कई सीटों पर जीत-हार तय करते है बागवान

जुब्बल - कोटखाई, चौपाल, कुल्लू, आनी, करसोग, सिराज, ठियोग, किन्नौर, लाहौल -स्पीति, मनाली, रामपुर, बंजार, चुराह, भरमौर सहित प्रदेश के करीब 15 निर्वाचन क्षेत्र ऐसे है जहाँ सेब की पैदावार होती है, कहीं थोड़ी कम तो कहीं ज्यादा। जाहिर है ऐसे में प्रदेश की सियासत में भी सेब बागवानों का समर्थन बेहद महत्वपूर्ण है। कई निर्वाचन क्षेत्र तो ऐसे है जहां बागवान ही जीत -हार तय करते है। ऐसे में लाज़मी है कि सभी राजनैतिक दल और नेता बागवानों के वोट के लिए हरसंभव प्रयास करते है। बाकायदा घोषणा पत्र में बागवानों के मुद्दों को जगह दी जाती है, बड़े -बड़े आश्वासन दिए जाते है। 2022 के विधानसभा चुनाव में भी वादों और घोषणाओं की ये सियासी फिल्म फिर चलाई जाएगी। निसंदेह बागवानों का वोट कई सीटों पर जीत -हार तय करेगा।
सेब हिमाचल की आर्थिकी का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। प्रदेश में हजारों बागवान परिवार हैं जिनमें से अधिकतर की आय का साधन सिर्फ और सिर्फ सेब ही है। कभी मौसम की मार सेब की गुणवत्ता पर असर डालती है, तो कभी निजी कंपनियों के सेब खरीद के कम दाम बागवानों को परेशान करते है। इस पर कम दामों पर आयात हो रहे सेब भी बागवानों के लिए एक बड़ी समस्या है। निसंदेह प्रदेश के बागवानों को सरकार से हौंसला चाहिए, बागवानी के लिए उचित व्यवस्था चाहिए। विडम्बना ये है कि आर्थिकी का इतना बड़ा हिस्सा होने के बावजूद सेब को लेकर प्रदेश में अब भी सुचारू व्यवस्थाएं नहीं है, इन व्यवस्थाओं की कमी के कारण ही बीते सेब सीजन में बागवानों को सेब के उचित दाम नहीं मिल पाए। गिरते दामों के अलावा भी सेब बागवानों की कई मांगें लंबित है जो प्रदेश के सियासी समीकरण बना बिगाड़ सकती है। हिमाचल के किसान -बागवान उम्मीदें लगाए बैठे है और हर बागवान के जहन में यह सवाल है कि आखिर क्यों समस्या का हल नहीं होता और कहाँ व्यवस्था में खामी है ? बागवानों का कहना है कि अडानी और लदानी प्रदेश के बागवानों को लूट रहे हैं और ऐसी नाजुक स्थिति में सरकार और विपक्ष पूरे परिदृश्य से गायब हैं।
ईरान और तुर्की का सेब बना आफत
हिमाचल की करीब साढ़े चार हजार करोड़ रुपये की सेब की आर्थिकी के लिए ईरान और तुर्की का सेब चुनौती बन गया है। बीते सीजन में सेब के दाम करीब तीस फीसदी तक कम मिलने का एक कारण ये भी है। बाजार में ईरान का सेब हिमाचली सेब को पछाड़ रहा है। ईरान का सेब रंग और स्वाद में श्रीनगर और किन्नौर की सेब की बराबरी करता है, जबकि वह एक हजार से 1500 रुपये प्रति पेटी तक उपलब्ध है। यह सेब मई से आना शुरू हो जाता है। बागवानों के अनुसार भारत में अफगानिस्तान के रास्ते ईरान और तुर्की से सेब का अनियंत्रित और अनियमित आयात हो रहा है जो बागवानों के लिए परेशानी का कारण बना हुआ है। बागवान वाणिज्य मंत्रालय को पत्र लिखकर ईरान और तुर्की से सेब आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग भी कर चुके है। इनका मानना है कि भारी मात्रा में इन देशों से सेब का आयात होने के बाद मार्केट में हिमाचली सेब की मांग कम हुई है। चिंता की बात यह है कि ईरान और तुर्की