25 किलोमीटर की सीधी चढ़ाई चढ़ने के बाद होते हैं श्रीखंड महादेव पर्वत के दर्शन हिमाचल प्रदेश को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहां देवी-देवताओं के कई मंदिर हैं। इनमें से श्रीखंड महादेव मंदिर हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में भगवान शिव को समर्पित है। श्रीखंड महादेव दुनिया के सबसे ऊंचाई पर स्थित धार्मिक स्थलों में से एक है। समुद्रतल से लगभग 18,300 फीट की ऊंचाई पर स्थित श्रीखंड महादेव पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को 25 किलोमीटर की सीधी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। श्रीखंड महादेव मंदिर की यात्रा को अमरनाथ यात्रा से भी दुर्गम माना जाता है। बावजूद इसके बड़ी संख्या में श्रद्धालु श्रीखंड महादेव के दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं। लोगों का विश्वास है कि इस स्थान पर भगवान शिव का वास है। श्रीखंड पर्वत को पंच कैलाशों में से एक माना जाता है। यहां प्राकृतिक शिवलिंग स्थापित है। मान्यता है कि भस्मासुर नाम के राक्षस को भगवान शिव से वरदान मिला था कि वह जिस भी जीव के सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा। वरदान पाकर भस्मासुर घमंडी हो गया और भगवान शिव को ही भस्म करने की कोशिश करने लगा। ऐसे में भगवान शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए निरमंड के देओढांक में स्थित एक गुफा में शरण ली। भगवान शिव कई महीनों तक इस गुफा में रहे। जब भगवान विष्णु ने मोहिनी नाम की एक सुंदर महिला का रूप धारण कर भस्मासुर का वध कर दिया, तो सभी देवता गुफा के बाहर पहुंचे और भगवान शिव से बाहर आने की विनती की। लेकिन भगवान शिव गुफा से बाहर नहीं आ पा रहे थे। जिसके बाद वह एक गुप्त रास्ते से होते हुए इस पर्वत की चोटी पर शक्ति रूप में प्रकट हो गए। मान्यता है कि जब भगवान शिव यहां से जाने लगे तो एक जोरदार धमाका हुआ। जिसके बाद शिवलिंग आकार की एक विशाल शिला बच गई। इसे ही शिवलिंग मानकर उसके बाद पूजा जाने लगा। इसके साथ ही यहां दो अन्य चट्टाने भी हैं, जिन्हें मां पार्वती और भगवान गणेश के नाम से पूजा जाता है। श्रीखंड महादेव की यात्रा के मार्ग में निरमंड में सात मंदिर, जाओं में माता पार्वती का मंदिर, परशुराम मंदिर, दक्षिणेश्वर महादेव, हनुमान मंदिर अरसु, जोताकली, बकासुर वध, ढंक द्वार जैसे पवित्र स्थान भी आते हैं। मार्ग में आने वाले पार्वती बाग में श्रद्धालुओं को दुर्लभ ब्रह्म कमल के दीदार होते हैं। यहां पार्वती झरना भी दर्शनीय है। माना जाता है कि मां पार्वती इस झरने का स्नानागार के रूप में इस्तेमाल करती थीं। बता दें कि श्रीखंड महादेव की यात्रा बेहद दुर्गम मार्ग से होकर गुजरती है। यहां ऑक्सीजन की कमी के चलते कई बार श्रद्धालुओं की मौत भी हो जाती है। जिसके बाद श्रीखंड महादेव ट्रस्ट ने यात्रा करने वाले श्रद्धालुओं की आयु सीमा भी तय की गई है। साथ ही ट्रस्ट ने यह भी तय किया है कि किसी भी यात्री को उनकी फिटनेस देखकर ही श्रीखंड महादेव की यात्रा के लिए अनुमति दी जाएगी। ट्रस्ट, प्रशासन के सहयोग से श्रीखंड महादेव यात्रा का आयोजन करता है। यात्रा के तीन पड़ाव में सिंहगाड़, थाचड़ू, और भीम डवार हैं। श्रीखंड महादेव तक कैसे पहुंचे श्रीखंड महादेव तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को कई पड़ाव पार करके यात्रा करनी पड़ती है। सबसे पहले शिमला जिले के रामपुर से कुल्लू जिले के निरमंड होकर बागीपुल और जाओं तक गाड़ियों और बस से पहुंचना पड़ता है। यहां से आगे करीब 30 किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। श्रीखंड महादेव से नजदीकी हवाई अड्डा लगभग 53 किलोमीटर दूर भुंतर हवाई अड्डा है। वहीं 76 किलोमीटर दूर शिमला में जुब्बरहट्टी हवाई अड्डा और छोटी लाइन का रेलवे स्टेशन भी है। इसके अलावा लगभग 90 किलोमीटर दूर जोगिंदरनगर में भी छोटी लाइन का स्टेशन है।
