ठाकरे का तरीका था। उसी दिन से सबको पता चल गया, सत्ता पर चाहे कोई बैठे, रिमोट कंट्रोल बाल ठाकरे के हाथ में रहेगा। इंदिरा गांधी थीं पसंदीदा काटूर्न कैरेक्टर बतौर कार्टूनिस्ट बालासाहेब ठाकरे ने देश के कई दिग्गजों पर कार्टून बनाकर कई बड़े मुद्दे उठाए और सवाल भी किए, लेकिन राजनीति जगत में सबसे ज्यादा निशाना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर साधा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कामों पर सवाल उठाने में पीछे वो नहीं रहे। वे कांग्रेस की करनी और कथनी में कितना फर्क समझते थे, इसी बात को लेकर उन्होंने इंदिरा गांधी पर कई कार्टून बनाए। 1971 में कांग्रेस ने गरीबी हटाओ का नारा दिया तो उन्होंने कार्टून बनाया और लिखा इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया है, लेकिन उनका दौरा शाही था। 1975 में जब कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी से कांग्रेस का गठबंधन हुआ था तब बालासाहेब ने कार्टून के जरिए टिप्पणी की थी कि कश्मीरी गुलाब के कांटे लहूलुहान कर रहे है। भतीजे को नहीं बेटे को सौपी विरासत बालासाहेब ठाकरे के तीन बेटे है,बिंदुमाधव ठाकरे, जयदेव ठाकरे और उद्धव ठाकरे। बिंदुमाधव ठाकरे बालासाहेब के सबसे बड़े बेटे थे और उनका 1996 में पत्नी माधवी के साथ एक एक्सीडेंट में निधन हो गया था। वे राजनीति से दूर ही थे। इसी तरह जयदेव ठाकरे भी लाइमलाइट और सियासत दोनों से दूर ही रहे। जबकि सबसे छोटे उद्धव ठाकरे उनके राजनैतिक वारिस है। पर एक दौर में उनका सियासी कामकाज सँभालते थे उनके भतीजे राज ठाकरे। कहते है शिवसेना में बालासाहेब के बाद राज का ही रुतबा था और कार्यकर्त्ता भी उन्ही से जुड़े थे। पर बालसाहेब ने अपना राजनैतिक वारिस चुना उद्धव ठाकरे को और इसे से आहात होकर राज ठाकरे ने अपनी अलग पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली। और कांग्रेस के साथ आ गए उद्धव ठाकरे... 17 नवंबर 2012 को बालासाहेब ठाकरे का निधन हो गया और पार्टी की कमान पूरी तरह उद्धव ठाकरे के हाथ में आ गई। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव और इसी साल के अंत में हुए विधानसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा गठबंधन ने चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। महाराष्ट्र में देवन्द्र फडणवीस सीएम बने और शिवसेना सरकार में शामिल रही। पर 2019 आते आते उद्धव ठाकरे के अरमान पंख फ़ैलाने लगे थे। एक वक्त पर बालासाहेब ठाकरे चाहते तो सीएम बन सकते थे लेकिन उन्होंने कभी ऐसा किया नहीं। 1995 में बाल ठाकरे ने जब बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई तो अपने करीबी नेता मनोहर जोशी को सीएम बनाया। इस दौरान बाल ठाकरे ने कहा था कि इस सरकार का रिमोट कंट्रोल मेरे हाथ में रहेगा। कहा जाता है कि बाला साहेब ठाकरे के समय महाराष्ट्र की राजनीति में वही होता था जो वह कहते थे। यदि सत्ता में बैठा व्यक्ति बाल ठाकरे की बात नहीं भी मानता था तो शिवसैनिक अपने तरीके से मनवा लेते थे, इसलिए वो कभी खुद सत्ता आसन पर नहीं बैठे। पर उद्धव ठाकरे की राय जुदा थी। नतीजन भाजपा से अलगाव के बाद शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली, उसी कांग्रेस के साथ जिसकी बालसाहेब ने ताउम्र आलोचना की। बाला साहेब ठाकरे ने साल 2004 में एक टीवी इंटरव्यू के दौरान कहा था, "मैं शिवसेना को कांग्रेस नहीं बनने दूंगा और अगर मुझे मालूम होगा कि ऐसा हो रहा है तो मैं अपनी दुकान बंद कर दूंगा।" पर उद्धव को कांग्रेस का साथ मंजूर था और आज भी है। कांग्रेस से हाथ मिलकर उद्धव ठाकरे सीएम तो बन गए लेकिन शिवसेना के भीतर भी कुछ नेता इससे खुश नहीं थे। ढाई साल के बाद शिवसेना को इस फैसले का खामियाजा भुगतना पड़ा और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पार्टी के बड़े गुट ने विद्रोह कर दिया। उद्धव की सरकार गई, साथ ही शिवसेना भी दो फाड़ हो गई। शिंदे भाजपा के सहयोग से सीएम बने और आज बालासाहेब की बनी पार्टी का सिंबल भी उनके पास है। कांग्रेस के साथ जाना उद्धव की क्या सबसे बड़ी भूल थी, इसे लेकर सबके अपने मत हो सकते है लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि बालासाहेब होते तो शायद ऐसा कभी न करते, न करने देते। कौन सी शिवसेना है बालासाहेब की शिवसेना ? अब बालासाहेब की शिवसेना दो हिस्सों में बंटी है, पार्टी का सिंबल शिंदे गुट के पास है और वे ही असली शिवसेना होने का दावा करते है। उद्धव कमजोर दीखते है और उन्हें उम्मीद है की जनता उन्हें अगले चुनाव में फिर ताकत देगी। दिलचस्प बात ये है की जिस एनसीपी का उन्हें सहारा था वो खुद बंट चुकी है। अजित पवार अपने समर्थक विधायकों के साथ शिंदे सरकार में शामिल है और डिप्टी सीएम है। उनके चाचा शरद पवार, उद्धव ठाकरे की तरह ही पार्टी पर अधिकार की लड़ाई लड़ रहे है। अब कौन सी शिवसेना असली है और कौन सी नकली, ये जनता तय करेगी। इस बीच राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के साथ आने के कयास भी लगते रहे है। अब शिवसेना की सियासत क्या मोड़ लेती है ये 2024 के विधानसभा चुनाव के बाद ही सम्भवतः स्पष्ट होगा। उलझे समीकरणों में उद्धव ठाकरे का इम्तिहान ! महाराष्ट्र की मौजूदा राजनैतिक स्थिति बेहद पेचीदा है। शिवसेना और एनसीपी जहाँ दो फाड़ हो चुके है, तो कांग्रेस की भूमिका सहयोगियों को आश्वासन देने से ज्यादा नहीं दिखती। शिवसेना का शिंदे गुट और एनसीपी का अजित पवार गुट भाजपा के साथ आ चुका है और तीनों मिलकर सरकार चला रहे है। शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट कमजोर दिख रहा है, तो शरद पवार के साथ भी अब पहले सी ताकत नहीं दिखती। अजित पवार के साथ कई दिग्गज भी उनका साथ छोड़ चुके है। वहीँ कई माहिर तो अब भी ये मैच फिक्स मानते है। ऐसी स्थिति में भाजपा निसंदेह अकेले दम पर भी सबसे मजबूत है। उधर कांग्रेस अभी भी मानो तमाशा देख रही है। करीब एक साल बाद राज्य में विधानसभा चुनाव होने है और कांग्रेस में चेहरा अशोक चव्हाण होंगे, पृथ्वीराज चव्हाण होंगे या कोई तीसरा, ये तय नहीं है। कांग्रेस, उद्धव ठाकरे और शरद पवार मिलकर चुनाव लड़ते भी है या नहीं, फिलहाल तो ये कहना भी जल्दबाजी है। वहीँ भाजपा के साथ शिवसेना के शिंदे गुट और अजित पवार किस तरह सीटों का समझौता करते है, ये देखना भी दिलचस्प होगा। फिलवक्त भाजपा 'मेजर' होकर भी 'माइनर' भूमिका में है, पर क्या ये बलिदान भाजपा आगे भी देगी ? बहरहाल महाराष्ट्र के राजनैतिक समीकरण बेहद उलझे हुए है और इनमें सबसे ज्यादा किसी की स्थिति नाजुक है तो वो है शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट। बालासाहेब की राजनैतिक विरासत को बचाये रखना उद्धव गुट के लिए बड़ी चुनौती है।
तीन राज्यों में कांग्रेस के लिए गेम चैंजेर हो सकता हैं OPS कांग्रेस को उम्मीद, भाजपा को पस्त करेगा ओपीएस अस्त्र तीन राज्यों में चला ओपीएस फैक्टर तो क्या भाजपा बदलेगी स्टैंड ? देश के सियासी पटल पर कांग्रेस की चमक बीते एक दशक में लगातार फीकी पड़ी है। कुछ राज्यों में मिली जीत छोड़ दी जाएँ तो देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी का ग्राफ साल दर साल गिरता रहा है। इस दरमियान पार्टी मौटे तौर पर किसी भी मुद्दे पर भाजपा को घेर नहीं पाई। पर बीत कुछ वक्त में पार्टी के हाथ एक मुद्दा लगा भी हैं और पार्टी ने उसका असर देखा भी हैं। ये मुद्दा है पुरानी पेंशन बहाली का जो मौजूदा समय में कांग्रेस के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकता है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा मिला है और अब निगाहें टिकी हैं राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों पर। इन तीन राज्यों के नतीजे न सिर्फ कांग्रेस की दशा सुधार सकते हैं, बल्कि पार्टी को दिशा भी दे सकते हैं। नतीजे मनमाफिक आएं तो केंद्रीय राजनीति में भी कांग्रेस ओपीएस की पिच पर खेलती दिख सकती हैं। बता दें कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस ओपीएस लागू करने के बाद मैदान में हैं, तो मध्य प्रदेश में पार्टी ने सत्ता आने पर ओपीएस का वादा किया हैं। कांग्रेस को उम्मीद हैं कि ओपीएस का मुद्दा इन तीन राज्यों में गेम चैंजेर सिद्ध होगा। फिलवक्त कांग्रेस के लिए ओपीएस का मुद्दा आस हैं, तो भाजपा के लिए गले की फांस हैं। माहिर भी मानते हैं कि ओपीएस का विरोध कर भाजपा एक बड़ा सियासी जोखिम ले रही है। भाजपा या तो ओपीएस पर एक शब्द नहीं बोलती या फिर इसका विरोध करती हैं, जहाँ जैसी सियासी जरुरत हो। पर इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि ओपीएस वो मुद्दा हैं जो न भाजपा से निगलते बन रहा हैं और न उगलते। खासतौर से पिछले दो ढाई साल से देश के विभिन्न राज्यों में ओपीएस बहाली का मुद्दा एक आंदोलन का रूप लेता जा रहा हैं। हिमाचल में भाजपा इसका खमियाजा भुगत चुकी हैं और अब तीन राज्यों के चुनाव नतीजों पर निगाह हैं। अगर कांग्रेस का ये मुद्दा चल गया तो भाजपा के पास फिलहाल इसकी कोई काट नहीं दिखती। हालांकि ये भी सच हैं कि राज्य सरकारें बिना केंद्र के सहयोग से लंबे समय तक आगे नहीं चल सकती हैं। एनपीएस का पैसा पीएफआरडीए में जमा है, जो केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। केंद्र की मर्जी के बिना, एनपीएस का पैसा राज्यों को नहीं दिया जा सकता। ऐसे में केंद्र पेंच फँसायें रख सकता हैं। पर ये भी तय हैं कि यदि राज्यों में कांग्रेस को अनुकूल परिणाम मिले तो कांग्रेस लोकसभा चुनाव में इसे जोर शोर से भाजपा के खिलाफ भुनाएगी। आखिरी सियासी जंग राज्यों की नहीं, बल्कि केंद्र की सत्ता के लिए ही होनी हैं। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश, इन तीनों ही राज्यों में मतदान हो चूका हैं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस पहले से सत्ता में हैं तो मध्य प्रदेश में पार्टी को सत्ता वापस चाहिए। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार में रहते ओपीएस बहाल कर चुकी हैं, वहीँ मध्य प्रदेश में ओपीएस बहाली कांग्रेस की गारंटी हैं। सिलसिलेवार बात करें तो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता वापसी को आश्वस्त दिख रही हैं, पर इसका कारण सिर्फ ओपीएस बहाली नहीं हैं। दरअसल छत्तीसगढ़ में वोटर साइलेंट रहा हैं और प्रत्यक्ष एंटी इंकम्बैंसी नहीं दिखी हैं। ऐसे में वोटिंग परसेंटेज में इजाफे को कांग्रेस प्रो इंकम्बैंसी मान कर चल रही हैं। पार्टी का मानना हैं कि बघेल सरकार के कई फैसले और योजनाओं के नाम पर जनता ने वोट दिया हैं जिनमें से ओपीएस भी एक हैं। वहीं मध्य प्रदेश में कांग्रेस को उम्मीद हैं कि लोगों को बदलाव चाहिए और बदलाव के लिए मतदान हुआ हैं। पर जानकार मान रहे हैं कि यहाँ मुकाबला नजदीकी हैं, ठीक 2018 की तरह। मध्य प्रदेश में निसंदेह ओपीएस बड़ा फैक्टर हैं। ऐसे में नजदीकी मुकाबले में यदि कांग्रेस बाजी मार जाती हैं तो ओपीएस को क्रेडिट देना पूरी तरह सही होगा। जानकारों की माने तो ये संभव हैं कि नजदीकी मुकाबले में ओपीएस ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस के लिए विक्ट्री शॉट लगा दिया हो। हालांकि इसकी तस्दीक काफी हद तक पोस्टल बैलट की गिनती से ही हो जाएगी। अब बात करते हैं उस राज्य की जहाँ ओपीएस को कांग्रेस ने सबसे बड़े सियासी अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया हैं। राजस्थान ओपीएस बहाल करने वाला देश का पहला राज्य था और इसका सेहरा बंधा सीएम अशोक गहलोत के सर। राजस्थान में आखिरी बार 1993 में सरकार रिपीट हुई थी, तब से हर बार बदलाव होता आया हैं। अधिकांश जानकार मानते हैं कि ये रिवाज बरकरार रह सकता हैं, लेकिन शायद ही कोई ऐसा हैं जो पूरी तरह रिपीट की सम्भावना को खारिज कर रहा हैं। ये ही कारण हैं कि मतदान से पहले एक सप्ताह में भाजपा ने राजस्थान में पूरी ताकत झोंक दी। पीएम मोदी ने इतनी जनसभाएं शायद ही इससे पहले किसी राज्य के विधानसभा चुनाव में की हो। उधर कांग्रेस को पता तो हैं कि 'मिशन रिपीट' डिफीट हो सकता हैं, लेकिन कर्मचारी वोट के बुते पार्टी को इतिहास रचने का भरोसा हैं। कांग्रेस को भरोसा हैं कि ओपीएस के चलते कर्मचारी वोट उसे मिला हैं और नतीजे चौंकाने वाले होंगे। क्या गहलोत का दांव मास्टर स्ट्रोक सिद्ध होगा ! सियासत में मुद्दे बनाये जाते है, बढ़ाये जाते है और उनका इस्तेमाल कर सत्ता की राह प्रशस्त की जाती हैं। राजस्थान में अशोक गहलोत ओपीएस बहाल तो पहले ही कर चुके थे, ऐसे में ओपीएस को भुनाने के लिए गहलोत ने अब नया पासा फेंका। कांग्रेस ने गारंटी दी है कि दूसरी बार सरकार बनते ही कर्मचारियों के लिए 'ओपीएस' को कानून के जरिए पक्का कर दिया जाएगा। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा, 'तो वेट नहीं, वोट कीजिए और पोस्टल बैलेट से ओपीएस को लॉक कीजिए'। सात चुनावी गारंटियों में पुरानी पेंशन स्कीम को कानूनी गारंटी का दर्जा देना भी शामिल हैं और इसे पहले नंबर पर रखा गया है। हालांकि गहलोत के इस दांव में पेंच भी है। ओपीएस को अगर राज्य में कानूनी दर्जा मिल भी गया तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि किसी दूसरे दल की सरकार उस कानून को निरस्त नहीं करेगी। ऐसे में कानूनी दर्जे की अहमियत पर सवाल उठना लाजमी हैं। फिर भी गहलोत को भरोसा हैं कि इससे वे कर्मचारियों का भरोसा जीतने में कामयाब रहे हैं। बहरहाल कर्मचारी अपना फैसला ले चुके हैं और नतीजे के लिए 3 दिसंबर का इन्तजार करना होगा। तो भाजपा को भी बदलना पड़ेगा स्टैंड ! माहिर मान रहे हैं कि अब तक ओपीएस फैक्टर का इस्तेमाल विधानसभा चुनावों में ही हुआ हैं। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का ये दांव सही पड़ा था और अब निगाह राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश पर हैं। विशेषकर अगर राजस्थान में सबको चौंकाते हुए कांग्रेस रिपीट कर जाती हैं तो ओपीएस की गूंज पुरे देश में सुनने को मिल सकती हैं। राजस्थान में सरकारी कर्मचारी अगर ओपीएस के समर्थन में मतदान करते हैं, तो चुनावी नतीजे चौंका सकते हैं। राजस्थान में करीब दस लाख सर्विंग और रिटायर्ड कर्मचारी हैं। इनके परिवारों को मिला लिया जाएँ तो ये संख्या विधानसभा चुनाव में समीकरण पूरी तरह बदल सकती हैं। यदि ऐसा होता हैं तो मुमकिन हैं भाजपा के रुख में भी ओपीएस को लेकर परिवर्तन देखने को मिले। राज्य कर रहे ओपीएस बहाल, पर फंसा हैं पेंच ! राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पंजाब और हिमाचल प्रदेश; ये वो राज्य हैं जो बीत कुछ वक्त में पुरानी पेंशन योजना को लागू करने का एलान कर चुके हैं। पर इसमें कोई दो राय नहीं हैं की इन राज्यों को आने वाले वक्त में आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। दरअसल, एनपीएस के तहत राज्य सरकारें, अपना और कर्मचारी की सैलरी का एक तय हिस्सा पेंशन फंडिंग रेगुलेटरी डेवलेपमेंट अथॉरिटी को देती हैं। इसे बाद में कर्मचारी को पेंशन के रूप में दिया जाता है। इसके तहत पेंशन फंडिंग एडजस्टमेंट के तहत राज्य सरकारें, केंद्र से अतिरिक्त कर्ज ले सकती हैं। यह अतिरिक्त कर्ज राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का तीन फीसदी तक हो सकता है। अब केंद्र ने नियमो में बदलाव किया हैं जिसके बाद संभव हैं कि ओपीएस लागु करने वाले राज्यों को कम कर्ज मिले। दूसरा, जिन राज्यों ने अपने कर्मियों को पुरानी पेंशन के दायरे में लाने की घोषणा की है, उन्हें एनपीएस में जमा कर्मियों का पैसा वापस नहीं मिलेगा, ये केंद्र ने एक किस्म से साफ कर दिया है। यह पैसा पेंशन फंड एंड रेगुलेटरी अथारिटी (पीएफआरडीए) के पास जमा है। नई पेंशन योजना यानी एनपीएस के अंतर्गत केंद्रीय मद में जमा यह पैसा राज्यों को नहीं दिया जा सकता, बल्कि ये पैसा केवल उन कर्मचारियों के पास ही जाएगा, जो इसका योगदान कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकार ने पीएफआरडीए से पैसा वापस लेने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह किया था, पर कोई सकरात्मक नतीजा नहीं निकला। ऐसा ही हिमाचल प्रदेश में भी हुआ हैं। एक तरह से कहा जा सकता हैं कि एनपीएस के तहत जमा अंशदान केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। अगर यह पैसा वापस नहीं आता है, तो राज्य सरकारों के खजाने पर इसका अतिरिक्त भार पड़ेगा। पर ये भी समझना होगा कि इसे वापस देना केंद्र के लिए भी आसान नहीं हैं क्यूंकि एनपीएस में जमा पैसा मार्केट में लगा है। इसमें उतार चढ़ाव आता हैं और जाहिर हैं इसे निकालना इतना सहज नहीं हैं। केंद्र सरकार एनपीएस का पैसा अगर देती भी हैं तो भी इसके लिए पीएफआरडीए एक्ट में संशोधन करना पड़ेगा। यानी ओपीएस में फंसा ये पेंच, संभव हैं आगे भी फंसा रहे। सक्रीय हुए कर्मचारी संगठन : पुरानी पेंशन बहाली के लिए केंद्र पर भी लगातार दबाव बढ़ रहा हैं। हालहीं में दिल्ली के रामलीला मैदान में सरकारी कर्मियों ने चेतावनी रैली आयोजित की थी। कॉन्फेडरेशन ऑफ सेंट्रल गवर्नमेंट एम्प्लाइज एंड वर्कर्स के बैनर तले आयोजित हुई इस रैली में ऑल इंडिया स्टेट गवर्नमेंट एम्प्लाइज फेडरेशन सहित करीब 50 कर्मचारी संगठन शामिल थे। जाहिर हैं ऐसे में केंद्र पर भी ओपीएस बहाली का दबाव हैं। कर्मचारियों की मुख्य मांगों में पीएफआरडीए एक्ट में संशोधन करना या उसे पूरी तरह खत्म करना भी शामिल हैं। ये चाहते हैं कि सरकार, पीएफआरडीए को वापस ले। जाहिर हैं जब तक इस एक्ट को खत्म नहीं किया जाता, तब तक विभिन्न राज्यों में लागू हो रही ओपीएस की राह मुश्किल ही बनी रहेगी।
यहाँ विधानसभा चुनावों से लेकर अमेरिका के चुनावों तक पर लगता हैं सट्टा ! चुनावों में सट्टे के लिए विख्यात है फलोदी फलोदी ; ताजा पहचान ये है कि ये कस्बा नया -या जिला बना है, पहले जोधपुर जिला का भाग हुआ करता था। हालांकि अब भी ये कस्बे की तरह ही है, एक ऐसा जीवंत कस्बा जहाँ पुरानी इमारतों की वास्तुकला उसके समृद्ध इतिहास की आज भी गवाही देती है। सर्दी के दिनों में यहां से नज़दीक खिचन नाम के एक गांव में प्रवासी पक्षी मौसम का मज़ा लेने आते हैं। पर ये फलोदी की असल पहचान नहीं है। पहचान ये है कि फलोदी का सट्टा बाजार के लिए पूरे देश में नाम है, या बदनाम है; ये सब अपने हिसाब से तय करते है। दरअसल ये ही फलोदी की पहचान है। यहां नुक्कड़ से लेकर घरों तक सट्टा खेला जाता है। कहते है फलोदी में सट्टे का काम बीते 500 साल से चल रहा है। बड़े से लेकर बच्चे तक फलोदी सट्टा बाजार में एक्टिव हैं। सट्टा यहां के लोगों का जूनून है। अगर कुछ नहीं होता है तो हवा में चप्पल उछालकर दांव लगा लेते हैं कि चप्पल उल्टी गिरेगी या सीधे। फलोदी में चार तरह का सट्टा लगता है। इनमें बारिश, क्रिकेट, चुनाव और अंकों का सट्टा शामिल है। पर जिसने इसे अलग पहचान दिलाई वो है चुनाव का सट्टा। विधानसभा और लोकसभा चुनव में ही नहीं, अमेरिका का राष्ट्रपति कौन बनेगा, ये भी यहाँ का सट्टा बाज़ार बता देता है। कहते है यहां चुनावी सट्टा देश में पहले चुनावों के साथ ही शुरू हो गया था। चुनाव के दौरान फलोदी के मुख्य बाज़ार में बने चौक में सुबह 11 बजे से लोग जमा होने शुरू होते हैं और देर रात तक जमावड़ा लगा रहता है। दृश्य कुछ ऐसा होता है मानो चुनावी विश्लेषकों का कोई समूह समीक्षा कर रहा हो। तथ्यों पर आधारित तर्क वितर्क होता है। इसके लिए सट्टेबाज ख़बरों पर पैनी नजर रखते हैं। साथ ही अलग-अलग इलाक़ों में बात कर लोगों की नब्ज़ टटोलते हैं, यानी उनका अपना सर्वे होता है। ये राजनीतिक दलों के आंतरिक समीकरणों को देखकर भी अपना आंकलन करते हैं। कहते है हवा का रुख भांपने में ये कोई गलती नहीं करते। इस सट्टे के कारोबार में दलाल, लगाइवाल और खाइवाल, तीन कड़ियां होती हैं। जानकार कहते हैं कि सट्टा बाज़ार का चुनावी आंकलन अधिकांश मौकों पर सही साबित होता है। सट्टा ग़ैर-क़ानूनी है, ऐसे में स्वाभाविक है इस बाजार में सब कुछ ज़ुबानी और एक दूसरे के भरोसे पर चलता है। राजस्थान में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हो चुका है और लाजमी है जब चुनाव राजस्थान का हो तो निगाह फलोदी सट्टा बाजार पर भी टिकी है। बताया जा रहा हैं कि राजस्थान में फलोदी का सट्टा बाजार भाजपा की सरकार बनने का दावा कर रहा है, वहीं इनके अनुसार मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ही होगी। इनकी मानें तो प्रचार के अंतिम सप्ताह में पीएम मोदी के धुआँधार प्रचार का लाभ राजस्थान में भाजपा को मिला है। फलोदी में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव नतीजों की भी भविष्यवाणी हो रही है। इनके अनुसार छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस रिपीट कर सकती है, तो वहीं मध्य प्रदेश में 2018 की तरह ही कांटे का मुकाबला है जहाँ कांग्रेस को चंद सीटें ज्यादा मिल सकती है। आपको बता दें कि फलोदी सट्टा बाजार का आंकलन हिमाचल, कर्नाटक और गुजरात विधानसभा में करीब-करीब ठीक था। हालांकि, पश्चिम बंगाल में फलौदी सट्टा बाजार भाजपा को जीता रहा था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बहरहाल मतदान की गणना 3 दिसंबर को की जाएगी तभी साफ हो पाएगा कि कहाँ किसकी सरकार बनेगी। नोट : सट्टा बाजार के दावों का हम समर्थन नहीं करते है। इस खबर का मकसद केवल सट्टा बाजार में चल रहे तथाकथित रुझानों को दिखाना है। सट्टा खेलना गैर-कानूनी है, कृपया इससे दूरी बनाए रखें। ........................................
