जॉन की फारेहा
मैं जो हूँ जॉन एलिया हूँ साहब
इस बात का बे-हद लिहाज़ कीजिएगा
पूरा नाम सय्यद हुसैन जॉन असग़र। जॉन का जन्म 14 दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुआ। शुरूआती तालीम अमरोहा में ही ली और उर्दू, फ़ारसी और अर्बी सीखते-सीखते अल्हड़ उम्र में ही शायर हो गए। 1947 में मुल्क आज़ाद हुआ और आज़ादी अपने साथ बंटवारे का ज़लज़ला भी लाई। तब सय्यद हुसैन जॉन असग़र ने हिंदुस्तान में रहना तय किया पर 1957 आते-आते समझौते के तौर पर पाकिस्तान चले गए और पूरी उम्र वहीं गुज़ारी।
जॉन पाकिस्तान चले तो गए मगर यूँ समझिए के जॉन का दिल अमरोहा में ही रह गया। अमरोहा से चले जाने का अफ़सोस उन्हें ता-उम्र ही रहा, जॉन ने लिखा। जॉन को बे-हद दुःख था अमरोहा छोड़ के कराची जाने का और दोनों मुल्क़ों के दो हिस्से होने का।
मत पूछो कितना ग़मगीन हूँ, गंगा जी और जमना जी
में जो था अब मैं वो नहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी
मैं जो बगुला बनके बिखरा,वक़्त की पागल आंधी में
क्या मैं तुम्हारी लहर नहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी
बाण नदी के पास अमरोही में जो लड़का रहता था
अब वो कहाँ है, मैं तो वहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी
दंगों के दौरान, जॉन पकिस्तान तो आ गए मगर जॉन इसे एक समझौता ही समझा करते थे। जॉन की नज़्मों और ग़ज़लों से अमरोहा और हिन्दुस्तान की मिटटी की खुशबू अक्सर आती रही। 1947 के सियासी माहौल को बयां करते हुए उन्होंने लिखा-
हरमो-दैर की सियासत है
और सब फैसले हैं नफरत के
यार कल सुबह आए हमको नज़र
आदमी कुछ अजीब सूरत के
इन दिनों हाल शहर का है अजीब
लोग मारे हुए हैं दहशत के
08 नवंबर 2002 को पाकिस्तान के कराची में ही इंतकाल हुआ पर तब तलक सय्यद हुसैन जॉन असग़र दुनिया के लिए जॉन एलिया बन चुके थे। लाखों दिलों के महबूब शायर बन चुके थे। जॉन वो शायर हो चुके थे जो हर मर्तबा जदीद लगे। जॉन वो शायर हो चुके थे जिसकी बेफिक्र शायरी में हर शख्श को अपना अक्स दिखे।
पर जॉन के असल दौर का आगाज़ तो अभी बाकी था। इस दुनिया में रहते हुए जो जॉन एक रस्मी शायर थे, दुनिया को अलविदा कहने के बाद सरताज़ हो गए। उनके इंतेक़ाल के बाद उन्हें बेशुमार नाम-ओ-शोहरत नसीब हुआ। कहते है एक बार जॉन ने कहा था आज किसी शायर का है, कल किसी और शायर का होगा और परसों मेरा होगा। उनकी जुबां मुबारक हुई और आज सोशल मीडिया के इस दौर में उनकी शायरी युवाओं को खुदरंग सी लगती है।
8 साल की उम्र से शायरी से दिल लगाने वाले जॉन ने बहुत कम उम्र से ही अपनी एक अलग ज़ेहनी दुनिया बसा ली थी शायद इसलिए भी फिर वक़्त के साथ ज़िन्दगी की हकीकत उन्हें न-पसंद रही।
