भक्तों के प्रेम के भूखे है बांके बिहारी
सनातन धर्म में बांके बिहारी मंदिर का एक विशिष्ट स्थान है। ये मंदिर उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के पवित्र शहर वृंदावन में स्थित है। वृंदावन भगवान श्रीकृष्ण की क्रीड़ा स्थली है। यहां की कुंज गलियों में भगवान कृष्ण ने तमाम लीलाएं की हैं। बांके बिहारी मंदिर देश के सबसे प्रसिद्ध और सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है। इस मंदिर में स्थापित मूर्ति भगवान श्री कृष्ण और राधा का एकाकार रूप है। भगवान कृष्ण का यह मंदिर वृंदावन के ठाकुर जी के 7 मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी मंदिर राजस्थानी शैली में बना हुआ है, यह मंदिर मेहराबदार खिड़कियों और शानदार स्टोन वर्क से सजा हुआ है। मंदिर में भगवान कृष्ण की छवि एक बालक के रूप में दिखाई देती है जो त्रिभंगा स्थिति में खड़ी हुई है। बांके बिहारी मंदिर का सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि यहां परिसर में कोई भी शंख या घंटी नहीं है। यह मंदिर अपने आप में अनोखा मंदिर है। यहाँ सिर्फ इस भावना से सुबह घंटी या शंख नहीं बजाए जाते कि कहीं बांके बिहारी की नींद में खलल न पड़ जाए, इसलिए हौले-हौले एक बालक की तरह उन्हें दुलार कर उठाया जाता है। इसी तरह शाम को आरती के वक्त भी घंटी या शंख नहीं बजाए जाते ताकि उनकी शांति में कोई खलल न पड़े। यहां भगवान का दिव्य आह्वान ‘राधा नाम’ के शांतिपूर्ण मंत्रों के साथ किया जाता है। बांके बिहारी मंदिर पूरे साल भर भक्तों की भीड़ से भरा हुआ होता हैं। इस मंदिर में आकर भगवान कृष्ण के भक्तों को अद्भुद शांति और आनंद की प्राप्ति होती है।
पौराणिक कथा के अनुसार बांके बिहारी मंदिर की स्थापना स्वामी हरिदास ने की थी। स्वामी हरिदास प्राचीन काल के मशहूर गायक तानसेन के गुरु और भगवान कृष्ण के भक्त थे। उनका अपना ज्यादातर समय शास्त्रों का ध्यान करने, पढ़ने में और प्रार्थना करने में व्यतीत होता था। भगवान कृष्ण के प्रति वो इतने ज्यादा समर्पित थे कि उन्होंने हरिमति से विवाह करने के बाद भी अपना यह कठोर अनुशासन जारी रखा। भगवान को आत्मसमर्पण करने के बाद स्वामी हरिदास वृंदावन के लिए लिए निकल गए और वहां पहुंचकर उन्होंने ध्यान करने के लिए एकांत का रास्ता चुना, जिसको आज निधिवन के नाम से जाना जाता है। वे निधिवन में तमाम भजन आदि गाकर श्रीकृष्ण की भक्ति किया करते थे। उन्हें राधा कृष्ण दर्शन दिया करते थे। एक दिन वृंदावन के लोगों ने स्वामी हरिदास से कहा कि वे भी राधा कृष्ण के दर्शन करना चाहते हैं तब स्वामी हरिदास ने कृष्ण और राधा से निवेदन किया कि वो दोनों की छवि को एक रूप दें और इसके साथ उन्होंने भगवान से हमेशा उनकी दृष्टि के सामने रहने की कामना की। श्री कृष्ण ने स्वामी जी की इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और अपने भक्तों की इच्छा को पूरा करते हुए अपनी एक आकर्षक छवि छोड़ दी। यह काली छवि मूर्ति का आकर लेकर वहां प्रकट हो गई। 1864 में मंदिर का निर्माण औपचारिक रूप से गोस्वामियों के योगदान से किया गया था। मंदिर का निर्माण हो जाने के बाद गोस्वामियों ने भगवान की मूर्ति को मंदिर में स्थानांतरित कर दिया। यह भव्य मूर्ति वही है जो भगवान ने स्वामी हरिदास के निवेदन पर दी थी।
मूर्ति के आगे हर दो मिनट में लगाया जाता है पर्दा
बांके बिहारी मंदिर की एक और कथा बहुत मान्य है वो ये कि बांके बिहारी की मूर्ति को हर थोड़ी देर में पर्दे से ढक दिया जाता है ताकि भगवान कृष्ण अपना स्थान छोड़ कर कहीं चले ना जाएं। कहा जाता है कि यदि कोई बांके बिहारी के मुखारविंद को लगातार देखता रहे तो प्रभु उसके प्रेम से मंत्रमुग्ध होकर उनके साथ चल देते हैं, इसलिए दर्शन के कुछ समय बाद ही पर्दे से उनको ढक दिया जाता है। माना जाता है कि भगवान भक्तों की भक्ति से अभिभूत होकर या उनकी व्यथा से द्रवित हो भक्तों के साथ ही चल देते है। बांके बिहारी भक्तों की भक्ति से इतना प्रभावित हो जाते हैं कि मंदिर में अपने आसन से उठकर भक्तों के साथ हो लेते हैं। इसीलिए मंदिर में उन्हें पर्दे में रखकर उनकी क्षणिक झलक ही भक्तों को दिखाई जाती है।
