**कांग्रेस का सवाल : क्या टूट गया शिमला समझौता? भारत-पाकिस्तान के बीच हुए सीज़फायर की घोषणा अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा किए जाने पर देश में सियासत तेज़ है। इस घोषणा के बाद कांग्रेस केंद्र सरकार से कई सवाल पूछ रही है। पूछा जा रहा है कि क्या अमेरिका के दबाव में सरकार ने अपनी नीति में बदलाव किया? क्या अमेरिका की मध्यस्थता की वजह से सीज़फायर हुआ? क्या केंद्र सरकार ने कश्मीर मुद्दे पर तीसरे पक्ष के दखल को स्वीकार कर लिया? क्या शिमला समझौता अब रद्द हो गया? ये सवाल कांग्रेस के बड़े नेता लगातार सरकार से पूछ रहे हैं। बीते रोज़ कांग्रेस नेता सचिन पायलट और आज पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और के.सी. वेणुगोपाल ने सवाल खड़े किए कि आखिर अमेरिका के राष्ट्रपति ने अचानक सीज़फायर की घोषणा क्यों की? क्या यह भारत सरकार की कूटनीतिक नाकामी नहीं है? कांग्रेस का कहना है कि वह देश की सेना के साथ है और उन पर गर्व महसूस कर रही है, लेकिन देश के लोगों को भी यह जानने का हक़ है कि हमने सीज़फायर में पाकिस्तान से क्या वादे लिए हैं। क्या गारंटी है कि पाकिस्तान फिर से कोई हमला नहीं करेगा? कांग्रेस दलील दे रही है कि 1971 में जब युद्ध छिड़ा, तब भी अमेरिका ने कहा था कि हम बंगाल की खाड़ी में अपना सातवां बेड़ा भेज रहे हैं। लेकिन तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिका के दबाव के बावजूद पाकिस्तान के दो टुकड़े किए। कांग्रेस का कहना है कि अगर सरकार कश्मीर मुद्दे पर तीसरे पक्ष की मध्यस्थता स्वीकार करती है, तो यह शिमला समझौते का उल्लंघन होगा। बता दें कि शिमला समझौते में यह स्पष्ट किया गया था कि भारत और पाकिस्तान किसी भी मुद्दे को, ख़ासकर कश्मीर को लेकर, तीसरे पक्ष की मध्यस्थता के बिना, केवल आपसी बातचीत और शांतिपूर्ण साधनों से सुलझाएंगे। हालाँकि ट्रम्प द्वारा सीज़फायर की घोषणा को लेकर जो ट्वीट किया गया, उसमें यह लिखा गया है कि USA द्वारा मीडिएट की गई बातचीत के बाद यह सीज़फायर हुआ है। इतना ही नहीं, इस पोस्ट के ठीक 16 घंटे बाद अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर मुद्दे का समाधान खोजने में मदद करने की पेशकश भी की। ट्रम्प ने लिखा कि भारत और पाकिस्तान — के साथ व्यापार बढ़ाऊँगा। साथ ही, मैं इस दिशा में भी काम करूँगा कि क्या "हज़ार सालों" से चले आ रहे कश्मीर मुद्दे का कोई समाधान निकाला जाए। कांग्रेस केंद्र सरकार से इस मसले पर पारदर्शिता की मांग कर रही है। मांग की जा रही है कि संसद का एक विशेष सत्र बुलाया जाए, जिसमें सभी सवालों के जवाब दिए जाएं और यह स्पष्ट किया जाए कि क्या केंद्र सरकार कश्मीर मसले पर अमेरिका के हस्तक्षेप को स्वीकार करेगी या नहीं।
**सोशल मीडिया पोस्टों से खुली नाराज़गी की परतें **डिप्टी सीएम को अध्यक्ष बनाने की चर्चा! हिमाचल की सियासत में सोशल मीडिया की 'पोस्ट पॉलिटिक्स' ने हलचल मचा दी है। कांग्रेस के भीतर नाराज़गी, घुटन और गुटबाज़ी अब दबी-छुपी नहीं रही—बल्कि फेसबुक पोस्टों के ज़रिए खुलकर सामने आ रही है। स्पष्ट कहें तो कांग्रेस की अंदरूनी बगावत का डिजिटल संस्करण पेश किया जा चुका है। नेताओं द्वारा इशारे पोस्ट किए जा रहे हैं और सियासी माहिर इन्हीं इशारों को समझते हुए कांग्रेस में सियासी उथल-पुथल की अलग-अलग कहानियां गढ़ रहे हैं। पहली पोस्ट आई उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री की ओर से। अग्निहोत्री ने सोशल मीडिया पर लिखा..., 'साजिशों का दौर, झूठ के पांव नहीं होते।' इसके चंद घंटों बाद सीएम सुखविंदर सुक्खू के मीडिया कोऑर्डिनेटर यशपाल शर्मा ने भी सोशल मीडिया पर लिखा... 'दौर-ए-साजिश तब से आम हो गया, जब से ठाकुर सुखविंदर सुक्खू के नाम से सीएम जुड़ गया।' फिर बीती रात PWD मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने अपने सोशल मीडिया पर देर शाम एक पोस्ट डाली, इसमें अग्निहोत्री का नाम लिए बगैर लिखा... 'जब आपको हराने के लिए लोग कोशिश करने के बजाय साजिश करने लगें तो समझ लीजिए आपकी काबिलियत अव्वल दर्जे की है।' विक्रमादित्य ने आगे लिखा..., 'आप वीरभद्र सिंह स्कूल ऑफ थॉट के शिष्य हैं, न कभी डरना, न किसी को बेवजह डराना'.. आखिर में 'जय श्री राम' लिखा.. विक्रमादित्य के इस पोस्ट के अलग-अलग मायने निकाले जा रहे हैं। मुकेश और विक्रमादित्य सिंह के बाद यशपाल शर्मा ने फिर से एक पोस्ट डाली, जिसमें लिखा कि 'हेडमास्टर तो बहुत थे, अब प्रिंसिपल आया है (तकलीफ स्वाभाविक)' इसके बाद राजनीति और गरमा गई है। अब इस 'पोस्ट पॉलिटिक्स' के मायने निकालने के लिए कोई सियासी पंडित होना ज़रूरी नहीं..... सियासत की ऊंची दीवारों के पीछे जो चल रहा है उससे हिमाचल का आम आदमी भी पूरी तरह वाकिफ है। सूत्रों की मानें तो मामला सिर्फ नाराज़गी तक सीमित नहीं। चर्चा है कि पार्टी का एक खेमा मुकेश अग्निहोत्री को डिप्टी सीएम पद से हटाकर प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहता है, लेकिन अग्निहोत्री इस प्रस्ताव को प्रमोशन नहीं, डिमोशन मानते हैं। बताया जा रहा है कि उन्हें सीएम द्वारा तैनात चेयरमैन और वाइस चेयरमैन की उनके विभागों में दखलअंदाज़ी भी खटक रही है। यही कारण है कि वो सचिवालय से दूरी बनाए हुए हैं। सूत्रों के अनुसार, डिप्टी सीएम की हाईकमान से भी शिकायत की गई। इस शिकायत के बाद उन्हें तीन दिन पहले दिल्ली भी तलब किया गया। तब वह प्रदेश कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल से मिलकर वापस लौटे हैं। वैसे कांग्रेस की ये उथल-पुथल कोई नई बात नहीं है। हिमाचल में कांग्रेस पिछले ढाई साल से सत्ता में है.... कांग्रेस को सत्ता तो मिली मगर सत्ता में सुकून कभी नहीं मिला...... ये सरकार शुरुआत से ही तलवार की धार पर चल रही है। कभी कोई नाराज़ हुआ, कभी कोई और। कुछ नेताओं ने पार्टी को अलविदा कह दिया, तो कुछ को मनाकर जैसे-तैसे रोक लिया गया। मगर इन सारे सियासी झंझटों में एक चेहरा हमेशा सीएम सुक्खू के साथ मज़बूती से खड़ा दिखा.... उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री। संकट की बात यही है कि अब वो शख्स, जो हर संकट की घड़ी में सरकार की ढाल बना, हर मंच पर मुख्यमंत्री के फैसलों का बचाव करता रहा... आज वही ख़ुद नाराज़ है। विक्रमादित्य सिंह की पोस्ट भी अहम सियासी संकेत है। उन्होंने अग्निहोत्री को वीरभद्र सिंह स्कूल ऑफ थॉट का शिष्य कहकर न सिर्फ उन्हें फिर से ‘होली लॉज’ खेमे से जोड़ा, बल्कि यह संदेश भी दिया कि पुराने कुनबे को दोबारा संगठित करने की कवायद शुरू हो गई है। कई जानकार इसे 'दबाव की राजनीति' का हिस्सा भी मान रहे हैं। बाकी नेताओं की नाराज़गी शायद कांग्रेस के लिए कोई बड़ी बात न रही हो मगर उपमुख्यमंत्री की नाराज़गी कांग्रेस को भारी पड़ सकती है। अब देखना ये है कि कांग्रेस हाईकमान इन इशारों को समझकर समय रहते कदम उठाता है या फिर हिमाचल की सत्ता में दरार गहराती जाती है।
हरियाणा में 12 साल से नहीं है जिला और ब्लॉक अध्यक्ष क्या हिमाचल में कांग्रेस हरियाणा की पुर्नावृति चाहती है ? वहीँ हरियाणा जहाँ सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ गजब की एंटी इंकम्बैंसी के बावजूद कांग्रेस बुरी तरह विधानसभा चुनाव हारी है। जहाँ लगातार तीन विधानसभा चुनाव पार्टी हार चुकी है और अब भी सबक लेती नहीं दिख रही। यदि ऐसा नहीं है तो हिमाचल में पार्टी हरियाणा की राह पर क्यों बढ़ती दिख रही है ? हरियाणा में लगभग 12 सालों से कांग्रेस के जिला और ब्लॉक अध्यक्षों की नियुक्ति नहीं हुई है। इस बीच देश में तीन आम और राज्य में तीन असेंबली चुनाव हो गए, कई प्रदेश कई प्रदेशाध्यक्ष व प्रभारी बदल गए, लेकिन कोई भी संगठन की नियुक्तियां नहीं करवा पाया। इसकी एक बड़ी वजह मानी जाती है कि प्रदेश के वजनदार नेताओं का होना और इन नेताओं के आपसी मतभेद। इसके चलते कभी संगठन पदाधिकारियों सर्वमान्य सूची बन ही नहीं पाई। अब हिमाचल कांग्रेस कार्यकारणी के गठन में देरी तो ये ही इशारा देती है कि कांग्रेस ने हरियाणा से कोई सबक नहीं लिया है। हिमाचल प्रदेश में 6 नवंबर से कांग्रेस संगठन भंग है। साढ़े पांच महीने में भी आलाकमान नए संगठन को हरी झंडी नहीं दे पाया है। दरअसल हिमाचल में भी कांग्रेस का मर्ज हरियाणा वाला ही है, गुटों में बंटे बड़े और वजनदार चेहरे। यहाँ भी अब तक आलाकमान फोई फैसला नहीं ले पाया। कांग्रेस के मंत्रियों सहित कई बड़े नेता सवाल उठा चुके है, आलाकमान को चेता चुके है, लेकिन अब तक नतीजा रहा है सिफर। हैरत है कि कांग्रेस में अब भी कोई जल्दबाजी नहीं दिखती, या यूँ कहे कि शायद आलाकमान इस स्थिति के आगे बेबस है। बहरहाल कारण जो भी इस स्थिति में हिमाचल कांग्रेस का आम कार्यकर्त्ता जरूर मायूस दिख रहा है। इस बीच दिलचस्प बात तो ये है बीते कुछ वक्त में कांग्रेस आलाकमान जिला अध्यक्षों को ताकतवर करने के संकेत देता रहा है। दिल्ली में बाकायदा राहुल गाँधी और खरगे सहित बड़े नेता जिला अध्यक्षों की वर्कशॉप ले चुके है। पर विडम्बना देखिये कि हरियाणा और हिमाचल जैसे राज्यों में जिला अध्यक्ष ही नहीं है।
क्या आलाकमान का फरमान भी लाएगी पाटिल ? अगर पीसीसी चीफ बदला जाना है तो और लम्बा खींच सकता है इन्तजार खबर आ रही है कि 23 अप्रैल यानी बुधवार को प्रदेश कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल शिमला आ सकती है। बताया जा रहा है कि इस दौरान वे नेशनल हेराल्ड मामले पर तो पार्टी को डिफेंड करेगी ही, लेकिन मुमकिन है उनके आगमन के साथ संगठन का इंतजार भी खत्म हो जाए। हिमाचल में कांग्रेस साढ़े पांच महीने से बगैर संगठन चल रही है। अब चर्चा है कि पाटिल कुछ ज़िलों में संगठन का ऐलान कर सकती है, जहाँ आम सहमति बन चुकी है। हालांकि इसे लेकर बड़े नेता आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं बोल रहे और ये महज कयास है। इस बीच कुछ माहिर ये भी मानते है कि जब तक पूर्ण सहमति नहीं बनती कार्यकारिणी की घोषणा नहीं होगी। ऐसे में संभव है पहले आलाकमान प्रदेश कार्यकारिणी की घोषणा करें और फिर जिला और ब्लॉक इकाइयों का गठन हो। वहीं यदि प्रदेश अध्यक्ष को बदला जाना है तो ये इन्तजार अभी और लम्बा खींच सकता है। बहरहाल प्रदेश प्रभारी बनने के बाद ये रजनी पाटिल का दूसरा दौरा होगा। इससे पहले दो मार्च को शिमला में पाटिल ने पंद्रह दिन में संगठन बनने का दावा किया था। अब डेढ़ महीने से ज्यादा बीत जाने के बाद भी कांग्रेस कोई निर्णय नहीं ले सकी है। ऐसे में पाटिल के दूसरे दौरे से फिर उम्मीदें जरूर जगी है।
अटकलें जारी, पर आसान नहीं सबसे बड़े एससी और ओबीसी चेहरे को ड्राप करना मुमकिन है तीन मंत्री ड्राप हो, कैबिनेट में दिखे चार नए चेहरे क्या अवस्थी की होगी कैबिनेट में एंट्री ? बुटेल, भवानी और संजय रतन भी कैबिनेट की कतार में बढ़ सकता है गोमा के पोर्टफोलियो का वजन क्या सुक्खू कैबिनेट से 80 पार वाले नेता बाहर होंगे, इसे लेकर अटकलों का बाजार गर्म है। दरअसल सरकार बने करीब 28 महीने बीत जाने के बाद भी कैबिनेट में एक स्थान खाली है। इस बीच चर्चा है कि अब विस्तार के साथ -साथ कैबिनेट में फेरबदल भी होगा। कुछ मंत्री ड्राप हो सकते है और नए चेहरों की एंट्री होगी। साथ ही मौजूदा कुछ मंत्रियों के पोर्टफोलियो भी बदले जा सकते है। बीते दिनों गुजरात में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में पार्टी ने नए और युवा चेहरों को तरजीह दी है। इसके बाद से ही कयास है कि हिमाचल कैबिनेट में भी इसका असर दिखेगा। 80 पार कर चुके दो मंत्री, कर्नल धनीराम शांडिल और चौधरी चंद्र कुमार को कैबिनेट से ड्राप कर नए चेहरों को जगह दी जा सकती है। हालांकि ये मजह कयास है, लेकिन इस सम्भावना को माहिर ख़ारिज नहीं कर रहे। साथ ही चर्चा है कि क्षेत्रीय संतुलन सुनिश्चित करने के लिए जिला शिमला से एक मंत्री भी ड्राप हो सकते है। ऐसे में कैबिनेट में कुल चार नए चेहरे दिख सकते है, जिनमें मुख्य तौर पर शिमला संसदीय हलके से संजय अवस्थी, मंडी संसदीय क्षेत्र से सूंदर सिंह ठाकुर या अनुराधा राणा और कांगड़ा संसदीय हलके से आशीष बुटेल, संजय रतन और भवानी पठानिया के नामों की चर्चा है। बात अस्सी पार कर चुके दोनों मंत्रियों की करें तो कर्नल धनीराम शांडिल एससी समुदाय से आते है और और हिमाचल कांग्रेस का सबसे बड़ा एससी चेहरा है। साथ ही दस जनपथ का हाथ भी उनके सर पर है। ऐसे में उन्हें ड्राप करना आसान नहीं होगा। इसी तरह चौधरी चंद्र कुमार सबसे बड़ा ओबीसी चेहरा है। हालाँकि कई मुद्दों पर उनका मुखर होना और पुत्र नीरज भारती की सरेआम नाराजगी के बाद कुछ भी मुमकिन है। बहरहाल ये महज कयास है, और सियासत में कुछ भी मुमकिन है। इस बीच चर्चा ये भी है की कुछ मंत्रियों के पोर्टफोलियो बदले जा सकते है। विशेषकर एससी समुदाय से आने वाले दूसरे मंत्री है यादविंद्र गोमा के पास कोई वजनदार महकमा नहीं है। माहिर मान रहे है कि कैबिनेट विस्तार के बाद गोमा के पोर्टफोलियो का वजन बढ़ सकता है।
पांगी - हिमाचल की सबसे खतरनाक सड़क से जुड़ा गांव **सड़क, बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा - यहाँ हर व्यवस्था बेहाल **आरोप : HRTC बस ड्राइवर करते है मनमर्ज़ी, डिपू से नहीं मिलता पूरा राशन **सड़क बंद हो तो कंधे पर उठा कर ले जाते है मरीज़ **मुख्यमंत्री के दौरे के बाद जगी उम्मीद
