1977: जब हिमाचल में पहली बार चारों खाने चित हुई कांग्रेस

**चारों लोकसभा सीट पर मिली थी हार
**मंडी से वीरभद्र सिंह भी हारे थे
1977 का साल भारतीय राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत का प्रतीक था। देश में दो साल तक चले आपातकाल के बाद, जनता ने सत्ता की कुर्सी हिला दी थी। पूरे भारत में बदलाव की आंधी चल रही थी, और हिमाचल प्रदेश भी इससे अछूता नहीं रहा। चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल (भालोद) ने हिमाचल की चारों लोकसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। यह फैसला तब शायद साहसिक लगा होगा, क्योंकि हिमाचल में कांग्रेस की मजबूत पकड़ थी। लेकिन जनता का मिज़ाज बदल चुका था। इस बार लोग किसी नए विकल्प की तलाश में थे, और भारतीय लोकदल ने वह विकल्प बनकर खुद को प्रस्तुत किया। चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले थे। हिमाचल की चारों सीटों पर भारतीय लोकदल के उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी, और कांग्रेस पूरी तरह पराजित हो गई थी। सबसे बड़ा झटका मंडी लोकसभा सीट से आया, जहां लोकदल के प्रत्याशी गंगा सिंह ने वीरभद्र सिंह को 35,505 वोटों के अंतर से हरा दिया। वीरभद्र सिंह, जो कांग्रेस के एक मजबूत नेता माने जाते थे, इस हार से हैरान रह गए। कांगड़ा सीट से दुर्गा चंद ने कांग्रेस के विक्रम चंद को 39,005 वोटों से शिकस्त दी। हमीरपुर में रणजीत सिंह ने नारायण चंद को 50,122 वोटों से हराया। और सबसे बड़ी जीत बालक राम के नाम रही, जिन्होंने 87,472 वोटों से जालम सिंह को पराजित किया और 64.63% वोट हासिल किए। इस ऐतिहासिक चुनाव में भारतीय लोकदल ने 57.19% वोट शेयर के साथ चारों सीटें जीत लीं, जबकि कांग्रेस सिर्फ 38.58% वोटों तक सिमट गई। हालांकि इस चुनाव के बाद, भारतीय लोकदल का जनता दल में विलय हो गया। यह वही जनता दल था, जिसने पूरे देश में इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर किया था। लेकिन राजनीति में स्थिरता कब रहती है? ये जनता दल भी टूट गया और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का गठन हुआ। इसके बाद चौधरी चरण सिंह ने भारतीय लोकदल को दोबारा अलग किया, लेकिन हिमाचल में 1977 जैसी सफलता फिर कभी हाथ नहीं लगी।