जो देखता हूँ वो कहने का आदि हूँ
मैं अपने शहर का सबसे बड़ा फसादी हूँ
बातों को पहेलियों की शक्ल में पेश करने वालों में जॉन नहीं थे, वे जो कहते साफ़ कहते।
एक शायर के लिए अपने जिए और लिखे के बीच का फ़र्क़ कम करना ही उसकी मुसलसल कोशिश रहती हैं। मगर जॉन इस काम में माहिर थे, जॉन सच कहते थे, वे झूठ भी कहते तो खुद को "झूठा कह कर सच्चे बन जाते। खुद के सिवा जॉन को किसी से भी, कोई शिकायत न थी, ज़िन्दगी जीनी तो थी मगर, ज़िन्दगी से भी मोहब्बत न थी।
हैं बतौर ये लोग तमाम
इनके सांचे में क्यों ढलें
मैं भी यहाँ से भाग चलूँ
तुम भी यहाँ से भाग चलो
दुनियादारी के रस्मों रिवाज़ों से ऊब चुके जॉन ने कुछ इस अंदाज़ से, दुनियादारी की परवाह छोड़ कर, अपनी शरीक-ए-मोहब्बत से दूसरी किसी दुनिया में चलने की बात कही। जॉन पकिस्तान के बड़े शायर थे और कहा जाता है कि जॉन की मोहब्बत "फ़ारेहा" हिन्दुस्तान में रहा करती थी। दो मुल्क़ों के बीच जॉन का उनसे मिलना तो मुमकिन नहीं हुआ मगर अपनी ग़ज़लों में फ़ारेहा का ज़िक्र, जॉन अक्सर किया करते थे। पाकिस्तान के मशहूर शायर "जॉन" की मोहब्बत की दास्ताँ एक अधूरा क़िस्सा ही रही, मगर वे ता-उम्र जॉन फ़ारेहा का नाम दोहराते रहे। अब जॉन की ये मोहब्बत एक-तरफ़ा थी या दो-तरफ़ा ये बात तो बस जॉन ही जानते थे।
फ़ारेहा के अलावा जॉन की ज़िन्दगी में तीन और भी नाम शामिल रहे जिसमें से एक थी सुरैय्या, जो अपने आप में एक पहेली है। उनकी ज़िन्दगी में बनावटी गम की इन्तेहाई उन्होंने खुद मानी और बयां की -
जाने-निगाहो-रूहे-तमन्ना चली गई
ऐ नज़दे आरज़ू, मेरी लैला चली गई
बर्बाद हो गई मेरी दुनिया-ए-जुस्तजू
दुनिया-ए-जुस्तजू मेरी दुनिया चली गई
ज़ोहरा मीरा सितारा-ए-क़िस्मत खराब है
नाहीद!आज मेरी "सुरैय्या" चली गई
किस्से कहूं कि एक सरापा वफ़ा मुझे
तन्हाइयों में छोड़ के चली गई
हालाँकि, कहा जाता है जॉन कि ये सुरैय्या और ये दुनिया ये गम ये तन्हाई की बातें सब मन घडन्त कहानियां थी, बिलकुल वैसे ही जैसे कोई परियों के देश कि कहानी होती है।
1970 में जॉन का निकाह 'ज़ाहिदा' हिना से हुआ जो जॉन कि तरह 1947 में हिंदुस्तान से पाकिस्तान , कराची आयी थी। जॉन और ज़ाहिदा का निकाह उनका अपना फैसला था, बहर-हाल दोनों का ये फैसला गलत साबित हुआ। जॉन कि एहल-ए-ज़िंदगी ज़ाहिदा ता-उम्र तक साथ न रह सकी और दोनों कुछ सालों बाद अलग हो गए। कहा जाता है कि जॉन चाहते थे ज़ाहिदा घर संभालें और ज़ाहिदा एक पत्रकार थी, सारी घर की ज़िम्मेदारी उठाना उन्हें मुमकिन न लगा और ये बात दोनों के अलग होने का सबब बनी ।
जाहिदा से अलग होने के बाद जॉन ने लिखा
