शिव की महिमा शिव ही जाने...यहाँ भगवान शिव देते है मणि के रूप में दर्शन
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हिमाचल के चम्बा जिले को शिव भूमि के नाम से जाना जाता है। चम्बा के भरमौर में समुद्र तल से लगभग 13,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र मणिमहेश सरोवर देशभर के भक्तों के लिए आस्था का केंद्र है।
मान्यता है कि देवी पार्वती से विवाह करने के बाद भगवान शिव ने मणिमहेश नाम के इस पर्वत की रचना की थी। बर्फ से ढके इस पहाड़ पर भोलेनाथ का वास होता था। वहीं बर्फ से ढकी चोटियों के बीच यह मनोरम झील बनी हुई है। यह भगवान शिव की महिमा ही है कि अष्टमी के दिन स्नान से पहले ही झील का पानी बढ़ने लग जाता है। ऐसा क्यों होता है, इसका पता लगाने में वैज्ञानिक भी नाकाम रहे हैं। अष्टमी के बाद इस झील का पानी फिर कम हो जाता है। झील में इतना पानी अचानक कहां से आ जाता है ये रहस्य बरकरार है। इसी झील में स्नान करने के बाद पवित्र मणि के दर्शन भी होते हैं। इसके बाद से ये पहाड़ रहस्यमयी बन गया। मणि महेश यात्रा पर जाने का मौका श्रद्धालुओं को जुलाई-अगस्त के दौरान ही मिल पाता है, क्योंकि तब यहां का मौसम कमोबेश ठीक रहता है। इन दिनों में यहां मेले का भी आयोजन किया जाता है जो जन्माष्टमी के दिन समाप्त होता है। 15 दिनों तक चलने वाले मेले के दौरान प्रशासन की ओर से सभी प्रकार के प्रबंध किये जाते हैं। जन्माष्टमी पर यहां लगने वाले मेले में हिमाचल सहित देश के कोने कोने से श्रद्धालु आते हैं। यह यात्रा चंबा के लक्ष्मी नारायण मंदिर से शुरू होती है। यहां से भोले की चांदी की छड़ी को लेकर यह यात्रा शुरू होती है और राख, खड़ामुख आदि क्षेत्रों से गुजरते हुए भरमौर पहुंचती है। भरमौर में छड़ी का पूजन किया जाता है और फिर यह हरसर और धांचू होते हुए राधा अष्टमी के दिन मणि महेश पहुंचती है। मणिमहेश झील के पास की हिमाच्छादित चोटियों से पिघलने वाला बर्फीले पानी मणिमहेश झील का मुख्य स्रोत हैं। जैसे ही जून के अंत तक बर्फ पिघलना शुरू होती है, यह कई छोटी धाराओं में टूट जाती है और मणिमहेश झील में आकर मिलती है। हरी-भरी पहाड़ियों और फूलों की एक साथ जलधाराएँ घाटी को सुंदर प्राकृतिक सौंदर्य प्रदान करती हैं जो किसी स्वर्ग से कम नही है। बर्फ से ढकी चोटियों का प्रतिबिंब मणिमहेश झील के पानी में साफ़ साफ देखा जाता है।
इसलिए कहा जाता है मणिमहेश
मान्यता है कि कैलाश पर्वत पर भगवान भोले नाथ शेषमणि के रूप में विराजमान है। भगवान शिव लोगों को दर्शन भी मणि के रूप में देते है, इसलिए इस धार्मिक स्थल का नाम मणिमहेश पड़ा। कहा जाता है कि सच्चे मन से भगवान भोले नाथ की भक्ति के साथ डल झील में पहुंचने वाले श्रद्वालुओं को ही यहां मणि के दर्शन होते हैं। भगवान शिव आज भी चौथे पहर में अपने भक्तों को मणि के रूप में दर्शन देते हैं। इस भक्तिमय लम्हें के इंतजार में कई शिवभक्त पूरी रात नहीं सोते और जैसे ही चौथे पहर में चांद की रोशनी से मणि चमकती है तो पूरी डल झील और आसपास का क्षेत्र भगवान भोले नाथ के जयकारों और उदघोष से गूंज उठता है। चमत्कारों और रहस्यों से भरे कैलाश पर्वत में दिखने वाले इस अदभुत नजारे के आगे डल झील पर मौजूद हर कोई शख्स नतमस्तक हो जाता है।
झील में स्नान करने का अपना महत्व