या कुछ और मसला, चर्चाओं का बाजार गर्म 1 घंटे तक गुलमोहर में दोनों नेताओं में हुई बंद कमरे में वार्ता आखिर क्यों निजी हेलीकॉप्टर लेकर मुकेश के पास पहुंचे अनिरुद्ध सिंह, अहम सवाल हिमाचल प्रदेश की राजनीति में लगातार ऐसे घटनाक्रम हो रहे हैं जो चर्चाओं के बाजार को गर्म करते हैं ।वीरवार को ऊना में ऐसा ही राजनीतिक घटनाक्रम हुआ जिसकी और बरबस सबका ध्यान गया। राजनीतिक रूप से इस घटनाक्रम को कई नजरिए से देखा जा रहा है। हिमाचल प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री जब ऊना में सोनिया गांधी व राहुल गांधी के समर्थन में हो रही रैली को संबोधित कर रहे थे, तब इस समय निजी हेलीकॉप्टर में विशेष रूप से ग्रामीण विकास मंत्री अनिरुद्ध सिंह ऊना पहुंचे। क्या मुख्यमंत्री के संदेश वाहक या दूत बनकर आये थे अनिरुद्ध, या कोई और अहम मसला है ? फिलहाल अटकलों का बाजार गर्म है। मंत्री अनिरुद्ध सिंह के हेलीकॉप्टर की लैंडिंग पुलिस लाइन जलेडा में करवाई गई और फिर मंत्री को होटल गुलमोहर तक लाया गया। करीब एक घंटे तक गुलमोहर में प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री व ग्रामीण विकास मंत्री अनिरुद्ध सिंह के बीच वार्तालाप हुआ। यह गुप्त वार्तालाप बंद कमरे में हुआ। दोनों नेताओं के बीच क्या बात हुई यह तो पता नहीं, लेकिन कयास इस बात को लेकर लगाए जा रहे हैं कि आखिर ऐसी क्या इमरजेंसी थी कि अनिरुद्ध सिंह को हेलीकॉप्टर में ऊना पहुंचकर उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री से मुलाकात करनी पड़ी। क्या राजनीतिक मायने इस मुलाकात के हैं ? चर्चा होना लाजमी है कि आखिर हेलीकॉप्टर में ऊना पहुंचकर ऐसी क्या जरूरी मुलाकात हुई है। दोनों नेताओं के करीबियों से जब बात की गई तो उन्होंने कहा कि ये एक सामान्य मुलाकात थी। हालांकि दोनों ही नेताओं से इस मुलाकात को लेकर कोई बात नहीं हो पाई। बहरहाल कयासों का बाजार गर्म है। माना जा रहा है कि कुछ तो कांग्रेस व सरकार की राजनीति में पक रहा है जिसके चलते यह मुलाकात हुई है और इसके परिणाम आने वाले दिनों में देखे जा सकते हैं। क्या ये सरकार व संगठन में बदलाव का संकेत है, ये सवाल बना हुआ है। (ममता भनोट )
देहरा में भाजपा के डिसिप्लिन के दावों का खूब उड़ा है मखौल, आख़िरकार जागी पार्टी न एक्शन न संवाद : ध्वाला प्रकरण में क्यों बस देखता रहा प्रदेश नेतृत्व ! लगातार उठ रहे सवालों के बाद आखिरकार जारी किया 'कारण बताओ नोटिस' ध्वाला बोले, सोच-समझकर दिया जाएगा जवाब लगातार प्रदेश भाजपा आलाकमान की आँख की किरकिरी बने पूर्व मंत्री रमेश चंद ध्वाला को आखिरकार पार्टी ने कारण बताओ नोटिस जारी किया है। 12 अप्रैल को ध्वाला अपने समर्थकों के साथ 74 वां जन्म दिवस मना रहे थे, इसी बीच उन्हें ‘कारण बताओ नोटिस’ मिला है। पार्टी उनसे कई सवालों के जवाब मांगे हैं। आपको बता दें रमेश चंद ध्वाला लगातार हिमाचल भाजपा नेतृत्व के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है। ध्वाला ने खुद को असली भाजपा घोषित किया है। इतना ही नहीं देहरा में अपनी अलग कार्यकारिणी भी बना दी। कई महीनो से ध्वाला निरंतर हमलावर है , किन्तु पार्टी ने कोई डिसिप्लिनरी एक्शन नहीं लिया। ऐसे में भाजपा के डिसिप्लिन के दावों का भी मखौल उड़ रहा था। पर अब आखिरकार पार्टी ने उन्हें कारण बताओ नोटिस तो थमा ही दिया है। इस बारे में रमेश चंद ध्वाला ने कहा की पिछले अढ़ाई साल में उन्हें कोई चिट्ठी नहीं आई, न ही किसी कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया गया। पर अब जन्म दिवस पर बधाई की जगह कारण बताओ नोटिस भेजा गया है जिसका वह सोच समझकर जवाब देंगे। आपको बता दें कि देहरा उपचुनाव में टिकट न मिलने के बाद से ही रमेश चंद ध्वाला ने पार्टी के विरुद्ध मोर्चा खोला हुआ है। आयातित नौ नेताओं को वे खुलकर नौ ग्रह बोलते रहे है और लगातार निष्ठावान कार्यकर्तों की अनदेखी के आरोप लगा रहे है। हालांकि उनके शिकवे-शिकायत पार्टी से नहीं है बल्कि हिमाचल भाजपा के शीर्ष नेताओं से है। इस बीच पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं का समर्थन भी एक किस्म से ध्वाला को मिलता दिखा है। इन सबके बीच निगाह होशियार सिंह पर भी रहने वाली है, जो निर्दलीय विधायक रहते इस्तीफा देकर भाजपा में आये। पहले होशियार सिंह को इस्तीफा देने की होशयारी महंगी पड़ी और फिर ध्वाला के लगातार हमलावर होने के बावजूद पार्टी का कोई एक्शन न लेना, बड़ा सवाल खड़े करता है। हालांकि अब कारण बताओ नोटिस जारी होने के बाद उनके समर्थकों को उम्मीद है की पार्टी खुलकर अपना स्टैंड क्लियर करेगी। हालांकि माहिर अब भी मान रहे है कि भाजपा में ध्वाला के भविष्य को लेकर अब भी कुछ कहना जल्दबाजी होगा। संभव है कि अगर प्रदेश अध्यक्ष बदला जाता है तो सुलह का रास्ता भी निकल आएं।
'दिनेश शर्मा' कौन है, पता नहीं... लेकिन हिमाचल के सियासी गलियारों में फिलहाल ट्रेंड तो यही जनाब कर रहे हैं। दरअसल, इसी नाम से खुद को शिमला संसदीय क्षेत्र से भाजपा कार्यकर्ता बताने वाले एक शख्स ने एक चिट्ठी लिखी है — सीधे प्रधानमंत्री को — और निशाना साधा है भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. राजीव बिंदल पर। इस शख्स ने बिंदल को भाजपा की भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में एक बड़ी बाधा बताया है। अब ये किसी कार्यकर्ता की भड़ास है, किसी की शरारत या बिंदल के खिलाफ कोई साज़िश... पता नहीं... लेकिन अनचाहे कारणों से बिंदल एक बार फिर चर्चा में हैं। और वो भी तब, जब भाजपा को नया प्रदेश अध्यक्ष मिलना है और बिंदल के दोबारा चुने जाने की सुगबुगाहट है। यही वजह है कि बिंदल समर्थकों को इसमें राजनीतिक साज़िश की बू आ रही है। बहरहाल, भाजपा में खलबली मची है और कांग्रेस कार्यकर्ता जमकर चुटकी ले रहे हैं। इस पत्र के सार्वजनिक होते ही विपक्ष ने भाजपा पर हमला तेज़ कर दिया। कांग्रेस नेताओं ने मीम्स बनाए और इस चिट्ठी को हथियार बनाकर सोशल मीडिया पर माहौल गरमा दिया। वहीं भाजपा अब डिफेंसिव मोड में आ गई है। पार्टी ने इस पत्र को वायरल करने वाले शख्स के खिलाफ एफआईआर की मांग करते हुए कहा है कि यह सब कुछ अध्यक्षीय चुनाव से ठीक पहले माहौल बिगाड़ने और एक वरिष्ठ नेता की गरिमा को ठेस पहुंचाने की सोची-समझी साज़िश है। वैसे बिंदल के राजनीतिक करियर की बात करें तो उन पर आरोप लगना कोई नई बात नहीं है... लेकिन आज तक कुछ साबित नहीं हुआ — अंततः वे बेदाग़ ही निकले हैं। इसके बावजूद, बीते कुछ समय में वे कांग्रेस के निशाने पर जरूर रहे हैं। मसलन, बीते शीतकालीन सत्र में जब भाजपा ने नियम 67 के तहत भ्रष्टाचार पर चर्चा की मांग की, तो कांग्रेस को बिंदल खूब याद आए। तब मुख्यमंत्री सुक्खू ने उन्हें एक काउंटर वेपन की तरह इस्तेमाल किया। बहरहाल, एक बार फिर बिंदल चर्चा में हैं — और इस बार उनकी चर्चा की टाइमिंग शायद उनके लिए मुफीद न हो। आपको बता दें कि पिछले लंबे समय से भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं कर पाई है। पार्टी ने 25 दिसंबर तक अध्यक्ष के चुनाव का दावा किया था, मगर अब अप्रैल आ चुका है और पद अब भी खाली है। इस दौरान एक के बाद एक दिल्ली दौरे, लॉबिंग, समीकरण — सब कुछ हुआ, लेकिन सहमति नहीं बन पाई। वजह? वही पुरानी — गुटबाज़ी। अब कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ही फाइनल फैसला लेंगे — यानी अध्यक्ष वही होगा जो टॉप लीडरशिप की पसंद होगा। वहीं जयराम ठाकुर भी दिल्ली दौरे पर हैं। माना जा रहा है कि अध्यक्ष पद को लेकर वो भी हाईकमान से मुलाकात कर सकते हैं। इसी सब के बीच 'दिनेश' की चिट्ठी ने भाजपा में नया क्लेश खड़ा कर दिया है!
भारतीय जनता पार्टी को राजनीति में अपने 'एक्सपेरिमेंट्स' के लिए जाना जाता है। कभी चेहरे बदलना, कभी क्षेत्रों की अदला-बदली, तो कभी नई रणनीति से पुराने समीकरणों को तोड़ने की कोशिश — पार्टी अक्सर नए फैसले लेती है। ये फैसले कभी-कभी तो मास्टरस्ट्रोक साबित होते हैं, लेकिन कभी पूरी तरह बैकफायर कर जाते हैं। हिमाचल प्रदेश, साल 2022, विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी ने कुछ ऐसा ही बड़ा प्रयोग किया था जो पार्टी को बहुत भारी पड़ा। पार्टी ने अपने चार वरिष्ठ नेताओं की सीटें बदल दीं — और उनमें से दो तो मंत्री थे। सुरेश भारद्वाज, जो शिमला शहरी से लगातार जीतते आ रहे थे, उन्हें अचानक कसुम्पटी भेजा गया। राकेश पठानिया, नूरपुर छोड़कर फतेहपुर भेज दिए गए। रमेश चंद धवला, जिनकी पहचान ज्वालामुखी से थी, उन्हें देहरा में उतारा गया। और रविंदर रवि, जिन्हें आखिरकार टिकट तो मिला, लेकिन उनकी पारंपरिक सीट नहीं — उन्हें ज्वालामुखी भेजा गया। बीजेपी का यह दांव बुरी तरह फेल हुआ। चारों नेता चुनाव हार गए।
6 बार हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय राजा वीरभद्र सिंह की प्रतिमा हिमाचल की राजधानी शिमला के रिज मैदान पर स्थापित की जाएगी। ये महज़ एक मूर्ति नहीं, बल्कि उन हज़ारों समर्थकों की भावनाओं का शिलालेख होगी, जिनके लिए ‘राजा साहब’ आज भी सत्ता से कहीं ऊपर हैं। इस प्रतिमा का इंतज़ार सिर्फ वीरभद्र सिंह परिवार ही नहीं बल्कि वीरभद्र सिंह के वो तमाम समर्थक भी कर रहे थे जिनके दिलों में पूर्व मुख्यमंत्री के लिए आज भी जगह है। यह इंतज़ार उसी दिन से शुरू हो गया था जिस दिन कांग्रेस सत्ता में लौटी थी। आपको याद होगा कि लगभग एक वर्ष पूर्व, वीरभद्र सिंह के पुत्र और कैबिनेट मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने मंत्री पद से इस्तीफ़ा देने की बात कही थी। उनका यह कदम कई वजहों से जुड़ा था, लेकिन एक मुख्य कारण यह भी था कि उनके पिता की मूर्ति को दो गज़ ज़मीन कांग्रेस सरकार नहीं दे पा रही। ख़ैर, अब बात बन गई है। वीरभद्र सिंह की प्रतिमा दौलत सिंह पार्क में, हिमाचल निर्माता डॉ. यशवंत सिंह परमार की मूर्ति के ठीक बगल में लगेगी। 23 जून को वीरभद्र जयंती पर उनकी प्रतिमा का अनावरण किया जाएगा। हालांकि ये बात अलग है कि इस प्रतिमा को लगाने में सरकार की जेब से एक धेला भी नहीं लगेगा। दरअसल, इसे बनाने का सारा खर्च वीरभद्र सिंह फाउंडेशन वहन करेगा। सरकार से कोई मदद नहीं ली जाएगी। बता दें कि हाल ही में वीरभद्र सिंह फाउंडेशन के नाम से एक नया ट्रस्ट रजिस्टर किया गया है। विक्रमादित्य सिंह को उस ट्रस्ट का अध्यक्ष बनाया गया है। काग़ज़ी कार्रवाई पूरी करने के लिए इस ट्रस्ट में फिलहाल 4 लोग शामिल हैं। मगर आने वाले समय में इसमें और लोगों को भी शामिल किया जाएगा। विक्रमादित्य का कहना है कि ये ट्रस्ट "दलगत राजनीति से ऊपर" उठकर काम करेगा — जैसा उनके पिता ने किया। ट्रस्ट का उद्देश्य है: दुर्गम इलाकों में स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार जैसी मूलभूत सेवाएं पहुँचाना। लेकिन ये राजनीति है। ज़ाहिर है अब समर्थकों की उम्मीदें सिर्फ प्रतिमा तक सीमित नहीं रहेंगी। ये फाउंडेशन राजा की विरासत को लेकर होल्लीलोज़ कैम्प में नई ऊर्जा भरने का काम कर सकती है। ख़ैर, क्या होता है और क्या नहीं, ये तो वक़्त ही बताएगा।
**मोदी -भागवत की मुलाकात के बाद बदले समीकरण **कभी भी हो सकती है पांच राज्यों के नए अध्यक्षों की घोषणा बीजेपी का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन होगा? सवाल बड़ा है, और इस सवाल के जवाब का इंतज़ार भी काफी लम्बा हो गया है। माना जा रहा था की भाजपा को जनवरी में ही राष्ट्रीय अध्यक्ष मिल जाएगा मगर अब अप्रैल आ गया है। कई राजनैतिक और सांगठिक कारणों के चलते ये विलम्भ हुआ लेकिन अब इंतज़ार की ये घड़ियां खत्म होने वाली है। संसद का बजट सत्र समाप्त होने के बाद अब चर्चा है कि बीजेपी के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष में अब और देरी नहीं होगी। अप्रैल महीने में ही भाजपा को नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिल जाएगा। गौरतलब है कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा का कार्यकाल करीब दो साल पहले ही समाप्त हो चुका है, लेकिन पार्टी ने उन्हें लगातार "कार्यकाल एक्सटेंशन योजना" के तहत बनाए रखा है। बीजेपी के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि किसी अध्यक्ष का टर्म खत्म होने के बाद इतने लंबे समय तक उत्तराधिकारी तय नहीं किया गया — और वो भी ऐसे दौर में जब पार्टी हर चुनाव को "मिशन मोड" में लड़ रही है। पार्टी का संविधान कहता है — आधे से ज़्यादा राज्यों में संगठनात्मक चुनाव होने चाहिए। फिलहाल, 13 राज्यों में संगठनात्मक चुनाव पूरे हो चुके हैं और बाकी 19 राज्यों के अध्यक्षों की घोषणा होते ही राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव होना है। माना जा रहा है की आगामी एक सप्ताह के भीतर उत्तर प्रदेश, कर्नाटका, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और हिमाचल प्रदेश में भाजपा को नए अध्यक्ष मिल जायेंगे। इसके बाद राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव का रास्ता भी साफ़ होगा। ये तो बात हुई सांगठनिक प्रक्रिया की लेकिन सत्य तो ये है की बीजेपी में नए अध्यक्ष को लेकर पार्टी और आरएसएस के बीच खींचतान भी इस देरी का बड़ा कारण रही है । दरअसल भाजपा चाहती है कि नड्डा जैसे ही किसी वरिष्ठ नेता के हाथ में कमान सौंपी जाए। वहीं, आरएसएस चाहता है कि अगला अध्यक्ष संघ की विचारधारा से चलने वाला हो। इस बीच बीती 30 मार्च को 11 साल बाद नागपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत की मुलाकात हुई है। माना जा रहा है कि दोनों नेताओं की मुलाकात के बाद नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के समीकरण भी बदल गए है। सूत्रों की माने तो संघ की रज़ा मुताबिक ही नए अध्यक्ष की ताजपोशी होगी। वहीँ अध्यक्ष के चयन में संघ, पीएम मोदी और अमित शाह के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की भी भूमिका अहम हो सकती है। 2009 से 2013 तक बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे नितिन गडकरी अभी भी संघ नेतृत्व की गुड बुक में बने हुए हैं और अध्यक्ष चुनने में वे भी अहम भूमिका में हो सकते है। अब बरी उन नामों की जो अध्यक्ष पद की रेस में है। सबसे आगे चल रहे हैं—शिवराज सिंह चौहान। लंबे अनुभव, साफ छवि और संघ के साथ सहज समीकरण के चलते उन्हें "safe bet" माना जा रहा है। उनके बाद कतार में हैं धर्मेंद्र प्रधान और मनोहर लाल खट्टर — एक संगठन के जानकार, दुसरे प्रशासनिक अनुभव वाले। वहीं दूसरे पायदान पर कुछ नाम धीरे-धीरे सुर्खियों में चढ़ रहे हैं — सुनील बंसल, जी. किशन रेड्डी, बंडी संजय कुमार, डी. पुरंदेश्वरी और वानति श्रीनिवासन जैसे नेता, जिनका ज़िक्र "संघ की wishlist" में बार-बार हो रहा है। बहरहाल सूत्रों की माने तो अब इन्तजार जल्द समाप्त होगा। आगमी चंद दिनों में चार से पांच राज्यों में बीजेपी को नए अध्यक्ष मिलेंगे। इसके बाद अप्रैल के दूसरे या तीसरे सप्ताह में नए राष्ट्रीय अध्यक्ष की ताजपोशी भी हो जाएगी।
'सम्मान की जगह कांग्रेस कार्यकर्ताओं को मिल रहे समन'......कुलदीप राठौर ने फिर सरकार को दिखाया आइना !
