रुद्रनाथ मंदिर में होती है महादेव शिव के मुख की पूजा
चतुर्थ केदार माना जाने वाला रुद्रनाथ मंदिर देवों के देव महादेव को समर्पित है। इस मंदिर में भक्तों की अपार आस्था है और कपाट खुलने के साथ ही यहाँ दर्शन के लिए दुनिया के कोने-कोने से श्रद्धालु पहुंचते हैं। भगवान भोलेनाथ का ये मंदिर अनोखा है और यह एकमात्र ऐसा शिव मंदिर है, जहां भगवान भोलेनाथ के मुख की पूजा होती है। रुद्रनाथ में जहाँ भगवान शिव के चेहरे की पूजा होती है, वहीं नेपाल के पशुपतिनाथ में भोलेनाथ के बाकी शरीर की पूजा होती है। यह मंदिर उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के चमोली जिले में स्थित है और इसका इतिहास महाभारत काल से जुड़ा हुआ है। सर्दियों में इस मंदिर के कपाट बंद हो जाते है और इस बार रुद्रनाथ मंदिर के कपाट 19 मई को खुलेंगे।
पौराणिक मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण महाभारत के समय पांडवों ने किया था। पांडवों ने इस मंदिर में भ्रातृ हत्या के पाप से मुक्ति के लिए भगवान शिव की पूजा की थी। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण लगभग 8वीं शताब्दी में किया गया था। महाभारत युद्ध के दौरान जब पांडवों ने कौरवों को मार कर इस युद्ध को जीत लिया था तो उनको गोत्र हत्या और ब्राह्मण हत्या का पाप लग गया था। वह इस पाप का प्रायश्चित करना चाहते थे। उन्होंने अपने राज्य की बागडोर परिवार के अन्य सदस्यों को सौंप दी और धर्मगुरुओं की सलाह पर भगवान शिव की खोज में निकल गये। भगवान शिव की तलाश में वह सर्वप्रथम काशी में गए लेकिन उन्हे वहाँ भगवान शिव नहीं मिले तो उनकी खोज में वह हिमालय पर्वत की ओर निकल पड़े।
प्राची कथाओं के अनुसार भगवान शिव महाभारत युद्ध के कारण पांडवों से नाराज थे और उन्हें दर्शन नहीं देना चाहते थे। उन्होंने एक बैल का रूप धारण कर हिमालय की पहाड़ियों पर चले गए। पर भीम ने भगवान शिव को बैल रूप में पहचान लिया और उनके पैर व पुंछ को पकड़ लिया, किन्तु भगवान शिव जमीन में समा गये थे। जिस स्थान पर भगवान शिव के शरीर के भाग गिरे उन्हे पंच केदार कहा जाता है। इन्हीं पंच केदारों में से एक रुद्रनाथ भी है। रुद्रनाथ में भगवान शिव का चेहरा प्रकट हुआ था। भगवान शिव से आशीर्वाद मिलने के बाद बाद जिस स्थान पर भी भगवान शिव के शरीर के भाग गिरे थे उस स्थान पर पांडवों में मंदिर का निर्माण किया था।
पंच केदार में रूद्रनाथ है चौथा केदार
रुद्रनाथ मंदिर में भगवान शिव के बैल रुपी अवतार का मुख प्रकट हुआ था। बैल का जो भाग भीम ने पकड़ लिया था, वहां केदारनाथ मंदिर स्थित हैं। अन्य तीन केदारों में मध्यमहेश्वर (नाभि), तुंगनाथ (भुजाएं) व कल्पेश्वर (जटाएं) आते हैं। रुद्रनाथ मंदिर को पंच केदार में से चतुर्थ केदार के रूप में जाना जाता है।
गढ़वाल क्षेत्र में है रुद्रनाथ मंदिर
यह मंदिर उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के अंतर्गत आता है। यह चमोली जिले के सगर गाँव से 20 किलोमीटर दूर हैं जहाँ का रास्ता पैदल चलकर पार करना पड़ता हैं। समुंद्र तट से रुद्रनाथ मंदिर की ऊंचाई 3,600 मीटर (11,811 फीट) है। मंदिर का मार्ग अल्पाइन व बुरांस के जंगलों और पेड़ों से घिरा हुआ है जहाँ आपको असंख्य पेड़, पुष्प, पशु-पक्षी देखने को मिलेंगे। मंदिर की चढ़ाई में प्राकृतिक झरने व गुफाएं भी देखने को मिलेंगी। इसकी चढ़ाई के मार्ग को उत्तराखंड का बुग्याल क्षेत्र कहते है। मंदिर भी एक गुफा के अंदर ही स्थित हैं जो इसे सबसे अलग रूप प्रदान करती है
