ऐलान-ए-चुनाव और खींच गई सियासी तलवारें
हिमाचल की ठंडी फिजाओं में उपचुनाव की गर्माहट है। आगामी 30 अक्टूबर को प्रदेश की एक लोकसभा सीट और तीन विधानसभा सीटों पर मतदान होना है। सियासत शबाब पर है और दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों में टिकट आवंटन पर माथापच्ची भी हो रही है, साथ ही बगावत साधने की कवायद भी शुरू हो गई है। 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले ये दोनों मुख्य राजैनतिक दलों के लिए बड़ा इम्तिहान होगा। मंडी संसदीय सीट के तहत 5 ज़िलों के 17 विधानसभा क्षेत्र आते है, यानी राजनैतिक दलों के लिए ये चार उपचुनाव कुल 8 ज़िलों के 20 विधानसभा क्षेत्रों की नबज टटोलने का मौका भी है। इसीलिए इसे सत्ता का सेमीफइनल भी कहा जा रहा है। मंडी संसदीय क्षेत्र के सांसद रामस्वरूप शर्मा की आत्महत्या के बाद वहां उपचुनाव होना है। वहीँ फतेहपुर विधायक सुजान सिंह पठानिया, जुब्बल कोटखाई के विधायक नरेंद्र बरागटा और अर्की के विधायक वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उक्त सीटें रिक्त हुई है। मंडी लोकसभा सीट और जुब्बल कोटखाई विधानसभा सीट पर जहाँ भाजपा का कब्ज़ा था, वहीँ सुजानपुर और अर्की विधानसभा सीट पर कांग्रेस काबिज थी।
मंडी : भाजपा के लिए नाक का सवाल तो एकजुटता कांग्रेस की जीत का मंत्र !
मंडी संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव न सिर्फ प्रदेश सरकार का इम्तिहान है बल्कि केंद्र सरकार की कार्यशैली को भी इसके नतीजे से जोड़कर देखा जायेगा। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा भी हिमाचल से ताल्लुख रखते है, साथ ही मंडी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का भी गृह क्षेत्र है। जाहिर है ऐसे में मंडी उपचुनाव भाजपा के लिए नाक का सवाल है। मंडी में भाजपा इक्कीस दिख भी रही थी लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उपजी सहानुभूति से यकायक स्थिति में बदलाव आया। इस पर प्रतिभा सिंह के मंडी के चुनाव लड़ने पर यक़ीनन भाजपा की मुश्किलों में इजाफा होगा। पहले जो पलड़ा भाजपा की तरफ झुका सा माना जा रहा था अब संतुलित दिख रहा है। मंडी संसदीय क्षेत्र से भाजपा के लिए प्रत्याशी का चयन बेहद महत्वपूर्ण होने वाला है। पूर्व सांसद महेश्वर सिंह चुनाव लड़ने की इच्छा जताते रहे है।
सैनिक कल्याण बाेर्ड के चेयरमैन ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर का नाम भी शुरू से चर्चा में है। दावेदारों में पंडित रामस्वरूप के पुत्र शांति स्वरूप, अजय राणा, पायल वैद्य भी रहे है। पर प्रतिभा सिंह फैक्टर के चलते पार्टी मंत्री महेंद्र सिंह को प्रत्याशी बनाने की इच्छुक दिखी है। दूसरा विकल्प मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर में देखा जा रहा है। कांग्रेस की बात करें तो बेशक प्रतिभा सिंह के लिए प्रदेश कांग्रेस लगभग एकजुट दिखी हो लेकिन मंडी में गुटबाजी किसी से छिपी नहीं है। पिछले चुनाव में पार्टी प्रत्याशी और पंडित सुखराम के पोते आश्रय शर्मा भी टिकट मांगते रहे है, हालंकि स्थिति परिस्थिति देख कर अब आश्रय टिकट से ज़्यादा सम्मान कि मांग कर रहे है । वहीं वरिष्ठ नेता कौल सिंह ठाकुर यूँ तो प्रतिभा सिंह को मजबूत दावेदार मानते रहे है लेकिन उनके नपे -तुले बयानों का माहिर अपने -अपने हिसाब से मतलब निकालते है। ये भी याद रखना होगा की 2012 में कौल सिंह के मुख्यमंत्री बनने के स्वप्न पर वीरभद्र सिंह ने पानी फेर दिया था। इसी तरह युवा कांग्रेस अध्यक्ष और सुखविंद्र सिंह सुक्खू के करीबी निगम भंडारी भी टिकट के लिए दावा ठोकते रहे है। ऐसे में प्रत्याशी कोई भी हो पर इस चुनावी समर को जीतने के लिए कांग्रेस को सुनिश्चित करना होगा कि पार्टी एकजुट होकर लड़े।