देवभूमि हिमाचल प्रदेश पर्यटन की दृष्टि से तो खूबसूरत है ही, यहां का इतिहास भी शानदार है। ब्रिटिश राज के समय हिमाचल के कई शहरों को अंग्रेजों ने विकसित किया था जहां आज भी उनकी छाप दिखाई देती है। खुद में अनूठा इतिहास समेटे ऐसा ही एक खूबसूरत शहर है डलहौजी। हिमाचल का डलहौजी लोकप्रिय विश्व पर्यटन केंद्र है जो भारतीय और अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों को आकर्षित करता है। यहां स्कॉटिश और विक्टोरियन वास्तुकला की हवा की महक और परिवेश ब्रिटिश काल की याद दिलाते है। अंग्रेज यहां की प्राकृतिक सुंदरता को देखकर मंत्रमुग्ध हो उठे थे। डलहौजी हिल स्टेशन गर्मियों के समय अंग्रेजों के सबसे पसंदीदा स्थानों में से एक था, जिसकी वजह से इस क्षेत्र में राजसी विक्टोरियन शैली दिखाई देती है। डलहौजी देश के भीड़ वाले शहरों से दूर अपनी तरह का एक अद्भुत शहर है जो आपको प्रकृति की गोद में होने का अनुभव करवाता है और एक प्रदूषण मुक्त वातावरण प्रदान करता है। डलहौजी को हिमाचल प्रदेश की चम्बा घाटी का प्रवेश द्वार माना जाता है। अंग्रेजी हुकूमत के समय एक स्वास्थ्यव?र्द्धक क्षेत्र के रूप में उभरा डलहौजी आज विश्वभर में एक सुप्रसिद्ध पर्यटक स्थल के रूप में जाना जाता है। यहां पंजपूला, सुभाष बावड़ी, सतधारा व कलातोप खजियार अभयारण्य आदि पर्यटक स्थल विद्यमान हैं। लार्ड डलहौजी के नाम पर हुआ शहर का नामकरण डलहौजी 1854 में अस्तित्व में आया था जब ब्रिटिश शासन के दौरान पांच पहाड़ियों को चंबा के राजा से प्राप्त किया गया। बैलून, कथलग, पोटरियां, टिहरी और बकरोटा इन खूबसूरत पांच पहाड़ियों पर डलहौजी बसा है। सन 1854 में ब्रिटिश सेना के कर्नल नेपियर ने डलहौजी को ब्रिटिश सेना और अधिकारियों के लिए यहां की जलवायु को देखते हुए हेल्थ रिसोर्ट के रूप में चुना था। डलहौजी पहले पंजाब के गुरदासपुर के अंतर्गत आता था, लेकिन 1966 में हिमाचल प्रदेश के पुनर्गठन के समय हिमाचल के चंबा में शामिल हो गया। डलहौजी का नाम लार्ड मैकलियोड के कहने पर 1854 में भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड डलहौजी के नाम पर रखा गया, जबकि लार्ड डलहौजी कभी भी डलहौजी नहीं आए। 1863 में जीपीओ जिसे गांधी चौक के नाम से भी जाना जाता है, यहां पहले चर्च सेंट जॉन का निर्माण किया गया। 1870 में डलहौजी में बुलज हेड के नाम से पहला होटल बना जिसे अब होटल माउंट व्यू के नाम से जाना जाता है। 1873 में रविंद्र नाथ टैगोर डलहौजी आए और उन्हें गीतांजलि लिखने की प्रेरणा मिली। 1884 में रुडयार्ड किपलिंग डलहौजी आए। तभी से यह प्रसिद्ध पर्यटक स्थल के रूप में जाना जाने लगा। 1954 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू डलहौजी के सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य पर होने वाले कार्यक्रम में भाग लेने डलहौजी आए। 1959 में तिब्बती शरणार्थी डलहौजी में बसे। सन 1962 ,1988 में दलाई लामा ने भी डलहौजी का दौरा किया। 1966 में जब से डलहौजी हिमाचल प्रदेश का एक हिस्सा बना है तब से यह दुनिया के एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल के रूप में जाना- जाने लगा है।1937 में सुभाष चंद्र बोस डलहौजी स्वास्थ्य लाभ के लिए आए थे। नेताजी का रहा है खास नाता 1937 में जब अंग्रेजों की कैद में रहते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस को क्षय रोग हो गया था तब नेताजी डलहौजी आये थे। क्षय रोग होने के कारण अंग्रेजों ने उन्हें रिहा कर दिया था और रिहा होने के बाद वे डलहौजी आ गए थे। यहां रहकर उनके स्वास्थ्य में सुधार हुआ और उन्हें काफी राहत मिली। नेताजी यहां लगभग 5 महीने रुके थे और वे जिस होटल और कोठी में ठहरे थे, वह आज भी मौजूद हैं। उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए बेड, कुर्सी, टेबल और अन्य सामान भी संभालकर रखा गया है। नेताजी जिस कमरे में ठहरे थे, वहां अब लोगों का जाना वर्जित है। नेताजी डलहौजी के सबसे पुराने गांधी चौक पर स्थित होटल मेहर के कमरा नंबर 10 में रहे थे। इसी दौरान जैन धर्मवीर को नेताजी के डलहौजी का आने का पता चल गया और उन्होंने नेताजी से गांधी चौक के पास पंजपुला मार्ग पर स्थित कोठी कायनांस में रहने का आग्रह किया, जिसे नेताजी ने मान लिया। नेताजी होटल छोड़कर कोठी में रहने चले गए। जैन धर्मवीर, नेताजी के सहपाठी रहे कांग्रेस नेता डॉ. धर्मवीर की पत्?नी थीं। कोठी जाते समय नेताजी का शहरवासियों ने भव्य स्वागत किया था। 5 महीने नेताजी डलहौजी में रहे और इस दौरान वे रोजाना करेलनू मार्ग पर सैर करते थे और बावड़ी का पानी ही पीते थे। बावड़ी के पास मौजूद जंगल में बैठकर प्रकृति से संवाद करते थे। नियमित सैर और बावड़ी का पानी पीकर नेताजी को काफी स्वास्थ्य लाभ हुआ। बावड़ी को आज भी सुभाष बावड़ी के नाम से जाना जाता है। शहर के एक चौक का नाम भी नेताजी के नाम पर सुभाष चौक रखा गया है। चौक पर नेताजी की विशाल प्रतिमा लगी हुई है। स्वस्थ होने पर नेताजी डलहौजी से लौट गए थे। सुभाष बावड़ी का जल पीकर स्वस्थ हुए थे नेताजी सुभाष बावड़ी डलहौजी में गांधी चौक से एक किमी दूर स्थित एक ऐसी जगह है जिसका नाम प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस के नाम पर रखा गया।