"मुकेश जी, हमारे कार्यकर्ताओं का भी कुछ ख्याल रखिए... इन्हें आज भी समन भेजे जा रहे हैं।" ये गुज़ारिश की है कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और मौजूदा विधायक कुलदीप सिंह राठौर ने—खुले मंच से, सबके सामने। कांग्रेस एकत्र तो खड़गे पर अनुराग ठाकुर के ब्यान की निंदा करने को लेकर हुई थी मगर इसी बहाने कांग्रेस के कार्यर्ताओं का असल दर्द भी सामने आ ही गया। वही दर्द जो कांग्रेस कार्यकर्ता पार्टी के सत्ता में आने से लेकर अब तक झेल रहे है, वही दर्द जिसका ज़िक्र प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह और अन्य वरिष्ठ नेता बार बार कर चुके है और व्ही दर्द जिससे सत्तासीन कांग्रेस नेताओं को बहुत फर्क पड़ता नहीं दीखता। ये टीस कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता और विधायक कुलदीप राठौर एक बार फिर सबके सामने ले आए। कुलदीप राठौर ने बिना लाग-लपेट कह दिया— कांग्रेस की असली ताक़त ये कार्यकर्ता हैं। सरकार बनाने में इन्हीं की मेहनत है। मगर आज भी इन्हें समन आ रहे हैं। इनकी भी सुनवाई होनी चाहिए। राठौर ने, एक तरह से, पार्टी को आईना दिखा दिया है। सत्ता में आने के बाद से ही इस सरकार पर कार्यकर्ताओं की उपेक्षा के आरोप लगते रहे हैं। एक ख़ास गुट को छोड़ दें, तो बाकी कार्यकर्ताओं में असंतोष खुलकर दिखता है। जिन्होंने विपक्ष में रहते पार्टी का झंडा उठाया, संघर्ष किया—आज वही कार्यकर्ता खुद को हाशिए पर महसूस कर रहे हैं। न बोर्ड-निगमों में एडजस्टमेंट हुए, न राजनीतिक नियुक्तियाँ मिलीं, और तो और, छोटे-छोटे काम भी नहीं हो रहे। अब तो राठौर ने खुद कह दिया—"बीजेपी राज में कार्यकर्ताओं पर जो मामले दर्ज हुए थे, वो तक वापस नहीं लिए जा रहे।" सवाल बड़ा है—जब जमीनी कार्यकर्ता ही निराश होंगे, तो संगठन कैसे मज़बूत होगा?
हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे में बड़ा बदलाव होने की चर्चा है। चर्चा है कि एक बार फिर कांग्रेस संगठन के 'सुक्खू फार्मूला' पर लौटने जा रही है। अलबत्ता संगठन की कमान प्रतिभा सिंह के हाथ में हो, लेकिन माना जा रहा है कि संगठन का ढांचा सीएम सुक्खू की मर्जी के मुताबिक बदलने जा रहा है। वर्तमान के शह-मात के खेल को समझना है तो बात अतीत से शुरू करनी होगी। तब सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री नहीं थे, हिमाचल कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे। उन्होंने तय किया कि बीजेपी की तर्ज पर कांग्रेस में संगठनात्मक जिलों की संख्या बढ़ाकर 17 कर देनी चाहिए। तब कांग्रेस की राजनीति में वीरभद्र सिंह का बोलबाला था, जो उस वक्त सीएम भी थे। वीरभद्र सिंह इसके खिलाफ थे, खासतौर पर कांगड़ा को चार हिस्सों में बांटने के। कांगड़ा का सबसे बड़ा चेहरा, यानी जी.एस. बाली भी वीरभद्र सिंह से इत्तेफाक रखते थे। लेकिन दिग्गजों की राय दरकिनार कर आलाकमान ने सुक्खू की सुनी और कांग्रेस में संगठनात्मक जिलों की संख्या बढ़ाकर 17 कर दी गई। कांगड़ा को चार जिले और मंडी व शिमला को दो-दो संगठनात्मक जिलों में बांट दिया गया। तब कांग्रेस के कई बड़े नेताओं को यह फैसला रास नहीं आया। नतीजतन, जब साल 2019 में कुलदीप राठौर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने तो फिर संगठनात्मक जिलों और ब्लॉकों की संख्या घटा दी गई। अब वक्त ने फिर करवट ली है। सुक्खू अब प्रदेश अध्यक्ष तो नहीं, मगर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। सीधे कहें तो प्रदेश कांग्रेस के सर्वेसर्वा वही दिखते हैं। ऐसे में फिर सुगबुगाहट है कि कांग्रेस संगठन के ढांचे में बदलाव होगा और एक बार फिर कांग्रेस 'सुक्खू फार्मूला' पर लौटने जा रही है। वर्तमान में, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के 13 संगठनात्मक जिले हैं, जबकि बीजेपी के 17 संगठनात्मक जिले हैं। कांग्रेस भी अब इसी तर्ज पर 17 संगठनात्मक जिले बनाना चाहती है। कांगड़ा को फिर कांगड़ा, नूरपुर, पालमपुर और देहरा जिलों में बांटा जा सकता है, जबकि मंडी में सुंदरनगर को अलग संगठनात्मक जिला बनाया जा सकता है। साथ ही, मंडलों की संख्या में भी भारी इजाफा हो सकता है। इसके पीछे मुख्य दो तर्क हैं—एक, माइक्रो मैनेजमेंट को और मजबूत करना, और दूसरा, अधिक से अधिक लोगों को पद देकर एडजस्ट करना। हालांकि इसमें सबकी सहमति नहीं दिखती। कांग्रेस के ही कुछ नेता दबे सुर में इसका विरोध भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि बीजेपी की नकल करना कांग्रेस के लिए मुफीद नहीं होगा, क्योंकि बीजेपी कैडर बेस्ड पार्टी है, उसकी कार्यप्रणाली अलग है। कांग्रेस को जिले विभाजित कर कुछ भी नहीं मिलने वाला। बहरहाल, कोई यथास्थिति बनाए रखना चाहता है और किसी को बदलाव की दरकार है। इन दोनों के बीच कुछ नेता ऐसे भी हैं, जो चाहते हैं कि जो भी हो, जल्द हो। अब क्या होगा और कब, इसका इंतजार बना हुआ है।
वही पुराने दावे और वही सुस्त चाल, हिमाचल कांग्रेस को नई प्रभारी तो मिल गई, मगर कांग्रेस की व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं दिखा। ठीक एक महीने पहले हिमाचल कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल यह दावा कर दिल्ली लौटी थीं कि 15 दिन में संगठन का गठन कर दिया जाएगा। जब दावा किया गया था, तो कार्यकर्ताओं में उम्मीद भी जगी—उम्मीद यह कि प्रदेश प्रभारी बदलने के साथ शायद सुस्त कांग्रेस में कुछ चुस्ती दिखे और तेज़ गति से संगठन का गठन हो। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हां, ज़िला अध्यक्षों की नियुक्ति को लेकर कुछ सुगबुगाहट ज़रूर हुई, लेकिन निष्कर्ष की बात करें तो वही ढ़ाक के तीन पात। अब कांग्रेस भले ही इस विलंब का कारण विधानसभा के बजट सत्र की व्यस्तता बताए या कोई और बहाना दे, लेकिन सत्य यह है कि इसी दौरान पार्टी के कई नेता आलाकमान से मिलने दिल्ली भी पहुंचे थे। वहीं, प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह तो खुद सदन का हिस्सा भी नहीं हैं। तो फिर सवाल बनता है कि आखिर संगठन के गठन में ऐसी कौन-सी उलझन है, जिसे कांग्रेस अब तक सुलझा नहीं पाई? यह सवाल अब इसलिए भी बड़ा है क्योंकि करीब चार महीने बीत चुके हैं और हिमाचल में कांग्रेस बिना संगठन के है। बीती 6 नवंबर को आलाकमान ने प्रदेश कांग्रेस की राज्य, ज़िला और ब्लॉक इकाइयां भंग कर दी थीं, तब से अकेली पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह ही पद पर बनी हुई हैं। राजीव शुक्ला के रहते संगठन के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई थी और फिर एक महीने पहले अपने दो दिन के हिमाचल दौरे में रजनी पाटिल ने कांग्रेस नेताओं के साथ बैठकें कीं। पाटिल ने नाराज़ नेताओं की शिकायतें सुनीं, वरिष्ठ नेताओं के सुझाव लिए और जल्द संगठन गठन का वादा किया। इसके बाद पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह ने अपनी लिस्ट आलाकमान को सौंपी, सीएम सुक्खू और डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री भी दिल्ली में वरिष्ठ नेताओं के साथ चर्चा करने पहुंचे, लेकिन अब तक संगठन का गठन नहीं हुआ। राजनीतिक माहिर मानते हैं कि इस विलंब का कारण कुछ और नहीं, बल्कि कांग्रेस की वही आंतरिक कलह है, जिसे ढांकने की जद्दोजहद में पार्टी अक्सर लगी रहती है। दरअसल, कांग्रेस को विभिन्न गुटों के बीच संतुलन स्थापित कर नया संगठन खड़ा करना है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू, उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री और होली लॉज—जाहिर है, तीनों ही गुट संगठन में अपने लोगों को एडजस्ट करना चाहते हैं। तीनों के लिए कम-ज्यादा की कोई गुंजाइश नहीं और यह वर्चस्व का सवाल भी है। लाजिमी है कि ऐसे में संतुलन बनाना आलाकमान के लिए सिरदर्द बना हुआ है। उधर, आलाकमान के इस लेट-लतीफ रवैये का खामियाजा निश्चित तौर पर पार्टी भुगत रही है। कार्यकर्ता दिशाहीन हैं और कई वरिष्ठ नेता भी इस देरी पर खुलकर आवाज़ उठा चुके हैं। इस बीच, बीते कल सीएम सुक्खू के दिल्ली पहुंचने के बाद फिर अटकलों का बाज़ार गर्म है। क्या अब संगठन गठन को लेकर कोई ठोस कदम उठाया जाएगा, या यह इंतज़ार और लंबा खिंचेगा? फिलहाल, सबकी नज़रें इसी पर टिकी हैं।
हिमाचल प्रदेश में जब भी कर्ज की बात होती है, तो शांता सरकार का जिक्र जरूर होता है। बेशक बतौर मुख्यमंत्री शांता कुमार अपनी दोनों पारियां पूरी न कर सके हों, लेकिन जब भी कुर्सी छोड़ी, प्रदेश की माली हालत पहले से बेहतर थी। क्या था शांता कुमार का इकॉनमी विज़न, आइए आपको बताते हैं। शांता कुमार बताते हैं कि आपातकाल के दौरान 19 महीने तक जेल में रहने के बाद, जब 1977 में वे पहली बार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तो प्रदेश पर लगभग 50 करोड़ का ओवरड्राफ्ट था। मगर जब शांता ने कुर्सी छोड़ी, तो प्रदेश कर्ज़ मुक्त हो चुका था। शांता कहते हैं कि प्रदेश को कर्ज़ मुक्त करने की शुरुआत उन्होंने खुद से की। फिजूलखर्ची कम की, अपने दफ्तर में टेबल पर रखे चार फोन में से दो कटवा दिए। प्रदेश भर के दफ्तरों में अधिकारियों के अनावश्यक टेलीफोन कटवाए। मुख्यमंत्री के साथ चलने वाला गाड़ियों का काफिला बंद करवा दिया। अफसरों को आदेश दिए गए कि मुख्यमंत्री की अगवानी करने के लिए दूसरे जिलों में डीसी और एसपी नहीं आएंगे। शनिवार और रविवार को अफसरों द्वारा सरकारी गाड़ियों का प्रयोग बंद करवाया गया। ये छोटे-छोटे खर्च कम करके, बतौर मुख्यमंत्री पहले ही साल उन्होंने 40 करोड़ बचाए। उस समय यह बड़ी राशि थी। यह पैसा बचाकर पीने के पानी पर लगाया गया। हर घर में नल पहुंचाए गए। शांता कुमार कहते हैं कि 1992 में जब वे सीएम पद से हटे, तब हिमाचल सरकार पर एक रुपये का भी कर्ज़ नहीं था। हिमाचल में साधन बढ़ाने के लिए पनबिजली योजना को निजी भागीदारी में लाया गया। सभी योजनाओं में सरकार को 12 प्रतिशत रॉयल्टी दिलाई गई। कभी विरोधी उनकी इस सोच पर हंसते थे, लेकिन अब हर साल इससे सरकार को हजारों करोड़ रुपये की आय होती है। सुक्खू सरकार को भी शांता यह नसीहत दे चुके हैं कि हवा में उड़ने से ज्यादा, अगर सड़कों पर चला जाए, तो प्रदेश पर कर्ज़ कम हो सकता है। शांता का कहना है कि अगर मुख्यमंत्री सरकार को अपना घर समझकर चलाएंगे, तो बचत होगी ही।
मंदिरों से पैसा मांगना, कितना गलत कितना सही? आदेश नहीं आग्रह: फिर क्यों बरपा हंगामा? पिछले कुछ दिनों से हिमाचल प्रदेश में इस बात को लेकर खूब बवाल मच रहा है कि प्रदेश सरकार की नज़र मंदिरों के चढ़ावे पर है। सरकार पर धुआंधार आरोप लग रहे हैं। विपक्ष कह रहा है कि सुक्खू सरकार मंदिरों के सोने-चांदी और पैसों से अपनी सरकार को बचाना और चलाना चाहती है। प्रदेश सरकार की मंशा मंदिरों के चढ़ावे से सरकारी खज़ाना भरने की है। विपक्ष कह रहा है कि जो पार्टी सनातन का विरोध करती है, वह मंदिरों से पैसा कैसे ले सकती है? प्रदेश की खराब आर्थिक हालत पर भी खूब टिप्पणियां हो रही हैं। एक तरफ विपक्ष सरकार पर हमले बोल रहा है तो वहीं सरकार इस दावे को सिरे से खारिज कर रही है। उपमुख्यमंत्री कह रहे हैं कि मंदिरों से सरकार चलाने के लिए कोई पैसा न अब तक लिया गया, न आगे लिया जाएगा। मंत्री हर्षवर्धन चौहान का भी यही कहना है कि सरकार चलाने के लिए पैसा नहीं मांगा गया। अन्य मंत्रियों के भी कुछ ऐसे ही विचार हैं। तो फिर बात आखिर है क्या? सुक्खू सरकार ने प्रदेश के मंदिरों को एक आधिकारिक पत्र जारी किया है, जिसमें 'मुख्यमंत्री सुख आश्रय योजना' और 'मुख्यमंत्री सुख शिक्षा योजना' के लिए योगदान देने का अनुरोध किया गया है। यह पत्र भाषा एवं संस्कृति विभाग के सचिव राकेश कंवर द्वारा जारी किया गया है, जो कि मंदिरों के प्रशासनिक प्रमुख (चीफ कमिश्नर) भी हैं। पत्र के मुताबिक, हिमाचल के 10 जिलों के मंदिरों से इन योजनाओं में अंशदान की अपील की गई है। यानी यह बिल्कुल सच है कि सरकार ने अपनी योजनाओं के लिए मंदिरों से पैसा मांगा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह गलत है? सवाल यह भी है कि क्या कोई राज्य सरकार मंदिर ट्रस्ट से मिलने वाले पैसे को सरकारी योजनाओं पर खर्च कर सकती है? बता दें कि कानूनी रूप से राज्य सरकार को अपनी विकास योजनाओं के लिए मंदिरों से धन लेने का कोई अधिकार नहीं है, लेकिन समाज कल्याण से जुड़ी योजनाओं के लिए योगदान मांगना गलत नहीं कहा जा सकता। 'मुख्यमंत्री सुख आश्रय योजना' और 'मुख्यमंत्री सुख शिक्षा योजना' समाज के कमजोर वर्गों के लिए शुरू की गई कल्याणकारी योजनाएं हैं। सुख आश्रय योजना के तहत सरकार ने बिना माता-पिता के बच्चों को गोद लिया है, जिनकी देखभाल का जिम्मा अब सरकार के कंधों पर है। इसी तरह से सरकार ने विधवाओं, निराश्रित महिलाओं, तलाकशुदा महिलाओं और विकलांग माता-पिता के बच्चों की शिक्षा और कल्याण के लिए मंदिरों से योगदान मांगा है। अगर मंदिर के चढ़ावे का इस्तेमाल किसी अनाथ बच्चे की शिक्षा में हो तो क्या वह गलत होगा? वहीं, चिट्ठी को गौर से देखें तो इन योजनाओं के योगदान के लिए कहीं पर भी आदेशों का ज़िक्र नहीं है। सरकार की तरफ से केवल कल्याण की इन योजनाओं में योगदान देने के लिए मंदिरों से अंशदान की अपील की गई है। यह आग्रह है, आदेश नहीं। अब यह मंदिर ट्रस्ट पर निर्भर करता है कि वे इन योजनाओं में सहयोग करते हैं या नहीं। वैसे भी मंदिर पहले भी धन की उपलब्धता के हिसाब से समाज कल्याण के कार्य करते आए हैं। मंदिर गरीब बेटियों की शादियों, अस्पताल निर्माण और गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए हमेशा सहयोग करते रहे हैं। ऐसे में इस तरह की कल्याणकारी योजनाओं के लिए मंदिरों से अंशदान के लिए आग्रह करना गलत नहीं है, बशर्ते सरकार इसे वहीं इस्तेमाल करे, जहां के लिए यह पैसा मांगा जा रहा है। जयराम ठाकुर ने इस मसले पर कहा कि अगर प्रदेश पर कभी आपदा का संकट आए, कोई बड़ी घटना या दुर्घटना हो जाए या फिर कोई महामारी फैल जाए, तो ऐसी स्थिति में मंदिरों और ट्रस्टों से मदद ली जा सकती है। लेकिन प्रदेश में अभी ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है। एक लेटर और भी वायरल हो रहा है जो अगस्त 2018 का है l इसमें हिमाचल प्रदेश सरकार के भाषा, कला और संस्कृति विभाग द्वारा यह आदेश दिए गए हैं कि मंदिर ट्रस्ट की कुल आय का 15% भाग गौशालाओं के लिए उपयोग किया जाए। यदि किसी जिले के मंदिर अपनी स्वयं की गौशाला नहीं चला रहे हैं, तो यह धनराशि उनके आसपास की पंजीकृत गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) द्वारा संचालित गौशालाओं को आवंटित की जा सकती है। इसके अलावा, यदि इस 15% राशि में से कोई भी शेष बचती है, तो सरकार की जांच और जरूरत के आकलन के बाद इसे अन्य पात्र गौशालाओं को अनुदान के रूप में दिया जा सकता है। इस मामले का निष्कर्ष सीधा नहीं, बल्कि दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। सरकार ने मंदिरों से धन जबरन नहीं लिया, बल्कि कल्याणकारी योजनाओं के लिए सहयोग की अपील की है, जो पूरी तरह स्वैच्छिक है। विपक्ष इसे सरकार की आर्थिक बदहाली और धार्मिक भावनाओं से जोड़कर देख रहा है, जबकि सरकार इसे सामाजिक कल्याण का प्रयास बता रही है।