17 में से 13 विस क्षेत्रों में भाजपा काबिज
मंडी संसदीय क्षेत्र के 17 विधानसभा क्षेत्रों पर गौर करें तो वर्तमान में 13 विधानसभा सीटों पर भाजपा, 3 पर कांग्रेस और एक सीट पर निर्दलीय विधायक हैं। किन्नौर, कुल्लू और रामपुर सीट पर कांग्रेस, जबकि जोगिंदर नगर सीट पर निर्दलीय विराजमान हैं। शेष अन्य 13 सीटों पर भाजपा काबिज है। इस संसदीय क्षेत्र के पांच हलके बल्ह, नाचन, करसोग, आनी व रामपुर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। जबकि किन्नौर, लाहौल-स्पीति और भरमौर सीट एसटी के लिए आरक्षित हैं।
पांच साल में दस गुना बढ़ा था हार का अंतर
2014 के लोकसभा चुनाव में मंडी संसदीय सीट से वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह कांग्रेस उम्मीदवार थी और उस चुनाव में उन्हें करीब 40 हज़ार वोटों से शिकस्त मिली थी। जबकि 2019 में आश्रय शर्मा 4 लाख से भी अधिक वोटों से हारे थे। यानी 2014 में जो अंतर करीब 40 हज़ार था वो पांच साल में 10 गुना बढ़कर करीब चार लाख हो गया। बेशक इस मर्तबा कांग्रेस प्रतिभा सिंह के रूप में एक मजबूत प्रत्याशी के साथ मैदान में हो लेकिन इस अंतर को पाटना आसान नहीं होने वाला।
जुब्बल-कोटखाई : भाजपा के समक्ष सीट बरकरार रखने की चुनौती
जिला शिमला की जुब्बल-कोटखाई विधानसभा सीट को बरकरार रखने के लिए प्रदेश भाजपा हर संभव प्रयास करेगी। जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र से भाजपा विधायक एवं मुख्य सचेतक नरेंद्र बरागटा का निधन बीते 5 जून को हुआ। ऐसे में अब यहां उपचुनाव हो रहा है। जुब्बल-कोटखाई विधानसभा सीट की बात करें तो नरेंद्र सिंह बरागटा के निधन के बाद कई नेताओं की निगाहें उपचुनाव टिकट पर टिकी हुई है, जिनमें स्व. बरागटा के पुत्र और प्रदेश भाजपा आईटी सेल के प्रमुख चेतन सिंह बरागटा भी शामिल हैं। वहीँ भाजपा की ओर से दूसरा प्रमुख चेहरा नीलम सरैक का है जो परिवारवाद के खिलाफ आवाज बुलंद कर अपना दावा ठोक रही है। जानकार ये तो मान रहे है कि टिकट की दौड़ में चेतन कुछ आगे है पर नीलम को साधना पार्टी के आसान नहीं होने वाला। यानी निर्णय मुश्किल भरा है। यहाँ भाजपा को सुनिश्चित करना होगा कि चेहरा कोई भी हो लेकिन पार्टी में न बगावत हो और न किसी तरह का भीतरघात, अन्यथा राह मुश्किल होगी। मंत्री सुरेश भारद्वाज जुब्बल कोटखाई उपचुनाव के लिए भाजपा के प्रभारी है। यदि चेतन को टिकट मिलता है तो ज़ाहिर तौर पर चेतन और भारद्वाज के आपसी तालमेल से भी समीकरण बन बिगड़ सकते है। उधर कांग्रेस की बात करें तो रोहित ठाकुर अपना पांचवा विधानसभा चुनाव लड़ने को तैयार है और पार्टी में भी उन्हें कोई ख़ास चुनौती मिलती नहीं दिख रही। ठाकुर बीते कई महीनो से मैदान में डटे है और एक किस्म से टिकट की औपचारिक घोषणा से पहले ही प्रचार शुरू कर चुके है। इससे पहले रोहित ने चारों बार स्व. नरेंद्र बरागटा के सामने चुनाव लड़ा है जिसमे से दो में उन्हें जीत मिली और दो में हार का सामना करना पड़ा।
दो मुख्यमंत्री देने वाला इकलौता निर्वाचन क्षेत्र
जुब्बल कोटखाई हमेशा से कांग्रेस का गढ़ रहा है और नरेंद्र बरागटा ही इकलौते ऐसे नेता है जिन्होंने यहां भाजपा को जीत दिलाई। दिलचस्प बात ये है कि इस सीट से कांग्रेस के दो मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल और वीरभद्र सिंह भी विधायक रह चुके है। ये प्रदेश की इकलौती सीट है जिसने दो मुख्यमंत्री दिए है। ठाकुर रामलाल दो बार मुख्यमंत्री रहे है और दोनों बार वे जुब्बल कोटखाई से ही विधायक थे। वहीं 1985 में मुख्यमंत्री बने वीरभद्र सिंह भी जुब्बल कोटखाई विधानसभा सीट से जीतकर ही विधानसभा पहुंचे थे।