सवाल : कांग्रेस को महागठबंधन से हासिल क्या होगा ? कैसे साथ आएंगे आप और कांग्रेस ? पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में ही विपक्ष के महागठबंधन की गांठें खुलती दिखी हैं। महागठबंधन में न दिल मिल रहे हैं और न हाथ। मध्य प्रदेश में सपा और कांग्रेस के बीच जो हुआ उसे तो माहिर सिर्फ ट्रेलर मान रहे हैं। वहीं आम आदमी पार्टी हर राज्य में टांग फंसाए हुए हैं। जाहिर हैं 'आप' का अंजाम 'आप' को भी पता हैं, यानी महागठबंधन के बड़े गटक दलों में न ताल हैं और न मेल, सबकी अपनी अपनी डफली और अपना अपना राग। ऐसे में ये महागठबंधन कब तक 'हम साथ साथ हैं' वाली तस्वीरें खींचवाता हैं, ये देखना रोचक होगा। फिलवक्त महागठबंधन बन चुका हैं और सवाल इसके टिकने पर हैं। इसमें शामिल एक राज्य तक सीमित कई नेता भी इसी प्रयास में दिख रहे हैं कि 'बिल्ली के भाग का छीका टूटे' और वो पीएम बन जाएँ। पर कांग्रेस के अलावा इस महागठबंधन में कोई ऐसी पार्टी नहीं हैं जो धुरी का काम कर सके। ज्यादातर अन्य पार्टियां जब एक राज्य से बाहर हैं ही नहीं, तो सीट शेयरिंग कैसी ? जो हैं उनकी सीट शेयरिंग भी कांग्रेस से होनी हैं, तो क्या कांग्रेस के लिए क्षेत्रीय गठबंधन मुफीद नहीं होता, ये पार्टी को सोचना होगा। महागठबंधन में कांग्रेस के अलावा सिर्फ आम आदमी पार्टी ही ऐसा दल हैं जिसकी सरकार एक से ज्यादा राज्य में हैं, पर कांग्रेस और आप के बीच सीट शेयरिंग की सम्भावना को तो खुद कांग्रेस के स्थानीय नेता अभी से खारिज कर रहे हैं। बहरहाल कांग्रेस इस महागठबंधन का हिस्सा बन चुकी हैं और जाहिर हैं अब पार्टी को सोच समझकर कर आगे बढ़ना होगा। देश के 5 राज्यों की 161 लोकसभा सीटें ऐसी है जहाँ कांग्रेस का या तो पहले से गठबंधन है या कांग्रेस अकेले क्षेत्रीय स्तर पर गठबंधन कर सकती है। महाराष्ट्र में 48 सीटें है और यहाँ एनसीपी का शरद पवार गुट -कांग्रेस और उद्धव ठाकरे पहले ही साथ है। बिहार में 40 सीटें है और यहाँ कांग्रेस -आरजेडी और जेडीयू पहले ही साथ है। तमिलनाडु में 39 सीटें है और यहाँ भी डीएमके और कांग्रेस पहले से साथ है। झारखंड में 14 सीटें है और यहाँ पहले से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस का गठबंधन है। केरल में 20 सीटें है और यहाँ भी लेफ्ट और कांग्रेस का गठबंधन एक किस्म से पहले से ही है। ऐसे में कांग्रेस का इस महागठबंधन में शामिल होने का औचित्य क्या था और इससे कांग्रेस को मिलेगा क्या ? वहीँ पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 सीटें है। वर्तमान में ममता बनर्जी बंगाल की सबसे ताकतवर नेता है। कांग्रेस और लेफ्ट मिलकर ममता के सामने लड़ते रहे है। अपेक्षित हैं कि ममता लेफ्ट के लिए एक भी नहीं छोड़ेगी, ऐसे में क्या कांग्रेस वक्त की नजाकत को समझते हुए लेफ्ट पर ममता को वरीयता देगी, ये बड़ा सवाल है। क्या ममता भी कांग्रेस को लेकर लचीला रुख अपनाती है, ये भी देखना होगा। इसी तरह दिल्ली की 7 और पंजाब की 13 सीटों पर कांग्रेस और आप के बीच सीट शेयरिंग होना बेहद मुश्किल है। ये दोनों राज्य आप ने कांग्रेस से छीने हैं, यहाँ आप से गठबंधन करना कांग्रेस के लिए भूल सिद्ध हो सकता हैं। कांग्रेस क्या खोयेगी,सपा को होगा नुक्सान ! उतर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटें है और पिछले चुनाव भी कांग्रेस और सपा ने मिलकर लड़ा था। तब बसपा भी साथ थी। यहाँ सपा और कांग्रेस के बीच तल्खी बढ़ती दिख रही हैं। कांग्रेस की कोशिश खोये हुए मुस्लिम वोट को फिर अपने साथ जोड़ने की हैं और ये ही सपा और कांग्रेस के बीच खटास का कारण बन रहा हैं। अगर कांग्रेस मुस्लिम वोट में सेंध लगा पाती हैं तो नुकसान सपा का ही होगा। कांग्रेस के पास यहाँ खोने को ज्यादा कुछ नहीं हैं और ऐसे में यहाँ जरुरत सपा को ज्यादा होगी। सपा का जनाधार उत्तर प्रदेश के बाहर न के बराबर हैं, ऐसे में कांग्रेस के लिए यहाँ क्षेत्रीय गठबंधन ज्यादा तर्कसंगत हैं। 130 सीटों पर भाजपा से सीधा मुकाबला छत्तीसगढ़ की 11, गुजरात की 26, हरियाणा की 10, हिमाचल की 4 , मध्य प्रदेश 29, राजस्थान की 25 और उत्तराखंड की 5 सीटों सहित देश की करीब 130 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है। यहाँ कांग्रेस को गठबंधन की जरुरत ही नहीं है।
**कांग्रेस रच गई इतिहास तो गहलोत को जाएगा क्रेडिट रियासतों के प्रदेश राजस्थान पर इस वक्त तमाम सियासी निगाहें टिकी है। विधानसभा चुनाव तो पांच राज्यों में है लेकिन जो महासंग्राम राजस्थान में छिड़ा, वैसा कहीं और नहीं दिखा। यूँ तो हर जगह भाजपा ने पीएम मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा है लेकिन जितनी जनसभाएं और रैलियां उन्होंने राजस्थान में की, उतनी कहीं और नहीं। संभवतः किसी भी प्रधानमंत्री ने किसी राज्य के चुनाव में इससे पहले इतनी ताकत न झोंकी हो। इसका कारण भी था, राजस्थान में ये तीस साल बाद पहला ऐसा चुनाव है जहाँ कोई माहिर दावे के साथ सत्ता पक्ष की वापसी की सम्भावना को ख़ारिज नहीं कर रहा। गहलोत सरकार की ओपीएस बहाली और अब इस पर कानून बनाने की गारंटी ने उस कर्मचारी वोट पर सस्पेंस बना कर रखा है जो पांच साल बाद शर्तिया तौर पर परिवर्तन के लिए मतदान करता था। परिवार की महिला मुखिया को दस हज़ार देने की गारंटी हो या गहलोत सरकार की अन्य योजनाएं, मौटे तौर पर कांग्रेस माहौल बनाने में कामयाब दिखी है। वहीँ वसुंधरा राजे इस बार भाजपा की सीएम फेस नहीं है, इसके चलते अंतिम एक सप्ताह तक भाजपा का प्रचार वो तेजी पकड़ ही नहीं पाया जैसा होता रहा है। ये ही कारण है आखिरी एक सप्ताह में पीएम मोदी ने राजस्थान में पूरी ताकत झोंकी जिसके बाद भाजपा का प्रचार रंग में आया। सत्ता परिवर्तन का सियासी रिवाज बरकरार रहे ये मुमकिन दिख रहा है, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है तो इसका असर राष्ट्रीय सियासत पर भी तय मानिए। इस सम्भावना को भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि 'मोदी बनाम गहलोत' की लड़ाई राजस्थान की सीमा तोड़ राष्ट्रीय पटल पर भी दिख सकती है। अशोक गहलोत ने राजस्थान की सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद एक तरह से ठुकरा दिया था। अब भी सत्ता वापसी हुई तो गहलोत की मंशा ऐसी ही लगती है। पर यदि रिपीट हो पाया तो गहलोत मौजूदा समय में वो इकलौते नेता बन जायेंगे जो भाजपा पर भारी पड़ते रहे है। राजस्थान में हुए सियासी ड्रामा में गहलोत अपनी सरकार बचाकर पहले ही काबिलियत दर्शा चुके है। इससे पहले पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहते हुए 2017 में उन्होंने पीएम मोदी के घर गुजरात में अपनी छाप छोड़ी थी। अब गहलोत रिपीट कर इतिहास रच गए तो संभवतः मौजूदा दौर में कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता कहलायेंगे। बेशक राहुल, प्रियंका और खड़गे ने जनसभाएं की हो, लेकिन जीत का चटक लाल साफा उन्हीं के सर सजेगा। पेचीदा गठबंधन में गहलोत कारगर ! कांग्रेस अकेले दम पर 2024 में भाजपा से लोहा ले सकती है, इसकी सम्भावना ज्यादा नहीं दिखती। चाहे राष्ट्रीय गठबंधन हो या क्षेत्रीय दलों से गठबंधन, लेकिन उपयुक्त गठबंधन से ही विपक्ष की नैया पार हो सकती है। गठबंधन में कई चेहरे पीएम पद की आस में होंगे और ऐसे में संभव है कांग्रेस खुलकर राहुल गाँधी को आगे न रखे। गठबंधन की स्थिति पेचीदा होने पर गहलोत कारगर चेहरा हो सकते हैं। यदि राजस्थान में गहलोत का जादू चल जाता है तो राष्ट्रीय राजनीति में भी उनका कद निसंदेह तौर पर बढ़ेगा।
केंद्र को लेकर न प्रो इंकम्बेंसी और न ज्यादा नाराजगी पीएम मोदी के चेहरे पर भाजपा को मिली थी एकतरफा जीत सही टिकट आवंटन होगा निर्णायक फैक्टर उम्मीदवार कोई भी रहा हो लेकिन चेहरा तो मोदी ही थे। पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन का सार ये ही हैं। देश के अधिकांश हिस्सों की तरह ही हिमाचल की चार लोकसभा सीटों पर भी भाजपा को पीएम मोदी के चेहरे पर एकतरफा जीत मिली। 2019 में तो हवा ऐसी चली कि कांग्रेस ने भी रिकॉर्ड बना दिए, हार के अंतर के रिकॉर्ड। जब राहुल गाँधी पूर्वजों की सीट अमेठी नहीं बचा पाएं तो हिमाचल में कांग्रेस के नेता भला क्या और कितना ही कर लेते। विधानसभा हलकों के लिहाज से देखे तो सभी 68 क्षेत्रों में कांग्रेस पिछड़ी। उस रामपुर में भी जहाँ विधानसभा चुनाव में कभी कमल नहीं खिला। बहरहाल पांच साल होने को आएं और फिर अब नेताओं को जनता के दरबार में हाजिरी लगानी हैं। अलबत्ता अभी चुनाव में चंद महीने शेष हैं लेकिन फिलवक्त जमीनी स्तर पर वैसी प्रो इंकमबैंसी नहीं दिख रही जैसी 2019 में थी। सियासी फिजा में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया तो सम्भवतः इस दफा जनता सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी का नहीं बल्कि उम्मीदवार का चेहरा भी देखेगी। यानी हिमाचल में मुकाबला खुला हैं। हिमाचल प्रदेश में 2019 से अब तक बहुत कुछ बदल गया हैं। जयराम पूर्व हो चुके हैं और सुक्खू वर्तमान हैं। 2021 में हुए उपचुनावों से भाजपा लगातार हारती आ रही हैं तो कांग्रेस के लिए सब बेहतर घटा हैं। बावजूद इसके जब मुकाबला लोकसभा का होगा तो भाजपा जरा भी उन्नीस नहीं हैं। लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जायेगा, प्रदेश में दोनों दलों की स्थिति कुछ असर तो डालेगी लेकिन नतीजे पूरी तरह प्रभावित नहीं कर सकती। पर केंद्र सरकार को लेकर भी न तो इस मर्तबा प्रो इंकम्बैंसी दिख रही हैं और न ही ज्यादा नाराजगी, ऐसे में दोनों ही दलों के लिए उम्मीदवारों का चयन बेहद महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। मंडी संसदीय सीट भाजपा ने 2021 के उपचुनाव में गवां दी थी, लेकिन अन्य तीन सीटों पर भाजपा के सांसद हैं। हमीरपुर सांसद अनुराग ठाकुर केंद्र सरकार में मंत्री हैं और खुद सियासत में एक बड़ा नाम हैं। ऐसे में संभव हैं यहाँ भाजपा कोई छेड़छाड़ न करें। हालांकि अनुराग प्रदेश के बाहर भी लोकप्रिय हैं और यदि उन्हें भाजपा कहीं और से उतारती हैं तो हमीरपुर से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा संभवतः दूसरा मुफीद विकल्प हैं। इसी संसदीय क्षेत्र से सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू और डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री भी आते हैं तो स्वाभविक हैं यहाँ भाजपा कोई रिस्क नहीं लेना चाहेगी। वहीं शिमला और कांगड़ा में जाहिर हैं भाजपा सियासी परफॉरमेंस का बही-खाता देखकर टिकट पर निर्णय लें। दोनों सांसदों, किशन कपूर और सुरेश कश्यप के टिकट कटते हैं या नहीं, ये पार्टी के आंतरिक सर्वे पर भी निर्भर करेगा। आपको बता दें की इन तीनों संसदीय क्षेत्रों में भाजपा को विधानसभा चुनाव में झटका लगा था और पार्टी की सबसे ज्यादा पतली हालत शिमला संसदीय क्षेत्र में हुई थी जहाँ के सांसद सुरेश कश्यप तब प्रदेश अध्यक्ष भी थे। बहरहाल किशन कपूर और सुरेश कश्यप दोनों लगातार जनता के बीच जरूर दिख रहे हैं, पर टिकट पर फैसला लेने से पहले जाहिर हैं पार्टी सियासी गणित के हर समीकरण पर हिसाब लगाएगी। वहीं मंडी में पूर्व सीएम जयराम ठाकुर इस वक्त निर्विवाद तौर पर सबसे वजनदार चेहरा हैं। पर यदि जयराम को पार्टी प्रदेश से दिल्ली नहीं बुलाती हैं तो यहाँ चेहरे का चुनाव टेढ़ी खीर होगा। यहाँ से संभवतः पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह फिर मैदान में होगी और ऐसे में भाजपा प्रत्याशी का चयन काफी महत्वपूर्ण होने वाला हैं। कांग्रेस के सामने दोगुनी चुनौती ! कांग्रेस की बात करें तो यहाँ चुनौती दोगुनी हैं। पीएम मोदी के सामने पार्टी चेहरा कौन होगा, ये ही अभी तय नहीं हैं। पार्टी राहुल गाँधी को खुलकर प्रोजेक्ट करेगी, इसकी सम्भावना कम ही लगती हैं। ऐसे में भाजपा के पास एक स्वाभाविक एडवांटेज होगा। इस स्थिति में दमदार प्रत्याशी देना कांग्रेस के सामने इकलौता विकल्प हैं। मंडी में पार्टी के पास प्रतिभा सिंह के रूप में चेहरा है, लेकिन अन्य तीन संसदीय क्षेत्रों में चेहरे पर अब भी पेंच फंसा हैं। कहीं मंत्री को चुनाव लड़वाने की तैयारी बताई जा रही हैं, तो कहीं मंत्री पद के चाहवान को। कोई तैयार हैं, तो कोई तैयार ही नहीं। कांग्रेस के लिए जरूरी हैं कि स्थिति जल्द स्पष्ट हो ताकि संभावित प्रत्याशियों को फील्ड में अधिक समय मिले। पार्टी के पास जरा सी चूक की भी गुंजाईश नहीं हैं।
अधूरी गारंटियों पर विपक्ष सवाल भी कर रहा हैं और बवाल भी जल्द कुछ और गारंटियां पूरी कर सकती हैं सरकार सबसे बड़ी चुनौती हैं महिलाओं को 1500 रुपये देना हिमाचल के 'ट्राइड एंड टेस्टेड' गारंटी मॉडल पर अन्य राज्यों में लड़ रही कांग्रेस 'तुझ को देखा तेरे वादे देखे, ऊँची दीवार के लम्बे साए'...सियासत में सत्ता के लिए बड़े - बड़े वादे कर देना पुराना रिवाज रहा है। सत्ता के लिए राजनैतिक दल तरह-तरह के वादे करते आएं है। रोटी-कपड़ा-मकान से लेकर पंद्रह लाख तक के वादे। वक्त बदला और जनता जागरूक होती रही, तो सियासी दलों ने भी वादों का तौर तरीका बदल दिया। यानी सामान तक़रीबन वो ही पुराना लेकिन पैकिंग नई। हाल-फिलहाल के दिनों में कांग्रेस ने भी अपने चुनावी वादों को 'गारंटी' का नाम दे दिया है। इसकी शुरुआत हुई थी पिछले साल हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव से और आज कांग्रेस प्रदेश की सत्ता पर काबिज हैं। फिर कर्नाटक चुनाव में भी जनता ने कांग्रेस की गारंटियों पर एतबार किया और अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस अपने इसी 'ट्राइड एंड टेस्टेड' गारंटी मॉडल पर मैदान में हैं। ये तो बात हुई कांग्रेस के नए चुनावी अस्त्र की, पर गारंटी देना अलग बात हैं और उसे पूरी करना अलग बात। हिमाचल प्रदेश में सरकार की अधूरी गारंटियों पर विपक्ष सवाल भी कर रहा हैं और बवाल भी। जाहिर हैं कुछ सवाल जनता के मन में भी हैं, तो सरकार ने भी पुरानी पेंशन बहाल कर अपनी मंशा जरूर दर्शाई हैं। हालांकि सरकार के अनुसार तो तीन गारंटियां पूरी हो चुकी है। सुक्खू सरकार का साल होने को हैं। सरकार अपनी उपलब्धियों का बखान कर रही है, तो इस सियासी मौके और दस्तूर के मद्देनजर विपक्ष उन गारंटियों का लेखा-जोखा मांग रहा हैं जिनके बुते कांग्रेस सत्ता में लौटी। एक साल बीत चुका हैं तो अब सवालों का स्वर बुलंद होना लाजमी हैं। भाजपा महिलाओं के खाते में 1500 रुपये से लेकर, 300 यूनिट मुफ्त बिजली, दूध और गोबर की खरीद सहित उन गारंटियों पर सरकार को घेर रही हैं, जो अधूरी हैं। उधर, सरकार पुरानी पेंशन बहाल कर चुकी हैं, साथ ही दावा कर रही है कि तीन गारंटियां पूरी हो चुकी है। 680 करोड़ रुपये की राजीव गांधी स्वरोजगार स्टार्ट-अप योजना को शुरू करना दूसरी और अगले शैक्षणिक सत्र से पहली कक्षा से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल आरम्भ करना तीसरी गारंटी है। अब क्या पूरा और क्या अधूरा, इसे राजनैतिक दल अपनी सहूलियत से तय कर रहे है। बहरहाल, चंद महीने में लोकसभा चुनाव होने हैं और वहां जवाब विपक्ष नहीं, बल्कि जनता मांगेगी। ये ही कारण हैं कि सरकार एक्शन मोड में दिखने लगी हैं और मुमकिन हैं जल्द कुछ और गारंटियां पूरी कर दी जाएँ। बताया जा रहा हैं कि जल्द हिमाचल सरकार किसानों से गोबर खरीद करने की तैयारी में है। कृषि मंत्री चंद्र कुमार ने विभाग के अधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि वे गोबर खरीद से पहले ब्लॉक स्तर पर क्लस्टर तैयार करें, जिसके बाद विभाग संबंधित ब्लॉक से किसानों से गोबर खरीदना शुरू करेगा। इसके अलावा मोबाइल क्लिनिक और पशु पालकों से हर दिन दस लीटर दूध खरीद की गारंटी को भी जल्द पूरा किया जा सकता हैं। जाहिर हैं कांग्रेस भी लोकसभा चुनाव से पहले पूरी हुई गारंटियों की संख्या बढ़ाना चाहेगी। इन 3 गारंटियों ने बनाई थी कांग्रेस की हवा ! बहरहाल आपको याद दिलाते कांग्रेस की दस गारंटियों में से वो तीन गारंटियां जिसने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में माहौल बना दिया था। पहली गारंटी ओपीएस हिमाचल के कर्मचारियों से जुड़ी थी जिसे पार्टी ने पूरा भी कर दिया। दूसरी गारंटी थी मुफ्त बिजली की यूनिट्स बढ़ाकर प्रतिमाह 300 करना। इससे प्रदेश का हर व्यक्ति प्रभावित होता हैं और ये गारंटी अब भी अधूरी हैं। अब सर्दी के दिनों में बिजली की खपत और बिल दोनों बढ़ेंगे, और आम लोगों को ये गारंटी जरूर याद आएगी। वहीँ आधी आबादी यानी महिलाओं को 1500 रुपये प्रतिमाह देने की गारंटी भी अधूरी हैं। माना जाता हैं कि महिलाओं ने कांग्रेस को बढ़चढ़ कर वोट दिया था ,लेकिन अब तक 1500 रुपये नहीं मिले। अब नाराजगी की झलक दिखने लगी हैं और इसे भांपते हुए भाजपा भी इसी पर कांग्रेस को ज्यादा घेर रही हैं। प्रदेश की खराब आर्थिक स्थिति में सरकार इसे कैसे पूरा करती हैं, इस पर सबकी निगाहें टिकी हैं। ऐसे में इसे पूरा करना कांग्रेस के लिए गले की फांस हैं। लोस चुनाव में बड़ा फैक्टर : हिमाचल प्रदेश की चारों लोकसभा सीटों पर 2014 और 2019 में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हुआ था। 2019 में तो हार का अंतर इतना रहा कि रिकॉर्ड बन गए। पर 2021 के उपचुनावों से प्रदेश में कांग्रेस के लिए सब कुछ अच्छा घटा हैं। ऐसे में कांग्रेस को अब 2024 में सम्भावना दिखना स्वाभाविक हैं। लाजमी हैं ऐसे में पार्टी कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेगी और अधिक से अधिक गारंटियां पूरी कर चुनाव में उतरने की कोशिश में होगी। ज्यादा अधूरी गारंटियां पार्टी की सम्भावनों पर भारी पड़ सकती हैं।
कैबिनेट में रिक्त स्थान कहीं कांग्रेस की संभावनाओं को रिक्त न कर दे ! अब सियासी माहिरों के भी गले नहीं उतर रही 'वेट एंड वॉच' की नीति सुक्खू कैबिनेट में क्षेत्रीय और जातीय असंतुलन ! अब सोचने की नहीं, बल्कि कुछ करने की जरुरत ! इसी ख्याल में हर शाम-ए-इंतज़ार कटी वो आ रहे हैं वो आए वो आए जाते हैं न आलाकमान का फरमान आया और न राजभवन से संदेश। सरकार गठन को एक साल होने को आया पर सुक्खू कैबिनेट में एंट्री की राह देख रहे कई चाहवानों का इन्तजार अब भी जारी है। आस टूटती नहीं और बात बनती नहीं। असंतोष को खारिज नहीं किया जा सकता, पर कैबिनेट विस्तार तय होकर भी तय नहीं। थोड़ा सा असंतोष जाहिर हो रहा है, तो बहुत घुट रहा है। पब्लिक मीटर पर सरकार की रेटिंग 'अप' सही लेकिन पॉलिटिकल मीटर पर मामला फंसा है। अब तो राजनैतिक माहिरों की कयासबाजी पर भी लगभग विराम लग चुका है। 'सुख की सरकार' में मंत्री पद किसको मिलेगा, इससे भी बड़ा सवाल ये है कि आखिर कब मिलेगा। सुक्खू कैबिनेट में रिक्त स्थान कहीं कांग्रेस की संभावनाओं को भी रिक्त न कर दे, ये डर अब कांग्रेस के चाहवानों को भी सताने लगा है। लोकसभा चुनाव का माहौल आहिस्ता-आहिस्ता बन रहा है और कैबिनेट में क्षेत्रीय और जातीय असंतुलन पर लगातार सवाल उठ रहे है। अब सरकार को एक साल भी होने को आया, लेकिन सुक्खू कैबिनेट में तीन पद अब भी रिक्त है। ये 'फिल इन दी ब्लैंक्स' का सियासी सवाल अब भी अनसुलझा है और जल्द माकूल जवाब न मिला तो बवाल भी तय मानिये। सीएम सुक्खू सहित कई मंत्रियों के पास अतिरिक्त कार्यभार है, इसमें कोई दो राय नहीं है। इस पर सीएम का स्वास्थ्य भी नासाज है। फिर आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी है कि कैबिनेट विस्तार टलता रहा है। आखिर कब तक खाली रहेंगे ये पद और इस विलम्ब से कांग्रेस को हासिल क्या हो रहा है, ये सवाल बना हुआ है। अब तक कांगड़ा के खाते में एक मंत्री पद है, मंडी संसदीय क्षेत्र से भी सिर्फ एक मंत्री है, सीएम-डिप्टी सीएम के संसदीय क्षेत्र हमीरपुर में भी कई नेता टकटकी लगाए बैठे है। यहाँ 25 साल से कांग्रेस लोकसभा चुनाव हार रही है। पद और कद के मामले में शिमला जरूर संतुष्ट भी दिखता है और संपन्न भी, पर बाकी तीन संसदीय क्षेत्रों में पार्टी को अब सोचने की नहीं, बल्कि कुछ करने की जरुरत है। अब सोचने का वक्त सम्भवतः जा चुका है। तीन मंत्री पदों के अलावा विधानसभा उपाध्यक्ष सहित कई अहम बोर्ड निगमों के पद भी अभी खाली है। 'वेट एंड वॉच' की पार्टी की नीति अब सियासी माहिरों के गले नहीं उतर रही। खीच-खीच की आवाज आने लगी है और अब मीठी गोली से नहीं बल्कि मुकम्मल दवा से ही काम चलेगा। अब तक कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक मंत्री पद दिया गया है। यहाँ सुधीर शर्मा और यादविंदर गोमा सहित कई दावेदार है। कांगड़ा जब भी बिगड़ा है इसने सियासतगारों के अरमानों का कबाड़ ही किया है, फिर भी कांग्रेस यहाँ जल्दबाजी में नहीं दिखी। मंडी संसदीय क्षेत्र का भी कमोबेश ये ही हाल है। यहाँ से जगत सिंह नेगी ही इकलौते मंत्री है। यहाँ कांग्रेस के गिने चुने विधायक है, लेकिन बोर्ड - निगमों में तो समय पर तैनाती दी ही जा सकती है। विशेषकर जिला मंडी में कांग्रेस 6 साल से लगातार हारी है। 2017 में स्कोरकार्ड 10 -0 था, तो 2022 में कांग्रेस को मिली महज एक सीट। बावजूद इसके यहाँ पार्टी में कोई बड़ा जमीनी बदलाव नहीं दिखता। पार्टी का कोई बड़ा चेहरा सरकार में किसी अहम पद पर नहीं है। वहीँ हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से बेशक सीएम और डिप्टी सीएम दोनों आते है, पर यहाँ चुनौती भी बड़ी है। ये भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का क्षेत्र है, ये केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का भी क्षेत्र है और ये प्रो प्रेम कुमार धूमल का भी क्षेत्र है। साथ ही वर्तमान में यहाँ से भाजपा के तीन सांसद है। इस पर लगातार आठ चुनाव में कांग्रेस यहाँ से हार चुकी है। ऐसे में जाहिर है यहाँ कांग्रेस को अतिरिक्त प्रयास करना होगा। माना जा रहा है कि कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ तो घुमारवीं को मंत्री पद मिलना तय है, पर फिर विलम्ब क्यों ? जो अधिमान पांच साल के लिए मिल सकता था वो चार के लिए मिले तो इसमें कांग्रेस को क्या हासिल होगा ? क्या कांग्रेस में अंदरूनी राजनीति हावी है, बहरहाल ये यक्ष प्रश्न है। सिर्फ क्षेत्रीय लिहाज से ही नहीं सुक्खू कैबिनेट में जातीय पैमाने से भी असंतुलन दिखता है। देश में जातिगत जनगणना की पैरवी कर रही कांग्रेस के सामने ये वो गूगली है जिस पर पार्टी खुद हिट विकेट न हो जाएँ। फिलहाल प्रदेश में सीएम सहित कुल 9 मंत्री है जिनमें से 6 राजपूत है, सिर्फ एक ब्राह्मण, एक एससी और एक ओबीसी है। लोकसभा चुनाव में पार्टी को इस पर भी जवाब देना होगा। स्वाभाविक है भाजपा इस लिहाज से सियासी मोर्चाबंदी कर कांग्रेस को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाली। बहरहाल पार्टी आलाकमान पांच राज्यों के चुनाव में व्यस्त है और इस बीच कैबिनेट विस्तार थोड़ा मुश्किल जरूर लगता है। हालांकि माहिर मान रहे है कि सीएम सुक्खू, सरकार की पहली वर्षगांठ पूरी कैबिनेट के साथ मना सकते है। ऐसे में थोड़ा इन्तजार और सही। तरकश से निकलने को तैयार असंतोष के बाण ! कांग्रेस के भीतर से असंतोष से स्वर फूटते रहे है। पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह खुद भी बोर्ड निगमों में तैनाती में हो रहे विलम्ब पर बोलती रही है। पूर्व पीसीसी चीफ कुलदीप राठौर कार्यकर्ताओं के मान -सम्मान की बात कह सवाल उठाते रहे है, तो कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष राजेंद्र राणा कभी 'कृष्ण की चेतावनी' की पंक्तियां सोशल मीडिया पर डालते है, तो कभी सीएम को पत्र लिख अधूरे वादे याद दिलाते है। असंतुष्टों की फेहरिस्त लंबी है। हालांकि पहले आपदा के चलते शायद कई नेताओं ने असंतोष पूर्ण शब्द बाणों को तरकश में रखा और फिर संभवतः सीएम के खराब स्वास्थ्य ने इन्हें थामे रखा। पर माहिर मानते हैं कि सरकार का एक साल इन सन्तुष्टों के लिए मौका भी लाएगा और दस्तूर भी। बहरहाल माहिर ये भी तय मान रहे है कि जल्द या तो कैबिनेट विस्तार होगा या असंतोष प्रखर।