** किसी एक की भी नाराज़गी पड़ सकती है भारी ** पाटिल की रिपोर्ट पर क्या होगा आलाकमान का फरमान? हिमाचल कांग्रेस... दूर से एक दिखने वाली यह नदी असल में तीन धाराओं में विभाजित है। ये तीन धाराएं बह तो एक ही दिशा में रही हैं, मगर एक नहीं हैं। पहली धारा है मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और उनके खासमखास नेताओं की, जिन्हें प्यार से "फ्रेंड्स लॉबी" भी कहा जाता है। दूसरी धारा है हॉली लॉज—जहाँ प्रतिभा सिंह और विक्रमादित्य सिंह समेत वीरभद्र सिंह के वे वफादार बसे हैं, जिनकी निष्ठा तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आज भी अडिग है। और तीसरी धारा—डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री और उनके युवा साथी... जो धीरे-धीरे समझने की कोशिश कर रहे हैं कि सत्ता की इस बंटी-बंटाई गंगा में उनकी नैया किस ओर खेनी है। अब प्रदेश में भाजपा के सामने कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक प्रवाह बनाए रखने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि इन गुटों में संतुलन बना रहे—और ज़रूरी यह भी है कि यही संतुलन हाल ही में बनाई जा रही संगठन की कार्यकारिणी में भी दिखे। इस कार्यकारिणी का जो भी स्वरूप बनकर आएगा, उसमें इन तीनों में से किसी एक की भी नाराजगी भारी पड़ सकती है, और शायद इसीलिए कांग्रेस संगठन का गठन जितना आसान दिख रहा है, उतना है नहीं। यही एक कारण है कि कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल ने सिर्फ सबके साथ नहीं, बल्कि अलग-अलग भी मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष के साथ बैठकें की हैं। अब पाटिल की रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस आलाकमान यह संतुलन कैसे बैठाता है, इंतज़ार इसी का है। देखा जाए तो सत्ता में आने के बाद से ही यह हिमाचल कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या रही है। पहले मुख्यमंत्री पद को लेकर इन तीनों गुटों में संघर्ष रहा, फिर मंत्रियों की कुर्सी को लेकर। हालाँकि, मंत्रियों की कुर्सियां अधिकतम उसी ओर गईं जिधर मुख्यमंत्री की... खैर, जीते हुए विधायकों की संख्या भी उधर ही अधिक थी, तो मामला जायज लगा। फिर जब सीपीएस के पदों पर नियुक्तियां की गईं, तो संतुलन थोड़ा और बैठ गया। मगर क्या सब संतुष्ट थे? नहीं, बिल्कुल नहीं। कुछ ही दिनों में पार्टी में तालमेल की कमी उभर आई। मंत्री पद से चूक गए पार्टी के वरिष्ठ नेता भी नाराज़गी ज़ाहिर करने लगे और वे कार्यकर्ता भी, जो बोर्ड-निगमों के पदों पर अपनी एडजस्टमेंट चाहते थे। खूब हो-हल्ला हुआ, पर जब बात न बनी तो इनमें से कुछ पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। जैसे-तैसे सरकार बची... और फिर जो बच गए, उन्हें खुश करने की कोशिश की गई। एक-दो पद और बांटे गए, मगर अधिकतम चाहवानों के हाथ तो आज भी खाली हैं... ख़ास तौर पर कार्यकर्ताओं के... और ये कार्यकर्ता आज भी अपने खेमों के वरिष्ठ नेताओं की ओर तक रहे हैं। फिर कुछ दिनों बाद तो सीपीएस के पद भी चले गए, तो संतुलन और डगमगा गया। यानी मोटे तौर पर कहा जाए तो सरकार में पूरी तरह संतुलन नहीं बैठा l हालांकि, अब बारी संगठन की है। अगर यहाँ भी किसी एक का पलड़ा भारी रहा, तो ज़रा सोचिए कि कांग्रेस का क्या होगा। खैर, कांग्रेस की समस्या महज़ ये तीन गुट और कार्यकर्ताओं की नाराज़गी ही नहीं, वे वरिष्ठ नेता भी हैं, जो हाशिए पर हैं। वरिष्ठ नेता जैसे—आशा कुमारी, कौल सिंह ठाकुर और राम लाल ठाकुर। ये नेता विधायक न बन सके और इसीलिए सरकार से भी दूर हैं, मगर क्या पार्टी इन्हें संगठन में भी जगह नहीं देगी? कांग्रेस चाहे भी तो ऐसा करना उसके लिए आसान नहीं। ये नेता चुनाव भले ही हारे हों, मगर इनके क्षेत्रों में इनकी पकड़ पर कोई सवाल नहीं l न ही इनका कोई विकल्प कांग्रेस के पास है। न चाहते हुए भी पार्टी को इन्हें एडजस्ट करना होगा। एडजस्टमेंट की उम्मीद तो कांग्रेस के फ्रंटल संगठनों के उन अध्यक्षों को भी है, जो विपक्ष में रहते कांग्रेस के मज़बूत स्तंभ बने रहे। बहरहाल, दो दिनों के मंथन के बाद फीडबैक की रिपोर्ट पार्टी की नवनियुक्त प्रभारी रजनी पाटिल दिल्ली में हाईकमान को सौंप चुकी हैं। सूत्रों की मानें तो पाटिल अपनी ओर से पूरा आश्वासन देकर गई हैं कि तीनों गुटों में संतुलन भी बैठाया जाएगा और कार्यकर्ताओं व वरिष्ठ नेताओं की नाराज़गी भी दूर होगी। क्षेत्रीय संतुलन भी बैठाया जाएगा और जातीय भी, कार्यकारिणी छोटी भी होगी और संतुलित भी। अब इंतज़ार है उनकी रिपोर्ट पर आलाकमान की प्रतिक्रिया का। यह निर्णय न केवल संगठन की भावी रणनीति तय करेगा, बल्कि हिमाचल में कांग्रेस की राजनीतिक स्थिति को भी मज़बूत या कमज़ोर करेगा। कांग्रेस यदि सही संतुलन साधने में सफल होती है, तो वह भाजपा को सशक्त चुनौती देगी, और अगर नहीं होती, तो भाजपा से बड़ी चुनौती कांग्रेस के लिए आंतरिक असंतोष ही रहेगा।
मंत्रिमंडल फेरबदल की चर्चा के बीच चौधरी चंद्र कुमार भी दिखा चुके है पार्टी को आईना ! नीरज भारती की लम्बे वक्त बाद टूटी चुप्पी, अपनी ही सरकार से खफा ! काफी वक्त चुप्पी साधने के बाद बीते दिनों पूर्व सीपीएस नीरज भारती फिर बोले है और अपनी ही सरकार के खिलाफ बोले है। उसी सरकार के खिलाफ जिसमें उनके पिता चौधरी खुद मंत्री है। हालाँकि माहिर मान रहे है कि असल खबर ये नहीं है कि नीरज फिर बोले, या कितना और क्या-क्या बोले है । खबर दरअसल ये है कि उनसे पहले चौधरी चंद्र कुमार खुद बोले और अब उनके बेटे नीरज बोल रहे है। अब जब पिता-पुत्र दोनों कांग्रेस के हालातों पर टिपण्णी कर रहे है, तो ज़ाहिर है की इसके सियासी मायने भी गहरे हैं। देखा जाए तो मंत्री चौधरी चंद्र कुमार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता है, उन्होंने पूरी जिंदगी कांग्रेस में खपाई है और बीते दिनों पार्टी की स्थिति को लेकर छलका उनका दर्द भी समझा जा सकता है। वहीँ उनके पुत्र भी अपनी ही पार्टी की सरकार से खफा है। एक मलाल ये है कि अपनी ही सरकार में कार्यकर्ताओं के काम नहीं हो रहे और दूसरा ये की मंत्री की बिना कंसेंट के उनके ही क्षेत्र में तबादले हो रहे है। वैसे इन दोनों ने जो भी कहा है वो निसंदेह कांग्रेस की वास्विकता है, पर वास्विकता तो ये भी है कि आईना दिखाने वाले कांग्रेस को रास कम ही आते है। बहरहाल मंत्रिमंडल फेरबदल की चर्चा के बीच पिता -पुत्र की ये नसीहत और नाराजगी क्या रंग लाएगी, ये देखना रोचक होगा। खासतौर से सरकार के दो मंत्री अस्सी पार है जिनमें से एक चंद्र कुमार भी है। हालांकि चौधरी चंद्र कुमार कांग्रेस का सबसे बड़ा ओबीसी चेहरा है, पर ये नए दौर की सियासत है, न जाने कब, क्या हो जाए।
क्या BJP को मिलेगी पहली महिला अध्यक्ष, चर्चा में वसुंधरा राजे का नाम ! बीजेपी को जल्द नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिलना है। नए अध्यक्ष को लेकर अटकलें जारी है। क्षेत्रीय और जातीय समीकरणों के लिहाज से तो कयास लग ही रहे है, लेकिन इस बीच बड़ा सवाल ये भी है कि क्या बीजेपी की कमान किसी महिला को भी मिल सकती है। बीजेपी के 45 साल के इतिहास में अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर जगत प्रकाश नड्डा तक 11 नेता अध्यक्ष पद की कुर्सी तक पहुंचे है, लेकिन इनमें एक भी महिला नहीं है। तो क्या इस बार ये इन्तजार खत्म होगा, इस पर निगाह टिकी हुई है। दरअसल अटकलें हैं कि 2029 में लोकसभा चुनावों से पहले संसद और राज्य विधानसभाओं में 33 फीसदी महिला आरक्षण कोटा लागू होने की संभावना के मद्देनजर किसी महिला को बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो यह पहली बार होगा जब किसी महिला को पार्टी की कमान सौंपी जाएगी। बीजेपी के नए अध्यक्ष के चुनाव को लेकर चल रही दौड़ में राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे की चर्चा सबसे तेज है। माना जा रहा है कि बीजेपी वसुंधरा राजे को पहली महिला अध्यक्ष बनाकर नया संदेश दे सकती है।दिल्ली में महिला सीएम के बाद महिला बीजेपी अध्यक्ष की चर्चा भी जमकर हो रही है। माहिर मानते है कि राजस्थान विधानसभा चुनाव और नए सीएम के तौर पर भजनलाल शर्मा की ताजपोशी के बाद से सियासी हलको में वसुंधरा राजे की नाराजगी की खबर सामने आ रही थी। किन्तु बीते कुछ समय में वसुंधरा राजे की राजनीतिक सक्रियता और लगातार पीएम मोदी की तारीफ से यह लग रहा है कि उनका केंद्रीय संगठन से तालमेल अब मजबूत है। साथ ही वसुंधरा राजे को आरएसएस की भी पसंद माना जाता है। ऐसे में यदि बीजेपी किसी महिला को अध्यक्ष बनाती है तो वसुंधरा राजे के नाम पर मुहर लग सकती है।
भाजपा अध्यक्ष पद की दौड़ में कांगड़ा के कई नेता अगर जयराम बने अध्यक्ष तो नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी आ सकती है हिस्से साल था 1986, जब कांगड़ा से कोई नेता आखिरी बार भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बना। वो नेता थे शांता कुमार जो 1990 तक इस पद पर रहे। इसके बाद 1990 में कांगड़ा से आखिरी मर्तबा मुख्यमंत्री भी शांता कुमार ही बने। अर्सा बीत गया लेकिन उसके बाद से कांगड़ा के किसी नेता पर भाजपा आलाकमान मेहरबान नहीं हुआ। जो कांगड़ा सत्ता के लिए जरूरी है, जो सियासी तौर पर सबसे वजनदार जिला है, उसी जिला पर भाजपा आलाकमान की इनायत नहीं हुई। अब फिर भाजपा को नया प्रदेश अध्यक्ष मिलना है और चर्चा है कि क्या 35 साल बाद अब संगठन की कमान कांगड़ा के किसी नेता को मिलेगी ? सुर्ख़ियों में कई नाम भी बने हुए है, मसलन सांसद राजीव भारद्वाज, विपिन सिंह परमार, बिक्रम ठाकुर और राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी। इस बीच एक नया फार्मूला भी सामने आया है। दरअसल अटकलें ये भी है कि जयराम ठाकुर का अगला प्रदेश अध्यक्ष बनना तय है और कांगड़ा के हिस्से आ सकती है नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी। ऐसा होता है तो विपिन सिंह परमार या बिक्रम ठाकुर में से किसी एक नेता को नेता प्रतिपक्ष बनाया जा सकता है। बहरहाल फिलहाल सब अटकलें है। वैसे भी आज के दौर की भाजपा में अक्सर आलाकमान की मंशा का इल्म किसी को नहीं होता। पर फिलवक्त कांगड़ा फिर उम्मीद से है। अब हिस्से में कुछ आता है या फिर कांगड़ा के हाथ खाली रहते है, इस पर निगाह रहने वाली है।
चर्चा आम, बिंदल की जगह अध्यक्ष होंगे जयराम खिलाफ : संगठन की कुंद धार, रुष्ट नेताओं की खुलकर ललकार पक्ष : पूरा कार्यकाल न मिलना, दोनों कार्यकाल में कुल ढाई साल भी नहीं मिले जल्द हिमाचल भाजपा को नया अध्यक्ष मिलना है और चर्चा आम है कि बतौर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल के रिपीट होने की संभावना अब बेहद कम है है। यदि ऐसा होता है तो ये व्यक्तिगत तौर बिंदल के लिए बड़ा सेट बैक होगा। रोलर कॉस्टर सा चल रहे बिंदल के राजनैतिक सफर में ये एक बड़ी ढलान होगा। दरअसल बिंदल 2022 का विधानसभा चुनाव भी हारे थे, ऐसे में जाहिर है सदन के भीतर भी उन्हें कोई ज़िम्मा नहीं मिलेगा। वहीं, माहिर मानते है कि यदि ऐसा हुआ तो मौटे तौर पर बिंदल फिर नाहन तक सिमित दिख सकते है। दरअसल बीजेपी अध्यक्ष पद की दौड़ में खुद नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर का नाम आने के बाद वर्तमान अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल की दावेदारी अब कमजोर मानी जा रही है। 2021 के उपचुनाव से ही भाजपा लगातार प्रदेश में हारती आ रही है और इसका बड़ा कारण संगठन की कुंद धार है। चुनाव दर चुनाव प्रदेश संगठन बगावत थामने में नाकाम रहा है, और ये ही हार का एक बड़ा कारण भी रहा है। हालांकि 2022 का चुनाव बिंदल के नेतृत्व में नहीं लड़ा गया था, उनकी ताजपोशी अप्रैल 2023 में हुई है। पर वर्तमान हालात की भी बात करें तो खफा नेता खुलकर पार्टी को ललकार रहे है, समानांतर संगठन बनाने की बात कह रहे है, पर इन पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं दिखती। भाजपा का संगठन एक किस्म से बेबस दिख रहा है। इसी तरह अगर प्रदेश सरकार को घेरने की बात करे तो फ्रंट फुट पर भी जयराम ही दिखते है और प्रभावी भी जयराम ही है। संगठन के अधिकांश आला नेता अधिकांश मौकों पर बेअसर से लगते है। इसमें कोई संशय नहीं है कि प्रदेश स्तर पर भी भाजपा संगठन की सर्जरी की जरुरत दिखती है। ऐसे में मुमकिन है कि आलाकमान जयराम को ही संगठन का सरदार बना दे और कमोबेश पूरी टीम बिंदल बदल दी जाए। हालाँकि एक पक्ष ये भी है कि बिंदल को दोनों कार्यकाल में कुल ढाई साल भी नहीं मिले है। अगर जयराम पर मुहर नहीं लगती है तो ये फैक्टर उनके पक्ष में जा सकता है। 2017 से उतार चढ़ाव भरा रहा बिंदल का सफर बिंदल के राजनैतिक करियर पर निगाह डाले तो लगातार पांचवी बार विधायक बनने के बाद वे 2017 में सीएम पद के दावेदार थे, लेकिन तब उन्हें कैबिनेट में भी जगह नहीं दी गई थी। बिंदल को विधानसभा अध्यक्ष बना कर एडजस्ट किया गया था, लेकिन करीब दो साल बाद वे भाजपा अध्यक्ष बनने में कामयाब रहे। फिर कोरोना काल में लगे आरोपों के बाद करीब पांच महीने बाद ही उन्हें इस्तीफा देने पड़ा। इस बीच पार्टी ने उन्हें अर्की उपचुनाव और सोलन नगर निगम चुनाव का जिम्मा तो दिया, लेकिन बिंदल पार्टी को जीत नहीं दिला सके। बिंदल को सबसे बड़ा सेट बैक 2022 के विधानसभा चुनाव में लगा जब वे खुद हार गए।पर इसके बाद अप्रत्याशित तौर पर अप्रैल 2023 में वे फिर अध्यक्ष पद पाने में कामयाब रहे। तब से अब तक उनके कार्यकाल में पार्टी ने नौ में से छ उपचुआव हारे है और लोकसभा चुनाव में भी पार्टी का वोट शेयर गिरा है। ऐसे में परफॉरमेंस के पैरामीटर पर भी बिंदल छाप नहीं छोड़ पाए है, हालांकि उन्हें ज्यादा समय नहीं मिला है। एक और बात बिंदल के विरुद्ध जाती है, वो है उन पर लगते रहे आरोप। हालांकि उन पर लगा कोई आरोप कभी सिद्ध नहीं हुआ, वे हमेशा बरी हुए है। किन्तु राजनैतिक विरोधी उन पर लगातार निशाना साधते रहे है। विशेषकर बीते कुछ वक्त में खुद सीएम सुखविंद्र सिंह सुक्खू ने बिंदल पर खूब चुटकी ली है।
हिमाचल प्रदेश के गलोड़ में लंदन निवासी नेडली ने प्रदीप शर्मा संग शादी के बंधन में बंधकर एक नया सफर शुरू किया। लंजियाना के रहने वाले प्रदीप कुमार शर्मा, पुत्र जगन नाथ शर्मा, और नेडली पिछले चार वर्षों से एक-दूसरे को जानते थे। दोनों की शादी पारंपरिक हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार धूमधाम से संपन्न हुई। प्रदीप और नेडली लंदन में नौकरी करते थे, लेकिन वर्तमान में प्रदीप हांगकांग में अपना व्यवसाय चला रहे हैं। हालांकि, उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा है। कुछ वर्ष पहले एक सड़क दुर्घटना में प्रदीप की माता और उनकी इकलौती बहन की दुखद मौत हो गई थी। उस कठिन समय के बाद अब परिवार में यह खुशी का अवसर आया, जिसे सभी ने हर्षोल्लास के साथ मनाया। शादी समारोह में परिवार, रिश्तेदारों और गांव वालों ने मिलकर खूब नाच-गाना किया और नवविवाहित जोड़े को आशीर्वाद दिया। नेडली के माता-पिता और अन्य परिजन भी इस शुभ अवसर पर उपस्थित रहे। उन्होंने हिमाचली संस्कृति और हिंदू रीति-रिवाजों की खूब सराहना की। अब नेडली के परिवार के सदस्य कुछ दिनों तक हिमाचल प्रदेश में ही रुकेंगे और देवभूमि की शांत वादियों का आनंद लेंगे। शादी समारोह के दौरान गांववालों और मेहमानों में नवविवाहित जोड़े के साथ फोटो खिंचवाने और उनकी एक झलक पाने की होड़ लगी रही। प्रदीप और नेडली की जोड़ी को सभी ने ढेरों शुभकामनाएं दीं।