है। यह खूबसूरत स्थान डलहौजी में 6678 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और बर्फ से ढके पहाड़ों का खूबसूरत नजारा पेश करता है। सुभाष बावड़ी वो जगह है जहाँ पर सुभाष चंद्र बोस 1937 में स्वास्थ्य की खराबी के चलते आये थे और वो इस जगह पर 7 महीने तक रहे थे। इस जगह पर रह कर वे बिलकुल ठीक हो गए थे। माना जाता है कि सुभाष चंद्र बोस डलहौजी की यात्रा करते थे तो वह इस स्थान पर आते थे। यहाँ पर एक खूबसूरत झरना भी है जो हिमनदी धारा में बहता है। बकरोटा हिल्स में ठहरे थे गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर बकरोटा हिल्स डलहौजी के सबसे आकर्षक पर्यटन स्थलों में से एक है। बकरोटा हिल्स को अपर बकरोटा के नाम से भी जाना जाता है, यह डलहौज़ी का सबसे ऊंचा इलाका है और यह बकरोटा वॉक नाम की एक सड़क का सर्किल है, जो खजियार की ओर जाती है। पूरा क्षेत्र देवदार के पेड़ों से घिरा हुआ है। अंग्रेजों के समय बकरोटा में कई भव्य इमारतों का निर्माण हुआ था, जो करीब पौने दो सौ साल बाद भी भव्य शैली को कायम रखे हुए हैं। बकरोटा का संबंध रविंद्रनाथ टैगोर से भी रहा है। वह 1873 में 12 वर्ष की आयु में पिता महर्षि देवेंद्र नाथ टैगोर के साथ डलहौजी आए थे और स्नोडन नामक कोठी में ठहरे थे। बकरोटा हिल्स में लोग ट्रैकिंग करना पसंद करते हैं क्योंकि यह खूबसूरत नजारों से भरपूर है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में देश की तीन महान शख्सियतों को भारत रत्न देने की घोषणा की है। इनमें से एक हैं स्व. चौधरी चरण सिंह। वे भारत के पांचवें प्रधानमंत्री थे। उन्हें किसानों का मसीहा भी कहा जाता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों के अधिकारों और लोकतंत्र के प्रति उनके समर्पण की सराहना करते हुए उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न देने की घोषणा की। भारतीय राजनीति के एक प्रमुख व्यक्तित्व चरण सिंह ने एक स्थायी विरासत छोड़कर उत्तर प्रदेश में भूमि सुधारों का समर्थन किया। उनका जन्म 23 दिसंबर,1902 को हुआ था और 84 साल की उम्र में 29 मई, 1987 को उनका निधन हो गया था। चौधरी चरण सिंह 28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक केवल साढ़े पांच महीने देश के प्रधानमंत्री रहे। उनका का पैतृक गांव यूपी के जिला हापुड़ में पड़ता था। जन्म के बाद उनका बचपन मेरठ जिले के भूपगढ़ी गांव में गुजरा। करीब 6 साल की उम्र में ये अपने ताऊ के पास आकर रहने लगे थे। भूपगढ़ी गांव के पास ही जानी खुर्द गांव के सरकारी स्कूल में वे पढ़ने आते थे। जो उनके गांव से करीब 3 किलोमीटर दूर है। वह पैदल ही गांव से दूसरे बच्चों के साथ पैदल आते थे। वे यहां कक्षा 4 तक ही पढ़ाई की, उसके बाद वह अपने मां-बाप के पास नूरपुर चले गए थे। अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में शामिल हुए, जेल भी गए कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन 1929 में पूर्ण स्वराज्य उद्घोष से प्रभावित होकर युवा चरण सिंह ने गाजियाबाद में कांग्रेस कमेटी का गठन किया। 1930 में महात्मा गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत नमक कानून तोड़ने का आह्वान किया गया। महात्मा गाधी ने ''डांडी मार्च'' किया। आजादी के दीवाने चरण सिंह ने गाजियाबाद की सीमा पर बहने वाली हिंडन नदी पर नमक बनाया। परिणामस्वरूप चरण सिंह को 6 माह की सजा हुई। जेल से वापसी के बाद चरण सिंह ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वयं को पूरी तरह से स्वतंत्रता संग्राम में समर्पित कर दिया। 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी चरण सिंह गिरफ्तार हुए फिर अक्टूबर 1941 में मुक्त किये गये। जिला कारागार में उन्हें बैरक नंबर 9 में रखा गया था। आज इस जिला कारागार का नाम भी चौधरी चरण सिंह के नाम पर ही है। भारत के सबसे बड़े जाट नेताओं में से एक चौधरी चरण सिंह को अक्सर भारत के सबसे बड़े जाट नेताओं में से एक माना जाता है। आज, राजनीतिक रूप से शक्तिशाली जाट यूपी, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली में फैली लगभग 40 लोकसभा सीटों और लगभग 160 विधानसभा सीटों पर परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। वह यूपी के अब तक के एकमात्र जाट सीएम हैं। हालांकि, उनका प्रभाव सिर्फ जाट समुदाय तक ही सीमित नहीं था। व्यापक रूप से किसानों के समर्थक के रूप में पहचाने जाने वाले चरण सिंह को उत्तर भारत में कृषक समुदायों को शामिल करते हुए एक नया राजनीतिक वर्ग बनाने का श्रेय दिया जाता है, जिसका प्रभाव आज भी महसूस किया जाता है।
