66 सालों का निर्वासन: दलाई लामा और धर्मशाला की अनकही कहानी

हिमाचल के एक छोटे से शहर धर्मशाला से एक पूरे देश, यानी तिब्बत की सरकार चलती है। तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा आज भी भारत में ही रहते हैं। दुनिया भर में दलाई लामा के करोड़ों अनुयायी हैं। 31 मार्च 1959 को दलाई लामा ने भारत में कदम रखा था। 17 मार्च को वे तिब्बत की राजधानी ल्हासा से पैदल ही निकले थे और हिमालय के पहाड़ों को पार करते हुए करीब 15 दिनों बाद भारतीय सीमा में दाख़िल हुए थे। दलाई लामा के साथ कुछ सैनिक और कैबिनेट के मंत्री थे। चीन की नज़रों से बचने के लिए ये लोग केवल रात को सफर करते थे। महज 23 वर्ष 9 माह की उम्र में जब उन्होंने भारत में प्रवेश किया, तब देवभूमि हिमाचल के मैक्लोडगंज को उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाया। यहां रहकर वे तिब्बत की संप्रभुता के लिए अहिंसात्मक संघर्ष कर रहे हैं। भारत में दलाई लामा को आए हुए 66 साल से ज़्यादा हो गए हैं। यानी तिब्बत की आज़ादी के लिए संघर्ष करते हुए आधी सदी से अधिक समय बीत चुका है। संघर्ष का जो रास्ता उन्होंने 23-24 वर्ष की आयु में चुना, उससे वे आजीवन टस से मस नहीं हुए। महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं को तो उन्होंने अपने जीवन में उतार ही लिया था, भारत में आकर महात्मा गांधी के जीवन आदर्श को भी आत्मसात कर लिया।
तिब्बत पर चीन के कब्ज़े के ख़िलाफ़ उन्होंने पूरी दुनिया को गोलबंद किया। साथ ही दुनिया भर में फैले तिब्बतियों को एक मंच पर लाया। मौजूदा दलाई लामा को सिर्फ दो साल की उम्र में 13वें दलाई लामा थुबतेन ग्यात्सो का अवतार माना गया और 14वां दलाई लामा घोषित किया गया। उसके बाद वे तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष और आध्यात्मिक गुरु बने और दुनिया में शांति के आधुनिक प्रतीक के रूप में उभरे। धर्मशाला में निर्वासित जीवन जी रहे वर्तमान दलाई लामा को साल 1937 में उत्तराधिकारी चुना गया था। पूरी तरह तैयार होकर उन्होंने साल 1950 में अपनी जिम्मेदारी संभाली, तब उनकी उम्र मात्र 15 साल थी। 1959 तक दलाई लामा ‘देश के मुखिया’ और सर्वोच्च धार्मिक अधिकारी थे। कोई उन्हें धर्मगुरु कहता है, कोई शांति का प्रतीक मानता है, तो किसी के लिए वे नेता हैं — सभी की अपनी आस्था और श्रद्धा है।
कहा जाता है कि चीन और दलाई लामा का इतिहास, दरअसल, चीन और तिब्बत का इतिहास है। जहां बौद्ध धर्म के लोग दलाई लामा को भगवान का स्वरूप मानते हैं, वहीं चीन उन्हें अलगाववादी मानता है। वह सोचता है कि दलाई लामा उसके लिए समस्या हैं। चीन और दलाई लामा के बीच का विवाद, दलाई लामा की चुनाव प्रक्रिया को लेकर है। दरअसल, 13वें दलाई लामा ने 1912 में तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। लगभग 40 साल बाद चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। यह आक्रमण तब हुआ जब 14वें दलाई लामा के चयन की प्रक्रिया चल रही थी। तिब्बत को इस लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा। कुछ वर्षों बाद तिब्बतियों ने