कर्मचारी लहर: जयराम की राह पर सुक्खू सरकार

दो समानांतर महासंघ, न मान्यता मिली न जेसीसी
यूपीएस पर सरकार के रुख पर भी नज़र
सवा दो साल बीत गए, मगर हिमाचल की सुक्खू सरकार ने अब तक अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ को मान्यता नहीं दी। जेसीसी की बैठक तो और भी दूर की कौड़ी लगती है। महासंघ की मान्यता के लिए दो दावेदार मैदान में हैं—प्रदीप ठाकुर और त्रिलोक ठाकुर। दोनों ही समानांतर महासंघ तैयार कर चुके हैं, दोनों ही कर्मचारियों के मसले उजागर कर रहे हैं और दोनों ही मान्यता की अर्जी समय-समय पर मुख्यमंत्री को सौंप चुके हैं। मुख्यमंत्री मुलाकात भी दोनों महासंघों से कर रहे हैं। अभी बीते कल ही त्रिलोक गुट मुख्यमंत्री से मिला था... इससे पहले समय-समय पर प्रदीप गुट भी मुख्यमंत्री से मिला है। मगर मान्यता अब तक किसी को नहीं मिली। हां, आश्वासन ज़रूर मिला है कि बजट सत्र के बाद इस मसले पर चर्चा करेंगे। मगर यह आश्वासन तो पहले भी मिला था और तब से मिल रहा है जब से प्रदेश में सरकार बनी है। ज़ाहिर है, लगातार बढ़ते इस इंतज़ार से अंदरखाने कर्मचारियों में रोष पनपने लगा है।
वैसे देखा जाए तो कर्मचारी संगठनों को देर से मान्यता देने की रवायत हिमाचल में पुरानी है। पूर्व की जयराम सरकार ने भी अश्विनी ठाकुर वाले महासंघ को मान्यता देने में साढ़े तीन साल से भी ज़्यादा का वक्त लिया था। इससे पहले भी कुछ सरकारों ने यही किया। हालांकि, इस बार माना जा रहा था कि सरकार जल्द महासंघ को मान्यता दे सकती है, किंतु ऐसा नहीं हुआ। वर्तमान सरकार भी पूर्व सरकार की परिपाटी पर ही आगे बढ़ रही है—वही कर रही है जो पूर्व की जयराम सरकार ने किया। मान्यता के लिए कर्मचारियों को अंत तक लटकाए रखा।
बता दें कि हिमाचल में अभी कर्मचारियों के कई मसले लंबित हैं। सभी कर्मचारी संगठन विभिन्न स्तरों पर अपने मसले उजागर भी कर रहे हैं, मगर कर्मचारी संगठन मानते हैं कि इनके निपटारे के लिए जेसीसी ज़रूरी है। हालांकि, फिलहाल इसके कोई संकेत नहीं हैं। जानकार मान रहे हैं कि संभवतः अपने चौथे साल में ही सरकार इस पर निर्णय ले। वैसे देरी की वजह भी स्वाभाविक है। जेसीसी में सरकार पर कर्मचारियों की लंबित मांगों को जल्द पूरा करने का दबाव बढ़ेगा। ऐसे में लाज़मी है कि खराब आर्थिक स्थिति के बीच सरकार फिलहाल इसे टालना चाहे। लेकिन सवाल यह है कि क्या आने वाले समय में वित्तीय स्थिति बेहतर होगी?
वैसे इन दिनों कर्मचारी राजनीति में एक और बड़ा मसला भी है—ओपीएस और यूपीएस के बीच छिड़ी प्रतिस्पर्धा। प्रदीप ठाकुर ओपीएस आंदोलन से निकले हैं और उनकी पूरी राजनीति अब तक इसी के इर्द-गिर्द रही है। कांग्रेस सरकार के गठन के बाद ओपीएस बहाली का श्रेय भी प्रदीप गुट को दिया जाता है और इसी के चलते काफ़ी संख्या में कर्मचारी उनके साथ हैं। किंतु बीते दिनों यूपीएस का जिक्र कर मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने नई बहस को जन्म दे दिया है। केंद्र सरकार भी आर्थिक मदद की पेशकश कर प्रदेश सरकार से यूपीएस लागू करने का आग्रह कर रही है। दिलचस्प बात यह है कि मंत्री विक्रमादित्य सिंह के बयान का खंडन कांग्रेस के किसी नेता ने नहीं किया। इशारा साफ़ है कि यूपीएस लागू हो या न हो, लेकिन मंथन तो चल रहा है। माहिर मानते हैं कि सरकार बीच का रास्ता पकड़ सकती है। इस बीच प्रदीप गुट खुलकर यूपीएस के विरोध में बोल रहा है, जबकि त्रिलोक गुट यूं तो ओपीएस के ही समर्थन में है, मगर यह भी कह रहा है कि यदि कोई कर्मचारी यूपीएस लेना चाहे तो सरकार को विकल्प देना चाहिए। यानी यूपीएस फैक्टर कर्मचारी राजनीति के समीकरण भी बदल सकता है।
बहरहाल, इंतज़ार सरकार के फैसले का है—यूपीएस पर भी और महासंघ की मान्यता पर भी।