पुरानी पेंशन बहाली : याचना नहीं अब रण की तैयारी

"जो पेंशन की बात करेगा, वो देश पर राज करेगा", ये नारा है उन लाखों कर्मचारियों का जो अपने हक की पेंशन के लिए संघर्ष कर रहे है। पुरानी पेंशन बहाली सिर्फ हिमाचल ही नहीं बल्कि पूरे देश में एक बड़ा मुद्दा बन गई है। प्रदेश में ये मुद्दा क्या स्तर रखता है इसकी झलक 10 दिसंबर को धर्मशाला के दाड़ी मैदान में देखने को मिली। उस दिन पूरा धर्मशाला पेंशन बहाली के नारों से गूँज उठा था। एक नहीं अनेक संगठन पेंशन की मांग के लिए एकत्र हुए और अंत में सरकार को झुकना पड़ा। जो सरकार एक दिन पहले कर्मचारियों को पुरानी पेंशन देने से साफ इंकार कर चुकी थी उसी सरकार ने पुरानी पेंशन बहाली के लिए एक कमेटी गठन करने का आश्वासन दिया। हालांकि वो कमेटी अब तक गठित नहीं हो पाई है। पर कर्मचारियों में कम से कम एक उम्मीद जगी है कि शायद ये सरकार जाते-जाते उनके इस सबसे बड़े मसले को हल कर दे। हिमाचल प्रदेश का कर्मचारी वर्ग अब इस मांग को एक आंदोलन का रूप दे चुका है और सन्देश स्पष्ट है कि चुनावी वर्ष में यदि याचना से काम नहीं चला तो कर्मचारी संगठन रण के लिए तैयार है।
पुरानी पेंशन प्रदेश एक ऐसा मुद्दा है जो सत्ता हिलाने की कुव्वत रखता है। लाखों कर्मचारियों का ये मुद्दा अक्सर चर्चा में बना रहता है। इस मुद्दे पर सियासत भी खूब होती है, आए दिन ओपीएस को लेकर किसी न किसी नेता का ब्यान सामने आता है। जाहिर है इनमें विपक्ष के नेता अधिक होते है, वो ही नेता जो सत्ता में रहते हुए चुप्पी साधे हुए थे और अब सरकार को घेरने में आगे रहते है। बहरहाल, यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि ये मुद्दा फिलवक्त प्रदेश का एक ऐसा सियासी मुद्दा बन चुका है जो 2022 में 'मिशन रिपीट' या 'मिशन डिलीट' में बड़ी भूमिका निभाएगा। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि ये किसी एक कर्मचारी संगठन का मुद्दा नहीं है, अपितु हर कर्मचारी संगठन की मांग में यह शामिल है। हिमाचल प्रदेश एक कर्मचारी बाहुल्य प्रदेश है और ऐसे में यह तय है कि चुनावी फिज़ा में पुरानी पेंशन बहाली का मुद्दा जमकर गूंजने वाला है।
पुरानी पेंशन के न होने से प्रदेश के कर्मचारी अपने रिटायरमेंट के बाद के भविष्य की सुरक्षा को लेकर चिंतित है। कर्मचारी किसी भी सरकार की रीढ़ होती है और जब कर्मचारी ही अपने भविष्य को लेकर सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे है तो ऐसे में सरकार के भविष्य पर सवाल खड़े होते हैं। इस वक्त प्रदेश में करीब पौने तीन लाख कर्मचारी है जिनमें करीब एक लाख बीस हजार वो कर्मचारी है जिन्हें नए पेंशन सिस्टम के तहत पेंशन प्राप्त होती है या होगी। पुरानी पेंशन बहाली की मांग को प्रमुखता से उठाने वाला प्रदेश का सबसे बड़ा संगठन नई पेंशन स्कीम कर्मचारी संघ है जिसमें ये अधिकतर कर्मचारी जुड़े हुए है। सिर्फ यही नहीं बल्कि प्रदेश में कई अन्य संगठन भी है जो पेंशन बहाली की इस मांग को मुनासिब मानते है और इसके लिए संघर्षरत है। हिमाचल के राजनैतिक इतिहास की बात करें तो वर्ष 1993 में कर्मचारियों ने अपनी असल ताकत दिखाई थी और विरोध के चलते भाजपा दहाई का अंक भी पार नहीं कर पाई थी। जाहिर है