अरख मनीमा किन्नौरु संस्कृति खानंग: देसी सुरा के बिना अधूरी है किन्नौर की संस्कृति

"अरख मनीमा किन्नौरु संस्कृति खानंग", यानी देसी शराब के बिना किन्नौर की संस्कृति अधूरी है। यह कोई कहावत नहीं, बल्कि किन्नौर की पहाड़ियों में बसे गांवों की ज़मीनी सच्चाई है, जहां देसी सुरा केवल एक पेय नहीं, बल्कि जीवन, परंपरा और आस्था का हिस्सा है।
किन्नौर जिला हिमाचल प्रदेश के उन क्षेत्रों में गिना जाता है जो आज भी अपनी लोक संस्कृति, धार्मिक रीति-रिवाज़ों और पारंपरिक मान्यताओं को ज्यों का त्यों संजोए हुए है। यहां की घाटियों में बहती शीतल हवा, बर्फ से ढके पहाड़, और हर ओर गूंजती देवताओं की जयघोष के बीच देसी सुरा का विशेष स्थान है। देसी सुरा, जिसे स्थानीय भाषा में अरख या चंग भी कहा जाता है, केवल पीने की चीज नहीं बल्कि पूजा का प्रमुख अंग है। जब भी कोई धार्मिक अनुष्ठान, पारिवारिक आयोजन या सामूहिक उत्सव होता है, सुरा को सबसे पहले देवताओं को अर्पित किया जाता है। यह सुरा “प्रसाद” बन जाती है, और फिर समाज के लोग इसे पूरे श्रद्धा भाव से ग्रहण करते हैं। घर में नया निर्माण हो, खेतों में पहली फसल लगे, विवाह की बात पक्की करनी हो या फिर नवजात का स्वागत, हर शुभ अवसर पर सुरा का प्रयोग आशीर्वाद और समर्पण के प्रतीक के रूप में किया जाता है।
किन्नौर में सुरा बनाना केवल घरेलू प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक धार्मिक अनुष्ठान है। महिलाएं पारंपरिक विधियों से इसका निर्माण करती हैं। अंगूर, सेब, चुल्ली और खुमानी, गेहूं या जौ को कुछ विशेष स्थानीय जड़ी-बूटियों के साथ किण्वित किया जाता है। यह पूरी प्रक्रिया पवित्रता और अनुशासन के साथ की जाती है। यानी साफ सफाई का सख्ती से पालन किया जाता है। इसे मिट्टी के बर्तनों में या लकड़ी के खास पात्रों में कई दिनों तक रखा जाता है ताकि इसका स्वाद और असर संतुलित रहे। इस प्रक्रिया में उपयोग की जाने वाली जड़ी-बूटियों को भी आयुर्वेदिक दृष्टि से लाभकारी माना जाता है। कई लोग इसे देवताओं का पेय कहते हैं, और यह मान्यता कि यह शरीर को गर्माहट और बल प्रदान करती है, आज भी यहां जीवित है।
- रिश्तों की शुरुआत भी सुरा से
किन्नौर में रिश्तों की शुरुआत भी सुरा से ही होती है। जी, हां! किन्नौर की एक अनूठी सामाजिक परंपरा है, रिश्ता पक्का करने के लिए सुरा भेजना। जब किसी लड़के का परिवार किसी लड़की से विवाह के लिए प्रस्ताव भेजता है, तो वे साथ में देसी सुरा भेंट स्वरूप भेजते हैं। यदि लड़की का परिवार इसे स्वीकार कर लेता है, तो यह संकेत होता है कि रिश्ता तय हो गया। यह रिवाज़ केवल एक सामाजिक स्वीकृति नहीं, बल्कि आपसी सम्मान, विश्वास और मर्यादा का प्रतीक है। आज भी यह परंपरा उतनी ही जीवित है जितनी दशकों पहले थी।
- पर्व, परंपरा और प्रसाद
किन्नौर में फागुली, फुआयच मेला, लोसार, राउलाने जैसे त्योहारों के मौके पर जब गांव के लोग पारंपरिक वेशभूषा में सजते हैं, देवताओं के सम्मान में नृत्य करते हैं और लोकगीत गाते हैं, तब सुरा को प्रसाद के रूप में सभी में बांटा जाता है। सुरा यहां उत्सवों का रस है। बिना इसके कोई पर्व अधूरा लगता है। कई बुज़ुर्ग तो यहां तक कहते हैं कि “देवता सुरा के बिना पूजा स्वीकार ही नहीं करते।”
- बाजार से दूर, परंपरा के पास
देसी सुरा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह व्यापार का हिस्सा नहीं है। इसे न बेचा जाता है, न इसका कोई विज्ञापन होता है। यह पूरी तरह से घरेलू, धार्मिक और सांस्कृतिक उपयोग के लिए बनाई जाती है। यही कारण है कि आज भी यह परंपरा मूल रूप में जीवित है।
स्थानीय महिला रिंगचेन नेगी कहते हैं कि हम सुरा को कोई आम शराब नहीं मानते। ये हमारी परंपरा की धरोहर है। अगर हम इसे नहीं निभाएंगे, तो संस्कृति बचेगी कैसे? वहीं, युवतियां भी सुरा बनाने की पारंपरिक विधियां सीख रही हैं ताकि यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित रह सके।