अल्मोड़ा में है मां नंदा देवी का मंदिर, भक्तों को सपने में देती हैं दर्शन!
उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा जिले के पवित्र स्थलों में से एक नंदा देवी मंदिर का विशेष धार्मिक महत्व है। इस मंदिर में देवी दुर्गा का अवतार विराजमान है।समुन्द्रतल से 7816 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह मंदिर चंद वंश की ईष्ट देवी माँ नंदा देवी को समर्पित है। नंदा देवी समूचे गढ़वाल, कुमाऊं मंडल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं। उत्तराखंड वासियों का माँ नंदा के साथ ऐसा रिश्ता है, जो शायद ही किसी भक्त और उसके आराध्य का हो। कोई इन्हे अपनी बेटी मानता है तो कोई बहन। मानवीय रिश्तों में बांध कर देवी माँ को प्रेम और स्नेह के बंधन में बांधना भक्ति का एक अलग ही रूप है। यह देवी कत्यूर पंवार और चांद वंशों की कुलदेवी के रूप में पूजित है। कत्यूरी वंश की सभी शाखाओं में जिया रानी को नंदा देवी का अवतार मानते हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री आदिशक्ति माँ पार्वती के रूप नंदा देवी की हिमवन अर्थात पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में विशेष मान्यता रही है। पौराणिक साहित्य के अनुसार वाराह पुराण नंदा देवी के नाम का अर्थ बताते हुए कहा गया है कि ,” देवी के इस रूप का हिमवन में आनंद पूर्ण विचरण करने की वजह से इसे नंदा नाम से उद्घोषित किया गया है। उत्तराखंड के बारे में वर्णित स्कंदपुराण के मानस खंड और केदारखंड में नंदा ”दारुमूर्तिसमासीना ‘ कहा गया है। इसका अर्थ है ,नंदा देवी का प्रतिनिधितव काष्ठ पर ही किया जाता है। इसी परम्परानुसार अल्मोड़ा और नैनीताल के नंदा महोत्सव में कदली वृक्ष पर नंदा की मूर्ति बनाई जाती है।
नंदा देवी की कथा
उत्तराखंड में नंदा देवी की अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। क्युकी नंदा ,गढ़वाल के परमार वंश ,कुमाऊं के कत्यूर वंश और चंद वंश की कुल देवी मानी जाती है। इसलिए नंदा देवी को राजराजेश्वरी भी कहा जाता है।सभी राजवंशों में नंदा देवी के बारे में अलग अलग कहानियां प्रचलित हैं। नंदा को किसी चंद्रवंशी राजा की पुत्री कहा गया है। कहा जाता है कि, यह राजा हिमालय की पुत्री माँ पार्वती का अनन्य भक्त था। उसकी कोई संतान न होने के कारण वह राजा उदास रहने लगा। एक दिन उसकी भक्ति से खुश होकर मां पार्वती ने उसके स्वप्न में आकर कहा , कि मै तुम्हारी अगाध भक्ति से अति खुश हूँ। मै एक बार तुम्हारे घर में पुत्री के रूप में जन्म लूंगी। राजा की नींद खुली तो,वह ख़ुशी के मारे रोमांचित हो गया। उसने बात अपनी महारानी को भी बताई। माँ पार्वती ने अपने वचनानुसार ,भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एक दिव्य कन्या के रूप में रानी के गर्भ से जन्म लिया। जन्म के ग्यारहवें दिन विधि विधान से उसका नामकरण किया गया। राजा ने उस दिव्य कन्या का नाम अपने राज्य के सबसे ऊँचे शिखर नंदाकोट के नाम पर नंदा रखा। चंद साम्राज्य ने इस दिन को हर्षोउल्लास से मनाया। उसके बाद प्रतिवर्ष नंदाष्टमी को यह उत्सव मनाये जाने लगा। कालान्तर में यह उत्सव अल्मोड़ा का लोकोत्सव या अल्मोड़ा का नंदा देवी का मेला के रूप में मनाये जाने लगा। यधपि यह चंदो और उनकी राजधानी अल्मोड़ा में ही केंद्रित था , लेकिन बाद में इसमें नैनीताल का लोकोत्सव भी जुड़ गया। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार कत्यूरवंशी राजा कीर्तिवर्मन देव की पत्नी का नाम नंदा था। वह सीता और सावित्री के सामान पवित्र थी।
