वो प्रेम कहानी जो अधजली सिग्रेट और चाय के झूठे प्याले तक सिमटी रह गई
वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा
साहिर लुधियानवी का ये शेर न जाने कितनी ही अधूरी प्रेम कहानियों का दर्द बयां करता है, ख़ामोशी के नीचे दबे उस मशहर की दास्ताँ बयां करता है जो हर आशिक़ ने हिज्र के बाद महसूस की। अधूरे इश्क़ का हश्र दर्शाता ये शेर कहीं न कहीं खुद इसके लिखने वाले की कहानी को भी बयां करता है। एक ऐसी कहानी जो शुरू तो हुई मगर मंजिल तक न पहुंची, एक ऐसी कहानी जो ज़माने की खींची गई लकीरों से अलहदा थी, एक ऐसी कहानी जो आधी जली सिगरेट और चाय के झूठे प्याले तक सिमट कर रह गई ।
ये कहानी है उर्दू के मशहूर शायर साहिर लुधियानवी और पंजाब की पहली बाघी कवियत्री अमृता प्रीतम की।
अधूरी मोहब्बत का ये वो मुक्कमल फ़साना है जिसके जैसा दूसरा ढूंढ पाना मुश्किल है, वो फ़साना जो मुकाम तक पहुँचने से पहले लड़खड़ाया ज़रूर मगर इसका तास्सुर फीका नहीं पड़ा ।
16 साल की उम्र में अमृता की करवा दी गयी शादी
अमृता एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखती थी जहां धर्म के धागे इंसान की किस्मत तय किया करते थे। जहां उनकी नानी मां अन्य समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों के बर्तन भी अलग रखती थी, जहां शादी का मतलब जिंदगी भर का साथ होता था। ऐसे परिवार में जन्मी थी वो बेख़ौफ़ कवियत्री जिसने अपनी जिंदगी में दो लोगों से प्यार किया जिनमे से एक मुस्लमान था। ज़ाहिर है की अमृता प्रीतम वो महिला थी जो अपने दौर से बहुत आगे थी। अमृता जब 16 साल की थीं, तो उनकी शादी प्रीतम सिंह से करवा दी गई। शादी के बाद वे अमृता कौर से अमृता प्रीतम बन गई। अमृता ने अपने पति का नाम तो अपनाया लेकिन वो उनकी अभिन्न अंग नहीं बन पाई।
शायरी बनीं साहिर से मिलने की वजह
वो बात 1944 की है जब इस कहानी के किरदार एक दूसरे से पहली बार मिले, जगह थी लाहौर और दिल्ली के बीच स्थित प्रीत नगर।
साहिर जुनुनी और आदर्शवादी थे, अमृता बेहद दिलकश अपनी खूबसूरती में भी और अपनी लेखनी में भी। दोनों एक मुशायरे में शिरकत के लिए प्रीत नगर पहुंचे थे। मद्धम रोशनी वाले एक कमरे में दोनों मिले और बस प्यार हो गया।
साहिर से मिलने के बाद अमृता ने उनके लिए एक कविता भी लिखी। 'अब रात गिरने लगी तो तू मिला है, तू भी उदास, चुप, शांत और अडोल। मैं भी उदास, चुप, शांत और अडोल। सिर्फ- दूर बहते समुद्र में तूफान है…'
शायद उस समय की मोहब्बत ख़ामोशी से शुरू हुआ करती होगी, वैसे भी जहां इश्क़ ब्यां करने के लिए लफ़्ज़ों की ज़रूरत पड़े वो मोहब्बत कैसी। अमृता ने लिखा, "मुझे नहीं मालूम की वो साहिर के लफ्जो की जादूगरी थी, या उनकी खामोश नज़र का कमाल था, लेकिन कुछ तो था जिसने मुझे अपनी तरफ खींच लिया, आज जब उस रात को आँखें मूंद कर देखती हूँ तो ऐसा समझ आता है कि तकदीर ने मेरे दिल में इश्क़ का बीज डाला जिसे बारिश की फुहारों ने बढ़ा दिया, उस दिन बारिश हुई थी।
आत्मकथाओं में लिखे मोहब्बत के किस्से
साहिर और अमृता की प्रेम कहानी के अंश इन दोनों की आत्मकथाओं में मिलते है, अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में अमृता प्रीतम ने साहिर के साथ हुई मुलाकातों का जिक्र किया है। वो लिखती है कि, "वो खामोशी से सिगरेट जलाता और फिर आधी सिगरेट ही बुझा देता, फिर एक नई सिगरेट जला लेता। जब तक वो विदा लेता, कमरा सिगरेट की महक से भर जाता। मैं इन सिगरेटों को हिफाजत से उठाकर अलमारी में रख देती और जब कमरे में अकेली होती तो उन सिगरेटों को एक-एक करके पीती। मेरी उंगलियों में फंसी सिगरेट, ऐसा लगता कि मैं उसकी उंगलियों को छू रही हूं। मुझे धुएं में उसकी शक्ल दिखाई पड़ती। ऐसे मुझे सिगरेट पीने की लत पड़ी।"
