कांटे के मुकाबले में किसे चुभेगी 'आप'
आहिस्ता-आहिस्ता आम आदमी पार्टी पैर जमाने की कवायद में जुटी है और रफ्ता -रफ्ता ही सही हिमाचल प्रदेश के राजनीतिक समीकरण भी बदलते दिख रहे है। अभी भाजपा -कांग्रेस की दूसरी व मुख्यतः तीसरी पंक्ति के नेता आप में जा रहे है, लेकिन माहिर मान रहे है कि यदि पहली पंक्ति में सेंध लगती है तो माहौल बदलते भी शायद देर न लगे। बहरहाल आम आदमी पार्टी कांग्रेस को ज्यादा नुक्सान पहुंचाएगी या भाजपा को, इसको लेकर भी राय बंटी हुई। पर इतना तय है कि आप फैक्टर को नकारना दोनों को भारी पड़ सकता है।
प्रदेश में राजनैतिक दलों के निष्ठावान वोटर्स के अलावा फ्लोटिंग वोट प्रदेश में सत्ता की राह प्रशस्त करता है। इस फ्लोटिंग वोट में एंटी इंकम्बैंट और प्रो इंकम्बैंट वोट के अलावा बदलाव चाहने वाला वोटर भी होता है। ये दरअसल वो वोटर है जो सरकार से नाराज़ तो नहीं होता लेकिन वोट बदलाव के लिए करता है। इसके अतिरक्त एक तबका, माहौल और सियासी हवा देखकर मतदान करता है। संभवतः दोनों ही पार्टियों का काडर वोट एकाएक आप की तरफ न खिसके लेकिन आप इस फ्लोटिंग वोट में सेंध लगाकर कांग्रेस -भाजपा का खेल जरूर बिगाड़ सकती है।
एंटी इंकम्बैंट वोट की बात करें तो 1990 में कांग्रेस के खिलाफ लहर थी जिसका लाभ भाजपा गठबंधन को मिला, जबकि 1993 में भाजपा सरकार के खिलाफ लहर चली और कांग्रेस सत्तासीन हुई। इसके बाद इतनी प्रचंड एंटी इंकमबैंसी वेव प्रदेश में नहीं दिखी है। हाँ 2003 में जरूर भाजपा गठबंधन सरकार के प्रति कुछ नारजगी दिखी थी, जिसका लाभ कांग्रेस को हुआ। वहीं 1998 में वीरभद्र सरकार को लेकर प्रो इंकम्बैंसी दिख रही थी, लेकिन पंडित सुखराम ने हिमाचल विकास कांग्रेस बनाकर कांग्रेस को झटका दे दिया। तब काँटे के मुकाबले में 23 सीटें ऐसी थी जहाँ जीत - हार का अंतर दो हज़ार वोट से कम था। इन से 14 सीटें कांग्रेस हारी थी और तीन सीटों पर तो उसे हिमाचल विकास कांग्रेस से सीधे मात दी थी। इसके अलावा कई सीटें ऐसी थी जहाँ कांग्रेस की हार का अंतर बेशक दो हज़ार वोट से अधिक था लेकिन पार्टी का खेल हिमाचल विकास कांग्रेस ने ही बिगाड़ा था। ये आंकड़ें इस बात की तस्दीक करते है की यदि हिमाचल विकास कांग्रेस न होती तो 1998 में वीरभद्र दूसरी बार रिपीट कर जाते। ऐसे में आप को हल्के में लेने की भूल करना दोनों ही पार्टियों को महंगा पड़ा सकता है।
बीते तीन चुनाव पर नज़र डाले तो प्रदेश के अधिकांश क्षेत्रों में फ्लोटिंग वोट न तो सरकार के खिलाफ मुखर दिखा है और न ही समर्थन में, पर तीनों मर्तबा प्रदेश ने बदलाव के लिए वोट किया है। यानी वोटर की खामोशी सत्ता पर भारी पड़ती आ रही है। मौजूदा समय में जयराम सरकार को लेकर भी न एंटी इंकम्बेंसी दिख रही है और न ही प्रो इंकम्बैंसी। ऐसे में यदि बदलाव के लिए वोट होता है और आप उसमे सेंध लगाती है तो लाभ भाजपा को हो सकता है। वहीँ हवा और माहौल के हिसाब से चलने वाला न्यूट्रल वोटर दोनों पार्टियों को ठेंगा दिखा सकता है। आप के गुड गवर्नेंस मॉडल से यदि ये वोटर प्रभावित हुआ तो भाजपा का मिशन रिपीट भी खटाई में पड़ सकता है।
कई सीटों पर दिखता है कांटे का मुकाबला :
1998 से लेकर 2017 तक हुए पांच विधानसभा चुनाव पर नजर डाले तो काफी सीटें ऐसी है जहाँ जीत -हार का अंतर दो हज़ार वोट से भी कम रहा है। 1998 में 23, 2003 में 10, 2007 में 16 , 2012 में 15 और 2017 में 18 सीटें ऐसी थी जहाँ नजदीकी मुकाबला रहा। ऐसे में आप के आने से 1998 की तरह ही ऐसी सीटों की संख्या बढ़ सकती है। हालांकि इसका लाभ किसे होगा और हानि किसे, ये देखना रोचक होगा।