**क्या मेयर पद पर सहमति बना पायेगा कांग्रेस आलाकमान ? **कांग्रेस की रार में, भाजपा मौके की तलाश में ! **संतुलन बनाने के लिए एक गुट से मेयर तो दूसरे से डिप्टी मेयर सम्भव किसी को 'सरदार' के तौर पर 'सरदार' मंजूर नहीं, तो कोई सरदार पर ही अड़ा है। ये ही सोलन नगर निगम में कांग्रेस की सियासत का मौजूदा हाल है। दो गुटों में बंटे पार्षद आमने सामने है और इनको एक पाले में लाना आलाकमान के लिए पापड़ बेलने से कम नहीं। सरदार सिंह को मेयर बनाने का जो वादा 2021 में नगर निगम चुनाव नतीजों के बाद हुआ था वो पूरा होगा, या पार्टी मेयर -डिप्टी मेयर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ेगा, ये सवाल बना हुआ है। कांग्रेस के पास कुल नौ पार्षद है और नगर निगम पर कब्ज़ा बरकरार रखने के लिए इतने ही उसे चाहिए, न एक कम न एक ज्यादा। पर ये होगा कैसे, यहीं पेंच अटका है। पार्टी के बड़े नेताओं को क्रॉस वोटिंग का डर खाये जा रहा है और भाजपा मौके की तलाश में है। 17 वार्डों वाली सोलन नगर निगम में 9 पार्षद कांग्रेस के है, 7 भाजपा के और एक निर्दलीय। 2021 में चुनाव के बाद कांग्रेस के मेयर और डिप्टी मेयर बने थे। कहते है तब ढाई साल के लिए पूनम ग्रोवर मेयर बनी तो अगले ढाई साल का वादा सरदार सिंह से हुआ। वहीँ डिप्टी मेयर पद के लिए चार लोगों में 15 -15 महीने का कार्यकाल बांटने की बात हुई। पहला नंबर राजीव कोड़ा का था और अब तक पुरे ढाई साल वो ही डिप्टी मेयर रहे। कहते है इसी बात को लेकर कुछ पार्षदों में नाराजगी थी। ऐसे ही चार पार्षद 2022 विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा पार्षदों के साथ मिलकर अविश्वास प्रस्ताव ले आएं। इनमे सरदार सिंह, ईशा, संगीता और पूजा शामिल है। तब कांग्रेस के इन चार और भाजपा के पार्षदों के बीच तय हुआ था कि पूजा मेयर बनेगी और भाजपा के कुलभूषण गुप्ता डिप्टी मेयर। पर तकीनीकी कारणों से इनका अविश्वास प्रस्ताव गिर गया और सारे अरमान धरे रह गए। इसके बाद पूनम ग्रोवर और राजीव कोड़ा अपने पदों पर बने रहे। पर कांग्रेस के पार्षदों के बीच की तल्खियों की झलक अक्सर जनरल हाउस में दिखती रही। अब अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले उन्हीं चार में से एक पार्षद सरदार सिंह मेयर पद के दावेदार है। अविश्वास प्रस्ताव में शामिल होने के चलते लाजमी है उनके नाम पर कुछ लोगों को अप्पत्ति हो। वहीँ वार्ड 12 पार्षद उषा शर्मा का नाम भी चर्चा में है। बहरहाल आलाकमान के सामने सभी नौ पार्षदों को एक नाम पर राजी करने की चुनौती है। माना जा रहा है कि संतुलन सुनिश्चित करने के लिए मेयर और डिप्टी मेयर अलग अलग गुट से हो सकते है। सियासत में जो दीखता है, जरूरी नहीं वैसा ही हो। 9 पार्षद होने के बाद भी मेयर डिप्टी मेयर कांग्रेस के हो, ऐसा जरूरी नहीं है। हालांकि कांग्रेस की ही तरह भाजपा भी दो गुटो में बंटी हुई है, लेकिन निर्दलीय को जोड़ लिया जाएँ तो कांग्रेस से संख्या में सिर्फ एक कम है। अगर भाजपा ने कैंडिडेट दिया तो कुलभूषण गुप्ता पार्टी उम्मीदवार हो सकते है। 6 बार की पार्षद मीरा आनंद भी रेस में है। पर क्रॉस वोटिंग की सम्भावना तो यहाँ भी है। हालांकि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल सोलन नगर परिषद् के अध्यक्ष रह चुके है और यहाँ की हर सियासी नब्ज से वाकिफ भी। ऐसे में बिंदल के रहते भीतरखाते बहुत कुछ पक सकता है। बहरहाल कांग्रेस के नौ पार्षद क्या किसी एक नाम पर साथ आएंगे या नहीं, इसी पर निगाह टिकी है।
**कब मिलेंगे चार नगर निगमों को मेयर और डिप्टी मेयर ? **भाजपा का आरोप, जानबूझकर विलम्ब कर रही सरकार **क्या सोलन की वजह से बाकी चुनावों में भी हो रहा विलम्ब ? एक माह से ज्यादा वक्त बीत गया पर प्रदेश के चार नगर निगमों को मेयर और डिप्टी मेयर नहीं मिल पाए है। नगर निगम मंडी, पालमपुर, सोलन और धर्मशाला में न मेयर है और न डिप्टी मेयर। जाहिर है इससे कार्य प्रभावित हो रहे है। उधर भाजपा इसे लेकर सरकार पर हमलावर है। अभी तक चुनाव की नोटिफिकेशन नहीं आई है और ऐसे में अब सरकार की देरी पर सवाल उठना तो लाजमी है। आखिर क्यों हो रहा है ये विलम्ब, इसे लेकर कयासबाजी जारी है। आपको बता दें कि नगर निगम पालमपुर और सोलन में जहाँ कांग्रेस का कब्ज़ा है तो वहीँ मंडी और धर्मशाला में भाजपा के पास संखयाबल है। यूँ तो ये चुनाव पार्टी सिंबल पर हुए थे पर हिमाचल प्रदेश के स्थानीय निकायों में एंटी डिफेक्शन कानून लागू नहीं होता, ऐसे में क्रॉस वोटिंग से इंकार नहीं किया जा सकता। पेंच दरअसल यहीं फंसा है। माना जा रहा है कि मंडी में भाजपा और पालमपुर में कांग्रेस के मेयर डिप्टी मेयर तो लगभग तय है, पर धर्मशाला और सोलन में ट्विस्ट मुमकिन है। धर्मशाला में कांग्रेस जहाँ सम्भावना तलाश रही है तो सोलन में कांग्रेस को डर होना लाजमी है। सोलन में कांग्रेस के ही पार्षद अपने मेयर डिप्टी मेयर के खिलाफ 2022 में विश्वास प्रस्ताव ला चुके है और यहाँ पार्षदों में मतभेद नहीं बल्कि मनभेद की स्थिति दिखती है। इसी में भाजपा को संभावना दिख रही है। ऐसे में कांग्रेस फूंक फूंक कर कदम बढ़ाना चाहती है। सोलन से विधायक कर्नल धनीराम शांडिल कैबिनेट मंत्री है, सीपीएस संजय अवस्थी कभी इसी निकाय में पार्षद थे, ऐसे में यहाँ चूक हुई तो इन दिग्गजों पर भी सवाल उठेगा। बहरहाल चर्चा आम है कि सोलन में कांग्रेस अपने पार्षदों को एकसाथ लाने में अब तक कामयाब नहीं हुई है। पार्टी को क्रॉस वोटिंग का डर है और ये ही कारण है की मेयर और डिप्टी मेयर चुनाव को लम्बा खींचा जा रहा है। वहीँ धर्मशाला में पार्टी जोड़ तोड़ कर सभावना देख रही है। इसी के चलते अन्य दो नगर निगमों में भी विलम्ब हुआ है। हालांकि आपको बता दें कि मेयर डिप्टी मेयर चुनाव में विधायक के वोट को लेकर पहले स्थिति स्पष्ट नहीं थी, जो विलम्ब का एक कारण बना है। उधर भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस सरकार इसे जानबूझकर खींच रही है। अब विधायकों के वोटों को लेकर स्थिति साफ हो गई है, फिर भी सरकार ये चुनाव नहीं करा रही है। आपदा के दौर में मेयर डिप्टी मेयर न होने से विकास कार्य बुरी तरह प्रभावित हुए है। बहरहाल सियासी वार पलटवार के बीच सियासी जोड़ तोड़ भी जारी है। कांग्रेस सत्ता में है और यदि पार्टी कहीं भी चुकी तो सवाल तो उठेंगे ही। वहीँ 2021 के उपचुनावों से हिमाचल में लगातार हार का सामना कर रही भाजपा भी मुफीद मौके की तलाश में है। अगर भाजपा मेयर-डिप्टी मेयर चुनाव में कांग्रेस को पटकनी दे पाई तो लोकसभा चुनाव से पहले ये पार्टी के लिए बूस्टर डोज होगा।
**भाजपा घोषणा पत्र में OPS जिक्र नहीं, ERCP और गोबर खरीद को जगह राजस्थान के लिए भाजपा का घोषणा पत्र वीरवार को आ गया।'आपणो अग्रणी राजस्थान' संकल्प पत्र के नाम से जारी किए गए 80 पेज के घोषणा पत्र में गहलोत सरकार की लोकलुभावन योजनाओं की काट के तौर पर कई वादे किए गए हैं। पर इसमें ओल्ड पेंशन स्कीम या इसके विकल्प पर कुछ नहीं लिखा गया है। कर्मचारी वोट राजस्थान में बड़ी भूमिका निभाता है और गहलोत सरकार इन्हे ओल्ड पेंशन स्कीम की सौगात दे चुकी है। वहीँ भाजपा के लिए ओपीएस जी का जंजाल बन चुकी है। न भाजपा के उगलते बनता है और न निगलते। न भाजपा ओपीएस देने का वादा कर रही है और न भाजपा के पास इसकी काट दिखती है। ऐसे में राजस्थान का कर्मचारी इस बार किस ओर जायेगा ये बड़ा सवाल है। दरअसल माना जाता है कि राजस्थान में कर्मचारी हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन के लिए मतदान करता है। पर इस बार क्या कर्मचारी ओपीएस के बदले रिवाज बदलेगा, ये देखना रोचक होगा। वहीँ भाजपा के घोषणा पत्र की बात करें तो चुनावी मुद्दा बनी ईस्टर्न राजस्थान कैनाल प्रोजेक्ट यानी (ERCP) को पूरा करने का वादा भी इसमें शामिल है। राजस्थान के 13 ज़िले इससे प्रभावित होते है। वहीँ गहलोत सरकार भी इस योजना पर बजट अलॉट कर चुकी है और खुद सीएम गहलोत इस मुद्दे पर भाजपा पर लगातार हमलावर है। भाजपा के वादों में एक दिलचस्प वादा और है। कांग्रेस की सात गारंटियों में शामिल गोबर खरीदने की घोषणा को भी इसमें जगह मिली है। बहरहाल राजस्थान में सत्ता की जंग में दो बड़े फैक्टर निर्णायक हो सकते है, ओपीएस और ERCP ...गहलोत को भरोसा है कि कर्मचारी उन्हें रिटर्न गिफ्ट देंगे और इसी बिसात पर उन्हें इतिहास रचने का भरोसा है। वहीँ भाजपा चाहेगी की कर्मचारी सत्ता परिवर्तन का रिवाज जारी रखे। इसी तरह ERCP फैक्टर के असर से भाजपा वाकिफ है और इसे घोषणा पत्र में जगह दी गई है। जबकि गहलोत को ERCP पर 13 ज़िलों के साथ का भरोसा हैं।
**कांग्रेस में चेहरा भी कमलनाथ, चाल भी उनकी और चली भी उनकी **भाजपा को मिला राज तो आधा दर्जन दावेदार **एमपी में सॉफ्ट हिन्दुस्त्व और गारण्टी मॉडल पर आगे बढ़ी कांग्रेस पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इस बार रणनीति भी बदली है और सियासी तौर तरीका भी। इनमें से तीन राज्यों यानी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच है। 2018 में ये तीनों राज्य कांग्रेस ने भाजपा से छीन लिए थे। इसके बाद 2020 में मध्य प्रदेश कांग्रेस में हुई बगावत के बाद भाजपा की सत्ता वापसी हुई लेकिन राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा विपक्ष में ही है। अब भाजपा इन तीनों ही राज्यों में सत्ता हासिल करने को जोर लगा रही है। इस बार भाजपा ने तीनों ही राज्यों में सीएम फेस नहीं घोषित किया है। साथ ही कई सांसदों को मैदान में उतार सियासी चौसर को रोचक कर दिया है। अब इसका नतीजा क्या होगा ये तो तीन दिसंबर को पता चलेगा लेकिन मुकाबला कड़ा जरूर दिख रहा है। विशेषकर मध्य प्रदेश में बीते दो दशक में अधिकांश वक्त भाजपा का राज रहा है, ऐसे में भाजपा के इस प्रयोग का असल टेस्ट मध्य प्रदेश में ही होना है। आज सियासतनामा में बात मध्य प्रदेश के राजनैतिक परिदृश्य की। मध्य प्रदेश के मौजूदा सियासी हाल और चाल को समझने के लिए बात बीस साल पीछे से शुरू करनी होगी। दिग्विजय सिंह के दस साल के शासन के बाद साल 2003 में मध्य प्रदेश में भाजपा की वापसी हुई थी। तब एंटी इंकमबैंसी इस कदर हावी थी कि भाजपा 173 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। तब मुख्यमंत्री बनी थी उमा भारती, फिर बाबू लाल गौर कुछ समय सीएम रहे और फिर आया शिवराज का राज। देखते ही देखते शिवराज सिंह चौहान एमपी में भाजपा का चेहरा हो गए। शिवराज अपनी लोकप्रिय योजनों से एमपी की सियासत के मामा बन गए, सबसे लोकप्रिय सियासी चेहरा और कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा रोड़ा। 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा शिवराज का चेहरा आगे रखकर ही मैदान में उतरी और जीती भी। दिलचस्प बात ये है कि इन दो चुनावों में भाजपा ने शिवराज के काम तो गिनाये ही, दिग्विजय का राज भी याद दिलवाया। यानी ये कहना गलत नहीं होगा कि 2003 की दिग्विजय सरकार की एंटी इंकमबैंसी को भाजपा अगले दो चुनाव में भी भुनाती रही। वहीँ कांग्रेस में दिग्गी राजा के साथ साथ अब 'महाराज' सिंधिया भी बड़ा नाम और चेहरा थे। दोनों की तकरार और रार भी कांग्रेस की हार का कारण बनी रही। 2013 के बाद कांग्रेस को समझ आने लगा था कि दिग्विजय सिंह के चेहरे पर मध्य प्रदेश में वापसी बेहद मुश्किल है। पार्टी की तलाश रुकी कमलनाथ पर जो अर्से से केंद्र की केंद्र की सियासत में बड़ा नाम रहे और उनका कर्म क्षेत्र रहा मध्य प्रदेश का छिंदवाड़ा। 'महाराज' तो दिग्गी राजा को नामंजूर थे लेकिन कमलनाथ वो नाम था जो उन्हें भी स्वीकार्य था। चेहरा बदला तो कांग्रेस की किस्मत भी बदली और 2018 में पार्टी नजदीकी मुकाबल में सरकार भी बना गई। तब सीएम बने कमलनाथ और ज्योतिरादित्य बन दिए गए डिप्टी सीएम। पर 15 महीने में ही 'ऑपरेशन लोटस' ने कमलनाथ को सत्ता से बाहर किया और शिवराज लौट आएं। तब समर्थकों के साथ कांग्रेस में बगावत करने वाले सिंधियाँ अब भाजपा में है और केंद्रीय मंत्री बना दिए गए है। उधर कांग्रेस में अब कमलनाथ ही इकलौता चेहरा है। दिग्विजय सिंह अब पीछे पीछे ही दीखते हैं। मौजूदा विधानसभा चुनाव में चेहरा भी कमलनाथ है, चाल भी उनकी है और चली भी उनकी ही है। वहीँ भाजपा में अब शिवराज का चेहरा धुंधला पड़ गया है। फिर सत्ता मिली तो शिवराज ही सीएम होंगे ,ये कहना मुश्किल है। दौड़ में कई केंद्रीय मंत्री और सांसद तो है ही, सिंधियाँ भी वेटिंग लिस्ट में है। कैल्श विजयवर्गीय भी रेस में है। पर इसके लिए पहले जरूरी है पार्टी की सत्ता वापसी। पिछले बीस में से करीब 19 साल भाजपा का शासन रहा है और ऐसे में एंटी इंकम्बैंसी होना भी स्वाभविक है। पर कांग्रेस की बगावत में जरूर पार्टी को उम्मीद दिख रही होगी। उम्मीद केंद्रीय राजनीति के उन दिग्गजों से भी होगी जिन्हे आलाकमान ने विधानसभा चुनाव में उतार दिया है। अब पार्टी का फार्मूला कितना हिट होता है, ये तो तीन दिसंबर को ही तय होगा। उधर कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में सॉफ्ट हिन्दुस्त्व की राह भी पकड़ी है और हिमाचल -कर्णाटक में सफल रहा गारंटी फार्मूला भी। कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस निसंदेह दमदार विपक्ष की भूमिका में दिखी है। हालांकि असंतोष और बगावत में जरूर रंग में भंग डाला है, बाकि स्थिति नतीजे आने के बाद ही स्पष्ट होगी। पर ये तय है कि अगर सत्ता मिली तो सीएम कमलनाथ ही होंगे।
**सरकार रिपीट हुई तो क्या गहलोत को हटा पायेगा आलाकमान ? **समर्थक विधायकों का संख्याबल तय करेगा गहलोत और पायलट की दावेदारी ! राजस्थान में मचे सियासी घमासान में इस बार मुकाबला कांग्रेस भाजपा में ही नहीं है, एक मुकाबला कांग्रेस और कांग्रेस के बीच है, तो एक भाजपा और भाजपा के बीच। ये है मुख्यमंत्री की कुर्सी का मुकाबला। हालांकि सबकुछ पहले जनता ने तय करना है और जनता 25 नवंबर को तय भी कर देगी। तीन दिसंबर को नतीजा आएगा और उसके बाद सीएम पद की दावेदारी की जंग होगी या हार का ठीकरा फोड़ने की जद्दोजहद, ये देखना रोचक होने वाला है। 2013 में कांग्रेस की हार के बाद अशोक गहलोत केंद्रीय संगठन का रुख कर गए और राजस्थान में मोर्चा संभाला सचिन पायलट ने। पर 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले गहलोत न सिर्फ वापस आएं बल्कि सीएम पद के दावेदार बनकर आएं। खेर कांग्रेस ने बगैर चेहरे के चुनाव लड़ा और सत्ता में भी आ गई पर सीटें उतनी नहीं मिली जितनी उम्मीद थी। आलाकमान ने इस पेचीदा स्थीति में गहलोत को सीएम और पायलट को डिप्टी सीएम बना दिया। यानी सत्ता के जहाज के पायलट गहलोत बने और सचिन पायलट कोपायलट हो गए। सरकार में गहलोत की ही चली और जल्द ही तल्खियां सामने आने लगी। फिर पायलट ने साथी विधायकों के साथ बगावत कर दी लेकिन गहलोत ने सरकार बचाकर अपनी जादूगरी भी दिखाई और पायलट को हाशिये पर भी ला दिया। पायलट न डिप्टी सीएम रहे और न प्रदेश अध्यक्ष। हालांकि आलाकमान के हस्तक्षेप से पायलट पार्टी में बने रहे लेकिन राजस्थान की सत्ता में उनकी एक न चली। सितम्बर 2022 में जब गाँधी परिवार गहलोत को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर पायलट को सीएम बनाना चाहता था तब भी गहलोत समर्थकों के आगे आलाकमान फेल हो गया और पायलट फिर खाली हाथ रह गए। इसके बाद आलाकमान ने पायलट को सीडब्लूसी में शामिल किया ,लेकिन पायलट ने राजस्थान नहीं छोड़ा। विधानसभा चुनाव से पहले अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। अपनी ही सरकार को घेरने पायलट सड़क पर उतर गए। जैसे तैसे आलाकमान ने गहलोत पायलट की सुलह तो करवाई, लेकिन जिस रस्सी में इतनी गाठें हो वो समतल कैसी होगी ? बहरहाल माना जा रहा है कि पायलट को आलाकमान से आश्वासन मिला है, लेकिन राजस्थान में फेस भी गहलोत है और चुनाव अभियान भी उनके मन मुताबिक ही चला है। ऐसे में अगर रिपीट करके गहलोत इतिहास रच देते है तो क्या आलाकमान पायलट को एडजस्ट भी कर पायेगा, ये बड़ा सवाल है। चुनाव की घोषणा के बाद से राजस्थान में प्रत्यक्ष तौर पर गहलोत और पायलट आमने सामने नहीं हुए। कहा जाने लगा की आलकमान ने सब ठीक कर दिया है और नतीजों के बाद ही अगला फैसला होगा। पर गहलोत शायद अपने स्तर पर सबकुछ स्पष्ट कर देने चाहते थे और उन्होंने एक किस्म से कर भी दिया। "मैं कुर्सी को छोड़ना चाहता हूँ पर कुर्सी मुझे नहीं छोड़ती और छोड़ेगी भी नहीं ".....शब्द कुछ, मतलब कुछ, ये ही अशोक गहलोत की जादूगरी है और ये ही उनका सियासी अंदाज। इसीलिए उन्हें सियासत का जादूगर कहा जाता है। कुछ दिन पहले मौका दिल्ली में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस का था और निशाना भाजपा। पर घूमते घूमते बात कहाँ से कहाँ पहुंच गई और शायद जहाँ पहुंचानी थी वहां पहुंच गई। गहलोत अपने समर्थकों को कुछ न कहकर भी कह गए की जनता मेहरबान रही तो वे ही अगले सीएम होंगे। साथ ही विरोधियों को भी सन्देश दे गए की कुर्सी उन्हें नहीं छोड़ने वाली। सन्देश शायद आलाकमान के लिए भी था कि वो क्यों जादूगर कहलाते है। बहरहाल बात निकली तो पायलट तक भी पहुंची और जवाब भी आया। नपेतुले शब्दों में बिलकुल उनके सियासी तौर तरीके की तरह, "सीएम तो विधायक और आलाकमान तय करेंगे।" टिकट आवंटन की बात करें तो दोनों के समर्थकों को टिकट मिले भी है और कटे भी है। 'कौन आलाकमान' कहने वाले शांति धारीवाल को टिकट दिलवाकर गहलोत ने साबित कर दिया कि उनके सियासी पिटारे में कई तरकीबें है। बहरहाल खुलकर कोई कुछ नहीं बोल रहा, लेकिन दोनों ही नेताओं के समर्थक भीतरखाते प्रो एक्टिव है। किसके ज्यादा समर्थक विधानसभा की दहलीज लांघते है इस पर काफी कुछ निर्भर करने वाला है।
लोकसभा चुनाव लड़ी तो क्या मंडी होगी सीट ? कंगना ने दिए चुनावी राजनीति में एंट्री के संकेत पार्टी तो बीजेपी तय, सीट पर असमंझस जयराम न लड़े तो क्या कंगना होगी प्रत्याशी ! आगामी लोकसभा चुनाव में कंगना रनौत की चुनावी राजनीति में एंट्री हो सकती है। द्वारिका नगरी पहुंची कंगना का एक ब्यान सामने आया है जिसमे उन्होंने कहा है कि 'श्री कृष्ण की कृपा रही तो वे लोकसभा चुनाव लड़ेंगी । ' कंगना के चुनाव लड़ने की अटकलें पहले भी लगती रही है लेकिन पहली बार कंगना ने इस मुद्दे पर खुलकर संकेत दिए है। यानी अब कंगना 2024 लोकसभा चुनाव के दंगल में बतौर प्रत्याशी दिख सकती है। बहरहाल इसमें कोई संशय नहीं है कि अगर कंगना चुनाव लड़ती है तो पार्टी बीजेपी होगी, सवाल दरअसल ये है कि सीट कौन सी होगी ? पॉलिटिक्स में कंगना की एंट्री के सिग्नल ने हिमाचल की मंडी संसदीय क्षेत्र में सियासी पारा एक बार फिर हाई कर दिया है। सांसद रामस्वरूप शर्मा के निधन के बाद 2021 के अंत में हुए उपचुनाव में भाजपा ने ये सीट गवां दी थी और वर्तमान में पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह यहाँ से सांसद है। तब प्रदेश में जयराम ठाकुर की सरकार थी और जिला मंडी भाजपा के साथ गया था, बावजूद इसके उपचुनाव में ये सीट भाजपा के हाथ से निकल गई थी। कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तो ये लगभग तय है कि प्रतिभा सिंह ही फिर मंडी से मैदान में होगी। स्व वीरभद्र सिंह की पोलिटिकल लिगेसी के कवच और प्रतिभा सिंह के अपने सियासी रसूख के बुते निसंदेह वे यहाँ एक मजबूत चेहरा है और भाजपा को अगर मंडी फिर चाहिए तो सामने दमदार चेहरा चाहिए होगा। पर चेहरा कौन होगा, ये ही बड़ा सवाल है। हिमाचल भाजपा का एक बड़ा गुट मंडी से जयराम ठाकुर को चुनाव लड़वाने की वकालत कर रहा है। निसंदेह जयराम ठाकुर मंडी में विशेषकर जिला मंडी में इस वक्त सबसे दमदार चेहरा है। संसदीय क्षेत्र के 17 में से 9 हलके जिला मंडी में आते है। वहीँ उपचुनाव और फिर विधानसभा चुनाव में जयराम ठाकुर अपनी ताकत सिद्ध भी कर चुके है। पर क्या जयराम प्रदेश की सियासत छोड़ कर दिल्ली जाना चाहेंगे ? भाजपा में अंतिम निर्णय तो आलाकमान का ही होता है लेकिन सवाल ये है कि अगर जयराम ठाकुर नहीं, तो फिर कौन ? ये कयास काफी वक्त से लग रहे है और हर बार कंगना का नाम चर्चा में आता है। अब कंगना के ताजा बयान के बाद सियासी अटकलों का सिलसिला फिर आरम्भ हो चूका है। अगर जयराम ठाकुर लोकसभा चुनाव नहीं लड़ते है तो कंगना निसंदेह पार्टी की पसंद हो सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कंगना बेहद लोकप्रिय है और अक्सर फिल्म स्टार्स को सियासत में जनता का वोट रुपी प्यार मिलता रहा है। कंगना मंडी से ही ताल्लुख रखती है और इसलिए भी वे मंडी संसदीय क्षेत्र से बेहतर विकल्प हो सकती है। आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा अधिक से अधिक महिला उम्मदवारो को टिकट देना चाहेगी। महिला आरक्षण आगामी लोकसभा चुनाव में बेशक लागू नहीं होगा लेकिन भाजपा महिलाओं को अधिक टिकट देकर इसका राजनैतिक लाभ उठाने की रणनीति पर आगे बढ़ सकती है। इस लिहाज से भी कंगना एक मुफीद विकल्प है। बहरहाल कंगना के बयान ने सियासी टेम्परेचर जरूर बढ़ा दिया है लेकिन वो चुनाव लड़ती है या नहीं, या किस सीट से उन्हें मैदान में उतारा जाता है, ये तो वक्त ही बताएगा। पर मंडी में अगर हिमाचल की सियासत में 'रानी' कहे जाने वाली प्रतिभा सिंह के सामने बॉलीवुड की 'क्वीन' कंगना उतरती है, तो निसंदेह इस घमासान की चर्चा पुरे देश में होगी।