जो भक्त अमरनाथ नहीं जा पाते हैं वे मणिमहेश झील में पवित्र स्नान के लिए पहुंचते हैं। पहले मणिमहेश झील तक पहुंचना काफी जटिल था लेकिन अब भरमौर से गौरीकुंड तक हेलीकॉप्टर की व्यवस्था है। पैदल यात्रा के लिए हड़सर सड़क का अंतिम पड़ाव है। यहां से आगे संकरे रास्तों पर पैदल या घोड़े-खच्चरों की सवारी कर ही सफर तय होता है। हड़सर से मणिमहेश झील की दूरी करीब 13 किलोमीटर है। इसके अलावा पैदल यात्रा करने के इच्छुक भक्तों के लिए हड़सर, धनछो, सुंदरासी, गौरीकुंड और मणिमहेश झील के आसपास रहने के लिए पूर्ण व्यवस्था की जाती है।
स्त्रियों के स्नान के लिए गौरीकुंड
गौरीकुंड पहुंचने पर प्रथम कैलाश शिखर के दर्शन होते हैं। कहा जाता है कि गौरीकुंड माता पार्वती का स्नान स्थल है। महिलाएं यहां स्नान करती हैं। यहां से करीब दो किलोमीटर की सीधी चढ़ाई के बाद मणिमहेश झील तक पहुंचा जाता है। यहां का खूबसूरत दृश्य पैदल पहुंचने वालों की थकावट को क्षण भर में दूर कर देता है और सकरात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
माता चौरासी में दर्शन करना जरुरी
चौरासी माता के दर्शन के बिना यात्रा अधूरी मानी जाती है। भरमौर का नाम पहले ब्रह्मïपुर हुआ करता था, इस दौरान माता भरमाणी का मंदिर भी चौरासी परिसर में ही था। किवदंतियों के अनुसार चौरासी परिसर में रात के समय पुरुषों के विश्राम पर प्रतिबंध था। उस दौरान चौरासी सिद्धों का एक दल पवित्र मणिमहेश यात्रा पर जा रहा था। यात्रा के दौरान अँधेरा ज्यादा होने के कारण उन्होंने रात में यहीं पर ही रुकने का निर्णय लिया। जैसे चौरासी सिद्धों ने चौरासी परिसर में रात के समय प्रवेश किया तो इससे माता भरमाणी क्रोधित हो उठीं। माता भरमाणी उन चौरासी सिद्धों को श्राप देने लगी तो भगवान शंकर प्रकट हुए। शंकर को देख माता भरमाणी का क्रोध शांत हो गया। माता भरमाणी ने भगवान शंकर से क्षमा मांगी। साथ ही चौरासी परिसर में रात के समय पुरुषों के आगमन निषेध होने की बात कही। माता भरमाणी वहां से विलुप्त होकर यहां से तीन किलोमीटर दूर साहर नामक स्थान पर प्रकट हुईं। जिसके बाद भगवान शंकर ने माता भरमाणी को वरदान दिया कि मणिमहेश यात्रा पर आने वाले श्रद्धालुओं की यात्रा तभी पूर्ण होगी जब श्रद्धालु सर्वप्रथम माता भरमाणी के दर्शन करेंगे।
नील मणि के नाम से भी है विख्यात
कैलाश पर्वत को टरकोइज माउंटेन यानि कि नीलमणि भी कहा जाता है।मणिमहेश में कैलाश पर्वत के पीछे से जब सूर्य उदय होता है, तो सारे आकाशमंडल में नीलिमा छा जाती है और सूर्य के प्रकाश की किरणें नीले रंग में निकलती है। अलबता इस दौरान यहां का पूरा वातावरण नीले रंग के प्रकाश में ओत-प्रोत हो जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि कैलाश पर्वत पर नीलमणि के गुण-धर्म मौजूद है, जिनसे टकराकर प्रकाश की किरणें नीली हो जाती है और खूबसूरती में चार चाँद लग जाता है।
शिव स्तुति....
आशुतोष शशाँक शेखर,
चन्द्र मौली चिदंबरा,
कोटि कोटि प्रणाम शम्भू,
कोटि नमन दिगम्बरा ॥
निर्विकार ओमकार अविनाशी,
तुम्ही देवाधि देव ,
जगत सर्जक प्रलय करता,
शिवम सत्यम सुंदरा ॥
निरंकार स्वरूप कालेश्वर,
महा योगीश्वरा ,
दयानिधि दानिश्वर जय,
जटाधार अभयंकरा ॥
शूल पानी त्रिशूल धारी,
औगड़ी बाघम्बरी ,
जय महेश त्रिलोचनाय,
विश्वनाथ विशम्भरा ॥
नाथ नागेश्वर हरो हर,
पाप साप अभिशाप तम,
महादेव महान भोले,
सदा शिव शिव संकरा ॥
जगत पति अनुरकती भक्ति,
सदैव तेरे चरण हो,
क्षमा हो अपराध सब,
जय जयति जगदीश्वरा ॥
जनम जीवन जगत का,
संताप ताप मिटे सभी,
ओम नमः शिवाय मन,
जपता रहे पञ्चाक्षरा ॥
आशुतोष शशाँक शेखर,
चन्द्र मौली चिदंबरा,
कोटि कोटि प्रणाम शम्भू,
कोटि नमन दिगम्बरा ॥
कोटि नमन दिगम्बरा..
कोटि नमन दिगम्बरा..
कोटि नमन दिगम्बरा..