हिन्दू-मुस्लिम दोनों के पूज्य हैं रामसा पीर
- हिन्दुओं के लिए 'बाबा रामदेव', मुस्लिम समाज में 'रामसा पीर' कहलाएं
हिंदुस्तान में अनेक ऐसे महापुरूष हुए, जिन्होंने मानव देह धारण कर अपने कर्म और तप से लोक जीवन को आलोकित किया, जन साधारण को धर्म का मार्ग दिखाया है। उनके चरित्र और कर्म के चलते उन्हें आम जनमानस में लोक देवता की पदवी मिली और वे जन−जन में पूजे जाने लगे। ऐसे ही लोकदेवताओं में शुमार है बाबा रामदेव, जिनका मंदिर राजस्थान के जैसलमेर जिले के रामदेवरा में है। ये स्थान धार्मिक सद्भावना की जीती जागती मिसाल है। ये हिन्दू समाज में वे "बाबा रामदेव" एवं मुस्लिम समाज में "रामसा पीर" के नाम से पूजनीय हैं।
रामदेव जी के जन्म स्थान को लेकर मतभेद है, परन्तु इसमें सब एक मत है कि उनका समाधी स्थल रामदेवरा ही है। यहां वे मूर्ति स्वरूप में पूजे जाते हैं। कहते है रामदेवरा में उन्होंने जीवित समाधी ली थी और यहीं पर उनका भव्य मंदिर बना हुआ है। पूर्व में समाधी छोटे छतरीनुमा मंदिर में बनी थी। फिर वर्ष 1912 में बीकानेर के तत्कालीन शासक महाराजा गंगासिंह ने छतरी के चारों तरफ बड़े मंदिर का निर्माण कराया, जिसने शनः−शनः भव्य मंदिर का रूप ले लिया। बताया जाता है कि उस समय मंदिर के निर्माण में 57 हजार रूपये की लागत आई थी। बाबा की समाधि के सामने पूर्वी कोने में अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित रहती है। दर्शन द्वार पर लोहे का चैनल गेट लगाया गया है। दर्शनार्थी अपनी मनौती पूर्ण करने के लिए कपड़ा, मौली, नारियल आदि बांधते हैं तथा मनौती पूर्ण होने पर खोल देते हैं।
यह मंदिर हिन्दुओं एवं मुसलमानों दोनों की आस्था का प्रबल केन्द्र है। मंदिर में बाबा रामदेव की मूर्ति के साथ−साथ एक मजार भी बनी है। समाधि स्थल के पास ही रामदेवजी की परम भक्त शिष्या डाली बाई की समाधि और कंगन हैं। डाली बाई का कंगन पत्थर से बना है और इसके प्रति धर्मालुओं में गहरी आस्था है। मान्यता के अनुसार इस कंगन के अन्दर से होकर निकलने पर सभी प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। मंदिर आने वाले लोग इस कंगन के अन्दर से निकलने पर ही अपनी यात्रा पूर्ण मानते हैं।
मंदिर के समीप ही स्वयं रामदेव जी द्वारा खुदवाई गई परचा बावड़ी अपनी स्थापत्य कला में बेजोड़ है। इस बावड़ी का निर्माण फाल्गुन सुदी तृतीया विक्रम संवत् 1897 को पूर्ण हुआ। बावड़ी का जल शुद्ध व मीठा है। बावड़ी का निर्माण रामदेव जी के कहने पर बणिया बोयता ने करवाया था। बावड़ी पर लगे चार शिलालेखों से पता चलता है कि घामट गांव के पालीवाल ब्राह्मणों ने इसका पुनर्निर्माण कराया था। इस बावड़ी का जल रामदेवजी का अभिषेक करने के काम में लाया जाता है।
गांव के निवासियों को जल का अभाव न रहे इसलिए रामदेव जी ने मंदिर के पीछे विक्रम संवत् 1439 में रामसरोवर तालाब खुदवाया था। यह तालाब 150 एकड़ क्षेत्र में फैला है तथा इसकी गहराई 25 फीट है। तालाब के पश्चिमी छोर पर अद्भुत आश्रम तथा पाल के उत्तरी सिरे पर रामदेवजी की जीवित समाधी है। इसी क्षेत्र में डाली बाई की जीवित समाधी भी है।
रामदेवरा मंदिर से 2 किलोमीटर दूर पूर्व में निर्मित रूणीचा कुंआ (राणीसा का कुंआ) और एक छोटा रामदेव मंदिर भी दर्शनीय है। बताया जाता है कि रानी नेतलदे को प्यास लगने पर रामदेव जी ने भाले की नोक से इस जगह पाताल तोड़ कर पानी निकाला था और तब ही से यह स्थल "राणीसा का कुंआ" के नाम से जाना गया।