हिमाचल प्रदेश के डीजीपी संजय कुंडू ने पालमपुर के एक व्यक्ति के खिलाफ छोटा शिमला थाने में मामला दर्ज कराया है। डीजीपी द्वारा पुलिस को दी गई शिकायत के मुताबिक पालमपुर में रहने वाले व्यक्ति ने उन्हें मेल की है, जिसमें अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया गया है। बताया जा रहा हैं कि लंबे समय से दोनों के बीच में बातचीत और मेल का सिलसिला चल रहा था। पहले पुलिस अधिकारी की ओर से उन्हें समझाने का प्रयास किया गया ,लेकिन जब इस पर कोई असर नहीं हुआ तो मामले की गंभीरता को समझते हुए डीजीपी संजय कुंडू की ओर से यह मामला छोटा शिमला थाने में दर्ज कराया गया है।
पहले कहा 'अब मैं रिटायरमेंट ले सकती हूं', फिर बोली 'मैं कहीं नहीं जा रही' क्या भाजपा वसुंधरा को करेगी सीएम फेस घोषित ? 2017 में हिमाचल में मतदान के दस दिन पहले धूमल को प्रोजेक्ट किया था सीएम समर्थक चाहते है पार्टी करें सीएम फेस घोषित वसुंधरा राजे के राजनीति छोड़ने के ब्यान ने राजस्थान की सियासत में उफान ला दिया था। महारानी के एक ब्यान ने चुनाव का सारा फोकस उन पर शिफ्ट कर दिया। इसके अगले ही वसुंधरा का एक और ब्यान आया जिसमे उन्होंने कहा कि "मैं ये बात बहुत क्लियर करना चाहती हूं कि मैं कहीं नहीं जा रही हूं। रिटायरमेंट की बात अपने दिमाग में बिल्कुल मत रखना।" माहिर मानते है कि वसुंधरा का सन्देश जहाँ पहुंचना था, वहां पहुंच गया। जाहिर है वसुंधरा जानती है कि कब, क्या, कैसे, और कितना बोलना है। बहरहाल बेशक भाजपा ने वसुंधरा राजे को सीएम फेस घोषित नहीं किया हो, लेकिन भाजपा खेमे से सारा ध्यान वसुंधरा पर ही टिका है। वसुंधरा राजे के रिटायरमेंट वाले ब्यान के बाद किसी ने उन्हें हताश बताया तो किसी ने कहा कि वसुंधरा ने आलाकमान के सामने हथियार डाल दिए है। कुछ लोगों को ये महारानी का इमोशनल कार्ड लगा। बहरहाल कारण जो भी हो लेकिन इस एक ब्यान ने राजस्थान भाजपा को सकते में ला दिया। वसुंधरा के समर्थक एक्टिव होने लगे और शायद आलाकमान को भी वो सन्देश पहुंच गया जो संभवतः वसुंधरा राजे देना चाहती थी। आप बता दें कि चुनावी हो हल्ले के बीचे वसुंधरा राजे के समर्थक उन्हें सीएम कैंडिडेट प्रोजेक्ट करने की मांग कर रहे है, पर भाजपा आलकमान का इरादा कुछ और ही दिख रहा है। ऐसे में चुनाव के बाद भविष्य में वसुंधरा राजे की भूमिका को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। हालाँकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि वसुंधरा राजस्थान में भाजपा की सबसे लोक्रपिया नेता कही जा सकती है। संभवतः वे इकलौती ऐसी नेता है जिनकी पकड़ और जनाधार सभी 200 विधानसभा हलकों में है। पर आलाकमान के साथ उनके संबंधों को लेकर भी कई तरह की चर्चाएं होती रही है। माना जाता है कि पार्टी आलाकमान सत्ता आने पर राजस्थान में नए चेहरे को आगे करना चाहता है। बहरहाल अब भी माहिर मानते है कि जरुरत महसूस होने पर भाजपा प्रचार के अंतिम समय तक भी वसुंधरा को चेहरा घोषित कर सकती है। भाजपा पहले भी ऐसा करती रही है। 2017 में हिमाचल विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने ऐसा ही किया था। तब मतदान के दस दिन पहले प्रो प्रेम कुमार धूमल को सीएम फेस घोषित किए गया था। क्या राजस्थान में भी भाजपा ऐसा करेगी, ये देखना रोचक होगा।
गहलोत के सामने नहीं उतरे केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत कांग्रेस के प्रचार का लीड फेस है गहलोत सरदारपुरा सीट पर 25 साल से गहलोत का कब्ज़ा भाजपा के लिए टेढ़ी खीर साबित हुई है ये सीट क्या डार्क हॉर्स साबित होंगे राठौर ? राजस्थान के विधानसभा चुनाव में अर्से बाद ऐसा माहौल है कि बड़े बड़े सियासी माहिर भी भविष्यवाणी करने से बच रहे है। 25 साल से राजस्थान में सत्ता रिपीट नहीं हुई है और इस बार सीएम अशोक गहलोत दावा कर रहे है कि उनका जादू चलेगा और सरकार रिपीट होगी। सत्तापक्ष कांग्रेस की तरफ से चुनाव प्रचार का जिम्मा भी गहलोत संभाल रहे है और लीड फेस भी गहलोत ही है। ऐसे में कयास लग रहे थे कि गहलोत को घेरने के लिए भाजपा उनकी सीट सरदारपुरा से हेवी वेट कैंडिडेट दे सकती है, और इस फेहरिस्त में सबसे ऊपर नाम था केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का। शेखावत भाजपा से आधा दर्जन सीएम पद के दावेदारों की लिस्ट में भी है और ऐसे में उनका विधानसभा चुनाव लड़ने के भी कयास थे। अगर शेखावत सरदारपुरा से चुनाव लड़ते तो सम्भवतः गहलोत को अपनी होम सीट पर घेरने की नीति पर भाजपा आगे बढ़ सकती थी, पर ऐसा हुआ नहीं। पार्टी ने यहाँ से महेंद्र सिंह राठौर को टिकट दिया है। राठौर जोधपुर विकास प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष है और वर्तमान में जयनारायण विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भी। चुनाव में कौन हल्का और कौन भारी, ये तो जनता तय करती है लेकिन निसंदेह गजेंद्र सिंह शेखावत अगर मैदान में होते तो ये मुकाबला हाई प्रोफाइल जरूर हो जाता। बहरहाल राठौर डार्क हॉर्स है या नहीं, ये तो नतीजे तय करेंगे। उधर जानकारी के मुताबिक गहलोत अपनी सीट पर बेहद सीमित प्रचार करेंगे और उनका अधिकांश वक्त प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में प्रचार में ही गुजरेगा। कांग्रेस ने भले ही अभी सीएम फेस की घोषणा न की हो लेकिन गहलोत ये खुलकर कह रहे है कि सीएम पद उन्हें छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं है। इशारा साफ़ है कि गहलोत खुद को सीएम फेस घोषित कर चुके है। गहलोत अपनी सरकार की जन योजनाओं के बूते जनता के बीच दमदार तरीके से अपनी बात भी रख रहे है और अपने चिर परिचित अंदाज में भाजपा को घेर भी रहे है। राजस्थान कांग्रेस में गहलोत निसंदेह सबसे लोकप्रिय नेता है और उनका ताबड़तोड़ प्रचार अभियान भाजपा के लिए सिरदर्द जरूर है। 200 में से डेढ़ सौ से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों में गहलोत की जनसभाएं होनी है, जो बताता है कि कांग्रेस का प्रचार अभियान किस कदर गहलोत पर टिका है। ऐसे में माहिर मान रहे है कि अगर सरदारपुरा से भाजपा हेवी राइट कैंडिडेट यानी गजेंद्र सिंह शेखावत को मैदान में उतरती तो सम्भवतः गहलोत सरदारपुरा सीट पर कुछ वक्त अधिक देते। पर होम सीट पर गहलोत को बाँधने की रणनीति पर भाजपा आगे नहीं बढ़ी है। अब बात करते है सरदारपुरा सीट की। 1998 में सीएम बनने के बाद पहली बार उपचुनाव में इस सीट से अशोक गहलोत जीते थे और तब से लगातार पांच चुनाव जीत चुके है। इस बार भी गहलोत अगर जीत जाते है तो इस सीट पर उनकी डबल हैट्रिक होगी। जाहिर है ये सीट भाजपा के लिए बिलकुल भी आसान नहीं रहने वाली है। कांग्रेस के इस अभेद किले को भाजपा ढाई दशकों से भेद नहीं पाई है। भाजपा पहले भी गहलोत के खिलाफ चेहरे बदलने की रणनीति पर काम कर चुकी है, पर हाथ केवल मायूसी ही लगी है। इस बार फिर भाजपा ने नया चेहरा उतारा है और पार्टी को बड़े उलटफेर की उम्मीद होगी। अब सरदारपुरा में गहलोत का तिलिस्म बरकरार रहेगा या प्रोफेससर साहब उलटफेर कर पाएंगे ये देखना रोचक होगा।
लोकसभा के लिए राणा उपयुक्त धूमल परिवार को विधानसभा में पटकनी दे चुके है राणा क्या लोकसभा में भी दिख सकता है कमाल राजेंद्र राणा, हिमाचल की सियासत का वो नाम जिसने अपनी एक जीत से प्रदेश की सियासत पलट कर रख दी थी। 2017 के चुनाव में राणा ने भारतीय जनता पार्टी के सीएम कैंडिडेट को हराकर जो इतिहास रचा उसके चर्चे पूरे देश में हुए। किसी ने शायद ही सोचा हो की राणा अपने ही गुरु रह चुके प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल को कभी पटकनी दे पाएंगे, मगर राणा ने ऐसा कर दिखाया और प्रदेश की सियासत की दशा और दिशा पलट कर रख दी। ये तो बात हुई तब की, अब माना जा रहा है कि कांग्रेस के लिए राणा हमीरपुर से दमदार उम्मीदवार हो सकते है, पर सवाल ये है कि क्या राणा इसके लिए तैयार है ? हालांकि राणा ने खुद कभी खुलकर नहीं कहा लेकिन चर्चा तो ये होती रही है कि राणा को तो कैबिनेट में एंट्री चाहिए, इशारों इशारों में उनकी नाराजगी भी झलकती रही है। अब राणा कैबिनेट की दिशा पकड़ते है, दिल्ली की राह बढ़ते है या तटस्थ रहते है, ये देखना रोचक होगा। राणा कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में से है और वो वीरभद्र सिंह के करीबी रहे है। राणा तीसरी बार के विधायक है और सीएम कैंडिडेट को हराने के बाद से प्रदेश की राजनीति में राणा का कद लगातार बढ़ा है। वे पीसीसी के कार्यकारी अध्यक्ष भी है। 2022 विधानसभा चुनाव से पहले सत्ता वापसी पर राणा का मंत्री पद तय माना जा रहा था, यहाँ तक की उनके समर्थक तो उन्हें सीएम पद के दावेदारों में मानते थे। पर चाहने से सियासत में क्या मिलता है, स्थिति परिस्तिथि ऐसी बनी कि राणा अब तक मंत्रिमंडल में भी शामिल नहीं हो पाए है। इसका मुख्य कारण हमीरपुर जिले से खुद मुख्यमंत्री का होना और हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री का होना माना जाता है। हालांकि याद ये भी रखना होगा कि राणा उन गिने चने नेताओं में से एक है जिन्होंने नतीजों से पहले खुलकर प्रतिभा सिंह को सीएम दावेदार बताया था। बहरहाल राणा मंत्रिमंडल से दूर है और ये दूरी राणा को भी शायद असहज करती रही है। कभी राणा की सोशल मीडिया पर रश्मिरथी की पंक्तियों को इससे जोड़कर देखा जाता है तो कभी राणा द्वारा सीएम को भेजे गए पत्र से उनका असंतोष झलकता रहा है। बावजूद इसके इसमें कोई संशय नहीं है की राणा का सियासी दमखम जरा भी कम नहीं है। पार्टी को भी इस बात का इल्म है और ये ही कारण है कि माना जा रहा है कि पार्टी उन्हें हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से मैदान में उतार सकती है। पर क्या राणा लोकसभा के रण में उतरने को तैयार है, या अभी कैबिनेट विस्तार में राणा की एंट्री मंत्रिमंडल में होगी, ये देखना रोचक होगा। बहरहाल कांग्रेस के भीतर बहुत कुछ घट रहा है और बदलते समीकरणों में कब, क्या कैसे होगा, ये कहना मुश्किल है। अब बात करते है कि आखिर हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में राजेंद्र राणा कांग्रेस के लिए क्यों मजबूत उम्मीदवार हो सकते है। हमीरपुर संसदीय क्षेत्र वो संसदीय क्षेत्र है जहाँ कांग्रेस का सूर्य 1998 से अस्त है। ये हिमाचल प्रदेश की वो लोकसभा सीट है जहाँ कांग्रेस पिछले दो उपचुनाव और 6 आम चुनाव हार चुकी है। दरअसल हमीरपुर संसदीय क्षेत्र भाजपा के दिग्गज और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का गढ़ है। अनुराग से पहले उनके पिता प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल इस संसदीय क्षेत्र से तीन बार सांसद रह चुके है। ये भाजपा का गढ़ है, ये धूमल परिवार का गढ़ है और धूमल परिवार को यहाँ टक्कर देने के लिए राणा एक दमदार विकल्प हो सकते है। कभी इसी परिवार के करीबी रहे राणा की अब इस परिवार से सियासी रंजिश किसी से छिपी नहीं है। 2014 में अनुराग से लोहा लेने के लिए राणा विधायक पद से इस्तीफा देकर मैदान में उतरे थे, लेकिन तब हार गए थे। तब राणा का दांव उल्टा पड़ा था और उपचुनाव में उनकी पत्नी को भी सुजानपुर से हार का सामना करना पड़ा था। पर राणा ने सुजानपुर नहीं छोड़ा और फील्ड में डटे रहे। नतीजन 2017 में प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल को पटकनी देकर उन्होंने इतिहास रच दिया और फिर 2022 के चुनाव में भी धूमल परिवार का तिलिस्म तोड़ा। तब भले ही धूमल खुद मैदान में नहीं थे, मगर पार्टी के कैंडिडेट के लिए फ्रंट फुट पर रह कर प्रचार कर रहे थे। सिर्फ वे ही नहीं केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर भी मैदान में डटे रहे मगर जीत एक बार फिर राणा की हुई। यानी राणा वो चेहरा है जो धूमल परिवार के गढ़ में धूमल परिवार को पटकनी देने की कुव्वत रखते है। जो दम राणा विधानसभा चुनाव में दिखा चुके है, अगर वो ही हमीरपुर लोकसभा में दिखा दें तो पार्टी के सितारे शायद यहाँ चमक उठेंगे। बहरहाल फिलहाल ये सियासी अटकलें है और कैबिनेट विस्तार से पहले तस्वीर साफ़ होना मुश्किल है। संभवतः राणा की मंशा कैबिनेट में एंटीरी की होगी, फिर भी निसंदेह राणा कांग्रेस के लिए एक मजबूत विकल्प जरूर हो सकते है।
शिमला से लगातार 6 लोकसभा चुनाव जीते थे स्व केडी सुल्तानपुरी सुल्तानपुरी के बाद पांच में से चार चुनाव हारी कांग्रेस सुक्खू सरकार में शिमला संसदीय क्षेत्र को मिली है भरपूर तवज्जो शिमला संसदीय क्षेत्र की जब भी चर्चा होती है एक नाम जुबान पर आ ही जाता है। ये नाम है कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे स्वर्गीय केडी सुल्तानपुरी का। ये वो नाम है जिन्हें शिमला संसदीय क्षेत्र की जनता से इतना प्यार मिला जितना शायद ही किसी अन्य नेता को कभी अपने संसदीय क्षेत्र से मिला हो। सुल्तानपुरी ने इस क्षेत्र से लगातार छ लोकसभा चुनाव जीते और इसलिए उन्हें शिमला की राजनीति का सुल्तान तक कहा गया। सुल्तानपुरी जब भी मैदान में उतरे जीत कर ही लौटे। सातवीं लोकसभा के चुनाव में शिमला संसदीय सीट से पहली बार कांग्रेस के सिपाही बनकर मैदान में उतरे केडी सुल्तानपुरी ने ऐसा दुर्ग बनाया जिसे उनके चुनाव मैदान में रहते कोई भेद नहीं पाया। ना सुल्तानपुरी को कोई दूसरी पार्टी का नेता हरा पाया और न ही कांग्रेस में इनका कोई प्रतिद्वंदी इनके आगे टिक पाया। 1980 से 1998 तक सुल्तानपुरी लगातार 6 चुनाव जीते। सुल्तानपुरी के दौर में शिमला संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस का सूर्य सदा उद्यमान रहा। हालंकि अब तस्वीर वैसी नहीं है। कभी कांग्रेस का गढ़ कहे जाने वाले शिमला सांसदी क्षेत्र में अब कांग्रेस की परिस्थिति पहले सी नहीं रही। पिछले तीन चुनाव इस संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस हार चुकी है। सुल्तानपुरी के बाद यहाँ कांग्रेस पांच में से चार चुनाव हारी है। पिछले तीन चुनावों में कांग्रेस यहाँ लगातार हार रही है। हाँ ये बात अलग है कि विधानसभा चुनाव के दौरान अब भी इस क्षेत्र में कांग्रेस का दबदबा दिखता है, मगर लोकसभा चुनाव में नतीजें प्रतीकूल ही रहते है। बहरहाल 2024 लोकसभा चुनाव नजदीक है और हार कि हैट्रिक के बाद इस बार कांग्रेस को उम्मीद है कि शिमला संसदीय क्षेत्र में उसे जीत नसीब होगी। प्रदेश की सुक्खू सरकार में सबसे अधिक तवज्जो भी शिमला संसदीय क्षेत्र को ही मिली है। इस क्षेत्र से पांच मंत्री और तीन सीपीएस है। ऐसे में इस क्षेत्र से कांग्रेस को उम्मीद होना लाजमी भी है। किन्तु कांग्रेस की उम्मीद पूरी होती है या नहीं ये काफी हद तक कैंडिडेट पर निर्भर करेगा। फिलवक्त शिमला संसदीय क्षेत्र से मंत्री कर्नल धनीराम शांडिल, विनय कुमार, मोहनलाल ब्राक्टा के नाम चर्चा में हैऔर इस फेहरिस्त में एक नाम केडी सुल्तानपुरी के पुत्र विनोद सुल्तानपुरी का भी है। विनोद के चुनाव लड़ने के कयास इन दिनों तेज़ है। माना जा रहा है की पार्टी विनोद को चुनावी मैदान में उतार सकती है। विनोद सुल्तानपुरी वर्तमान में कसौली विधानसभा क्षेत्र से विधायक है और वो पूर्व सरकार में मंत्री रहे डॉ राजीव सैजल को हरा कर विधानसभा पहुंचे है। शिमला संसदीय क्षेत्र हिमाचल की एक मात्र आरक्षित लोकसभा सीट है। वहीँ माहिर मानते है इस क्षेत्र का जातीय समीकरण भी विनोद का दावा मजबूत करते है और उनके पिता की सियासी विरासत का लाभ भी उन्हें मिल सकता है। बहरहाल क्या कांग्रेस जूनियर सुल्तानपुरी पर दांव खेलती है और यदि टिकट मिला तो क्या विनोद अपने पिता वाला जादू दिखा पाएंगे, ये देखना रोचक होगा।
प्याज पॉलिटिक्स : प्याज उठा तो गिरी सरकारें ! 5 राज्यों के चुनाव के बीच आसमान छू रहा प्याज हिंदुस्तान की सियासत में क्या है प्याज का इलेक्शन कनेक्शन ? हिन्दुस्तान की सियासत और महंगाई के सम्बन्ध का ज़िक्र प्याज के बगैर अधूरा है। ऊंचे दामों से आम जनता को रुलाने वाला प्याज सियासतगारों को भी रुलाता रहा है। आम तौर पर उपेक्षित-सा रहने वाला प्याज अचानक उठता है और सरकारों की नींव हिला देता है। भले ही इसके पीछे मौसम या फसल-चक्र की मेहरबानी रही हो, लेकिन इतिहास पर नज़र डाले तो प्याज ने सरकारें भी गिराई हैं। अब पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के बीच फिर प्याज के बढ़ते दाम मुद्दा बन गए है। एक हफ्ते में ही प्याज की कीमत 15 से 20 रुपये किलो बढ़ चुका है। अनुमान है कि आने वाले कुछ दिनों में प्याज की कीमत 100 रुपये को पार कर सकती है। महंगाई के मुद्दे को सियासी दलों ने लपक लिया है और इसका भरपूर सियासी इस्तेमाल होना तय है। हालाँकि चुनावी राज्यों में प्याज की औसत खुदरा कीमत की बात करें तो मध्य प्रदेश में प्याज 45, राजस्थान में करीब 35, छत्तीसगढ़ में करीब 42, मिजोरम में 65 और तेलंगाना में करीब 38 रुपये किलो है, जबकि गैर चुनावी राज्यों में भाव इससे कहीं ज्यादा है। इस बीच महंगाई और प्याज का चुनाव पर असर भांपते हुए केंद्र सरकार भी एक्शन में है और प्याज पर निर्यात शुल्क की घोषणा की है। बहरहाल प्याज के बढ़ते दाम इलेक्शन में कितना तड़का लगाते है और किसे रुलाते है, ये देखना रोचक होने वाला है। हिंदुस्तान में प्याज और सियासत का रिश्ता पुराना है। अतीत में झांके तो आपातकाल के बुरे दौर के बाद जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी थी, तो इंदिरा गाँधी ने इसी प्याज को अपना सियासी अस्त्र बनाया था। यूँ तो जनता पार्टी की सरकार अपने ही अंतर्विरोधों से लड़खड़ा रही थी, पर विपक्ष में बैठी इंदिरा गांधी के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं था जिससे वो सरकार पर हमलावर हो सके। पर तभी अचानक प्याज की कीमतें आसमान छूने लगी और बैठे बिठायें इंदिरा गाँधी को एक मुद्दा मिल गया। कांग्रेस ने इस मुद्दे का बेहद नाटकीय ढंग से इस्तेमाल किया। प्याज की बढ़ती कीमतों की तरफ ध्यान खींचने के लिए कांग्रेस नेता सीएम स्टीफन तब संसद में प्याज की माला पहन कर गए। देखते -देखते इस मुद्दे का जादू लोगों के सिर चढ़ कर बोलने लगा। 1980 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी प्याज की माला पहनकर प्रचार करने गईं। चुनावी नारा भी बना कि ' जिस सरकार का कीमत पर जोर नहीं, उसे देश चलाने का अधिकार नहीं।' चुनावी नतीजे आए तो जनता पार्टी की हार हुई और कांग्रेस ने सरकार बनाई। माना जाता है कि जनता पार्टी की सरकार भले ही अपनी वजहों से गिरी हो, लेकिन कांग्रेस की सत्ता वापसी में प्याज का भी अहम् योगदान रहा। हालांकि सत्ता में लौटी कांग्रेस भी इसकी कीमतों का बढ़ना नहीं रोक पाई और एक साल बाद फिर प्याज ने रुलाना शुरू कर दिया। इस बार विपक्ष ने प्याज का नाटकीय इस्तेमाल किया। तब लोकदल नेता रामेश्वर सिंह प्याज का हार पहन कर राज्यसभा में गए, पर बात नहीं बनी और सभापति एम हिदायतुल्ला ने उन्हें खरी-खोटी सुना दी। ऐसा ही एक वाक्या वर्ष 1998 का है। तब केंद्र में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और प्याज की कीमतों ने फिर रुलाना शुरू कर दिया। तब अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा भी कि जब कांग्रेस सत्ता में नहीं रहती तो प्याज परेशान करने लगता है, शायद उनका इशारा था कि कीमतों का बढ़ना राजनैतिक षड्यंत्र है। तब दिल्ली प्रदेश में भाजपा की सरकार थी और विधानसभा चुनाव दस्तक दे रहे थे। तब एक बार फिर कांग्रेस ने प्याज का जबरदस्त राजनीतिक इस्तेमाल किया और इस मुद्दे पर भाजपा को जमकर घेरा। नतीजन जब चुनाव हुआ तो मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज के नेतृत्व वाली भाजपा बुरी तरह हार गई। दिलचस्प बात ये है कि1998 में दिल्ली में भाजपा की सरकार थी और मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री थे। पर प्याज की कीमतें बढ़ीं और विपक्षी दलों ने सरकार को घेरना शुरू किया। जनता में रोष था और दबाव इतना बढ़ा कि खुराना को हटाकर साहिब सिंह वर्मा को कमान सौंपी, पर कीमतें फिर भी नहीं घटीं। भाजपा ने फिर सीएम बदला और सुषमा स्वराज को मौका दिया गया, पर प्याज के दाम कण्ट्रोल नहीं हुए। विधानसभा चुनाव के बाद शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी और इसके बाद भी लगातार दो बार उनकी सरकार बनी। पर 15 साल बाद प्याज ने उन्हें भी रुलाया। अक्तूबर 2013 में प्याज की बढ़ी कीमतों पर सुषमा स्वराज ने टिप्पणी की थी कि यहीं से शीला सरकार का पतन शुरू होगा। हुआ भी ऐसा ही, भ्रष्टाचार और महंगाई का मुद्दा चुनाव में बदलाव का साक्षी बना। ऐसा ही एक वाक्या महाराष्ट्र का भी है। 1998 की दिवाली में महाराष्ट्र में प्याज की भारी किल्लत थी और प्याज की कीमत आसमान पर। तब कांग्रेसी नेता छगन भुजबल ने इस पर तंज कसने के लिए महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी को मिठाई के डिब्बे में रखकर प्याज भेजे थे। कहते है इससे शर्मिंदा होकर मनोहर जोशी ने राशन कार्ड धारकों को 45 रुपए की प्याज 15 रुपए प्रति किलो में उपलब्ध करवाई। बहरहाल पांच राज्यों के चुनाव के बीच प्याज की कीमत बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है। इसी बहाने कांग्रेस ने महंगाई का मुद्दा लपक लिया है। हालाँकि चुनाव राज्यों के है लेकिन जाहिर है कांग्रेस इस मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरने का प्रयास करेगी। वहीँ जिन राज्यों में कांग्रेस सरकारें है वहां भाजपा हमलावर है। अब प्याज की पिच पर कौन बेहतर सियासी बैटिंग करता है, इस पर निगाह जरूर रहने वाली है।
