हिमाचलियों के हितों की ढाल है 118

हिमाचल के लिए वरदान साबित हुए भू -कानून, डॉ यशवंत सिंह परमार की सोच का नतीजा
धार्मिक ग्रंथों से लेकर इतिहास की पोथियों तक ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जो इस बात की तस्दीक करते हैं कि दुनिया में हुए महासंग्रामों में से अधिकतम के मूल में ज़मीन या उससे जुड़े विवाद रहे हैं। भूमि न सिर्फ समाज में किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा का प्रतीक है बल्कि यह उसकी जड़ों और उसके क्षेत्र से अपनत्व की भावना की भी परिचायक है। ज़मीन से जुड़ाव की भावना ही बहुतायत में राष्ट्रवाद जैसी धारणाओं को जन्म देती है। ज़मीन का एक छोटा टुकड़ा ही सही, मगर अपना हो तो स्वाभिमान में बढ़ोतरी होना लाज़मी है। हिमाचल प्रदेश के बाशिंदों के इसी स्वाभिमान को कायम रखने की नींव भू-कानूनों के रूप में हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री और हिमाचल निर्माता यशवंत सिंह परमार ने रखी थी।
देवभूमि कहे जाने वाले हमारे ख़ूबसूरत प्रदेश हिमाचल की तुलना अक्सर पड़ोसी राज्य उत्तराखंड से की जाती है, जो स्वयं भी देवभूमि की उपाधि से सुसज्जित है। ऐसे कई बिंदु हैं जिन पर हिमाचल को उत्तराखंड से इक्कीस बताया जाता है, और इन्हीं में से एक है हिमाचल के भू-कानून। बताया जाता है कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड के मुकाबले एक बेहतर राज्य के तौर पर उभरा है और इसका सबसे बड़ा कारण यही भू-कानून हैं। ये प्रदेश में लागू किए गए भू-कानून ही थे जिन्होंने हिमाचल को एक समृद्ध प्रदेश बनाया और हिमाचलवासियों के हितों को संरक्षित किया। यहाँ उत्तराखंड का ज़िक्र इसलिए किया क्योंकि भू-कानून से हिमाचल की सूरत कैसे बदली और ये हिमाचल के लिए वरदान क्यों साबित हुए, यह समझेंगे उस राज्य की परिस्थितियों से जहाँ ये कानून नहीं थे और जहाँ की जनता लंबे वक्त से हिमाचल की तर्ज पर भू-कानून और भूमि सुधारों की मांग कर रही है। आइए जानते हैं क्या हैं हिमाचल प्रदेश के भू-कानून, इनके पीछे की कहानी और ये कानून हिमाचल को समृद्धि के पथ पर आगे कैसे लेकर आए।
इस कहानी की शुरुआत होती है हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के बाद से। हिमाचल प्रदेश को साल 1971 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और देश के 18वें राज्य के रूप में हिमाचल अस्तित्व में आया। यह वह वक्त था जब भू-बंदोबस्त, वनीकरण, बागवानी और कृषि जैसी कई दिक्कतें प्रदेश के सामने थीं। ज़मीनों पर भूमाफियाओं और धन्ना सेठों की नज़रें थीं। हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार भविष्यद्रष्टा व्यक्तित्व के धनी थे और वह समय रहते इस समस्या को भांप गए। परमार समझते थे कि हिमाचल की जनता भोली है, अगर इनके अधिकारों को संरक्षित न किया गया तो आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ शेष नहीं रहेगा। ऐसी परिस्थिति में यशवंत सिंह परमार ने विकास का जो मॉडल तैयार किया वो बाकी राज्यों के लिए उदाहरण बन