से आयात होने वाले सेब पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है, जिसके चलते हिमाचल के सेब कारोबार पर इसका नकारात्मक असर पड़ा है। दरअसल अफगानिस्तान साफ्टा (SAFTA) दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र का हिस्सा है और यहां से सेब के आयात पर कोई शुल्क नहीं लगता है। ईरान इस समझौते का हिस्सा नहीं है और माना जा रहा है कि इसलिए ईरान अपना सेब अफगानिस्तान से पाकिस्तान के रास्ते अटारी बॉर्डर से भारत भेजता हैं। ऐसा हो रहा है तो एक कंटेनर पर आठ लाख के करीब आयात शुल्क की चोरी हो रही है। इसके कारण ईरान का सेब सस्ता बिकता है। यदि ये सेब ईरान के रास्ते आए तो इसमें पंद्रह प्रतिशत एक्साइज ड्यूटी और 35 प्रतिशत सेस लगेगा। हालही में हुई केंद्रीय बजट 2022-23 पर बजट पूर्व परामर्श बैठक में भाग लेते हुए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने मांग की थी कि राज्य में 2.5 लाख परिवारों की आजीविका की रक्षा के लिए सेब पर आयात शुल्क 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 100 प्रतिशत किया जाना चाहिए। हालाँकि अब तक इसपर कोई फैसला नहीं लिया गया है।
नैफेड से खरीद क्यों नहीं ?
हिमाचल के बागवानों का मानना है की उनकी स्थिति इतनी बुरी नहीं होती अगर हिमाचल में भी कश्मीर की तरह नैफेड जैसी कोई केंद्रीय संस्था बागवानों का सेब खरीदती। दरअसल कश्मीर में केंद्रीय कैबिनेट द्वारा जम्मू कश्मीर के सेब उत्पादकों और व्यापारियों की मदद के लिए बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआईएस) को मंजूरी दी गई है। एमआईएस के तहत नेशनल एग्रीकल्चर कोआपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया (नैफेड) किसानों और व्यापारियों से सीधे सेब खरीदती है। सेब की कीमत उसकी ग्रेडिंग के आधार पर होती है। इसका भुगतान सीधे बागवानों के बैंक खाते में होता है। इस योजना के तहत तीनों ग्रेड का सेब बागवानों से खरीदा जाता है। एमआईएस के तहत सेब खरीद की प्रक्रिया में ग्रामीण आबादी के लिए रोजगार के अवसर भी पैदा होते है। सेब की पैकिंग, गाड़ियों में लोडिंग-अनलोडिंग और मंडियों तक पहुंचाने के काम में कई लोगों को रोजगार मिलता है और बागवानों को सेब के अच्छे दाम मिलते है। परन्तु हिमाचल में अब तक ऐसा कुछ भी नहीं है। इसीलिए हिमाचल के बागवान मांग कर रहे है कि जम्मू कश्मीर की तर्ज पर हिमाचल में भी सेब की खरीद की जाए। बागवानों ने सरकार काे तीन श्रेणियों में बांट कर अलग-अलग रेट भी सुझाएं है। बागवानों की मांग के बाद सरकार भी एक्शन में है। बागवानी विभाग ने नैफेड और जम्मू-कश्मीर के बागवानी विभाग से ग्रेड सिस्टम काे लेकर जानकारी जुटानी शुरू कर दी है। विभाग यह जानने में जुट गया है कि बाजार में सेब के दामों गिरावट आने के बाद कैसे उसे स्थिर किया जाए ताकि बागवानाें काे नुकसान न हाे। साथ ही ग्रेड के आधार किस तरह से सेब की खरीद की जाए।
मंडी मध्यस्थता योजना में सुधार की दरकार