नंदा देवी के बारे में गढ़वाल में प्रचलित लोकगाथाओं में इन्हे चांदपुर के राजा भानुप्रताप की पुत्री तथा धारानगरी के राजा कनकपाल की धर्मपत्नी बताया गया है। कहते हैं यह अपने दैवीयगुणों के कारण देवी के रूप में पूजी जाने लगी। वही नंदा देवी के बारे में गढ़वाल की दूसरी लोकगाथा में नंदा को हिमालय की पुत्री और चांदपुर राजा की पुत्री की सखी व् धर्म बहिन होने के कारण इसे गढ़वाल की पुत्री के रूप में पूजा जाने लगा। मुख्यतः नंदादेवी का सम्बन्ध हिमालय और माँ पार्वती से माना जाता है। हिमालयी क्षेत्र (गढ़वाल कुमाऊं ) उसका मायका और ,हिमालय, नंदा पर्वत ,कैलाश पर्वत उसका ससुराल माना जाता है। एशिया की सबसे कठिन व् बड़ी पैदल धार्मिक यात्रा नंदा राज जात इसी कहानी के आधार पर होती है। अर्थात नंदा को ससुराल छोड़ने की परम्परा को राज जात के रूप में मनाया जाता है।
नंदादेवी मंदिर का इतिहास
अल्मोड़ा में देवी की मूर्ति स्थापना के बारे में कहा जाता है,कि देवी नंदा की यह मूर्ति पहले गढ़वाल के जूनियागढ़ के किले में थी। सन 1617 के आस पास चंद राजा बाजबाहदुर चंद इस किले को जीतने के बाद ,इस मूर्ति को अल्मोड़ा ले आये। वहां मल्ला महल के अंदर एक मंदिर बनाकर इस मूर्ति को स्थापित कर दिया। और यहाँ इसकी रोज पूजा होने लगी और नंदा अष्टमी को इसका वार्षिकोत्सव मनाया जाता था। किन्तु सन 1815 में अंग्रेजों और गोरखों के संघर्ष में ,मल्ला महल के भवनों के साथ माँ नंदा देवी का मंदिर भी क्षतिग्रस्त हो गया। इस कारण नंदा का वार्षिक उत्सव शने शने कम हो गया। बाद में पूजा मात्र औपचारिकता रह गई। जनता ने अंग्रेजों से माँ नंदा के नए मंदिर के लिए काफी आग्रह किया लेकिन उन्होंने इसकी परवाह किये बिना 1832 में इसे पूर्णतः सिविल अधिकारियों का केंद्र बना दिया। कहते हैं कि अंग्रेजों के इस व्यवहार से देवी नंदा रुष्ट थी। तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर ट्रेल साहब ,पिंडारी -मिलम यात्रा पर थे तो, अचानक उनकी आँखों की रौशनी चली गई। पंडितों ने इसे देवी का प्रकोप कहकर ,उन्हें नए मंदिर की स्थापना का सुझाव दिया। इसके बाद नंदा देवी के वर्तमान परिसर में शिव मंदिर के साथ नंदा का मंदिर बनवाकर, मूर्ति को मल्लामहल से यहाँ लाकर प्रतिष्ठित किया गया। कहा जाता है कि ,इसके बाद आश्चर्यजनक रूप से ट्रेलसाहब के आँखों की रोशनी लौट आई थी। कहते है ,देवी की वर्तमान मूर्ति ,मूल मूर्ति नहीं है , जिसे राजा बाज बाहदुर चंद जूनागढ़ से लाये थे। अष्टधातु से निर्मित वह मूर्ति चोरी हो गई थी। उसके बाद चंद वंशीय आनदं सिंह ने माँ नंदा की नयी मूर्ति का निर्माण करवाया था। उसे यहाँ स्थापित करवाया था। वर्तमान में इसी मूर्ति का पूजन होता है। राज उद्योतचंद द्वारा 1690 -91 में बनाया गया उद्योत डीप चंद्रशेखर मंदिर वर्तमान में अल्मोड़ा का नंदादेवी मंदिर कहलाता है।
मां भगवती की 9 अंगभूत देवियों में से एक है देवी नंदा
