जब रास्ते से उठाकर जेल में डाल दिए गए थे शांता कुमार

वह 25 जून 1975 का दिन था। भारत के लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐसा दिन जब पूरी आबादी को चुप करा दिया गया था। देश में आपातकाल लागू हुआ और संविधान की आत्मा को एक सत्तालोभी निर्णय ने कुचल कर रख दिया।
हिमाचल प्रदेश में भी इस तानाशाही की गूंज साफ सुनाई दी। और उसी दिन शांता कुमार को भी बिना किसी जुर्म, बिना किसी वारंट, बस रास्ते से उठाकर जेल में डाल दिया गया।
24 जून 1975 को शांता कुमार घर से शिमला के लिए निकले थे। पत्नी और बच्चों से बस इतना कहा कि "परसों लौट आऊंगा।" लेकिन अगले ही दिन, 25 जून की सुबह देश में आपातकाल की घोषणा हो गई। रास्ते में ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
किसी ने उन्हें कारण नहीं बताया, न कोई आदेश दिखाया। वह बार बार पूछते रहे, "मुझे क्यों गिरफ्तार कर रहे हो?" लेकिन पुलिस का केवल एक ही जवाब था, "ऊपर से आदेश है।"
शिमला से उन्हें सीधे नाहन जेल भेज दिया गया और वहीं से शुरू हुई उनकी 19 महीने लंबी कैद।
जेल में रहते हुए शांता कुमार ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की। उन्होंने कहा, "मुझे बिना कारण कैद में रखा गया है। क्या मुझे जीने का भी अधिकार नहीं?"
सरकार की ओर से जवाब आया, "देश में इमरजेंसी लगी है, अब किसी को कोई अधिकार नहीं है।" उनकी याचिका खारिज कर दी गई। उनकी आवाज अदालतों में भी नहीं सुनी गई। उस समय सच में न अपील थी, न दलील, न वकील।
शांता कुमार के अलावा और भी कई नेताओं को जेल में डाला गया था, जैसे डॉ राधा रमन शास्त्री, जिनकी पत्रिकाएं 'हिमबाला' और 'हिमयुवक' जब्त कर ली गईं। श्यामा शर्मा, जो इमरजेंसी के दौरान गिरफ्तार होने वाली हिमाचल की इकलौती महिला थीं। इसके अलावा स्वर्गीय जगत सिंह नेगी, महेंद्र नाथ सोफत, मुन्नीलाल वर्मा जैसे नेता भी नाहन जेल में एक ही छत के नीचे लोकतंत्र के लिए बंद थे।
आज भी शांता कुमार कहते हैं, "देश में न बम फटा था, न कोई दंगा हुआ था, फिर भी पूरे देश को कैद कर दिया गया। सिर्फ इसलिए कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था।"
उनके अनुसार इमरजेंसी एक राजनीतिक तानाशाही थी। वह कहते हैं कि इंदिरा गांधी की कुर्सी बचाने के लिए देश की आज़ादी को गिरवी रख दिया गया।