मन के लड्डू छोटे क्यों, छोटे हैं तो फीके क्यों..
हिमाचल में सियासत सुलग चुकी है मगर कांग्रेस अब भी बुझी-बुझी दिख रही है। एक तरफ भाजपा मिशन रिपीट के लिए अभी से भरपूर ताकत झोंक रही है, तो आम आदमी पार्टी भी पांव मजबूत करने को जोर आजमाइश कर रही है। वहीं कांग्रेस इसी असमंजस में है कि चुनावी मैदान में किस की लीडरशिप में उतरे। फिलवक्त तो हाल -ए- कांग्रेस कुछ ऐसा है कि दिग्गजों की दिलचस्पी विधानसभा चुनाव से ज्यादा प्रदेश अध्यक्ष के चयन में प्रतीत हो रही है। खुल कर कोई कुछ बोल नहीं रहा और कसर कोई कुछ छोड़ नहीं रहा। ये महारथी इसी गुणा भाग में लगे है कि अध्यक्ष पद पर किसके आने-जाने, रहने या न रहने से उनके सियासी भविष्य पर क्या असर हो सकता है। इसी व्यस्तता में शायद विधानसभा चुनाव की हलचल भी पार्टी को सुनाई नहीं दे रही है। ये अलग बात है कि धरातल स्थिति से परे नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा परवान पर है और पांच साल में सत्ता परिवर्तन की सियासी थ्योरी के भरोसे पार्टी आशावान। वो कहते है ना, "मन के लड्डू छोटे क्यों, छोटे हैं तो फीके क्यों.."
इस बार विधानसभा चुनाव का रण निश्चित तौर पर कठिन होना है, बावजूद इसके कांग्रेस अभी तक फुल ऑन एक्शन मोड में नहीं दिख रही। वहीं एक महीने पहले हिमाचल में सक्रिय हुई आम आदमी पार्टी सत्तासीन भाजपा सरकार को घेरने में आगे है। पलटवार करते हुए भाजपा भी आम आदमी पार्टी की टांग खींच रही है, और इन दोनों के वाक्युद्ध की बीच कांग्रेस का जिक्र भी मुश्किल हो रहा है। हालांकि कांग्रेस के कुछ नेता जरूर अपने स्तर पर मोर्चा संभाले हुए है, लेकिन सब अलग -अलग। सत्ता वापसी के लिए पार्टी को जिस सामूहिक और सशक्त प्रयास की दरकार है, वो अब तक लगभग नदारद दिख रहा है।
प्रदेश में भाजपा के बड़े नेता ग्राउंड पर है। खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा हिमाचल में हुंकार भर चुके है। गुटबाजी के बावजूद पार्टी कार्यकर्त्ता जोश में दिख रहे है। इसी तरह आप के राष्ट्रीय संयोजक अरविन्द केजरीवाल एक पखवाड़े में प्रदेश में दूसरा रोड शो करने जा रहे है। पार्टी का कुनबा तेजी से बढ़ रहा है और अब तो कोंग्रेसियों के बाद भाजपाई भी आप में शामिल हो रहे है। वहीं कांग्रेस अब तक सुस्त है, मानो किसी सियासी मुहूर्त का इन्तजार हो। प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ला की अगुवाई में महंगाई के खिलाफ हुए हल्ला बोल को छोड़ दिया जाए तो अब तक खानापूर्ति ही होती दिखी है। इतिहास तस्दीक करता है कि अब तक हिमाचल में दो ही मुख्य राजनीतिक दलों का बोलबाला रहा है और वो है भाजपा और कांग्रेस, मगर ये भी सत्य है की अगर कांग्रेस ने जल्द गियर न बदला तो इतिहास बदलते समय नहीं लगेगा।
वीरभद्र के फेस पर लड़े पिछले आठ विधानसभा चुनाव :
1985 से लेकर साल 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में लड़े थे। मौटे तौर पर कांग्रेस में मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर कभी कोई भी संशय देखने को नहीं मिला। कभी संशय हुआ भी तो वीरभद्र सिंह ने समय रहते सारी शंकाएं दूर कर दी, कभी तेवर दिखाकर तो कभी शक्ति प्रदर्शन से। ये पहली दफा है जब कांग्रेस बिना वीरभद्र सिंह के चुनाव के रण में उतरेगी। निसंदेह पार्टी के पास अब भी उनका विकल्प नहीं दिख रहा।
तब महंगाई से बड़ा कारण था सहानुभूति
कांग्रेस ने उपचुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया था। पार्टी कहती हैं कि जनता ने महंगाई और प्रदेश सरकार के खिलाफ वोट किया था। मगर हकीकत ये है कि उस चुनाव में वीरभद्र सिंह के लिए सहानुभूति फैक्टर ने कांग्रेस की राह आसान की। दूसरा भाजपा ने टिकट आवंटन में बड़ी गलतियां की थी, जिसकी गुंजाईश विधानसभा चुनाव में नहीं दिखती। यदि महंगाई इतना बड़ा फैक्टर हैं तो हाल ही में पांच राज्यों के चुनाव में ये फैक्टर क्यों नहीं चला। कांग्रेस को विवेचना करना होगा कि महंगाई एक मुद्दा जरूर हैं लेकिन सिर्फ महंगाई के मुद्दे पर चुनाव नहीं जीता जा सकता। अन्य जनहित के मुद्दों को लेकर भी पार्टी को हर विधानसभा क्षेत्र में उतरना होगा।
तो दूल्हा तो ढूंढना ही होगा !
हिमाचल प्रदेश कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की अटकलों के बीच अब नई खबर ये भी है कि कांग्रेस सामूहिक नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ सकती है। कांग्रेस की वर्तमान स्थिति देखें तो महत्वाकांक्षी नेताओं के बीच आपसी सेटलमेंट करवाने में जुटी हाईकमान के लिए ये एक सेफ फैसला हो सकता है। मगर सवाल ये है कि क्या कांग्रेस बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के चुनाव में बेहतर कर पाएगी ? याद रहे ये वो ही कांग्रेस है जो भाजपा को बिन दूल्हे की बारात कहा करती थी। माहिर मानते हैं कि सत्ता के रंग से हाथ पीले करने हैं तो कांग्रेसी बारात को दूल्हा तो ढूंढना ही होगा।
