आस्था, संस्कृति और समर्पण का महाकुंभ है 'भुंडा महायज्ञ'

हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत में कुछ आयोजन ऐसे हैं, जो केवल पारंपरिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि पूरे समाज की सामूहिक चेतना और एकता के प्रतीक बन चुके हैं। ऐसे ही एक पावन आयोजन का नाम है भुंडा महायज्ञ। जब यह महायज्ञ होता है, तो पूरा क्षेत्र तीर्थस्थल में परिवर्तित हो जाता है। भुंडा महायज्ञ की उत्पत्ति प्राचीन ग्रंथों, जैसे ब्रह्मांड पुराण और यजुर्वेद से जुड़ी हुई है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान परशुराम ने हिमालय की पावन भूमि में व्याप्त राक्षसी शक्तियों का नाश करने के लिए इस यज्ञ की स्थापना की थी। समय के साथ यह यज्ञ नकारात्मक शक्तियों के विनाश, सामाजिक समृद्धि और भाईचारे का प्रतीक बन गया है। स्थानीय जनमानस इसे नरमेज्ञ यज्ञ के रूप में भी जानता है।
कई मीटर ऊंचाई से खाई में फिसलता है 'बेड़ा'
भुंडा महायज्ञ का दिलकश और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है ‘बेड़ा’ अनुष्ठान। आयोजन के तीसरे दिन, एक पुरुष जिसे ‘बेड़ा’ कहा जाता है, विशेष रस्सी (जिसे स्थानीय भाषा में ‘दंड’ या ‘बेरुत’ कहते हैं) पर चढ़कर लगभग कई मीटर ऊंचाई से खाई में फिसलता है। यह रस्सी दो वृक्षों के बीच बंधी होती है और ‘बेड़ा’ उसी पर संतुलन बनाकर यह साहसिक कार्य करता है। कहा जाता है कि यह अनुष्ठान पहले नरबलि के रूप में होता था, लेकिन अब यह केवल प्रतीकात्मक रूप में किया जाता है। यह कर्म लोक भूमि की शुद्धि, बुरी शक्तियों के नाश और सामूहिक बलिदान का अभिव्यक्तिकरण है।
'बेड़ा' करता है कठोर नियमों का पालन, खास घास से बनती है रस्सी
कुछ माह पूर्व रोहड़ू के दलगांव में भुंडा महायज्ञ का आयोजन हुआ था। महायज्ञ बेड़ा सूरत राम ने कहा कि, 'वे देवता के मंदिर में पूरे नियम के साथ ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे थे। आस्था की खाई को पार करने के लिए विशेष घास से खुद रस्सा तैयार किया है। इसे तैयार करने में अपने चार सहयोगियों के साथ करीब ढाई महीने का समय लगा। भुंडा महायज्ञ के लिए बेड़ा को तीन महीने देवता के मंदिर में ही रहना पड़ता है। बेड़ा के लिए एक समय का भोजन मंदिर में ही बनता है। अनुष्ठान के समापन होने तक न तो बाल और न ही नाखून काटे जाते हैं। सुबह चार बजे भोजन करने के बाद फिर अगले दिन सुबह चार बजे भोजन किया जाता है, यानी 24 घंटे में केवल एक बार भोजन किया जाता है। इस दौरान अधिकतम मौन व्रत का पालन किया जाता है। इसके अलावा अन्य प्रतिबंध भी रहते हैं।'
बेड़ा सूरत राम ने कहा कि, 'भुंडा महायज्ञ के दौरान बेड़ा रस्सी के जरिए मौत की घाटी को लांघते हैं। ये रस्सी दिव्य होती है और इसे मूंज कहा जाता है। यह विशेष प्रकार की नर्म घास की बनी होती है। इसे खाई के दो सिरों के बीच बांधा जाता है। भुंडा महायज्ञ की रस्सी को बेड़ा खुद तैयार करते हैं।'
शिखा फेर, लोकगीत और रात्रि जागरण
‘बेड़ा’ के पहले दिन शिखा फेर का अनुष्ठान संपन्न होता है, जिसमें क्षेत्र की सुरक्षा, सुख-समृद्धि और कल्याण के लिए प्रार्थना की जाती है। यज्ञ की रात्रियाँ अत्यंत पावन और धार्मिक भाव से ओतप्रोत होती हैं। महिलाएं और बुजुर्ग मिलकर भुंडा और परशुराम की कथाएं गाते हैं, लोकगीतों में देवताओं की महिमा का वर्णन करते हैं, जबकि पुरुष ढोल-नगाड़ों की थाप पर नृत्य करते हैं। यह सामूहिक भक्ति और संस्कृति का सजीव रूप होता है।
अंग्रेजों ने लगाया था प्रतिबंध
19वीं सदी में अंग्रेजी सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था। उनका मानना था कि इससे इंसानी जान को खतरा होता है, लेकिन आज़ादी के बाद यह प्रथा फिर शुरू हुई, लेकिन अब बेड़ा की सुरक्षा के लिए पुख्ता इंतजाम किए जाते हैं। रस्सी के नीचे नेट (जाली) लगाई जाती है, ताकि किसी तरह का कोई नुकसान न हो।
श्रद्धालुओं की सेवा है लोकपरंपरा की मिसाल
कुछ वक्त पूर्व रोहड़ू के दलगांव में भुंडा में लाखों श्रद्धालु पहुंचे थे। भुंडा महायज्ञ के दौरान लगभग 1500 परिवार अपने घरों में 1 लाख से 5 लाख श्रद्धालुओं की सेवा करते हैं। यहाँ कोई व्यावसायिक होटल या निजी व्यवस्था नहीं होती। हर परिवार अपने घर का दरवाजा श्रद्धालुओं के लिए खोलता है, जो ‘अतिथि देवो भवः’ की जीवंत मिसाल है। शुद्ध हिमाचली व्यंजन जैसे चिले, हलवा पूरी, सिड्डू, लोण, चना, शक्करपारे बड़े प्रेम और परंपरा से बनाए जाते हैं। इस महायज्ञ का बजट करीब 100 करोड़ था।