2003 से सत्ता के साथ जुब्बल-कोटखाई
जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र की जनता 2003 से ही सत्ता के साथ चलती आ रही है। वर्तमान में भाजपा की सरकार है तो भाजपा के नरेंद्र बरागटा जीते, 2012 में कांग्रेस की सरकार में कांग्रेस के रोहित ठाकुर और उससे पहले 2007 में भाजपा की सरकार थी ताे भाजपा के नरेंद्र बरागटा जीते थे। इसी तरह 2003 के चुनाव में रोहित ठाकुर को जनता का आशीर्वाद मिला था।
फतेहपुर : बगावत थामने की होगी चुनौती, राजन सुशांत पर भी निगाहें
फतेहपुर विधानसभा उपचुनाव का नतीजा 15 सीट वाले जिला कांगड़ा की सियासी आबोहवा को रुख दे सकता है। कांगड़ा जीते बिना मिशन रिपीट संभव नहीं है, ऐसे में सत्ता पक्ष हो या विपक्ष दोनों पर फतेहपुर उपचुनाव में बेहतर करने का दबाव है। सत्ता पक्ष भाजपा की बात करें तो जाहिर है ये उप चुनाव पार्टी के लिए बेहद ख़ास है। दरअसल, यहाँ जीत मिल गई तो सरकार का दमखम बड़े -बड़ों को मानना पड़ेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि 2009 के उपचुनाव सहित भाजपा फतेहपुर में लगातार तीन चुनाव हार चुकी है। फतेहपुर में भाजपा की ओर से 2017 में पूर्व राज्यसभा सांसद कृपाल परमार प्रत्याशी थे तो 2012 में भाजपा ने बलदेव ठाकुर को टिकट दिया था। 2017 के चुनाव में बलदेव ने बतौर बागी चुनाव लड़ा और 13 हज़ार से अधिक वोट लेकर भाजपा का खेल बिगाड़ दिया। अब उपचुनाव में टिकट का फैसला फिर भाजपा के लिए कठिन होने वाला है। हालांकि परमार की तरफ पार्टी के बड़े नेताओं का रुख जरूर दिख रहा है लेकिन बलदेव का दावा ओर सियासी वजन भी कमतर नहीं है। ऐसे में प्रत्याशी जो भी हो पर पार्टी को सबको एकजुट रखकर मैदान में उतरना होगा। उधर कांग्रेस से पूर्व विधायक सुजान सिंह पठानिया के पुत्र भवानी पठानिया की सियासत में एंट्री के बाद से ही टिकट पर उनकी दावेदारी मजबूत रही है। हालांकि परिवारवाद के खिलाफ पार्टी के भीतर से आवाज बुलंद है। बाकायदा पार्टी से जुड़े लोगों ने इसके खिलाफ प्रदर्शन भी किये, वो भी उपचुनाव की घोषणा से पहले। इसके मायने साफ़ है कि पार्टी का झुकाव भवानी की तरफ है। बहरहाल राजनीति में कुछ भी मुमकिन है सो औपचारिक घोषणा तक भवानी के विरोधियों को उम्मीद जरूर रहेगी। भाजपा और कांग्रेस के साथ ही फतेहपुर विधानसभा उपचुनाव हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी के संस्थापक डॉ राजन सुशांत के लिए भी खास है। पांच बार के विधायक और एक मर्तबा सांसद रहे डॉ राजन सुशांत का राजनीतिक सफर भाजपा से राह अलग करने के बाद हिचकोले खा रहा है। भाजपा से राह अलग करने के बाद राजन सुशांत पहले आम आदमी पार्टी में गए और अब हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी के संस्थापक है। संभवत अपने गृह क्षेत्र फतेहपुर के इस उप चुनाव में वे खुद मैदान में होंगे। जाहिर है डॉ राजन सुशांत को पहले खुद को घर में साबित करना होगा।
7 बार विधायक रहे पठानिया
पूर्व मंत्री और 7 बार विधायक रह चुके सुजान सिंह पठानिया कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में से एक थे। पठानिया वीरभद्र सरकार में दो बार प्रदेश के मंत्री भी रहे हैं। 1977 में सुजान सिंह पठानिया ने जनता पार्टी में शामिल होने के लिए सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था। 1980 में सुजान सिंह पठानिया कांग्रेस में शामिल हो गए। 1990, 1993, 2003, 2009 (उपचुनाव) में जवाली विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से और 2012 में फतेहपुर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित हुए। 2007 में परिसीमन से पहले फतेहपुर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र को जवाली के रूप में जाना जाता था। 2009 (उपचुनाव) , 2012 व 2017 विधानसभा चुनाव में सुजान सिंह पठानिया ने लगातार जीत की हैट्रिक लगाई।