केंद्र सरकार ने वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन को भारत रत्न (मरणोपरांत) देने की घोषणा की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स पर ट्वीट कर यह जानकारी दी है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी में लिखा, 'स्वामीनाथन के दूरदर्शी नेतृत्व ने न केवल भारतीय कृषि को बदला, बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा और समृद्धि भी सुनिश्चित की है। हम मार्गदर्शक के रूप में उनके अमूल्य कार्य को भी पहचानते हैं जो हमेशा छात्रों को सीखने और शोध करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।' एमएस स्वामीनाथन का पिछले साल 98 वर्ष की आयु में 28 सितंबर को चेन्नई में निधन हो गया था। कृषि क्षेत्र में सराहनीय भूमिका के लिए उन्हें पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है। हरित क्रांति के जनक 7 अगस्त, 1925 को तमिलनाडु के कुंभकोणम में जन्मे डॉ. स्वामीनाथन को भारत में हरित क्रांति का जनक कहा जाता है। उनका पूरा नाम डॉ मनकोंबू संबासिवन स्वामीनाथन था। स्वामीनाथन को 1943 के बंगाल में आए भीषण अकाल ने झकझोर कर रख दिया था। इसके बाद ही उन्होंने जीव विज्ञान की पढ़ाई छोड़कर कृषि विज्ञान की पढ़ाई शुरू कर दी। स्वामीनाथन ने 1949 में आलू, गेहूं, चावल और जूट के जेनेटिक शोध कर अपना करियर शुरू किया था।उन्होंने धान की अधिक उपज देने वाली किस्मों को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे भारत के कम आय वाले किसानों को अधिक उपज करना आसान हो सका। भारत को कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाया स्वामीनाथन ने भारत में हरित क्रांति की सफलता के लिए 1960 और 70 के दशक के दौरान सी सुब्रमण्यम और जगजीवन राम सहित कृषि मंत्रियों के साथ काम किया। इस कारण 1967-68 और 2003-04 के मध्य गेहूं के उत्पादन में 3 गुना से अधिक की वृद्धि हुई थी। इसी तरह अनाज के कुल उत्पादन में 2 गुना वृद्धि हुई थी। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने कृषि क्षेत्र में उनके योगदान के कारण ही इकॉनॉमिक इकॉलोजी का जनक कहा था। मैग्सेसे सहित मिले कई बड़े पुरस्कारों दिवंगत वैज्ञानिक स्वामीनाथन को 1971 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार और 1986 में अल्बर्ट आइंस्टीन विश्व विज्ञान पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्हें 1987 में पहले विश्व खाद्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके बाद 1988 में चेन्नई में स्वामीनाथन रिसर्च फांउडेशन की स्थापना की थी।इसके अलावा उन्हें पद्म श्री, पद्म भूषण और एच के फिरोदिया पुरस्कार, लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय पुरस्कार और इंदिरा गांधी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।
हिमालय की गोद में बसा खूबसूरत पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश बर्फ से ढकी पहाड़ियों, घाटियों और वादियों के लिए दुनियाभर में मशहूर है। यहां हर साल लाखों पर्यटक घूमने के लिए आते हैं। यहां बहुत से ऐसे हिल स्टेशन हैं, जिन्हें बसाने का श्रेय अंग्रेजों को जाता है जैसे शिमला, डलहौजी, कसौली आदि। एक ऐसा ही हिल स्टेशन राज्य की दूसरी राजधानी धर्मशाला के पास बसा है। इस हिल स्टेशन का नाम है मैकलोडगंज। सन 1905 में कांगड़ा जिले में बेहद भयंकर भूकंप आया, जिसने न सिर्फ पहाड़ियों में बसे खूबसूरत हिल स्टेशन मैकलोडगंज, बल्कि पूरे कांगड़ा को उजाड़ दिया। भूकंप के बाद जब मैकलोडगंज पूरी तरह तबाह हो गया तो फिर यहां तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने काफी कार्य किया। उन्होंने शहर को दोबारा पूरी तरह से बसाया। दलाई लामा के इस शहर में प्रभाव होने के कारण ही इस शहर में हिंदू संस्कृति के साथ ही तिब्बती सभ्यता भी देखने को मिलती है। ऐसे पड़ा मैकलोडगंज नाम 18वीं सदी की बात है, भारत में ब्रिटिश राज था और यहां दूसरा आंग्ल-सिख युद्ध