शिवलिंग की गहराई किसी को नहीं पता
रुद्रनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग सभी के लिए किसी रहस्य से कम नही है। प्राचीन कथा के अनुसार यहाँ शिव के बैल रुपी अवतार का मुख प्रकट हुआ था, इसलिए इसे स्वयंभू शिवलिंग के नाम से भी जाना जाता है। शिवलिंग एक मुख की आकृति लिए हुए है जिसकी गर्दन टेढ़ी है। यह शिवलिंग एक प्राकृतिक शिवलिंग है जिसकी गहराई का आज तक पता नही लगाया जा सका है। दूर-दूर से भक्तगण इसी के दर्शन करने और महादेव का आशीर्वाद पाने यहाँ आते हैं।
रुद्रनाथ मंदिर की वास्तुकला :
रुद्रनाथ मंदिर के निर्माण प्राचीन हिन्दू मंदिर शैली के अनुसार किया गया है। प्राचीन समय में भगवान शिव का यह मंदिर एक छोटी सी गुफा में बना हुआ था, फिर बाद में यहाँ पर भगवान शिव का एक मंदिर बनाया गया है। इस मंदिर के गर्भ गृह में महादेव की पूजा की जाती है। जबकि मुख्य मंदिर के पास कई छोटे-छोटे मंदिर विराजमान हैं। इस मंदिर में भगवान शिव के नीलकंठ रूप की पूजा अर्चना की जाती है। मंदिर के आस पास सुंदर घास के मैदान हैं। जो दिखने में बहुत आकर्षक लगते हैं। रुद्रनाथ के बाहर बाईं तरफ पांचों पांडवों यानी युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव व उनकी माता कुन्ती, पत्नी द्रौपदी, वन देवता और वन देवियों की मूर्तियां स्थापित हैं। जबकि मंदिर के दाईं ओर यक्ष देवता का मंदिर है, जिन्हें स्थानीय लोग जाख देवता कहते हैं।
रुद्रनाथ मंदिर का महत्व
रुद्रनाथ मंदिर का अपना अलग महत्व है। इस मंदिर के चारों ओर सूर्य कुंड, चंद्र कुंड, तारा कुंड और मानस कुंड विराजमान हैं वहीँ आसपास नंदा देवी, त्रिशूल और नंदा घुंटी जैसी चोटियां हैं, जो इसकी सुंदरता को और बढ़ा देते हैं। पंच केदार के अन्य मंदिरों की तुलना में यहाँ पर पहुंचना ज्यादा कठिन माना जाता है है। यहाँ पहुँचने के लिए पहाड़ियों पर पैदल चलना पड़ता है। इस मंदिर में दर्शन करने से पहले सभी भक्त नारद कुंड स्नान करते हैं। इस मंदिर के पास ही बैतरणी नदी बहती है। माना जाता है कि इस नदी में नहाने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। रुद्रनाथ मंदिर में मानव चेहरे के आकार वाला शिवलिंग विराजमान है।
रुद्रनाथ मंदिर में स्थित पित्रधार
सगर गाँव से रुद्रनाथ की यात्रा शुरू होती है जो कि 20 किलोमीटर लंबी है। इस मार्ग के अंत में पित्रधार नामक एक पवित्र स्थल आता है। इस पित्रधार को पितरों के पिंडदान के लिए पवित्र जगह माना गया है। मान्यता है कि लोग यहाँ अपने पितरों का पिंडदान कर सकते हैं। यहाँ आने वाले लोग पित्रधार में अपने पितरों के नाम के पत्थर रखा करते हैं और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
रुद्रनाथ मंदिर में वैतरणी नदी
गरुड़ पुराण के अनुसार, आत्मा अपनी तेरहवीं के दिन वैतरणी नदी को पार करके ही यमलोक पहुँचती है। रुद्रनाथ मंदिर के पास भी जो नदी बहती हैं, उसे वैतरणी नदी कहा गया है। इसके अलावा इसे बैतरनी नदी या रुद्रगंगा नाम से भी जाना जाता है। स्थानीय लोग इसे मोक्ष प्राप्ति की नदी भी कहते हैं। वैतरणी नदी में भगवान शिव/ विष्णु की पत्थर से बनी मूर्ति स्थापित है। कई लोग यहाँ भी पिंडदान करते हैं।
