कोणार्क मंदिर में बारह चक्रों को खींच रहे सात घोड़े, भारत का है सर्वश्रेष्ठ स्थान, भगवान सूर्य की होती है पूजा-अर्चना
फस्र्ट वर्डिक्ट । सोलन
भारत एक महान देश है। यहां महान पुरुषों का ही आगमन नहीं हुआ अपितु महान कलाओं का निर्माण भी हुआ जो इतिहास के पन्नों पर सुनहरी अक्षरों में दर्ज हो गईं। हालांकि इन निर्माणों को बने सदियों बीत गईं, मगर इनकी आभा आज तक दमकती है। यही कारण है कि भारत का नाम विश्व के अग्रणी स्थानों में है। संस्कृति और संस्कारों के उदगम स्थल भारत ने समस्त विश्व को जीने की राह दिखाई। कला में ऐसे आयाम स्थापित किए कि विदेशी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। ओजस्वियों, ऋषि-मुनियों और मनीषियों की तपोस्थली भारत में अनेकों अनेक महापुरुषों का आगमन हुआ जिन्होंने समस्त विश्व को संस्कृति और संस्कारों का उपदेश दिया। फस्र्ट वर्डिक्ट अपने सुधी पाठकों को लगातार भारत की गौरव गाथा से अवगत करवाती जा रही है। हर सप्ताह भारत के उन ऐतिहासिक स्थानों पर प्रकाश डाला जा रहा है जो भारत की गौरव गाथा हैं। हालांकि आज डिजिटल इंडिया है और बहुत कुछ सोशल मीडिया में देखने को मिल रहा है बावजूद इसके भी फस्र्ट वर्डिक्ट बड़ी बारीकी से ऐसे स्थानों को प्रकाशित कर रही है। इसका मकसद भारतवासियों को संस्कृति और संस्कारों से जोड़े रखना है। इसी कड़ी में इस सप्ताह कोणार्क मंदिर पर प्रकाश डाला जा रहा है।
उड़ीसा में स्थित है कोणार्क मंदिर : कोणार्क मंदिर भारत के प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थलों में से एक है। यह उड़ीसा में स्थित है। यह जगन्नाथपुरी से पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पूर्व में स्थित है। सर्व प्रथम इस मंदिर को यूनेस्कों ने सन 1949 में विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी थी। यह मंदिर समुद्री तट पर स्थित है। यहां से राष्ट्रीय राजमार्ग 316 गुजरता है। यहां से चंद्रभागा नदी भी गुजरती है। पुरी के मदल पंजी के आंकड़ों के अनुसार और कुछ 1278 ई. के ताम्रपत्रों से पता चलता है कि राजा लांगूल नृसिंहदेव ने 1282 तक शासन किया। कई इतिहासकार इस मत के भी हैं कि कोणार्क मंदिर का निर्माण 1253 से 1260 ई. के बीच हुआ था। अतएव मंदिर के अपूर्ण निर्माण का इसके ध्वस्त होने का कारण होना तर्कसंगत नहीं है।
मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है : मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। बाएं मन्दिर का मूलरूप तथा अवशेष वर्तमान रूप जोकि हल्के पीले रंग में है। वहीं दाएं मंदिर का मूलरूप है। कोणार्क मंदिर का नामकरण कोण और अर्क शब्द से हुआ है। अर्क का अर्थ सूर्य है और कोण का अर्थ कोना या किनारा होता है। कोणार्क मंदिर का निर्माण लाल पत्थरों और ग्रेनाइट पत्थरों से हुआ है। इसे 1236-1264 ईसा पूर्व गंग वंश के तत्कालीन सामंत राजा नृसिंहदेव द्वारा बनवाया गया था। यह मन्दिर, भारत के सबसे प्रसिद्ध स्थलों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण कलिंग शैली में किया गया और भगवान सूर्य को रथ के रूप में विराजमान किया गया है। पत्थरों पर उत्कृष्ट नक्काशी की गई है।