चल रहा था। उस समय पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर डेविड मैकलोड थे। डेविड मैकलोड मूलता स्कॉटलैंड से थे, उन्हें यह जगह अपने गृह नगर स्कॉटलैंड जैसी ही लगी। इसके बाद डेविड मैकलोड के नाम पर ही इस जगह का नाम मैकलोडगंज रख दिया गया। तबसे इस हिल स्टेशन को मैकलोडगंज कहा जाने लगा। लिटिल ल्हासा के नाम से भी है मशहूर तिब्बती सरकार में निर्वासन का मुख्यालय मक्लोडगंज में है। तिब्बतियों की बड़ी आबादी के कारण इसे लिटिल ल्हासा या ढसा (मुख्य रूप से तिब्बतियों द्वारा धर्मशास्त्र का एक छोटा रूप) के रूप में जाना जाता है। इसकी औसत ऊंचाई 2,082 मीटर (6,831 फीट) है। यह धौलाधार रेंज पर स्थित है, जिसका उच्चतम शिखर, हनुमान का टीब्बा, लगभग 5,639 मीटर (18,500 फीट) पर स्थित है। प्रसिद्ध पर्यटन स्थल भागसुनाथ मंदिर: मैकलोडगंज का एक प्रमुख दर्शनीय स्थल है भागसुनाथ मंदिर, जो सुंदर ताल और हरियाली से घिरा हुआ है। यह मंदिर मैकलोडगंज से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण राजा भागसू द्वारा भगवान शिव और स्थानीय देवता भागसू नाग के समर्पण में बनाया गया था। भागसुनाथ मंदिर समुद्र तल से 1770 मीटर की ऊंचाई पर स्थित और यहां साल भर बड़ी संख्या में भक्त और पर्यटक आते हैं। भागसू फॉल्स : यह मैकलोडगंज के पास का सबसे प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है जो धर्मशाला में स्थित है। यह पर्यटक स्थल हर साल देश भर के उन पर्यटकों को आकर्षित करता है, जो एक प्रकृति प्रेमी हैं। जो भी पर्यटक एक शांति वाली जगह की तलाश कर रहे हैं और प्रकृति के अद्भुद नजारों को देखने चाहते हैं उनके लिए भागसू फॉल्स एक बहुत ही अच्छी जगह है। नामग्याल मठ : नामग्याल मठ मैकलोडगंज का एक प्रमुख दर्शनीय स्थल है, जो तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा का निवास स्थान है। नामग्याल मठ सबसे बड़ा तिब्बती मंदिर भी है जिसकी नींव 16 वीं शताब्दी में दूसरे दलाई लामा द्वारा रखी गई थी और इसे भिक्षुओं द्वारा धार्मिक मामलों में दलाई लामा की मदद करने के लिए स्थापित किया गया था। त्रियुंड: मैकलोडगंज से लगभग 9 किलोमीटर दूर त्रियुंड एक लोकप्रिय ट्रेक है। यह जगह काफी ऊंचाई पर स्थित है जो आपको हिमालय में ट्रेकिंग का अनुभव देती है। डल झील : मैकलोडगंज के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है डल झील, जो हिमाचल प्रदेश कांगड़ा जिले में तोता रानी के गांव के पास समुद्र तल से 1,775 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। डल झील नाम के साथ श्रीनगर की प्रसिद्ध और आकर्षक डल झील से लिया गया। यह झील ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों और विशाल देवदार के पेड़ों से घिरी हुई है, जो पर्यटकों का मुख्य आकर्षण है।
विविधता में भारत के मुकाबले में शायद ही कोई दूसरा देश हो। भारत में जाति, लिंग भेदभाव और धार्मिक नजरिए से ऊपर उठकर देश को आगे बढ़ाने और समाज सेवा में कई महान हस्तियों ने अपना योगदान दिया है। देश के महान हस्तियों में एक व्यक्ति बाबा आमटे भी थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन कुष्ठ रोगियों और जरूरतमंदों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। आज भले ही शिक्षित समाज में कुष्ठ रोगियों के प्रति व्यवहार में सुधार देखने को मिला है लेकिन आजादी से पूर्व कुष्ठ रोगियों के प्रति व्यवहार बेहद दुखद था। लोगों की धारणा होती थी कि जिस व्यक्ति को कुष्ठ रोग हुआ है वो बड़ा पाप का भोगी है। उस वक्त में कुष्ठ रोगियों की संख्या काफी ज्यादा थी और बीमारी को ठीक करने के लिए संभावनाएं और जागरूकता बेहद कम। उस दौर में बाबा आमटे ने जमीनी स्तर पर काम किया और समाज के नजरिये को बदलने में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। समाजसेवी बाबा आमटे का जन्म 26 दिसंबर, 1914 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के हिंगनघाट में हुआ था। बाबा आमटे के पिता देवीदास ब्रिटिश भारत के प्रशासन में शक्तिशाली नौकरशाह और जिले के धनी जमींदार थे। बाबा आमटे की माता का नाम लक्ष्मीबाई आमटे था। बाबा आमटे का पूरा नाम मुरलीधर देवीदास आमटे था, लेकिन उनके माता पिता व परिवार के अन्य सदस्य उन्हें बाबा कहकर बुलाते थे। आगे चलकर ही ये नाम उनकी पहचान बनी। एक जमीदार परिवार के होने के नाते बाल्यावस्था में उनके पास किसी चीज की कमी नहीं थी और उनकी हर जिद्द