ओशो ने हिमाचल में दिया था “नवसंन्यास” का सिद्धांत

'ओशो’ से हम सभी परिचित हैं l अपने लाखों प्रशंसकों, शिष्यों और अनुयायियों के लिए वो सिर्फ़ ‘ओशो’ थे, भारत और फिर बाद में पूरी दुनिया में उन्हें ‘आचार्य रजनीश’ और ‘भगवान श्री रजनीश’ के नाम से जाना जाता था l भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता ओशो को दुनिया से गए साढ़े तीन दशक से अधिक हो चुके हैं लेकिन आज भी उनकी लिखी किताबें बिक रही हैं, उनके वीडियो और ऑडियो सोशल मीडिया पर आज भी ख़ूब देखे-सुने जाते हैं l ओशो में लोगों की दिलचस्पी इसलिए भी जगी क्योंकि वो किसी परंपरा, दार्शनिक विचारधारा या धर्म का हिस्सा कभी नहीं रहे l
ओशो का हिमाचल से भी गहरा नाता रहा है ल क्या आप जानते है ओशो की बहुचर्चित 'नवसन्यास' या 'नव संन्यास' का जन्म हिमाचल में हुआ था। जीवन जीने के विभिन्न तरीके सीखने वाले ओशो ने नवसन्यास का सिद्धांत हिमाचल में दिया था l 26, सितंबर 1970 को हिमाचल प्रदेश के कुल्लू -मनाली में एक ध्यान शिविर के दौरान ओशो ने “नवसंन्यास” का सूत्रपात किया, जो नये मनुष्य में लिए उनका सबसे सुंदर स्वप्न माना गया l माना जाता है की ओशो ने पुराने संन्यास को, जो अपनी मृत्यु-शैया पर था, पुनर्जन्म दिया था। आधुनिक दुनिया में पुराना संन्यास पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुका था। इस महत्वपूर्ण समय में, ओशो ने महसूस किया कि संन्यास को एक नया जीवन, एक नई दृष्टि, एक नई चेतना दी जानी चाहिए। हिमालय में मनाली में अपने ध्यान शिविर के दौरान, भगवान कृष्ण की दिव्य चंचलता और जीवन के सभी रंगों को पूरी तरह से स्वीकार करने पर बात करते हुए, ओशो ने युवा ध्यानियों के पहले समूह को दीक्षा देकर नवसंन्यास के एक नए युग की शुरुआत की थी। तब से संन्यास की ताज़ा हवा और इसकी ध्यानपूर्ण और सकारात्मक चंचल जीवनशैली पूरी दुनिया में बह रही है।
ओशो, अपने जीवनकाल में कई बार हिमाचल प्रदेश आए। हिमाचल में उनकी यात्राएँ मुख्य रूप से आध्यात्मिक रिट्रीट और कम्यून स्थापित करने पर केंद्रित रहीं, जहां उनके अनुयायी ध्यान का अभ्यास कर सकते थे और आध्यात्मिकता और चेतना पर उनकी शिक्षाओं को समझ सकते थे।
- सन्यास पर ओशो ने दी नई व्याख्या
ओशो ने कहा था संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं, आनंद हैl संन्यास निषेध भी नहीं है, उपलब्धि है, लेकिन आज तक पृथ्वी पर संन्यास को निषेधात्मक अर्थों में ही देखा गया है, त्याग के अर्थों में, छोड़ने के अर्थों में, पाने के अर्थ में नहीं l मैं संन्यास को देखता हूं पाने के अर्थ में l निश्चित ही जब कोई हीरे जवाहरात पा लेता है तो कंकर पत्थरों को छोड़ देता है l लेकिन कंकर पत्थरों को छोड़ने का अर्थ इतना ही है कि हीरे जवाहरातों के लिए जगह बनानी पड़ती है l कंकर पत्थरों का त्याग नहीं किया जाता त्याग तो हम उसका करते हैं जिसका बहुत मूल्य मालूम होता है l कंकड़ पत्थर तो ऐसे छोड़े जाते हैं जैसे घर से कचरा फेंक दिया जाता है l घर से फेंके हुए कचरे का हिसाब नहीं रखते l संन्यास अब तक लेखा-जोखा रखता रहा उस सब का जो छोड़ा जाता है, मैं संन्यास को देखता हूं उस भाषा में, उस लेखे जोखे में जो पाया जाता है l यानी ओशो का ये नया संन्यासी संसार से दूर हिमालय की गुफाओं में नहीं बैठता, यह अपने घर में, दुकान में, बाज़ार के बिल्कुल बीच में खड़ा है और जीवन को एक अभिनय, एक लीला की तरह देखता है l यहाँ माना गया था की जब धरती पर अधिक से अधिक लोग इस भाव से जुड़ेंगे तब तनाव और हिंसा कम होती जायेगी और जीवन एक उत्सव बनता जाएगा l