बारह जोड़ी चक्रों को खींच रहे हैं सात घोड़े : सम्पूर्ण मंदिर स्थल को बारह जोड़ी चक्रों के साथ सात घोड़ों से खींचते हुए निर्मित किया गया है। इनमें सूर्य देव को विराजमान दिखाया गया है। मगर वर्तमान में सातों में से एक ही घोड़ा बचा हुआ है। ये बारह चक्र साल के बारह महीनों के प्रतीक हैं। ेप्रत्येक चक्र आठ अरों यानी पहररों से मिल कर बना है, जो अर दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं। स्थानीय लोग प्रस्तुत सूर्य भगवान को बिरंचि-नारायण कहते थे।
द्वार पर दो सिंह आक्रामक रूप से हाथियों पर हैं सवार : इसके द्वार पर दो सिंहों को आक्रामक रूप से रक्षा में तत्पर दिखाया गया है। दोनों हाथी एक-एक मानव के ऊपर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनीं हैं। ये 28 टन की 8.4 फीट लंबी 4.9 फीट चौड़ी तथा 9.2 फीट ऊंची हैं। मंदिर के दक्षिणी भाग में दो सुसज्जित घोड़े बने हैं, जिन्हें उड़ीसा सरकार ने अपने राजचिह्न के रूप में अंगीकार कर लिया है। ये 10 फीट लंबे व 7 फीट चौड़े हैं। मंदिर सूर्य देव की भव्य यात्रा को दिखाता है। इसके के प्रवेश द्वार पर ही नट मंदिर है। ये वह स्थान है, जहां मंदिर की नर्तकियां, सूर्यदेव को अर्पण करने के लिये नृत्य किया करतीं थीं। पूरे मंदिर में जहां तहां फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की नक्काशी की गई है। इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की अकृतियां भी एन्द्रिक मुद्राओं में दर्शित हैं। इनकी मुद्राएं कामुक हैं और कामसूत्र से लीं गईं हैं। मंदिर अब अंशिक रूप से खंडहर में परिवर्तित हो चुका है। यहां की शिल्प कलाकृतियों का एक संग्रह, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सूर्य मंदिर संग्रहालय में सुरक्षित है। महान कवि व नाटकार रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस मन्दिर के बारे में लिखा है कि कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है। यहां की स्थापत्यकला वैभव एवं मानवीय निष्ठा का सौहार्दपूर्ण संगम है। मंदिर की प्रत्येक इंच, अद्वितीय सुंदरता और शोभा की शिल्पाकृतियों से परिपूर्ण है। इसके विषय भी मोहक हैं, जो सहस्रों शिल्प आकृतियां भगवानों, देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वाद्यकों, प्रेमी युगलों, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के चित्रों से भरी हैं। इनके बीच बीच में पशु-पक्षियों और पौराणिक जीवों के अलावा महीन और पेचीदा बेल बूटे तथा ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। उडिय़ा शिल्पकला की हीरे जैसी उत्कृष्त गुणवत्ता पूरे परिसर में अलग दिखाई देती है।
कामुक मुद्राओं की शिल्प आकृति : यह मंदिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है।इस प्रकार की आकृतियां मुख्यत: द्वारमंडप के द्वितीय स्तर पर मिलती हैं। इस आकृतियों का विषय स्पष्ट किंतु अत्यंत कोमलता एवं लय में संजो कर दिखाया गया है। जीवन का यही दृष्टिकोण, कोणार्क के अन्य सभी शिल्प निर्माणों में भी दिखाई देता है। हजारों मानव, पशु एवं दिव्य लोग इस जीवन रूपी मेले में कार्यरत हुए दिखाई देते हैं, जिसमें आकर्षक रूप से एक यथार्थवाद का संगम किया हुआ है। यह उड़ीसा की सर्वोत्तम कृति है। इसकी उत्कृष्ट शिल्प-कला, नक्काशी, एवं पशुओं तथा मानव आकृतियों का सटीक प्रदर्शन, इसे अन्य मंदिरों से कहीं बेहतर सिद्ध करता है।
