1977 में सीएम पद खोने वाली कुटलैहड़ में इस बार कौन जीत रहा है ?
आज विश्लेषण करते है कुटलैहड़ विधानसभा क्षेत्र का और वर्तमान चुनाव से पहले बात करते है कुटलैहड़ के इतिहास से जुड़े एक महत्वपूर्ण सियासी अध्याय की। दरअसल इसी निर्वाचन क्षेत्र से ठाकुर रणजीत सिंह तीन बार विधायक रहे है। पहली बार 1967 में वे निर्दलीय चुनाव जीते। दूसरी बार 1982 में जनता पार्टी के टिकट पर और तीसरी बार 1990 में जनता दल प्रत्याशी के तौर पर। वे 1977 की जनता लहर में हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद भी चुने गए। दिलचस्प बात ये है कि 1977 में जा हिमाचल प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार आई तो रंजीत सिंह भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। तब निर्दलीयों सहित कुल 59 विधायक सरकार के समर्थन में थे और इनमें से 29 की पसंद शांता कुमार थे और 29 की पसंद ठाकुर रंजीत सिंह। तब अपने ही वोट से शांता कुमार मुख्यमंत्री बने। अगर तब रंजीत सिंह भी विधानसभा का चुनाव लड़ा होते तो शायद कुटलैहड़ को मुख्यमंत्री मिल गए होता।
बताया जाता है कि तब जिला ऊना के दो विधायकों ने रणजीत सिंह को इसलिए वोट नहीं दिया था क्योंकि अगर वह मुख्यमंत्री चुने जाते तो उन्हें छह माह में सांसद का पद छोड़कर विधानसभा चुनाव लड़ना जरूरी था। अपने राजनीतिक भविष्य से चिंतित जिले के दो विधायकों ने ठाकुर रणजीत सिंह के पक्ष वोट न करते हुए शांता कुमार को वोट दिया था। अब आते है मौजूदा चुनाव पर। लगातार सात चुनाव हारने के बाद क्या इस बार कुटलैहड़ में कांग्रेस वापसी कर पायेगी ? क्या चार बार के विधायक और जयराम कैबिनेट में मंत्री वीरेंद्र कंवर को लगातार पांचवीं जीत दर्ज करने से कांग्रेस रोक पायेगी ? इस सवाल का जवाब तो आठ दिसम्बर को ही मिलेगा लेकिन इतना तय है कि नतीजा जो भी हो इस बार कुटलैहड़ में मुकाबला बेहद कड़ा है।
कुटलैहड़ एक ऐसी विधानसभा सीट है जहाँ दशकों से भाजपा का एकछत्र राज रहा है और कांग्रेस हमेशा कमजोर रही है। 1967 से लेकर अब तक यहां कांग्रेस सिर्फ 2 बार जीत दर्ज कर पायी है। पार्टी को आखिरी बार 1985 में यहाँ जीत नसीब हुई थी। अब इस बार कांग्रेस यहाँ जीत की आस में है। दरअसल, कुटलैहड़ के लिए कहा जाता है कि यदि यहाँ कांग्रेस एकजुट हो कर चुनाव लड़ती तो शायद यहाँ का सियासी इतिहास कुछ और होता और इस बार कुछ ऐसे ही समीकरण बनते भी दिख रहे है। इस बार कांग्रेस के देवेंद्र कुमार भुट्टो यहाँ से मैदान में है जिन्हें वीरेंद्र कँवर का राइट हैंड माना जाता था, लेकिन बदली राजनीतिक परिस्थितियों में चुनावी रण में दोनों एक-दूसरे के सामने हैं। इस बार मोटे तौर पर कांग्रेस एकजुट भी दिखी है और ऐसे में पार्टी को देवेंद्र कुमार भुट्टो से करिश्मे की आस है। अब भुट्टो 32 वर्षों से चले आ रहे जीत के सूखे को खत्म करते हैं या फिर वीरेंद्र कंवर कांग्रेस के चक्रव्यूह को तोड़कर 5वीं दफा विधायक बनते हैं, ये तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। बहरहाल यहाँ मुकाबला कांटे का दिख रहा है।