हम तो जी भी नहीं सके एक साथ
हमको तो एक साथ मरना था
अलग होने के बाद वे ज़ाहिदा को अक्सर खत लिखा करते थे जिन्हे उर्दू भाषा के एहम दस्तावेज़ों की शक्ल में भी देखा गया। जॉन ने ज़ाहिदा के लिए अपनी फ़िक्र और उनसे सभी गिले माफ़ करने का ज़िक्र भी अक्सर किया -
नया एक रिश्ता पैदा क्यों करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यों करें हम
ख़ामोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यों करें हम
ये क़ाफ़ी है के दुश्मन नहीं हैं हम
वफादारी का दावा क्यों करें हम
नहीं दुनिया को जब परवाह हमारी
तो दुनिया कि परवाह क्यों करें हम
ज़ाहिदा से अलैदगी के बाद जॉन ने 10 साल तक कुछ नहीं लिखा।
हुई नहीं मुझे कभी मोहब्बत किसी से
मगर यक़ीं सबको दिलाता रहा हूँ मैं
जॉन की ज़िन्दगी का एक फसलफा एक गुमनाम शख्सियत के नाम भी रहा। इस शख्सियत का नाम तो कोई नहीं जानता मगर कहा जाता है जॉन की ज़िन्दगी के आखिर पलों में जॉन ने इनके लिए लिखा, ज़ाहिदा से अलग होने के बाद वे जॉन के साथ थी मगर कभी उनकी शरीक-ए-मोहब्बत न बन सकी। जॉन उनसे झूठा प्यार जताने के बोझ में दब रहे थे।
जॉन ने बनावटी दुःख और झूठी तकलीफ प्यार की बात करते हुए लिखा-
तुम मेरा दुःख बाँट रही हो , मैं खुद से शर्मिंदा हूँ
अपने झूठे दुःख से तुमको कब तक दुःख पहुंचाऊंगा
एहद-ए-रफ़ाक़त ठीक है लेकिन मुझको ऐसा लगता है
तुम तो मेरे साथ रहोगी मैं तन्हा रह जाऊंगा।
ये गुमनाम हसीना जॉन से बे-इंतेहा मोहब्बत करने का दावा करती थी और जॉन उन्हें झूठे दिलासे दे दिया करते थे। दोनों एक दूसरे को खत भी लिखा करते थे। कहा जाता है उस लड़की का इंतेक़ाल टी-बी की बीमारी से हुआ, जिसको जॉन ने शायरी में लिखा और जॉन का इंतेक़ाल भी लम्बे अरसे तक टी-बी की बीमारी से लड़ने के बाद हुआ। -
आ गई दरमियाँ रूह की बात
ज़िक्र था जिस्म की ज़रुरत का
थूक कर खून रंग में रहना
में हुनरमंद हूँ अज़ीयत का
जॉन दोबारा कभी हिंदुस्तान नहीं आए और न ही फ़ारेहा से कभी मिले मगर फ़ारेहा का नाम जॉन से आज भी हमेशा जोड़ा जाता रहा है । जॉन ने फ़ारेहा के नाम कई बेहतरीन ग़ज़लें लिखी। फ़ारेहा जॉन की ज़िन्दगी का एक ज़रूरी हिस्सा थी और जॉन उन्हें शायद किसी मर्ज़ की दवा की तरह वक़्त वक़्त पर याद करते रहे।
फ़ारेहा के नाम जॉन की एक ग़ज़ल -
सारी बातें भूल जाना फ़ारेहा
था वो सब कुछ एक फ़साना फ़ारेहा
हाँ मोहब्बत एक धोखा ही तो थी
अब कभी धोखा न खाना फ़ारेहा
छेड़ दे अगर कोई मेरा तज़्कीरा
सुन के तंज़न मुस्कुराना फ़ारेहा
था फ़क़त रूहों के नालों की शिकस्त
वो तरन्नुम वो तराना फ़ारेहा
बेहेस क्या करना भला हालात से
हारना है हार जाना फ़ारेहा