महाराणा प्रताप : अदम्य,अविजित ,आजीवन स्वतंत्र

7 फीट 5 इंच लंबाई, 110 किलो वजन, 81 किलो का भारी-भरकम भाला, छाती पर 72 किलो वजनी कवच और सबसे ख़ास बात, युद्ध कौशल, स्वाभिमान और साहस ऐसा कि दुश्मन भी कायल थे। कहते हैं कि महाराणा प्रताप अपने पास हमेशा दो तलवार रखते थे,ताकि अगर कोई निहत्था दुश्मन मिले तो एक तलवार उसे दे सकें, क्योंकि वे निहत्थे पर वार नहीं करते थे।
ये वो दौर था जब मुगल सलतनत के बादशाह अकबर ने लगभग पूरे हिन्दुस्तान पर कब्ज़ा कर लिया था और एक-एक कर सभी राजपूत राजा उसके अधीन होते जा रहे थे। अकबर ने न केवल बल से राजपूतों को झुकाया बल्कि जो राजपूत राजा उसका साथ नहीं देना चाहते थे, उनके साथ वो रिश्ता जोड़ लिया। जयपुर के राजा मानसिंह की फूफी से अकबर ने विवाह कर लिया और इस फेहरिस्त में अनेक राजपूत राजा थे जिन्होंने मुगलों से रोटी -बेटी सम्बन्ध बनाने में अपनी भलाई समझी। पर महाराणा प्रताप अलग मिटटी के बने थे, महाराणा तो स्वाभिमान से गुथी मिट्टी के बने थे। अकबर ने कई बार प्रयास किया की प्रताप को वो अपने अधीन कर ले, लेकिन राजपूताना स्वाभिमान के आगे उसे हर बार मिली तो केवल शिकस्त। करीब 30 सालों तक लगातार कोशिश के बाद भी अकबर उन्हें बंदी नहीं बना सका था।
" जिस राज़पूत ने मुगल के हाथ में अपनी बहन को दिया है, उस मुगल के साथ उसने भोजन भी किया होगा, सूर्यवंशीय बप्पा रावल का वंशधर उसके साथ भोजन नहीं कर सकता।” ये शब्द थे राजा मान सिंह को महाराणा प्रताप के और इस अपमान को मान सिंह सहन नहीं कर सका। वह तुरन्त दिल्ली को निकला और फिर बादशाह अकबर को भड़काया।
उधर अकबर इसी प्रतीक्षा में बैठा था कि राणा से युद्ध कर उसे नीचा दिखाया जाये, सो एक विशाल सेना के साथ राजा मान सिंह और सलीम मेवाड़ भूमि की ओर निकल पड़े।
महाराणा प्रताप और मुगल बादशाह अकबर के बीच हल्दीघाटी में भयंकर युद्ध हुआ और बाकि इतिहास हैं। महाराणा प्रताप की करीब बीस हज़ार की सेना अकबर की 80 हजार सैनिकों वाली विशाल सेना के सामने जमकर लड़ी। बताते हैं कि ये युद्ध तीन घंटे से अधिक समय तक चला था और इस युद्ध में जख्मी होने के बावजूद महाराणा मुगलों के हाथ नहीं आए। महाराणा प्रताप कुछ साथियों के साथ जंगल में जाकर छिप गए और यहीं जंगल के कंद-मूल खाकर लड़ते रहे।
हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप को मेवाड़-भूमि को मुक्त करवाने के लिये अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। महाराणा प्रताप को बारह वर्ष तक कंद मूल खाकर जंगलों और अरावलियों की पहाड़ियों में छिप छिप कर दिन व्यतीत करने पड़े। ऐसी विषम परिस्थिति में भी महाराणा को कभी-कभी अकबर की सेना का मुकाबला करना पड़ता था। उनके साथ छोटे छोटे बच्चे व महारानी भी थी। उधर अकबर राणा को पकड़ने की ताक में था परन्तु उसकी ये हसरत कभी पूरी नहीं हुई।
महाराणा प्रताप अपने परिवार के साथ बीहड़ जंगलों में घास की रोटी खाकर जीवन निर्वाह करते थे। घास की बनी रोटियां खाते छोटे -छोटे बच्चे और उन रोटियों को भी कभी कभी वन के बिलांव छीनकर ले जाते। परन्तु महाराणा अपने प्रण पर अडिग थे और लक्ष्य था केवल और केवल मेवाड़ भूमि को बंधनों से मुक्त करने का। साथ मिला मेवाड़ भूमि के सच्चे सेवक भामाशाह का जिन्होंने सबकुछ महाराणा के चरणों में अर्पित कर दिया। मुगल सेना से छापामार युद्ध चलता रहा और इस बीच भामाशाह ने देशहित अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। उधर महाराणा के हृदय में पुन: साहस की लहर दौड़ पड़ी और बिखरी सेना को संगठित कर उन्होंने कई किलो पर फिर अधिकार कर लिया। हालाँकि अपने प्रिय चित्तौड़ के किले को मुक्त न करा सके।