लोकसभा चुनाव लड़ी तो क्या मंडी होगी सीट ? कंगना ने दिए चुनावी राजनीति में एंट्री के संकेत पार्टी तो बीजेपी तय, सीट पर असमंझस जयराम न लड़े तो क्या कंगना होगी प्रत्याशी ! आगामी लोकसभा चुनाव में कंगना रनौत की चुनावी राजनीति में एंट्री हो सकती है। द्वारिका नगरी पहुंची कंगना का एक ब्यान सामने आया है जिसमे उन्होंने कहा है कि 'श्री कृष्ण की कृपा रही तो वे लोकसभा चुनाव लड़ेंगी । ' कंगना के चुनाव लड़ने की अटकलें पहले भी लगती रही है लेकिन पहली बार कंगना ने इस मुद्दे पर खुलकर संकेत दिए है। यानी अब कंगना 2024 लोकसभा चुनाव के दंगल में बतौर प्रत्याशी दिख सकती है। बहरहाल इसमें कोई संशय नहीं है कि अगर कंगना चुनाव लड़ती है तो पार्टी बीजेपी होगी, सवाल दरअसल ये है कि सीट कौन सी होगी ? पॉलिटिक्स में कंगना की एंट्री के सिग्नल ने हिमाचल की मंडी संसदीय क्षेत्र में सियासी पारा एक बार फिर हाई कर दिया है। सांसद रामस्वरूप शर्मा के निधन के बाद 2021 के अंत में हुए उपचुनाव में भाजपा ने ये सीट गवां दी थी और वर्तमान में पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह यहाँ से सांसद है। तब प्रदेश में जयराम ठाकुर की सरकार थी और जिला मंडी भाजपा के साथ गया था, बावजूद इसके उपचुनाव में ये सीट भाजपा के हाथ से निकल गई थी। कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तो ये लगभग तय है कि प्रतिभा सिंह ही फिर मंडी से मैदान में होगी। स्व वीरभद्र सिंह की पोलिटिकल लिगेसी के कवच और प्रतिभा सिंह के अपने सियासी रसूख के बुते निसंदेह वे यहाँ एक मजबूत चेहरा है और भाजपा को अगर मंडी फिर चाहिए तो सामने दमदार चेहरा चाहिए होगा। पर चेहरा कौन होगा, ये ही बड़ा सवाल है। हिमाचल भाजपा का एक बड़ा गुट मंडी से जयराम ठाकुर को चुनाव लड़वाने की वकालत कर रहा है। निसंदेह जयराम ठाकुर मंडी में विशेषकर जिला मंडी में इस वक्त सबसे दमदार चेहरा है। संसदीय क्षेत्र के 17 में से 9 हलके जिला मंडी में आते है। वहीँ उपचुनाव और फिर विधानसभा चुनाव में जयराम ठाकुर अपनी ताकत सिद्ध भी कर चुके है। पर क्या जयराम प्रदेश की सियासत छोड़ कर दिल्ली जाना चाहेंगे ? भाजपा में अंतिम निर्णय तो आलाकमान का ही होता है लेकिन सवाल ये है कि अगर जयराम ठाकुर नहीं, तो फिर कौन ? ये कयास काफी वक्त से लग रहे है और हर बार कंगना का नाम चर्चा में आता है। अब कंगना के ताजा बयान के बाद सियासी अटकलों का सिलसिला फिर आरम्भ हो चूका है। अगर जयराम ठाकुर लोकसभा चुनाव नहीं लड़ते है तो कंगना निसंदेह पार्टी की पसंद हो सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कंगना बेहद लोकप्रिय है और अक्सर फिल्म स्टार्स को सियासत में जनता का वोट रुपी प्यार मिलता रहा है। कंगना मंडी से ही ताल्लुख रखती है और इसलिए भी वे मंडी संसदीय क्षेत्र से बेहतर विकल्प हो सकती है। आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा अधिक से अधिक महिला उम्मदवारो को टिकट देना चाहेगी। महिला आरक्षण आगामी लोकसभा चुनाव में बेशक लागू नहीं होगा लेकिन भाजपा महिलाओं को अधिक टिकट देकर इसका राजनैतिक लाभ उठाने की रणनीति पर आगे बढ़ सकती है। इस लिहाज से भी कंगना एक मुफीद विकल्प है। बहरहाल कंगना के बयान ने सियासी टेम्परेचर जरूर बढ़ा दिया है लेकिन वो चुनाव लड़ती है या नहीं, या किस सीट से उन्हें मैदान में उतारा जाता है, ये तो वक्त ही बताएगा। पर मंडी में अगर हिमाचल की सियासत में 'रानी' कहे जाने वाली प्रतिभा सिंह के सामने बॉलीवुड की 'क्वीन' कंगना उतरती है, तो निसंदेह इस घमासान की चर्चा पुरे देश में होगी।
जनसभाओं के लिए नड्डा-खरगे नहीं चाहिए ! राजस्थान में मोदी -शाह- योगी के बाद वसुंधरा की मांग प्रियंका गाँधी की ज्यादा डिमांड, खरगे की सभा की मांग नहीं गहलोत और पायलट ही संभाले हुए है मोर्चा चुनाव में बड़े नेताओं की सभाएं माहौल बनाने का काम करती है। फ्लोटिंग वोट को साधने के लिहाज से ऐसी जन सभाओं का ख़ास महत्त्व होता है और राजनैतिक दल तमाम फैक्टर को जहन में रखकर बाकायदा रणनीतिक तौर पर इन सभाओं का आयोजन करते है। एक जनसभा चुनाव बना भी देती है और बिगाड़ भी देती है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही दिख रहा है। भाजपा के पीएम मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ की मांग है, वहीँ कांग्रेस में प्रियंका गाँधी इन डिमांड है। तो कहीं स्थानीय चेहरे राष्ट्रीय चेहरों से ज्यादा मांग में दिख रहे है। दिलचस्प बात ये है कि दोनों ही मुख्य राजनैतिक दल यानी कांग्रेस और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डिमांड लिस्ट में काफी नीच है। चुनाव लड़ने वालों को न खड़गे चाहिए और न नड्डा। बात कांग्रेस से शुरू करते है जो राजस्थान में रिपीट कर इतिहास रचना चाहती है। राजस्थान का चुनावी समर बेहद दिलचस्प होता दिख रहा है और ये कांग्रेस ने एक किस्म से ये चुनाव पूरी तरह सीएम अशोक गहलोत के हवाले किया है। ख़ास बात ये है कि कांग्रेस की जिला इकाइयों से प्रचार के लिए डिमांड भी अशोक गहलोत की ज्यादा है। गहलोत खुद करीब डेढ़ सौ से ज्यादा विधानसभा सीटों पर प्रचार करते दिख सकते है। वहीँ कभी उनके डिप्टी रहे सचिन पायलट की भी खूब मांग है खासतौर से गुजर बहुल क्षेत्रों में। पायलट भी करीब सौ सीटों पर प्रचार करते दिख सकते है। राजस्थान में अब तक जो दिख रहा है उस लिहाज से स्थानीय नेता ही प्रचार के मोर्चे पर आगे दिखने वाले है। दिलचस्प बात ये है कि राहुल गाँधी राजस्थान से अब तक दूर दिखे है। सवाल ये भी उठा है कि क्या उन्हें किसी रणनीति के तहत राजस्थान से दूर रखा गया है ? केंद्रीय नेताओं में सबसे ज्यादा डिमांड प्रियंका गाँधी की है। सभी जिला इकाइयां प्रियंका गाँधी की जनसभा चाहती है। हालाँकि आदिवासी बाहुल ज़िलों से राहील गाँधी की भी मांग है। वहीँ कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की किसी भी जिला इकाई ने मांग नहीं की है। खरगे की सभा करवाने के लिए कोई भी जिला इकाई तैयार नहीं है। उधर बिना सीएम फेस के चुनाव लड़ रही भाजपा में पीएम मोदी ही फेस है। भाजपा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बाद सबसे अधिक मांग केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की है। वहीँ प्रदेश के नेताओं में वसुंधरा राजे सबसे ज्यादा इन डिमांड है। जिला इकाईयों ने मोदी, शाह और योगी के बाद सिर्फ वसुंधरा की सभाओं के लिए ही ज्यादा आग्रह किया है। वहीँ प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी की जनसभाओं की भी लगभग कोई दंण्ड नहीं है। केंद्र्तीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और अर्जुन राम मेघवाल की मांग भी कुछ क्षेत्रों में ही ज्यादा है। यानी वसुंधरा राजे राजस्थान भाजपा की इकलौती ऐसी नेता है जिनकी डिमांड पुरे प्रदेश से है। बहरहाल रैलियों और जनसभाओं के पैटर्न पर निगाह डाले तो राजस्थान का विधानसभा चुनाव अशोक गहलोत बनाम मोदी ज्यादा दिख रहा है। पीएम के हर वार का पलटवार भी गहलोत कर रहे है और अटैक का मोर्चा भी मुख्य तौर पर उन्होंने ही संभाला है। प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी का अब तक यही स्टैंड है कि पीएम नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही विधानसभा चुनाव लड़ा जाएगा। केंद्रीय योजनाओं के सहारे बीजेपी लाभार्थी वोट बैंक साधने में जुटी है। वहीँ, राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत ने भी कई योजनाओं की बिसात पर अपना बड़ा लाभार्थी वोट बैंक तैयार किया है। बहरहाल कांग्रेस में जहां सेंट्रल लीडरशिप से आगे गहलोत दिख रहे है, वहीँ भाजपा स्टेट लीडरशिप को पीछे रख पीएम मोदी के नाम पर चुनाव लड़ रही है। हालाँकि माहिर मान रहे है कि अंतिम वक्त तक दोनों ही दलों की रणनीति में बदलाव संभव है, खासतौर से बगैर सीएम फेस के चुनाव लड़ रही भाजपा जरूरत महसूस होने पर रणनीति बदल सकती है।
संत चले चुनाव लड़ने ! तीन राज्यों में 8 साधू -संत और धर्मगुरु चुनावी मैदान में सत्ता से पुराना है संतों का नाता राजस्थान में अब तक भाजपा -कांग्रेस ने दिए 4 टिकट, एक कतार में मध्य प्रदेश से तीन संत मैदान में बुधनी में सीएम शिवराज चौहान को चुनौती दे रहे मिर्ची बाबा कहीं कोई बीच सड़क से गुजर रहे साधू संतों को दंडवत प्रमाण कर रहा है तो कहीं साधु संत ही जनता के दरबार में पहुंच कर वोट की कृपा मांग रहे है। ये ही जमूरियत की ख़ूबसूरती है, पांच साल में ही सही लेकिन यहाँ जनता का दरबार जरूर सजता है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में साधू संतों और धर्म गुरुओं के मैदान में उतरने से सियासत और लोकतंत्र की एक नई तस्वीर सामने आई है। यूँ तो साधू संतों और धर्म गुरुओं का सियासत में आना नई बात नहीं है, लेकिन ऐसा पहली बार है जब विधानसभा चुनाव में साधू संतों की इतनी तादाद में एंट्री हुई है। इन तीन राज्यों में अब तक आठ साधू संत और धर्मगुरु मैदान में है और इसमें अभी और इजाफा तय माना जा रहा है। वर्तमान से पहले बात अतीत की करते है। सत्ता का मोह संतों को सियासत में ले आया हो, हिंदुस्तान की सियासत में ये कोई नया किस्सा नहीं है। इसका कारण सिर्फ संतों का सत्ता मोह नहीं है बल्कि राजनैतिक दलों को भी संतों में जिताऊ चेहरा दिखा है। साल 1971 के आम चुनाव में सबसे पहले कांग्रेस इस इस फॉर्मूले को आजमाया और ये प्रयोग सफल भी रहा। तब कांग्रेस ने बिजनौर से स्वामी रामानन्द शास्त्री और हमीरपुर से स्वामी ब्रह्मानंद को मैदान में उतारा था। इसके बाद हर राजनैतिक दाल ने इस फॉर्मूले का खूब प्रयोग किया है, विशेषकर भाजपा ने। 1990 के आसपास मंडल-कमंडल की लड़ाई के बाद भारी संख्या में संतों की सियासत में एंट्री हुई। इसी दौर में राम जन्भूमि आंदोलन में भारी संख्या में साधुसंत जुड़े और फिर सियासत की डगर पर आगे बढ़ते गए। भाजपा ने 1991 के लोकसभा चुनाव में स्वामी चिन्मयानदं को बंदायूं मैदान में उतारा और इसके बाद ये सिलसिला चल पड़ा। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने आधा दर्जन साधुसंतों को टिकट दिया और सभी जीते। 2019 में भी भाजपा टिकट पर सभी साधू संत जीते। पर विधानसभा चुनाव में कभी इस फॉर्मूले का इस कदर प्रयोग नहीं हुआ। हालांकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद गोरखनाथ मंदिर के महंत है और आज यूपी की सत्ता के शीर्ष पर विराजमान है। वहीँ मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रही उमा भारती भी सीएम बनते बनते भगवा धारण कर चुकी थी। यानी सत्ता से संतों का नाता पुराना है। अब तीन राज्यों की बात करते है और शुरुआत करते है 200 सीटों वाली राजस्थान से जहाँ 4 धर्मगुरु मैदान में उतर चुके हैं, तो कई उतरने की तैयारी में हैं। राजस्थान में कांग्रेस और बीजेपी दोनों संतों की लोकप्रियता को भुनाने की रणनीति पर आगे बढ़े है। अब अटक बीजेपी ने महंत बालकनाथ,ओटाराम देवासी और महंत प्रताप पुरी को टिकट दिया है, तो कांग्रेस ने मुस्लिम धर्मगुरु सालेह मोहम्मद को टिकट दिया है। अब कांग्रेस सिंधी समाज की एक और धर्मगुरु को टिकट दे सकती है। साध्वी अनादि सरस्वती भी टिकट की दावेदार हैं, जिन्हें अजमेर के किसी सीट से टिकट दिया जा सकता है। यानी अब तक जो आंकड़ा चार है वो पांच हो सकता है। विस्तार से बात करने तो तिजारा सीट से बीजेपी उम्मीदवार महंत बालकनाथ योगी वर्तमान में अलवर लोकसभा सीट से सांसद भी हैं और बालकनाथ नाथ संप्रदाय के योगी है। नाथ संप्रदाय का हरियाणा और राजस्थान बॉर्डर के कई जिलों में मजबूत दबदबा है। महंत बालकनाथ को राजस्थान में बीजेपी के भीतर सीएम दावेदार भी माना जा रहा है। वहीं महंत प्रताप पुरी की बात की जाए, तो वे तारातारा मठ के प्रमुख हैं। प्रताप पुरी 2018 में भी पोखरण सीट से चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन तब उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। वहीँ देवासी समुदाय से आने वाले ओटाराम देवासी को सिरोही से भाजपा ने टिकट दिया है और वे भी सियासत के पुराने खिलाड़ी है। कांग्रेस की बता करें तो पोखरण सीट पर महंत प्रताप पुरी को मात देने के लिए पिछली बार कांग्रेस ने सालेह मोहम्मद को मैदान में उतारा था। मोहम्मद भी मुस्लिम धर्मगुरू हैं। सालेह के पिता को जैसलमेर इलाके में गाजी फकीर कहते हैं। यह सिंधी मुस्लिम समुदाय के धर्मगुरु का पद है। सालेह वर्तमान में अशोक गहलोत सरकार में मंत्री भी थे और फिर मैदान में है। वहीँ साध्वी अनादी सरस्वती सिंधु समुदाय की धर्मगुरु है और कांग्रेस उन्हें अजमेर की किसी सीट से चुनाव लड़वा सकती हैं। वहीँ मध्य प्रदेश में तीन संत इस बार खुलकर ताल ठोक रहे हैं। इनमें सबसे ज्यादा चर्चा बुधनी सीट से लड़ने वाले मिर्ची बाबा की है जो समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार है। मिर्ची बाबा का किस्सा बड़ा रोचक है। मिर्ची बाबा को 2018 में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया था। 2019 में मिर्ची बाबा ने भोपाल सीट से दिग्विजय सिंह के चुनाव हारने पर जल समाधि लेने की घोषणा की थी। फिर 2020 में जब कांग्रेस की सरकार गई तो बाबा की मुश्किलें भी बढ़ गई। उन पर एक महिला ने रेप का आरोप लगाया था, जिसकी वजह से उन्हें 13 महीने जेल में रहना पड़ा। हालांकि, कोर्ट ने उन्हें इस मामले में बरी कर दिया। इसके बाद से ही बाबा ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को निशाने पर लेना शुरू कर दिया। बुधनी सीट से कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया, तो बाबा अखिलेश से मिलने लखनऊ चले गए और टिकट ले आएं। मिर्ची बाबा की तरह ही रीवा सीट पर सबके महाराज नाम से मशहूर सुशील सत्य महाराज मैदान में हैं। वे 2018 में भी इसी सीट से चुनाव लड़ चुके हैं। महाराज का दवा है कि पारिवारिक विरक्तियों की वजह से वे हिमालय पर चले गए, जहां उन्होंने 10 वर्षों की घनघोर तपस्या की। रीवा का विनाश उनसे देखा नहीं गया, इसलिए चुनाव में उतर गए। वहीँ रायपुर सीट से महंथ रामसुंदर दास कांग्रेस से मैदान में है। महंथ रामसुंदर दास बीजेपी के बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। यह सीट भी बीजेपी का गढ़ है। छत्तीसगढ़ की बात करें तो रायपुर सीट से चुनाव लड़ रहे रामसुंदर दास दूधाधारी मठ के प्रमुख हैं। कहते है कि मठ के प्रमुख वैष्णवदास रामसुंदर दास के ज्ञान से खूब प्रसन्न हुए थे, जिसके बाद उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। रामसुंदर दास गौसेवा बोर्ड के चेयरमैन हैं और छत्तीसगढ़ सरकार से उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा मिला हुआ है। वे पहले भी विधायक रह चुके हैं।
*कांग्रेस ने बताया निजी आध्यात्मिक यात्रा* *कांग्रेस का सॉफ्ट हिंदुत्व का दांव?* *राहुल गाँधी का तीन दिवसीय केदारनाथ दौरा* पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के बीच राहुल गांधी बाबा केदारनाथ के दर्शनों के लिए पहुंचे है और तीन दिन वहीं ठहरेंगे। दौरा निजी है लेकिन राहुल गाँधी का निजी भी सियासी ही है। कांग्रेस ने राहुल गांधी के बाबा केदारनाथ दर्शन के कार्यक्रम को उनकी निजी आध्यात्मिक यात्रा बताया है। उधर विरोधी इस यात्रा को चुनाव प्रचार से उनके पलायन के रूप में बता रहे है। जबकि राजनैतिक माहिर इस प्रवास को सॉफ्ट हिंदुत्व के मोर्चे पर नई तस्वीर गढ़ने का प्रयास मान रहे है। राहुल इससे पहले अमृतसर में स्वर्ण मंदिर में भी तीन दिनी प्रवास कर चुके हैं। बहरहाल राजनीतिक गलियारों में राहुल गाँधी के केदारनाथ दौरे को लेकर चचाएँ है। कांग्रेस और राहुल की इस कवायद से चुनावी राज्यों में क्या मिलेगा, यह चुनाव परिणाम से ही पता लगेगा। लाजमी है निजी दौरे में भी राहुल बाबा केदार से कांग्रेस की जीत का आशीष तो मांगेंगे ही। बहरहाल इस बीच पांच राज्यों में चुनाव प्रचार चरम पर हैं। माहिर मान रहे है कि कांग्रेस को मध्य प्रदेश में एंटी इनकंबेंसी तो राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपने नए लुभावने चुनावी वादों पर भरोसा है।
कहा,'अब मैं रिटायरमेंट ले सकती हूं इमोशनल कार्ड या सच में दौड़ से बाहर हुई महारानी ?* समर्थक चाहते है पार्टी करें सीएम फेस घोषित* सभी 200 विधानसभा क्षेत्रों में प्रभाव रखती है वसुंधरा राजे* अगले ही दिन कहा, 'मैं कहीं नहीं जा रही' वसुंधरा राजे के राजनीति छोड़ने के ब्यान ने राजस्थान की सियासत में खलबली मचा दी है। दरअसल राजनीति में शब्द नहीं अपितु महत्व सन्देश का होता है। ऐसे में बीच चुनाव में महारानी के इस बयान का बड़े मायने है। वसुंधरा को सियासत की महारानी यूँ ही नहीं कहा जाता, उन्हें पता है कब क्या बोलना है और कब चुप रहना है। बहरहाल वसुंधरा ने क्या आलकमान के सामने हथियार डाल दिए है या इमोशनल कार्ड खेलकर वसुंधरा खेल गई है, ये अहम सवाल है। चुनावी हो हल्ले के बीचे वसुंधरा राजे के समर्थक उन्हें सीएम कैंडिडेट प्रोजेक्ट करने की मांग कर रहे है, पर भाजपा आलकमान का इरादा कुछ और ही दिख रहा है। इसी बीच वसुंधरा ने राजनीति छोड़ने के संकेत दिए हैं। झालावाड़ में एक जनसभा में उन्होंने क्षेत्र में तीन दशकों में किए गए कार्यों का लेखा-जोखा पेश करने के बाद कहा,"अपने बेटे को बोलते हुए सुनकर अब मुझे लग रहा है कि मैं रिटायरमेंट ले सकती हूं। उन्हें उनके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है।" उन्होंने आगे कहा कि 'सभी विधायक यहां हैं और मुझे लगता है कि उन पर नजर रखने की कोई जरूरत नहीं है. क्योंकि वे अपने दम पर लोगों के लिए काम करेंगे।' बीच चुनाव में राजस्थान की सियासत की महारानी के रिटायरमेंट के इस बयान के कई मायने है। पांच बार सांसद और चार बार विधायक और दो बार सूबे की सीएम रहीं वसुंधरा को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने को लेकर लगातार मांग हो रही है। हालांकि बीजेपी ने ऐसा किया नहीं है जिसके बाद भविष्य में उनकी भूमिका को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। वसुंधरा राजस्थान में भाजपा की सबसे लोक्रपिया नेता कही जा सकती है। संभवतः वे इकलौती ऐसी नेता है जिनकी पकड़ और जनाधार सभी 200 विधानसभा हलकों में है। पर भाजपा ने वसुंधरा को सीएम चेहरा घोषित नहीं किया है। आलाकमान के साथ उनके संबंधों को लेकर भी कई तरह की चर्चाएं होती रही है। इस बीच अब वसुंधरा के इस ब्यान ने सियासी हलचल तेज कर दी है। क्या वसुंधरा राजे सच में राजनीति से संन्यास लेने जा रही है या उन्होंने इमोशनल कार्ड खेला है, ये सवाल बना हुआ है। वसुंधरा खुद झालरापाटन से प्रत्याशी है और जाहिर है सन्यास लेना होता तो वे चुनावी मैदान में नहीं होती। फिर भी अपने जुदा मिजाज और तल्ख़ सियासी तेवरों के लिए प्रसिद्ध वसुंधरा राजे के किसी ब्यान को हल्के में नहीं लिया जा सकता। हालाँकि अगले ही दिन वसुंधरा ने कहा है कि वे कहीं नहीं जा रही है। बहरहाल राजस्थान में वसुंधरा राजे भाजपा का सबसे लोकप्रिय चेहरा है। भैरों सिंह शेखावत के बाद से वसुंधरा ही राजस्थान में भाजपा का फेस रही है। वसुंधरा राजे का अपना कद है और निसंदेह राजस्थान में भाजपा के पास कोई ऐसा नेता नहीं दिखता जिसकी जमीनी पकड़ वसुंधरा जैसी हो। बावजूद इसके भाजपा ने उन्हें चेहरा घोषित नहीं किया है। हालांकि माहिर मानते है कि अगर रुझान विपरीत लगे तो पार्टी प्रचार के अंतिम समय में भी वसुंधरा को चेहरा घोषित कर सकती है। क्या भाजपा अपनी रणनीति बदलकर वसुंधरा को आगे करती है या कलेक्टिव लीडरशिप में चुनाव लड़ने का भाजपा का फैसला हिट साबित होता है, ये देखना रोचक होगा।