बाबा रामदेव के पिता अजमल जी किसी समय दिल्ली के सम्राट रहे एवं अनंगपाल तंवर के वंशज थे। बाद में वे आकर पश्चिमी राजस्थान में निवास करने लगे। अजमल जी द्वारिकाधीश के अनन्य भक्त थे। मान्यता है कि भगवान कृष्ण की कृपा से बाबा रामदेव का जन्म हुआ। बाबा रामदेव के लोक गीतों और कथाओं में भैरव राक्षस का वध, घोड़े की सवारी, लक्खी बनजारे का परचा, पांचों पीर का परचा, नेतलदे की अपंगता दूर करने आदि के उल्लेख बखूबी पाये जाते हैं। उनके घोड़े की श्रद्धा से पूजा की जाती है।
रामदेवजी ने तत्कालीन समाज में व्याप्त छूआछूत, जात−पांत का भेदभाव दूर करने तथा नारी व दलित उत्थान के लिए प्रयास किये। अमर कोट के राजा दलपत सोढा की अपंग कन्या नेतलदे को पत्नी स्वीकार कर समाज के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किया। दलितों को आत्मनिर्भर बनने और सम्मान के साथ जीने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने पाखण्ड व आडम्बर का विरोध किया। साथ ही सगुन−निर्गुण, अद्वैत, वेदान्त, भक्ति, ज्ञान योग, कर्मयोग जैसे विषयों की सहज व सरल व्याख्या की। आज भी बाबा की वाणी को "हरजस" के रूप में गाया जाता है।
पीरो के पीर रामसा पीर
बाबा रामदेव जी के 24 परचों में पंच पीपली भी प्रसिद्ध स्थल है। इस सम्बंध में प्रचलित कथानक के अनुसार, रामदेव जी की परीक्षा के लिए मक्का−मदीना से पांच पीर रामदेवरा आये और उनके अतिथि बने। भोजन के समय पीरों ने कहा कि वे स्वयं के कटोरे में ही भोजन करते हैं। रामदेव ने वहीं बैठे−बैठे अपनी दाई भुजा को इतना लम्बा फैलाया कि मदीना से उनके कटोरे वहीं मंगवा दिये। पीरों ने उनका चमत्कार देखकर उन्हें अपना गुरु (पीर) माना और यहीं से रामदेव जी का नाम रामसा पीर पड़ा और बाबा को "पीरो के पीर रामसा पीर" की उपाधी भी प्रदान की गई। इस घटना से मुसलमान इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भी इनकी पूजा करनी शुरू कर दी। रामदेवरा से पूर्व की ओर 10 किलोमीटर एकां गांव के पास छोटी सी नाडी के पाल पर घटित इस घटना के दौरान पीरों ने भी परचे स्वरूप पांच पीपली लगाई थी, जो आज भी मौजूद हैं।
दो बार होता है मेले का आयोजन
"म्हारो हेलो सुनो जी रामा पीर".....जैसे भजनों पर झूमते-नाचते हुए श्रद्धालु रामदेवरा पहुचते हैं। जैसलमेर में पोकरण से क़रीब 12 किलोमीटर दूर रामदेवरा में बाबा रामदेव का स्थान है जिन्हें कृष्ण भगवान का अवतार माना जाता है। उनकी अवतरण तिथि भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष द्वितीया को है और तब रामदेवरा मेला शुरू होता है। यह मेला एक महीने से अधिक चलता है। साल में दो बार रामदेवरा में भव्य मेलों का आयोजन किया जाता है। शुक्ल पक्ष में तथा भादवा और माघ में दूज से लेकर दशमी तक मेला भरता है। भादवा के महिने में राजस्थान के किसी सड़क मार्ग पर निकल जाएं, सफेद रंग की या पचरंगी ध्वजा को हाथ में लेकर सैंकड़ों जत्थे रामदेवरा की ओर जाते नजर आते हैं। इन जत्थों में सभी आयु वर्ग के नौजवान, बुजुर्ग, स्त्री−पुरूष और बच्चे पूरे उत्साह से बिना थके अनवरत चलते रहते हैं। यह जत्थे मीलों लम्बी यात्रा कर बाबा के दरबार में हाजरी लगाते हैं। साथ लेकर गये ध्वजाओं को मुख्य मंदिर में चढ़ा देते हैं। भादवा के मेले में महाप्रसाद बनाया जाता है। यहां आने वालों के लिए बड़ी संख्या में धर्मशालाएं और विश्राम स्थल बनाये गये हैं। सरकार की ओर से मेले में व्यापक प्रबंध किये जाते है। रात्रि को जागरणों के दौरान रामदेवजी के भोपे रामदेवजी की थांवला एवं फड़ बांचते हैं।