गया। डॉ. परमार पहाड़ और पहाड़ियों के हितों के लिए हमेशा से संजीदगी के साथ सक्रिय रहे। कुशल नेतृत्व, दूरदर्शी सोच और सूझ-बूझ से उन्होंने प्रदेश का इतिहास ही नहीं, भूगोल बदल डाला। बताया जाता है कि कुछ लोगों से मुलाकात के दौरान परमार को पता चला था कि जिन्होंने अपनी ज़मीन बेची, वे उसी के यहाँ बतौर नौकर काम कर रहे हैं। इस पर परमार ने मंथन किया तो पाया कि अगर हिमाचल की ज़मीन पैसे वाले लोग खरीद लेंगे तो यहाँ के बाशिंदे सड़क पर आ जाएंगे। परमार ने अपने भाषण में कहा था कि पहले हिमाचल का युवा अन्य राज्यों में मज़दूरी करने जाया करता था, मगर अब हिमाचल इतना समृद्ध होगा कि किसी भी व्यक्ति को बाहर जाने की ज़रूरत नहीं होगी। परमार समझते थे कि हिमाचल के पास सीमित भूमि है और इस क्षेत्र के लोगों की आय का सबसे बड़ा साधन यहाँ की भूमि पर होने वाली कृषि गतिविधियाँ ही होंगी और इसीलिए हिमाचल के छोटे और सीमांत किसानों के हितों की रक्षा के लिए भू-कानून बनाए गए।
1971 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के एक साल बाद ही प्रदेश में किरायेदारी और भूमि सुधार कानून लागू हो गया, जिसे हिमाचल प्रदेश टेनेंसी एंड लैंड रिफॉर्म्स एक्ट 1972 भी कहा जाता है। इस कानून की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है धारा 118, जिसके तहत कोई भी बाहरी व्यक्ति कृषि की ज़मीन निजी उपयोग के लिए नहीं खरीद सकता। धारा 118 के तहत ज़मीन के मालिकाना हक को लेकर बहुत ही कड़े नियम-कायदे हैं। इसके तहत गैर-कृषकों को ज़मीन ट्रांसफर करने पर प्रतिबंध है। यहाँ तक कि इस धारा के तहत हिमाचल में रहने वाला शख्स भी जो कृषक नहीं है या जिसके पास कृषि की भूमि नहीं है, वो भी कृषि भूमि नहीं खरीद सकता। धारा 118 के तहत हिमाचल प्रदेश का कोई भी ज़मीन मालिक किसी भी गैर-कृषक को किसी भी ज़रिये (सेल डीड, गिफ्ट, लीज, ट्रांसफर, गिरवी आदि) से ज़मीन नहीं दे सकता। भूमि सुधार अधिनियम 1972 की धारा 2(2) के मुताबिक ज़मीन का मालिकाना हक उसका होगा जो हिमाचल प्रदेश में अपनी ज़मीन पर खेती करता होगा। जो व्यक्ति किसान नहीं है और हिमाचल में ज़मीन खरीदना चाहता है, उसे प्रदेश सरकार से अनुमति लेनी होगी। सरकार से अनुमति लेने पर मालिकाना हक मिल सकता है, लेकिन यह काफ़ी लंबी प्रक्रिया है। उद्योग या पर्यटन से जुड़े विकास के मामलों में भी सरकार हर मसले और जानकारी की पूरी तरह से जांच-परख के बाद ज़मीन पर फ़ैसला लेती है। ज़मीन का चेंज लैंड यूज़ भी नहीं किया जा सकता। यानी ज़मीन अगर किसी अस्पताल के लिए ली गई तो उस पर मॉल या अन्य औद्योगिक इकाई नहीं लग सकती। फिर लैंड सीलिंग एक्ट में कोई भी व्यक्ति 150 बीघा ज़मीन से अधिक नहीं रख सकता। लीज को लेकर भी हिमाचल में कड़े नियम हैं। लीज या फिर पावर ऑफ अटॉर्नी की ज़मीन भी किसी हिमाचली के नाम पर ही होगी। मौजूदा सुखविंदर सुक्खू सरकार ने लीज के वक्त को घटाकर 99 वर्ष से 40 साल कर दिया है।