**क्या बिंदल को जाना होगा? नेता प्रतिपक्ष का पद कांगड़ा के हिस्से? हिमाचल भाजपा का चेहरा जयराम ठाकुर हैं—इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन क्या अब वे प्रदेश अध्यक्ष की कमान भी संभालेंगे? यह सवाल हिमाचल की सियासत में चर्चा का केंद्र बना हुआ है। लंबे समय से भाजपा के संभावित प्रदेश अध्यक्षों की कई नामों की सूची सियासी गलियारों में घूम रही थी। कोई कह रहा था कि डॉ. राजीव बिंदल को एक्सटेंशन मिलेगा, कोई कांगड़ा लॉबी की पैरवी कर रहा था, तो किसी को नड्डा के करीबी को इस पद पर देखने की उम्मीद थी। लेकिन अब इस दौड़ में नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर का नाम भी शामिल हो गया है। कुछ समय पहले तक उनकी दावेदारी पर चर्चा नहीं हो रही थी, लेकिन हालिया घटनाक्रमों ने समीकरण पूरी तरह बदल दिए हैं। हाल ही में भाजपा हाईकमान ने जयराम ठाकुर और डॉ. राजीव बिंदल को दिल्ली बुलाया, जहां उनकी मुलाकात भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से हुई। इससे पहले, दोनों नेता केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से भी अलग-अलग मिले थे। इन बैठकों के बाद से ही अटकलें तेज हो गई हैं कि भाजपा आलाकमान संगठन में बड़े बदलाव की तैयारी कर रहा है और 2027 विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए जयराम ठाकुर का नाम आगे आ सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, भाजपा अभी जयराम को प्रदेश अध्यक्ष बना सकती है, जिससे उन्हें संगठन पर पूरी पकड़ बनाने का मौका मिलेगा, और फिर 2027 चुनाव में उन्हें मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश किया जा सकता है। हाल के दिनों में जयराम ही हिमाचल में पार्टी का नेतृत्व करते नजर आए हैं—सरकार पर हमलावर भी वही होते हैं और पार्टी के भीतर समीकरण साधने की भूमिका भी वही निभाते हैं। अगर जयराम ठाकुर प्रदेश अध्यक्ष बनते हैं, तो इससे कई अन्य राजनीतिक समीकरण भी बदल सकते हैं। सबसे बड़ा बदलाव नेता प्रतिपक्ष के पद को लेकर होगा, जो स्वाभाविक रूप से खाली हो जाएगा। ऐसे में कांगड़ा से किसी नेता को इस पद पर बिठाया जा सकता है। विपिन परमार और बिक्रम ठाकुर जैसे नाम इस दौड़ में आगे हो सकते हैं, जबकि सतपाल सत्ती भी मजबूत दावेदार माने जा रहे हैं। बहरहाल, भाजपा हाईकमान का फैसला जो भी हो, लेकिन इतना तय है कि हिमाचल की सियासत में यह बदलाव नए राजनीतिक संकेत लेकर आएगा। अब देखना यह होगा कि प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर कौन बैठता है और उसके बाद पार्टी में शक्ति संतुलन किस दिशा में जाता है।
तारीख थी 8 अगस्त 1996... पंडित सुखराम का नाम टेलीकॉम घोटाले में सामने आया था। सीबीआई ने सुखराम, टेलीकॉम विभाग की अधिकारी रुनू घोष, और हरियाणा स्थित कंपनी हरियाणा टेलीकॉम लिमिटेड के मालिक देवेंद्र सिंह चौधरी के खिलाफ मामला दर्ज किया था। 16 अगस्त को सीबीआई की एक टीम उनके दिल्ली के सफदरजंग स्थित आवास पर पहुंची और छापेमारी की। उस वक्त पंडित सुखराम के घर से 2.45 करोड़ रुपये बरामद हुए थे। इसके अलावा, सीबीआई की एक टीम ने सुखराम के हिमाचल प्रदेश के मंडी स्थित बंगले पर भी छापेमारी की थी, जहां से 1.16 करोड़ रुपये मिले थे। पैसे दो संदूकों और 22 सूटकेस में रखे गए थे, जिनमें से अधिकांश सूटकेस पूजा वाले कमरे में थे। सुखराम यह नहीं बता पाए कि इन पैसों का वैध स्रोत क्या था। 80 के दशक में बोफोर्स घोटाले के चलते सत्ता खोने वाली कांग्रेस 90 के दशक में टेलीकॉम घोटाले के कारण फिर विवादों में आ गई। नरसिम्हा राव सरकार में सुखराम के संचार मंत्री रहते हुए यह घोटाला हुआ। इस घोटाले ने न सिर्फ कांग्रेस सरकार को हिला दिया, बल्कि पंडित सुखराम को मंत्री पद और कांग्रेस पार्टी दोनों से हाथ धोना पड़ा। यह घोटाला उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय बन गया। इस 5 करोड़ 91 लाख के घोटाले के कारण विपक्षी भाजपा ने 1996 में 10 दिनों तक संसद नहीं चलने दी थी। सीबीआई की जांच में सामने आया कि केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए हरियाणा टेलीकॉम लिमिटेड (एचटीएल) नामक एक निजी कंपनी को 30 करोड़ रुपये का ठेका दिया, जिसमें 3.5 लाख कंडक्टर किलोमीटर पॉलीथीन इंसुलेटेड जेली फिल्ड (PIJF) केबल की आपूर्ति शामिल थी। इस ठेके के बदले, सुखराम ने एचटीएल के अध्यक्ष देवेंद्र सिंह चौधरी से 3 लाख रुपये की रिश्वत ली। सुनवाई के दौरान सुखराम ने अदालत में दलील दी कि उनके आवास से बरामद राशि कांग्रेस पार्टी की थी। उन्होंने दावा किया कि यह पैसा जम्मू-कश्मीर में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी फंड के रूप में इस्तेमाल किया जाना था। हालांकि, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने सीबीआई की पूछताछ में बरामद राशि को पार्टी फंड का हिस्सा मानने से इनकार कर दिया था। इस केस में 16 साल बाद 19 नवंबर 2011 को सीबीआई अदालत ने पंडित सुखराम को पांच साल की सजा सुनाई।
लगभग 45 साल के अपने अब तक के इतिहास में बीजेपी ने हिमाचल प्रदेश में दस विधानसभा चुनाव लड़े हैं और चार बार सरकार बनाई है। हिमाचल प्रदेश की ऐसी कोई विधानसभा सीट नहीं जिसे बीजेपी फ़तेह न कर सकी हो सिवाय रामपुर के। दरअसल, रामपुर स्व. राजा वीरभद्र सिंह का क्षेत्र है। बुशहर रियासत का गढ़ है। हालांकि यह निर्वाचन हल्का आरक्षित होने के चलते वीरभद्र परिवार यहां से चुनाव नहीं लड़ता। पर चुनाव कोई भी लड़े, वोट राज परिवार के नाम पर ही डलता है। इसलिए कांग्रेस उम्मीदवार भी राजपरिवार की पसंद का होता है। 2022 के चुनाव में यहां से कांग्रेस ने चौथी बार सीटिंग विधायक नंदलाल को मैदान में उतारा था, जबकि बीजेपी ने युवा चेहरे कौल नेगी को मौका दिया था। दिलचस्प बात यह है कि नंदलाल की जीत का अंतर घटकर 600 से भी कम था। यानी कांग्रेस हारते-हारते बची थी। बहरहाल, अगले विधानसभा चुनाव में भी यहां वीरभद्र सिंह परिवार का तिलिस्म देखने को मिलेगा या बीजेपी इस अभेद किले को ध्वस्त कर देगी, यह देखना दिलचस्प होगा।
**चारों लोकसभा सीट पर मिली थी हार **मंडी से वीरभद्र सिंह भी हारे थे 1977 का साल भारतीय राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत का प्रतीक था। देश में दो साल तक चले आपातकाल के बाद, जनता ने सत्ता की कुर्सी हिला दी थी। पूरे भारत में बदलाव की आंधी चल रही थी, और हिमाचल प्रदेश भी इससे अछूता नहीं रहा। चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल (भालोद) ने हिमाचल की चारों लोकसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। यह फैसला तब शायद साहसिक लगा होगा, क्योंकि हिमाचल में कांग्रेस की मजबूत पकड़ थी। लेकिन जनता का मिज़ाज बदल चुका था। इस बार लोग किसी नए विकल्प की तलाश में थे, और भारतीय लोकदल ने वह विकल्प बनकर खुद को प्रस्तुत किया। चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले थे। हिमाचल की चारों सीटों पर भारतीय लोकदल के उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी, और कांग्रेस पूरी तरह पराजित हो गई थी। सबसे बड़ा झटका मंडी लोकसभा सीट से आया, जहां लोकदल के प्रत्याशी गंगा सिंह ने वीरभद्र सिंह को 35,505 वोटों के अंतर से हरा दिया। वीरभद्र सिंह, जो कांग्रेस के एक मजबूत नेता माने जाते थे, इस हार से हैरान रह गए। कांगड़ा सीट से दुर्गा चंद ने कांग्रेस के विक्रम चंद को 39,005 वोटों से शिकस्त दी। हमीरपुर में रणजीत सिंह ने नारायण चंद को 50,122 वोटों से हराया। और सबसे बड़ी जीत बालक राम के नाम रही, जिन्होंने 87,472 वोटों से जालम सिंह को पराजित किया और 64.63% वोट हासिल किए। इस ऐतिहासिक चुनाव में भारतीय लोकदल ने 57.19% वोट शेयर के साथ चारों सीटें जीत लीं, जबकि कांग्रेस सिर्फ 38.58% वोटों तक सिमट गई। हालांकि इस चुनाव के बाद, भारतीय लोकदल का जनता दल में विलय हो गया। यह वही जनता दल था, जिसने पूरे देश में इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर किया था। लेकिन राजनीति में स्थिरता कब रहती है? ये जनता दल भी टूट गया और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का गठन हुआ। इसके बाद चौधरी चरण सिंह ने भारतीय लोकदल को दोबारा अलग किया, लेकिन हिमाचल में 1977 जैसी सफलता फिर कभी हाथ नहीं लगी।
कमरा नंबर 202, सचिवालय का यह कमरा वह कमरा है जिसका नाम सुनते ही मंत्री भागे-भागे फिरते हैं। अब इस कमरे से जुड़ा इतिहास ही कुछ ऐसा है कि डरना तो बनता है। दरअसल, कमरा नंबर 202 में बैठने वाला हर मंत्री चुनाव हारता है, ऐसा हम नहीं, इतिहास के पन्नों में दर्ज चुनावी परिणाम कहते हैं। पिछले चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो इस कमरे में मंत्री बनने पर जगत प्रकाश नड्डा, आशा कुमारी, नरेंद्र बरागटा और सुधीर शर्मा भी बैठे हैं और ये सभी तत्कालीन मंत्री रहते हुए अगला चुनाव हार गए। साल 1998 से 2003 तक तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री एवं भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा इस कमरे में बैठे, फिर नड्डा 2003 का चुनाव हार गए। फिर वीरभद्र सरकार में मंत्री रही आशा कुमारी 2007 का विधानसभा चुनाव हार गईं। 2007 में प्रदेश में फिर धूमल सरकार बनी और नरेंद्र बरागटा कैबिनेट मंत्री बने और इसी कमरे में बैठे। बरागटा भी 2012 का चुनाव हार गए। इसके बाद वीरभद्र सरकार में शहरी विकास मंत्री रहे सुधीर शर्मा भी इस कमरे में बैठे और 2017 का विधानसभा चुनाव हार गए। हालांकि उस वक्त सुधीर शर्मा बार-बार यही कहते थे कि यह सब कुछ अंधविश्वास है, ऐसा कुछ नहीं होगा, मगर हुआ तो वह जो सोचा न था। वहीं पिछली जयराम सरकार में मंत्री रहे डॉ. रामलाल मारकंडा भी चुनाव हारे हैं, जो इसी कमरा नंबर 202 में बैठते थे। इस कमरे का इतिहास अब तक बरकरार है। इस बार राजेश धर्माणी को यह कमरा दिया गया था, मगर वह इस कमरे में बैठे ही नहीं। अब इसे अंधविश्वास कह लीजिए या फिर कुछ और, मगर धर्माणी ने कोई रिस्क नहीं लिया।
यूं ही नहीं कहते 'राजा'... महिला ने किराया मांगा तो वीरभद्र सिंह ने उसे हेलीकॉप्टर में चंबा पहुंचाया
पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीरभद्र सिंह को यूं ही 'राजा' नहीं कहा जाता था। वे सच में हिमाचल प्रदेश की जनता के दिलों पर राज करते थे। जनता के प्रति उनकी सच्ची निष्ठा के कई किस्से हैं, जो यह साबित करते हैं कि वीरभद्र सिंह सबसे अलग थे। एक ऐसा ही दिल छू लेने वाला किस्सा आज भी लोगों के दिलों में ताजा है। यह घटना कई साल पहले फरवरी महीने की एक सर्द सुबह की है। हिमाचल प्रदेश में उस समय कड़ाके की ठंड पड़ रही थी, खासकर गरीबों के लिए यह मौसम और भी कठिन था। इसी बीच, एक गरीब महिला अमरो देई, जो चंबा से शिमला पहुंची थी, वीरभद्र सिंह से मिलने आई। अमरो देई वही महिला थी, जिसे वीरभद्र सिंह ने ही स्कूल में जलवाहक की नौकरी दिलवाई थी। अब, उसकी समस्या यह थी कि स्कूल के कुछ लोग उसे तंग कर रहे थे और उसने अपना स्कूल बदलवाने का निर्णय लिया था। अपनी समस्या का समाधान ढूंढने के लिए वह शिमला आई थी, और उसे उम्मीद थी कि 'राजा साहब' ही उसकी मदद करेंगे। वीरभद्र सिंह ने पहले महिला की समस्या हल की और फिर उससे पूछा कि अब वह कहां जाना चाहती है। अमरो देई ने कहा कि उसे चुवाड़ी जाना है, लेकिन उसके पास यात्रा के लिए पैसे नहीं हैं। वीरभद्र सिंह ने उसे एक हजार रुपये दिए और कहा, "चिंता मत करो, तुम मेरे साथ चल सकती हो। मैं भी चंबा जा रहा हूं, रास्ते में तुम्हें चुवाड़ी छोड़ दूंगा।" महिला ने हैरान होकर पूछा, "क्या आप बस से जा रहे हैं?" वीरभद्र सिंह मुस्कराए और बोले, "नहीं, मैं हेलीकॉप्टर में जा रहा हूं और तुम भी मेरे साथ हेलीकॉप्टर में बैठोगी।" फिर क्या था, वीरभद्र सिंह का एक शब्द किसी आधिकारिक आदेश से कम नहीं था। महिला को मुख्यमंत्री के काफिले के साथ होली लॉज से अनाडेल हेलीपैड तक लाया गया, और वह हेलीकॉप्टर से मुख्यमंत्री के साथ चंबा के लिए रवाना हुई। हेलीकॉप्टर सिंहुता में लैंड हुआ, जिसके बाद वीरभद्र सिंह ने निर्देश दिए कि महिला को काफिले की गाड़ी में बैठाकर चुवाड़ी छोड़ दिया जाए। इस तरह, महिला का घर लौटने का खर्च भी बच गया, और जो पैसे उसके पास नहीं थे, वह भी वीरभद्र सिंह ने खुद दिए। इसके अलावा, स्कूल में उसकी समस्या का समाधान भी वीरभद्र सिंह ने एक फोन कॉल पर कर दिया।
कहते हैं, हिमाचल की सत्ता पर काबिज होने के लिए कर्मचारी वोट बेहद ज़रूरी हैं। आज भी सरकारें कर्मचारियों को खुश करने की कोशिश में रहती हैं। मगर क्या आप जानते हैं? हिमाचल के एक मुख्यमंत्री ऐसे भी थे, जिन्होंने बिना वोट बैंक की परवाह किए कर्मचारियों से सीधे पंगा ले लिया था और बाद में उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ा। हम बात कर रहे हैं हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार की। 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने निजी क्षेत्र को प्रदेश में हाइड्रो प्रोजेक्ट लगाने की अनुमति दी थी। तब किन्नौर में एक हाइड्रो प्लांट स्थापित हुआ, लेकिन यह सरकारी कर्मचारियों को रास नहीं आया। विरोध बढ़ा, चर्चाएं हुईं, मगर जब सरकार टस से मस नहीं हुई, तो कर्मचारियों ने हड़ताल का बिगुल बजा दिया। सरकारी दफ्तर सूने पड़ गए, फाइलें धूल खाने लगीं, और हड़ताल आग की तरह फैल गई। लेकिन शांता कुमार भी अपने सिद्धांतों के पक्के थे। उन्होंने साफ ऐलान कर दिया—"नो वर्क, नो पे!" यानी जो काम नहीं करेगा, उसे वेतन नहीं मिलेगा। कर्मचारियों को लगा कि सरकार झुकेगी, मगर शांता अपने फैसले पर अडिग रहे। 29 दिन चली इस हड़ताल का वेतन कर्मचारियों को नहीं दिया गया। साथ ही, इस दौरान करीब 350 कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया गया। सरकार और कर्मचारियों की इस तनातनी का असर अगले चुनाव में दिखा। कर्मचारियों ने इसे अपनी हार-जीत की लड़ाई बना लिया। जब वोटिंग हुई, तो बूथों पर उनका गुस्सा साफ नजर आया। नतीजे आए, और स्पष्ट हो गया कि कर्मचारियों ने हिसाब चुकता कर दिया था—शांता कुमार को सत्ता से बाहर कर दिया गया। खुद शांता कुमार दो सीटों से चुनाव लड़े थे और दोनों ही हार गए।
हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार का जीवन सिर्फ राजनीति ही नहीं, बल्कि प्रेम की अनूठी कहानी के लिए भी याद किया जाता है। 1974 में, 65 साल की उम्र में, उन्होंने 55 साल की राज्यसभा सांसद सत्यवती डांग से शादी रचाई। खास बात ये थी कि इस शादी में उनके बच्चे और पोते भी शामिल हुए और बारात मुख्यमंत्री आवास 'ओक ओवर' से निकली। डॉ. परमार अपनी पहली पत्नी चंद्रावती के निधन के बाद अकेले थे, जबकि सत्यवती डांग भी पति की असमय मृत्यु के बाद अकेली थीं। दोनों का प्रेम चर्चा में था, लेकिन परमार शादी को तैयार नहीं थे। उनके बड़े बेटे लव परमार के लगातार कहने पर आखिरकार वे मान गए। यह शादी सिर्फ दो दिलों का मिलन नहीं थी, बल्कि समाज की रूढ़ियों को तोड़ने का साहसिक कदम भी थी। शादी के सात साल बाद 1981 में डॉ. परमार का निधन हो गया, और सत्यवती डांग अमेरिका चली गईं। जीवन के अंतिम दिनों में वे शिमला लौटीं और 2010 में दुनिया को अलविदा कह गईं। आज भी हिमाचल इन दोनों नेताओं के शाश्वत प्रेम को पवित्रता के साथ याद करता है।