एक कथा के अनुसार, गंग वंश के राजा नृसिंह देव प्रथम ने अपने वंश का वर्चस्व सिद्ध करने हेतु, राजसी घोषणा से मंदिर निर्माण का आदेश दिया। बारह सौ वास्तुकारों और कारीगरों की सेना ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा और ऊर्जा से परिपूर्ण कला से बारह वर्षों की अथक मेहनत से इसका निर्माण किया। राजा ने पहले ही अपने राज्य के बारह वर्षों की कर-प्राप्ति के बराबर धन व्यय कर दिया था। लेकिन निर्माण की पूर्णता कहीं दिखायी नहीं दे रही थी। तब राजा ने एक निश्चित तिथि तक कार्य पूर्ण करने का कड़ा आदेश दिया। बिसु महाराणा के पर्यवेक्षण में इस वास्तुकारों की टीम ने पहले ही अपना पूरा कौशल लगा रखा था। तब बिसु महाराणा का बारह वर्षीय पुत्र, धर्म पाद आगे आया। उसने तब तक के निर्माण का गहन निरीक्षण किया, हालांकि उसे मंदिर निर्माण का व्यवहारिक ज्ञान नहीं था, परन्तु उसने मंदिर स्थापत्य के शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन किया हुआ था। उसने मंदिर के अंतिम केन्द्रीय शिला को लगाने की समस्या सुझाव का प्रस्ताव दिया। उसने यह करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। लेकिन इसके तुरन्त बाद ही इस विलक्षण प्रतिभावान का शव सागर तट पर मिला। कहते हैं, कि धर्मपाद ने अपनी जाति के हितार्थ अपनी जान तक दे दी। यहां पर मन्दिर की ध्वस्तता के सम्पूर्ण कारणों का उल्लेख करना जटिल कार्य से कम नहीं है। परन्तु यह सर्वविदित है कि अब इसका काफी भाग ध्वस्त हो चुका है, जिसके मुख्य कारण वास्तु दोष भी कहा जाता है परन्तु मुस्लिम आक्रमणों की भूमिका अहम रही है। कोर्णार्क मंदिर के गिरने से संबंधी एक अति महत्वपूर्ण सिद्धांत, कालापहाड़ से जुड़ा है। उड़ीसा के इतिहास के अनुसार कालापहाड़ ने सन 1508 में यहां आक्रमण किया और कोणार्क मंदिर समेत उड़ीसा के कई हिन्दू मंदिर ध्वस्त कर दिए। पुरी के जगन्नाथ मंदिर के मदन पंजी बताते हैं कि कैसे कालापहाड़ ने उड़ीसा पर हमला किया। कोणार्क मंदिर सहित उसने अधिकांश हिन्दू मंदिरों की प्रतिमाएं भी ध्वस्त करीं। हालांकि कोणार्क मंदिर की 20-25 फीट मोटी दीवारों को तोडऩा असम्भव था, उसने किसी प्रकार से दधिनौति (मेहराब की शिला) को हिलाने का प्रयोजन कर लिया, जो कि इस मंदिर के गिरने का कारण बना। दधिनौति के हटने के कारण ही मन्दिर धीरे-धीरे गिरने लगा तथा छत से भारी पत्थर गिरने से, मूकशाला की छत भी ध्वस्त हो गई। उसने यहाँ की अधिकांश मूर्तियां और कोणार्क के अन्य कई मंदिर भी ध्वस्त कर दिए। कई कथाओं के अनुसार, सूर्य मन्दिर के शिखर पर एक चुम्बकीय पत्थर लगा है। इसके प्रभाव से, कोणार्क के समुद्र से गुजरने वाले सागरपोत, इस ओर खिंचे चले आते हैं, जिससे उन्हें भारी क्षति हो जाती है। अन्य कथा अनुसार, इस पत्थर के कारण पोतों के चुम्बकीय दिशा निरूपण यंत्र सही दिशा नहीं बताते। इस कारण अपने पोतों को बचाने हेतु, मुस्लिम नाविक इस पत्थर को निकाल ले गये। यह पत्थर एक केन्द्रीय शिला का कार्य कर रहा था, जिससे मंदिर की दीवारों के सभी पत्थर संतुलन में थे। इसके हटने के कारण, मंदिर की दीवारों का संतुलन खो गया और परिणामत: वे गिर पड़ीं, परन्तु इस घटना का कोई ऐतिहासिक विवरण नहीं मिलता, ना ही ऐसे किसी चुम्बकीय केन्द्रीय पत्थर के अस्तित्व का कोई ब्यौरा उपलब्ध है।