पढ़े महाकवि गोपालदास नीरज की कुछ अमर रचनाएँ
पद्मभूषण से सम्मानित गीतकार और महाकवि गोपालदास नीरज कभी कचहरी में टाइपिस्ट थे। 4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरावली गांव में जन्में और छह साल की उम्र में उनके पिता बाबू बृजकिशोर सक्सेना का निधन हो गया। स्कूली पढ़ाई के बाद नीरज ने इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया। फिर रोजी रोटी दिल्ली ले गई जहाँ अलग-अलग जगह टाइपिस्ट या क्लर्क की नौकरी की। पर नौकरी के साथ ही नीरज ने पढ़ाई जारी रखी और हिन्दी साहित्य पढ़ते रहे। वे मेरठ कॉलेज में हिन्दी के व्याख्याता रहे। बाद में अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग में पढ़ाने लगे। इस बीच साहित्य से सम्बन्ध गहरा होता गया और उनकी काव्य प्रतिभा की लोकप्रियता फैलती गई। गोपालदास नीरज ने फिल्मों में भी गीत लिखे।
फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिए उन्हें लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। 1970 में फिल्म चन्दा और बिजली के गीत ‘काल का पहिया घूमे रे भइया!’, 1971 में फिल्म पहचान के गीत ‘बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं’ और 1972 में फिल्म मेरा नाम जोकर के गीत ‘ए भाई! जरा देख के चलो’ के लिए उन्हें पुरस्कार मिला।
गोपालदास नीरज के ढेरों काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें 'दर्द दिया', 'प्राण गीत', 'आसावरी', 'बादर बरस गयो', 'दो गीत', 'नदी किनारे', 'नीरज की गीतिकाएं', 'संघर्ष', 'विभावरी', 'नीरज की पाती' प्रमुख हैं।
गोपालदास नीरज की कुछ रचनाएं:
मुझको याद किया जाएगा
आंसू जब सम्मानित होंगे
मुझको याद किया जाएगा
जहां प्रेम का चर्चा होगा मेरा नाम लिया जाएगा।
मान-पत्र मैं नहीं लिख सका राजभवन के सम्मानों का
मैं तो आशिक रहा जनम से सुंदरता के दीवानों का
लेकिन था मालूम नहीं ये केवल इस गलती के कारण
सारी उम्र भटकने वाला, मुझको शाप दिया जाएगा
मुझको याद किया जाएगा।
आज की रात तुझे आखिरी खत और लिख दूं
आज की रात तुझे आखिरी खत और लिख दूं
कौन जाने यह दिया सुबह तक जले न जले?
बम-बारुद के इस दौर में मालूम नहीं
ऐसी रंगीन हवा फिर कभी चले न चले।
जीवन कटना था, कट गया
जीवन कटना था, कट गया
अच्छा कटा, बुरा कटा
यह तुम जानो
मैं तो यह समझता हूं
कपड़ा पुराना एक फटना था, फट गया
जीवन कटना था कट गया
है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए
रोज़ जो चेहरे बदलते है लिबासों की तरह
अब जनाज़ा ज़ोर से उनका निकलना चाहिए
अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा
ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए
फूल बन कर जो जिया वो यहाँ मसला गया
जीस्त को फ़ौलाद के साँचे में ढलना चाहिए
छिनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो
आँख से आँसू नहीं शोला निकलना चाहिए
दिल जवां, सपने जवाँ, मौसम जवाँ, शब् भी जवाँ
तुझको मुझसे इस समय सूने में मिलना चाहिए
हम तेरी चाह में, ऐ यार ! वहाँ तक पहुँचे
हम तेरी चाह में, ऐ यार ! वहाँ तक पहुँचे ।
होश ये भी न जहाँ है कि कहाँ तक पहुँचे ।
इतना मालूम है, ख़ामोश है सारी महफ़िल,
पर न मालूम, ये ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे ।
वो न ज्ञानी ,न वो ध्यानी, न बिरहमन, न वो शेख,
वो कोई और थे जो तेरे मकाँ तक पहुँचे ।
एक इस आस पे अब तक है मेरी बन्द जुबाँ,
कल को शायद मेरी आवाज़ वहाँ तक पहुँचे ।
चाँद को छूके चले आए हैं विज्ञान के पंख,
देखना ये है कि इन्सान कहाँ तक पहुँचे ।