कुल्लू में मनाया जाता हैं देश का अनोखा दशहरा, नहीं जलता रावण का पुतला

अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा जिसे विजय दशमी भी कहा जाता है, 2 से 8 अक्टूबर तक धूमधाम व हर्षोल्लास से मनाया जाएगा। कुल्लू दशहरे की यह विशेषता है कि पूरे देश में दशहरे का समापन और कुल्लू में आगाज होता है। यहां पर सात दिनों तक मोहल्ला, लंका आदि उत्सवों को मनाते हुए परंपरा का निर्वन होगा। कुल्लू भारत का एकमात्र ऐसा दशहरा मनाया जाता है, जहां विजयदशमी के दिन रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतले नहीं जलाए जाते। दशहरा उत्सव के सातवें दिन अर्थात लंका बेकर में अष्टांग बलि के साथ ही तीन झाड़ियों को जलाया जाता है। प्रतीक के रूप में रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के मुखौटे जलाए जाते हैं। कुल्लू में श्री राम द्वारा स्वयं अश्वमेध यज्ञ के लिए बनवाई गई अपनी व अर्धांगिनी की मूर्ति हैं, जबकि अयोध्या में राम लला (बाल रूप) की मूर्ति है। कुल्लू में श्री राम की जो मूर्ति है, वह इसरो के मुताबिक साढ़े 17 लाख वर्ष पुरानी मानी गई है।
जब भगवान रघुनाथ जी की मूर्ति अयोध्या से पौणीहारी बाबा तथा दामोदर दास ने कुल्लू पहुंचाई थी और राजा जगत सिंह का कुष्ट रोग मूर्ति के चरणामृत को पीने से ठीक हो गया था तब राजा जगत सिंह ने कुल्लू में प्रचलित शैव मत के स्थान पर वैष्णव मत की स्थापना की तब से निरंतर कुल्लू दशहरा का आयोजन होता रहा। आरंभ में रघुनाथ जी की मूर्ति मणिकर्ण लाई गई वहां पर दशहरा होता रहा जो आज भी निरंतर है। मणिकर्ण के बाद मूर्ति नग्गर ले जाई गई, वहां भी दशहरा होता है। उसके बाद जब कुल्लू के सुल्तानपुर में मूर्ति स्थापित की गई तब से दशहरा ढालपुर में मनाया जा रहा है। जिसे आज अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है।
कुल्लू दशहरा में रघुनाथ जी की रथ यात्रा होती है, जिसमें रघुनाथ जी की मूर्ति के साथ रथ में अयोध्या से लाए पुरोहित भी बैठते हैं। रथ को एक निश्चित स्थान पर स्थापित करके दशहरा उत्सव का शुभारंभ किया जाता है। इसमें गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकाॅर्ड में शामिल अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कुल्लवी नाटी के साथ लालड़ी जैसे स्थानीय लोक नृत्य भी किए जाते हैं। कुल्लू दशहरा में प्रारंभ में 365 मुआफीदार देवी देवता आते थे, परंतु वर्तमान में 250 के लगभग देवी देवता अपने कारकूनों, बजंतरियों के साथ नाटी डालते हुए आते हैं।