कहीं मजबूत विपक्ष तो कहीं हावी अंतर्कलह ने उड़ाई मंत्रियों की नींद
मिशन रिपीट के लिए जयराम सरकार ऐड़ी चोटी का जोर लगा रही है। दावा है कि जो 1985 के बाद से अब तक नहीं हुआ, वो अब होगा। जो सख्त मिजाज वाले नेता कभी नहीं कर पाएं वो नरम मिजाज वाले जयराम करके दिखाएंगे। ऐसे में दबाव न सिर्फ खुद जयराम ठाकुर पर है बल्कि उनकी कैबिनेट के अन्य 11 मंत्रियों पर भी। दबाव इसलिए भी कुछ अधिक है क्यों कि काबीना मंत्रियों का चुनाव हारना हिमाचल की सियासत का पुराना रिवाज है। पांच साल बाद जब जनता का वक्त आता है तो क्या मंत्री और क्या मुख्यमंत्री, किसी की जीत की कोई गारंटी नहीं होती। वर्तमान में भी जयराम कैबिनेट के कई मंत्रियों के प्रदर्शन पर सवाल उठ रहे है। किसी की विभाग पर पकड़ कमजोर दिख रही है तो कोई अपने रैवये के चलते सुर्ख़ियों में है। तो कहीं मजबूत विपक्ष और हावी अंतर्कलह ने मंत्रियों की नींद उड़ाई हुई है। ग्राउंड रियलिटी की बात करें तो खुद मुख्यमंत्री और एकाध मंत्रियों को छोड़ कर शायद ही कोई ऐसा हो जो अपने निर्वाचन क्षेत्र में इक्कीस दिख रहा है। हालाँकि मौजूदा मंत्रिमंडल में कई ऐसे नेता भी है जो जीत की हैट्रिक लगा चुके, पर ये सियासत है यहां समीकरण बदलते समय नहीं लगता।
हिमाचल प्रदेश में कैबिनेट मंत्री ही नहीं मुख्यमंत्री भी चुनाव हारते रहे है। सीएम रहते चुनाव हारने वालों में वीरभद्र सिंह और शांता कुमार के नाम भी शामिल है। 1990 में वीरभद्र सिंह जुब्बल कोटखाई से चुनाव हार गए, हालांकि तब वे दो निर्वाचन क्षेत्रों से मैदान में थे। वहीं 1993 में सत्ता विरोधी लहर ऐसी चली कि शांता कुमार अपनी सीट भी नहीं बचा पाएं। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा तो जीत गई लेकिन सीएम फेस प्रो प्रेमकुमार धूमल खुद चुनाव हार गए। इसी तरह कैबिनेट मंत्रियों का चुनाव हारना भी हिमाचल में आम बात है। पिछले चार चुनावों पर नज़र डाले तो वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में धूमल कैबिनेट के 12 ज्यादा मंत्री चुनाव हारे थे ( तब कैबिनेट की अधिकतम संख्या 12 नहीं थी)। 2007 में वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे सात नेता चुनाव हारे। जबकि 2012 में धूमल कैबिनेट के तीन मंत्री अपनी सीट नहीं बचा पाएं। वहीं, 2017 के विधानसभा चुनाव में तो वीरभद्र सिंह कैबिनेट के पांच मंत्रियों को जनता ने नकार दिया।
पहली चुनौती टिकट लाना !
आज की भाजपा में टिकट आवंटन का आधार नाम से ज्यादा जीताऊ फैक्टर है और टिकट से पहले बकायदा सर्वे कराए जाते है। हाल ही में कई ऐसे उदहारण है जहाँ पार्टी ने एंटी इंकम्बैंसी को भांपते हुए मंत्रियों और विधायकों के टिकट काटे है। ऐसे में हिमाचल में भी ये संभव है। जाहिर है फिर विधानसभा पहुँचने के लिए पहले मंत्रियों को अपना टिकट सेफ करना होगा।
एंटी इंकम्बेंसी साधने को क्या होगा बदलाव !
उपचुनाव हारने के बाद से ही प्रदेश में मंत्रिमंडल फेरबदल के कयास लगते रहे है। खुद मुख्यमंत्री ने भी कभी साफ़ शब्दों में फेरबदल की संभावना से इंकार नहीं किया। पर अब तक कोई बदलाव नहीं हुआ है। चुनाव के मुहाने पर खड़ी सरकार क्या एंटी इंकम्बैंसी साधने के लिए फेरबदल कर सकती है, ये बड़ा सवाल है।
