कारगिल हीरो : अद्भुत शौर्य और साहस का पर्याय है कैप्टन विक्रम बत्रा की कहानी
‘या तो मैं लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा। पर मैं आऊंगा जरूर.’
भले ही कारगिल युद्ध को 22 वर्ष का वक्त बीत चुका हो लेकिन शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा की ये पंक्तियाँ अब भी हर हिंदुस्तानी के जहन में जीवित है। 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस है और 7 जुलाई वो तारीख है जब कारगिल के हीरो शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा ने शहादत का जाम पिया। कैप्टेन विक्रम बत्रा जिनके बारे में खुद इंडियन आर्मी चीफ ने कहा था कि अगर वो जिंदा वापस आता, तो इंडियन आर्मी का हेड बन गया होता। कैप्टेन विक्रम बत्रा की कहानी अद्भुत शौर्य और साहस का पर्याय है।
पालमपुर में हुई प्रारंभिक शिक्षा
कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म नौ सितंबर 1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर जिले के घुग्गर में हुआ। शहीद बत्रा की मां जय कमल बत्रा एक प्राइमरी स्कूल में टीचर थी और ऐसे में कैप्टन बत्रा की प्राइमरी शिक्षा घर पर ही हुई थी। शुरुआती शिक्षा पालमपुर में हासिल करने के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए वह चंडीगढ़ चले गए। शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा के स्कूल के पास आर्मी का बेस कैम्प था। स्कूल आते-जाते समय वहां चलने वाली गतिविधियों को देखते रहते थे। सेना की कदमताल और ड्रम बीट की आवाज से उनके रोंगटे खड़े हो जाते थे। शायद यही वो वक्त था जब वे सेना में शामिल होने का मन बन चुके थे।
मर्चेंट नेवी नहीं, आर्मी ज्वाइन करना था मकसद
चंडीगढ़ में पढ़ते वक्त शहीद कैप्टेन विक्रम बत्रा ने मर्चेंट नेवी में जाने के लिए परीक्षा दी। परिणाम आया तो वह परीक्षा पास के चुके थे और कुछ ही दिनों में उनका नियुक्ति पत्र भी आ गया। जाने की सारी तैयारियां हो चुकी थी। पर उनके मन में कुछ और ही चल रह था। इस बीच एक दिन वह मां की गोद में सिर रखकर बोले, 'मां मुझे मर्चेंट नेवी में नहीं जाना, मैं आर्मी ज्वाइन करना चाहता हूं।' इसके बाद वही हुआ जो वह चाहते थे।
18 महीने की नौकरी के बाद ही जंग
विक्रम बत्रा की 13 जम्मू कश्मीर राइफल्स में 6 दिसम्बर 1997 को लेफ्टिनेंट के पोस्ट पर जॉइनिंग हुई थी। महज 18 महीने की नौकरी के बाद 1999 में उन्हें कारगिल की लड़ाई में जाना पड़ा। वह बहादुरी से लड़े और सबसे पहले उन्होंने हम्प व राकी नाब पर भारत का झंड़ा फहराया। ख़ास बात ये है कि उनकी बहादुरी और काबिलियत के चलते युद्ध के बीच में ही उन्हें कैप्टन बना दिया गया।
जब कहा, 'ये दिल मांगे मोर'
20 जून 1999 को कैप्टन बत्रा को कारगिल की प्वाइंट 5140 को दुश्मनों से मुक्त करवाने का ज़िम्मा दिया गया। युद्ध रणनीति के लिहाज से ये चोटी भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण थी। कैप्टेन विक्रम बत्रा ने इस चोटी को मुक्त करवाने के लिए अभियान छेड़ा और कई घंटों की गोलीबारी के बाद आखिरकार वह अपने मिशन में कामयाब हो गए। इस जीत के बाद जब उनकी प्रतिक्रिया ली गई तो उन्होंने जवाब दिया, 'ये दिल मांगे मोर,' बस इसी पल से ये पंक्तियाँ अमर हो गई। ये मिशन बेहद जटिल था। दरअसल, पाकिस्तानी सैनिक चोटी के टॉप पर थे और मशीन गन से ऊपर चढ़ रहे भारतीय सैनिकों पर गोलियां बरसा रहे थे। पर कैप्टन बत्रा ने हार नहीं मानी और एक के बाद एक पाकिस्तानी को ढेर करते हुए इस चोटी पर कब्जा कर लिया।