अर्की : न्यूनतम अंतर्कलह ही जीत की कुंजी
अर्की उपचुनाव की बात करें तो यहां सही टिकट वितरण और न्यूनतम अंतर्कलह ही जीत की कुंजी है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों में एक से अधिक टिकट के दावेदार है और दोनों दलों को टिकट वितरण के लिए माथापच्ची करनी पड़ रही है। मसला सिर्फ टिकट वितरण तक का नहीं है, कहीं बगावत का डर है तो कहीं भीतरघात का। भाजपा की बात करें तो पिछले चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को टक्कर देने वाले रतन सिंह पाल फिर टिकट के दावेदार है। किन्तु दो बार के विधायक गोविंद राम शर्मा ने उनके खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है और वे भी टिकट के लिए दावा पेश कर चुके है। गोविन्द राम को कुछ अन्य वरिष्ठ नेताओं का साथ भी है। ऐसे में टिकट के लिए भाजपा को न सिर्फ किसी एक का चयन करना है बल्कि दूसरे को खामोश भी रखना है। अगर बगावत हुई तो जीत की राह भी मुश्किल होगी। कांग्रेस की बात करें तो मोटे तौर पर टिकट के लिए दो नाम चर्चा में है, संजय अवस्थी और राजेंद्र ठाकुर। 2012 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो कांग्रेस ने संजय अवस्थी को उम्मीदवार बनाया था। पर तब अंदरूनी खींचतान और बगावत पार्टी को भारी पड़ी। दरअसल उस चुनाव में पार्टी के ही अमर चंद पाल बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे और 10 हजार से ज्यादा वोट लेकर कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया। नतीजन संजय अवस्थी करीब दो हजार वोट से चुनाव हार गए, पर तब से संजय अवस्थी ही स्थानीय कांग्रेस का मुख्य चेहरा बने हुए है। वहीं दूसरे दावेदार राजेंद्र ठाकुर पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के करीबी रहे है और लगातार क्षेत्र में सक्रिय है। राजेंद्र ठाकुर ने भी टिकट के लिए दावा किया है और यदि टिकट वितरण में होलीलॉज की अहम भूमिका रही तो उनका दावा भी कमतर नहीं है।
निकाय चुनाव में खरे नहीं उतरे पाल
इसी वर्ष हुए स्थानीय निकाय चुनाव के टिकट वितरण में रतन सिंह पाल की चली थी। पर जिला परिषद् में अमर सिंह ठाकुर और आशा परिहार जैसे दिग्गजों के टिकट काटने का खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा। हालाँकि अंत में इन्हीं दिग्गजों के सहारे जैसे तैसे जिला परिषद् पर भाजपा का कब्ज़ा तो हो गया लेकिन तब से ही रतन सिंह पाल के खिलाफ खुलकर आवाज उठने लगी। वहीँ अर्की नगर पंचायत चुनाव में भी भाजपा को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। बीडीसी पर भी कांग्रेस का कब्ज़ा रहा। हालांकि ये चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं हुए थे।
2017 में वीरभद्र ने रोकी थी हैट्रिक
2017 विधानसभा चुनाव से कई माह पहले से ही अर्की विधानसभा क्षेत्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने कई सौगातें दी। वीरभद्र सिंह के लगातार दौरों ने संकेत दे दिए थे कि खुद वीरभद्र सिंह अर्की से मैदान में उतर सकते है और हुआ भी ऐसा ही। वीरभद्र सिंह ने पुत्र विक्रमादित्य के लिए शिमला ग्रामीण सीट छोड़ दी और खुद अर्की से मैदान में उतर गए। तब दस साल बाद अर्की सीट वापस कांग्रेस के कब्जे में आ गई और भाजपा की जीत की हैट्रिक।