अमृता लिखती है
यह आग की बात है
तूने यह बात सुनाई है
यही ज़िन्दगी की वहीं सिगरेट है
जो तूने कभी सुलगायी थी
चिंगारी तूने दी थी
ये दिल सदा जलता रहा
वक्त कलम पकड़ कर
कोई हिसाब लिखता रहा
ज़िन्दगी का अब गम नहीं
इस आग को संभाल ले
तेरे हाथ की खेर मांगती हूँ
अब और सिगरेट जला ले।
वैसे साहिर भी कुछ कम नहीं थे, साहिर की जिंदगी से जुड़ा एक किस्सा है। जब साहिर और संगीतकार जयदेव एक गाने पर काम कर रहे थे तो साहिर के घर पर एक जूठा कप उन्हें दिखा। उस कप को साफ करने की बात जब जयदेव ने कही तो साहिर ने कहा कि इसे छूना भी मत, अमृता जब आखिरी बार यहां आई थी तो इसी कप में चाय पी थी।
अमृता प्रीतम और साहिर की मोहब्बत की राह में कई रोड़े थे, जिस समय अमृता साहिर से मिली वे विवाहित थी हालाँकि वे उस रिश्ते में कभी भी खुश नहीं रही और दूसरी तरफ साहिर लुधियानवी में किसी नए रिश्ते की चाह नहीं थी, लेकिन वो अमृता ही थीं जिसने साहिर के दिल में जगह बनाई। साहिर की जीवनी, साहिर: ए पीपुल्स पोइट, लिखने वाले अक्षय मानवानी कहते हैं कि अमृता वो इकलौती महिला थीं, जो साहिर को शादी के लिए मना सकती थीं। एक बार अमृता साहिर की माँ से मिलने दिल्ली आई थी, जब वे गई तो साहिर ने अपनी माँ से कहा था, 'वो अमृता प्रीतम थी वो आप की बहू बन सकती थी।' मगर साहिर ने ये बात कभी अमृता से नहीं की और शायद साहिर की ये चुप्पी ही थी जिसने अमृता के दिल में इमरोज़ के लिए जगह बनाई।
कैसे मिले इमरोज़
अमृता इमरोज़ से 1958 में मिले, मिलते ही इमरोज़ को अमृता से इश्क़ हो गया। इमरोज़ एक चित्रकार थे साहिर और अमृता की मुलाकात तो यूं हीं संयोग से हो गई थी, लेकिन इमरोज़ से तो अमृता की मुलाकात करवाई गई थी। एक दोस्त ने दोनों को मिलवाया था। इमरोज़ ने तब अमृता का साथ दिया जब साहिर को कोई और मिल गया था।
इमरोज़ के साथ अमृता ने अपनी जिंदगी के आखिरी 40 साल गुजारे, इमरोज़ अमृता की पेंटिंग भी बनाते और उनकी किताबों के कवर भी डिजाइन करते। इमरोज़ और अमृता एक छत के नीचे ज़रूर रहे मगर एक दूसरे के साथ नहीं। उनकी जिंदगी के ऊपर एक किताब भी है 'अमृता इमरोज़: एक प्रेम कहानी। एक ही छत के नीचे दो अलग कमरे इन दोनों का बसेरा बना। अपने एक लेख "मुझे फिर मिलेगी अमृता" में इमरोज़ लिखते है की कोई रिश्ता बांधने से नहीं बंधता न तो मैंने कभी अमृता से कहा कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ न कभी अमृता ने मुझसे।
मैं तुम्हे फिर मिलूंगी कविता में शायद अमृता ने इमरोज़ के लिए यही लिखा था
मैं तुझे फिर मिलूंगी
कहां, कैसे पता नहीं
शायद तेरी कल्पनाओं की प्रेरणा बन
तेरे कैनवास पर उतरूंगी
या तेरे कैनवस पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
खामोश तुझे देखती रहूंगी
मैं तुझे फिर मिलूंगी
कहाँ, कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूंगी।
इमरोज़ अमृता से बेइन्तिहाँ मोहब्बत करते थे मगर अमृता के दिलो दिमाग पर साहिर का राज था। किस्सा तो यह भी है कि इमरोज के पीछे स्कूटर पर बैठी अमृता सफर के दौरान ख्यालों में गुम होतीं तो इमरोज की पीठ पर अंगुलियां फेरकर 'साहिर' लिख दिया करती थीं। ये मोहब्बत अधूरी रही और इस मोहब्बत के गवाह बने आधी जली सिगरेट के टुकड़े, चाय का झूठा प्याला और ढेर सारे खुतूत।