चीनी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया। वे अपनी संप्रभुता की मांग करने लगे। हालांकि विद्रोहियों को इसमें सफलता नहीं मिली। दलाई लामा को लगा कि वे चीनी चंगुल में फंस जाएंगे, इसीलिए उन्होंने भारत की ओर रुख किया। चीन को भारत में दलाई लामा को शरण मिलना अच्छा नहीं लगा। तब चीन में माओत्से तुंग का शासन था। दलाई लामा और चीन के कम्युनिस्ट शासन के बीच तनाव बढ़ता गया। दलाई लामा को दुनिया भर से सहानुभूति मिली, लेकिन अब तक वे निर्वासन की ही ज़िंदगी जी रहे हैं।
मैक्लोडगंज से चलती है तिब्बत की निर्वासित सरकार
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने धर्मशाला में तिब्बती लोगों के रहने के लिए ज़मीन दी। तिब्बतियों को ‘रिफ्यूजी’ का दर्जा दिया गया। कहा जाता है कि उस समय दलाई लामा ने अपने एक अधिकारी को बुलाकर कहा .."धर्मशाला जाओ और पता करो वहां की ज़मीन कैसी है।"
कुछ हफ्ते धर्मशाला में रहने के बाद, अधिकारी वापस आया और बोला .. “धर्मशाला का पानी यहां के दूध से भी मीठा है।” यह सुनकर दलाई लामा मुस्कुरा उठे और बोले .. “फिर देर किस बात की, धर्मशाला चलते हैं।”
इसके बाद दलाई लामा करीब 80,000 तिब्बतियों के साथ हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला पहुंचे और आज भी यहीं से तिब्बत की निर्वासित सरकार चलाई जा रही है। निर्वासित तिब्बत सरकार का बाकायदा चुनाव होता है। चुने गए प्रधानमंत्री को सरलता से सत्ता का हस्तांतरण किया जाता है। सबसे रोचक बात यह है कि हारे हुए प्रतिनिधि भी जीते हुए नेता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करते हैं।
मान्यता : पुनर्जन्म से मिलते हैं नए दलाई लामा
लामा, असल में बौद्ध भिक्षु होते हैं। ये कड़े ध्यान और वर्षों के परिश्रम के बाद जीवन के परम सत्य को जान पाते हैं। ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनका कर्तव्य होता है कि वे इस ज्ञान को लोगों के बीच बांटें। इन सभी लामाओं में से दलाई लामा सबसे उच्च पद पर होते हैं। इसे लेकर एक अत्यंत रोचक मान्यता है – जब एक दलाई लामा की मृत्यु होती है, तो वह पुनर्जन्म लेकर दोबारा पृथ्वी पर आते हैं। इसके बाद धार्मिक अधिकारी उस बालक की खोज करते हैं, और फिर उसे ही अगला दलाई लामा घोषित किया जाता है। दलाई लामा को कोई चुनता नहीं, बल्कि उन्हें खोजा जाता है। दलाई लामा का चयन पुनर्जन्म की मान्यता पर आधारित होता है। इसलिए उनकी मृत्यु के बाद नए लामा की खोज का दायित्व गेलुगपा परंपरा के अनुसार उच्च लामाओं और तिब्बती सरकार का होता है। हालांकि इस खोज में कई वर्ष लग जाते हैं। तिब्बत के वर्तमान 14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो को खोजने में 4 वर्षों का समय लगा था। यह खोज दृश्यों और स्वप्नों में मिले संकेतों से शुरू होती है। एक अन्य परंपरा के अनुसार, जब पिछले दलाई लामा को जलाया जाता है, तो उनकी चिता से उठने वाले धुएं को ध्यान से देखा जाता है। माना जाता है कि यह धुआं उनके पुनर्जन्म की दिशा बताता है। इस खोज प्रक्रिया के दौरान उच्च लामा अक्सर केंद्रीय तिब्बत की पवित्र नदी ला-त्सो के पास जाकर ध्यान लगाते हैं।