उस वक़्त पूरे देश में गूंजे थे ये शब्द 'किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है'

करोड़ों लोगों के हरदिल अजीज़ राहत इंदौरी साहब आज हमारे बीच नहीं रहे, पर उन के लिखे अल्फ़ाज़ हमेशा हर हिंदुस्तानी के दिल में ज़िंदा रहेंगे। जहाँ उन्होंने मोहब्बत की शायरी से युवाओं के दिल में घर किया वहीँ उनकी बगावत की शायरी लोगों के लिए बुलंद आवाज बनी।
'किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है', राहत साहब की इस लाइन ने नागरिकता संशोधन कानून और भारतीय नागरिक रजिस्टर के विरोध में प्रदर्शकारियों को अल्फ़ाज़ दिए। उस दौरान महरूम शायर की इन पंक्तियों ने खूब सुर्खियां बटोरीं। उनकी लिखी पंक्तियाँ आंदोलन की आवाज़ बनी।
राहत इंदौरी ने सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर अपनी राय रखते हुए कहा था 'सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।'
'लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है,
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं, ज़ाती मकान थोड़ी है,
सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है!'
बहुत चुनिंदा कवि / शायर या साहित्यकार ऐसे हुए है जिनके अल्फ़ाज़ किसी आंदोलन की आवाज़ बने हो।
1. "इंकलाब जिंदाबाद" यानी, क्रांति अमर रहे।
आज़ादी के समय में एक नारा मशहूर हुआ था और आज भी है 'इंकलाब जिंदाबाद।' कई लोगों का ये मानना है कि ये नारा शहीद भगत सिंह ने ही पहली बार दिया था। लेकिन हक़ीक़त में यह नारा उर्दू शायर मौलाना हसरत मोहानी ने 1921 में दिया था। तब से लेकर आज तक कोई धरना या प्रदर्शन हो या फिर देश की सम्प्रभुता और एकता व अखंडता का कोई जलसा हो, हर जगह यह नारा बुलंद होता है। इंक़लाब जिन्दबाद का नारा अमर था और सदा अमर रहेगा।
2. "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है"
1977 में लगी इमरजेंसी के दौरान लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इसी नारे के साथ इंदिरा गाँधी को चुनौती दी थी। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता से ली इन पंक्तियों ने इंदिरा सरकार की नींव हिला दी थी। दिनकर ने आजादी की लड़ाई से लेकर, उसके बाद तक अपनी लेखनी से जनता को उसके अधिकारों के प्रति जागरूक किया। उन्होंने हिंदी साहित्य में न केवल वीर रस के काव्य को एक नई ऊंचाई दी, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया। उनकी प्रेरक देशभक्ति रचनाओं के कारण उन्हें राष्ट्रकवि के रूप में प्रतिष्ठित किया गया।
'फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।'
3. "मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।"
दुष्यंत कुमार की कविता इस कविता का अर्थ है "सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।" दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।