भारत की वो वीरांगनाएं, जिन्होंने देश की आजादी के लिए दिया त्याग और बलिदान
15 अगस्त, 1947 को देश अंग्रेजी शासन से आजाद हुआ था, लेकिन ये आजादी इतनी आसानी से नहीं मिली थी। भारत के वीर सपूतों ने खून पसीना एक कर अंग्रेजों से इस आजादी को पाया था। आजादी की इस लड़ाई में पुरुषों के साथ महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। देश को आजाद करने के लिए उस वक्त कई आंदोलन हुए थे, इन आंदोलनों में जहां पुरुषों का हिस्सा लेना आसान था, तो महिलाओं के लिए उतना ही मुश्किल। उस समय आंदोलन में भाग लेने का मतलब समाज में बरसों से चली आ रही कई प्रथाओं को तोड़ना था। बावजूद इसके देश की वीरांगनाओं ने आजादी की इस लड़ाई में पुरुषों के साथ कंधें से कंधा मिलाया।
कस्तूरबा गांधी को जेल भी जाना पड़ा था
भारत के बापू के तौर पर दुनियाभर में मशहूर मोहनदास करमचंद गांधी को तो हर कोई जानता है। महात्मा गांधी की सीख, अहिंसा, सत्य और आदर्श को लोग जानते, समझते हैं। देश की आज़ादी के लिए संघर्ष भरी राह में महात्मा गांधी का साथ एक महिला ने दिया। ये महिला कोई और नहीं बल्कि महात्मा गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी थीं। कस्तूरबा गांधी भारत की महिला स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी स्थान रखती हैं। उन्होंने अपने पति की हर कठिनाई और समस्या में साथ दिया। उन्होंने भारत की महिलाओं में देश प्रेम की भावना को जागृत किया। उन्होंने नागरिक अधिकारों के लिए अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई। अपने पति की तरह उन्होंने सभी स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर काम किया। जब महात्मा गांधी अंग्रेजों के खिलाफ धरना देते, प्रदर्शन करते तो वे हमेशा महात्मा गांधी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहतीं। यही नहीं आज़ादी की लड़ाई में कस्तूरबा गांधी को जेल भी जाना पड़ा था। कहा जाता है कि विदेश से लौटकर महात्मा गांधी ने देश की आजादी के लिए संघर्ष शुरू किया था तब कस्तूरबा ने उनका साथ दिया। महात्मा गांधी उपवास करते, धरना प्रदर्शन करते तो कस्तूरबा उनकी देखभाल करतीं। कस्तूरबा गांधी ने न केवल पत्नी धर्म को पूरा किया, अपितु खुद भी एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की तरह कार्य किया। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ जब महात्मा गांधी ने आंदोलन छेड़ा था तो उस समय कस्तूरबा गांधी भी जेल गई थीं। महात्मा गांधी जो करते वह सबके सामने था, लेकिन कस्तूरबा उनके पीछे रहकर उन्हें घर गृहस्थी छोड़ केवल देश सेवा में लगे रहने के लिए मजबूती देती थीं।
आजादी के लिए आवाज उठाने वाली सरोजिनी नायडू
'सरोजिनी नायडू' ये वो नाम है, जिसने अपनी रचनाओं के साथ लाख दिलों को छुआ, वह एक महान कवयित्री, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और एक कुशल राजनीतिज्ञ थी। सरोजिनी नायडू को भारतीय कोकिला के नाम से भी जाना जाता है। देश की आजादी की जंग में अहम भूमिका निभाने वाली नायडू ने अपने कलम के सहारे भी महिला सशक्तिकरण और समान अधिकार की आवाज उठाई थी। उन्होंने भारत देश में छोटे गांव से लेकर बड़े शहरों तक पूरे राज्य में हर जगह महिलाओं को जागरूक किया था। सरोजिनी नायडू वर्ष 1925 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में अध्यक्ष के पद पर चुनी गई थी। गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में वह उनके साथ जेल भी गई थी। भारत छोड़ो आंदोलन में वर्ष 1942 में सरोजिनी नायडू को 21 महीने के लिए जेल भी जाना पड़ा था। सरोजिनी नायडू एक पहली महिला थी जो स्वतंत्रा के बाद राज्यपाल बनी थी। उत्तर प्रदेश राज्य के राज्यपाल घोषित होने के बाद वह लखनऊ राज्य में बस गई थी। सरोजिनी नायडू न केवल आजादी और राजनीति में आगे थी बल्कि लेखन में भी इनका गहरा रुझान था। सरोजिनी नायडू ने अपने जीवन काल में कई मशहूर किताबें भी लिखी थी।
भीकाजी कामा ने विदेश में पहली बार फहराया था भारत का झंडा
भारत की आजादी से चार दशक पहले, साल 1907 में विदेश में पहली बार भारत का झंडा एक औरत ने फहराया था। 46 साल की पारसी महिला भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में हुई दूसरी 'इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस' में झंडा फहराया था। ये भारत के आज के झंडे से अलग, आज़ादी की लड़ाई के दौरान बनाए गए कई अनौपचारिक झंडों में से एक था। बाद में इसी झंडे के आधार पर भारत का राष्ट्रीय ध्वज तैयार किया गया था। उन्होंने देश के लिए सेवा में किसी तरह के कसर नहीं छोड़ी और दुनिया भर में देश की आजादी के लिए भारत का पक्ष रखा। कहा जाता है कि भीकाजी कामा को भारत के झंडे के स्थान पर ब्रिटिश झंडा स्वीकार नहीं हुआ। उन्होंने तुरंत भारत का एक नया झंडा बनाया और सभा में फहराया। झंडा फहराते हुए भीकाजी ने कहा कि ये भारत का झंडा है जो भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। झंडा फरहाने के बाद उन्होंने एक शानदार भाषण दिया जिसमें कहा था 'ऐ संसार की कौम, ऐ संसार के कॉमरेड्स, देखो ये भारत का झंडा है, यही भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, इसे सलाम करो।' मैडम कामा की एक और चर्चित उपलब्धि 22 अगस्त 1907 की मानी जाती है, जब उन्होंने जर्मनी केस्टुटगार्ड में आयोजित सेकेंड सोशलिस्ट कांग्रेस में दुनिया के सामने भारत में आए आकाल और उसके दुष्प्रभावों को रखा और मानव अधिकारों वाली अपनी अपील में अंग्रेजी हुकूमत से भारत के लिए समानता और आत्मशासन की मांग की। 