यहाँ कण -कण में बस्ते हैं शिव, जटोली में हैं एशिया का सबसे ऊँचा शिव मंदिर
देवधरा हिमाचल में यूँ तो कण-कण में शिव बस्ते हैं, यहाँ अनेक शिवालय हैं, किन्तु सोलन जिले के जटोली स्थित महादेव का मंदिर सबसे अलग है। द्रविड़ शैली में बना ये मंदिर एशिया का सबसे ऊँचा शिव मंदिर हैं और इसका निर्माण पूरा होने में करीब 33 वर्ष का समय लगा।माना जाता हैं कि पौराणिक काल में स्वयं भोलेनाथ इस स्थान पर रुके थे, तत्पश्चात सिद्ध तपस्वी बाबा कृष्णानंद परमहंस ने इस स्थान पर घोर तपस्या की। बाबा कृष्णानंद परमहंस के कहे अनुसार ही वर्ष 1980 में मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हुआ। 2013 में मंदिर को आमजन के दर्शनार्थ हेतु खोला गया, जिसके बाद यहाँ देश -विदेश से आने वाले भक्तों का तांता लगा रहता हैं। ये लोगों की भगवान शिव में अटूट आस्था और स्वामी परमहंस की महानता ही हैं , जो उन्हें जटोली की ओर खींच लाती है।
इसलिए विशेष हैं जटोली मंदिर :-
- 124 फुट ऊंचा यह मंदिर भारत ही नहीं बल्कि एशिया में सबसे ऊंचा शिव मंदिर है।
- 1946 में परम हंस महाराज पहली बार यहा पहुंचे। 1980 में उन्होंने शिवालय की नींव रखी थी। 13 जुलाई 1983 को वे ब्रह्मलीन हो गए।
- मंदिर निर्माण का कार्य हरियाणा निवासी स्वामी के भक्त ने शुरू किया था।
- करोड़ों रुपये से बने इस मंदिर के निर्माण का खर्च भक्तों के चढ़ावे और दान दी गई धनराशि से ही किया गया है।
- करीबन 33 साल चले निर्माण कार्य के उपरांत मंदिर को 24 जनवरी 2013 को भक्तों के दर्शनार्थ हेतु खोल दिया गया।
- मंदिर के गर्भ गृह में शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय विराजमान हैं।
- मंदिर में स्थापित शिवलिंग गुजरात से लाया गया हैं जिसकी कीमत 18 लाख रुपये है। यह शिवलिंग स्फटिक मणि पत्थर यानि क्रिस्टलयुक्त है।
- ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति मंदिर में सात रविवार नियमित रूप से आता है उसकी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।
- कहा जाता है कि मंदिर स्थित जल कुंड के जल के सेवन से कई रोगों से छुटकारा मिलता है।
- स्वामी कृष्णानंद परमहंस ने यहा तपस्या के दौरान इस बात की भविष्यवाणी की थी कि यहां बनने वाले मंदिर के कारण हिमाचल का नाम देश ही विश्व में प्रसिद्ध होगा।
- भक्तों ने अब जटोली मंदिर को ही अपनी चार धाम मान लिया है। यहा पहला धाम कुटिया, दूसरा धाम- सुखताल कुंड, तीसरा धाम-समाधि और फिर चौथा धाम शिवालय मंदिर को माना जाता है।
- 10 जुलाई को हर साल यहा मंदिर परिसर में गुरु महाराज की पुण्यतिथि मनाई जाती है।
बहती हैं अटूट दिव्य जलधारा
वर्ष 1946 में श्रीश्री 1008 स्वामी कृष्णा नंद परमहंस महाराज वर्तमान पाकिस्तान ( तब हिन्दुस्तान) से जटोली में भ्रमण करने आए थे। प्रकृति की गोद में बसा ये स्थान परमहंस महाराज को तप के लिए भा गया। वह दिन भर कुंड वाले स्थान पर बैठकर तप करते और रात को गुफा में जाकर सो जाते थे। भक्ति में लीन महाराज परमहंस ने कुछ समय बाद यही धूणा लगा लिया। धीरे -धीरे लोगों को महाराज के बारे में ज्ञात हुआ और वे उनके दर्शनार्थ पहुँचने लगे। कहा जाता हैं कि उस दौरान इस क्षेत्र में कोई पेयजल का स्तोत्र नहीं था, इसलिए महाराज परहंस ने क्षेत्र में पानी के लिए तप किया और कुछ ही दिनों बाद पानी की अटूट दिव्य धारा बहने लगी। यह जलधारा अब भी मौजूद है।