यहां आज भी है महिषासुर के रक्त से भरा खप्पर !

अनोखी मान्यता : इस मंदिर से बाहर आते समय नहीं बोल सकते हैं 'चलो'
मां मृकुला देवी मंदिर आस्था, रहस्य और रोमांच का अद्धभूत संगम हैं। लाहौल घाटी के उदयपुर में स्थित मृकुला देवी मंदिर में मां काली की महिषासुर मर्दिनी के आठ भुजाओं वाले रूप में पूजा की जाती है। कश्मीरी कन्नौज शैली में बना हुआ ये मंदिर कई रहस्यों और दंतकथाओं का जीवंत उदाहरण है। मान्यता है कि महिषासुर का वध करने के बाद मां काली ने यहीं पर खून से भरा हुआ खप्पर रखा था। यह खप्पर आज भी यहां मुख्य मूर्ति के पीछे रखा हुआ है, जिसे किसी को देखने की अनुमति नहीं है। लोगों में आस्था है कि अगर इस खप्पर को कोई गलती से भी देख ले तो वह अंधा हो जाता है। आज भी लोग इस खप्पर को देखने का साहस नहीं करते।
लाहुल घाटी में साल में एक बार फागली उत्सव होता है। उत्सव की पूर्व संध्या पर मां मृकुला देवी मंदिर के पुजारी खप्पर की पूजा-अर्चना की रस्म अदायगी अकेले करते हैं। तब खप्पर को बाहर निकाला जाता है, लेकिन कोई देखता नहीं है। बुजुर्गों की बात पर यकीन किया जाए तो 1905-06 में इस खप्पर को देखने वाले चार लोगों की आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली गई थी। आज भी यह परंपरा कायम है और कोई भी उस खप्पर को नहीं देखता।
लोकश्रुति के अनुसार महाबली भीम एक दिन एक विशालकाय पेड़ को यहां लाए और उन्होंने देवता के शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा से यहां मंदिर के निर्माण के लिए कहा और विश्वकर्मा ने एक दिन में इस मंदिर का निर्माण किया। मंदिर के भीतर बनी कलाकृतियां अद्धभूत हैं, चाहे कहीं मृत्यु शैया में लेटे भीष्म पितामह हो, सागर मंथन, सीता मैया का हरण, अशोक वाटिका, द्रोपदी स्वयंवर, चक्रव्यूह या कोई अन्य कलाकृति। इस मंदिर का रखरखाव भारतीय पुरातत्व विभाग के अंतर्गत आता है।
हिंदू इस मंदिर में मृकुला देवी या देवी काली की पूजा करते हैं, वहीं बौद्ध धर्म के अनुयायी इसे वज्रराही देवी (एक क्रोधित बौद्ध देवी) के रूप में पूजते हैं। बौद्ध धर्म के लोगों का मानना है कि इस स्थान पर तांत्रिक संत पद्मसंभव ने साधना की थी।
- 'चलो' कहना मना है
मंदिर कपाट के पास दो द्वारपाल, बजरंग बली और भैरो देव तैनात हैं। मंदिर में प्रवेश करने से पहले श्रद्धालुओं को बताया जाता है कि यहां पूजा-अर्चना और दर्शन के बाद भूलकर भी ‘चलो यहां से चलते हैं’ नहीं बोल सकते हैं। मान्यता के अनुसार ऐसा कहने पर उनके घरों में अशुभ घटनाएं घट सकती हैं। बताते हैं कि ऐसा कहने पर इस मंदिर के द्वार पर खड़े दोनों द्वारपाल भी साथ चल पड़ते हैं।
स्थानीय लोग बताते है कि 'कई साल पहले एक परिवार के सदस्य दर्शन के बाद "चलो चलो घर चलो" कहकर निकल गए थे, जिससे द्वारपाल भी उनके साथ चले गए। इसके बाद उनके घर में अजीब घटनाएं घटने लगीं, जब उन्होंने देवता से सलाह ली, तो उन्हें मंदिर लौटकर क्षमा याचना करनी पड़ी, तभी जाकर उनके घर में शांति लौटी। आज भी बाहर से आने वाले सैलानियों को इन नियमों की जानकारी पहले ही दे दी जाती है।'
- ढाई मन वजनी पत्थर के बराबर मिलता था भीम को भोजन
मंदिर प्रांगण में करीब ढाई मन वजनी एक पत्थर है जिसे उठाना तो दूर हिलाने में भी पसीने छूट जाते हैं। बताते हैं कि सच्चे मन से मां के जयकारों के साथ पांच या सात लोग एक मध्यम उंगली से इस पत्थर को बड़ी सुगमता से हिला या उठा सकते हैं। कहते है यह पत्थर भीम के लिए रखा गया था। भीम पांडवों का सारा भोजन चट कर जाते थे, ऐसे में उन्हें इस पत्थर के वजन के बराबर एक समय का भोजन ही दिया जाता था ताकि शेष लोगों के भोजन हेतु कुछ बच सके।
- मरगुल से उदयपुर हुआ नाम
बताते हैं कि 16वीं शताब्दी से पहले इस गांव का नाम मरगुल था। तब चंबा के राजा उदय सिंह लाहौल आए। उन्होंने देवी की अष्टधातु की मूर्ति की स्थापना की। इसके बाद गांव का नाम उदयपुर पड़ गया। यह गांव तांदी- किश्तवाड़ मार्ग पर चिनाब (चंद्रा और भागा) नदी के किनारे बसा है।