को तुरंत पूरा किया जाता था। बाबा आमटे की शिक्षा और शादी बाबा आमटे की प्रारंभिक पढ़ाई नागपुर के क्रिश्चियन मिशन स्कूल में हुई। इसके बाद बाबा आमटे ने नागपुर यूनिवर्सिटी में लॉ की पढ़ाई की और वकालत शुरू कर दी। समृद्ध परिवार से आने के कारण उनके पास काम की कभी कमी नहीं रही, वे अपने पैतृक शहर में भी वकालत की और काफी सफल वकील बने। बाबा आमटे ने साल 1946 में साधना गुलशास्त्री से शादी की थी। बाबा आमटे की पत्नी साधना गुलशास्त्री उनके सामाजिक कार्यों में मदद करती थीं और वह मानवता में विश्वास करती थीं। साधना गुलशास्त्री ताई के नाम से लोकप्रिय थीं। उनकी दोनों ही संतानें डॉक्टर हैं और गरीबों की मदद करने के माता-पिता के नक्शेकदम पर चले। बाबा आमटे की भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका सब कुछ होने के बाद भी बाबा आमटे का मन लोगों की सेवा में लगा रहता था। बाबा आमटे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और विनोबा भावे से बहुत प्रभावित थे, इसलिए वे उनके साथ हो लिए। बाबा आमटे ने इनके साथ मिलकर पूरे भारत का दौरा किया और देश के गांवों मे अभावों में जीने वालें लोगों की असली समस्याओं को समझने की कोशिश की थी। बाबा आमटे ने देश के स्वतंत्रता संग्राम में भी खुलकर हिस्सा लिया और हवालात भी गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 8 अगस्त, 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ था। इस आन्दोलन के दौरान बाबा आमटे ने पूरे भारत में बंद लीडर का केस लड़ने के लिए वकीलों को संगठित किया था। कुष्ठरोगी को देखकर समाज सेवा में उतरे बाबा आमटे को लेकर कहा जाता है कि उनकी जिंदगी में बड़ा बदलाव उस वक्त आया जब उन्होंने एक कुष्?ठरोगी को देखा था। इसके बाद उन्होंने 35 साल की उम्र में ही अपनी वकालत को छेड़कर समाजसेवा शुरू कर दी थी। इसके बाद उन्होंने कुष्ठ रोगियों के बारे में जानकारी इकट्ठा की और एक आश्रम स्थापित किया जिसका नाम आनंनद भवन रखा गया, यहां पर कुष्ठ रोगियों की सेवा अब भी नि:शुल्क की जाती है। जो रोगी कभी समाज से अलग-थलग होकर रहते भीख मांगते थे उन्हें बाबा आमटे ने श्रम के सहारे समाज में सर उठाकर जीना सीखाया। कई कुष्ठरोगी सेवा संस्थानों की स्थापना की बाबा आमटे ने कई कुष्ठरोगी सेवा संस्थानों जैसे, सोमनाथ, अशोकवन आदि की स्थापना की है, जहां हजारों रोगियों की सेवा की जाती है और उन्हें रोगी से सच्चा कर्मयोगी बनाया जाता है। बाबा आमटे ने राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए 1985 में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और 1988 में असम से गुजरात तक दो बार भारत जोड़ो आंदोलन चलाया। नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर बांध निर्माण और इसके फलस्वरूप हजारों आदिवासियों के विस्थापन का विरोध करने के लिए 1989 में बाबा आमटे ने बांध बनने से डूब जाने वाले क्षेत्र में निजी बल नामक एक छोटा आश्रम बनाया। साहित्य के क्षेत्र में भी किया काम बाबा आमटे ने सामाजिक कार्य के साथ साहित्य के क्षेत्र में भी योगदान दिया। उन्होंने ज्वाला आणि फुले नाम से काव्य संग्रह और उज्ज्वल उद्यासाठी नाम से काव्य लिखा। बाबा आमटे को उनके द्वारा किए गए सेवा कार्यों के लिए कई सारे पुरस्कारों से नवाजा गया था। बाबा आमटे को 1971 में पद्मश्री, 1978 में राष्ट्रीय भूषण, 1986 में पद्म विभूषण और 1988 में मैग्सेसे पुरस्कार मिला था।
15 अगस्त, 1947 को देश अंग्रेजी शासन से आजाद हुआ था, लेकिन ये आजादी इतनी आसानी से नहीं मिली थी। भारत के वीर सपूतों ने खून पसीना एक कर अंग्रेजों से इस आजादी को पाया था। आजादी की इस लड़ाई में पुरुषों के साथ महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। देश को आजाद करने के लिए उस वक्त कई आंदोलन हुए थे, इन आंदोलनों में जहां पुरुषों का हिस्सा लेना आसान था, तो महिलाओं के लिए उतना ही मुश्किल। उस समय आंदोलन में भाग लेने का मतलब समाज में बरसों से चली आ रही कई प्रथाओं को तोड़ना था। बावजूद इसके देश की वीरांगनाओं ने आजादी की इस लड़ाई में पुरुषों के साथ कंधें से कंधा मिलाया। कस्तूरबा गांधी को जेल भी जाना पड़ा था भारत के बापू के तौर पर दुनियाभर में मशहूर मोहनदास करमचंद गांधी को तो हर कोई जानता है। महात्मा गांधी की सीख, अहिंसा, सत्य और आदर्श को लोग जानते, समझते हैं। देश की आज़ादी के लिए संघर्ष भरी राह में महात्मा गांधी का साथ एक महिला ने दिया। ये महिला कोई और नहीं बल्कि महात्मा गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी थीं। कस्तूरबा गांधी भारत की महिला स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी स्थान रखती हैं। उन्होंने अपने पति की हर कठिनाई और समस्या में साथ दिया। उन्होंने भारत की महिलाओं में देश प्रेम की भावना को जागृत किया। उन्होंने नागरिक अधिकारों के लिए अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई। अपने पति की तरह उन्होंने सभी स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर काम किया। जब महात्मा गांधी अंग्रेजों के खिलाफ धरना देते, प्रदर्शन करते तो वे हमेशा महात्मा गांधी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहतीं। यही नहीं आज़ादी की लड़ाई में कस्तूरबा गांधी को जेल भी जाना पड़ा था। कहा जाता है कि विदेश से लौटकर महात्मा गांधी ने देश की आजादी के लिए संघर्ष शुरू किया था तब कस्तूरबा ने उनका साथ दिया। महात्मा गांधी उपवास करते, धरना प्रदर्शन करते तो कस्तूरबा उनकी देखभाल करतीं। कस्तूरबा गांधी ने न केवल पत्नी धर्म को पूरा किया, अपितु खुद भी एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की तरह कार्य किया। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ जब महात्मा गांधी ने आंदोलन छेड़ा था तो उस समय कस्तूरबा गांधी भी जेल गई थीं। महात्मा गांधी जो करते वह सबके सामने था, लेकिन कस्तूरबा उनके पीछे रहकर उन्हें घर गृहस्थी छोड़ केवल देश सेवा में लगे रहने के लिए मजबूती देती थीं। आजादी के लिए आवाज उठाने वाली सरोजिनी नायडू 'सरोजिनी नायडू' ये वो नाम है, जिसने अपनी रचनाओं के साथ लाख दिलों को छुआ, वह एक महान कवयित्री, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और एक कुशल राजनीतिज्ञ थी। सरोजिनी नायडू को भारतीय कोकिला के नाम से भी जाना जाता है। देश की आजादी की जंग में अहम भूमिका निभाने वाली नायडू ने अपने कलम के सहारे भी महिला सशक्तिकरण और समान अधिकार की आवाज उठाई थी। उन्होंने भारत देश में छोटे गांव से लेकर बड़े शहरों तक पूरे राज्य में हर जगह महिलाओं को जागरूक किया था। सरोजिनी नायडू वर्ष 1925 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में अध्यक्ष के पद पर चुनी गई थी। गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में वह उनके साथ जेल भी गई थी। भारत छोड़ो आंदोलन में वर्ष 1942 में सरोजिनी नायडू को 21 महीने के लिए जेल भी जाना पड़ा था। सरोजिनी नायडू एक पहली महिला थी जो स्वतंत्रा के बाद राज्यपाल बनी थी। उत्तर प्रदेश राज्य के राज्यपाल घोषित होने के बाद वह लखनऊ राज्य में बस गई थी। सरोजिनी नायडू न केवल आजादी और राजनीति में आगे थी बल्कि लेखन में भी इनका गहरा रुझान था। सरोजिनी नायडू ने अपने जीवन काल में कई मशहूर किताबें भी लिखी थी। भीकाजी कामा ने विदेश में पहली बार फहराया था भारत का झंडा भारत की आजादी से चार दशक पहले, साल 1907 में विदेश में पहली बार भारत का झंडा एक औरत ने फहराया था। 46 साल की पारसी महिला भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में हुई दूसरी 'इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस' में झंडा फहराया था। ये भारत के आज के झंडे से अलग, आज़ादी की लड़ाई के दौरान बनाए गए कई अनौपचारिक झंडों में से एक था। बाद में इसी झंडे के आधार पर भारत का राष्ट्रीय ध्वज तैयार किया गया था। उन्होंने देश के लिए सेवा में किसी तरह के कसर नहीं छोड़ी और दुनिया भर में देश की आजादी के लिए भारत का पक्ष रखा। कहा जाता है कि भीकाजी कामा को भारत के झंडे के स्थान पर ब्रिटिश झंडा स्वीकार नहीं हुआ। उन्होंने तुरंत भारत का एक नया झंडा बनाया और सभा में फहराया। झंडा फहराते हुए भीकाजी ने कहा कि ये भारत का झंडा है जो भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। झंडा फरहाने के बाद उन्होंने एक शानदार भाषण दिया जिसमें कहा था 'ऐ संसार की कौम, ऐ संसार के कॉमरेड्स, देखो ये भारत का झंडा है, यही भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, इसे सलाम करो।' मैडम कामा की एक और चर्चित उपलब्धि 22 अगस्त 1907 की मानी जाती है, जब उन्होंने जर्मनी केस्टुटगार्ड में आयोजित सेकेंड सोशलिस्ट कांग्रेस में दुनिया के सामने भारत में आए आकाल और उसके दुष्प्रभावों को रखा और मानव अधिकारों वाली अपनी अपील में अंग्रेजी हुकूमत से भारत के लिए समानता और आत्मशासन की मांग की। 