रावण से जुड़ा है बाबा बैद्यनाथ शिवलिंग स्थापना का रहस्य
( words)

बाबा बैद्यनाथ धाम की भूमि विश्वभर में प्रसिद्ध है लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि इस स्थान पर शिव-शक्ति का मिलन भी होता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, देवघर में शिव से पहले शक्ति का वास है। 52 शक्तिपीठों में इसे हाद्र पीठ के रूम में जाना जाता है। इस स्थान को चिता भूमि के नाम से भी जाना जाता है। बताया जाता है कि जब राजा दक्ष ने अपने यज्ञ में भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया, तो सती बिना शिव की अनुमति लेकर मायके पहुंच गई और पिता द्वारा शिव का अपमान किए जाने के कारण उन्होंने मृत्यु का वरण किया। सती की मृत्यु सूचना पाकर भगवान शिव गुस्सा हो गए और सती के शव को कंधे पर लेकर भगवान शिव तांडव करने लगे। उस वक्त भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से देवी सती के शरीर को 52 टुकड़ों में बांट दिया था। उस समय देवी सती का हृदय देवघर में ही गिरा था। मान्यता के अनुसार देवी-देवताओं ने देवी सती के हृदय का यहाँ अंतिम संस्कार किया था, तभी से इसे चिता भूमि के नाम से भी जाना जाता है। कहा तो ये भी जाता है कि जहां पर देवी सती का हृदय गिरा था, वहीं पर बाबा बैद्यनाथ की स्थापना की गई है। यहां के श्मशान को महाश्मशान का दर्जा दिया गया है। तंत्र मार्ग में भी देवघर को काफी महत्वपूर्ण माना गया है। बताया जाता है कि आज तक कोई भी तांत्रिक यहां अपनी साधना पूरी नहीं कर सका है। शक्तिपीठ होने के कारण इसे भैरव स्थान भी माना गया है।
ऐसे स्थापित हुआ शिवलिंग:
पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार शिव को प्रसन्न करने के लिए रावण ने हिमालय पर कठोर तप किया। भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए वह एक-एक करके अपने सिर को काटते जा रहा था। जैसे ही उसने 10वां सिर काटना चाहा, भगवान शिव प्रकट हो गये और उससे वर मांगने को कहा। कथा के अनुसार, रावण ने भगवान शिव से कामनालिंग लंका ले जाने का वर मांगा। भगवान शिव ने रावण को 'कामनालिंग' ले जाने का वर दे दिया लेकिन साथ में ये भी शर्त रख दी कि वह रास्ते में कहीं पर भी उस शिवलिंग को जमीन पर नहीं रखेगा। यदि वह शिवलिंग जमीन पर रख दिया तो वे वहीं विराजमान हो जाएंगे। दूसरी ओर भगवान विष्णु नहीं चाहते थे कि यह ज्योतिर्लिंग लंका पहुंचे। इसे देखते हुए उन्होंने गंगा को रावण के पेट में समाने को कहा। वहीं, रावण के पेट में गंगा के आने के बाद रावण को लघुशंका की इच्छा हो उठी। इसके बाद वह ज्योतिर्लिंग रावण ने एक बैजू नामक ग्वाला को पकड़ने के लिए दे दिया और वह लघुशंका करने चला गया। कहा जाता है कि रावण कइ घंटों तक लघुशंका करता रहा, जो आज भी वहां एक तालाब के रुप में मौजूद है। इधर, ग्वाले के रूप खड़े भगवान विष्णु ने शिवलिंग वहीं पर रखकर स्थापित कर दिया। रावण जब लौटा तो देखा कि शिवलिंग जमीन पर रखा हुआ है। उसके बाद रावण ने शिवलिंग को उठाने की कई बार कोशिश की, लेकिन वह उसे उठा नहीं सका। उसके बाद रावण ने गुस्से में शिवलिंग को अंगूठे से धरती के अंदर दबा दिया और लंका चला गया। बताया जाता है कि तब से ही यहां पर शिवलिंग स्थापित है, जिसे 'कामनालिंग' के नाम से जाना जाता है।
ऐसे पड़ा बैद्यनाथ नाम :
मान्यता है कि सतयुग में ही इस स्थान का नामकरण कर बैद्यनाथ रख दिया गया था। शिवपुराण के शक्ति खंड में इस बात का उल्लेख है कि माता सती के शरीर के 52 खंडों की रक्षा के लिए भगवान शिव ने सभी जगहों पर भैरव को स्थापित किया था। देवघर में माता का हृदय गिरा था। इसलिए इसे हृदय पीठ या शक्ति पीठ भी कहते हैं। माना जाता है कि माता के हृदय की रक्षा के लिए भगवान शिव ने यहां जिस भैरव को स्थापित किया था, उनका नाम बैद्यनाथ था। इसलिए जब रावण शिवलिंग को लेकर यहां पहुंचा, तो भगवान ब्रह्मा और बिष्णु ने भैरव के नाम पर उस शिवलिंग का नाम बैद्यनाथ रख दिया। जानकारों की माने तो यहां के नामकरण के पीछे एक और मान्यता है। त्रेतायुग में बैजू नाम का एक शिव भक्त था। उसकी भक्ति से भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि अपने नाम के आगे बैजू जोड़ किया। इसी से यहां का नाम बैजनाथ पड़ा। कालातंर में यही बैजनाथ, बैद्यनाथ में परिवर्तित हुआ।
