म्हारे माहूँनागा घोरा बे चाल…

मोहरों पर बैठती है मधुमक्खी तब माना जाता है श्री शेषनाग जी का शक्ति अर्जन पूर्ण
देवभूमि हिमाचल के लोगों के लिए देवी-देवता केवल आराध्य नहीं, बल्कि जीवन के मार्गदर्शक भी हैं। देवता की शक्ति के आगे हर हिमाचली पूरी श्रद्धा से नतमस्तक होता है और हिमाचल की ये देव परम्पराएं यहाँ की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को भी संजोए हुए है। अटूट श्रद्धा का केंद्र ऐसे ही देवता है जीभी घाटी के अधिष्ठाता गढ़पति श्री शेषनाग जी महाराज, सहज स्वभाव वाले मगर अत्यंत शक्तिशाली। ये देवता मधुमक्खियों के जरिये साक्षात चमत्कार दिखाते हैं।
दरअसल हर 12 से 18 साल में श्री शेषनाग जी महाराज हर 12 से 18 साल में अपने हजारों हरियानों के साथ जगती-बाल्य बीढ़ पर शक्ति अर्जित करने जाते हैं, जहां से ठीक सामने मूल माहूँनाग का स्थान नजर आता है। माहूँ (मधुमक्खी), जब श्री शेषनाग जी महाराज के मोहरों पर आकर बैठती हैं तब माना जाता है कि उनका शक्ति अर्जन पूर्ण हुआ।
- इन्द्रप्रस्थ में प्रकट हुए, फिर जीभी पहुंचे
मान्यता है कि द्वापर युग में श्री शेषनाग जी महाराज सबसे पहले इन्द्रप्रस्थ ( दिल्ली) में प्रकट हुए और फिर वहां से उन्होंने हिमालय की ओर प्रस्तान किया। इसी दौरान वे हुए मंडी के मूल माहूँनाग पहुंचे और वहां अपनी जेरठी- यानी ज्येष्ठ कला स्थापित की। तदोपरांत श्री शेषनाग जी महाराज आनी की बाल्य बीढ़ नामक जगती पर पहुंचे और फिर बंजार के जीभी में आकर अपना आधिपत्य स्थापित किया। कहा जाता है कि जीभी का नाम भी देवता शेषनाग जी के मंदिर के स्थान के कारण ही पड़ा है, क्योंकि मंदिर के दोनों ओर दो खड्ड बहती हैं और बीच का स्थान पर जीभ जैसी आकृति दिखाई देती है।
बैसाख की संक्रांति से लेकर 7 बैसाख तक श्री शेषनाग जी महाराज के मेले मनाए जाते हैं। वहीँ साल में दो बार देवता जी सभी हारियों की परिक्रमा करते हैं- जिनमें मूल माहूँनाग, धींजू, लाम्बा लाम्ब्री की जोगनी, सर्योल्सर, जगतपुर गढ़ और जोगी पाथर शामिल हैं।