हिमाचल में एचपीएमसी द्वारा भी 'सी' कैटेगरी के सेब को पूरी तरह से बाजार से बाहर नहीं किया जा रहा। मार्किट इंटरवेंशन स्कीम के तहत जो 'सी' कैटेगरी का सेब उठाया जाता है, उसे भी एचपीएमसी पूरी तरह इस्तेमाल करने के बजाए उसका ऑक्शन कर देता है। ऑक्शन के बाद जो लोग इस सेब को खरीद रहे है वो इसे फिर मार्किट में ले आते है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। मौजूदा समय में 'सी' ग्रेड सेब भी मार्केट में पहुंच रहा है। इस कारण अच्छे सेब को भी बढ़िया रेट नहीं मिल पा रहे। बागवानों के अनुसार 'सी' ग्रेड सेब को मार्केट में जाने से रोकने के लिए कदम उठाने की जरूरत है। जब मार्केट में ‘ए' और 'बी’ ग्रेड सेब ही पहुंचेगा तो रेट में सुधार आएगा। मंडी मध्यस्थता योजना में सरकार 9.50 पैसे प्रति किलो की दर से सेब खरीद रही है। पर बागवानों की माने तो निम्न गुणवत्ता वाले इस सेब को परवाणू में बोली के बाद डेढ़ से ढाई रुपये प्रति किलो के दाम पर बेचा जाता है, जिसके बाद यह सेब दोबारा मार्केट में पहुंच जाता है। ऐसे में अच्छे सेब की मार्केट भी गिर रही है। बागवानों का सुझाव है कि इस सेब को बागवानों से खरीदने के बाद नष्ट कर दिया जाए और सी ग्रेड के सेब को बोरी के स्थान पर पेटी में पैक कर जूस और जैम बनाने के लिए प्रोसेसिंग प्लांट तक पहुंचाया जाए तो फायदेमंद रहेगा। मौजूदा समय में बागवान सी ग्रेड सेब को पेटियों में पैक कर मंडियों में भेज रहे हैं। गुणवत्ता सही न होने के कारण मंडियों में ऐसे सेब को सही दाम नहीं मिल रहे साथ ही अच्छे सेब के रेट भी प्रभावित हो रहे हैं। अगर यह व्यवस्था लागू होती है तो सरकार का सी ग्रेड सेब स्टोर करने और ऑक्शन का खर्च भी बचेगा।
महंगी खेती कम आमदनी
बीते अक्टूबर कार्टन में इस्तेमाल होने वाले एग्रो वेस्ट पेपर पर लगने वाले जीएसटी को 12 से बढ़ाकर 18 प्रतिशत कर दिया गया है। एग्रो वेस्ट पेपर पर छह प्रतिशत जीएसटी बढ़ाया गया। जीएसटी के बढ़ने से सेब बागवानों को कार्टन महंगा मिल रहा है। सिर्फ ये ही नहीं खाद की कीमतों में भारी वृद्धि की गई है। रासायनिक खादों के दामों में 40 फीसदी तक वृद्धि हुई है। नए दाम के अनुसार 12:32:16 खाद 315 रुपये तक महंगी हो गई है। यानी जीएसटी के साथ अब किसानों को यही खाद 1450 रुपये प्रति बैग मिलेगी, जबकि इस खाद की कीमत पहले 1135 रुपये प्रति बैग थी। इसी तरह से 15:15:15 खाद भी 170 रुपये प्रति बैग महंगी हुई। यह खाद अब जीएसटी को जोड़कर 1350 रुपये में मिलेगी। इसका पुराना दाम 1180 रुपये प्रति बैग के करीब था। आईपीएल पोटाश के भी अब किसानों को 1150 रुपये चुकाने होंगे। कृषि-बागवानों को बीज, खाद, कीटनाशक, फफूंदनाशक और अन्य लागत वस्तुओं पर दी जाने वाली सब्सिडी भी नहीं है। एंटी हेलनेट पर भी जीएसटी 5 से बढ़ाकर 12 फीसदी कर दिया है। यह नीतियां किसान पर आर्थिक दबाव बना रही हैं।
समय पर न बिकने से हर साल 30 फीसदी सेब बर्बाद