1935 में भीकाजी कामा भारत लौटीं। उनकी तबीयत ठीक नहीं थी, लेकिन उस वक्त भी देश प्रेम और स्वतंत्रता हासिल करने का जोश कम नहीं था। बताया जाता है कि उनके आखिरी शब्द 'वंदे मातरम' थे। 13 अगस्त, 1936 को मुंबई के पारसी जनरल अस्पताल में मैडम कामा का निधन हो गया था।
देश की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले
सावित्रीबाई फुले का नाम भला कौन नहीं जानता? यह देश की पहली महिला शिक्षिका बनी थी। इन्होंने ही समाज में महिलाओं के लिए शिक्षा की ज्योति जलाई थी। सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में हुआ था। भारतीय स्त्री आंदोलन की यात्रा में सावित्री बाई फुले ने अहम भूमिका निभाई थी। सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिबा फुले संग मिलकर स्त्रियों के अधिकारों एवं उन्हें शिक्षित करने के लिए क्रांतिकारी प्रयास किए। उन्हें भारत की प्रथम कन्या विद्यालय की पहली महिला शिक्षिका होने का गौरव हासिल है। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत भी माना जाता है। उन्होंने देश के पहले किसान स्कूल की भी स्थापना की थी। 1852 में उन्होंने दलित बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की थी। साल 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में देश के सबसे पहले बालिका स्कूल की स्थापना इन्होंने ने ही की थी। पुणे के भिड़ेवाड़ी इलाके में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के लिए इस विद्यालय की स्थापना की। इसके बाद सिर्फ एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले 5 नए विद्यालय खोलने में सफल हुए। पुणे में पहले स्कूल खोलने के बाद फुले दंपती ने 1851 में पुणे के रास्ता पेठ में लड़कियों का दूसरा स्कूल खोला और 15 मार्च, 1852 में बताल पेठ में लड़कियों का तीसरा स्कूल खोला। बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए इन्हें समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब इन्हें समाज के ठेकेदारों के पत्थर भी खाने पड़े।
महज 8 साल की उम्र में आजादी की लड़ाई कूद पड़ी थी उषा मेहता
कम उम्र में आजादी की लड़ाई लड़ने वाली महिला का नाम उषा मेहता था। 24 फरवरी, 1920 को जन्मी मेहता अपने पिता के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने से इतनी प्रेरित हुईं कि वह बचपन से ही राजनीति में आ गईं, यहां तक कि उन्होंने खुद को वानर सेना के अन्य छोटे बच्चों के साथ पुलिस लॉकअप में भी पाया। मेहता चार भाषाओं अंग्रेजी, गुजराती, हिंदी और मराठी में पारंगत थीं और उन्होंने विल्सन कॉलेज में वाद-विवाद और भाषण कला में अपनी पहचान बनाई। मेहता ने पढ़ाई छोड़ने के बाद खुद को पूरी तरह से स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित कर दिया था। 1940 के दशक में, उषा मेहता कांग्रेस की सदस्य बन गईं और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सविनय अवज्ञा के कृत्यों की योजना बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ काम करना शुरू कर दिया। उषा मेहता का नाम जब भी लिया जाता है तो वो समय भी याद आ जाता है जब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने पहला रेडियो प्रसारण चलाया था। अंग्रेजी हुकूमत ने 9 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी समेत सभी कांग्रेसियों को जेल में बंद कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने भारत में चलने वाले सभी रेडियो ब्रॉडकास्टिंग लाइसेंस को भी रद्द कर दिया। सबसे पहला गुप्त रेडियो प्रसारण 27 अगस्त 1942 को बॉम्बे चौपाटी में सीव्यू बिल्डिंग के सबसे ऊपर वाली मंजिल पर एक ट्रांसमीटर के साथ किया गया। इस पहले प्रसारण में उषा मेहता देश की आवाज बनी । उन्होंने कहा 'आप सुन रहे हैं 41.78 मीटर बैंड जिसे एक अनजान जगह से प्रसारित किया जा रहा है। यह इंडियन नेशनल कांग्रेस का रेडियो है।' इस रेडियो प्रसारण में भारत छोड़ो आंदोलन से लेकर देश में ब्रिटिश सरकार की करतूतों के बारे में बताया जाने लगा था। इस गुप्त रेडियो प्रसारण की जगह को हर दिन बदल दिाय जाता था, ताकि ब्रिटिश हुकूमत उन तक पहुंच न पाए। इस गुप्त रेडियो का ट्रांसमिटर पहले 10 किलोवॉट था फिर उसे 100 किलोवॉट कर दिया गया। अंग्रेजों से बचने के लिए 3 महीने तक चलने वाले गुप्त रेडियो स्टेशन को 7 अलग-अलग जगहों से प्रसारित किया गया।