तीनों लोकों में सबसे सुन्दर माना जाता है द्वारकाधीश मंदिर
जगत मंदिर के रूप में जाना जाने वाला द्वारकाधीश मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल है। इस मंदिर में श्री कृष्ण को द्वारकाधीश या 'द्वारका के राजा' के नाम से पूजा जाता है। द्वारकाधीश मंदिर भारत के गुजरात के द्वारका शहर में गोमती नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर द्वारका का मुख्य मंदिर है जिसे जगत मंदिर या रणछोड़राय मंदिर भी कहते हैं। यही गोमती द्वारका भी कहलाती है। द्वारकाधीश मंदिर चार धाम रामेश्वरम,बद्रीनाथ, द्वारका और जगन्नाथ पुरी में से एक है। पुरातात्विक निष्कर्ष के अनुसार यह मंदिर करीब 2,000-2200 वर्ष पुराना है। ऐसा भी माना जाता है कि महाभारत युद्ध के बाद द्वारका सागर में जलमग्न हो गई थी, लेकिन बाद में इस मंदिर का निर्माण भगवान कृष्ण के पड़पोते वज्रनाभ ने किया था। हिन्दू दृष्टि और धर्मगुरु शंकराचार्य ने भी इसके विस्तार और निर्माण में व्यापक योगदान दिया है। इतिहास के पन्ने पलटने पर मालूम होता है कि जगत मंदिर के आस-पास की संरचनाओं का निर्माण 16 वीं शताब्दी और इसका नवीनीकरण 19वीं शताब्दी में हुआ था। श्री कृष्ण का यह मंदिर 108 पवित्र विष्णु मंदिरों में से एक है।
अद्भुत है द्वारकाधीश मंदिर
इस मंदिर का निर्माण चूना-पत्थर से हुआ है। सात मंज़िले द्वारकाधीश मंदिर की ऊंचाई करीब 157 फ़ीट है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर सजावट कृष्ण की जीवन लीलाओं का चित्रण करते हुए की गई है। मंदिर का आंतरिक भाग साधारण और सौम्य है। मंदिर के दो प्रवेश द्वार हैं जिनमें से एक दक्षिण में है उसे स्वर्ग द्वार कहा जाता है। तीर्थ यात्री आमतौर पर इसी द्वार के माध्यम से मंदिर में प्रवेश करते हैं। उत्तर की तरफ जो द्वार है उसे मोक्ष द्वार कहा जाता है। यह द्वार गोमती नदी के 56 तटों की ओर ले जाता है। अंदर मंदिर में द्वारकाधीश जी की श्यामवर्ण चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। भगवान ने हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किए हैं। बहुमूल्य अलंकरणों तथा सुंदर वेशभूषा से सजी प्रतिमा हर किसी का मन मोह लेती है। इस मंदिर का शिखर 43 मीटर ऊँचा है जिसके ऊपर एक बड़ा ध्वज लगा हुआ है, जिस पर सूर्य और चन्द्रमा बने हुए हैं। यह विश्व की सबसे बड़ी ध्वजा है जिसे 10 किमी की दूरी से भी देखा जा सकता है। यह ध्वजा दिन में तीन बार बदली जाती है। इस अवसर पर ढोल-नगाड़ों की गूँज के साथ यहाँ का माहौल अत्यंत आध्यात्मिक एवं उत्सवी हो जाता है। मंदिर के दक्षिण में भगवान त्रिविक्रम का मंदिर है। इसमें राजा बलि तथा सनकादि चारों कुमारों की मूर्तियों के साथ-साथ गरुड़ जी की मूर्ति भी विराजमान है। मंदिर के उत्तर में प्रद्युम्न जी की प्रतिमा और उसके पास ही अनिरुद्ध व बलदेव जी की मूर्तियां भी हैं। मंदिर की पूर्व दिशा में दुर्वासा ऋषि का मंदिर है। मंदिर के पूर्वी घेरे के भीतर ही मंदिर का भण्डार है और उसके दक्षिण में जगत गुरु शंकराचार्य का शारदा मठ है। उत्तरी मोक्ष द्वार के निकट कुशेश्वर शिव मंदिर है यहाँ के दर्शन किए बिना यात्रा अधूरी मानी जाती है।