रूप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रूपों में एक बताया गया है। मां भगवती की 9 अंगभूत देवियों में नंदा भी एक है। नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है। भविष्य पुराण में जिन दुर्गा के स्वरूपों का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्र मंडला, रेवती और हरसिद्धि हैं। शक्ति के रूप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं। नंदा देवी का मूल धाम चमोली के कुरुड़ गांव में है। बाद में कई जगह पर इनके मंदिर बनाए गए। नंदा के इस शक्ति रूप की पूजा गढ़वाल में तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है। अल्मोड़ा में माँ नंदा का मूल मंदिर है। जहां पर की बधाण गढ़ी से मां नंदा भगवती को स्थापित किया गया। बधाण गढ़ी में नंदा के मुख्य मंदिर कुरुड़ की नंदा देवी की मूर्ति स्थापित थी, जो कि अल्मोड़ा के राजा के आक्रमण व लूट के बाद अल्मोड़ा में बसाई गई।
नंदा देवी राज जात यात्रा
राजजात या नन्दाजात का अर्थ है राज राजेश्वरी नंदा देवी की यात्रा। गढ़वाल क्षेत्र में देवी देवताओं की “जात” यानि देवयात्रा बड़े धूमधाम से मनाई जाती है । लोक विश्वास है कि नंदा देवी हिंदी माह के भादो के कृष्ण पक्ष में अपने मायके पधारती है। कुछ दिन के पश्चात उन्हें अष्टमी के दिन मायके से विदा किया जाता है। राजजात या नंदा जात यात्रा देवी नंदा को अपने मायके से एक सजी संवरी दुल्हन के रूप में ससुराल जाने की यात्रा है। इस अवसर पर नंदा देवी को डोली में बिठाकर एवम् वस्त्र , आभूषण, खाद्यान्न, कलेवा, दूज, दहेज़ आदि उपहार देकर पारंपरिक रूप में विदाई दी जाती है। कुमाउनी और गढ़वाली लोग इस उत्सव को माँ नंदा को मायके से ससुराल के लिए विदाई के रूप में मानते है। नंदा देवी राज जात यात्रा हर बारह साल के अंतराल में एक बार आयोजित की जाती है। हज़ारो श्रद्धालु नंदा देवी राज जात में शामिल होते है और यात्रा की इस रस्म को बहुत ही हर्ष और उल्लास के साथ मनाते है।
नंदा देवी मेला
नंदा देवी का मेला हर साल भाद्र मास की नंदा अष्टमी के दिन आयोजित किया जाता है । पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं। पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है। यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से बनाई जाती हैं। मूर्ति का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नन्दादेवी के सद्वश बनाया जाता है। षष्ठी के दिन पुजारी गोधूलि के समय चन्दन, अक्षत एवं पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्त्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाते है। धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं। जो स्तम्भ पहले हिलता है उसे देवी नन्दा बनाया जाता है जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं। सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है। इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंद वंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है।मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है। इस दिन ब्रह्म मुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलाएं भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं। दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं। अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंद्रवंशी प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं। नवमी के दिन माँ नंदा और सुनंदा को डोलो में बिठाकर अल्मोड़ा और आसपास के क्षेत्रो में शोभायात्रा में निकाली जाती है। 3-4 दिन तक चलने वाले इस मेले का अपना एक धार्मिक महत्व है।