प्रदेश अध्यक्ष पद को लेकर कांग्रेस में हलचल दिल्ली में कांग्रेस नेताओं की आलाकमान से लगातार बैठकें जारी हैं और हर बैठक के महत्व को सियासी माहिर अपने-अपने दृष्टिकोण से देख रहे हैं। फिलहाल मुख्यमंत्री के अलावा प्रियंका गांधी और कांग्रेस की नवनियुक्त प्रभारी रजनी पाटिल के साथ लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह की बैठक चर्चा का विषय बनी हुई है। कल शाम विक्रमादित्य प्रियंका गांधी से मिले और आज रजनी पाटिल से। अटकलें हैं कि उन्होंने प्रियंका से प्रदेश अध्यक्ष के कार्यकाल को बढ़ाने की मांग की। वक्त की नज़ाकत को समझा जाए तो शायद इस वक्त यह होली लॉज के लिए बेहद ज़रूरी भी है। दरअसल, अप्रैल 2025 में प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह का तीन साल का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। जाहिर है, प्रदेश कांग्रेस के अन्य गुट इस पद पर अपने करीबियों को बैठाने की जद्दोजहद में हैं। सूत्रों की माने तो सीएम के करीबी संजय अवस्थी भी प्रदेश अध्यक्ष पद कि दौड़ में है। हालाँकि अगर अवस्थी कि ताजपोशी होती है सत्ता और संगठन एक ही हाथ में होंगे, और इसे लेकर पार्टी आलाकमान राज़ी होगा या नहीं, यह बड़ा सवाल है। खैर, इनके अलावा मंडी से कांग्रेस के एकमात्र विधायक चंद्रशेखर का नाम भी चर्चा में है। जाहिर है, इस सियासी परिप्रेक्ष्य में आज से दो साल पहले मुख्यमंत्री का पद छोड़कर प्रदेश अध्यक्ष और मंत्री पद पर संतुष्ट हो जाने वाला होली लॉज अब शायद प्रदेश अध्यक्ष पद भी छोड़ने को तैयार नहीं है। होली लॉज स्थिति यथावत बनाए रखना चाहता है। हालांकि, अंतिम निर्णय कांग्रेस आलाकमान को ही लेना है, और यह देखने वाली बात होगी कि वे कैसे संतुलन सुनिश्चित करता हैं। तो कुल मिलाकर बात यह है कि आने वाले कुछ दिनों में कांग्रेस के भीतर वर्चस्व की जंग एक बार फिर सार्वजनिक हो सकती है।
वीरभद्र सिंह की चेतावनी के आगे कांग्रेस आलाकमान को झुकना पड़ा ! 2012 के चुनाव में कांग्रेस आलाकमान को दी स्पष्ट चेतावनी ! 'मैं ढोलक बजाऊंगा और मेरी सेना नृत्य करेगी' – शिमला की प्रेस कॉन्फ्रेंस में इन्हीं शब्दों के साथ वीरभद्र सिंह ने दिल्ली दरबार को स्पष्ट चेतावनी दे डाली थी कि सीएम तो वे ही होंगे, चाहे पार्टी कोई भी हो। फिर आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया, और वे छठी बार सीएम बने। दरअसल, 2012 विधानसभा चुनाव के वक्त वीरभद्र सिंह की आयु 78 के पार थी। केंद्र सरकार में मंत्री बनने के बाद कांग्रेस में भी कई नेता सीएम की कुर्सी पर नजर गड़ाए बैठे थे। पर वीरभद्र सिंह ने चुनाव से पहले मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और हिमाचल लौट आए। हालांकि, तब आलाकमान वीरभद्र के हाथ कांग्रेस की कमान सौंपने के लिए राजी नहीं था। पिछले कई वर्षों से प्रदेश में कांग्रेस की जड़ें मजबूत कर रहे कौल सिंह ठाकुर और आलाकमान के करीबी सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। मगर फिर वीरभद्र सिंह ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी। आलाकमान झुका, कांग्रेस ने उन्हीं के चेहरे पर चुनाव लड़ा और जीत भी हासिल की।
1990 से 2007 तक हर चुनाव में बदली निष्ठा, पर कभी नहीं हारे 1990 की शांता लहर में हिमाचल प्रदेश की इस विधानसभा सीट से एक निर्दलीय उम्मीदवार जीता। फिर 1993 में कांग्रेस जीती, 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस, 2003 में लोकतांत्रिक मोर्चा और 2007 में भाजपा। यह विधानसभा सीट है जिला मंडी की धर्मपुर निर्वाचन और पांच अलग-अलग सिंबल से चुनाव जीतने वाले नेता थे महेंद्र सिंह ठाकुर। हालांकि, इसके बाद ठाकुर बीजेपी में टिके रहे और 2012 और 2017 में भी चुनाव जीते। शायद ही कोई और नेता ऐसा हो, जिसने अपने राजनीतिक जीवन के सात चुनाव में से पांच चुनाव लगातार अलग-अलग सिंबल पर लड़ा और जीता हो। 1990 से 2003 तक हर बार महेंद्र सिंह ठाकुर की राजनीतिक निष्ठा बदली, पर बावजूद इसके वे जीतते रहे। दल बेशक बदलते रहे, लेकिन जनता का भरोसा महेंद्र सिंह पर बरकरार रहा। जो प्यार धर्मपुर की जनता ने महेंद्र सिंह ठाकुर को दिया, वह पिछले चुनाव में उनके पुत्र रजत ठाकुर को नहीं मिला। महेंद्र सिंह ठाकुर के चुनावी राजनीति छोड़ने के बाद बीजेपी ने उनकी इच्छा मुताबिक 2022 में उनके बेटे रजत को टिकट दिया था, लेकिन वे चुनाव हार गए। दिलचस्प बात यह है कि 2022 में मंडी की सिर्फ धर्मपुर सीट पर ही बीजेपी को शिकस्त मिली।
मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू एक बार फिर दिल्ली गए हैं,और एक बार फिर निकल आया है कयासों का वह पिटारा जो अक्सर आलाकमान से चर्चा की संभावनाओं पर हिमाचल की सियासत के गलियारों में घूमने लगता है। क्या खाली पड़ी मंत्रिमंडल की कुर्सी भरने पर आलाकमान से कोई चर्चा होगी? क्या कांग्रेस की धक्के से चल रही संगठन के गठन की प्रक्रिया में कोई तेजी आएगी? क्या कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष पद को लेकर किसी बदलाव की संभावना है? CM सुक्खू दिल्ली में केंद्रीय मंत्रियों और कांग्रेस के आला नेताओं से मीटिंग करेंगे और वे हिमाचल की नव नियुक्त कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल से भी मुलाकात करेंगे। बस यही कारण है कि इस दौरे से प्रदेश की सियासी हलचल बढ़ी हुई है। आपको याद करा दें कि सरकार के दो साल हो गए हैं, मगर अब तक हिमाचल कैबिनेट में मंत्री का एक पद खाली है। इस मंत्री पद की रेस में कई नेता हैं, जैसे अर्की से विधायक संजय अवस्थी, कुल्लू से सुंदर सिंह ठाकुर, ज्वालाजी से संजय रत्न और पालमपुर से आशीष बुटेल। मगर यह पद कब और किसकी झोली में जाएगा, बस यही तय होना है। इसी तरह 100 दिन से भी ज्यादा समय से प्रदेश में कांग्रेस का संगठन भंग है। इस सुस्ती पर खुद कैबिनेट मंत्री ही संगठन को पैरालाइज्ड बता चुके हैं, मगर अब तक इस प्रक्रिया में कोई तेजी नहीं आई। वहीं, हिमाचल कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह का भी तीन साल का कार्यकाल अप्रैल 2025 में पूरा होने जा रहा है, इसलिए अध्यक्ष पद को लेकर हलचल तेज है। अब देखना होगा कि इस दौरे में इन सब मसलों को लेकर कोई बड़ा अपडेट आता है या यह महज कयास ही रह जाएंगे।
एक के पिता सांसद रहे, तो एक के दादा सीएम एक विधायक का बेटा भी विधायक रहा मौजूदा सीएम सहित पांच मुख्यमंत्रियों के परिवार राजनीति में परिवारवाद से निकले कई नेता चुनाव हारे, वरना आंकड़ा और ज्यादा होता हिमाचल प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डा. वाईएस परमार से लेकर मौजूदा मुख्यमंत्री सुखविंद्र सिंह सुक्खू तक, हिमाचल की सियासत के कई ऐसे बड़े नाम है जिनके परिवारजन राजनीति में सक्रीय है। फेहरिस्त बहुत लम्बी है; ठाकुर रामलाल, वीरभद्र सिंह, प्रो प्रेम कुमार धूमल, पंडित सुखराम, पंडित संतराम, सत महाजन, केडी सुल्तानपुरी जैसे कई दिग्गजों के परिवार सियासत में है। कोई केंद्र में मंत्री है तो कोई प्रदेश में, इसमें भाजपाई भी है और कांग्रेसी भी। दिलचस्प बात ये है की अब तक सात व्यक्ति ही हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर पहुंचे है। इन सात में से पांच के परिवार भी सियासत में है। प्रथम मुख्यमंत्री रहे डा. वाईएस परमार के बेटे कुश परमार नाहन से विधायक रहे है। अब तीसरी पीढ़ी भी सियासत में है। प्रदेश के दूसरे मुख्यमंत्री रहे ठाकुर रामलाल के पोते रोहित ठाकुर वर्तमान सरकार में कैबिनेट मंत्री है। 6 बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह का परिवार भी सियासत में सक्रीय है। उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह तीन बार सांसद रही हैं और पीसीसी चीफ भी। वहीँ उनके पुत्र विक्रमादित्य सिंह वर्तमान सरकार में मंत्री भी है। इसी तरह दो बार प्रदेश में मुख्यमंत्री रहे प्रो प्रेम कुमार धूमल के पुत्र अनुराग ठाकुर पांचवी बार सांसद है और मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रह चुके है। वहीँ मौजूदा मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू की पत्नी भी देहरा से विधायक है। मौजूदा विधानसभा में 40 विधायक कांग्रेस के है और 28 भाजपा के। इनमें से भाजपा के दो विधायक अनिल शर्मा और सुधीर शर्मा ही ऐसे है, जिनके पिता भी विधायक रहे है। हालांकि भाजपा के टिकट वितरण में परिवारवाद से कोई परहेज नहीं रहा है, चाहे वो 2022 का चुनाव हो या उपचुनाव, लेकिन उनमे से अधिकांश प्रत्याशी उम्मीदवार चुनाव हार गए। इस फेहरिस्त में रजत ठाकुर, गोविन्द सिंह ठाकुर, रवि ठाकुर जैसे नाम है जो वंशवाद से निकले है। बात कांग्रेस की करें तो मौजूदा 40 में से 11 विधायकों के पिता भी विधायक रहे है। इनमे नीरज नैयर, भवानी पठानिया, यादविंद्र गोमा, आरएस बाली, आशीष बुटेल, भुवनेश्वर गौर, विवेक शर्मा , विनय कुमार , हर्षवर्धन सिंह , विक्रमादित्य सिंह और जगत सिंह नेगी शामिल है। वहीँ मंत्री रोहित ठाकुर के दादा ठाकुर राम लाल प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके है। इसी तरह वर्तमान में देहरा से विधायक कमलेश ठाकुर के तो पति ही मुख्यमंत्री है। कसौली विधायक विनोद सुल्तानपुरी के पिता केडी सुल्तानपुरी भी 6 बार सांसद रहे है। तो मंत्री चौधरी चंद्र कुमार के बेटे नीरज भारती भी विधायक रह चुके है।
बिना जनसभा किए ही कोटली से लौट आए थे तत्कालीन सीएम वीरभद्र सिंह साल था 1997, प्रदेश की सत्ता पर वीरभद्र सिंह काबिज थे और पंडित सुखराम हिमाचल विकास कांग्रेस बना चुके थे। उस दौर में वीरभद्र सिंह और पंडित सुखराम के बीच टकराव चरम पर था। बताया जाता है कि विधानसभा चुनावों से कुछ दिन पहले ही मंडी के कोटली में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के काफिले को रोक लिया गया था। दरअसल, कोटली में पंडित सुखराम समर्थकों का जमावड़ा था। स्थानीय लोग गुस्से और रोष से भरे हुए थे। कहा जाता है कि कुछ लोगों ने मुख्यमंत्री की कार को निशाना तक बनाने की कोशिश की थी। पंडित सुखराम के पक्ष में लोग सड़कों पर थे, जिसके बाद माहौल देखकर वीरभद्र सिंह कोटली से लौट आए। इस वाकये को याद करते हुए अनिल शर्मा बताते हैं कि— "उस वक्त पंडित सुखराम और हम नई पार्टी बना रहे थे और कोटली में हमारी नई पार्टी का कार्यक्रम था। मुख्यमंत्री का वहां कोई आयोजन नहीं था, बल्कि वह तो बस वहां से होते हुए कहीं और किसी अन्य कार्यक्रम में जा रहे थे। जैसे ही हमारे समर्थकों को मालूम पड़ा कि वीरभद्र सिंह आए हैं, तो हमारे समर्थकों ने उनका घेराव कर उन्हें रोक दिया। फिर मैं खुद वहां पहुंचा, अपने समर्थकों को समझाया और उन्हें वहां से जाने दिया।" अनिल कहते हैं कि, "वीरभद्र सिंह हमारे क्षेत्र में थे, हमारे मेहमान थे, उन्हें नहीं रोका जाना चाहिए था, मगर समर्थकों ने ऐसा किया।"
हिमाचल में विधायकों की पेंशन को लेकर अक्सर चर्चाएं होती रहती हैं। आज प्रदेश में पूर्व विधायकों को करीब 85 हजार रुपये पेंशन मिलती है, मगर जब यह व्यवस्था शुरू हुई थी, तब पेंशन की रकम सिर्फ 300 रुपये थी। लेकिन क्या आप जानते हैं, इस पेंशन की शुरुआत कैसे हुई ? इसके पीछे की कहानी बेहद दिलचस्प है— बात साल 1974 की है। हिमाचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार हमीरपुर में एक मेले के उद्घाटन के लिए पहुंचे थे। गर्मियों की चटक धूप के बीच मेला अपने रंग में था—दुकानों पर भीड़ थी। मुख्यमंत्री परमार, अन्य गणमान्य व्यक्तियों के साथ दुकानों का अवलोकन कर रहे थे। तभी, उनकी नज़र एक चूड़ियों की दुकान पर पड़ी। दुकान में बैठे व्यक्ति को देखते ही वह ठिठक गए। यह कोई आम दुकानदार नहीं था, यह अमर सिंह चौधरी थे, जो 1967 से 1972 तक जनसंघ के टिकट पर मेवा (अब भोरंज) विधानसभा क्षेत्र के विधायक रह चुके थे। मुख्यमंत्री परमार ने चौंकते हुए पूछा, "अमर सिंह जी, आप यहां? यह दुकान?" अमर सिंह चौधरी हल्के से मुस्कुराए, फिर बोले, "क्या करें डॉक्टर साहब, अब विधायक नहीं हूं, तो गुजारा करने के लिए कुछ तो करना होगा। परिवार पालना है, इसलिए मेलों में दुकानदारी करता हूं।" यह सुनते ही परमार साहब का चेहरा गंभीर हो गया। हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने प्रदेश को खड़ा करने में अपना जीवन लगा दिया था, और अब उनके सामने एक पूर्व विधायक, जिसने जनता की सेवा की थी, आर्थिक तंगी में चूड़ियां बेचने को मजबूर था। मेला खत्म हुआ, पर यह दृश्य डॉ. परमार के दिलो-दिमाग में घर कर गया। शिमला लौटते ही उन्होंने अगली कैबिनेट बैठक में यह मुद्दा उठाया। चर्चा के बाद फैसला हुआ, अब प्रदेश के पूर्व विधायकों को 300 रुपये मासिक पेंशन दी जाएगी, ताकि वे सम्मानजनक जीवन जी सकें। इस एक फैसले से हिमाचल में विधायकों की पेंशन की नींव पड़ गई, और धीरे-धीरे समय के साथ यह व्यवस्था मजबूत होती चली गई। खास बात यह है कि अमर सिंह चौधरी का राजनीतिक सफर यहीं खत्म नहीं हुआ। इस घटना के कुछ सालों बाद, वह 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर फिर से विधायक बने और 1980 तक हिमाचल विधानसभा में रहे। हालांकि, अब विधायकों को कोई ऐसी समस्या नहीं है l पेंशन तो मिलती ही है, साथ ही विधायकों का टेलीफोन भत्ता भी 15 हजार रुपये है।
6 नवम्बर से न प्रदेश कार्यकारिणी और न जिला व ब्लॉक अध्यक्ष ! दिग्गज नेताओं को भी खल रही आलाकमान की लेट लतीफी, उठने लगी आवाजें ! दिन-ब-दिन आक्रामक होती दिख रही बीजेपी और कांग्रेस बेसंगठन ! अलबत्ता, सन्नाटा चौधरी चंद्र कुमार ने भंग कर दिया हो, लेकिन कांग्रेस आलाकमान की निद्रा अभी भी नहीं टूटी। सौ दिन से ज्यादा हो गए हैं हिमाचल में कांग्रेस के संगठन को भंग हुए, मगर आलाकमान अब भी किसी जल्दबाजी में नहीं दिख रहा। शायद हिमाचल में सरकार होने की तसल्ली के आगे संगठन की गैरमौजूदगी पार्टी को खल ही नहीं रही। कांग्रेस की इस हाल-ए-हालत पर गोपाल दास नीरज की कुछ पंक्तियाँ मौजूं हैं ....हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे ...कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे ...... आलाकमान का यही सुस्त रवैया बरकरार रहा तो डर है हिमाचल में भी कांग्रेस के हिस्से रह जाएगा सिर्फ गुबार। करीब 140 साल पुरानी कांग्रेस आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। ताजा दौर की बात करें तो महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली में पार्टी को शर्मनाक हार मिली है। 16 साल से केंद्र की सत्ता से पार्टी दूर है और अब ले-देकर महज तीन राज्यों में पार्टी की सरकार है, जिनमें से एक हिमाचल प्रदेश है। हैरत की बात यह है कि इस हिमाचल प्रदेश में भी पिछले सौ दिन से पार्टी का संगठन नहीं है। 6 नवंबर को पार्टी आलाकमान ने पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह के अलावा समस्त प्रदेश कार्यकारिणी तथा सभी जिला और ब्लॉक इकाइयाँ भंग कर दी थीं और तब से नई कार्यकारिणी का इंतजार बना हुआ है। पार्टी मुख्यालय में सन्नाटा पसरा है और पार्टी के बड़े चेहरे भी अब इस लेट-लतीफी पर आवाज बुलंद करने लगे हैं। कांग्रेस हिमाचल में संगठन की नियुक्तियों के लिए नया फार्मूला इस्तेमाल कर रही है। इसके मुताबिक अब प्रदेश अध्यक्ष को मर्जी की टीम नहीं मिलेगी, बल्कि ऑब्जर्वर की रिपोर्ट के आधार पर संगठन में ताजपोशी होगी। संगठन भंग करने के बाद आलाकमान ने सभी 12 जिलों और चारों संसदीय क्षेत्रों में पर्यवेक्षक नियुक्त किए हैं, ताकि जमीनी फीडबैक मिल सके। ये पर्यवेक्षक अपनी रिपोर्ट आलाकमान को सौंप चुके हैं, बावजूद इसके नई कार्यकारिणी का गठन नहीं हुआ है। अब आलाकमान की इस लेट-लतीफी से पार्टी का आम वर्कर जरूर मायूस दिख रहा है। अब बात करते हैं कांग्रेस के असल मर्ज की। सर्वविदित है कि हिमाचल कांग्रेस में कई गुट हैं, लेकिन मोटे तौर पर सुक्खू गुट और होली लॉज कैंप के अलावा मुकेश अग्निहोत्री की अपनी एक अलग लॉबी दिखती है। हालांकि, अग्निहोत्री बेहद संतुलित ढंग से सियासत करते दिखे हैं, लेकिन जाहिर है वे भी अपने समर्थकों को संगठन के अहम ओहदों पर एडजस्ट करना चाहेंगे। आलाकमान भी इससे अवगत है और पार्टी के जहन में हरियाणा भी होगा, जहाँ गुटबाजी कांग्रेस को ले बैठी। हरियाणा में अर्से से पार्टी संगठन तक नहीं बना पा रही है। ऐसे में लाजमी है आलाकमान भी फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाए और संतुलन सुनिश्चित करे। वहीं दूसरी ओर, प्रदेश भाजपा ने 18 लाख नए सदस्य बनाने के साथ-साथ नए ब्लॉक और जिला अध्यक्ष चुन लिए हैं। नई ऊर्जा से लबरेज बीजेपी, कांग्रेस सरकार को हर मुद्दे पर जोरदार ढंग से घेर रही है। मगर सरकार को डिफेंड करने के लिए कांग्रेस के पास कोई पदाधिकारी नहीं बचा। संगठन की मजबूती किसी भी राजनीतिक दल की असली ताकत होती है, और अगर कांग्रेस इसे नजरअंदाज करती रही, तो हिमाचल में उसकी पकड़ और भी कमजोर होगी।