पाक ने दिया कोडनेम 'शेरशाह'
कारगिल वॉर में कैप्टन विक्रम बत्रा दुश्मनों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुके थे। ऐसे में पाकिस्तान की ओर से उनके लिए एक कोडनेम रखा गया और यह कोडनेम कुछ और नहीं बल्कि उनका निकनेम 'शेरशाह' था। इस बात का खुलासा खुद कैप्टन बत्रा ने युद्ध के दौरान ही दिए गए एक इंटरव्यू में किया था।
घुसपैठिया बोला- हमें माधुरी दीक्षित दे दो, ऐसे दिया जवाब
कैप्टन विक्रम बत्रा से जुड़ा एक वाकया हैं। एक पाकिस्तानी घुसपैठिया युद्ध के दौरान कैप्टन विक्रम बत्रा को बोला, ‘हमें माधुरी दीक्षित दे दो, हम नरम दिल हो जाएंगे। ' इस बात पर कैप्टन विक्रम बत्रा मुस्कुराए और इसका जवाब अपनी एके-47 से फायर करते हुए दिया और बोले, ‘लो माधुरी दीक्षित के प्यार के साथ’ और कई पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया।
साथी को बचाते हुए शहीद हुए थे कैप्टन बत्रा
पॉइंट 5140 पर कब्जे के बाद कैप्टेन विक्रम बत्रा अगले प्वाइंट 4875 को जीतने के लिए चल दिए। ये चोटी समुद्र लेवल से 17 हजार फीट की ऊंचाई पर है और इस पर कब्जे के लिए 80 डिग्री की चढ़ाई पर चढ़ना था। कैप्टेन विक्रम बत्रा अपने साथियों के साथ पत्थरों का कवर ले कर दुश्मन पर फायर कर रहे थे। तभी उनके एक साथी को गोली लगी और वो उनके सामने ही गिर गया। वो सिपाही खुले में गिरा हुआ था। कैप्टेन विक्रम बत्रा और उनके एक साथी चट्टानों के पीछे बैठे थे। हालांकि उस घायल सिपाही के बचने के आसार बेहद कम थे लेकिन कैप्टेन विक्रम बत्रा ने फैसला लिया की वे उस घायल सिपाही को रेस्क्यू करेंगे। जैसे ही उनके साथी चट्टान के बाहर कदम रखने वाले थे, विक्रम ने उन्हें कॉलर से पकड़ कर कहा, 'आपके तो परिवार और बच्चे हैं। मेरी अभी शादी नहीं हुई है। सिर की तरफ से मैं उठाउंगा। आप पैर की तरफ से पकड़िएगा...' ये कह कर विक्रम आगे चले गए और जैसे ही वो उनको उठा रहे थे, उनको गोली लगी और वो वहीं गिर गए और शहीद हो गए।
मरणोपरांत मिला परमवीर चक्र
कैप्टन विक्रम बत्रा को मरणोपरांत भारत का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र दिया गया। 26 जनवरी, 2000 को उनके पिता गिरधारी लाल बत्रा ने हजारों लोगों के सामने उस समय के राष्ट्रपति के आर नारायणन से सम्मान हासिल किया। कैप्टन विक्रम बत्रा की शहादत को किसी पाठ्यक्रम में नहीं जोड़ा गया। उनके परिवार ने सरकार से पत्राचार भी किया है, लेकिन अभी तक इस मामले में किसी ने कोई कदम नहीं उठाया है।
एक खूबसूरत प्रेम कहानी के नायक थे विक्रम
कारगिल युद्ध के दौरान अपनी शहादत से पहले, कैप्टन बत्रा ने 1999 में होली के त्यौहार के दौरान सेना से छुट्टी पर अपने घर का दौरा किया था। जब भी वह अपने घर जाते थे, वे ज्यादातर नियुगल कैफे जाते थे। इस बार भी, उन्होंने कैफे का दौरा किया और अपनी दोस्त और मंगेतर डिंपल चीमा से मिले। डिंपल ने उससे युद्ध में सावधान रहने को कहा, जिसमें उन्होंने उत्तर दिया, 'मैं या तो लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा. पर मैं आऊंगा जरूर।’ विक्रम बत्रा और डिंपल चीमा की मुलाकात साल 1995 में पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ में हुई थी। दोनों ने एमए में दाखिला लिया था लेकिन दोनों ही एमए पूरा नहीं कर पाए। 2016 में दिए एक इंटरव्यू में डिंपल चीमा ने कहा था कि यह किस्मत थी जो हम दोनों को करीब लाई और फिर हम दोनों एक दूसरे के हो गए। इस खूबसूरत लव स्टोरी की उम्र भले ही चार साल रही हो लेकिन इसका अहसास अमर हो गया।