हिमाचल प्रदेश हर साल बागवानों की तैयार फसल में से 30 फीसदी सेब बेचने से पहले बर्बाद होता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह बताया जा रहा है कि अधिकांश बागवान किसी न किसी कारण से सेब की फसल समय पर मंडियों में नहीं बेच पाते और पूरी फसल को दाम नहीं मिल पाता। सेब अधिक पका हो तो भी बाजार में फसल को बेचना कठिन होता है। अच्छे सेब की बिक्री बागवानों को खुद ही करनी पड़ती है। फसल पेड़ से तोड़ने के बाद मंडियों में बेचनी पड़ती है। सेब खराब न हो जाए इसके लिए बागवानों को फसल औने पौने दामों में बेचनी पड़ती है। यह सिलसिला पिछले कई साल से सेब सीजन में रहता है। हिमाचल में वर्षों बाद भी ऊपरी क्षेत्रों में सेब पर आधारित छोटे उद्योग नहीं लगे है। अगर फलों पर आधारित उद्योग समय पर स्थापित किए होते तो बागवानों के पास फल बेचने का विकल्प रहता। बागवानों की तीस फीसदी खराब होने वाली फसलों को बेचकर मुनाफा होता। आज सिर्फ मंडियों में सेब बेचना मजबूरी रहती है। सरकारी उपक्रम एचपीएमसी के संयंत्र सिर्फ प्रदेश के सी ग्रेड के सेब से जूस निकालने तक सीमित हैं। इसके अलावा बंपर सीजन में सी ग्रेड का सेब पेटियों में भरकर बाजार में आ जाए तो अच्छे सेब को दाम नहीं मिल पाते। वर्षों से राजनैतिक दल प्रदेश में कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने के दावे करते आ रहे है, लेकिन इस दिशा में कोई ठोस कार्य नहीं हुआ। बागवानों को निजी कोल्ड स्टोरेज का सहारा लेना पड़ता है जिससे लागत बढ़ जाती है। वहीं छोटे बागवानों के सामने कोई विकल्प नहीं बचता।
स्वचालित मौसम केंद्र स्थापित नहीं कर पाई सरकार
अप्रैल 2021 में सरकार द्वारा किसानों-बागवानों को फसलों से जुड़े जलवायु परिवर्तन की हर पल जानकारी देने के लिए हर पंचायत में स्वचालित मौसम केंद्र स्थापित करने की घोषणा की गई थी, मगर ये काम ज़मीनी स्तर पर नहीं हो पाया है। अधिकतर बागवानों तक ये सुविधा अभी नहीं पहुंची है और इसलिए बागवानों को स्वयं अपने स्तर पर ये वेदर स्टेशन स्थापित करने पड़ रहे है। बता दें कि सेंसर से लैस इन वेदर स्टेशनों की मदद से मौसम के पूर्वानुमान के अलावा बगीचे की मिट्टी में नमी की जानकारी मिलती है। बढ़िया फसल के लिए जरूरी चिलिंग आवर्स की स्थिति का भी पता चलता है। तापमान में उतार-चढ़ाव के अलावा हवा की रफ्तार का भी अंदाजा लगता है जिससे बगीचों में जरूरी छिड़काव के सही समय का निर्णय लिया जा सकता है। वेदर स्टेशन की मदद से सेब में लगने वाली बीमारियों का भी पता लगाया जा सकता है। नमी के कारण पेड़ का पत्ता कितनी देर गीला रहा, जिसके बाद फंगस पनप गई, इसकी सटीक जानकारी मिलती है। आवश्यकतानुसार बागवान बीमारी पनपने से पहले ही जरूरी छिड़काव कर सकते है। सही जानकारी होने पर बागवान अनावश्यक छिड़काव नहीं करेंगे जिससे पैसे की बचत होती है।
रस्टिंग से हुआ करोड़ों का नुक्सान
सेब की फसल को रस्टिंग नामक बीमारी से करोड़ों रुपए का नुकसान हुआ है। प्रदेश में बीते 3-4 सालों के दौरान रस्टिंग का हमला ज्यादातर इलाकों में देखा जा रहा है। चिंता इस बात की है कि यह बीमारी हर साल बढ़ती जा रही है। बागवानों का दावा है कि इस साल 50 प्रतिशत से भी अधिक सेब रस्टिंग के कारण खराब हुआ है। बागवान लगातार मुख्यमंत्री, नौणी यूनिवर्सिटी के कुलपति से रस्टिंग बीमारी के कारणों का पता लगाने के लिए अनुसंधान (रिसर्च) करने का आग्रह कर रहे है। दरअसल, रस्टिंग की वजह से सेब को मार्किट में उचित दाम नहीं मिल पाते। रस्टिंग कई प्रकार का हो सकता है, जैसे कि सेब का खुरदरा होना, कई बार यह सेब की खाल को ढक देती है। कई जगह इससे सेब में जाती हैं। रस्टिंग होने के कई कारण हो सकते हैं। कई बार यह प्राकृतिक कारणों, नमी अधिक होने, कोहरा जमने, तापमान में ज्यादा कमी या वृद्धि तथा रसायनों का गलत छिड़काव करने इत्यादि से हो सकता है।