इस बीच महाराणा का स्वास्थ्य ख़राब होता गया और उनको मृत्यु शैय्या पर सोना पड़ा।
महाराणा प्रताप का निधन 19 जनवरी 1597 को हुआ था। कहा जाता है कि इस महाराणा की मृत्यु पर अकबर की आंखें भी नम हो गई थीं। उनके 17 पुत्रों में से अमर सिंह महाराणा प्रताप के उत्तराधिकारी और मेवाड़ के 14वें महाराणा बने। मृत्यु पूर्व उन्होंने अपने पुत्र और वीर सामंतों को बुला कर कहा था, वीर सपूतों दृढ़ संकल्प करो कि मेरे मरने के बाद मेरी प्रतिज्ञा को पूर्ण करोगे और सम्पूर्ण मेवाड़ की भूमि को स्वतन्त्र कराओगे।
युद्धभूमि छोड़ भागा था शहजादा सलीम :
हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप अपने शत्रु मान सिंह की खोज कर रहे थे। तभी उनके सामने अकबर का बड़ा पुत्र शहजादा सलीम आ गया। महाराणा ने भाला उठाया और अपने प्यारे घोड़े चेतक को सलीम की ओर चलाया। उनका प्यारा घोड़ा चेतक भी किसी वीर योद्धा से कम न था और महाराणा का इशारा पाकर वह सलीम के हाथी पर भी चढ़ गया। हालांकि महाराणा प्रताप के भीषण वार से महावत व शरीर रक्षक गण तो मारे गये, लेकिन भाग्यवश सलीम बच गया। महावत के गिरते ही निरंकुश होकर हाथी शहजादा सलीम को लेकर भाग गया। उधर महाराणा प्रताप ने भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। कहते हैं शहजादे को बचाने के लिए अगणित सेना ढाल बनकर वार करने लगी। पर निडर महाराणा प्रताप ने हज़ारों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।
मुगल सेना को राजपूतों के भीषण वारों से छठी का दूध याद दिला था, लेकिन राजपूत सेना संख्या में बहुत कम थी। धीरे धीरे महाराणा की सेना निर्बल होने लगी। उधर राजा मानसिंह की खोज करते करते महाराणा प्रताप शत्रु सेना में घुस गए। राणा के परन्तु मस्तक पर मेवाड़ राजछत्र- लगा हुआ था, जिसे देख कर मुगल सेना ने इनको घेर लिया। महाराणा संकट में थे। उनके साथ न कोई सामन्त था और न कोई सरदार। इस बीच “जय महाराणा प्रताप की जय” का घोष करते हुए वीरवर भालांपति मन्नाजी झपटते हुये सेना सहित महाराणा प्रताप की सहायता को पहुंचे। मन्नाजी ने महाराजा से ऐसे संकट के समय राजचिन्ह देकर वहां से निकल जाने की प्रार्थना की। महाराणा बोले ” मन्नाजी ! रण में पीठ दिखाना राजपूत का काम नहीं और यह कायरता पूर्ण कार्य मैं नहीं कर सकता। मात्रभूमि की रक्षा के लिए में अन्तिम श्वास तक लड़ता रहूंगा। "
पर मन्नाजी ने कहा कि हिन्दुओं की रक्षा के लिए, मेवाड़ भूमि को स्वतंत्रता के लिए, यह आवश्यक है कि वे प्राणों की बलि न दें, हम आपको रण से नहीं हटा रहे वरन् निरन्तर मुगलों (विदेशियों ) से युद्ध करने के लिए यहां से इस समय अलग कर रहे हैं। आखिरकार महाराणा मान गए और वहां से अलग हो गये। राणा ने अपना छतर और झण्डा झालाजी को दे दिया। इधर वीरवर मन्नाजी को ही राणा समझ कर मुगल सैनिक उन पर टूट पड़े। मन्नाजी ने प्रचएंड युद्ध कौशल दिखाया परंतु, विशाल सेना का मुकाबला न कर सके ओर कई मुगल सैनिकों को मार कर स्वयं भी मातृभूमि की गोद में हमेशा के लिए सो गये।
दौड़ रहा अरिमस्तक पर, वह आसमान का घोड़ा था .....
महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक उनका विश्वासपात्र था, मनुष्यों के सम्मान बुद्धि रखता था और इशारा पाते ही हवा से बातें करने लगता था। चेतक एक महान योद्धा था। हल्दीघाटी के युद्ध में हजारों दुश्मनों ने महाराणा को रोकने के लिए,उन पर आक्रमण करने के लिए चेतक पर प्रहार किये परन्तु हवा से बातें करता चेतक जख्मी होकर भी न रुका और अपने प्रिय राजा को लेकर मुगल सेना के बीचोंबीच से सुरक्षित निकाल ले गया। उधर दो पठान सरदारों ने भी दल बल सहित महाराणा का पीछा किया।
इसी बीच महाराणा प्रताप सिंह का छोटा भाई शक्ति सिंह, जो मुगलों में जा मिला था, सबकुछ देख रहा था। राणा के प्राणों को संकट में देख कर उसका ममत्व जाग पड़ा।
भाई को रक्षार्थ उसने पठान सैनिकों का पीछा किया और उन सैनिकों को काल के घाट उतार दिया। शक्तिसिंह ने महाराणा प्रताप को रुकने के लिए कहा किन्तु महाराणा को भरोसा नहीं था सो उन्होंने उसकी एक नहीं सुनी और नाला पार करने तक घोड़े पर दौड़ते रहें। जब नदी पार करली तो घायल घोड़ा थक चुका था। चेतक महाराणा को पीठ पर लिए 26 फीट का नाला एक छलांग में लांघ गया था।
नाला पार कर महाराणा जैसे ही घोड़े से उतरे तो पीछे भाई शक्तिसिंह खड़ा था। महाराणा ने कहा “भाई शक्ति ! तुम अब भी मेरे प्राणों के पीछे पड़े हो। लो आज अपने हाथों से ही इस प्रताप का अन्त कर दो, सारा मेवाड़ उजड़ चुका है और आँखें उजड़े हुए मेवाड़ को नहीं देखता चाहती”। शक्तिसिंह महाराणा के चरणों में गिरकर बिलख बिलख कर रोने लगे और अपने अपराध की क्षमा मांगी।
उधर महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक सदा के लिए जैसे विदाई मांग रहा था। चेतक के प्राण-पखेरू उड़ गये और महाराणा प्रताप फूट- फूट कर रोने लगे। जिसने पूरी मुगल सेना को काल दिखा दिया वो वीर महाराणा भी भावुक थे। शक्तिसिंह ने उन्हें संभाला और अपना घोड़ा राणा को दे दिया।
कवी श्यामनारायण पाण्डेय ने अपनी उत्कृष्ट काव्यसर्जना हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप के जीवन से जुड़े सभी प्रसंगों को समेटा हैं। चेतक पर भी उन्होंने एक कविता लिखी हैं जिसका शीर्षक हैं 'चेतक की वीरता'
चेतक की वीरता...
रणबीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला थाजो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड जाता थागिरता न कभी चेतक तन पर
राणाप्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर
वह आसमान का घोड़ा थाथा यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरि मस्तक पर कहाँ नहींनिर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौडा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों मेंबढते नद सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
बिकराल बज्रमय बादल सा
अरि की सेना पर घहर गया।भाला गिर गया गिरा निशंग
हय टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग∼ श्याम नारायण पाण्डेय
इसलिए दो बार मनाई जाती हैं जयंती :
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के मेवाड़ में हुआ था। वहीं ज्योतिष पंचांग की मानें तो उनका जन्म ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि के दिन पुष्य नक्षत्र में हुआ था, जो विक्रम संवत 2080 में आज के दिन है। यही कारण है कि कुछ ही दिनों के अंतराल पर वीर महाराणा प्रताप की जयंती दो बार मनाई जाती है। राजपूत राजघराने में जन्म लेने वाले प्रताप उदय सिंह द्वितीय और महारानी जयवंता बाई के सबसे बड़े पुत्र थे। महाराणा प्रताप ने मुगलों के बार-बार हुए हमलों से मेवाड़ की रक्षा की। उन्होंने अपनी आन, बान और शान के लिए कभी समझौता नहीं किया। विपरीत से विपरीत परिस्थिति ही क्यों ना, कभी हार नहीं मानी। यही वजह है कि महाराणा प्रताप की वीरता के आगे किसी की भी कहानी टिकती नहीं है।
11 शादियां की, 17 बेटे थे :
महाराणा प्रताप के निजी जीवन की बात करें तो उन्होंने कुल 11 शादियां की थी। इन शादियों में उनके 17 बेटे और 5 बेटियां थी। महारानी अजाब्दे के बेटे अमर सिंह ने महाराणा प्रताप के बाद राजगद्दी संभाली।
एक इतिहासकार के मुताबिक, महाराणा प्रताप के 24 भाई और 20 बहनें थीं। खुद प्रताप के सौतेले भाई ने उन्हें धोखा देते हुए अजमेर आकर अकबर से संधि कर ली थी। बचपन में महाराणा प्रताप को कीका नाम से पुकारा जाता था। वह जब युद्ध के लिए जाते थे, तो 208 किलोग्राम की दो तलवारें, 72 किलोग्राम का कवच और 80 किलो के भाले लेकर जाते थे।