नेता बन जाए या प्रशासनिक अधिकारी, अपनी जड़े नहीं छोडते गद्दी

आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद समुदाय के कई लोग करते है भेड़े चराने का काम
हिमाचल की सड़कों पर कभी कभार भेड़-बकरियों को हांकते कुछ गडरिये दिख जाया करते है। ये लुभावना कारवां हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता है। न सिर्फ पर्यटक बल्कि ये दृश्य उन दार्शनिक विभूतियों को भी अपनी तरफ खींचता है जो जीवन जीने के मुख़्तलिफ़ तौर तरीकों में दिलचस्पी रखते है। ये भोलेपन और सादगी की मूरत कहे जाने वाले हिमाचल के गद्दी समुदाय का कारवां होता है, जो अपनी इसी अनूठी जीवन शैली के लिए जाना जाता है। गद्दी समुदाय की कहानी हिमाचल के पहाड़ों के बीच बुनी गई उन कहानियों में से एक है जिन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी सुना और सुनाया जाता रहा है। हिमाचल के पहाड़ों में यूँ तो कई समुदाय बस्ते है मगर अपनी विशिष्ट भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, रीति-रिवाज और पहनावे के कारण गद्दी जनजाति अपनी अलग पहचान बनाए हुए है। गद्दी समुदाय उन समुदायों में से एक है जो आज भी अपनी संस्कृति और विरासत को संजोए रखने में कामयाब रहा है। गद्दी जनजाति के लोग आज प्रशासनिक अधिकारी, राजनेता, इंजीनियर, डॉक्टर जैसे महत्वपूर्ण पदों पर पहुंच चुके हैं। इसके बावजूद उन्होंने अपनी संस्कृति और परंपरा को नहीं छोड़ा है। वहीँ अब भी इस समुदाय के कई लोग भेड़े चराने का ही काम करते है। आइए इस समुदाय के बारे में थोड़ा और जानते है।
गद्दी जनजाति भारत की सांस्कृतिक रूप से सबसे समृद्ध जनजातियों में से एक है। पशुपालन करने वाले ये लोग वर्तमान में धौलाधर श्रेणी के निचले भागों, खासकर हिमाचल प्रदेश के चम्बा और कांगड़ा ज़िलों में बसे हुए हैं। शुरू में वे ऊंचे पर्वतीय भागों में बसे रहे, मगर बाद में धीरे-धीरे धौलाधार की निचली धारों, घाटियों और समतल हिस्सों में भी उन्होंने ठिकाने बनाए। गद्दी आज पालमपुर और धर्मशाला समेत कई कस्बों में भी अपने परिवारों के साथ रहते हैं। चंबा जिला में लगभग चार लाख और कांगड़ा घाटी में लगभग तीन लाख गद्दी रहते हैं। गद्दी जनजाति का उद्गम कहां से हुआ, इसके लिए अलग-अलग कथाएं निकल कर आती हैं। जानकारों के अनुसार वर्षों पहले ये लोग अफगानिस्तान से लाहौर के रास्ते राजस्थान आए थे, परंतु वहां की आबोहवा गर्म होने के कारण ये हिमाचल प्रदेश में आकर बस गए। हालांकि जम्मू संभाग के पहाड़ी इलाकों में भी इनका बड़ा कुनबा रहता है। ऐसा भी कहा जाता है कि हिमाचल प्रदेश की इस जनजाति ने मुगल शासक औरंगजेब के अत्याचारों से त्रस्त होकर हिमाचल की पहाड़ियों में शरण ली थी। हिमाचल प्रदेश में पाई जाने वाली गद्दी जनजाति पहले मध्य एशिया, राजस्थान और गुजरात में पाई जाती थी, लेकिन 17वीं शताब्दी में मुगल शासक औरंगजेब के अत्याचारों से परेशान होकर गद्दी जनजाति ने हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में शरण ली।
रंग रूप और कद काठी में गद्दी समुदाय काफी हद तक राजपूत समुदाय से मिलता है। गद्दी समुदाय के लोग स्वयं को गढ़वी शासकों के वंशज मानते हैं। गद्दी जनजाति के लोगों का मानना है कि अपने धर्म, समाज की पवित्रता को बनाए रखने के लिए उन्होंने हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में शरण ली है। इस समुदाय के लोग जन्म और परिवार के बुजुर्ग सदस्यों की मृत्यु को उत्सव की तरह मनाते हैं तथा अपनी बिरादरी के लोगों के सामाजिक उत्थान में भी महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। परंपरागत रीति-रिवाजों से इस समुदाय के लगाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिमाचल से बाहर बसे गद्दी समुदाय के लोगों ने