हिमाचल सरकार में मंत्री चौधरी चंद्र कुमार ने आज खुद ही तस्लीम कर लिया कि हिमाचल में कांग्रेस संगठन पिछले कुछ दिनों से पैरालाइज़्ड है... मगर कांग्रेस आलाकमान के पास शायद हिमाचल की सुध लेने तक का समय नहीं... आज से करीब तीन महीने पहले कांग्रेस संगठन की कार्यकारिणी भंग कर दी गई थी। तब से लेकर अब तक हिमाचल कांग्रेस बिना संगठन के है। संगठन के नाम पर कुछ बचा है तो वह है कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह। सिर्फ उन्हें पद से नहीं हटाया गया। मगर वह सेनापति किस काम का जिसकी सेना ही न हो। बस यही कारण है कि अब कांग्रेस के भीतर भी इस बात को लेकर असंतोष के स्वर बुलंद होने लगे हैं... वैसे ही जैसे आज कृषि मंत्री चंद्र कुमार ने किए। वैसे बता दें कि इस बार संगठन की नियुक्तियों के लिए कांग्रेस नया फ़ॉर्मूला इस्तेमाल कर रही है। ऑब्ज़र्वर नियुक्त किए गए थे और इन्हीं की रिपोर्ट के आधार पर संगठन में ताजपोशी होनी है। बताया जा रहा है कि फ़ीडबैक जा चुका है लेकिन आलाकमान की दिल्ली चुनाव में व्यस्तता के कारण संगठन के गठन में विलंब हो रहा था... पर दिल्ली में तो कांग्रेस तीसरी बार भी अपना खाता तक नहीं खोल सकी... दिल्ली में पार्टी की ऐतिहासिक हार पर भी चंद्र कुमार ने खुलकर अपना पक्ष रखा l इसमें कोई दो राय नहीं कि मंत्री चौधरी चंद्र कुमार ने आज अपनी पार्टी के लिए जो कहा है, वही हकीकत है... चंद्र कुमार ने सीधे तौर पर पार्टी की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं... उन्होंने पार्टी को आइना दिखाया है... उम्मीद है कि यह सुगबुगाहट कांग्रेस आलाकमान के कानों तक पहुंचेगी और जल्द ही दिल्ली चुनाव की थकान मिटाकर पार्टी आलाकमान हिमाचल में संगठन के बारे में कुछ सोचेगा l
एक नेता महज़ 26 वोट से चुनाव हार गया... हार नहीं मानी और इस नतीजे को हाईकोर्ट में चुनौती दे डाली... वहां राहत नहीं मिली तो सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया... 2 साल की लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव रद्द कर दिया और दोबारा चुनाव के आदेश दिए... मगर इस बार पार्टी ने उस नेता का ही टिकट काट दिया... इसे ही तो सियासत कहते हैं। साल 2000 में भाजपा नेता और पूर्व मंत्री महेंद्र नाथ सोफत के साथ जो हुआ, वह किसी भी नेता के लिए किसी डरावने सपने से कम नहीं। दरअसल, सोफत साल 1998 के विधानसभा चुनाव में सोलन विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के प्रत्याशी थे। वहीं, कांग्रेस ने कृष्णा मोहिनी को चुनावी रण में उतारा था। मुकाबला बेहद रोमांचक था। मतगणना के बाद पहले भाजपा प्रत्याशी महेंद्र नाथ सोफत को महज़ एक वोट से विजयी घोषित कर दिया गया। लेकिन यह जीत चंद मिनटों की ही मेहमान निकली। कांग्रेस प्रत्याशी कृष्णा मोहिनी ने तुरंत आवेदन दिया और फिर रिकाउंटिंग हुई। इस बार नतीजा पलट गया—अब सोफत हार गए और कृष्णा मोहिनी महज़ 26 वोट से जीत गईं। महेंद्र नाथ सोफत इस हार को स्वीकार नहीं कर पाए। उन्होंने पहले हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में अनियमितताओं को स्वीकार करते हुए फिर से चुनाव करवाने का आदेश दिया। सोफत ने इसे अपनी जीत समझा। लेकिन कहानी में एक और मोड़ था। भाजपा ने 2000 में हुए सोलन उपचुनाव के लिए प्रत्याशी ही बदल दिया। दरअसल, जब तक सोफत यह मुकदमा जीते, तब तक प्रदेश की राजनीति में सब कुछ बदल चुका था। अब प्रदेश की सियासत में शांता कुमार नहीं बल्कि धूमल का दौर था। तो महेंद्र नाथ सोफत की जगह डॉ. राजीव बिंदल को टिकट दे दिया गया। कहा जाता है कि बिंदल को कभी खुद सोफत राजनीति में लेकर आए थे। यानी गुरु गुड़ रह गया और चेला शक्कर हो गया... इस तरह सोफत भाजपा में ठिकाने लगा दिए गए और हिमाचल की सियासत में बिंदल की एंट्री हुई... जो आज भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं।
बहुत कम लोगों को मालूम है कि हिमाचल प्रदेश के छह बार मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह भी एक बार विधानसभा चुनाव हार गए थे। 1990 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। यही नहीं, खुद वीरभद्र सिंह भी जुब्बल-कोटखाई से चुनाव हार गए। लेकिन इसके बावजूद वे विधानसभा पहुंचे। कैसे? आइए जानते हैं... इस चुनाव में वीरभद्र सिंह ने एक नहीं, बल्कि दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ा—शिमला जिले के रोहड़ू और जुब्बल-कोटखाई। इसे हार का डर कहें या अपनी लोकप्रियता पर भरोसा, लेकिन यह हिमाचल प्रदेश की राजनीति का दिलचस्प दौर था। रोहड़ू सीट पर वीरभद्र सिंह ने एकतरफा जीत दर्ज की, लेकिन जुब्बल-कोटखाई में उन्हें मात्र 1500 वोटों से हार का सामना करना पड़ा। दिलचस्प बात ये है की वीरभद्र सिंह को हराने वाले कोई और नहीं, बल्कि पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल थे—वही ठाकुर रामलाल, जिन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाकर वीरभद्र सिंह पहली बार सीएम बने थे। दरअसल, मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद ठाकुर रामलाल को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया था, जिससे वे प्रदेश की राजनीति से दूर हो गए। समय के साथ ठाकुर रामलाल और कांग्रेस के बीच दूरियां बढ़ीं और उन्होंने जनता दल का दामन थाम लिया। 1990 में जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ते हुए ठाकुर रामलाल ने जुब्बल-कोटखाई से वीरभद्र सिंह को हराया। इसी चुनाव में मुख्यमंत्री पद के दूसरे दावेदार शांता कुमार ने भी दो सीटों से चुनाव लड़ा—सुलह और पालमपुर। दिलचस्प बात यह रही कि वे दोनों सीटों से चुनाव जीत गए।
हिमाचल प्रदेश की राजनीति में कई दिलचस्प शख्सियतें हुई हैं, लेकिन इन मंत्री जी का अंदाज बिल्कुल अलग था। ये मंत्री फाइलों पर महज दस्तखत नहीं करते थे, बल्कि अपना स्पष्ट निर्णय भी लिखते थे। हम बात कर रहे हैं यशवंत सिंह परमार की सरकार में मंत्री रहे हरिदास की। हरिदास न सिर्फ अपनी सादगी बल्कि अपने अनोखे फैसलों के लिए भी मशहूर थे। हरिदास अगर किसी प्रस्ताव से सहमत होते, तो लिखते— "मान गया हरिदास", और यदि असहमत होते, तो दो टूक जवाब देते— "नहीं मानता हरिदास"! हरिदास ज़्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं थे, मगर उनका विज़न कमाल का था। उनकी समझ सिर्फ प्रशासन तक सीमित नहीं थी, वे ज़मीन से जुड़े नेता थे। जब उन्हें पता चला कि बिलासपुर और उसके आसपास की मिट्टी में कुछ खास है, तो वे उसका एक ढेला उठाकर विधानसभा पहुँच गए। विधानसभा का माहौल हमेशा की तरह गर्म था। जब हरिदास ने अपनी बात रखनी शुरू की, तो कई लोग मुस्कुराने लगे। उन्होंने मिट्टी का वह ढेला दिखाकर कहा, "इसकी जांच होनी चाहिए। मुझे लगता है कि यह साधारण मिट्टी नहीं है, इसका व्यावसायिक इस्तेमाल हो सकता है!" कुछ विधायकों ने ठहाके लगाए, कुछ ने मजाक में कहा, "मंत्री जी, अब आप मिट्टी में भी संभावनाएँ ढूँढने लगे?" लेकिन हरिदास बिना विचलित हुए अपनी बात पर अडिग रहे। हरिदास की जिद पर आखिरकार मिट्टी की जांच करवाई गई। जब रिपोर्ट आई, तो सभी चौंक गए। यह मिट्टी उच्च गुणवत्ता वाले सीमेंट निर्माण के लिए उपयुक्त थी! जल्द ही इस खोज ने उद्योगपतियों का ध्यान आकर्षित किया। देखते ही देखते बिलासपुर और उसके आसपास के इलाकों में बड़े-बड़े सीमेंट प्लांट लगने लगे। बरमाणा में एसीसी सीमेंट प्लांट और दाड़लाघाट में अंबुजा सीमेंट प्लांट स्थापित हुए, जिससे न केवल हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली, बल्कि हजारों लोगों को रोजगार भी मिला। वही लोग, जो कभी ठाकुर हरिदास की खिल्ली उड़ाते थे, अब उनकी दूरदृष्टि की तारीफ कर रहे थे।
हिमाचल कांग्रेस की तरफ से सीएम सुखविंद्र सिंह सुक्खू बीते दिनों दिल्ली पहुंचे थे और उन्होंने ही प्रचार की रस्म-ए-अदायगी भी की। सीएम सुक्खू स्टार प्रचारकों की लिस्ट में भी थे, जाहिर है इसी के चलते उनका जाना जरूरी था, सो हाजिरी भर दी गई। पर दिल्ली में हिमाचल के अन्य नेताओं की जरूरत कांग्रेस आलाकमान को महसूस ही नहीं हुई। दूसरी तरफ बीजेपी ने हिमाचल के कई नेताओं की दिल्ली में दौड़ लगाए रखी। यूं तो बीजेपी राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और दिल्ली के संगठन मंत्री पवन राणा भी हिमाचल से हैं, पर बीजेपी ने हिमाचल के कई नेताओं को दिल्ली में तैनात किया। सांसद अनुराग ठाकुर, सांसद इंदु गोस्वामी और सांसद सुरेश कश्यप के अलावा विधायक हंसराज, विनोद कुमार और प्रकाश राणा खास पूरे चुनाव में दिल्ली में डटे रहे। चेतन बरागटा को भी दिल्ली में विशेष जिम्मा मिला, जो लगातार दिल्ली में डटे हुए हैं। दरअसल, दिल्ली की कई सीटों पर हिमाचल के लोग निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। कई विधानसभा हलकों में बड़ी संख्या में हिमाचल प्रदेश के लोग रहते हैं, जो केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों, निजी क्षेत्र और अन्य सेवाओं में कार्यरत हैं। इसके अलावा, कई युवा दिल्ली में पढ़ाई और नौकरी के चलते स्थायी रूप से यहीं बस गए हैं। विशेषकर बुराड़ी, मयूर विहार, उत्तम नगर, बदरपुर, संगम विहार, मोती नगर, कोंडली, रोहिणी, आदर्श नगर, जंगपुरा, शाहदरा, नजफगढ़ और विकासपुरी हलकों में हिमाचली वोटर बेहद महत्वपूर्ण हैं। यही कारण है कि इस बार बीजेपी ने मिशन दिल्ली के लिए विशेष 'हिमाचल प्लान' के तहत प्रचार किया। दूसरी तरफ कांग्रेस मानो दिल्ली में जीत के लिए आश्वस्त है, शायद इसलिए न तो पार्टी ने रणनीति बनाने में ज्यादा हाथ-पांव मारे और न अपने नेताओं को ज्यादा कष्ट दिया।
'येन केन प्रकारेण' बीजेपी जीतना चाहेगी तीनों दिग्गजों की सीटें कांग्रेस के संदीप दीक्षित और अलका लाम्बा ने भी बना दिया है चुनाव ! ये चुनाव नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजिए, एक आग का दरियाँ है और डूब के जाना है। कुछ ऐसी ही स्थिति इस बार दिल्ली में आम आदमी पार्टी की नज़र आ रही है। इस बार दिल्ली में आप की राह आसान नहीं है और दिलचस्प बात ये है कि पार्टी के तीनों मुख्य चहेरे, यानी सीएम आतिशी, पूर्व व प्रोजेक्टेड सीएम अरविन्द केजरीवाल और पूर्व डिप्टी व प्रोजेक्टेड डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया भी अपनी -अपनी सीटों पर फंसे देख रहे है । इन तीनों दिग्गजों की सीटों पर इस बार मुकाबला टक्कर का है। 'येन केन प्रकारेण' बीजेपी इन सीटों को जीतना चाहती है और जमीनी स्तर पर इसका असर दिख भी रहा है। सिलसिलेवार बात करें तो नई दिल्ली से, अरविन्द केजरीवाल के सामने बीजेपी और कांग्रेस, दोनों ने पूर्व मुख्यमंत्रियों के पुत्रों को मैदान में उतारा है। बीजेपी से पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा है तो दूसरी तरफ कांग्रेस से पूर्व सीएम शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित। ये दोनों ही दो -दो मर्तबा सांसद भी रहे है और दोनों ने ही पूरी ताकत झोंकी है। ऐसे में इस सीट पर केजरीवाल की राह आसान जरा भी नहीं है। वहीं कालका जी सीट में भी आतिशी और भाजपा प्रत्याशी रमेश बिधूड़ी तो आमने-सामने थे ही, लेकिन इस सीट पर अब कांग्रेस प्रत्याशी अलका लाम्बा भी मजबूती से लड़ रही है। यहाँ भी मुकाबला त्रिकोणीय है और माहिर भविष्यवाणी करने से बचते दिख रहे है। बात मनीष सिसोदिया की करें तो इस बार आप ने उन की सीट बदल दी है और उन्हें पटपड़गंज की जगह जंगपुरा से मैदान में उतारा है। इस सीट पर बीजेपी के तरविंदर सिंह तो बेहद मजबूती के साथ चुनाव लड़ ही रहे है, कांग्रेस के फरहाद सूरी को भी हल्का नहीं लिया जा सकता। माहिर मान रहे है कि सूरी इस सीट पर सिसोदिया संकट में है। चर्चा सिसोदिया की पटपड़गंज सीट की भी करते है जहाँ से इस बार आप ने अवध ओझा को मैदान में उतारा है। यहाँ मुख्य रूप से यहाँ मुकाबला अवध ओझा और बीजेपी से रविंद्र नेगी के बीच माना जा रहा है। पिछले चुनाव में भी नेगी ने सिसोदिया को कड़ी टक्कर दी थी और इस बार भी ओझा यहाँ उलझे दिखे है। बहरहाल कल मतदान है और आठ फरवरी को नतीजा सामने होगा। अब आप के ये तीन दिग्गज इस चुनावी अग्नि परीक्षा को पास करते है या नहीं, ये जनता तय करेगी।
**क्या संगठन की सरदारी को हो रही है प्रेशर पॉलिटिक्स ? **लगातार बगावत थामने में नाकाम हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा ! वीरेंद्र कँवर, रमेश चंद ध्वाला, डॉ राम लाल मारकंडा, राजेश ठाकुर, बलदेव शर्मा, प्रवीण शर्मा, कृपाल परमार, तेजवंत नेगी, ये फेहरिस्त लम्बी है। इन नेताओं में से कुछ पूर्व विधायक रहे कुछ तो मंत्री भी रहे......मगर अधिकांश धूमल गुट से माने जाते है। कोई अब भी भाजपा में है तो कोई बागी हो चुका है। कोई खुलकर नाराजगी व्यक्त कर रहा है, कोई अनुशासन की सीमा में रहकर, तो किसी का मौन भी बहुत कुछ बयां कर रहा है। ये सब, या इनमें से कुछ भी एकसाथ आ जाये तो क्या होगा ? क्या इनका साथ आना मुमकिन है ? कहते है जो सोचा जा सकता है वो सियासत में किया जा सकता है। गजब सियासत है और गजब है हिमाचल में भाजपा का हाल ! 2022 के विधानसभा चुनाव में एक तिहाई सीटों पर भाजपा के बागी चुनाव लड़े और हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा जाती हुई सत्ता को तकते रह गए। फिर 2024 में भाजपा का मिशन लोटस भी हिमाचल में फेल हो गया। तब नेताओं के अतिउत्साह और उतावलेपन को लेकर भी सवाल उठे। तीन निर्दलीयों से इस्तीफा क्यों दिलवाया गया ये अब भी रहस्य बना हुआ है। उपचुनाव हुए तो भाजपा के दो नेता कांग्रेस से लड़कर विधानसभा पहुंच गए, तो तीन ने बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़ा। नतीजन 9 में से 6 सीटों पर हार मिली और एक सीट पर तो जमानत तक नहीं बची। नए नए पार्टी में आये नौ नेता चुनाव लड़ रहे थे और वर्षों पुराने निष्ठावान मुँह तक रहे थे। इतना होने पर भी सत्ता मिल जाती, तो कुछ और बात होती ..मगर भाजपा के हिस्से आई सिर्फ तोहमत और कार्यकर्ताओं की हताशा ! अब मंडल नियुक्तियों में उपेक्षा के आरोप लगते हुए पूर्व मंत्री रमेश चंद ध्वाला ने तेवर दिखाएँ है, नाराज कार्यकर्ताओं की सभा बुलाई है। तीसरे मोर्चे के संकेत देते हुए ध्वाला भाजपा की चिंता बढ़ाते दिख रहे है। संभव है ध्वाला भाजपा के तमाम नाराज नेताओं को एकसाथ लाने की मुहीम में जुटेंगे और यदि ऐसा कर पाए, तो भाजपा में नया बखेड़ा तय है। विशेषकर उन हलकों में जहां भाजपा ने आयातित नेताओं को पुराने निष्ठावानों पर तवज्जो दी है। हालांकि उनके साथ कौन हाथ मिलाता है और कौन इस सब के बाद भी भाजपा में डटा रहता है ये बाद की बात है। वैसे इसको लेकर एक सुगबुगाहट और भी है। एक वर्ग इसे प्रेशर पॉलिटिक्स का पैंतरा भी मानता है, ताकि संगठन की सरदारी उसी गुट के हिस्से आएं जो उपेक्षा का दर्द बयां कर रहा है। क्या ऐसा हो सकता है, ये सियासत है यहाँ कुछ भी मुमकिन है !