वर्तमान सरकार भी कर्मचारियों की नाराजगी मोल लेने की स्थिति में नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस मुद्दे पर एनपीएस कर्मचारियों को ओपीएस (ओल्ड पेंशन स्कीम) कर्मचारियों का भी समर्थन मिल रहा है। यह आंदोलन धीरे- धीरे और अधिक उग्र होता जा रहा है और निसंदेह अगले विस चुनाव में यह प्रमुख मुद्दा हो सकता है। मिशन रिपीट के लिए प्रदेश की जयराम सरकार को इस दिशा में कुछ कारगर कदम उठाने होंगे। यदि सरकार ऐसा करने में कामयाब रही तो लाभ तय है और अगर कदम नहीं उठाए तो नुकसान होना भी तय है।
2004 में केंद्र ने लागू की नई पेंशन योजना
साल 2004 में केंद्र सरकार ने अपने कर्मचारियों की पेंशन योजना में एक बड़ा बदलाव किया था। इस बदलाव के तहत नए केंद्रीय कर्मचारी पुरानी पेंशन योजना के दायरे से बाहर हो गए। ऐसे कर्मचारियों के लिए सरकार ने नेशनल पेंशन सिस्टम को लॉन्च किया। यह 1972 के केंद्रीय सिविल सेवा (पेंशन) नियम के स्थान पर लागू की गई और उन सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए इस स्कीम को अनिवार्य कर दिया गया जिनकी नियुक्ति 1 जनवरी 2004 के बाद हुई थी। अधिकतर सरकारी कर्मचारी नेशनल पेंशन सिस्टम लागू होने के बाद से ही पुरानी पेंशन व्यवस्था बहाल करने को लेकर मुहिम चला रहे हैं। पश्चिम बंगाल को छोड़ कर देश के हर राज्य में नई पेंशन योजना को लागू किया गया है। अधिकतर सरकारी कर्मी पुरानी पेंशन व्यवस्था को इसलिए बेहतर मानते हैं क्योंकि यह उन्हें अधिक भरोसा उपलब्ध कराती है। जनवरी 2004 में एनपीएस लागू होने से पहले सरकारी कर्मी जब रिटायर होता था तो उसकी अंतिम सैलरी के 50 फीसदी हिस्से के बराबर उसकी पेंशन तय हो जाती थी। ओपीएस में 40 साल की नौकरी हो या 10 साल की, पेंशन की राशी अंतिम सैलरी से तय होती थी यानी यह डेफिनिट बेनिफिट स्कीम थी। इसके विपरीत एनपीएस डेफिनिटी कॉन्ट्रिब्यूशन स्कीम है यानी कि इसमें पेंशन राशी इस पर निर्भर करती है कि नौकरी कितने साल की गई है और एन्युटी राशी कितनी है। एनपीएस के तहत एक निश्चित राशि हर महीने कंट्रीब्यूट की जाती है।
इसलिए कर्मचारी नहीं चाहते नई पेंशन स्कीम
शुरूआती दौर में कर्मचारियों ने इस स्कीम का स्वागत किया, लेकिन जब एनपीएस का असल मतलब समझ आने लगा तो विरोध शुरू हो गया। नई पेंशन स्कीम के अंतर्गत हर सरकारी कर्मचारी की सैलरी से अंशदान और डीए जमा कर लिया जाता है। ये पैसा सरकार उसके एनपीएस अकाउंट में जमा कर देती है। रिटायरमेंट के बाद एनपीएस अकाउंट में जितनी भी रकम इकट्ठा होगी उसमें से अधिकतम 60 फीसदी ही निकाला जा सकता है। शेष 40 फीसदी राशी को सरकार बाजार में इन्वेस्ट करती है और उस पर मिलने वाले सालाना ब्याज को 12 हिस्सों में बांट कर हर महीने पेंशन दी जाती है। यानी कि पेंशन की कोई तय राशी नहीं होती। पैसा कहां इन्वेस्ट करना है, ये फैसला भी सरकार का ही होगा। इसके लिए सरकार ने PFRDA नाम की एक संस्था का गठन किया है। विरोध कर रहे कर्मचारियों का मानना है कि उनका पैसा बाजार जोखिम के अधीन है और बाजार में होने वाले उलटफेर के चलते उनकी जमा पूंजी सुरक्षित नहीं है। पुरानी पेंशन स्कीम इससे कई ज्यादा बेहतर मानी जाती है। उसमें सरकारी नौकरी के सभी लाभ मिला करते थे। पहले रिटायरमेंट पर प्रोविडेंट फण्ड के नाम पर एक भारी रकम और इसके साथ ताउम्र तय पेंशन जो मृत्यु के बाद कर्मचारी के सर्विस बुक में दर्ज नॉमिनी को भी मिला करती थी।