1935 में भीकाजी कामा भारत लौटीं। उनकी तबीयत ठीक नहीं थी, लेकिन उस वक्त भी देश प्रेम और स्वतंत्रता हासिल करने का जोश कम नहीं था। बताया जाता है कि उनके आखिरी शब्द 'वंदे मातरम' थे। 13 अगस्त, 1936 को मुंबई के पारसी जनरल अस्पताल में मैडम कामा का निधन हो गया था। देश की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले सावित्रीबाई फुले का नाम भला कौन नहीं जानता? यह देश की पहली महिला शिक्षिका बनी थी। इन्होंने ही समाज में महिलाओं के लिए शिक्षा की ज्योति जलाई थी। सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में हुआ था। भारतीय स्त्री आंदोलन की यात्रा में सावित्री बाई फुले ने अहम भूमिका निभाई थी। सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिबा फुले संग मिलकर स्त्रियों के अधिकारों एवं उन्हें शिक्षित करने के लिए क्रांतिकारी प्रयास किए। उन्हें भारत की प्रथम कन्या विद्यालय की पहली महिला शिक्षिका होने का गौरव हासिल है। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत भी माना जाता है। उन्होंने देश के पहले किसान स्कूल की भी स्थापना की थी। 1852 में उन्होंने दलित बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की थी। साल 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में देश के सबसे पहले बालिका स्कूल की स्थापना इन्होंने ने ही की थी। पुणे के भिड़ेवाड़ी इलाके में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के लिए इस विद्यालय की स्थापना की। इसके बाद सिर्फ एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले 5 नए विद्यालय खोलने में सफल हुए। पुणे में पहले स्कूल खोलने के बाद फुले दंपती ने 1851 में पुणे के रास्ता पेठ में लड़कियों का दूसरा स्कूल खोला और 15 मार्च, 1852 में बताल पेठ में लड़कियों का तीसरा स्कूल खोला। बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए इन्हें समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब इन्हें समाज के ठेकेदारों के पत्थर भी खाने पड़े। महज 8 साल की उम्र में आजादी की लड़ाई कूद पड़ी थी उषा मेहता कम उम्र में आजादी की लड़ाई लड़ने वाली महिला का नाम उषा मेहता था। 24 फरवरी, 1920 को जन्मी मेहता अपने पिता के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने से इतनी प्रेरित हुईं कि वह बचपन से ही राजनीति में आ गईं, यहां तक कि उन्होंने खुद को वानर सेना के अन्य छोटे बच्चों के साथ पुलिस लॉकअप में भी पाया। मेहता चार भाषाओं अंग्रेजी, गुजराती, हिंदी और मराठी में पारंगत थीं और उन्होंने विल्सन कॉलेज में वाद-विवाद और भाषण कला में अपनी पहचान बनाई। मेहता ने पढ़ाई छोड़ने के बाद खुद को पूरी तरह से स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित कर दिया था। 1940 के दशक में, उषा मेहता कांग्रेस की सदस्य बन गईं और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सविनय अवज्ञा के कृत्यों की योजना बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ काम करना शुरू कर दिया। उषा मेहता का नाम जब भी लिया जाता है तो वो समय भी याद आ जाता है जब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने पहला रेडियो प्रसारण चलाया था। अंग्रेजी हुकूमत ने 9 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी समेत सभी कांग्रेसियों को जेल में बंद कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने भारत में चलने वाले सभी रेडियो ब्रॉडकास्टिंग लाइसेंस को भी रद्द कर दिया। सबसे पहला गुप्त रेडियो प्रसारण 27 अगस्त 1942 को बॉम्बे चौपाटी में सीव्यू बिल्डिंग के सबसे ऊपर वाली मंजिल पर एक ट्रांसमीटर के साथ किया गया। इस पहले प्रसारण में उषा मेहता देश की आवाज बनी । उन्होंने कहा 'आप सुन रहे हैं 41.78 मीटर बैंड जिसे एक अनजान जगह से प्रसारित किया जा रहा है। यह इंडियन नेशनल कांग्रेस का रेडियो है।' इस रेडियो प्रसारण में भारत छोड़ो आंदोलन से लेकर देश में ब्रिटिश सरकार की करतूतों के बारे में बताया जाने लगा था। इस गुप्त रेडियो प्रसारण की जगह को हर दिन बदल दिाय जाता था, ताकि ब्रिटिश हुकूमत उन तक पहुंच न पाए। इस गुप्त रेडियो का ट्रांसमिटर पहले 10 किलोवॉट था फिर उसे 100 किलोवॉट कर दिया गया। अंग्रेजों से बचने के लिए 3 महीने तक चलने वाले गुप्त रेडियो स्टेशन को 7 अलग-अलग जगहों से प्रसारित किया गया।