सावन में यहाँ लगता है कांवड़ियों का तांता :
वैसे तो साल भर इस मंदिर में शिव भक्तों की भीड़ रहती है, पर सावन महीने में यह पूरा क्षेत्र शिव भक्तों से भर जाता है। तब कांवड़ियों द्वारा सुल्तानगंज की गंगा से दो पात्रों में जल लाया जाता हैं। एक पात्र का जल बैद्यनाथ धाम देवघर में चढ़ाया जाता है, जबकि दूसरे पात्र से बासुकीनाथ में भगवान नागेश को जलाभिषेक करते हैं। बासुकीनाथ मंदिर परिसर में अलग-अलग देवी-देवताओं के बाईस मंदिर हैं। सावन में यहां प्रतिदिन करीब एक लाख भक्त जलाभिषेक करते हैं। यहाँ पर शिवलिंग पर जल चढ़ाने के भी दो अलग तरीके है। जो लोग किसी समय सीमा में बंधकर शिवलिंग पर जल नहीं चढ़ाते उन्हें 'साधारण बम' कहा जाता है। लेकिन जो लोग कावड़ की इस यात्रा को 24 घंटे में पूरा कर शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं उन्हें 'डाक बम' कहा जाता है। कुछ भक्त दंड प्रणाम करते हुए या दंडवत करते हुए सुल्तानगंज से बाबा के दरबार में आते हैं। यह यात्रा काफी कष्टकारी मानी जाती है।
ऐसे स्थापित हुआ शिवलिंग:
पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार शिव को प्रसन्न करने के लिए रावण ने हिमालय पर कठोर तप किया। भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए वह एक-एक करके अपने सिर को काटते जा रहा था। जैसे ही उसने 10वां सिर काटना चाहा, भगवान शिव प्रकट हो गये और उससे वर मांगने को कहा। कथा के अनुसार, रावण ने भगवान शिव से कामनालिंग लंका ले जाने का वर मांगा। भगवान शिव ने रावण को 'कामनालिंग' ले जाने का वर दे दिया लेकिन साथ में ये भी शर्त रख दी कि वह रास्ते में कहीं पर भी उस शिवलिंग को जमीन पर नहीं रखेगा। यदि वह शिवलिंग जमीन पर रख दिया तो वे वहीं विराजमान हो जाएंगे। दूसरी ओर भगवान विष्णु नहीं चाहते थे कि यह ज्योतिर्लिंग लंका पहुंचे। इसे देखते हुए उन्होंने गंगा को रावण के पेट में समाने को कहा। वहीं, रावण के पेट में गंगा के आने के बाद रावण को लघुशंका की इच्छा हो उठी। इसके बाद वह ज्योतिर्लिंग रावण ने एक बैजू नामक ग्वाला को पकड़ने के लिए दे दिया और वह लघुशंका करने चला गया। कहा जाता है कि रावण कइ घंटों तक लघुशंका करता रहा, जो आज भी वहां एक तालाब के रुप में मौजूद है। इधर, ग्वाले के रूप खड़े भगवान विष्णु ने शिवलिंग वहीं पर रखकर स्थापित कर दिया। रावण जब लौटा तो देखा कि शिवलिंग जमीन पर रखा हुआ है। उसके बाद रावण ने शिवलिंग को उठाने की कई बार कोशिश की, लेकिन वह उसे उठा नहीं सका। उसके बाद रावण ने गुस्से में शिवलिंग को अंगूठे से धरती के अंदर दबा दिया और लंका चला गया। बताया जाता है कि तब से ही यहां पर शिवलिंग स्थापित है, जिसे 'कामनालिंग' के नाम से जाना जाता है।
ऐसे पड़ा बैद्यनाथ नाम :
मान्यता है कि सतयुग में ही इस स्थान का नामकरण कर बैद्यनाथ रख दिया गया था। शिवपुराण के शक्ति खंड में इस बात का उल्लेख है कि माता सती के शरीर के 52 खंडों की रक्षा के लिए भगवान शिव ने सभी जगहों पर भैरव को स्थापित किया था। देवघर में माता का हृदय गिरा था। इसलिए इसे हृदय पीठ या शक्ति पीठ भी कहते हैं। माना जाता है कि माता के हृदय की रक्षा के लिए भगवान शिव ने यहां जिस भैरव को स्थापित किया था, उनका नाम बैद्यनाथ था। इसलिए जब रावण शिवलिंग को लेकर यहां पहुंचा, तो भगवान ब्रह्मा और बिष्णु ने भैरव के नाम पर उस शिवलिंग का नाम बैद्यनाथ रख दिया। जानकारों की माने तो यहां के नामकरण के पीछे एक और मान्यता है। त्रेतायुग में बैजू नाम का एक शिव भक्त था। उसकी भक्ति से भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि अपने नाम के आगे बैजू जोड़ किया। इसी से यहां का नाम बैजनाथ पड़ा। कालातंर में यही बैजनाथ, बैद्यनाथ में परिवर्तित हुआ।
सावन में यहाँ लगता है कांवड़ियों का तांता :
वैसे तो साल भर इस मंदिर में शिव भक्तों की भीड़ रहती है, पर सावन महीने में यह पूरा क्षेत्र शिव भक्तों से भर जाता है। तब कांवड़ियों द्वारा सुल्तानगंज की गंगा से दो पात्रों में जल लाया जाता हैं। एक पात्र का जल बैद्यनाथ धाम देवघर में चढ़ाया जाता है, जबकि दूसरे पात्र से बासुकीनाथ में भगवान नागेश को जलाभिषेक करते हैं। बासुकीनाथ मंदिर परिसर में अलग-अलग देवी-देवताओं के बाईस मंदिर हैं। सावन में यहां प्रतिदिन करीब एक लाख भक्त जलाभिषेक करते हैं। यहाँ पर शिवलिंग पर जल चढ़ाने के भी दो अलग तरीके है। जो लोग किसी समय सीमा में बंधकर शिवलिंग पर जल नहीं चढ़ाते उन्हें 'साधारण बम' कहा जाता है। लेकिन जो लोग कावड़ की इस यात्रा को 24 घंटे में पूरा कर शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं उन्हें 'डाक बम' कहा जाता है। कुछ भक्त दंड प्रणाम करते हुए या दंडवत करते हुए सुल्तानगंज से बाबा के दरबार में आते हैं। यह यात्रा काफी कष्टकारी मानी जाती है।
105 किमी पैदल चलकर भक्त करते हैं जलाभिषेक :
बैद्यनाथ धाम देश के बारह पवित्र द्वादश ज्योतिर्लिंग में शामिल है। यहां साल भर बाबा पर जलाभिषेक करने के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता ह। सावन में भक्त सुल्तानगंज से 105 किलोमीटर की कष्टप्रद पैदल यात्रा कर बैद्यनाथ धाम पहुंचते हैं और बाबा पर जलाभिषेक करते हैं। यह सिलसिला पूरे एक महीना चलता है। भगवान शिव के इस रूप को यहां मनोकामना शिव भी कहते है। माना जाता है कि शिवलिंग के केवल दर्शन मात्र से भक्तों की साडी इच्छाऐ यहाँ पूरी हो जाती है।
मंदिर के शीर्ष पर लगा है पंचशूल :
बाबा बैद्यनाथ मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके शीर्ष पर त्रिशूल नहीं पंचशूल है, जिसे सुरक्षा कवच माना गया है। धर्माचार्यो का इस पंचशूल को लेकर अलग-अलग मत है। मान्यता है कि पंचशूल के दर्शन मात्र से ही भगवान शिव प्रसन्न हो जाते हैं। धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि भगवान शंकर ने अपने प्रिय शिष्य शुक्राचार्य को पंचवक्त्रम निर्माण की विधि बताई थी, जिससे फिर लंकापति रावण ने इस विद्या को सिखा था और पंचशूल की अजेय शक्ति को प्राप्त किया। कहा जाता है कि रावण ने लंका के चारों कोनों पर पंचशूल का निर्माण करवाया था, जिसे तोड़ना भगवान श्रीराम के लिए भी आसान नहीं था। बाद में विभीषण द्वारा इस रहस्य की जानकारी भगवान राम को दी गई और तब जाकर अगस्त मुनि ने पंचशूल ध्वस्त करने का विधान बताया था। रावण ने उसी पंचशूल को इस मंदिर पर लगाया था, जिससे इस मंदिर को कोई क्षति नहीं पहुंचा सके। कई धर्माचार्यों का मानना है कि पंचशूल मानव शरीर में मौजूद पांच विकार-काम, क्रोध, लोभ, मोह व ईर्ष्या को नाश करने का प्रतीक है। कहा जाता है कि पंचशूल पंचतत्वों-क्षिति, जल, पावक, गगन तथा समीर से बने मानव शरीर का द्योतक है। मान्यता है कि यहां आने वाले श्रद्धालु अगर बाबा के दर्शन किसी कारणवश न कर पाए, तो मात्र पंचशूल के दर्शन से ही उसे समस्त पुण्य फलों की प्राप्ति हो जाती है। मुख्य मंदिर में स्वर्ण कलश के ऊपर लगे पंचशूल सहित यहां बाबा मंदिर परिसर के सभी 22 मंदिरों पर लगे पंचशूलों को साल में एक बार शिवरात्रि के दिन पूरे विधि-विधान से नीचे उतारा जाता है और सभी को एक निश्चित स्थान पर रखकर विशेष पूजा कर फिर से वहीं स्थापित कर दिया जाता है।