फरवरी 2023 में एक मामले की सुनवाई के दौरान देश की सर्वोच्च अदालत ने अहम टिप्पणी करते हुए कहा था कि हिमाचल प्रदेश में केवल किसान ही ज़मीन खरीद सकते हैं। अन्य लोगों को राज्य में ज़मीन खरीदने के लिए राज्य सरकार से इजाज़त लेनी होगी। 1972 के भूमि सुधार अधिनियम का हवाला देते हुए जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि "इसका उद्देश्य गरीबों की छोटी जोतों (कृषि भूमि) को बचाने के साथ-साथ कृषि योग्य भूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए बदलने की जाँच करना भी है।"
- उत्तराखंड की स्थिति से समझे 118 का महत्व
अब हिमाचल के भू-कानून क्यों ज़रूरी हैं, यह पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के हालातों से समझते हैं। उत्तराखंड में ग्रामीण इलाकों में साधनहीन लोग धन के अभाव में अपनी ज़मीन बेच देते हैं। फिर वे लैंडलेस हो जाते हैं। सख़्त भूमि कानून के अभाव में उत्तराखंड के जंगल भी ख़तरे में हैं और पलायन का कारण भी उत्तराखंड में यही रहा कि खेती से वहाँ रोज़गार के खास प्रयास नहीं हुए। उत्तराखंड में इन्हीं कारणों से गाँव बचाओ यात्रा जैसे आंदोलन भी हुए। उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति भी अपनी पहचान बनाए रखना चाहती है। देश के विभिन्न हिस्सों से आए लोग यदि उत्तराखंड में बिना रोक-टोक ज़मीन खरीदते रहेंगे तो यहाँ के सीमांत और छोटे किसान भूमिहीन हो सकते हैं। हिमाचल ने इस संकट को अपने अस्तित्व में आने पर ही पहचान लिया था और हिमाचल ने अपनी ज़मीन बचाने के लिए शुरू से ही काम किया है। धारा-118 के साथ छेड़छाड़ की कोई भी राजनीतिक दल सोच भी नहीं सकता। यहाँ की जनता जागरूक है और भूमि सुधार कानून के साथ कोई भी छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करती। हिमाचल प्रदेश निर्माता और राज्य के पहले मुख्यमंत्री डॉ. वाई. एस. परमार ने ऐसे कानूनों की नींव रखी कि हिमाचल की भूमि बाहरी लोग न ले पाएं। यहाँ बाहरी राज्यों के लोग ज़मीन नहीं खरीद सकते। यही कारण है कि हिमाचल में बाहरी राज्यों के प्रभावशाली लोग ना के बराबर ज़मीन खरीद पाए हैं। बेशकीमती कृषि और बागवानी भूमि को धन्ना सेठों के हाथों बिकने से बचाकर ही हिमाचल अपना वजूद कायम रख पाया है। हालाँकि अब उत्तराखंड की धामी सरकार ने भी इस दिशा में पहल ज़रूर की है।
- हिमाचल में कैसे खरीद सकते हैं ज़मीन
धारा-118 में ऐसी प्रक्रियाएं हैं, जो किसी बाहरी राज्य के व्यक्ति को आधिकारिक सहमति के अनुरोध के बाद हिमाचल प्रदेश में भूमि और संपत्ति दोनों खरीदने की मंज़ूरी देती हैं। बता दें कि यहाँ भूमि शब्द का मतलब कृषि योग्य क़ब्ज़े वाली या पट्टे पर दी गई ज़मीन से है। बाहरी राज्य के व्यक्ति को भूमि खरीद के लिए एक आवेदन जमा करना होगा। इसमें उसे कारण बताना होगा कि वह भूमि किस उद्देश्य के लिए खरीद रहा है। राज्य सरकार आवेदक की ओर से उपलब्ध कराई गई सभी जानकारियों की जांच व पुष्टि करने के बाद फ़ैसला लेती है कि व्यक्ति ज़मीन खरीद सकता है या नहीं। इसी प्रक्रिया के तहत शिमला में कांग्रेस नेता प्रियंका वाड्रा ने भी ज़मीन ली है।