**पीएम मोदी का वार, कहा - 30 टका कक्का, आपका काम पक्का **मोदी बोले, इन्होंने तो महादेव के नाम को भी नहीं छोड़ा **बघेल का पलटवार ; ईडी और आईटी माध्यम से लड़ रहे चुनाव विधानसभा चुनाव की भागमभाग के बीच छत्तीसगढ़ में अब ईडी की एंट्री से सियासी माहौल गरमा गया है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को अपनी सत्ता बरकरार रहने की उम्मीद हैं लेकिन इस बीच मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को लेकर बड़ा दावा किया गया है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने दावा किया है कि महादेव सट्टेबाजी ऐप के प्रमोटरों ने भूपेश बघेल को 508 करोड़ रुपये दिए हैं। इस बीच आज प्रधानमंत्री मोदी चुनावी जनसभा के लिए दुर्ग पहुंचे। पीएम मोदी ने कांग्रेस पर हमला बोलते हुए कहा कि कांग्रेस के नेता लूट के पैसे से अपना घर भर रहे हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने जनता का भरोसा तोड़ा है। पीएम मोदी ने कहा कि इन्होंने तो महादेव के नाम को भी नहीं छोड़ा। पीएम मोदी ने कहा कि आप यहां सरकारी दफ्तरों में जाते हैं, तो एक ही बात बोलते हैं 30 टका कक्का, आपका काम पक्का। कांग्रेस के हर घोषणा में 30 टके का खेल पक्का है। इस सरकार से छत्तीसगढ़ छुटकारा चाहता है। इसलिए छत्तीसगढ़ कह रहा है- अऊ नहीं सहिबो, बदल के रहिबो। वहीँ सीएम भूपेश बघेल ने पलटवार करते हुए कहा कि ईडी के जरिये कांग्रेस की लोकप्रिय सरकार को बदनाम करने का राजनीतिक साजिश की जा रही है और कहा है कि एक अनजान व्यक्ति के बयान के आधार पर आरोप लगाया गया है। आरोपों को खारिज करते हुए बघेल ने कहा कि "ये लोग सीधी लड़ाई नहीं लड़ सकते,ये लोग ईडी और आईटी माध्यम से चुनाव लड़ रहे हैं। पीएम मोदी पूछ रहे हैं, दुबई वालों से क्या संबंध है? मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि दुबई वालों से आपके क्या संबंध हैं? लुकआउट सर्कुलर जारी होने के बाद भी गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई? यह गिरफ्तारी करना भारत सरकार का कर्तव्य है। क्यों महादेव ऐप बंद नहीं हुआ था? ऐप बंद करना भारत सरकार का कर्तव्य है।" बहरहाल छत्तीसगढ़ में पहले से ही हाई सियासी टेम्परेचर को ईडी कि एंट्री ने माहौल और गर्म कर दिया है।
मुख्यमंत्री नई दिल्ली एम्स में भर्ती, स्वास्थ्य स्थिति बेहतर मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू को गैस्ट्रोएंटरोलॉजी विभाग में कुछ परीक्षणों के लिए शुक्रवार सुबह नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती करवाया गया है। विभाग के डॉक्टरों की टीम ने उनके परीक्षण शुरू कर दिए हैं। इस प्रक्रिया में लगभग दो से तीन दिन लग सकते हैं। मुख्यमंत्री की सेहत पहले से बेहतर है, चिंता की कोई बात नहीं है। वह डॉक्टरों की टीम की निगरानी में हैं। मेडिकल बुलेटिन के अनुसार ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू की रिपोर्ट सामान्य हैं। मुख्यमंत्री का स्वास्थ्य स्थिर है। उन्हें उचित आराम की जरूरत है, जिससे वह और तेजी से ठीक होंगे। आईजीएमसी शिमला के डॉक्टरों की सलाह पर मुख्यमंत्री को एम्स में भर्ती करवाया गया है।
25 विधानसभा हलकों से सिर्फ एक मंत्री राजयोग उसका जिसे मिले कांगड़ा और मंडी का साथ सत्ताधारी कांग्रेस के हिस्से में है 11 सीटें क्या कांगड़ा में कांग्रेस की खींचतान डाल रही अड़ंगा ! भाजपा में मंडी को भरपूर मान, कांगड़ा दिखे हल्का मंडी में कांग्रेस को चाहिए व्यवस्था परिवर्तन 12 जिलों में 68 विधानसभा सीटें और 25 सीटें सिर्फ दो जिलों से। यानी करीब 37 प्रतिशत सीटें इन्हीं दो जिलों से है। इसीलिए कहते है हिमाचल प्रदेश में उसका राजयोग पक्का समझो जिसे कांगड़ा और मंडी का साथ मिल जाएँ। इन दो जिलों की चाल, सत्ता की ताल बदल देती है। 15 सीटों वाला जिला कांगड़ा और 10 सीटों वाला जिला मंडी सियासी दलों को मजबूर भी कर सकते है और मजबूत भी। ये ही कारण है की इन्हें सत्ता में भागीदारी भी उसी लिहाज से मिलती रही है। 2022 के विधानसभा चुनाव में जिला कांगड़ा कांग्रेस के साथ गया और पार्टी 10 सीटें ले आई। वहीँ मंडी ने भाजपा और जयराम ठाकुर का मान रखा और दस में से नौ सीटों पर भाजपा को शानदार जीत मिली। दोनों जिलों की 25 में से 11 पर कांग्रेस को जीत मिली। खेर सत्ता परिवर्तन हुआ और कांग्रेस की सरकार बन गई। मंडी ने कांग्रेस का साथ नहीं दिया लेकिन कांगड़ा का भरपूर प्यार मिला। सिलसिलेवार दोनों ज़िलों की बात करते है और शुरुआत करते है ज्यादा सियासी वजन वाले जिला कांगड़ा से। कांगड़ा को जिस सियासी अधिमान की अपेक्षा थी वो अब तक नहीं मिला, कैबिनेट में इसका वजन अब तक हल्का है। कांगड़ा के हिस्से में अब तक सिर्फ एक मंत्री पद आया है। कैबिनेट में तीन स्थान खाली है और जाहिर है इसमें कांगड़ा का भी हिस्सा होगा, लेकिन जो मंत्रिपद पांच साल के लिए मिल सकते थे अब चार साल के लिए मिलेंगे, या उससे थोड़ा कम ज्यादा। जाहिर सी बात है कैबिनेट के चेहरे तय करने में कांग्रेस की अंदरूनी खींचतान अड़ंगा डाल रही है, जिसका खमियाजा कांगड़ा को भुगतना पड़ रहा है। दूसरा सवाल ये भी है कि क्या कांगड़ा में वजनदार नेता नहीं रहे जो जिला के हक की बात रखे। जीएस बाली के रहते कांगड़ा का दावा सीएम पद के लिए था लेकिन अब हालात ये है कि मंत्रिपद के लिए भी कांगड़ा तरस गया है। दूसरा बड़ा नाम सुधीर शर्मा भी पार्टी के भीतरी संतुलन में अब तक कतार में ही है। वीरभद्र सरकार के समय सुधीर और स्व बाली, दोनों ही नेता सियासी मोर्चे पर वॉयलेंट रहते थे, अब बाली रहे नहीं और सुधीर साइलेंट है। दिग्गज ओबीसी नेता चौधरी चंद्र कुमार कांगड़ा से एकलौते मंत्री है, पर उनके जूते में भी उनके पुत्र और पूर्व विधायक नीरज भारती का पांव नहीं पड़ रहा। यानी मंत्री के घर में भी असंतोष है। जिला से दो सीपीएस बनाये गए है मगर ये सीपीएस रहेंगे या नहीं ये भी कोर्ट को तय करना है। आरएस बाली को जरूर कैबिनेट रैंक दिया गया है। इनके अलावा यादविंद्र गोमा, संजय रतन, भवानी पठानिया, मलेंद्र राजन और केवल पठानिया भी अपने अपने हलकों की सियासत में सिमित है। दिलचस्प बात ये है कि जला कांगड़ा के ये दस विधायक चार अलग-अलग गुटों से है। इनमें से तीन गुट कभी साथ थे, अब इनके बिखराव ने इन्हें कमजोर कर दिया है। बहरहाल कांगड़ा को आश्वासन तो मिल रहे है और शायद जल्द मंत्री पद भी मिले, लेकिन इस विलम्ब से कांग्रेस को हासिल क्या होगा, ये बड़ा सवाल है। वहीँ पद देकर किसका कद बढ़ाया जाता है, पुरानी निष्ठाएं बरकारार रहती है या बदलती है, इस पर भी निगाह रहेगी। बात भाजपा की करें तो भाजपा संगठन में भी कांगड़ा हल्का ही दीखता है। उम्मीद थी कि भाजपा का अगला प्रदेश अध्यक्ष जिला कांगड़ा से हो सकता है लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कांगड़ा से प्रदेश संगठन में एक महामंत्री है, वहीँ अन्य पदों में भी कांगड़ा को वैसी तवज्जो नहीं दिखती जैसी अपेक्षा थी। कांग्रेस की तरह ही यहाँ भाजपा में भी गुट है और गुटों में भी गुट है। 2022 के विधानसभा चुनाव में यहाँ भाजपा को सिर्फ चार सीट मिली थी, दो कैबिनेट मंत्री और संगठन के महामंत्री भी चुनाव हार गए थे। कांगड़ा में कमजोरी पार्टी के सत्ता से वनवास का बड़ा कारण बनी। अब बात जिला मंडी की करते है। 2017 के विधानसभा चुनाव से ही मंडी भाजपा के साथ है। तब भाजपा ने क्लीन स्वीप किया था। वहीँ 2022 में भी कांग्रेस को सिर्फ एक सीट मिली। भाजपा ने पांच साल मंडी को सीएम पद दिया और विपक्ष में आकर नेता प्रतिपक्ष का पद। यहाँ संकट कांग्रेस के समक्ष है। कांग्रेस के बड़े बड़े दिग्गज चुनाव हार गए जिनमें सीएम पद के दावेदार कौल सिंह ठाकुर भी है। जिला में एकमात्र विधायक है धर्मपुर से चंद्रशेखर। ऐसे में यहाँ मंत्री पद की संभावना न के बराबर है। किन्तु चंद्रशेखर को किसी अहम पद पर एडजस्ट जरूर किया जा सकता है। बहरहाल यहाँ भाजपा के लिए सब दुरुस्त है लेकिन 2017 और 2022 की पुर्नावृति न हो, इसके लिए कांग्रेस को मजबूत एक्शन प्लान की दरकार जरूर है। जिला मंडी में कांग्रेस के लिए आँतरिक व्यवस्था परिवर्तन समय की जरुरत है। मंत्रिपद न सही लेकिन मंडी को भागीदारी भरपूर देनी होगी।
मध्यप्रदेश में ही कांग्रेस सपा आमने सामने , उत्तर प्रदेश में क्या होगा ? क्या दिल्ली पंजाब में साथ लड़ सकते है कांग्रेस और आप ? ममता और लेफ्ट, यानी आग और पानी ! केंद्र में भाजपा का विजयरथ रोकने के लिए 28 विपक्षी पार्टियों ने मिलकर इंडिया गठबंधन बनाया है। इस गठबंधन कि खूबसूरत मजबूरी देखिये कि जो पार्टियां राज्यों में एक दूसरे के खिलाफ लड़ रही है, वो भी केंद्र की सत्ता के लिए एकसाथ आ गई है। मसलन दिल्ली और पंजाब से कांग्रेस सरकार का टिकट काटने वाली आम आदमी पार्टी भी इस गठबंधन में शामिल है। बंगाल में जिस लेफ्ट को ममता दीदी की टीएमसी ने सत्ता से बेदखल किया वो भी टीएमसी के साथ इसका हिस्सा है। ऐसे में ये गठबंधन कितना टिकेगा, इस पर पहले दिन से ही सवाल उठते रहे है। इस बीच 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव आ गए और तल्खियों की झलकियां दिखने लगी। कारण बना मध्य प्रदेश में सीटों का बंटवारा और किरदार है कांग्रेस और समाजवादी पार्टी। मध्य प्रदेश में राजनीतिक मजबूरी और यूपी में मुस्लिम वोट बैंक के चक्कर में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी आमने-सामने हैं। उत्तर प्रदेश में तो मतभेद अपेक्षित था लेकिन दरार मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सामने आ जाएगी, ये शायद ही किसी ने सोचा हो। सपा सात सीटें चाहती थी और कांग्रेस देने को तैयार नहीं थी। इसक बाद सियासी वार हुए, पलटवार हुए और अखिलेश ने कह दिया कि अगर प्रदेश स्तर पर गठबंधन नहीं होगा तो देश स्तर पर भी नहीं हो सकता। हालांकि अब अखिलेश के तेवर नरम है, लेकिन माहिर मान रहे है कि एमपी में जो कांग्रेस और सपा के बीच घटा है वो झलकी भर है। अभी गठबंधन के और सहयोगी अपने अपने राज्यों में आमने -सामने होंगे। वो कहते है न अभी तो इब्दिता है रोता है क्या, आगे आगे देखिये होता है क्या..... बात विस्तार से होगी तो लम्बी चल पड़ेगी, इसलिए सिर्फ बात करते है इस गठबंधन के उन सहयोगियों की जो अपने अपने राज्यों में आमने सामने है। इंडिया गठबंधन के साथी कांग्रेस और आप का साथ आना माहिरों को 'आग और पानी' के साथ आने जैसा लग रहा है। दरअसल, अब तक कांग्रेस की सियासी जमीन छीन कर ही आप की जमीन तैयार हुई है। साल 2012 के अंत में आम आदमी पार्टी अस्तित्व आई थी और दस साल में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पा चुकी है। दो राज्यों में आप की सरकार है - दिल्ली और पंजाब। खास बात ये है कि इन दोनों ही राज्यों में आप ने कांग्रेस को न सिर्फ सत्ता से बेदखल किया है बल्कि एक किस्म से उसकी जमीन ही कमजोर कर दी है। दिल्ली में कांग्रेस की पतली हालत किसी से छिपी नहीं है और वहां तो मुकाबला ही अब आप और भाजपा में दिखता है। वहीँ पंजाब में पिछले साल विधानसभा चुनाव जीतने के बाद आप ने लोकसभा उपचुनाव जीतकर भी कांग्रेस को झटका दिया है। हालांकि पंजाब में अब भी मुकाबला आप और कांग्रेस के बीच ही है लेकिन कांग्रेस निसंदेह पहले से खासी कमजोर है। कैप्टेन अमरिंदर सिंह का विकल्प अब तक पार्टी के पास नहीं दिखता। पर पंजाब में भाजपा और अकाली दल भी कमजोर है और ये ही कांग्रेस के लिए राहत की बात है। विशेषकर अकाली दल के एनडीए से बाहर आने के बाद समीकरण बदल चुके है। यानी मुख्य मुकाबला आप और कांग्रेस के बीच हो सकता है। जाहिर है दोनों ही दल एक दूसरे के लिए सीटें नहीं छोड़ेंगे। ऐसे में इनके बीच गठबंधन की सम्भावना मुश्किल लगती है। इसी तरह पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सबसे ताकतवर नेता है। कांग्रेस और लेफ्ट मिलकर ममता के सामने लड़ते रहे है। ममता और लेफ्ट क्या साथ आ सकते है, ये बड़ा सवाल है। ममता लेफ्ट को लेकर किसी भी तरह का लचीला रुख अपनाएगी, ये मुश्किल लगता है। अब फिर कांग्रेस और सपा पर लौटते है। केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है जहाँ विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी है सपा। कांग्रेस की मौजूदा हालत को देखते हुए सपा उसे कितनी सीटें देती है, ये देखना रोचक होगा। सीटों के बंटवारें में पेंच फंसना तय है। दरअसल कांग्रेस का मानना है कि प्रदेश के मुसलमानों ने कांग्रेस पर भरोसा जताना शुरू कर दिया है। यही कारण है कि कांग्रेस ने प्रदेश के मुस्लिम वोटरों को लुभाना शुरु भी कर दिया है। पार्टी पश्चिमी यूपी में मुस्लिम नेताओं पर फोकस कर रही है। यूपी में कांग्रेस नेतृत्व का ये भी मानना है कि मुसलमान अच्छी तरह से जानते हैं कि केंद्र में बीजेपी का एकमात्र विकल्प कांग्रेस है, न कि सपा या कोई अन्य क्षेत्रीय पार्टी। सपा भी समझ रही है कि अगर मुस्लिम वोट बंटा तो बेशक कांग्रेस को कुछ ज्यादा हासिल न हो लेकिन उसको नुक्सान होगा। इसी बिसात पर कांग्रेस संभवतः ज्यादा सीटें चाहेगी। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में सीटों का बंटवारा बड़ा पेचीदा होने वाला है। बहरहाल कांग्रेस समेत कई ऐसा विपक्षी पार्टियां हैं जो इस बात को मानती हैं कि आने वाला लोकसभा चुनाव में उनके लिए करो या मरो वाली स्थिति होगी। पर सियासत में अपनी जमीन कोई किसी के लिए नहीं छोड़ता। यानी इस बात में भी कोई दोराय नहीं है कि सीट बंटवारे को लेकर गठबंधन में रार लगभग तय हैं। ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि गठबंधन टूट जाता है, या कुछ प्लस माइनस होकर टिका रहता है।
राजस्थान में कांग्रेस ने 200 में से अब तक 76 सीटों पर अपने उम्मीदवारों का एलान कर दिया है। कांग्रेस ने अपनी पहली सूची में 33 उम्मीदवारों के नाम की घोषणा की थी। इसमें सीएम अशोक गहलोत, पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट, प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा और राजस्थान विधानसभा स्पीकर सीपी जोशी का नाम शामिल था। वहीँ रविवार को 43 प्रत्याशियों की दूसरी सूची जारी हुई। इस सूची में 15 मंत्री भी शामिल है। पार्टी ने अब तक दो सूची में 20 मंत्रियों को टिकट दिया है, लेकिन गहलोत के खास तीन चेहरे अब तक टिकट से वंचित हैं। इनमें मंत्री शांति धारीवाल और महेश जोशी भी शामिल हैं। दरअसल, बताया जा रहा हैं कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी पिछले साल 25 सितंबर की घटना को नहीं भूले हैं। तब राजस्थान में पार्टी विधायकों के एक गुट की बगावत के कारण पार्टी के पर्यवेक्षकों को कांग्रेस विधायक दल की बैठक किए बिना राष्ट्रीय राजधानी लौटना पड़ा था। तब मोर्चा सँभालने वालो में आगे गहलोत के ये ही ख़ास मंत्री थे। तब शांति धारीवाल ने पार्टी आलाकमान के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था। उस दौरान सोनिया गांधी, जो उस समय पार्टी की अंतरिम प्रमुख थीं, ने खरगे और अजय माकन को पर्यवेक्षकों के रूप में राजस्थान में कांग्रेस विधायकों की बैठक आयोजित करने के लिए भेजा था, इन खबरों के बीच कि गहलोत को उनके पद से हटाकर पार्टी प्रमुख बनाया जा सकता है। हालांकि, पार्टी विधायकों की बैठक नहीं हो पाने के बाद पर्यवेक्षक दिल्ली लौट गए। बैठक से पहले, गहलोत के करीबी माने जाने वाले विधायकों ने धारीवाल के नेतृत्व में मुलाकात की, जिसे गहलोत के वफादार को उनके उत्तराधिकारी के रूप में चुनने के लिए आलाकमान को एक संदेश के रूप में देखा गया। सूत्रों की माने तो बीते दिनों हुई कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में टिकट वितरण के समय जैसे ही शांति धारीवाल का नाम चर्चा में आया, वैसे ही सोनिया गांधी ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। सोनिया ने कहा कि "ये वही व्यक्ति हैं न..इनका नाम सूची में कैसे है। इनपर तो भ्रष्टाचार के आरोप हैं न?" कहते हैं मैडम सोनिया के इस सवाल पर बैठक रूम में कुछ देर तक सन्नाटा पसर गया। सीएम अशोक गहलोत ने सफाई दी लेकिन तभी राहुल गांधी ने कहा भारत जोड़ो यात्रा के दौरान इनके खिलाफ कई शिकायतें मिली थीं। राहुल गांधी ने 25 सितंबर की वह बात भी याद दिला दी और सूत्रों की मानें तो उन्होंने कहा- "ये वही शांति धारीवाल हैं न जिन्होंने कहा था...कौन आलाकमान?" इसके बाद एक बार फिर उस मीटिंग रूम में सन्नाटा पसर गया। बहरहाल मंत्री शांति धारीवाल और महेश जोशी को अब तक टिकट नहीं मिला हैं, हालाँकि इनके टिकट अब ट्रक कटे भी नहीं हैं। अब गहलोत अपने इन ख़ास सिपहसलहारों को टिकट दिलवा पाते हैं या आलाकमान के मन में टीस बरक़रार रहती हैं, ये देखना रोचक होगा।
*तीन बार लगा प्रतिबन्ध, पर मजबूत होता रहा संघ *98 साल के इतिहास में सिर्फ 6 लोगों ने किया है आरएसएस का नेतृत्व *पांच स्वयंसेवकों के साथ लगी थी संघ की पहली शाखा *दशहरे के दिन शस्त्र पूजन करते है स्वयंसेवक *भगवा ध्वज को आरआरएस में गुरु की उपाधि साल था 1925 और तारीख थी 27 सितंबर, नागपुर में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने आरएसएस की नींव रखी थी। वो दशहरे का दिन था और ये संघ की पहली शाखा थी जो संघ के पांच स्वयंसेवकों के साथ शुरू की गई थी। अपने गठन के बाद राष्ट्र की अवधारणा पर संघ ने खूब ध्यान खींचा। सावरकर की हिंदुत्व की अवधारणा का भी संघ की विचारधारा पर भरपूर असर रहा। पांच स्वयंसेवकों के साथ शुरू हुआ संघ अपने 98 साल के सफर में बेहद मजबूत हो चूका है। संघ का खूब विस्तार हुआ है, संघ ने कई अनुषांगिक संगठन खड़े किए हैं और आज देश के कोने-कोने में हजारों शाखाएं चलती है। इससे भी अहम् बात ये है कि संघ का पोलिटिकल विंग यानी भारतीय जनता पार्टी आज देश की सबसे मजबूत पार्टी है। बेशक संघ खुद को गैर राजनैतिक करार दें, लेकिन उसे राजनीति से अलग नहीं रखा जा सकता। आरएसएस की स्थापना के बाद हेडगेवार खुद तो कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे कई आंदोलनों में शामिल हुए लेकिन उन्होंने संघ को इससे दूर रखा। गांधी जी के नेतृत्व में शुरू हुए दांडी मार्च, यानी सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने हिस्सा लिया, मगर संघ को इससे दूर रखा। 21 जून 1940 को डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की मृत्यु हो गई और उनके बाद संघ की कमान आई माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर के हाथ। दरअसल हेडगेवार चिट्ठी के जरिये गोलवलकर को उत्तराधिकारी नामित कर गए थे। इस तरह गोलवलकर यानी 'गुरुजी' सरसंघचालक बने। 1940 से लेकर 1973 तक, यानी अपनी देह छोड़ने तक उन्होंने संघ का नेतृत्व किया। दिलचस्प बात ये है कि उनकी मृत्यु के बाद भी एक चिट्ठी के आधार पर अगला उत्तराधिकारी चुना गया। स्वयंसेवकों के नाम तीन चिट्ठियां खोली गई थी और इनमें से एक में अगले सरसंघचालक के रूप में बाला साहब देवरस का नाम था। देवरस 1993 तक सरसंघचालक रहे और उनके दौर में ही राम मंदिर आंदोलन पर सवार हो संघ के राजनैतिक विंग भाजपा मजबूत हुई। इसके बाद प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ़ रज्जु भैया 1993 से 2000 तक, के एस सुदर्शन 2000 से 2009 तक और वर्ष 2009 से अब तक मोहन भागवत ने संघ की कमान संभाली। 98 साल के इतिहास में संघ का नेतृत्व सिर्फ 6 लोगों ने किया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस लम्बी यात्रा में तीन मौके ऐसे भी आए जब उसे प्रतिबंध झेलना पड़ा। महात्मा गांधी की हत्या के बाद लगा पहली बार प्रतिबन्ध : 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिड़ला हाउस में महात्मा गाँधी की हत्या कर दी गई और उनकी हत्या करने वाला था नाथूराम गोडसे। अहिंसा के पुजारी गाँधी की इस हत्या ने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया। इसकी साज़िश रचने का शक आरएसएस पर था और नतीजन बापू की हत्या के 5 दिन बाद यानी 4 फरवरी 1948 को सरकार ने आरएसएस पर बैन लगा दिया। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक एमएस गोलवलकर और प्रमुख नेता बाला साहब देवरस समेत कई कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए। आरएसएस का कहना था कि उनका इसमें कोई हाथ नहीं है लेकिन शक का आधार पर कार्रवाई हुई। बाद में जब पुलिस जांच की रिपोर्ट आई तब उसमें कहा गया कि महात्मा गांधी की हत्या में आरएसएस का कोई हाथ नहीं है, हालांकि लेकिन तब इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया। उधर गांधी जी की हत्या और उसके बाद लगे प्रतिबंधों के कारण संघ के अंदर भी मतभेद शुरू हो गए थे और लगने लगा कि लगा कि संघ टूट जाएगा। कहते है आरएसएस और सरकार के बीच बातचीत भी हुई और संघ की ओर से स्पष्ट कहा गया कि यदि प्रतिबन्ध नहीं हटाया गया तो वे राजनीतिक पार्टी बना लेंगे। आखिरकार 11 जुलाई 1949 को सरकार ने संघ पर से सशर्त प्रतिबंध हटा लिया। प्रतिबंध हटाने की शर्त यह थी कि, * आरएसएस अपना संविधान बनाएगा और अपने संगठन में चुनाव करवाएगा। * आरएसएस किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेगा और खुद को सांस्कृतिक गतिविधियों तक सीमित रखेगा। प्रतिबंध हटने के बाद आरएसएस ने सीधे तौर पर तो राजनीति में हिस्सा नहीं लिया लेकिन 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में जनसंघ नाम की पार्टी बना दी गई। फिर 1980 में इसी जनसंघ के लोगों ने ही भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। इमरजेंसी के दौर में लगा दूसरी बार प्रतिबंध : साल था 1975 का और जून के महीने में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को बड़ा झटका लगा था। दरअसल इलाहबाद हाई कोर्ट का निर्णय इंदिरा गाँधी के खिलाफ आया और उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द हो गई। साथ ही अदालत ने अगले 6 साल तक उनके कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी, सो ऐसी स्थिति में इंदिरा गांधी के पास राज्यसभा जाने का रास्ता भी नहीं बचा था। हालांकि अदालत ने कांग्रेस पार्टी को थोड़ी राहत देते हुए नया प्रधानमन्त्री’ बनाने के लिए तीन हफ्तों का वक्त दे दिया था। इंदिरा गांधी ने तय किया कि वे 3 हफ़्तों की मिली मोहलत का फायदा उठाते हुए इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगी। पर कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि वे इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर पूर्ण रोक नहीं लगाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा को प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति तो दे दी ,लेकिन कहा कि वे अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं। इस बीच 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के ऊपर देश में लोकतंत्र का गला घोंटने का आरोप लगाया और" सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" का नारा बुलंद किया। जयप्रकाश ने अपील कि वे लोग इस दमनकारी निरंकुश सरकार के आदेशों को ना मानें। इसी रैली के आधार पर इंदिरा ने आपातकाल। 