अब आश्वासन से काम नहीं चलेगा
हिमाचल प्रदेश के दोनों मुख्य राजनैतिक दल यानी कि कांग्रेस और भाजपा पुरानी पेंशन की मांग को जायज भी ठहराते रहे है और इसे पूरा करने का आश्वासन भी देते रहे है। मसला ये है कि विपक्ष में रहते हुए तो दोनों ही इसे कर्मचारियों का अधिकार और हक़ बताते है लेकिन सत्ता में आकर इस मांग को पूरा नहीं करते। पर बीते कुछ समय में यह मुद्दा एक आंदोलन का रूप ले चुका है और ऐसे में दोनों ही दलों के लिए अब इसे ज्यादा लटकाकर रखना संभव नहीं होगा। 2022 चुनाव से पहले जहां सत्तारूढ़ भाजपा पर इस मांग को पूरा करने का दबाव है तो वहीं कांग्रेस को भी इस विषय पर स्पष्ट राय रखनी होगी। नई पेंशन स्कीम लागू होने के बाद केन्द्र में 10 वर्ष कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए ने शासन किया। जबकि 2014 से भाजपा के नेतृत्व में एनडीए सरकार का एकछत्र राज है। इसी तरह प्रदेश में दो मर्तबा वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस काबिज रही है और भाजपा का भी दूसरा टर्म है लेकिन किसी भी सरकार ने पुरानी पेंशन की बहाली के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किये। आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के हर कर्मचारी को पुरानी पेंशन देने के लिए सरकार एकमुश्त दो हजार करोड़ रुपये चाहिए जो फिलवक्त प्रदेश सरकार की आर्थिक हालातों को देखते हुए संभव नहीं लगता।
पेंशन पर कितना खर्च
मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा में पेश किये गए आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के हर कर्मचारी को पुरानी पेंशन योजना लागू करने पर एकमुश्त अनुमानित व्यय लगभग 2000 करोड़ रुपये होगा। प्रति वर्ष आवर्ती व्यय लगभग पांच सौ करोड़ होने का अनुमान है, जो फिलवक्त प्रदेश सरकार की आर्थिक हालातों को देखते हुए संभव नहीं लगता। इस पर नई पेंशन स्कीम कर्मचारी महासंघ के अध्यक्ष प्रदीप ठाकुर का तर्क है कि सरकार हर साल अपना और कर्मचारियों का लगभग 1200 करोड़ रुपये की राशी एसबीआई फंड्स प्राइवेट लिमिटेड, एलआईसी पेंशन फंड्स प्राइवेट लिमिटेड और यूटीआई रिटायरमेंट सोल्यूशंस में जमा करती है। ये राशी पीएफआरडीए द्वारा एप्रूव्ड 31 : 35 : 34 के अनुपात में इन तीनों फंड्स में जमा की जाती है। प्रदीप का कहना है कि यदि सरकार डायरेक्ट इन कर्मचारियों को पेंशन देती है तो सरकार के 700 करोड़ रुपये बचेंगे, जो फायदे का सौदा है।
नेताओं के लिए क्यों नहीं नई पेंशन स्कीम ?
मई 2003 के बाद से माननीयों (सांसद व विधायकों ) को तो पेंशन का लाभ मिल रहा है, जबकि सरकारी कर्मचारी को एनपीएस का झुनझुना थमा दिया गया है। यदि यह योजना इतनी बढ़िया है तो सांसद व विधायकों को भी पेंशन के स्थान पर एनपीएस का ही लाभ देना चाहिए। यदि एक नेता पहले विधायक हो और फिर लोकसभा का चुनाव लड़े और सांसद बन जाए तो उसे दोनों तरफ से पेंशन मिलती है। इस देश में ये सुविधा सिर्फ और सिर्फ नेताओं को ही उपलब्ध है।