कौन कहता है टोपियों का सियासी रंग नहीं होता !

कांग्रेस के साथ -साथ लखनपाल ने हरी टोपी भी त्याग दी !शांता कुमार, वीरभद्र सिंह और धूमल सभी ने बनाया टोपी को पहचान
जयराम और सुक्खू राज में कुछ कमजोर हुआ सियासत और टोपियों के बीच का रिश्ता
जब तक कांग्रेस में रहे हरी टोपी सर की शान रही, भाजपाई हुए तो टोपी का रंग भी बदल गया। बड़सर विधायक इंद्रदत्त लखनपाल सियासत का बेहद मजबूत चेहरा है। शिमला नगर निगम में पार्षद का चुनाव जीत अपनी चुनावी राजनीति शुरू की थी, और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 2012 से 2022 तक बड़सर से तीन विधानसभा चुनाव जीते और कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में गिनती रही। वीरभद्र सिंह के शगिर्द रहे और उन्हीं की तरह हरी टोपी इनकी पहचान रही। फिर 2024 में लखनपाल ने कांग्रेस से बगावत कर दी और भाजपाई हो गए। उपचुनाव जीतकर फिर विधायक भी बन गए। फिर कांग्रेस के साथ -साथ इन्होंने हरी टोपी भी त्याग दी। यानी इनके लिए टोपी का सियासी रंग भी है और सियासी निष्ठा भी। इनकी सोशल मीडिया प्रोफाइल भी इसकी तस्दीक करती है ,जब तक कांग्रेसी रहे सारी तस्वीरें हरी टोपी वाली। भाजपा का लाल होते ही लाल टोपी वाले बन गए।
अतीत में झांके तो हिमाचल की सियासत में टोपियों का आगाज़ हुआ शांता कुमार के राजनैतिक आगमन के साथ। वर्ष 1977 में प्रदेश में पहली बार गैर-कांग्रेस सरकार का गठन हुआ और शांता कुमार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तब उनके सिर पर धारीदार कुल्लवी टोपी पहचान बनी। शांता की इस टोपी को खूब ख्याति मिलती रही और उनके समर्थक भी इसी टोपी के रंग में रंगते चले गए। जब तक शांता कुमार प्रदेश की राजनीति का केंद्र बिंदु रहे तब तक इस टोपी ने प्रदेश में अपना वर्चस्व बनाए रखा। फिर दौर आया वीरभद्र सिंह और बुशहरी टोपी का। वर्ष 1984 में वीरभद्र सिंह पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने और साथ ही उनकी हरे रंग की बुशहरी टोपी कांग्रेस की पहचान बन गई। आज भी काफी हद तक हरी टोपी को कांग्रेस से जोड़कर देखा जाता है।
वर्ष 1998 में प्रेम कुमार धूमल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तब से मैरून रंग की टोपी ने अपनी पहचान बनाई। प्रो प्रेम कुमार धूमल के दौर में लाल टोपी का मतलब भाजपा बन गया। हालांकि जयराम ठाकुर और सुखविंद्र सिंह सुक्खू के दौर में ये रिश्ता कमजोर तो पड़ा, पर आईडी लखनपाल जैसे कई नेता अब भी टोपियों के सियासी रंगों के ध्वजवाहक बने हुए है।