25 जून 1975 को लागू हुआ आपातकाल 21 मार्च 1977 तक चला। जाहिर सी बात है कि आरएसएस भी आपत्काल के खिलाफ मुखर था। बाला साहब देवरस आरएसएस के सरसंघचालक बन चुके थे। आपातकाल में तमाम विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया जा रहा था और सरसंघचालक बाला साहब देवरस भी गिरफ्तार कर लिए गए। संघ के कार्यकर्ता भी बड़ी संख्या में गिरफ्तार किए गए। इसके बाद 4 जुलाई 1975 को सरकार ने आरएसएस पर एक बार फिर प्रतिबंध लगा दिया। जब इमरजेंसी हटी और चुनाव हुए, तो इंदिरा गांधी की हार हुई और विपक्षी एकता के नाम पर बनी जनता पार्टी सत्ता में आई। जनता पार्टी ने सत्ता में आते ही आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा लिया। बाबरी विध्वंस के बाद लगा तीसरी बार प्रतिबन्ध : 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ और आरएसएस अब अपने पोलिटिकल विंग को सत्ता के शीर्ष पर देखना चाहता था। भाजपा ने 1984 का लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन केवल 2 सीटों पर सिमट गई। संघ और भाजपा समझ चुके थे कि माध्यम मार्गी होकर सफलता नहीं मिलेगी। इस बीच राजीव गाँधी सरकार ने फरवरी 1986 में अयोध्या के विवादित परिसर का ताला खोल दिया और मंदिर-मस्जिद की राजनीति शुरू हो गई। यहां से भाजपा और आरएसएस ने अयोध्या राम मंदिर के मुद्दे को लपक लिया और देखते ही देखते ये देश का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया। 1986 से 1992 के बीच राम मंदिर मुद्दे पर खूब टकराव, हिंसा हुई और हज़ारों लोगों की जानें गई। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में उन्मादी भीड़ ने विवादित ढांचे का गुंबद गिरा दिया। इस घटना से अंतरराष्ट्रीय पटल पर भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि धूमिल हुई और देश में कई जगह हिंसा हुई। इस प्रकरण में आरएसएस और भाजपा के शामिल होने की बात कही जाने लगी। आखिरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने यूपी समेत 4 राज्यों की भाजपा सरकारों को बर्खास्त कर दिया और 10 दिसंबर 1992 को आरएसएस पर तीसरी बार प्रतिबन्ध लगा। फिर जांच हुई और सीधे तौर पर आरएसएस के खिलाफ कुछ नहीं मिला और आखिरकार 4 जून 1993 को सरकार को आरएसएस पर से प्रतिबंध हटाना पड़ा। ‘शस्त्र पूजन’ करते है स्वयंसेवक हर साल विजयादशमी का पर्व बड़ी धूमधाम से बनाया जाता है इस दिन शस्त्र पूजन का विधान है। ये प्रथा कोई आज की नहीं है बल्कि सनातन धर्म से ही इस परंपरा का पालन किया जाता है। इस दिन शस्त्रों के पूजन का खास विधान है। ऐसा माना जाता है कि क्षत्रिय इस दिन शस्त्र पूजन करते हैं। इस दौरान संघ के सदस्य हवन में आहुति देकर विधि-विधान से शस्त्रों का पूजन करते हैं। संघ के स्थापना दिवस कार्यक्रम में हर साल ‘शस्त्र पूजन’ खास रहता है। संघ की तरफ से ‘शस्त्र पूजन’ हर साल पूरे विधि विधान से किया जाता है। इस दौरान शस्त्र धारण करना क्यों जरूरी है, की महत्ता से रूबरू कराते हैं। बताते हैं, राक्षसी प्रवृति के लोगों के नाश के लिए शस्त्र धारण जरूरी है। सनातन धर्म के देवी-देवताओं की तरफ से धारण किए गए शस्त्रों का जिक्र करते हुए एकता के साथ ही अस्त्र-शस्त्र धारण करने की हिदायत दी जाती है। ‘शस्त्र पूजन’ में भगवान के चित्रों से सामने ‘शस्त्र’ रखते हैं। दर्शन करने वाले बारी-बारी भगवान के आगे फूल चढ़ाने के साथ ‘शस्त्रों’ पर भी फूल चढ़ाते हैं। गुरु की जगह भगवा ध्वज को किया स्थापित : आरएसएस में 1928 में गुरु पूर्णिमा के दिन से गुरु पूजन की परंपरा शुरू हुई। जब सब स्वयं सेवक गुरु पूजन के लिए एकत्र हुए तब सभी स्वयंसेवकों को यही अनुमान था कि डॉक्टर साहब की गुरु के रूप में पूजा की जाएगी। लेकिन इन सारी बातों से इतर डॉ. हेडगेवार ने संघ में व्यक्ति पूजा को निषेध करते हुए प्रथम गुरु पूजन कार्यक्रम के अवसर पर कहा, “संघ ने अपने गुरु की जगह पर किसी व्यक्ति विशेष को मान न देते हुए परम पवित्र भगवा ध्वज को ही सम्मानित किया है। इसका कारण है कि व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो, फिर भी वह कभी भी स्थिर या पूर्ण नहीं रह सकता।
** केवल प्रयोग के लिए प्रयोग नहीं करती भाजपा ** सांसद लड़ रहे विधानसभा चुनाव, जाने कितना पड़ेगा प्रभाव ? ** तीन राज्यों में अब तक 18, अभी बढ़ेगा ये आँकड़ा ** समझे क्या है भाजपा की रणनीति आज की भाजपा वो पार्टी है जो हमेशा इलेक्शन मोड में रहती है, 365 दिन और 24 घंटे। साथ ही भाजपा का मतलब है दुनिया का सबसे बड़ा राजैनतिक दल और हमेशा प्रयोग करने के लिए ओपन। चुनावी राजनीति में हमेशा प्रयोगों की गुंजाइश रही है और जब भाजपा जैसी पार्टी प्रयोग करें तो उसके पीछे निश्चित रूप से इसके पीछे गहन विमर्श और दूरगामी सोच होती है। भाजपा केवल प्रयोग के लिए प्रयोग नहीं करती। बीते कुछ वक्त में कई राज्यों में भाजपा ने चुनाव से पहले सीएम बदलने का प्रयोग किया और वो बेहद सफल रहा, मसलन गुजरात और उत्तराखंड। अब पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव है और इस बार भाजपा की सियासी लेबोरेटरी में जीत का नया फार्मूला तैयार किया गया है। मध्य प्रदेश में भाजपा ने 39 उम्मीदवारों की दूसरी सूची में तीन केंद्रीय मंत्रियों और सात सांसदों तथा एक राष्ट्रीय महासचिव को उतारा, तो राजनीति के माहिरों को विशेलषण करने को भरपूर मसाला मिल गया। सीधा सरल विश्लेषण ये कहता है कि मध्य प्रदेश में भाजपा की स्थिति खराब है, इसलिए भाजपा ने दिग्गजों को मैदान में उतार दिया। इसके बाद छत्तीसगढ़ में प्रत्याशियों की सूची आई तो चार सांसदों का नाम था। कहा गया कि छत्तीसगढ़ भाजपा में रमन सिंह के बाद भाजपा के पास कोई चेहरा नहीं है जिसे पार्टी भूपेश बघेल के समानांतर खड़ा करे। इसलिए सांसदों को विद्यानसभा चुनाव लड़वाया जा रहा है। वहीँ राजस्थान में भी अब तक सिर्फ 41 प्रत्याशियों का ऐलान हुआ है और उनमें सात सांसद है। कहा जा रहा है कि 200 प्रत्याशियों की घोषणा होते होते ये संख्या एक दर्जन होने के आसार है। कहा ये भी जा रहा है कि वसुंधरा राजे सिंधिया पार्टी की पसंद नहीं है और उनके अलावा राज्य स्तर का कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जिसे अशोक गहलोत की तुलना में आगे बढ़ाया जा सके। इसलिए पार्टी इतनी संख्या में सांसदों को चुनाव मैदान में उतारने को विवश हो गई। पर ये विवशता नहीं, रणनीति है। ये भाजपा को व प्रयोग है जो अगर सफल रहा तो नतीजे तो प्रभावित करेगा ही, इन राज्यों में भाजपा की भीतर की सियासत भी बदल कर रख देगा। जो सांसद चुनावी समर में उतारे गए हैं, वे सब निसंदेह अनुभवी भी है और लोकप्रिय भी। इन्हे मैदान में उतारते वक्त जातिगत समीकरणों का भी ख्याल रखा गया है और क्षेत्रीय समीकरणों का भी। ये चुनाव नदजीकी हो सकते है और एक एक सीट महत्वपूर्ण है, ऐसे में बड़े चेहरों के मैदान में होने से भाजपा को उम्मीद है कि नजदीकी मुकाबले में उसे लाभ मिलेगा। इनमे कई चेहरे ऐसे है जो नजदीकी सीटें भी प्रभावित करेंगे। तो कई को समर्थक अभी से सीएम घोषित करके चल रहे है, ऐसे में इसका व्यापक असर हो सकता है। दूसरा लाभ ये है कि इससे पार्टी में भीतरघात कुछ कम हो सकता है। दरअसल तीनो राज्यों में पार्टी ने सीएम फेस घोषित नहीं किया, बल्कि कई दिग्गजों को मैदान में उतारकर कन्फूज़न क्रिएट कर दिया है। ये कन्फूज़न कह सकता पार्टी के लिये सम्भवतः अच्छा है। कई लोकप्रिय और प्रभावी चेहरे मैदान में हैं, जिनकी संगठन से लेकर आम जनता में अच्छी पैठ है। सबके मन में होगा कि चुनाव जीतने के बाद हममें से कोई भी मुख्यमंत्री हो सकता है। जाहिर है ऐसे में सभी भरपूर प्रयास करेंगे। भाजपा में कोई भी सीएम हो सकता है, गुजरात, उत्तराखंड सहित कई राज्यों के जरिये पार्टी ये सन्देश देती रही है। वहीं अगर तीनों राज्यों में भाजपा में मौजूदा चेहरों की बात करें तो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को पार्टी ने बुधनी से उम्मीदवार घोषित किया है। राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया लगातार चुनाव अभियान में हैं और संभवतः झालरापाटन से मैदान में होगी। वहीँ छत्तीसगढ़ में पूर्व सीएम रमन सिंह को राजनंदगांव सीट से टिकट दिया गया है। यानी भाजपा ने मौजूदा चेहरों को साइडलाइन नहीं किया है अपितु रणनीति बदलते हुए कई चेहरों को एकसाथ आगे बढ़ाया है। बहरहाल अब तक घोषित हुए उम्मीदवारों की बात करते है। 90 सीटों वाले छत्तीसगढ़ में अब तक भाजपा ने 85 उम्मीदवार घोषित किये है जिनमे चार सांसद है। 230 विधानसभा सीटों वाले मध्यप्रदेश में अब तक भाजपा चार सूचियों में कुल 136 उम्मीदवारों का ऐलान कर चुकी है जिनमें तीन केंद्रीय मंत्रियों सहित सात सांसद है। इसी तरह 200 विधानसभा सीटों वाले राजस्थान में अब तक भाजपा ने 41 नामों का ऐलान किया है और इनमें सात सांसद है। तीनों राज्यों की कुल 520 सीटों पर अब तक 262 प्रत्याशी घोषित किये है जिनमें 18 सांसद है। माहिर मान रहे है कि अभी ये संख्या और बढ़नी है, विशेषकर राजस्थान में अभी भी करीब आधा दर्जन सांसदों को चुनावी रण में उतारने की चर्चा है। बहरहाल भाजपा इन विधानसभा चुनावों को युद्ध की तरह लड़ रही है और जाहिर है पार्टी कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। अब भाजपा का ये प्रयोग कितना सफल होता है ये जनता तय करेगी और 3 दिसंबर को नतीजा सामने होगा।
** अशोक गहलोत इतिहास रचेंगे या भाजपा के दिग्गजों की फ़ौज भारी पड़ेगी ? ** वसुंधरा दरकिनार होगी या भाजपा के लिए मजबूरी सिद्ध होगी ? ** गहलोत पायलट की अदावत पर लग चूका है विराम या पिक्चर अभी बाकी है ? तेवर भी दिख रहे है और तल्खियां भी। मुद्दे भी है, उपलब्धियां भी और खामियां भी। लड़ाई कांग्रेस-भाजपा में भी है, कांग्रेस-कांग्रेस में भी और भाजपा-भाजपा में भी। राजस्थान विधानसभा चुनाव में उभरे समीकरण राजनीति के किसी भी छात्र के लिए एक परफेक्ट केस स्टडी है। काफी कुछ घट रहा है और बहुत कुछ अभी बाकी है। 25 साल से राजस्थान में सरकार रिपीट नहीं हुई है। हर पांच साल बाद तख़्त पलटता है। ख़ास बात ये है कि आम तौर पर विधानसभा चुनाव में एंटी इंकम्बैंसी भी दिखती है। पर इस बार राजस्थान का मतदाता मोटे तौर पर शांत है। न खुले तौर पर एंटी इंकम्बैंसी दिख रही है और न प्रो इंकम्बैंसी। माहिर मान रहे है कि राजस्थान में कोई लहर नहीं है, ऐसे में सटीक टिकट आवंटन और न्यूनतम अंतर्कलह ही सत्ता की राह प्रशस्त करेंगे। राजस्थान का रण वो जीतेगा जिसकी रणनीति इक्कीस होगी। इस बार राजस्थान में सत्ता का ऊंट किस करवट बैठता है, ये देखना बेहद दिलचस्प होगा। 200 विधानसभा सीटों वाले राजस्थान में यहाँ के मौसम की तरह सियासत भी हमेशा तपती है। कहते है यहाँ सियासतगरों का मिजाज भी रेगिस्तान की रेत की तरह है, बिलकुल गर्म या बिलकुल ठन्डे। ऐसे में यहाँ का सियासी मौसम कब बदल जाएँ, कहा नहीं जा सकता। ये ही कारण है कि राजस्थान में दोनों सियासी दल यानी कांग्रेस और भाजपा फूंक फूंक कर कदम बढ़ा रहे है। भाजपा ने अब तक सिर्फ 41 सीटों पर उम्मीदवार उतारे है तो कांग्रेस की सूची का अब भी इन्तजार है। भाजपा की पहली लिस्ट पर निगाह डाले तो इसमें सात सांसद है, वसुंधरा समर्थकों के टिकट कटे है। नाराजगी खुलकर सामने आ रही है और कई सीटों पर बगावत की स्थिति बनी हुई है। इसके बाद पार्टी डैमेज कण्ट्रोल में लगी है। अब भी 159 प्रत्याशियों का ऐलान होना है और जाहिर है पार्टी सारे गुणा भाग लगा आगे कदम बढ़ा रही है। माना जा रहा है कि अभी कई सांसदों को और टिकट मिलने है। पर सारा अटेंशन है वसुंधरा राजे पर। वसुंधरा शांत है, अपने सियासी अंदाज से बिलकुल विपरीत। अभी 159 उम्मीदवारों का ऐलान बाकी है और वसुंधरा के गढ़ यानी झालावाड़ क्षेत्र में भी भाजपा ने प्रत्याशियों का ऐलान नहीं किया है। जानकार मान रहे है कि वसुंधरा भी इसलिए खामोश है। अगर वसुंधरा कैंप को तवज्जो नहीं मिलती है तो आगे बहुत उठापठक संभव है। बताया जा रहा है कि वसुंधरा समर्थक हर स्थिति परिस्तिथि के लिए तैयार है और महारानी के इशारे का इन्तजार है। हालांकि जानकार मान रहे है कि भाजपा कि अगली लिस्टों में संतुलन दिखेगा और वसुंधरा को तवज्जो भी। भाजपा के लिए वसुंधरा क्यों जरूरी है, आपको ये भी बताते है। राजस्थान में करीब 14 फीसदी राजपूत वोट है और उनका 60 सीटों पर सीधा असर है। जयपुर, जालोर, जैसलमेर, बाड़मेर, कोटा, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, अजमेर, नागौर, जोधपुर, राजसमंद, पाली ,बीकानेर और भीलवाड़ा जिलों में राजपूत वोटों की नाराजगी किसी भी पार्टी के लिए भारी पड़ सकती है। वसुंधरा बड़ा राजपूत चेहरा है। हालांकि माहिर मान रहे है कि भाजपा दिया कुमारी और गजेंद्र सिंह शेखावत में उनकी काट तलाश रही है। किन्तु वसुंधरा राजे का अपना कद है और निसंदेह राजस्थान में भाजपा के पास कोई ऐसा नेता नहीं दिखता जिसकी जमीनी पकड़ वसुंधरा जैसी हो। महिला मतदाताओं में भी वसुंधरा राजे खासी लोकप्रिय है। बहरहाल जैसे जैसे उम्मीदवारों की घोषणा होगी वैसे वैसे अभी समीकरण बनने बिगड़ने है। पर असल सवाल ये ही है कि क्या भाजपा बगैर चेहरा घोषित करे राजस्थान चुनाव में आगे बढ़ेगी या चुनाव नजदीक आते आते महारानी पार्टी के लिए अनिवार्य हो जाएगी ? अब बात करते है कांग्रेस की। राजस्थान कांग्रेस का पिछले पांच साल सियासी घटनाक्रम बेहद किसी सस्पेंस थ्रिलर से कम नहीं रहा है। कभी गहलोत के को-पायलट रहे सचिन पायलट ने अपनी ही सरकार क घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पर चुनाव से ठीक पहले पार्टी आलाकमान दोनों नेताओं के बीच की अदावत को थामने में कामयाब रहा। गहलोत के शब्दों में अब सचिन पायलट खुद आलाकमान है, यानी CWC सदस्य। इशारा साफ़ है कि राजस्थान में गहलोत ही है, और पायलट का डिपार्चर हो चूका है, पर कौन कितना मौजूद है इसका पता प्रत्याशियों के ऐलान के बाद ही लगेगा। टिकट आवंटन में किसकी कितनी चलती है और कौन अपने नाराज समर्थकों को अनुशासन में रख पाता है, ये ही राजस्थान में कांग्रेस की संभावनाएं तय करेगा। राजस्थान में कांग्रेस प्रत्याशियों की पहली सूची कभी भी जारी हो सकती है। बताया जा रहा है कि स्क्रीनिंग कमेटी ने दो सौ में से 90 सीटों पर दो-दो संभावित प्रत्याशियों के नामों की सूची तैयार कर ली है। अधिकांश वर्तमान विधायकों को फिर से चुनावी मैदान में उतारा जाएगा। इसके अलावा गहलोत सरकार को समर्थन देने वाले 13 निर्दलीय विधायकों में से आठ से दस को टिकट मिल सकता है। ये सभी गहलोत समर्थक है। इसी तरह बसपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने वाले तीन विधायकों को टिकट दिया जाना तय मान जा रहा है। साथ ही राष्ट्रीय लोकदल के साथ भरतपुर सीट पर फिर गठबंधन हो सकता है। पिछले चुनाव में भी कांग्रेस ने गठबंधन के तहत राष्ट्रीय लोकदल के प्रत्याशी सुभाष गर्ग के लिए भरतपुर सीट छोड़ी थी। चुनाव जीतने पर गर्ग को गहलोत सरकार में राज्यमंत्री बनाया गया था। इस बार भी गर्ग के लिए ये सीट छोड़ी जा सकती है। बहरहाल जानकार मान रहे है कि कांग्रेस की पहली सूची के बाद काफी कुछ स्पष्ट होगा। भाजपा की तरह क्या कांग्रेस में भी बवाल होता है या पार्टी सबको साधने में कामयाब होती है, ये देखना रोचक होगा। वहीँ अब तक कमोबेश शांत दिख रहे सचिन पायलट पर भी निगाहें रहने वाली है ।
दस में से आठ मौकों पर भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्षों ने लड़ा है चुनाव हिमाचल की सभी सीटों पर पड़ेगा फर्क नड्डा बड़ा नाम; मंडी, हमीरपुर, कांगड़ा सभी विकल्प भाजपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष के खुद लोकसभा चुनाव लड़ने का रिवाज पुराना है। 1984 में अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर 2019 में अमित शाह तक अगर एकाध मौकों को छोड़ दिया जाएँ तो पार्टी के सभी अध्यक्ष अपने कार्यकाल में खुद लोकसभा चुनाव लड़े है। 1999 में कुशाभाऊ ठाकरे और 2004 के लोकसभा चुनाव में वैंकया नायडू ही अपवाद है। अब मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा भी क्या चुनाव लड़ेंगे या अपवादों की फेहरिस्त में शामिल होंगे, इस पर सबकी निगाह है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा क्या लोकसभा चुनाव लड़ेंगे और लड़े तो सीट कौन सी होगी, ये देखना रोचक होगा। जगत प्रकाश नड्डा के सियासी कद को लेकर कोई सवाल नहीं है और उनके लिए मैदान खुला है। हिमाचल प्रदेश की सियासत को नड्डा बखूबी समझते है और लाजमी है कि प्रदेश की ही एक सीट से मैदान में हो। वर्तमान में नड्डा राज्यसभा सांसद है और उनका कार्यकाल आगामी अप्रैल में पूरा होगा। लगभग इसी दौरान लोकसभा चुनाव है और संभव है नड्डा खुद मैदान में हो। हिमाचल प्रदेश में चार लोकसभा सीटें है और इनमे से सिर्फ शिमला सीट ही आरक्षित है। यानी तीन सीटें ऐसी है जहाँ से नड्डा चुनाव लड़ सकते है। मंडी से पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह सांसद है और भाजपा को दमदार चेहरा चाहिए। अगर जयराम ठाकुर को भाजपा प्रदेश की राजनीति में ही रखती है तो खुद नड्डा एक विकल्प है। हमीरपुर से निसंदेह अनुराग ठाकुर के रूप में भाजपा के पास मजबूत चेहरा है लेकिन ये सम्भावना भी है कि नड्डा हमीरपुर से लड़े और अनुराग को कांगड़ा से चुनाव लड़वा दिया जाएँ। या हमीरपुर में कोई प्रयोग न कर खुद नड्डा ही कांगड़ा से ताल ठोक दें। बहरहाल विकल्प कई है, लेकिन सवाल ये है कि क्या नड्डा लोकसभा चुनाव लड़ेंगे ? माहिर मानते है कि अगर नड्डा को पार्टी मैदान में उतारती है तो हिमाचल प्रदेश की सभी सीटों पर इसका प्रभाव पड़ेगा। मोदी सरकार पार्ट 3 के लिए एक एक सीट अहम है और ऐसे में संभवतः खुद नड्डा हिमाचल में फ्रंट से लीड करते दिखे। हिमाचल में भाजपा 2021 के चार उपचुनाव हारने के बाद 2022 में सत्ता भी गवां चुकी है। ऐसे में राजनैतिक विशेष्ज्ञ मानते है कि खुद नड्डा अब अपने गृह प्रदेश हिमाचल से मैदान में उतरकर कमान संभाल सकते है। बहरहाल ये तो सियासी अटकलें है और अंतिम निर्णय आलाकमान या यूँ कहे खुद नड्डा को लेना है। पल पल बदलते सियासी समीकरणों के बीच सियासत क्या मोड़ लेती है ये देखना रोचक होगा। भाजपा में इत्तेफ़ाक़ कुछ ऐसा भी है कि पार्टी के सत्ता में आने पर राष्ट्रीय अध्यक्ष को गृह मंत्री बनाया जाता है, बशर्ते राष्ट्रीय अध्यक्ष लोकसभा पहुंचे। लाल कृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह और अमित शाह, तीनों राष्ट्रीय अध्यक्ष लोकसभा पहुंचे और देश के गृह मंत्री बने। अब नड्डा पर निगाह है, दमदार केंद्रीय मंत्री तो नड्डा रह चुके है क्या गृह मंत्री बन जायेंगे ? एक फेहरिस्त में एक अपवाद भी है, कुशाभाऊ ठाकरे जो 1999 के लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी के अध्यक्ष थे। ठाकरे ने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा था, तब पार्टी सत्ता में आई, लेकिन ठाकरे को सरकार में एंट्री नहीं मिली।
**तो देश भर में होगी सरदारपुरा सीट की चर्चा ! **गहलोत बोले , वसुंधरा लड़ी तो हमारा सौभाग्य जोधपुर की सरदारपुरा से गहलोत के सामने कौन चुनाव लड़ेगा, ये राजस्थान में बड़ी चर्चा का विषय है। 25 साल से इस सीट पर अशोक गहलोत जीतते आ रहे है और फिर यहीं से मैदान में होंगे। क्या भाजपा उनके सामने केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को मैदान में उतारेगी ये देखना रोचक होगा। वहीँ चर्चा में नाम वसुंधरा राजे का भी है। जाहिर है अगर गहलोत के सामने कोई बड़ा चेहरा उतार कर उन्हें अपने क्षेत्र में सिमित रखा जा सके तो भाजपा को लाभ हो सकता है।अशोक गहलोत राजस्थान में कांग्रेस का सबसे बड़ा और लोकप्रिय चेहरा है। गहलोत वो नेता है जो भीड़ भी जुटाते है और अपने अलग अंदाज में विरोधियों का जमकर घेरते भी है। ऐसे में अगर गहलोत को उनके घर में गहरा जा सका तो भाजपा के लिए बेहतर हो सकता है। वहीँ इस बारे में बीते दिनों अशोक गहलोत का एक बयान भी चर्चा में है। गहलोत ने कहा की गजेंद्र शेखावत उनके सामने लड़ेंगे या नहीं, ये भाजपा का अंदरूनी मामला है। पर वसुंधरा के विषय में उन्होंने कहा की ये सौभाग्य की बात होगी। ऐसा होता है तो राजस्थान की चर्चा पुरे देश में होगी। जोधपुर के सरदारपुरा क्षेत्र में मेहरानगढ़ और मंडोर होने से पर्यटन की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण क्षेत्र है। वहीं जातीय समीकरण की बात करें तो सरदारपुरा क्षेत्र में राजपूत और जाट, अल्पसंख्यक और ओबीसी वर्ग के लोग निर्णायक भूमिका निभाते हैं। जाट और माली ओबीसी वर्ग के वोट भी काफी संख्या में हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी माली समाज से आते हैं। वोट प्रतिशत की बात करें तो पिछले चुनावों 2018 में 64 प्रतिशत वोट कांग्रेस के पक्ष में रहे थे। अब देखना यह होगा कि क्या भाजपा अशोक गहलोत का विजय रथ रोक पाती है या गहलोत लगातार छठा चुनाव जीतते हैं।
कांगड़ा में कैंडिडेट बदल कर जीतती आ रही है भाजपा क्या टूटेगा चेहरा बदलने का पैटर्न ? 2019 में रिकॉर्ड मार्जिन से जीते थे किशन कपूर 2009 में राजन सुशांत, 2014 में शांता कुमार, 2019 में किशन कपूर, अब 2024 में कौन ? कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से भाजपा ने बीते तीन चुनावो में हर बार चेहरा बदला है और जीती भी है। ये परिस्तिथि है या रणनीति, पर भाजपा को इसका लाभ हुआ है। परिस्थिति हम इसलिए कह रहे है क्यूंकि 2019 में शांता कुमार ने खुद चुनाव लड़ने से इंकार किया था। बहरहाल परिस्थिति हो या रणनीति, भाजपा के चेहरे बदलने की चाल में कांग्रेस हमेशा उलझ कर रह जाती है। अब सवाल ये है कि क्या इस बार भी भाजपा चेहरा बदलने की रणनीति पर आगे बढ़ेगी या मौजूदा सांसद पर ही भरोसा जतायेगी। काँगड़ा संसदीय क्षेत्र में यूँ तो कई बड़े फैक्टर है, लेकिन भाजपा के लिहाज़ से यहाँ चेहरे बदलते ही सियासी समीकरण बदल जाते है। 2009 में भाजपा ने काँगड़ा लोकसभा सीट पर डॉ राजन सुशांत को मैदान में उतारा था। तब डॉ साहब भाजपा में ही शामिल थे और 20 हज़ार के अधिक मार्जिन से जीतने में सफल रहे थे। अगली दफा 2014 में भाजपा ने लोकसभा प्रत्याशी का चेहरा ही बदल दिया और मैदान उतारा शांता कुमार को। शांता कुमार तब डेढ़ लाख से अधिक के मार्जिन से जीते। फिर 2019 का लोकसभा चुनाव आया और भाजपा ने मैदान में किशन कपूर को उतारा। 2009 और 2014 की तरह ही 2019 में भी भाजपा को ही कामयाबी मिली। तब रिकॉर्ड मार्जिन 4,77,623 मतों के साथ किशन कपूर जीत गए। अब आगामी लोकसभा चुनाव में क्या भाजपा फिर नए चेहरे पर दांव खेलेगी या किशन कपूर ही मैदान में होंगे, ये अभी कहना मुश्किल है। बहरहाल दावेदारों की फेहरिस्त लम्बी है, किसी के पक्ष में जातीय समीकरण फिट है तो कोई आलकमान की निगाह में हिट है। किसी का सियासी बहीखाता मजबूत है तो कोई क्षेत्रीय लिहाज से मुफीद। वहीँ एक सम्भावना ये भी है कि यहाँ से कोई बड़ा चेहरा मैदान में हो।