ये चाहते है बागवान
-सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय हो
- हिमाचल प्रदेश में भी कश्मीर की तर्ज पर सेब के लिए मंडी मध्यस्थता योजना लागू हो
-मंडी मध्यस्थता योजना के तहत A, B व C ग्रेड के सेब की क्रमशः 60 रुपए, 44 रुपए और 24 रुपए प्रति किलो समर्थन मूल्य पर खरीद की
जाए
-प्रदेश की विपणन मंडियों में एपीएमसी कानून को सख्ती से लागू किया जाए
-किसानों के आढ़तियों व खरीददारों के पास बकाया पैसों का भुगतान तुरंत कराया जाए
-मंडियों में एपीएमसी कानून के प्रावधानों के तहत किसानों को जिस दिन उनका उत्पाद बिके उसी दिन उनका भुगतान सुनिश्चित किया जाए
-अडानी और अन्य कंपनियों के कोल्ड स्टोर में इसके निर्माण के समय की शर्तों के अनुसार बागवानों को 25 प्रतिशत सेब रखने के प्रावधान को
तुरंत सख्ती से लागू किया जाए
- किसान सहकारी समितियों को स्थानीय स्तर पर कोल्ड स्टोर बनाने के लिए 90 प्रतिशत अनुदान दिया जाए
-सेब व अन्य फल, फूल और सब्जियों की पैकेजिंग में इस्तेमाल किए जा रहे कार्टन व ट्रे की कीमतों में की गई बढ़ोतरी वापस ली जाए
-किसानों व बागवानों को हुए नुकसान का सरकार मुआवजा दें
- मालभाड़े में की गई वृद्धि वापस ली जाए
- प्रदेश की सभी मंडियों में सेब व अन्य सभी फसलें वजन के हिसाब से बेची जाए.
- HPMC व हिमफैड द्वारा गत वर्षों में लिए गए सेब का भुगतान तुरन्त किया जाए
- खाद, बीज, कीटनाशक, फफूंदी नाशक व अन्य लागत वस्तुओं पर दी जा रही सब्सिडी को पुनः बहाल किया जाए
- कृषि व बागवानी के लिए प्रयोग में आने वाले उपकरणों स्प्रेयर, टिलर, एंटी हेल नेट आदि की बकाया सब्सिडी तुरन्त प्रदान की जाए.
बागवानों पर आर्थिक दबाव बना रही हैं सरकार की नीतियां :बिष्ट
प्रोग्रेसिव ग्रोवर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष लोकेंद्र सिंह बिष्ट का कहना है कि बागवानों के लिए खाद की उपलब्धता सुनिश्चित करने में विफल रहने के बाद सरकार ने कीमतों में बढ़ोतरी कर परेशानी बढ़ा दी है। सेब के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य देने विदेशी सेब पर कस्टम ड्यूटी बढ़ाने के लिए सरकार कोई पहल नहीं कर रही। कार्टन और एंटी हेलनेट पर जीएसटी 5 से बढ़ाकर 12 फीसदी कर दिया है। यह नीतियां किसान पर आर्थिक दबाव बना रही हैं। बिष्ट के अनुसार इस बार सिर्फ बाजार के कारणों की वजह से ही सेब के दाम कम नहीं हुए है, बल्कि मौसम ने भी काफी काम बिगाड़ा है। इस साल शुरुआत में काफी सूखा पड़ा और बाद में ओलावृष्टि हुई जिसके कारण सेब की क्वालिटी प्रभावित हुई है। इसी का फायदा उठा कर आढ़तियों ने और बड़े कॉर्पोरेट्स ने सेब का दाम गिरा दिए। जहां दाम 400 से 500 तक गिराया जाना था वहां दाम 1000 रूपए तक गिरा दिया गया। इसके अलावा पिछले तीन सालों से तुर्की और ईरान का सेब भी भारत आ रहा है ये सेब उसी सीजन में आता है जब हिमाचल के सेब का पीक सीजन होता है। अफगानिस्तान के रास्ते ये सेब बिना ड्यूटी के भारत आ रहा है। ये सेब बहुत सस्ते दामों पर यहां आता है तो लदानी इसे खरीदते है जो हमारे सेब के दामों को प्रभावित करता है।
