बांका हिमाचल : बागवानी है प्रदेश की आर्थिकी की रीढ़
हिमाचली सेब दुनिया भर में अपने स्वाद के लिए प्रसिद्ध है, पर अब हिमाचल प्रदेश न सिर्फ सेब उत्पादक प्रदेश के तौर पर जाना जाता है अपितु हिमाचल हिंदुस्तान का फ्रूट बास्केट बन गया है। हिमाचल प्रदेश में बागवानी क्षेत्र आय के स्तोत्र उत्पन्न कर न सिर्फ लोगों की आर्थिकी सुदृढ़ करने में सहायक सिद्ध हो रहा है बल्कि प्रदेश की प्रगति में भी इसका बड़ा हाथ है। हिमाचल में करीब ढाई लाख हेक्टेयर भूमि पर 25 से भी अधिक किस्म के फलों का उत्पादन होता है। इसमें आधी भूमि पर तो अकेले सेब का उत्पादन होता है। इसके अतिरिक्त चेरी, स्ट्रॉबेरी, आम, किन्नू, माल्टा, कीवी, अखरोट, बादाम, अनार, अमरूद, आडू, खुमानी, लीची, नाशपाती का उत्पादन भी होता है। अब तो प्रदेश के ऊना में ड्रैगन फ्रूट को भी सफल तौर पर उगाया जाने लगा है। हॉर्टिकल्चर प्रदेश की आर्थिकी की रीढ़ है और चार लाख से अधिक लोग इससे जुड़े हैं। गत चार साल में प्रदेश में 31.40 लाख मीट्रिक टन फल उत्पादन हुआ है। इस अवधि में बागवानी क्षेत्र की वार्षिक आय औसतन 4,575 करोड़ रही। बागवानी के ज़रिये नौ लाख लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिल रहा है। हिमाचल की जलवायु और उपजाऊ ज़मीन के कारण यहां पैदा होने वाले फल यहां के लोगो के लिए वरदान है।
ईरान और तुर्की का सेब चुनौती
हिमाचल की खुशहाली की तकदीर कहे जाने वाली सेब बागबानी वैश्विक प्रतिस्पर्धा से कदमताल नहीं कर पा रही है। सेब पैदावार से लेकर बाजार पहुँचने तक की हर प्रक्रिया अव्यवस्थित है और इसमें व्यापक सुधार की दरकार है। कभी मौसम की मार सेब की गुणवत्ता पर असर डालती है, तो कभी निजी कंपनियों द्वारा दिए जा रहे कम दाम। इस पर कम दामों पर आयात हो रहे सेब से भी बाजार के सेंटीमेंट बिगड़ रहे है।
हिमाचल की करीब साढ़े चार हजार करोड़ रुपये की सेब की आर्थिकी के लिए ईरान और तुर्की का सेब चुनौती बन गया है। बाजार में इस बार ईरान का सेब हिमाचली सेब को पछाड़ रहा है। ईरान का सेब रंग और स्वाद में श्रीनगर और किन्नौर की सेब की बराबरी करता है। बागवानों के अनुसार भारत में अफगानिस्तान के रास्ते ईरान और तुर्की से सेब का अनियंत्रित और अनियमित आयात होता आ रहा है जो परेशानी का कारण है। बागवान चाहते है कि ईरान और तुर्की से सेब आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगे।
अफगानिस्तान साफ्टा (SAFTA) दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र का हिस्सा है और यहां से सेब के आयात पर कोई शुल्क नहीं लगता है। ईरान इस समझौते का हिस्सा नहीं है और माना जा रहा है कि इसलिए ईरान अपना सेब अफगानिस्तान से पाकिस्तान के रास्ते अटारी बॉर्डर से भारत भेजता हैं। ऐसा हो रहा है तो एक कंटेनर पर आठ लाख के करीब आयात शुल्क की चोरी हो रही है। इसके कारण ईरान का सेब सस्ता बिकता है। यदि ये सेब ईरान के रास्ते आए तो इसमें पंद्रह प्रतिशत एक्साइज ड्यूटी और 35 प्रतिशत सेस लगेगा।
लॉन्ग टर्म प्लानिंग की दरकार :
सेब के दामों पर नियंत्रण के लिए एक लॉन्ग टर्म प्लानिंग की जरुरत है। फूड प्रोसेसिंग यूनिट्स और सीए स्टोर्स की उपलब्धता के साथ ही सेब की प्रोडक्शन में गुणवत्ता का ध्यान रखने की ज़रूरत है। जानकार मानते है कि तीन क्षेत्रों में ध्यान देने की ज़रूरत है। पहला है सेब की प्रोडक्शन, दूसरा है सप्लाई चेन और तीसरा है मार्केटिंग। इन तीनों में ही बहुत सी खामियां है जिन्हें दुरुस्त किया जाना चाहिए।
चिलगोजा : किन्नौर के लोगों के लिए वरदान है ये सूखा मेवा