1980 में भाजपा के गठन के बाद से हिमाचल में अब तक 13 नेता प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचे है।सतपाल सिंह सत्ती सबसे अधिक दस साल तक भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे, तो खीमीराम शर्मा को सबसे कम कार्यकाल मिला। हालांकि सबसे छोटा कार्यकाल डॉ राजीव बिंदल के नाम है जो वर्तमान में दुरसी बार अध्यक्ष है। साल 2020 में उनका पहला कार्यकाल महज 186 दिन का रहा था। तब कोरोना काल में हुए घोटाले में उनका नाम उछाला और नैतिकता के आधार पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। सिलसिलेवार बात करें तो हिमाचल भाजपा के पहले प्रदेश अध्यक्ष बने ठाकुर गंगाराम जो मंडी से ताल्लुक रखते थे। वे 1984 तक अध्यक्ष रहे। इसके बाद शिमला संसदीय हलके के अर्की से सम्बन्ध रखने वाले नगीनचंद पाल भाजपा के अध्यक्ष बने, और 1986 तक पद पर रहे। 1986 में शांता कुमार हिमाचल भाजपा के अध्यक्ष बने और 1990 का विधानसभा चुनाव भी उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया। शांता कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद कुल्लू के महेश्वर सिंह प्रदेश अध्यक्ष बने और 1993 तक इस पद पर रहे। पर 1993 में भाजपा की शर्मनाक हार के बाद महेश्वर की विदाई हो गई और एंट्री हुई प्रो प्रेम कुमार धूमल की। उनके नेतृत्व में ही भाजपा ने 1998 के विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनाई और धूमल सीएम बने। फिर सुरेश चंदेल दो साल तक प्रदेश अध्यक्ष रहे और साल 2000 से लेकर 2003 तक जयकिशन शर्मा ने प्रदेश अध्यक्ष का पद संभाला। धूमल, सुरेश चंदेल और जयकिशन शर्मा, तीनों ही हमीरपुर संसदीय हलके से थे। साल 2003 में सुरेश भारद्वाज भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बने और 2007 तक इस पद पर रहे। भारद्वाज के बाद दो साल एक लिए जयराम ठाकुर और फिर 2009 से 2010 खीमीराम शर्मा ने पार्टी की कमान संभाली। 2010 में भाजपा अध्यक्ष पद पर सतपाल सिंह सत्ती की ताजपोशी हुई और वे दस साल लगातार अध्यक्ष रहे। सबसे अधिक वक्त तक अध्यक्ष रहने का रिकॉर्ड अब भी सत्ती के नाम है। सत्ती की विदाई के बाद डॉ राजीव बिंदल की ताजपोशी हुई लेकिन कोरोना काल में घोटाले के आरोप के बाद बिंदल को महज 186 दिन बाद ही नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देना पड़ा। ये हिमाचल में किसी भी भाजपा अध्यक्ष का सबसे छोटा कार्यकाल है। बिंदल के बाद सुरेश कश्यप को कमान सौपी गई और अप्रैल 2023 तक कश्यप पार्टी अध्यक्ष रहे। इसके बाद बिंदल की दोबारा बतौर अध्यक्ष एंट्री हुई। अब बिंदल को पार्टी फिर मौका देती है या नहीं, ये सवाल बना हुआ है।
क्या संगठन की सरदारी को हो रही है प्रेशर पॉलिटिक्स? लगातार बगावत थामने में नाकाम हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा! वीरेंद्र कँवर, रमेश चंद ध्वाला, डॉ राम लाल मारकंडा, राजेश ठाकुर, बलदेव शर्मा, प्रवीण शर्मा, कृपाल परमार, तेजवंत नेगी, ये फेहरिस्त लंबी है। इन नेताओं में से कुछ पूर्व विधायक रहे, कुछ तो मंत्री भी रहे... मगर अधिकांश धूमल गुट से माने जाते हैं। कोई अब भी भाजपा में है तो कोई बागी हो चुका है। कोई खुलकर नाराजगी व्यक्त कर रहा है, कोई अनुशासन की सीमा में रहकर, तो किसी का मौन भी बहुत कुछ बयां कर रहा है। ये सब, या इनमें से कुछ भी एकसाथ आ जाए तो क्या होगा? क्या इनका साथ आना मुमकिन है? कहते हैं, जो सोचा जा सकता है, वो सियासत में किया जा सकता है। गजब सियासत है और गजब है हिमाचल में भाजपा का हाल! 2022 के विधानसभा चुनाव में एक तिहाई सीटों पर भाजपा के बागी चुनाव लड़े और हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा जाती हुई सत्ता को तकते रह गए। फिर 2024 में भाजपा का मिशन लोटस भी हिमाचल में फेल हो गया। तब नेताओं के अतिउत्साह और उतावलेपन को लेकर भी सवाल उठे। तीन निर्दलीय से इस्तीफा क्यों दिलवाया गया, ये अब भी रहस्य बना हुआ है। उपचुनाव हुए तो भाजपा के दो नेता कांग्रेस से लड़कर विधानसभा पहुंचे, तो तीन ने बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़ा। नतीजतन 9 में से 6 सीटों पर हार मिली और एक सीट पर तो जमानत तक नहीं बची। नए-नए पार्टी में आए नौ नेता चुनाव लड़ रहे थे और वर्षों पुराने निष्ठावान मुँह तक रहे थे। इतना होने पर भी सत्ता मिल जाती, तो कुछ और बात होती... मगर भाजपा के हिस्से आई सिर्फ तोहमत और कार्यकर्ताओं की हताशा! अब मंडल नियुक्तियों में उपेक्षा के आरोप लगते हुए पूर्व मंत्री रमेश चंद ध्वाला ने तेवर दिखाए हैं, नाराज कार्यकर्ताओं की सभा बुलाई है। तीसरे मोर्चे के संकेत देते हुए ध्वाला भाजपा की चिंता बढ़ाते दिख रहे हैं। संभव है ध्वाला भाजपा के तमाम नाराज नेताओं को एकसाथ लाने की मुहिम में जुटेंगे और यदि ऐसा कर पाए, तो भाजपा में नया बखेड़ा तय है। विशेषकर उन हलकों में, जहाँ भाजपा ने आयातित नेताओं को पुराने निष्ठावानों पर तवज्जो दी है। हालांकि, उनके साथ कौन हाथ मिलाता है और कौन इस सब के बाद भी भाजपा में डटा रहता है, ये बाद की बात है। वैसे इसको लेकर एक सुगबुगाहट और भी है। एक वर्ग इसे प्रेशर पॉलिटिक्स का पैंतरा भी मानता है, ताकि संगठन की सरदारी उसी गुट के हिस्से आए, जो उपेक्षा का दर्द बयां कर रहा है। क्या ऐसा हो सकता है? ये सियासत है, यहाँ कुछ भी मुमकिन है!
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की एक पोस्ट पर विवाद खड़ा हो गया है, जिसके बाद उनके खिलाफ दक्षिण कोलकाता के भवानीपुर थाने में एफआईआर दर्ज कराई गई है। यह विवाद 23 जनवरी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर किए गए एक ट्वीट को लेकर उत्पन्न हुआ। राहुल गांधी ने इस पोस्ट में नेताजी की मौत की तारीख का जिक्र किया था, जो कई लोगों के अनुसार विवादास्पद था। राहुल गांधी के इस बयान को लेकर अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने कड़ी आपत्ति जताई और एफआईआर दर्ज कराने की मांग की। इसके बाद संगठन के कार्यकर्ताओं ने कोलकाता के एल्गिन रोड स्थित नेताजी के पैतृक घर के पास प्रदर्शन भी किया, जिसमें उन्होंने राहुल गांधी के बयान को लेकर अपना विरोध जताया। हिंदू महासभा के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रचूड़ गोस्वामी ने आरोप लगाया कि राहुल गांधी और उनके परिवार ने हमेशा नेताजी की विरासत को नजरअंदाज किया है। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी की यह पोस्ट नेताजी के बारे में गलत जानकारी देने की एक और कोशिश है, जिसे देश के लोग स्वीकार नहीं करेंगे। यह विवाद और गहरा हुआ जब राहुल गांधी ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर 18 अगस्त 1945 को नेताजी की मौत की तारीख बताई। हालांकि, नेताजी की मृत्यु की सही तारीख को लेकर कई सवाल हैं, क्योंकि इस संबंध में अब तक कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल सका है। इस विवाद के बाद, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक, तृणमूल कांग्रेस और भाजपा जैसे राजनीतिक दलों ने भी राहुल गांधी के बयान की आलोचना की है। जानिए क्या है पूरा मामला यह विवाद इस सप्ताह के शुरुआत में हुआ था, जब राहुल गांधी ने अपने एक्स अकाउंट पर एक पोस्ट में नेताजी की मृत्यु की तारीख 18 अगस्त 1945 बताई। यह वही तारीख थी जब नेताजी का विमान ताइहोकू (जो अब ताइपे में है) में दुर्घटनाग्रस्त हुआ था। हालांकि, नेताजी की मृत्यु की सही तारीख की कभी भी पुष्टि नहीं हो पाई और उनके गायब होने के बाद बने आयोगों ने भी इसकी पुष्टि नहीं की। ऐसे में राहुल गांधी नेताजी की मृत्यु की तारीख कैसे तय कर सकते है।
कहा , मित्रों को इक्कठा करके बताएँगे राजनीति क्या होती है तो कांगड़ा में बढ़ सकती है भाजपा की मुश्किलें भाजपा से खफा पूर्व मंत्री एवं विधायक रमेश चंद ध्वाला कांगड़ा में गरजने की हुंकार भर रहे है। ध्वाला तीसरे मोर्चे का या यूँ कहे भाजपा विरोधी मोर्चे का संकेत दे रहे है। भाजपा को खुली चुनौती दे रहे है की मित्रों को इक्कठा करके बताएँगे, राजनीति क्या होती है। दरअसल, कांगड़ा में भाजपा के नाराज नेताओं में अकेले ध्वाला नहीं है, और भी कई नेता है जो हाशिये पर है। ये फहरिस्त लम्बी है। कुछ समय पूर्व भी इन नेताओं के एक होने की चर्चा थी, और अब फिर ध्वाला ने इन कयासों को हवा दे दी है। सूत्रों की माने तो इस फेहरिस्त में ध्वाला के अलावा कई वरिष्ठ नेता और पूर्व विधायक बताये जा रहे है। यदि ऐसा होता है तो कांगड़ा में भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती है। एक दौर था जब रमेश चंद ध्वाला हिमाचल भाजपा के लिए नायक थे। 1998 में धूमल सरकार बनाने में उनकी भूमिका भला कौन भूल सकता है। पर ये ही ध्वाला बीते करीब सात साल से भाजपा से खफा- खफा है। दरअसल जयराम ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने के बाद ध्वाला को कैबिनेट में एंट्री नहीं मिली थी। इसके बाद से ही ध्वाला की टीस दिखने लगी थी। फिर पूर्व में संगठन मंत्री रहे पवन राणा के साथ उनकी सियासी खींचतान भी खूब सुर्खियों में रही। हालांकि धूमल गुट के असर के चलते 2022 में उन्हें टिकट तो मिल गया, लेकिन चुनाव हारने के बाद भाजपा में ध्वाला साइडलाइन ही दिखे है। विशेषकर होशियार सिंह की भाजपा में एंट्री और फिर उपचुनाव में होशियार को ही टिकट दिए जाने के बाद ये खाई बढ़ती दिखी है। इस बीच भाजपा संगठन में भी नई नियुक्तियां हुई है और पार्टी ने ज्वालामुखी और देहरा, दोनों ही हलकों में उनके समर्थकों को तरजीह नहीं दी है। बहरहाल, रमेश चंद ध्वाला भाजपा पर भड़ास भी निकाल रहे है और अपनी ही पार्टी को चुनौती भी दे रहे है। निशाने पर कौन कौन है, ये सब जानते है। ध्वाला राजनीति के माहिर खिलाड़ी है और सियासी शतरंज के सभी दांव पेंचों से भली भांति वाकिफ भी। सियासत का उनका अपना अलग सलीका है, बेबाक सलीका। इसलिए, वो बगैर नापे तोले उपेक्षा का दर्द भी बयां कर रहे है, अपना योगदान भी स्मरण करवा रहे है, पार्टी को आइना भी दिखा रहे है और अपनी जमीनी कुव्वत का अहसास भी करवा रहे है। आप ध्वाला को पसंद करें या नापसंद करे लेकिन खारिज नहीं कर सकते। आज भी ध्वाला हिमाचल की राजनीति में बड़ा ओबीसी चेहरा है विशेषकर कांगड़ा में और कई सीटों पर प्रभाव रखते है।देहरा और ज्वालामुखी में तो उनका सीधा असर दीखता है। ऐसे में उनकी टीस भाजपा के लिए जरा भी मुफीद नहीं है। हालांकि संगठन की नई नियुक्तियों में भाजपा का जातीय डैमेज कण्ट्रोल दीखता है, फिर भी उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। सवा तीन साल में भाजपा को मिली हार पर हार हिमाचल में भाजपा के लिए बीते तीन साल में कुछ भी अच्छा नहीं घटा है। विधानसभा चुनाव हो या उपचुनाव, पार्टी को मिली है सिर्फ हार पर हार। बीते तीन सवा तीन साल में पार्टी ने सत्ता तो गवाईं ही है, पार्टी विधानसभा के एक बारह में से सिर्फ तीन उपचुनाव ही जीत सकी है। इस पर पूर्व कांग्रेसी और निर्दलीयों के पार्टी में आने के बाद एक और खेमा बनने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में कार्यकर्त्ता का मनोबल टूटना लाजमी है। अब अगर अगर कांगड़ा में भाजपा से रूठे नेताओं का अलग मोर्चा बनता है तो तय मानिये इसकी भरपाई भाजपा के मुश्किल होगी।