क्या है सती से शैलपुत्री बनने की कहानी
माता शैलपुत्री जिन्हें सती के नाम से भी जाना जाता है, वह भगवन शिव की अर्धांगिनी थी। प्रजापति दक्ष की पुत्री सती वास्तव में माँ दुर्गा का रूप थीं। ब्रम्हपुत्र दक्ष देवी दुर्गा कि तपस्या किया करते थे, तपस्या से प्रसन्न देवी दुर्गा ने उन्हें एक वरदान मांगने को कहा। वरदान में दक्ष ने देवी को पुत्री के रूप में पाने की इच्छा जताई। माँ दुर्गा ने दक्ष का यह वरदान स्वीकार किया व स्वयं दक्ष के यहाँ पुत्री बन सती के रूप में जन्म लिया। सती दक्ष 24 पुत्रियों में सबसे छोटी व लाडली थीं।
सती मन ही मन भगवान् शिव को प्रेम करती थी यह बात राजा दक्ष को स्वीकार न थी। उनका कहना था कि सती महलों कि रहने वाली हैं व उनका विवाह किसी साधू अघोरी से कतापि नहीं हो सकता। वह भगवान् शिव के रहें-सेहेन व उनकी वेश-भूषा को न-पसंद करते थे। सती मन ही मन शिव को पती मान चुकी थीं इसके बावजूद दक्ष ने सती का स्वयंवर करवा कर उनका विवाह किसी और से करने का प्रयास किया। स्वयंवर में उन्होंने सभी देवों को आमंत्रित किया परन्तु भगवान् शिव को नहीं बुलाया। इसके अलावा उन्होंने शिव का मज़ाक बनाने के लिए उनकी प्रतिमा वहां रखवाई। ऐसे मोई माता सटी ने भगवन शिव कि प्रतिमा को वर-माला पहना कर उन्हें सबके सामने स्वीकार किया। इसके बाद सती का अपने लिए प्रेम देखते हुए भगवन शिव ने भी सती को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकारा व उन्हें ले कर अपने कैलाश वास चले गए।
सती एवं शिव के विवाह से अप्रसन्न प्रजापति दक्ष मन से कभी भी शिवशंकर भगवान् को अपना दामाद स्वीकार न कर सके। विवाह के कुछ समय पश्चात राजा दक्ष ने अपने महल में यज्ञ करवाया जहाँ उन्होंने सभी देवतागणों को आमंत्रित किया। माता सती की परिकल्पना थी कि उनके पिता उन्हें ज़रूर आमंत्रित करेंगे व वह अपने परिवार से मिलने की भी इच्छुक थीं। शिव को नीचा दिखाने की उद्देश्य से राजा दक्ष ने सभी देवताओं को बुलाया परन्तु शिव-सती को निमंत्रण नहीं भेजा। सती परिवार से मिलने की इच्छुक थी व भगवन शिव से वहां जाने की अनुमती मांगी। शिव जी को उनका वहां जाना उचित न लगा परन्तु सती केलगातार आग्रह करने के बाद शिव ने उन्हें अनुमती दी।
सती जब यज्ञस्थल पर पहुंचीं तो वह बहुत उत्सुक थीं परन्तु उनके पिता दक्ष व अन्य परिवार सदस्यों ने उन्हें अपमानित किया। उनकी माँ ने उन्हें सादर प्रेम से गले लगाया परन्तु उनकी बहनें उनका विवाह शिव से होने के कारण उनका मज़ाक बनाती रहीं। सती से किसी ने बात भी न की, जैसे वह लोग उन्हें जानते ही न हों। इसके बाद भी सती ने पिता से बात करने का प्रयास किया व उनसे शिव को आमंत्रित न करने की वजह पूछी। जिसके जवाब में दक्ष ने कहा -
"तुम्हारा पति श्मशान वासी है, उसे बुलाना अशुभ है। मैंने इस यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया है। तुम्हारा पति कोई देवता नहीं है, वह तो भूतों का राजा है। उसे इस यज्ञ में बुलाने से हमारा क्या लाभ। शिव रूण्ड मुंडों की माला पहनता है, चिता की भस्म लगाता है, भूतों प्रेतों के बीच रहता है, भला उसका यज्ञ में क्या काम।"
यह सुन कर सती माता बहुत उदास हुईं व उन्होंने अपने पिता से उनके पती का अपमान न करने का आग्रह किया। इसके बाद भी जब दक्ष ने यह सब कहना बंद नहीं किया तो माता सती ने वह किया जसिकी कल्पना खुद राजा दक्ष ने नहीं की थी। सती ने उसी यज्ञ अग्नि में अपने प्राणों की आहुति दे दी। सती की मृत्यु की खबर से क्रोधित शिव ने राजा दक्ष का संहार किया। शिव अपनी पत्नी सती से बहुत प्रेम करते थे जिसके बाद माता सती का पुनर्जन्म राजा हिमाचल के यहाँ हुआ। राजा हिमाचा ने उनका नाम शैलपुत्री रखा जिन्हें पर्वतों के राजा की पुत्री होने के कारण पार्वती भी कहा जाता है। इसके बाद शिव का पुनर्विवाह माता शैलपुत्री यानि पार्वती से हुआ।
माता शैलपुत्री का वाहन वृषभ है इसलिए इन्हें वृषारूढ़ा भी कहा जाता है। इनके बाएं हाथ में कमल और दाएं हाथ में त्रिशूल रहता है। इनका वास काशी मेंवाराणसी में माना जाता है। पती के मान-सम्मान के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली माँ शैलपुत्री के बारे में कहा जाता है कि नवरात्र के पहले दिन यानि प्रतिपदा को जो भी भक्त मां शैलपुत्री के दर्शन करता है उसके सारे वैवाहिक जीवन के कष्ट दूर हो जाते हैं।