लुधियाना, दिल्ली, चंडीगढ़ और मुंबई जैसे बड़े शहरों में अपने संगठन बना रखे हैं, जिनके माध्यम से वे अपने लोगों और अपनी सभ्यता-संस्कृति से जुड़े रहते हैं। मृत्यु जैसी शोक की घड़ी में समूची गद्दी बिरादरी शोक संतप्त परिवार के साथ खड़ी होती है। मृतक का अंतिम संस्कार सम्पन्न करने वाला परिवार का सदस्य 10 दिनों तक भूमि पर सोता है। इस दौरान उसके सामने चादर बिछाई जाती है। शोक व्यक्त करने आने वाले लोग यथासंभव आर्थिक सहयोग करते हुए चादर पर अपनी क्षमता के अनुसार रुपए-पैसे चढ़ाते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में ‘बरतन’ कहते हैं। 10 दिन बाद चादर उठाकर एकत्रित राशि शोक संतप्त परिवार को दी जाती है। इस दौरान शोक संतप्त परिवार की बहुएं पारंपरिक परिधान ‘लुआंचड़ी’ पहनती हैं तथा कोई भी जेवर नहीं पहनतीं।
अपनी मजबूत सांस्कृतिक पहचान के बावजूद, गद्दी समुदाय को आधुनिक दुनिया में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। आर्थिक दबाव, बदलते जलवायु पैटर्न और शहरी केंद्रों में पलायन उनके पारंपरिक जीवन शैली के लिए खतरा पैदा करते हैं। गद्दी संस्कृति को संरक्षित करने, स्थायी आजीविका को बढ़ावा देने और शिक्षा और कौशल विकास पहलों के माध्यम से समुदाय को सशक्त बनाने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी दोनों संगठनों द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। संक्षेप में, गद्दी समुदाय एक ऐसी दुनिया की झलक पेश करता है जहाँ हिमालय की विस्मयकारी सुंदरता के बीच परंपरा आधुनिकता से मिलती है - एक ऐसी दुनिया जो सादगी, सांस्कृतिक समृद्धि और अपने प्राकृतिक परिवेश से गहरे जुड़ाव की विशेषता रखती है।
- पशुधन के साथ गहरा रिश्ता
गद्दी जीवन शैली का मुख्य हिस्सा पशुधन के साथ उनका गहरा रिश्ता है। वे भेड़ और बकरियों को चराने में अपनी विशेषज्ञता के लिए प्रसिद्ध हैं, ये लोग अपने जानवरों के लिए ताज़ा चारागाह खोजने के लिए चुनौतीपूर्ण पहाड़ी इलाकों में जाते हैं। यह खानाबदोश जीवन शैली न केवल उनकी आजीविका को बनाए रखती है बल्कि प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व को भी दर्शाती है। अपनी भेड़ों से इन्हें काफी उच्च कोटि का ऊन भी मिलता हैं, जिसके माध्यम से यह गर्म कपड़े, शाल, कंबल, जैकेट, ओवरकोट, टोपी बनाकर अपनी आजीविका चलाते हैं। गद्दी जनजाति के लोग सर्दियों में अपने पशुओं को लेकर निचले स्थानों पर आ जाते हैं, जबकि गर्मियों में ऊंची पहाड़ियों पर भेड़ बकरियों को लेकर चले जाते हैं।
- दूल्हे को बारात से पहले बनाया जाता है ‘जोगी’
गद्दी समुदाय में विवाह समारोह के अवसर पर दूल्हे को बारात से पहले ‘जोगी’ बनाया जाता है। इस परंपरा में धोती-कुर्ता के साथ उसे चोला-डोरा पहना कर हाथों में धनुष-बाण दिया जाता है। मान्यता है कि इस दौरान यदि दूल्हा घर की दहलीज से बाहर चला जाए तो ‘जोगी’ बन जाता है। हालांकि इस रस्म को परंपरा के रूप में निभाया जाता है, परन्तु कभी ऐसा कोई मामला नहीं हुआ। विवाह संपन्न होने के बाद पारंपरिक नुआला का आयोजन किया जाता है, जिसमें समुदाय के ब्राह्मण सारी रात भगवान शिव का स्तुतिगान करते हैं। इस दौरान पारंपरिक वाद्य यंत्रों की धुनों से समूचा इलाका गूंज उठता है और समुदाय के लोग पारंपरिक परिधानों में नाचते-गाते हैं। गद्दी जनजाति के लोगों का पहनावा भी अलग है। शुभ अवसरों पर गद्दी महिलाएं पारंपरिक परिधान ‘लुआंचड़ी’, कुर्ता, डोरा पहनती हैं। महिलाओं के गहनों में मुख्यत: और ज्यादातर चांदी से बने चिड़ी, चंद्रहार, संगली, सिंगी, क्लइपड़ू, चक, कंडडू, कंगन और मरीजड़ी होते हैं। ज्यादातर महिलाएं कमर पर चांदी का छल्ला लटकाना नहीं भूलतीं। वहीँ पुरुष सिर पर पगड़ी पहनते हैं। वह डोरा के साथ एक प्रकार का चोला भी पहनते हैं ।