सिर्फ जन्माष्टमी पर होती मंगला आरती
बांके बिहारी मंदिर में साल भर भारी संख्या में भगवान कृष्ण के भक्त उनके दर्शन के लिए आते हैं। इस मंदिर में कृष्ण के जन्मदिन को बहुत ही हर्षोल्लास और उत्साह के साथ मनाया जाता है। मंदिर में जन्माष्टमी के दौरान मंगला आरती का आयोजन किया जाता है। अक्षय तृतीया एकमात्र दिन है जब भक्त कृष्ण के चरण कमलों को देख सकते हैं और केवल शरद ऋतु पूर्णिमा के दिन कृष्ण को विशेष मुकुट पहने और बांसुरी के साथ देखा जा सकता है। फाल्गुन के हिंदू महीने के आखिरी पांच दिनों में यानी होली के त्योहार के दौरान कृष्ण की मूर्ति को बाहर लाया जाता है। इस समय उनके आसपास उन्हें चार ‘गोपियों’ के साथ देखा जाता है।
अक्षय तृतीया पर ही होते हैं चरण दर्शन
कान्हा की नगरी वृंदावन में अक्षय तृतीया के दिन भारी भीड़ उमड़ती है। अक्षय तृतीया पर भगवान कृष्ण के चरणों के दर्शन होते हैं। मान्यता है कि इस दिन भगवान कृष्ण के चरणों के दर्शन करने से भक्तों को विशेष कृपा मिलती है। भगवान कृष्ण को इस अद्भुत रूप में देखने का मौका साल में केवल एक बार ही मिलता है। यही वजह है कि भक्त अपने आराध्य बांके बिहारी की एक झलक पाने के लिए दूर-दूर से यहां चले आते हैं। इस दिन भगवान के चरणों पर चंदन का लेप किया जाता है
स्वर्ण झूले पर बैठाया जाता है बांके बिहारी को
भगवान कृष्ण के झूले के त्यौहार को यहाँ झूलन यात्रा कहा जाता है। द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने राधा रानी को झूला झुलाया था। तभी से मथुरा में बृज में झूलन उत्सव की यह परंपरा चली आ रही है। इस त्यौहार के समय बांके बिहारी को एक स्वर्ण झूले पर बैठाया जाता है जिसको हिंडोला कहा जाता है। मंदिर को पर्दों से बंद कर दिया जाता है फिर कुछ मिनट के बाद फिर से खोल दिया जाता है। मान्यता है कि इस समय बांके बिहारी की आँखें इतनी तेज होती हैं कि अगर कोई उनकी आँखों में देख लेता है तो वो बेहोश भी हो सकता है। इस दौरान भारी संख्या में भक्त मंदिर में कृष्ण की एक झलक पाने के लिए जाते हैं।
अर्द्धरात्रि के बाद निधिवन जाते हैं भगवान कृष्ण
वृंदावन का निधिवन लगभग दो से ढाई एकड़ क्षेत्रफल में फैला है। कहा जाता है कि यहां लगे पेड़ों की संख्या सोलह हजार है। वृक्षों की खासियत यह है कि इनमें से किसी भी वृक्ष के तने सीधे नहीं मिलेंगे तथा इन वृक्षों की डालियां नीचे की ओर झुकी तथा आपस में गुंथी हुई प्रतीत होती हैं। मान्यता है कि ये वृक्ष भगवान कृष्ण की सोलह हजार रानियां हैं और शयन आरती के बाद भगवान कृष्ण निधिवन में जाते हैं और सुबह जल्दी 4 बजे वापिस मंदिर में लौट आते हैं। भगवान कृष्ण की नींद में खलल न पड़े इसलिए सुबह के दौरान मंदिर के कपाट थोड़े देरी से खोले जाते है। केवल जन्माष्टमी के दिन ही मंगला आरती की जाती है।
बिहार पंचमी के रूप में मनाया जाता है प्राकट्य दिवस
बांके बिहारी की मूर्ति मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को निधिवन स्थित विशाखा कुण्ड से प्रकट हुई थी। बांके बिहारी की प्राकट्य तिथि को हर साल बिहार पंचमी के रूप में बड़े ही उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन वृंदावन में कई धार्मिक आयोजन होते है। बिहार पंचमी के दिन ही चरणामृत के स्थान पर भक्तों को पंचामृत बांटा जाता है। बिहार पंचमी को विवाह पंचमी के नाम से भी जाना जाता है।