आवाज बुलंद : 'घर की कांग्रेस' बने 'सबकी कांग्रेस'
- जी 23 के तेवर तल्ख, बदलाव की सुगबुगाहट तेज
( फ़ोटो साभार- कार्टूनिस्ट अरविंद )
'घर की कांग्रेस' से 'सबकी कांग्रेस' बने पार्टी, इसी मांग को लेकर कांग्रेस का जी - 23 गुट फिर सक्रिय है। इस मर्तबा जी -23 गुट के नेताओं के तेवर भी कुछ तल्ख दिख रहे है और कुनबा भी बढ़ता दिख रहा है। नेता सामूहिक और समावेशी लीडरशिप की मांग कर रहे है। गांधी परिवार को भी खुलकर मश्वरा दिया जा रहा है कि पार्टी की कमान अब नए लोगों को सँभालने दे। निसंदेह पांच राज्यों में मिली करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस का एक बड़ा तबका बदलाव की वकालत कर रहा है। अलबत्ता, पार्टी का एक बड़ा धड़ा अब भी गाँधी परिवार की जय जयकार करने में लगा है लेकिन इसमें कोई संशय नहीं है कि जल्द पार्टी में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है। जानकार मानते है कि सम्भवतः कांग्रेस फिर विभाजित होने की दहलीज पर है।
आजादी के पहले स्वतंत्रता संग्राम की धुरी रही कांग्रेस, आजादी के बाद अकेली सबसे बड़ी पार्टी थी। एक वक्त था जब इस 'ग्रैंड ओल्ड पार्टी' को केंद्र की सत्ता में पूरे 25 सालों तक कोई सीधी टक्कर देने वाला भी नहीं था। आज आलम ये है कि कांग्रेस देश के केवल पांच राज्यों तक ही सीमित रह गई है, जिनमें से तीन में वो सिर्फ गठबंधन सरकार का हिस्सा है। आजादी के बाद से अभी तक 17 लोकसभा चुनाव हुए हैं, जिनमें गैर-नेहरू-गांधी परिवार के सात लोगों ने कांग्रेस अध्यक्ष पद संभाला है। यूँ देश की आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी के कुल 19 अध्यक्षों में सिर्फ पांच गांधी - नेहरू परिवार से रहे हैं। पर गौर करने लायक बात ये है कि अध्यक्ष पद पर इस परिवार का कब्ज़ा 37 सालों तक रहा है। वहीँ इन 75 वर्षों में से 53 वर्ष तक कांग्रेस ने सत्ता भोगी है। दिलचस्प बात ये है कि 53 में से 36 वर्षों तक प्रधानमंत्री की गद्दी गाँधी -नेहरू परिवार के पास रही है। पर अब 2014 से गाँधी परिवार की अगुवाई में कांग्रेस का ग्राफ निरंतर गिरता जा रहा है। ये है कारण है कि पार्टी के भीतर ही गाँधी परिवार के खिलाफ विद्रोह के सुर दिख रहे है। वहीँ कुछ नेता खुलकर गाँधी परिवार के खिलाफ बोलने से तो बच रहे है, लेकिन पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का मुद्दा उठा रहे है।
तीन साल से पूर्णकालिक अध्यक्ष तक नहीं !
कांग्रेस की वर्तमान कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गाँधी पार्टी अध्यक्ष के पद पर 1998 से 2017 तक विराजमान रही है। 19 साल तक कांग्रेस की अध्यक्ष रहने का उनका सबसे लंबा रिकॉर्ड है। कांग्रेस 2004 और 2009 में सोनिया के नेतृत्व में सत्ता पर काबिज हुई और इस दरमियान कांग्रेस के युवराज के तौर पर राहुल राजनीति में कदम रखकर पार्टी में अपनी मौजूदगी का अहसास कराते रहे। युवराज को महाराज बनाने का औपचारिक ऐलान साल 2017 में हुआ, जब राहुल गांधी को कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। राहुल के नेतृत्व में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब में कांग्रेस की जीत हुई। किन्तु 2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम में कांग्रेस की करारी शिकस्त ने राहुल को अध्यक्ष पद छोड़ने को विवश कर दिया। राहुल परंपरागत सीट अमेठी भी हार गए। तदोपरांत राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया और तब से पार्टी के पास कोई पूर्ण कालिक अध्यक्ष तक नहीं है। सोनिया गाँधी ही बतौर कार्यकारी अध्यक्ष पार्टी की कमान संभाल रही है।
हार का ठीकरा सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष के सर क्यों ?
उधर पांच राज्यों में मिली शिकस्त के बाद जैसा अपेक्षित था कांग्रेस में बैठकें हुई और इस बार एक्शन भी हुआ। पांचो राज्यों के प्रदेश अध्यक्षों का इस्तीफा माँगा गया। कहते है सीडब्लूसी की बैठक में सोनिया गाँधी ने भी इस्तीफे की पेशकश की। यहाँ सवाल उत्तर प्रदेश को लेकर भी उठ रहे है जहाँ कमान खुद प्रियंका गाँधी संभाल रही थी। पूरे चुनाव के दौरान प्रियंका गाँधी खुद को पार्टी का चेहरा बता रही थी, फिर हार का ठीकरा सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष के सर क्यों ?