रुद्रनाथ मंदिर में मनाये जाने वाले त्योहार
भगवान शिव के प्रसिद्ध मंदिर रुद्रनाथ में कुछ प्रमुख त्योहार मनाये जाते है।
1- महाशिवरात्रि
महाशिवरात्रि का त्योहार शिव भक्तों द्वारा बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है। इस दिन सभी शिव भक्त भगवान शिव के मंदिर में जाकर भोलेनाथ की पूजा अर्चना करते हैं और रुद्रनाथ मंदिर को विशेष तौर पर सजाया जाता है। शिवरात्रि पर दूर-दूर से भक्त आकर भोलेनाथ का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
2- डोली यात्रा
डोली यात्रा के दिन सभी शिव भक्त भगवान शिव की मूर्ति को गोपेश्वर लाते हैं। यहाँ से
आसपास के गावों से होते हुए यह डोली यात्रा पितृधर पहुँचती हैं। फिर वहाँ पर इनकी पूजा अर्चना करने के बाद भगवान शिव की मूर्ति को वापस रुद्रनाथ मंदिर में लाया जाता है।
3- वार्षिक मेला
रुद्रनाथ मंदिर में वार्षिक मेला का आयोजन श्रावण मास में पूर्णिमा के दिन किया जाता है। इस दिन रक्षा बंधन का त्योहार भी होता है। वार्षिक मेले में आसपास के स्थानीय लोग आते हैं और मिलजुल कर इस मेले का आनंद लेते हैं। रोचक है बदरीनाथ धाम का इतिहास
चार धामों में से एक बदरीनाथ धाम सनातन धर्म का प्रमुख तीर्थस्थल है। इस मंदिर का इतिहास काफी रोचक है। आठवीं शताब्दी से लेकर सोल्हवीं शताब्दी तक मंदिर में कई परिवर्तन हुए। कई बार हुई त्रासदी के बाद मंदिर का फिर निर्माण हुआ। हालांकि श्री हरि का यह धाम शुरू से ही मंदिर रूप में नहीं था और न ही विष्णु भगवान की मूर्ति यहां स्थापित थी। कहा जाता है कि शंकराचार्यजी अपने बदरीधाम निवास के दौरान छह महीने यहां रुके थे। इसके बाद वह केदारनाथ चले गए थे। हालांकि उन्होंने ही अलकनंदा नदी से भगवान बदरीनाथ की मूर्ति प्राप्त की थी जिसे हिंदू और बैद्ध संघर्ष के दौरान सुरक्षित रखने के लिए साधुओं ने नारदकुंड में डाल दिया था।। इसके बाद तप्त कुंड नामक गर्म चश्मे के पास स्थित एक गुफा में मूर्ति को स्थापित कर दिया। हालांकि यह मूर्ति गुफा से विलुप्त हो गई और पुन: तप्तकुंड में ही पहुंच गई। यह दो बार हुआ। कथा है कि तीसरी बार संत रामानुजाचार्य ने मूर्ति की स्थापना करवाई।
पारंपरिक कथा के अनुसार शंकराचार्य ने परमार शासक राजा कनक पाल की सहायता से इस क्षेत्र से बौद्धों को निष्कासित कर दिया। इसके बाद कनकपाल और उनके उत्तराधिकारियों ने इस मंदिर की प्रबंध व्यवस्था संभाली।16 वीं शताब्दी में गढ़वाल के तत्कालीन राजा ने बदरीनाथ की मूर्ति को गुफा से निकालकर वर्ममान मंदिर में स्थापित कर दिया। बाद में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने यहां पर सोने का छत्र चढ़ाया। 20वीं शताब्दी में जब गढ़वाल राज्य दो भागों में बंटा तब बदरीनाथ मंदिर ब्रिटिश हुकूमत के आधीन हो गया। पर राज्य बंटने के बाद भी मंदिर का प्रबंधन और प्रशासन गढ़वाल के राजा के पास ही रहा।
मंदिर कई बार हुआ है त्रासदी का शिकार
भगवान बदरीनाथ के इस मंदिर को हिमस्खलन के चलते कई बार नुकसान पहुंचा लेकिन गढ़वाल के राजाओं ने मंदिर के नवीनीकरण के साथ ही इसका विस्तार भी किया। 1803 में इस क्षेत्र में आए भूकंप से मंदिर को काफी नुकसान पहुंचा। इस घटना के बाद जयपुर के राजा ने मंदिर का पुन: निर्माण करवाया। मंदिर का निर्माण कार्य 1870 के अंत तक चला।