*लोकसभा चुनाव में किसका साथ देंगे निर्दलीय ? *विधानसभा चुनाव में 'कमल' और 'हाथ' दोनों पर पड़े थे भारी 2019 में नालागढ़ से भाजपा को मिली थी रिकॉर्ड बढ़त होशियारी से कदम बढ़ा रहे होशियार सिंह आशीष को मिल रहा सरकार का आशीष ! लोकसभा चुनाव की बिसात, यहाँ कौन किसके साथ ...होशियार सिंह, केएल ठाकुर और आशीष शर्मा...ये वो तीन नाम है जो विधानसभा चुनाव में 'कमल' और 'हाथ' दोनों पर भारी पड़े थे। तीनों की अपनी मजबूत सियासी जमीन और तीनों ही 'इन डिमांड'। जाहिर है 2024 के लोकसभा चुनाव में इन तीनों की जरूरत भाजपा को भी होगी और कांग्रेस को भी। प्रदेश में सत्ता ही नहीं राजनैतिक समीकरण भी तेजी से बदले है और ऐसे में ये तीनों हाथ थामते है या कमल को मजबूत करते है, ये देखना रोचक होगा। बात 2019 से शुरू करते है। हिमाचल में चार संसदीय क्षेत्र है और हर संसदीय क्षेत्र के तहत 17 विधानसभा क्षेत्र आते है। इन सभी 68 विधानसभा हलकों में तब भाजपा को लीड मिली थी और प्रदेश में सबसे ज्यादा लीड मिली थी शिमला संसदीय क्षेत्र में आने वाले नालागढ़ से और मार्जिन था 39970 वोट का। नालागढ़ में पार्टी का चेहरा थे केएल ठाकुर। हालाँकि भाजपा से सियासी भूल हुई और केएल ठाकुर को विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार नहीं बनाया गया। ठाकुर निर्दलीय विधानसभा चुनाव लड़े भी और जीते भी और जीत का अंतर रहा 13264 वोट। आंकड़े बताते है कि केएल ठाकुर किस कदर दोनों सियासी दलों के लिए जरूरी है। दूसरा निर्दलीय चेहरा है देहरा विधायक होशियार सिंह। देहरा हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में आता है। होशियार सिंह लगातार दो बार निर्दलीय जीतकर साबित कर चुके है कि उन्हें पार्टी सिंबल से ख़ास फर्क नहीं पड़ता। हालांकि जयराम राज में उनका झुकाव भाजपा की तरफ था। अक्सर मंच से जयराम ठाकुर की शाम में कसीदे भी पढ़ते थे। फिर जयराम इन्हे भाजपा में ले गए लेकिन टिकट न दिलवा सके। होशियार फिर निर्दलीय लड़े और जीते भी। त्रिकोणीय मुकाबले में अंतर रहा 3877 वोट का। 2019 में होशियार सिंह का झुकाव भाजपा की तरफ था और देहरा में भाजपा की लीड मिली 26665 वोट की। इसी हमीरपुर संसदीय क्षेत्र की हमीरपुर सीट से इस बार निर्दलीय चुनाव जीते है आशीष शर्मा। कहते है कभी भाजपा की तरफ झुकाव था, फिर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का टिकट ले आएं और फिर लौटा भी दिया। आखिरकार निर्दलीय लड़े और 12899 के बड़े अंतर से जीतकर अपना लोहा मनवा लिया। यानी हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के 17 निर्वाचन हलकों में दो निर्दलीय विधायक है और दोनों दमदार। जाहिर है ये दोनों गेम चंगेर सिद्ध हो सकते है। ये तो बात हुई तीनों निर्दलीय विधायकों की सियासी ताकत की जिसका अहसास कांग्रेस और भाजपा दोनों को होना लाजमी है। बहरहाल असल सवाल ये है कि ये निर्दलीय लोकसभा चुनाव में किसका साथ देंगे ? क्या प्रदेश में कांग्रेस सरकार होने के चलते ये कांग्रेस के पक्ष में काम करेंगे या भाजपा से पुराना नाता इन्हें उस तरफ ले जायेगा। खबर दरअसल ये ही है। केएल ठाकुर अब तक अपने पत्ते नहीं खोल रहे है। पर माहिर मानते है की कमान यदि कुछ विशेष चेहरों के हाथ में रही तो ठाकुर के तेवर भाजपा के लिए तल्ख़ ही रहने वाले है। उधर केएल ठाकुर अक्सर सीएम सुक्खू का साथ देने की बात करते रहे है। ठाकुर कहते है की क्षेत्र के विकास को सरकार का साथ जरूरी है। बात कांग्रेस की करें तो नालागढ़ में दो चुनाव हार चुके हरदीप बावा हिमाचल कांग्रेस के एक गुट के करीबी भी है। ऐसे में यहाँ कांग्रेस में भी अभी सियासी पैंतरेबाजी देखने को मिल सकती है। संभव है कि ठाकुर का ऐतिबार सीएम सुक्खू पर बरकार रहे और लोकसभा में भी वे कांग्रेस के रंग में दिखे। ऐसा होता है तो आगे कांग्रेस के भीतर भी बहुत कुछ होना तय मानिये ! वहीँ होशियार सिंह खुलकर कई बार अनुराग ठाकुर के खिलाफ बोलते रहे है। ऐसे में होशियार क्या लोकसभा चुनाव में भाजपा का साथ देंगे, ये बड़ा सवाल है। होशियार का तालमेल सीएम सुक्खू के साथ भी बेहतर दिखता है और मुमकिन है कांग्रेस उन्हें साधने में कामयाब हो। हालांकि होशियार होशियारी से कदम बढ़ा रहे है फिलवक्त उनका कहना है कि न कांग्रेस और न भाजपा, नोटा जिंदाबाद। आगे स्थिति - परिस्थिति अनुसार फैसला लेंगे और समर्थक जो कहेंगे वो ही होगा। हमीरपुर विधायक आशीष शर्मा की बात करें तो आशीष पर प्रदेश सरकार का आशीष बना हुआ दिख रहा है। माहिर मानते है कि भाजपा में कोई बड़ा सियासी उलटफेर नहीं हुआ तो आशीष कांग्रेस का साथ दे सकते है। सीएम सुक्खू भी हमीरपुर जिला से है और जाहिर है उन्हें भी इल्म है कि आशीष लोकसभा चुनाव में मददगार सिद्ध हो सकते है। ऐसे में आशीष को साधने में वे भी संभवतः कोई कसर न रखे। हालांकि आशीष ने भी अभी पत्ते नहीं खोले है, लेकिन कांग्रेस की तरफ उनका कुछ झुकाव ज़रूर नज़र आता है। अब ये तीनों इन डिमांड नेता किसके साथ जाते है ये तो आने वाला वक़्त ही तय करेगा, फ़िलहाल तो वेट एंड वॉच की स्थिति बनी हुई है।
**हमीरपुर लोकसभा सीट पर आखिरी बार 1996 में जीती थी कांग्रेस **2024 में क्या थमेगा पराजय का सिलसिला ? **सीएम और डिप्टी सीएम दोनों हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से **धूमल परिवार का गढ़ है हमीरपुर **भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का क्षेत्र चेहरे बदले, समीकरण बदले, सियासी फिजा बदली और सत्ता भी बदलती रही। पर जो बीते आठ चुनाव में नहीं बदला वो है हमीरपुर लोकसभा सीट पर कांग्रेस की हार का सिलसिला। 1996 में हमीरपुर लोकसभा सीट पर आखिरी बार कांग्रेस ने विजयश्री देखी थी और तब से कांग्रेस एक अदद जीत के लिए तरस रही है। 1996 के बाद से इस सीट पर दो उपचुनाव सहित आठ चुनाव हुए है और आठों मर्तबा कांग्रेस ने शिकस्त झेली है। ये प्रदेश की इकलौती ऐसी सीट है जिस पर अर्से से कांग्रेस हारती आ रही है। पराजय का ये सिलसिला क्या 2024 में थमेगा, फिलहाल ये कहना मुश्किल है। सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू भी हमीरपुर से है और डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री भी इसी संसदीय क्षेत्र से ताल्लुख रखते है। पहली बार कांग्रेस में शिमला संसदीय क्षेत्र के बाहर से मुख्यमंत्री बना है और वो भी हमीरपुर से जो लम्बे वक्त से कांग्रेस की कमजोरी साबित हुआ है। जाहिर है ऐसे में इस बार कांग्रेस का जोश हाई होगा। साथ ही दांव पर होगी दो बड़े दिग्गजों की प्रतिष्ठता - सीएम और डिप्टी सीएम। इस बीच लोकसभा चनाव से पहले इसी संसदीय क्षेत्र को एक मंत्री पद और मिलना भी लगभय तय है। सो कांग्रेसी खेमे में 'दम कम' नहीं बल्कि इस बार 'दमखम' होगा। ये तो बात हुई कांग्रेस के सियासी वजन की। अब निगाह डालते है भाजपा के पलड़े पर। मौजूदा सांसद अनुराग ठाकुर केंद्रीय मंत्री भी है और वो भी वजनदार। अनुराग यहाँ से चौथी बार सांसद है और भाजपा उनके लिए कोई और अहम् भूमिका तय नहीं करती है तो वे पांचवी बार मैदान में होंगे। अनुराग के पिता और दो बार के सीएम प्रो प्रेम कुमार धूमल भी इस सीट से तीन बार सांसद रहे है। यानी धूमल परिवार ने यहाँ सात लोकसभा चुनाव जीते है और अनुराग ठाकुर अब तक अपराजित है। इसके अलावा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा भी इसी संसदीय क्षेत्र से ताल्लुख रखते है। नड्डा राज्य सभा सांसद है और मोदी सरकार पार्टी एक में केंद्रीय मंत्री थे। वहीँ राज्य सभा सांसद सिकंदर कुमार भी इसी संसदीय क्षेत्र से है। यानी वर्तमान में यहाँ से भाजपा के तीन सांसद है। विधानसभा चुनाव 2022 में भाजपा को हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में झटका लगा था और पार्टी क्षेत्र के तहत आने वाली 17 में से महज पांच पर जीत सकी थी। पर इसे पूरी तरह शक्ति परीक्षण का पैमाना बनाना गलत होगा। विधानसभा चुनाव राज्य के मुद्दों पर लड़े जाते है और लोकसभा में मुद्दे भी अलग होंगे और चेहरे भी। बहरहाल बात कांग्रेस की करते है। लाजमी है सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू और उप मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री दोनों पर भाजपा के इस अभेद किले को फ़तेह करने का दबाव जरूर होगा। पर हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में काफी कुछ पार्टी के कैंडिडेट पर भी निर्भर करेगा। कांग्रेस किसे मैदान में उतारती है इस पर भी सबकी निगाहें टिकी हुई है। 2014 के चुनाव में राजेंद्र राणा यहां से चुनाव हारे है तो 2019 में राम लाल ठाकुर की हार हुई। अब ये हार का सिलसिला बदलने को पार्टी किस पर भरोसा करेगी, ये देखना रोचक है। यहाँ से तीन चुनाव हार चुके रामलाल ठाकुर को पार्टी फिर टिकट दे ये थोड़ा मुश्किल लगता है। वहीँ 2014 में अनुराग ठाकुर को टक्कर देने वाले राजेंद्र राणा एक मजबूत विकल्प तो है लेकिन राणा संभवतः कैबिनेट में एंट्री चाहते हो। निसंदेह राणा मजबूती से चुनाव लड़ने में सक्षम है। एक उड़ती उड़ती चर्चा डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री के नाम की भी है लेकिन इसके लिए मुकेश की रज़ा होना भी जरूरी है। स्वाभाविक है कि डिप्टी सीएम का ओहदा छोड़कर मुकेश केंद्र का रुख न करें। बाकी सियासत में कब समीकरण, स्थिति - परिस्तिथि बदल जाएँ कुछ कहा नहीं जा सकता
**ज्योतिरादित्य सिंधिया के शिवपुरी से चुनाव लड़ने की अटकलें तेज ** कई सीटों पर सिंधिया परिवार का सीधा प्रभाव मध्यप्रदेश में सत्ता बचाने के लिए बीजेपी निर्णायक लड़ाई लड़ रही है। बीजेपी के इस मिशन में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बड़ी भूमिका हो सकती है। मुमकिन है बीजेपी सिंधिया को शिवपुरी या बमोरी से चुनाव भी लड़वा दें। अब तक सात सांसदों को टिकट दिया जा चूका है और इस फेहरिस्त में सिंधियाँ का नाम भी शामिल हो सकता है। दरअसल शिवराज सिंह चौहान सरकार में मंत्री और ज्योतिरादित्य की बुआ यशोधरा राजे ने स्वास्थ्य कारणों से चुनाव लड़ने से इनकार किया है। इसके बाद से ही ज्योतिरादित्य सिंधिया के चुनाव लादेन की अटकलें लग रही है। मध्य प्रदेश में 100 ऐसी सीटें है, जहां किसी जमाने में सिंधिया रियासत का सीधा दखल होता था। साल 2018 में कांग्रेस सत्ता में लौटी थी तो उसकी एक बड़ी वजह सिंधिया भी थे। उन्होंने मध्यप्रदेश में चुनाव अभियान समिति का नेतृत्व किया था। अब सिंधिया भाजपा के लिए भी बड़ी ताकत सिद्ध हो सकते है। माहिर मानते है कि मध्यप्रदेश में सत्ता में कायम रखने के लिए बीजेपी को मालवा-निमाड़ में फिर ताकत बढ़ानी होगी। साथ ही ग्वालियर-चंबल संभाग पर भी पकड़ बनानी होगी। इन दोनों क्षेत्रों के साथ ही भोपाल-नर्मदापुरम संभाग के कुछ जिलों और बुंदेलखंड के कुछ जिलों में सिंधिया रियासत का प्रभाव रहा है। बताया जा रहा है कि बीजेपी के अंदरुनी आकलन में भी यह बात सामने आई हैं कि बीजेपी को सिंधिया मजबूती दे सकते हैं। युवाओं में सिंधिया का अच्छा प्रभाव है। फिलहाल ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्र में मंत्री है। अगर भाजपा उन्हें विधानसभा चुनाव के मैदान में उतारती है और पार्टी को सत्ता वापसी हुई तो माहिर मानते है कि सिंधिया सीम पद के भी प्रबल दावेदार होंगे। बहरहाल क्या होता ये तो वक्त बताएगा लेकिन फिलवक्त निगाह इसी बात पर टिकी है कि क्या सिंधिया विधानसभा चुनाव लड़ेंगे या नहीं।
* राजस्थान में किंग मेकर बनकर भी खाली हाथ रह जाती है मायावती * 2008 और 2018 में बसपा के 6 -6 विधायक जीते * जीतने के बाद सभी गहलोत के समर्थक बने और कांग्रेस में गए राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए सिर्फ बीजेपी और कांग्रेस ही नहीं बल्कि बहुजन समाज पार्टी भी पूरा जोर लगा रही है। बसपा सभी 200 सीटों पर उम्मीदवार उतार रही है और 60 सीटों पर खास फोकस है। पार्टी को उम्मीद है कि अगर भाजपा और कांग्रेस , दोनों बहुमत का जादुई आंकड़ा नहीं मिलता तो वह किंगमेकर बन सकती है। दिलचस्प बात बात ये है कि साल 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 6 सीटें हासिल की थीं पर सभी विधायक बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए थे। इसी तरह 2008 में भी पार्टी 6 सीट जीतकर किंगमेकर बनी थी लेकिन तब भी सभी कांग्रेस में शामिल हो गए थे। दोनों बार सीएम थे अशोक गहलोत और एक तरह से उनकी जादूगरी के आगे मायावती जीत कर भी खाली हाथ रही। अब सबक लेते हुए इस बार बसपा ने उम्मीदवारों का चयन यह ध्यान में रखते हुए किया है कि सभी बसपा चीफ मायावती और पार्टी के प्रति वफादार हों। माना जा रहा है कि बसपा का प्लान है कि विधायकों के टूटने की गतिविधियों से बचने के लिए पार्टी सरकारों को बाहर से समर्थन नहीं देगी बल्कि सत्ता का साझेदार बनेगी। इस बार जरूरत पड़ी तो विधायकों को मंत्री बनाया जायेगा। अब मायवती का किंगमेकर बनने का अरमान पूरा होता है या नहीं ये तो 3 दिसंबर को ही पता चलेगा।
भैरों सिंह शेखावत के बाद किसी ने नहीं किया रिपीट राजस्थान में आखिरी बार 1993 में बाबोसा यानी भैरों सिंह शेखावत ने रिपीट किया था। तब से सत्ता परिवर्तन का सियासी रिवाज जारी है। अब विधानसभा चुनाव का एलान हो चूका है और क्या 30 साल से चले आ रहे सियासी रिवाज पर गहलोत का जादू भारी पड़ेगा, ये देखना रोचक होगा। बहरहाल जादू चेलगा या नहीं इस पर से तो 3 दिसंबर को पर्दा उठेगा पर ये तय है की इस बार राजस्थान के सियासी घमासान जबरदस्त है। चुनाव से ठीक पहले प्रत्यक्ष तौर पर अशोक गहलोत और सचिन पायलट की अदावत पर भी अब लगाम लगती दिख रही है। सचिन पायलट CWC सदस्य है, अशोक गहलोत के शब्दों में कहें तो पायलट अब खुद आलाकमान है। ऐसे में गहलोत ही राजस्थान में कांग्रेस के प्राइम फेस है। हालाँकि टिकट बंटवारे के बाद ही असल तस्वीर साफ़ होगी, फिर भी काफी हद तक आलकमान स्थिति मैनेज करने में अब तक सफल दिखा है। अशोक गहलोत द्वारा OPS बहाल करने का सियासी फायदा नुकसान भी चुनाव के नतीजे तय करेंगे। OPS बहाली का ये पहला लिटमस टेस्ट है। राजस्थान में कर्मचारी वोट निर्णायक है। इसी कर्मचारी ने 2003 और 2013 में गहलोत को सत्ता से बाहर किया था। अब ये ही कर्मचारी चुप है। बहरहाल चुप्पी का मतलब तो नतीजे आने पर ही पता लगेगा। इसी तरह 22 नए ज़िले बनाकर भी गेहलोत ने बड़ा दांव चला है। इसका लाभ भी कांग्रेस को हो सकता है। गेहलोत सरकार की कई योजनाएं भी जनता के बीच लोकप्रिय जरूर है। बावजूद इसके राजस्थान का सियासी मिजाज कुछ ऐसा है कि लोग हर पांच साल में बदलाव के लिए मतदान करते आ रहे है। 2020 के सियासी घटनाक्रम के बीच अपनी सरकार बचाकर गहलोत पहले ही अपनी राजनीतिक कुशलता साबित कर चुके है। अगर गहलोत रिपीट कर पाएं तो संभवतः वर्तमान दौर में कांग्रेस का सबसे बड़ा सियासी चेहरा हो जायेंगे।
क्या बीजेपी राजस्थान में अब वसुंधरा के विकल्प के तौर पर दिया कुमारी को आगे करने जा रही है ? क्या महारानी अब भाजपा की स्कीम में फिट नहीं है ? क्या वसुंधरा के बगैर भी भाजपा सत्ता वापसी कर सकती है ? ये वो सवाल है जिनका जवाब आने वाले दिनों में मिलेगा, पर तब तक अटकलें लग रही है और लगती रहेगी। राजस्थान में भाजपा ने पहली सूचि जारी कर दी है जिसमे 41 टिकट दिए गए है। इन 41 में सात सांसद है। राज्यसभा सांसद किरोड़ीलाल मीणा, बीजेपी सांसद भगीरथ चौधरी, बीजेपी सांसद बालकनाथ, बीजेपी सांसद नरेंद्र कुमार, बीजेपी सांसद राज्यवर्धन सिंह राठौर और बीजेपी सांसद देव जी पटेल की टिकट दिया गया है। और इसी सूचि में सांतवा नाम है महारानी दिया कुमारी का। सांसद दिया कुमारी को पहली सूची में टिकट दिया गया है। विद्याधर नगर (जयपुर) से विधायक नरपत सिंह राजवी की जगह सांसद दीया कुमारी को टिकट दिया गया है। दिलचस्प बात ये है कि राजवी को वसुंधरा का करीबी माना जाता है। वे पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के दामाद भी है। इसी तरह वसुंधरा के एक और समर्थक और पूर्व मंत्री राजपाल सिंह शेखावत का टिकट भी झोटवाड़ा से काटा गया है। वसुंधरा के कई समर्थकों के टिकट काटे गए है। वहीँ भरतपुर से वसुंधरा कैंप की अनीता सिंह गुजर का टिकट काटा गया है और उन्होंने बगावत का एलान भी कर दिया है। ऐसे में भाजपा की राह मुश्किल हो सकती है। बता दें राजस्थान में करीब 14 फीसदी राजपूत वोट है और उनका 60 सीटों पर सीधा असर है। जयपुर, जालोर, जैसलमेर, बाड़मेर, कोटा, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, अजमेर, नागौर, जोधपुर, राजसमंद, पाली ,बीकानेर और भीलवाड़ा जिलों में राजपूत वोटों की नाराजगी किसी भी पार्टी के लिए भारी पड़ सकती है। वसुंधरा बड़ा राजपूत चेहरा है और इसीलिए माहिर मान रहे है की भाजपा दिया कुमारी में उनकी काट तलाश रही है। सांसद दीया कुमारी के पास महारानी गायित्रि देवी की विरासत है। बीजेपी उन्हें मैदान में आगे रख राजपूतों को संदेश देने का प्रयास कर रही है। हालांकि वसुंधरा राजे का अपना कद है और निसंदेह राजस्थान में भाजपा के पास कोई ऐसा नेता नहीं दिखता जिसकी जमीनी पकड़ वसुंधरा जैसी हो। बहरहाल भाजपा बगैर चेहरा घोषित करे राजस्थान चुनाव में आगे बढ़ रही है। हालांकि माहिर मानते है कि अगर रुझान विपरीत लगे तो पार्टी प्रचार के अंतिम समय में भी वसुंधरा को चेहरा घोषित कर सकती है।
Today ( October 2) is the death anniversary of Kumaraswami Kamaraj, who led in shaping India's political destiny. Twice he played a leading role in choosing the Prime Minister of India. After the passing away of Jawaharlal Nehru in 1964, he was the man who proposed Lal Bahadur Shastri as Prime Minister. Later when Shastri Ji passed away, it was K Kamaraj who played a vital role in choosing Indira Gandhi as Prime Minister. Kamaraj became Chief Minister of Madras in 1954. He was perhaps the first non-English-knowing Chief Minister of India. But it was during his nine years of administration that Tamilnadu became known as one of the best-administered States in India. Kamaraj Plan In 1963 K Kamaraj suggested to Jawahar Lal Nehru that senior Congress leaders should leave ministerial posts to take up organisational work. This suggestion came to be known as the 'Kamaraj Plan’. Nehru liked his proposal and the plan was later approved by the Congress Working Committee and was implemented within two months. As a result, Six Chief Ministers and six Union Ministers resigned under the plan. Kamaraj was later elected President of the Indian National Congress on October 9, 1963. Kamaraj was born in a backward area of Tamil Nadu on July 15, 1903. He was a Nadar, one of the most depressed castes of Hindu society. When he was eighteen, he responded to the call of Gandhiji for non-cooperation with the British. At twenty he was picked up by Satyamurthy, one of the leading figures of the Tamil Nadu Congress Committee, who would become Kamaraj's political guru. In April 1930, Kamaraj joined the Salt Satyagraha Movement at Vedaranyam and was sentenced to two years in jail. Kamaraj was elected President of the Tamil Nadu Congress Committee in February 1940. He held that post till 1954. He was on the Working Committee of the AICC from 1947 till the Congress split in 1969. Kamaraj was the third Chief Minister of Madras State ( Tamilnadu) from 1954–1963 and a Lok Sabha during 1952–1954 and 1969–1975. Kumaraswami Kamaraj was honored posthumously with India’s highest civilian award, the Bharat Ratna, in 1976.