बागवानों का खून चूस रही निजी कंपनियां : डिंपल पांजटा
हिमालयन सोसाइटी फॉर हॉर्टिकल्चर एंड एग्रीकल्चर डेवलपमेंट के अध्यक्ष डिंपल पांजटा मानते है कि प्रदेश के बागवानों के विकास के लिए प्रदेश में बागवानों को बेहतर प्लांटिंग मटेरियल उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। आज बागवानों को अपने स्तर पर वैदर स्टेशन अपने स्तर ऊपर लगवाने पड़ रहे है, अगर ये सहायता सरकार द्वारा प्रदान की जाए तो छोटे बागवानों को भी इसका लाभ मिल पाएगा। सेब की मार्केटिंग के लिए भी उचित व्यस्था की जरुरत है। सेब बागवानों तक सिंचाई की बेहतर योजनाएं पहुंचाई जानी चाहिए। जो दूसरे और तीसरे ग्रेड का सेब बाजार में जा रहा है वो सेब के दाम कम होने का बड़ा कारण है। सरकार या एपीएमसी को चाहिए कि वो इस सेब को खरीद कर फ़ूड प्रोसेसेसिंग यूनिट्स में या किसी भी तरह बाजार से बाहर भिजवा दे। पांजटा मानते है कि इसके अलावा जो निजी कंपनियां जैसे अडानी या कोई अन्य भी यदि अपने रेट्स कम निकालते है तो दाम भी गिरते है। इस बार भी अडानी ने दाम बहुत कम किये है। मंडियों में जिस तरह सेब के रेट गिरे हैं, यह पूरी तरह सरकारी तंत्र की विफलता है। बागवान भी जागरूक नहीं है। निजी कंपनियां बागवानों का खून चूस रही है, इनपर लगाम होनी चाहिए। इन पर भी एमएसपी लागू की जानी चाहिए। नियमों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। बागवानों को निजी कंपनियों का बहिष्कार करना चाहिए। नैफेड के तहत हिमाचल का सेब भी खरीदा जाना चाहिए जिसकी कवायद हिमाचल सरकार द्वारा शुरू कर दी गई है।
बागवानों को इस सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं : सुरेंद्र सिंह
यंग एंड यूनाइटेड ग्रोवर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेंद्र सिंह का कहना है कि संकट के समय में सेब बागवानों को राहत देने में राज्य सरकार पूरी तरह विफल साबित हुई है। मंडियों में रेट गिर रहे थे और मंत्री बयानबाज़ी कर रहे थे। बागवानों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं है, कारण है बागवानी मंत्री के बेतुके बयान। नौणी विश्वविद्यालय भी प्रदेश के सेबों के लिए कुछ खास नहीं कर रहा। किस क्षेत्र में कौन सी वैरायटी का सेब लगना चाहिए इस पर रिसर्च होना जरुरी है, जो ये सरकार करवा नहीं पाई। स्कैब और रस्टिंग जैसी बीमारियों का हल भी निकाला जाना चाहिए।
गलत नीतियों के कारण बागवानी पर संकट : चौहान
संयुक्त किसान मंच के संयोजक हरीश चौहान और सह संयोजक संजय चौहान का कहना है कि सरकार की गलत नीतियों के कारण कृषि बागवानी पर संकट खड़ा हो गया है। निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए पहले खाद पर सब्सिडी खत्म की, अब खाद के रेट बढ़ा दिए हैं। किसान महंगी दरों पर बाजार से खाद खरीदने को मजबूर है। सरकार की नीतियों से गरीब किसान परेशान हैं। खेती के लिए खाद का इस्तेमाल किसान की पहुंच से बाहर हो गया।