जनजातीय क्षेत्र किन्नौर बेहतरीन गुणवत्ता वाले सेब उत्पादक के तौर पर जाना जाता हैं, लेकिन ये ही किन्नौर उत्कृष्ट गुणवत्ता का एक मेवा भी उत्पादित करता है, जिसे चिलगोजा के नाम से जाना जाता है। चिलगोजा भारत के उत्तर में हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में 1800-3350 मीटर की ऊंचाई वाले इलाके में फैले जंगलों में चीड़ के पेड़ पर लगता है। पर्सियन में चिलगोजा का अर्थ होता है 40 गिरी वाला शंकु के आकार का फल। चिलगोजा को अंग्रेजी में पाइन नट कहा जाता है। किन्नौर तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में विवाह के अवसर पर मेहमानों को सूखे मेवे की जो मालाएं पहनाई जाती हैं, उसमें अखरोट और चूली के साथ चिलगोजे की गिरी भी पिरोई जाती है। चिलगोजा स्थानीय आबादी के लिए नकदी फसलों में से एक है, क्योंकि बाजार में यह काफी ऊंचे दाम पर बिकता है। चिलगोजा के पेड़ों के फलदार होने में 15 से 25 वर्ष का समय लगता है और इसके फल को परिपक्व होने में करीब 18-24 महीने लगते हैं।
पीच वैली को एक नियोजित योजना की दरकार
जिला सिरमौर का राजगढ़ व आसपास लगता क्षेत्र पीच वैली के नाम से जाना जाता है। राजगढ़ क्षेत्र में फागू, भणत, हालोनी ब्रिज, बठाऊधार और शावगा आदि क्षेत्रों में आडू की खासी पैदावार होती है। इस क्षेत्र में आडू की कई किस्में उगाई जा रही है, जिनकी खासी डिमांड है। पहले यह आडू एनसीआर मार्किट में खूब धूम मचा रहा था, मगर बीते कुछ वक्त में इसके रेट कम हुए है। लिहाजा उत्पादकों का भी इससे कुछ मोह भंग हुआ है। इस पर कृषि रोगों ने भी इसके उत्पादन को प्रभावित किया है। बहरहाल, पीच वैली को एक विशेष योजना की दरकार है जिससे आडू उत्पादन का बीता हुआ सुनहरा वक्त फिर लौट आएं।
हिमाचल में सेब का विकल्प बन रही चेरी, इस साल मिल रहे दोगुने दाम
हिमाचल में सेब के अतिरिक्त चेरी भी बागवानों के लिए एक अहम नकदी फसल बनती जा रही है। बागवानों के सेब के बगीचों में पिछले कुछ सालों से चेरी की भी बड़ी पैदावार होने लगी है। एक तरफ जहां सेब की फसल लेने में बागवानों को साल भर कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती है, वहीं दूसरी तरफ कम मेहनत वाली चेरी की फसल अब बागवानों के लिए वरदान साबित हो रही है। हिमाचल प्रदेश में करीब 400 हेक्टेयर भूमि में चेरी का उत्पादन किया जाता है। राज्य में सेब बगीचों के साथ ही चेरी के पौधे भी लगाए जाते हैं लेकिन चेरी 15 मार्च के बाद तैयार होती है और सिर्फ एक माह तक चेरी का सीजन चलता है।
हिमाचल में चेरी की प्रमुख किस्में रेड हार्ट, ब्लैक हार्ट, विंग, वैन, स्टैना, नेपोलियन, ब्लैक रिपब्लिकन हैं। स्टैना परागण किस्म है और इसके बिना चेरी की अच्छी पैदावार नहीं ली जा सकती। चेरी के अच्छे रूट स्टॉक नहीं हैं। अगर चेरी के रूट स्टॉक अच्छे हो तो फसल और बेहतर हो सकती है। प्रदेश में चेरी की सबसे अधिक पैदावार शिमला जिले के ननखड़ी, कोटगढ़ और नारकंडा क्षेत्रों में होती है।
इस बार भी हिमाचल की रसीली चेरी ने बाजार में दस्तक दे दी है। इस साल चेरी का सीजन करीब 10 दिन पहले शुरू हो गया है। समय से पहले तापमान बढ़ना इसका कारण बताया जा रहा है। सीजन की शुरुआत में ही बागवानों को 300 रुपये प्रति किलो तक रेट मिल रहे हैं, जो पिछले साल के मुकाबले दोगुने हैं। ढली मंडी में चेरी 200 से 300 रुपये प्रति किलो के रेट पर बिकी। पिछले साल एक मई को चेरी बाजार में पहुंची थी और कीमत अधिकतम 150 रुपये थी। सीजन की शुरुआत में चेरी लोकल मार्केट में ही खप रही है। आने वाले दिनों में शिमला से चेरी बंगलूरू, महाराष्ट्र और गुजरात तक भेजी जाएगी।
आम की बंपर फसल
हिमाचल प्रदेश में इस बार आम की फसल बंपर होने की उम्मीद है। आम के पेड़ों पर आया फूल इसी ओर इशारा कर रहा है कि इस बार बागवानों को आम की फसल मालामाल करने वाली है। हालांकि, अभी भी मौसम पर काफी कुछ निर्भर करेगा। गौरतलब है कि वर्ष 2021 में आम की फसल का ऑफ़ सीज़न रहा था। इस बार सीजन के ऑन होने की संभावनाएं पहले ही जता दी गई थी। नूरपुर, इंदौरा, ऊना व हिमाचल के अन्य निचले क्षेत्रों में आम की दशहरी, आम्रपाली, रामकेला, लंगडा चौंसा, तोता, अल्फेंजो, ग्रीन, फजली आदि किस्में पाई जाती है। जिनमें मुख्य दशहरी अगेती किस्म है। इसकी जून के मध्य माह में फसल तैयार हो जाती है।