श्री कृष्ण की मृत्यु के पश्चात समुद्र में समां गई थी द्वारका
धर्मग्रंथों के अनुसार जब श्री कृष्ण ने मथुरा के राजा कंस का वध किया तो कंस के ससुर मगध पति जरासंध ने कृष्ण और यादवों का कुल नाश करने की ठान ली थी। वह मथुरा पर बार-बार आक्रमण रहता था। यादवो की सुरक्षा के लिए श्री कृष्ण ने मथुरा को छोड़ने का निर्णय लिया। फिर भगवान श्री कृष्ण ने द्वारकापुरी की स्थापना का निर्देश विश्वकर्मा को दिया, विश्वकर्मा ने एक ही रात में इस भव्य नगरी का निर्माण कर दिया। भगवान श्री कृष्ण समस्त यादवों के साथ द्वारका आकर रहने लगे। श्री कृष्ण ने द्वारका पर 36 वर्ष तक शासन किया। मान्यता हैं की बड़े-बड़े राजा द्वारका आकर विभिन्न मसलों पर भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे। इस जगह का धार्मिक महत्व तो है ही, रहस्य भी कम नहीं है। कहा जाता है कि कृष्ण की मृत्यु के साथ उनकी बसाई हुई यह नगरी समुद्र में डूब गई थी। कुछ वर्षों पहले नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एशियनोग्राफी को समुद्र के अंदर प्राचीन द्वारका के अवशेष प्राप्त हुए थे। माना जाता है कि श्री कृष्ण की द्वारका नगरी की दीवारें आज भी समुद्र के गर्त में मौजूद हैं।
ऋषि दुर्वासा के श्राप से जुड़ी है द्वारका की कहानी
मंदिर को लेकर एक और अन्य मन्यता भी है। हिंदू कथा के अनुसार द्वारका का निर्माण कृष्ण द्वारा भूमि के एक टुकड़े पर किया गया था जो समुद्र से प्राप्त हुआ था। मान्यता के अनुसार एक बार ऋषि दुर्वासा कृष्ण और उनकी पत्नी रुक्मिणी से मिलने गए। ऋषि की इच्छा थी कि कृष्ण और रुक्मणि उन्हें अपने महल में ले जाए। कृष्ण और रुक्मणि ऋषि को अपने साथ ले जाने के लिए राज़ी हो गए। महल की ओर जाते वक़्त कुछ दूर जाने के बाद रुक्मिणी थक गईं और उन्होंने कृष्ण से कुछ पानी मांगा। कृष्ण और रुक्मणि पानी पीने के लिए रुके जिससे ऋषि दुर्वासा क्रोधित हो गए और रुक्मिणी को उसी जगह में रहने के लिए श्राप दिया। कहते हैं द्वारका वहीं स्थापित की गई जिस स्थान पर रुक्मणि खड़ी थी।
कुशस्थली भी है द्वारका
द्वारका को शास्त्रों में कुशस्थली भी कहा गया है। ऐसी मान्यता है कि सतयुग में महाराजा रैवत ने समुद्र के मध्य की भूमि पर कुश बिछाकर कई यज्ञ किए थे। यहाँ कुश नाम का एक दानव था, जिसने बहुत उपद्रव फैला रखा था। ब्रह्माजी के अनेक प्रयासों के बाद भी जब वह दानव नहीं मरा तो त्रिविक्रम भगवान ने उसे भूमि में गाढ़कर उसके ऊपर उसी के आराध्य देव कुशेश्वर की लिंग मूर्ति स्थापित कर दी। दैत्य द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान ने उसे वरदान दिया कि द्वारका आने वाला जो व्यक्ति कुशेश्वर के दर्शन नहीं करेगा उसका आधा पुण्य उस दैत्य को मिलेगा।
इसलिए समुद्र में विलीन हुई द्वारका
धार्मिक महत्वता के साथ इस नगर के साथ कई रहस्य भी जुड़े हुए हैं। समस्त यदुवंशियों के मारे जाने और द्वारका के समुद्र में विलीन होने के पीछे मुख्य रूप से दो घटनाएं जिम्मेदार है। एक माता गांधारी द्वारा श्री कृष्ण को दिया गया श्राप और दूसरा ऋषियों द्वारा श्री कृष्ण पुत्र सांब को दिया गया श्राप। महाभारत के युद्ध में पांडवों की विजयी हुई। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को राजगद्दी पर बैठाया और राज्य से जुड़े नियम-कानून उन्हें समझाकर वे कौरवों की माता गांधारी से मिलने गए। कृष्ण के आने पर गांधारी फूट-फूटकर रोने लगीं और फिर क्रोधित होकर उन्हें श्राप दिया कि जिस तरह तुमने मेरे कुल का नाश किया तुम्हारे कुल का अंत भी इसी तरह होगा। श्री कृष्ण साक्षात भगवान थे, चाहते तो इस श्राप को निष्फल कर सकते थे, लेकिन उन्होंने मानव रूप में लिए अपने जन्म का मान रखा और गांधारी को प्रणाम करके वहां से चले गए।
अन्य मान्यताओं के अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र सांब अपने मित्रों के साथ हंसी-ठिठोली कर रहे थे। उस समय महर्षि विश्वामित्र और कण्व ऋषि ने द्वारका में प्रवेश किया। जब सांब के नवयुवक मित्रों की दृष्टि इन महान ऋषियों पर पड़ी तो वे इन पुण्य आत्माओं का अपमान कर बैठे। इन युवकों ने सांब को एक महिला के वेश में तैयार किया और महर्षि विश्वामित्र तथा कण्व ऋषि के सामने पहुंचकर उनसे बोले यह स्त्री गर्भवती है। आप देखकर बताइए कि इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा? दोनों ही ऋषि युवकों के इस परिहास से अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने कहा कि इसके गर्भ से एक मूसल उत्पन्न होगा जिससे तुम जैसे दुष्ट, असभ्य और क्रूर लोग अपने समस्त कुल का नाश कर लेंगे।
धार्मिक पुस्तकों के आधार पर, महाभारत युद्ध के 36वें वर्ष में द्वारका नगरी में बहुत अपशकुन होने लगे थे। इस पर सभी लोग द्वारका नगरी से तीर्थ के लिए निकल गए। प्रभास क्षेत्र में आने पर विश्राम के दौरान किसी बात पर ये लोग आपस में भिड़ गए। यह बहसबाजी, झगड़े में बदली और झगड़ा मार काट में बदल गया। इस दौरान ऋषियों का शाप इस रूप में फलिभूत हुआ कि लड़ाई के दौरान जो भी व्यक्ति खड़ी एरका घास को उखड़ता वह मूसल का रूप ले लेती। ऐसी मूसल जिसका एक वार ही व्यक्ति की जान लेने के लिए काफी था।
इस सब की सुचना मिलते ही कृष्ण प्रभास पहुंचे, अपने पुत्र और प्रियजनों को मृत देखकर श्रीकृष्ण ने क्रोध में बाकी बचे लोगों का भी वध कर दिया। अंत में सिर्फ श्रीकृष्ण, उनके सारथी दारुक और बलराम बचे। इस पर श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा कि हस्तिनापुर जाकर अर्जुन को यहाँ लेकर आए। कृष्ण ने वासुदेव जी को इस नरसंहार के बारे में बताया और कहा कि जल्द यहां अर्जुन आएंगे। आप नगर की स्त्रियों और बच्चों को लेकर यहाँ से हस्तिनापुर चले जाये। जब श्रीकृष्ण वापस प्रभास क्षेत्र पहुंचे तब बलराम ध्यानावस्था में बैठे थे। कान्हा के पहुंचते ही उनके शरीर से शेषनाग निकल कर समुद्र में चले गए। अब श्रीकृष्ण अपने जीवन और गांधारी के श्राप के बारे में विचार करने लगे और फिर एक पेड़ की छांव में बैठ गए। इसी समय जरा नामक एक शिकारी का बाण उनके पैर में आकर लगा, और श्री कृष्ण ने अपनी देह त्याग दी। अर्जुन द्वारका पहुंचकर सभी महिलाओं और बच्चों को लेकर हस्तिनापुर चले गए। जैसे से ही उन लोगों ने नगर छोड़ा द्वारका का राजमहल और नगरी समुद्र में समा गई।